मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग तीन) खंड पाँच
चलो, पौलुस के बारे में चर्चा करते हुए बात को जारी रखते हैं। पौलुस किस तरह के परिवार में पैदा हुआ था? वह एक बौद्धिक परिवार, एक पढ़े-लिखे परिवार में पैदा हुआ था। वह ऐसे परिवार में पैदा हुआ था और उसके जन्म की पृष्ठभूमि अच्छी मानी जाती थी। वह उच्च शिक्षित था। वर्तमान मानकों के अनुसार वह धर्मशास्त्र का अध्ययन करने वाला या विश्वविद्यालयी शिक्षा ग्रहण करने वाला व्यक्ति हो सकता था। तो क्या उसका ज्ञान और शिक्षा अधिकांश लोगों से बेहतर थी? (हाँ।) पौलुस के ज्ञान और शिक्षा को देखते हुए, क्या उसके लिए यह पहचानना आसान था कि प्रभु यीशु मसीह था? (हाँ, ऐसा ही था।) ऐसा करना बहुत आसान था। लेकिन उसने प्रभु यीशु को मसीह के रूप में क्यों नहीं पहचाना? (वह ज्ञान का उपासक था और महसूस करता था कि प्रभु यीशु उसके जितना ज्ञानी नहीं था, इसीलिए उसने प्रभु यीशु को नहीं पहचाना।) इसे इस तरह से कहना बहुत आसान है। यदि प्रभु यीशु उसके जितना ज्ञानी नहीं होता, तो पौलुस उसे पहचान नहीं पाता। यदि प्रभु यीशु के पास वास्तव में ज्ञान होता, तो पौलुस उसे पहचान सकता था। यह थोड़ा-सा आंशिक-अनुमान है। अब हम केवल यह कहें कि मसीह-विरोधी ज्ञान की आराधना करते हैं; यानी जब वे लोगों की बात सुनते हैं और लोगों और मामलों से निपट रहे होते हैं, तो उनके पास एक दृष्टिकोण होता है जिससे दूसरों को यह दिख जाता है कि वे ज्ञान और शिक्षा की आराधना करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारे शब्द बहुत तार्किक, उच्च-स्तरीय, चतुर, अथाह और सारगर्भित हैं, तो यही वे गुण हैं जो एक मसीह-विरोधी पसंद करता है। सारगर्भित होने के साथ-साथ तार्किक, दार्शनिक और यहाँ तक कि एक निश्चित शिक्षा के अनुरूप हों—यही तो वह चाहता है। प्रभु यीशु परमेश्वर का देहधारी है और वह जो कुछ भी बोलता है वे सब परमेश्वर के वचन और सत्य हैं। तो ज्ञानी और शिक्षित लोग जब इन वचनों और सत्यों को देखते हैं तो वे उनका मूल्यांकन कैसे करते हैं? “तुम्हारे द्वारा बोले गए शब्द बहुत ही अशिष्ट और सतही हैं। परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में ये सभी तुच्छ बातें हैं। वे न तो गहन हैं और न ही अथाह। उनमें कोई रहस्य नहीं हैं। फिर भी तुम कहते हो कि वे सत्य हैं। सत्य में इतनी बड़ी बात क्या है? ये बातें तो मैं भी कह सकता हूँ!” क्या मसीह-विरोधी इन पर विश्वास नहीं करते? (हाँ, वे विश्वास नहीं करते।) वे इस तरह इनका महत्व कम कर देते हैं और सोचते हैं, “मुझे देखने दो कि तुम जिन चीजों के बारे में बात कर रहे हो वे आखिर मेरे ज्ञान से ऊँची हैं या नीची।” वे जैसे ही परमेश्वर के वचनों और सत्यों को सुनते हैं, चुनौती देते हुए कहते हैं, “तुम प्राथमिक विद्यालय के छात्र जैसे लगते हो। मैं महाविद्यालय का छात्र हूँ, इसलिए तुम मेरे जितने अच्छे नहीं हो!” फिर वे परमेश्वर के वचनों में कुछ दोष ढूँढ़ते हुए कहते हैं, “ऐसा लगता है कि तुम व्याकरण नहीं समझते और बोलते समय तुम जो शब्द इस्तेमाल करते हो कभी-कभी वे उचित नहीं होते। तुम परमेश्वर जैसे तो नहीं लगते।” वह परमेश्वर है या नहीं, यह देखने के लिए वे उसकी शक्ल-सूरत देखते हैं; वे उसके वचनों का कथ्य नहीं सुनते, वे यह नहीं सुनते कि जो व्यक्त किया गया है वह सत्य है या नहीं या ये वचन परमेश्वर की ओर से आए हैं या नहीं। क्या यह आध्यात्मिक समझ की कमी नहीं है? (हाँ, यह ऐसा ही है।) इसका मतलब हुआ कि मसीह-विरोधियों का एक और लक्षण होता है : उनमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है। चूँकि वे ज्ञान और सीखने को महत्त्व देते हैं, इसलिए वे सत्य नहीं समझते। वे कभी भी सत्य नहीं समझ पाएँगे। उनकी नियति में आध्यात्मिक समझ की कमी वाले लोग होना ही बदा है। वे परमेश्वर द्वारा बोले गए प्रत्येक वाक्य को तौलने के लिए अपने ज्ञान का उपयोग करते हैं। क्या वे सत्य समझ सकते हैं? क्या वे जान सकते हैं कि यह सत्य है? क्या वे अंततः किसी निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं और कह सकते हैं कि परमेश्वर द्वारा कहे गए ये सभी वचन सत्य हैं? क्या वे उन्हें पहचान सकते हैं? वे उन्हें नहीं पहचान सकते। तो, वे अपनी नजर में देहधारी परमेश्वर को किस तरह देखते हैं? वे सोचते हैं, “मैं इसे चाहे जैसे देखूँ, है तो वह मनुष्य ही। मैं इसे कैसे भी देखूँ, इसमें मैं परमेश्वर के गुण नहीं देख सकता। मैं इसे कैसे भी सुनूँ, मैं यह नहीं बता सकता कि उसके कौन-से वचन सत्य के अनुरूप हैं और कौन-से वचन सत्य हैं।” इसलिए अपने दिल की गहराई में वे सोचते हैं : “यदि तुम्हारे पास कुछ नया और ताजा है और मैं तुमसे कुछ सिद्धांत हासिल कर सकता हूँ, और तुमसे कुछ पूँजी जुटा सकता हूँ, तो मैं अभी तुम्हारा अनुसरण करूँगा और देखूँगा कि क्या परिणाम निकलता है।” लेकिन क्या वे अपने दिल की गहराई से प्रभु यीशु को स्वीकार सकते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते।) वे उसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे। वे उसे स्वीकार क्यों नहीं करते? इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि उन्हें ज्ञान बहुत पसंद है। उनकी पसंद और वह ज्ञान जिससे वे लैस हैं और जिसे उन्होंने सीखा है, उनकी आँखों और उनके दिमाग को अंधा कर देता है, उन्हें वह सब देखने से रोकता है जो परमेश्वर ने किया है। यहाँ तक कि परमेश्वर जो कहता है वह स्पष्ट रूप से सत्य हो तो भी, परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य स्पष्ट रूप से परमेश्वर की पहचान और सार को व्यक्त करता हो तो भी, वे इसे नहीं देख सकते। वे इसे क्यों नहीं देख सकते? क्योंकि उनका ज्ञान और शिक्षा उन्हें परमेश्वर के बारे में धारणाओं, कल्पनाओं और निर्णयों से भर देते हैं। अंत में, वे चाहे जैसे उपदेश सुनें या परमेश्वर के संपर्क में आएँ, वे परमेश्वर की कही बातों को समझ नहीं पाते, यह स्वीकारना तो दूर की बात है कि इस व्यक्ति ने जो कुछ कहा है वह लोगों को बदल सकता है या यही सत्य, मार्ग और जीवन है। यह कुछ ऐसी बात है जिसे वे कभी स्वीकार नहीं कर सकते। वे इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकते जिससे यह नियत हो जाता है कि ठीक पौलुस की ही तरह वे भी बचाए नहीं जाएँगे। क्या पौलुस ने स्वीकार किया कि प्रभु यीशु मसीह था? उसने अंत में भी यह बात स्वीकार नहीं की। कुछ लोग कहते हैं : “जब वह दमिश्क के रास्ते पर गिराया गया था, तो क्या उसने प्रभु को नहीं पुकारा था? उसने स्वीकार कर लिया होगा। यह कैसे कहा जा सकता है कि उसने स्वीकार नहीं किया?” एक तथ्य यह साबित करता है कि पौलुस ने कभी भी प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारक नहीं माना। यानी, जब वह गिराया गया था, तब भी वह मसीह बनने की कोशिश करता रहा। क्या मसीह होना कुछ ऐसा है कि कोई भी आसानी से मसीह बन जाए? मसीह मनुष्य के रूप में देहधारी परमेश्वर है। वह परमेश्वर है और कोई भी व्यक्ति मात्र इसलिए मसीह नहीं बन सकता क्योंकि वह मसीह बनना चाहता है। कौन मसीह नहीं बनना चाहता, लेकिन क्या यह कुछ ऐसा है जो मनुष्य कर सकता है? यह लोगों की इच्छा का मामला नहीं है। पौलुस भी मसीह बनना चाहता था। पौलुस के अनुसरण को देखें, तो क्या वह पहचान सका था कि प्रभु यीशु मसीह और प्रभु है? (नहीं, वह नहीं पहचान सका था।) फिर उसने प्रभु यीशु की पहचान और स्थिति को किस रूप में ग्रहण किया? परमेश्वर के पुत्र के रूप में। परमेश्वर का पुत्र क्या है? इसका मतलब है कि “तुम परमेश्वर नहीं हो, तुम परमेश्वर के एक पुत्र हो, तुम परमेश्वर से छोटे हो, तुम हमारे जैसे ही हो; हम परमेश्वर के पुत्र हैं और तुम भी परमेश्वर के एक पुत्र हो, लेकिन परमेश्वर ने तुम्हें एक अलग आदेश दिया है और तुमने अलग कार्य किया है। यदि परमेश्वर यह काम मुझे देता, तो मैं इसे कर सकता था और इसे सहन भी कर सकता था।” क्या इसका मतलब यह नहीं है कि पौलुस ने इस तथ्य को स्वीकार ही नहीं किया कि प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर है? (हाँ, इसका यही अर्थ है।) उसका मानना था कि उसके विश्वास का परमेश्वर स्वर्ग में है, कि यह मसीह परमेश्वर नहीं है और परमेश्वर की पहचान और स्थिति का इस मसीह से कोई संबंध नहीं है। प्रभु यीशु के प्रति उसकी समझ और रवैया कैसे विकसित हुए? वे उसके ज्ञान और कल्पनाओं से निकाले गए निष्कर्ष थे। उसने ये निष्कर्ष कैसे निकाले? उसने उन्हें किस वाक्य में देखा? प्रभु यीशु ने कहा था, “मेरा पिता ऐसा या वैसा है,” और “मैं स्वर्ग में स्थित मेरे पिता के द्वारा यह सब करता हूँ,” और उसने यह सुना और सोचा, “क्या तुम भी परमेश्वर को परमेश्वर कहते हो? क्या तुम भी स्वर्ग में स्थित परमेश्वर को पिता कहते हो? तो क्या तुम परमेश्वर के एक पुत्र हो?” क्या यह मानव मस्तिष्क की कल्पना नहीं है? यह ज्ञानी लोगों का निकाला हुआ निष्कर्ष है : “यदि तुम स्वर्ग में स्थित परमेश्वर को पिता कहते हो और हम भी उसे पिता कहते हैं, तो हम भाई हैं। तुम सबसे बड़े पुत्र हो, हम दूसरे पुत्र हैं और स्वर्ग में स्थित परमेश्वर हमारा साझा परमेश्वर है। इसलिए तुम परमेश्वर नहीं हो और हम सभी एक समान स्तर पर हैं। इसीलिए यह प्रभु यीशु मसीह नहीं है जो अंततः यह तय करता हो कि किसे पुरस्कृत किया जाए, किसे दंडित किया जाए और उनका अंतिम परिणाम क्या होगा—यह स्वर्ग में स्थित परमेश्वर है।” पौलुस के ये निष्कर्ष और बेतुके दृष्टिकोण सभी धर्मशास्त्रों के अध्ययन और ज्ञानार्जन के बाद विश्लेषण और न्याय करने में अपने दिमाग का उपयोग करने से हासिल हुए थे। उन सारी बातों का यह परिणाम था।
पौलुस ज्ञान को जीवन रक्षक तिनका, अपनी पूँजी और उससे भी अधिक अपना लक्ष्य मानता था। यदि पौलुस ने ज्ञान की उपासना न की होती, बल्कि अपने पहले से अर्जित ज्ञान को त्याग दिया होता, प्रभु यीशु को अनुसरणीय और सत्य व्यक्त कर सकने वाले प्रभु के रूप में माना होता और प्रभु यीशु के वचनों को पालन और अभ्यास करने योग्य सत्य के रूप में माना होता—तो परिणाम अलग होता। पतरस ने तीन बार प्रभु को नकार दिया, एक तो इसलिए कि वह डर गया था और दूसरी बात यह कि उसने देखा कि प्रभु यीशु साधारण व्यक्ति था जिसे गिरफ्तार किया गया था और वह पीड़ा भोग रहा था। उसके दिल में कमजोरी थी—यह कोई घातक दोष नहीं था। न ही यह घातक दोष था कि उसने एक पल के लिए प्रभु को नकार दिया। यह ऐसा सबूत नहीं है, जो अंततः किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित कर सकता हो। वह क्या चीज है जो अंततः लोगों का परिणाम निर्धारित करती है? वह बात यह है कि क्या वे परमेश्वर के वचनों को परमेश्वर के वचनों के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, उनका सत्य के रूप में पालन और अभ्यास कर सकते हैं। पौलुस और पतरस दो पूरी तरह से अलग उदाहरण हैं। पतरस एक मौके पर कमजोर था, उसने एक बार प्रभु को नकार दिया और एक बार प्रभु पर संदेह किया, लेकिन अंतिम परिणाम यह था कि पतरस को पूर्ण बनाया गया। पौलुस ने प्रभु के लिए काम किया और कई वर्षों तक कष्ट सहे। यह तर्कसंगत बात है कि उसे मुकुट मिलना चाहिए था, लेकिन उसे अंत में परमेश्वर द्वारा दंडित क्यों होना पड़ा? उसके और पतरस के अंतिम परिणाम अलग-अलग क्यों थे? यह किसी व्यक्ति के प्रकृति सार और उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग पर निर्भर करता है। पौलुस का प्रकृति सार क्या था? उसमें कम से कम दुष्टता का एक तत्व तो था। उसने ज्ञान और रुतबा पाने के लिए पागलों की तरह प्रयास किया, वह पुरस्कारों और मुकुट का पीछा करता रहा और इधर-उधर भागता रहा, काम करता रहा और सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण किए बिना उस मुकुट के लिए कीमत चुकाता रहा। इसके अलावा अपने कार्य के दौरान उसने कभी भी प्रभु यीशु के वचनों की गवाही नहीं दी, न ही उसने यह गवाही दी कि प्रभु यीशु मसीह है, परमेश्वर है या देहधारी परमेश्वर है, कि प्रभु यीशु परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है और वह जो भी वचन बोलता है वे परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन हैं। पौलुस इन बातों को समझ नहीं पाया। तो पौलुस ने कौन-सा मार्ग चुना? उसने हठपूर्वक ज्ञान और धर्मशास्त्र का अनुसरण किया, सत्य का प्रतिरोध किया, सत्य स्वीकारने से मना किया और अपने रुतबे का प्रबंधन करने, उसे बनाए रखने और स्थिर करने के कामों में अपनी खूबियों और ज्ञान का उपयोग किया। उसका अंतिम परिणाम क्या रहा? शायद तुम बाहर से यह नहीं देख सकते कि मृत्यु से पहले उसे क्या सजा मिली थी या क्या उसकी कोई असामान्य अभिव्यक्ति थी, लेकिन उसका अंतिम परिणाम पतरस से अलग था। यह “अंतर” किस बात पर निर्भर करता था? एक बात है व्यक्ति का प्रकृति सार और दूसरी है वह मार्ग जो वे अपनाते हैं। प्रभु यीशु के प्रति पौलुस के रवैये और दृष्टिकोण के संबंध में उसका प्रतिरोध सामान्य लोगों के प्रतिरोध से किस प्रकार अलग था? साथ ही पौलुस द्वारा प्रभु को नकारने और खारिज करने और पतरस द्वारा परमेश्वर के नाम को नकारने और कमजोरी और भय के कारण प्रभु को पहचानने में तीन बार विफल रहने के बीच क्या अंतर है? पौलुस ने अपना कार्य करने के लिए ज्ञान, शिक्षा और अपनी खूबियों का उपयोग किया। उसने सत्य का बिल्कुल भी अभ्यास नहीं किया, न ही उसने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण किया। इसलिए क्या तुम उसके इधर-उधर भाग-दौड़ करते हुए काम करने के दौरान या उसके पत्रों में उसकी कमजोरी देख पाए? तुम नहीं देख पाए, है न? उसने बार-बार लोगों को सिखाया कि क्या करना है और पुरस्कार, मुकुट और एक अच्छी मंजिल पाने के प्रयास करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। उसके पास सत्य का अभ्यास करने में कोई अनुभवजन्य ज्ञान या अनुभव नहीं था। दूसरी ओर, पतरस अपने कार्य बिना शोर-शराबे के करता था। उसके पास वे गहन सिद्धांत या प्रसिद्ध पत्र नहीं थे। अलबत्ता उसके पास सत्य की थोड़ी वास्तविक समझ और अभ्यास था। यद्यपि उसने अपने जीवन में कमजोरी और भ्रष्टाचार का अनुभव किया था, पर कई परीक्षणों के बाद उसने परमेश्वर के साथ जो रिश्ता बनाया वह मनुष्य और परमेश्वर के बीच का रिश्ता था, जो पौलुस से बिल्कुल अलग था। हालाँकि पौलुस ने काम किए, लेकिन उसने जो कुछ भी किया उसका परमेश्वर से कोई मतलब नहीं था। उसने परमेश्वर के वचनों, उसके कार्य, उसके प्यार या उसके द्वारा मानवजाति के उद्धार की गवाही नहीं दी और लोगों के प्रति परमेश्वर के इरादों या उसकी अपेक्षाओं के बारे में तो बिल्कुल गवाही नहीं दी। उसने लोगों को अक्सर यह भी बताया कि प्रभु यीशु परमेश्वर का पुत्र था, जिसके कारण अंततः लोगों ने परमेश्वर को त्रिएकता के रूप में देखना शुरू कर दिया। “त्रिएकता” शब्द की उत्पत्ति पौलुस से हुई। यदि “पिता और पुत्र” जैसी कोई चीज न हो, तो क्या “त्रिएकता” का होना संभव है? नहीं संभव है। मानवीय कल्पनाएँ कुछ ज्यादा ही “समृद्ध” हैं। अगर तुम परमेश्वर के देहधारण को नहीं समझ सकते, तो आँख मूँदकर फैसला न सुनाओ या आँख मूँदकर निर्णय न लो। बस प्रभु यीशु के वचनों को सुनो और उसे परमेश्वर के रूप में मानो, जैसे कि परमेश्वर देह में प्रकट होकर मनुष्य बन गया हो। इस तरह से व्यवहार करना अधिक वस्तुनिष्ठ है।
परमेश्वर के कार्य के इस चरण में जब पहली बार उसके स्त्री रूप में देहधारण की गवाही सामने आई, तो बहुत-से लोग इसे स्वीकार नहीं कर पाए और इसी पर अटक गए। उन्हें लगा कि “बोले जा रहे सभी शब्द सत्य हैं, जो काम किया जा रहा है वह शब्दों के द्वारा न्याय का कार्य है—ये चीजें परमेश्वर के कार्य की तरह लगती हैं और मैं स्वीकार कर सकता हूँ कि यह व्यक्ति देहधारी परमेश्वर है—बस इतनी-सी बात है कि परमेश्वर के इस लिंग को स्वीकार करना आसान नहीं है।” लेकिन चूँकि ये सभी वचन सत्य हैं, इसलिए वे थोड़ी अनिच्छा के साथ उसे स्वीकारते हैं और अपने हृदय में सोचते हैं, “मैं पहले उसका अनुसरण करूँगा और देखूँगा कि क्या वह वास्तव में परमेश्वर है”—बहुत-से लोगों ने इस तरह से अनुसरण किया। परमेश्वर द्वारा मानवजाति की रचना पुरुष और महिला दो लिंगों में की गई है और परमेश्वर का देहधारण कोई अपवाद नहीं है, वह या तो पुरुष है या महिला। अचानक एक दिन किसी ने मुझसे पूछा, “यह कैसे जाना जा सकता है कि इस बार का देहधारण स्त्री है?” मैंने उत्तर दिया, “तुम इसे कैसे देखते हो? परमेश्वर लोगों की धारणाओं के अनुरूप कार्य नहीं करता : यदि तुम लोगों को यकीन है कि यह परमेश्वर द्वारा किया गया है तो तुम लोगों को परमेश्वर के कार्यों पर शोध नहीं करना चाहिए और यदि तुम इसे नहीं समझते हो तो तुम्हें प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि तुम खोजते हो और फिर भी परिणाम नहीं मिलता तो बस देखो कि क्या तुम समर्पण कर सकते हो। यदि तुम समर्पण कर सकते हो तो तुम तर्कसंगत हो, लेकिन यदि तुम इस वजह से अटक जाते हो और परमेश्वर ने जो सब किया है उसे नकार देते हो तो तुम तर्कसंगत नहीं हो, तुम परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले नहीं हो। परमेश्वर दस चीजें करता है जिन्हें तुम सही मानते हो और अपनी धारणाओं के अनुरूप पाते हो, लेकिन यदि एक चीज तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं है तो तुम सभी दस चीजों को पलट देते हो—यह कैसा नीच व्यक्ति है? क्या यह शैतान नहीं है?” जब मैंने इस तरह संगति की, तो उन्होंने कहा, “हाँ, तो मुझे इसे अभी स्वीकार कर लेना चाहिए।” जब मैंने अपनी संगति समाप्त की तो उन्होंने तुरंत इसे समझ लिया और स्वीकार कर लिया—क्या उनकी काबिलियत बहुत अच्छी नहीं है? मान लेते हैं कि ऐसा ही है। उन्होंने आगे कहा, “परमेश्वर ने पुरुष और महिला की रचना की और पहली बार जब परमेश्वर देहधारी हुआ तो वह पुरुष था, परमेश्वर का पुत्र था। इस बार वह एक महिला के रूप में देहधारी हुआ है—तो क्या यह परमेश्वर की पुत्री नहीं होगी? मुझे बताओ कि क्या मैं इसे सही तरीके से समझ पा रहा हूँ। जब लोगों के बच्चे होते हैं तो वे चाहते हैं कि उनके बेटा और बेटी दोनों हों—क्या परमेश्वर भी दोनों चाहता है?” मुझे उन्हें कैसे जवाब देना चाहिए था और इस मामले को कैसे समझाना चाहिए था? क्या इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए? क्या इसे ठीक करने की आवश्यकता नहीं है? क्या वे जो कह रहे थे उसमें कोई समस्या है? समस्या है। उन्होंने कहा, “परमेश्वर का एक पुत्र है प्रभु यीशु और इस बार देहधारण स्त्री रूप में हुआ है, इसलिए इस स्थिति में यह उसकी पुत्री होगी। इस तरह परमेश्वर का एक पुत्र है और एक पुत्री है, उसके पास दोनों हैं, इसलिए पवित्र आत्मा की कोई जरूरत नहीं है। इस त्रिएकता में पवित्र पिता, पवित्र पुत्र और पवित्र पुत्री हैं—यह कितना उपयुक्त और गरिमापूर्ण है! पुत्री के बिना यह पूरा नहीं होता।” इसे सुनने के बाद तुम्हें कैसा महसूस हो रहा है? तुम नहीं जानते कि इस पर हँसना चाहिए या रोना। बताओ, क्या यह मजाक नहीं है? (हाँ, यह मजाक है।) क्या देहधारण के बारे में उनकी और पौलुस की समझ में कोई अंतर है? (नहीं।) कोई अंतर नहीं है। यदि लोग परमेश्वर को समझने के मामलों में, विशेष रूप से परमेश्वर की पहचान और सार के मामलों में, अनुमान लगाने और निष्कर्ष निकालने के लिए हमेशा अपनी चतुराई, कल्पनाओं और धारणाओं पर भरोसा करेंगे और इन्हें कुछ दृष्टिकोणों के साथ लागू करेंगे, तो यह परेशानी वाली बात होगी और वे गलतियाँ करेंगे और समस्याओं का सामना करेंगे। तो इस मामले से निपटने का सबसे उपयुक्त तरीका क्या है? कुछ मामले अधिक गहन और अमूर्त होते हैं जिन्हें समझना लोगों के लिए आसान नहीं होता और इस समस्या के सार और मूल कारण को देख पाना आसान नहीं है; यदि इन चीजों में सत्य शामिल नहीं है या ये चीजें सत्य के तुम्हारे अनुसरण को प्रभावित नहीं करतीं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले ऐसी चीजों को छोड़ दो। उन पर शोध करने का क्या फायदा? तुम्हारे लिए यह मामला शोध करने का नहीं है। तुम्हें बस जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करना है और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में सक्षम होना है। एक दिन तुम इन मामलों को स्वाभाविक रूप से समझ जाओगे। कुछ लोग कहते हैं कि वे इन्हें छोड़ नहीं सकते और इन पर शोध करना चाहते हैं। यह परेशानी वाली बात है। तुम्हें इन पर शोध नहीं करना चाहिए। लोगों को परमेश्वर की पहचान, परमेश्वर के सार और परमेश्वर की स्थिति से जुड़े मामलों को शोध के नजरिये से नहीं देखना चाहिए। यदि तुम शोध करना जारी रखते हो, तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। गंभीर मामलों में तुम परमेश्वर की घोर निंदा करोगे। परमेश्वर की पहचान और सार से जुड़े मामलों से लोगों को कैसे निपटना चाहिए? मामले को उलझाओ नहीं और इस बारे में भले तुम पूरी तरह से स्पष्ट न हो, एक बात निश्चित है : वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है, वह परमेश्वर का प्रकटन है, वह जो व्यक्त करता है वह सत्य है, लोगों को सत्य ही स्वीकार करना चाहिए और सत्य को पाने के लिए इतना पर्याप्त है।
मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार देखें तो वे सबसे अधिक आराधना किसकी करते हैं? ऊँचे, खोखले, अमूर्त तथाकथित धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों की। उनके लिए ये सिद्धांत अत्यंत मूल्यवान हैं। वे इन चीजों को बहुत महत्व देते हैं, उनसे बहुत प्यार करते हैं और भीड़ से अलग दिखने के लिए वे इन चीजों को हासिल करने के सभी संभव तरीकों के बारे में सोचते हैं। वे अपने मन में इन चीजों को ध्यान में रखते हैं और उन्हें पूँजी के रूप में देखते हैं, उन्हें अपने जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सीढ़ियों के रूप में देखते हैं और यह नहीं जानते कि ये चीजें मूल रूप से सत्य नहीं हैं। लेकिन वे खुद को इन धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों से लैस करना पसंद करते हैं, जो उनके पूर्वनिर्धारित विचार बन जाते हैं और वे उन्हें सत्य मान लेते हैं। वे इस धर्मशास्त्रीय ज्ञान का उपयोग परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों का अध्ययन करने के लिए करते हैं। जब वे देखते हैं कि परमेश्वर के वचन और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य उन धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं जिनके वे पक्षधर हैं, तो वे अपने आप को परमेश्वर के वचनों की आधारहीन आलोचना और निंदा करने से नहीं रोक पाते। अपने मन में वे कोई डर महसूस नहीं करते क्योंकि उन्हें विश्वास होता है कि उनके पास ऐसा करने के लिए बाइबल का आधार है। उनमें से कुछ लोग परमेश्वर के वचनों की निंदा भी करते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर के वचन बहुत उबाऊ हैं। उनमें से कुछ बातें तार्किक नहीं हैं, तो कुछ व्याकरण के अनुरूप नहीं हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली के कुछ शब्द भी ठीक अर्थ नहीं देते।” वे बस अपने ही दिमाग और विचारों में जीते हैं, परमेश्वर के वचनों का विश्लेषण और अध्ययन करने के लिए अपने पास मौजूद ज्ञान और विद्वता का उपयोग करते हैं। उनमें से कई लोग परमेश्वर के वचनों में यह खोजने के लिए अपनी कल्पनाओं और निर्णय क्षमता का उपयोग करते हैं कि परमेश्वर कुछ लोगों को किस तरह से परिभाषित करता है या वह कुछ लोगों के लिए कौन-सी मंजिलें तय करता है और फिर उन चीजों का विश्लेषण और निंदा बाइबल के आधार पर करते हैं, इस प्रकार परमेश्वर के वचनों को नकारना शुरू कर देते हैं। जब वे परमेश्वर के वचनों का विश्लेषण और उनकी निंदा करते हैं, तो कुछ भयानक बात घटित होती है। क्या तुम लोग जानते हो कि वह क्या है? जब लोग परमेश्वर का विश्लेषण और अध्ययन करते हैं और जब लोगों में निंदा की मानसिकता पैदा होती है, तो पवित्र आत्मा इन लोगों को ठुकरा देता है और उनमें काम नहीं करता। क्या यह भयानक बात नहीं है? और तुम लोग जानते हो कि जब पवित्र आत्मा काम नहीं करता है तो यह क्या पूर्वाभास देता है। जब पवित्र आत्मा काम नहीं करता तो परमेश्वर इन लोगों से दूर हो जाता है, यह उन लोगों को त्याग दिए जाने के बराबर है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा। हम कारण का विश्लेषण कर सकते हैं। जिन धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों से वे लोग अपने आधे जीवन में खुद को मजबूत करते रहे हैं, वे आते कहाँ से हैं? वे किसका प्रतिनिधित्व करते हैं? अपने हृदय में वे इस बारे में स्पष्ट नहीं हैं। वास्तव में ये चीजें परमेश्वर से बिल्कुल नहीं आई हैं, न ही ये शुद्ध मानवीय समझ का परिणाम हैं। ये लोगों की भ्रामक व्याख्याएँ हैं और इस तरह कहा जा सकता है कि वे शैतान की ओर से आई हैं और पूरी तरह से शैतान का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस धर्मशास्त्रीय ज्ञान में और क्या शामिल है? बाइबल की भ्रामक व्याख्याओं के अलावा इसमें लोगों के तर्क और तार्किक निष्कर्ष, लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ, साथ ही लोगों के अनुभव, नीतिशास्त्र, नैतिक मानक और दार्शनिक विचार शामिल होते हैं। जब वे इन चीजों का प्रयोग करते हुए परमेश्वर ने जो कहा है उसका और उसके कार्यों का आकलन करते हैं, तो वे स्पष्ट रूप से परमेश्वर के साथ किए जा रहे व्यवहार में शैतान के पक्ष में खड़े होते हैं। इसलिए परमेश्वर उनसे अपना चेहरा छिपा लेता है और पवित्र आत्मा उन्हें त्याग देता है। क्या तुम लोगों ने कभी ऐसा अनुभव किया है? अतीत में कुछ लोगों ने इस संबंध में अपने अनुभवों पर चर्चा करते हुए कहा था कि “जब मैंने परमेश्वर पर पहले-पहल विश्वास करना शुरू किया, तो मैं परमेश्वर का अध्ययन करने को उत्सुक था; मैंने अध्ययन किया कि वह क्या कहता है, वह किन शब्दों का उपयोग करता है, लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, किनके प्रति वह अच्छा है और वह किस तरह के लोगों को पसंद करता है या किनसे नफरत करता है। इस सभी बातों के अध्ययन के परिणामस्वरूप मेरा हृदय अंधकारपूर्ण हो गया, मैं अपनी प्रार्थनाओं में परमेश्वर को महसूस नहीं कर पा रहा था, मेरे हृदय से स्वतंत्रता और मुक्ति का भाव गायब हो गया था और मुझे शांति या आनंद का अनुभव नहीं हो रहा था। ऐसा लगता था जैसे कोई पत्थर मेरे दिल पर रखा हो।” क्या तुम लोगों को कभी ऐसा अनुभव हुआ है? (हाँ।) जो लोग लगातार परमेश्वर का अध्ययन करते हैं, उन्हें पवित्र आत्मा से कोई प्रबुद्धता या रोशनी नहीं मिलती। यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों को पढ़ कर भी कोई रोशनी नहीं मिलती। मसीह-विरोधी परमेश्वर का अध्ययन करने में माहिर होते हैं, लेकिन वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते। कलीसिया में उनके सामान्य पारस्परिक संबंध नहीं होते और दूसरों को उपदेश देने के लिए वे हमेशा खुद को औरों से ऊपर रखते हैं। उन्हें अक्सर अपने ज्ञान का घमंड होता है और वे साधारण भाई-बहनों को नीची निगाह से देखते हैं। यदि कोई मसीह-विरोधी तुमसे बातचीत करता है और उसे पता चलता है कि तुम पढ़े-लिखे नहीं हो, तो वह तुमसे परेशान नहीं होगा। भले ही तुम कलीसिया के अगुआ या टीम के अगुआ बनने के मानदंडों को पूरा करते हो, वह तुम्हारा इस्तेमाल नहीं करेगा। वे किस तरह के लोगों का इस्तेमाल करते हैं? वे सामाजिक रुतबे, शक्ति, ज्ञान और खूबियों वाले ऐसे लोगों की तलाश करते हैं जो वाक्पटु हों—वे ऐसे लोगों पर अपनी नजरें गड़ाते हैं और उनका इस्तेमाल करने की तैयारी करने लगते हैं। यदि लोगों को चुनने और उनका इस्तेमाल करना उनके हाथ में हो, तो वे केवल ऐसे व्यक्तियों का चयन करते हैं जो स्पष्टवक्ता हों, उच्च शिक्षित हों, जानकार हों और समाज में उनका रुतबा हो। ऐसे लोग भले ही सत्य का अनुसरण न करें या कोई काम न कर सकें, फिर भी वे उन्हें ही पसंद करते हैं। यह क्या दिखाता है? वे एक ही श्रेणी के हैं। आखिरकार चोर-चोर मौसेरे भाई। कुछ मसीह-विरोधी कुछ शब्दों और सिद्धांतों को समझते हैं और फिर उपदेश देने का अभ्यास करने के सभी तरीकों के बारे में सोचते हैं। वे किस हद तक अभ्यास करते हैं? वे इस हद तक अभ्यास करते हैं कि वे स्पष्ट रूप से और विस्तार से बोल सकें, लिखित पर्चियों का इस्तेमाल किए बिना मंच पर घंटों बोल सकें। उन्हें लगता है कि काम करना यही सब है, यह उनका सबसे शानदार क्षण है, यही वह समय है जब वे सबसे अच्छे तरीके से अपना प्रदर्शन कर सकते हैं। वे ऐसे अवसरों को झपट लेते हैं और उन्हें कभी हाथ से जाने नहीं देते। परंतु जिन विषयों पर परमेश्वर अक्सर संगति करता है, जैसे सामान्य मानवता से जुड़ी चीजें, लोगों की अंतरात्मा और विवेक से जुड़ी चीजें और सामान्य लोगों के वास्तविक जीवन में मानवता से सबसे अधिक निकटता से संबंधित चीजें आदि—हालाँकि ये लोगों को छोटे और महत्वहीन विवरण लग सकते हैं, परंतु वास्तव में वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश से घनिष्ठता से संबंधित हैं। मसीह-विरोधी इन चीजों को कैसे देखते हैं? वे उनसे हृदय से घृणा करते हैं, वे इन वचनों को गंभीरता से नहीं लेते और यह महसूस करते हुए कि वे अर्थहीन हैं, अपने हृदय में इन मामलों की निंदा करते हैं। तुम सत्य वास्तविकता के बारे में कैसे भी संगति करो, जैसे कि ईमानदार होना, वफादार होना या व्यावहारिक और कर्तव्यपरायण व्यक्ति होना, तुम इनके बारे में चाहे जैसे संगति करो, उनका दृष्टिकोण अपरिवर्तित रहता है। वे ऐसा व्यक्ति बनना चाहते हैं जो धाराप्रवाह बोल सकता हो, जो प्रतिभा से लबालब हो और जिसमें विशेष योग्यताएँ हों या यहाँ तक कि जिसमें अन्य भाषाओं में बोलने, असाधारण तेजी से पढ़ने, फोटोग्राफिक स्मृति होने जैसी अलौकिक योग्यताएँ हों। अगर उनमें भी ये योग्यताएँ होतीं तो उनका दिल खुशी से भर जाता। अपने दिल की गहराई में वे इन्हीं चीजों का पीछा करते हैं और इन्हें बहुत महत्व देते हैं। उदाहरण के लिए, मैं कुछ कहना समाप्त करता हूँ और कुछ क्षण बाद मैं उसे भूल जाता हूँ। जब मैं सब से पूछता हूँ तो किसी और को भी वह याद नहीं रहता। तुम देखो, हमारी स्मृति काफी हद तक एक जैसी है, है न? (हाँ।) लेकिन जब मसीह-विरोधी इसे देखते हैं तो वे कहते हैं, “तुम्हारी तो स्मरण-शक्ति भी अच्छी नहीं है! अमुक आध्यात्मिक व्यक्ति को देखो; वह तेजी से पढ़ सकता है और उसकी स्मरण-शक्ति फोटोग्राफिक है। तुम मसीह हो—तुम एक नजर में कितनी पंक्तियाँ पढ़ सकते हो?” मैं कहता हूँ, “मेरे पास वह अलौकिक क्षमता नहीं है। कभी-कभी तो मुझे पढ़ने के बाद एक भी वाक्य याद नहीं रहता और मुझे उसे फिर से पढ़ना पड़ता है।” वे कहते हैं, “क्या परमेश्वर से सर्वशक्तिमान होना अपेक्षित नहीं है?” इस तरह वे धारणाएँ बनाना शुरू करते हैं। अपने हृदय की गहराई में वे देहधारी परमेश्वर को कैसे देखते हैं? “देहधारी परमेश्वर बिल्कुल साधारण और पूरी तरह से सामान्य व्यक्ति है। उसकी स्मरण-शक्ति अच्छी नहीं है, उसका शारीरिक गठन भी बहुत अच्छा नहीं है; वह किसी भी तरह से परमेश्वर जैसा नहीं लगता।” इसलिए जब वे किसी को परमेश्वर से प्रेम करने के बारे में उपदेश देते हुए सुनते हैं तो सोचते हैं, “यदि वह फलाना आध्यात्मिक व्यक्ति या ढिकाना प्रसिद्ध व्यक्ति परमेश्वर होता तो मैं उसे स्वीकार कर सकता था और उससे प्रेम कर सकता था। लेकिन यदि यह वर्तमान मसीह परमेश्वर है तो मैं उससे प्रेम नहीं कर सकता क्योंकि वह परमेश्वर जैसा बिल्कुल नहीं लगता।” अपने हृदय में वे यही सोचते हैं कि परमेश्वर होने के लिए किसी को परमेश्वर जैसा लगना चाहिए; उसे परमेश्वर की तरह बोलना, कार्य करना और दिखना चाहिए, ताकि जब लोग उसे देखें तो उनके मन में कोई धारणा न हो। क्यों? वे सोचते हैं, “पहली बात तो यह है कि तुम्हारे पास अलौकिक क्षमताएँ नहीं हैं। दूसरी, तुम्हारे पास विशेष प्रतिभाएँ नहीं हैं। तीसरी, तुम्हारे पास दुनिया के उन लोगों जैसी खूबियाँ नहीं हैं जो महान कार्य करते हैं। तुम किसी भी तरह से असाधारण नहीं हो, इसलिए मैं तुम्हारी बात क्यों सुनूँ? मुझे तुम्हारा सम्मान क्यों करना चाहिए? मुझे तुम्हारे सामने समर्पण क्यों करना चाहिए? मैं समर्पण नहीं कर सकता।” यह कैसी समस्या है? यह किस तरह का स्वभाव है? भले ही वे सत्य न समझें, फिर भी उनमें एक सामान्य व्यक्ति का विवेक और तर्क तो होना चाहिए। लोगों में धारणाएँ होती हैं और परमेश्वर इस वजह से उनकी निंदा नहीं करता, लेकिन जब लोग धारणाएँ पालते हैं और फिर जान-बूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध और उसकी निंदा करते हैं, तो इससे आसानी से परमेश्वर के स्वभाव को ठेस लगती है। मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर की खुलेआम निंदा और प्रतिरोध कर पाते हैं, यह उनके दुष्ट स्वभाव के कारण होता है। ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद उनके पास परमेश्वर और उसके उदात्तपन, सार, अधिकार और उसकी सर्वशक्तिमत्ता के बारे में अधिक समृद्ध, अधिक विस्तृत और अधिक व्यापक कल्पनाएँ होती हैं। फिर वे इन कल्पनाओं का मिलान उस परमेश्वर से करने की कोशिश करते हैं जिसे वे देख सकते हैं और जिसके साथ बातचीत कर सकते हैं। क्या वे उनका मिलान कर सकते हैं? वे उनका मिलान कभी नहीं कर सकते। वे परमेश्वर का जितना अधिक अध्ययन करते हैं, उतना ही अधिक वे अपने हृदय में परमेश्वर को नकारते हैं और उतनी ही ज्यादा वे परमेश्वर की निंदा और उसका प्रतिरोध कर सकते हैं; इसे टाला नहीं जा सकता।
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