परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर के कार्य को जानना | अंश 174
16 अप्रैल, 2021
मनुष्य का कार्य उसके अनुभव और उसकी मानवता के तात्पर्य को सूचित करता है। मनुष्य जो कुछ मुहैया कराता है और जो कार्य करता है, वह उसका प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य की अंतर्दृष्टि, उसकी विवेक-बुद्धि, उसकी तर्कशक्ति और उसकी समृद्ध कल्पना, सभी उसके कार्य में शामिल होते हैं। मनुष्य का अनुभव, विशेष रूप से उसके कार्य के तात्पर्य को सूचित करने में समर्थ होता है, और व्यक्ति के अनुभव उसके कार्य के घटक बन जाते हैं। मनुष्य का कार्य उसके अनुभव को व्यक्त कर सकता है। जब कुछ लोग नकारात्मक तरीके से अनुभव करते हैं, तो उनकी संगति की अधिकांश भाषा नकारात्मक तत्वों से ही युक्त होती है। यदि कुछ समयावधि तक उनका अनुभव सकारात्मक है और उनके पास विशेष रूप से, सकारात्मक पहलू में एक मार्ग होता है, तो उनकी संगति बहुत प्रोत्साहन देने वाली होती है, और लोग उनसे सकारात्मक आपूर्ति प्राप्त कर सकते हैं। यदि कोई कर्मी कुछ समयावधि तक नकारात्मक हो जाता है, तो उसकी संगति में हमेशा नकारात्मक तत्व होंगे। इस प्रकार की संगति निराशाजनक होती है, और अन्य लोग अनजाने में ही उसकी संगति के बाद निराश हो जाएँगे। अगुआ की अवस्था के आधार पर अनुयायियों की अवस्था बदलती है। एक कर्मी भीतर से जैसा होता है, वह वैसा ही व्यक्त करता है, और पवित्र आत्मा का कार्य प्रायः मनुष्य की अवस्था के साथ बदल जाता है। वह मनुष्य के अनुभव के अनुसार कार्य करता है और उसे बाध्य नहीं करता, बल्कि लोगों के अनुभव के सामान्य क्रम के अनुसार उनसे माँग करता है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य की संगति परमेश्वर के वचन से भिन्न होती है। लोग जो संगति करते हैं वह उनकी व्यक्तिगत अंतर्दृष्टि और अनुभव को बताती है, और परमेश्वर के कार्य के आधार पर उनकी अंतर्दृष्टि और अनुभव को व्यक्त करती है। उनकी ज़िम्मेदारी यह है कि परमेश्वर के कार्य करने या बोलने के पश्चात्, वे पता लगायें कि उन्हें इसमें से किसका अभ्यास करना चाहिए, या किसमें प्रवेश करना चाहिए, और फिर इसे अनुयायियों को सौंप दें। इसलिए, मनुष्य का कार्य उसके प्रवेश और अभ्यास का प्रतिनिधित्व करता है। निस्संदेह, ऐसा कार्य मानवीय सबक और अनुभव या कुछ मानवीय विचारों के साथ मिश्रित होता है। पवित्र आत्मा चाहे जैसे कार्य करे, चाहे वह मनुष्य में कार्य करे या देहधारी परमेश्वर में, कर्मी हमेशा वही व्यक्त करते हैं जो वे होते हैं। यद्यपि कार्य पवित्र आत्मा ही करता है, फिर भी मनुष्य अंतर्निहित रूप से जैसा होता है कार्य उसी पर आधारित होता है, क्योंकि पवित्र आत्मा बिना आधार के कार्य नहीं करता। दूसरे शब्दों में, कार्य शून्य में से नहीं आता, बल्कि वह हमेशा वास्तविक परिस्थितियों और असली स्थितियों के अनुसार किया जाता है। केवल इसी तरह से मनुष्य के स्वभाव को रूपान्तरित किया जा सकता है और उसकी पुरानी धारणाओं एवं पुराने विचारों को बदला जा सकता है। जो कुछ मनुष्य देखता है, अनुभव करता है, और कल्पना कर सकता है, वह उसी को अभिव्यक्त करता है, और यह मनुष्य के विचारों द्वारा प्राप्य होता है, भले ही ये सिद्धांत या धारणाएँ ही क्यों न हों। चाहे मनुष्य के कार्य का आकार कुछ भी हो, यह उसके अनुभव के दायरे से परे नहीं जा सकता, न ही जो वह देखता है, या जिसकी वह कल्पना या जिसका विचार कर सकता है, उससे बढ़कर हो सकता है। परमेश्वर वही सब प्रकट करता है जो वह स्वयं है, और यह मनुष्य की पहुँच से परे है, अर्थात्, मनुष्य की सोच से परे है। वह संपूर्ण मानवजाति की अगुवाई करने के अपने कार्य को व्यक्त करता है, इसका मानवीय अनुभव के विवरणों से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह उसके अपने प्रबंधन से संबंधित है। मनुष्य जो व्यक्त करता है वह उसका अपना अनुभव है, जबकि परमेश्वर अपने स्वरूप को व्यक्त करता है, जो कि उसका अंतर्निहित स्वभाव है और मनुष्य की पहुँच से परे है। मनुष्य का अनुभव उसकी अंतर्दृष्टि और वह ज्ञान है जो उसने परमेश्वर द्वारा अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति के आधार पर प्राप्त किया है। ऐसी अंतर्दृष्टि और ज्ञान मनुष्य का स्वरूप कहलाता है, और उनकी अभिव्यक्ति का आधार मनुष्य का अंतर्निहित स्वभाव और उसकी क्षमता होते हैं—इसलिए इन्हें मनुष्य का अस्तित्व भी कहा जाता है। जो कुछ मनुष्य देखता और अनुभव करता है वह उसकी संगति कर पाता है। अत: कोई भी व्यक्ति उस पर संगति नहीं कर सकता जिसका उसने अनुभव नहीं किया है या देखा नहीं है या जिस तक उसका मन नहीं पहुँच पाता है, वे ऐसी चीज़ें हैं जो उसके भीतर नहीं हैं। यदि जो कुछ मनुष्य व्यक्त करता है वह उसके अनुभव से नहीं आया है, तो यह उसकी कल्पना या सिद्धांत है। सीधे-सीधे कहें तो, उसके वचनों में कोई वास्तविकता नहीं होती। यदि तुम समाज की चीज़ों से कभी संपर्क में न आते, तो तुम समाज के जटिल संबंधों की स्पष्टता से संगति करने में समर्थ नहीं होते। यदि तुम्हारा कोई परिवार न होता परन्तु अन्य लोग परिवारिक मुद्दों के बारे में बात करते, तो तुम उनकी अधिकांश बातों को नहीं समझ पाते। इसलिए, जो कुछ मनुष्य संगति करता है और जिस कार्य को वह करता है, वे उसके भीतरी अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि किसी ने ताड़ना और न्याय के बारे में अपनी समझ की संगति की, परन्तु तुम्हारे पास उसका कोई अनुभव नहीं है, तो तुम उसके ज्ञान को नकारने का साहस नहीं करोगे उसके बारे में सौ प्रतिशत निश्चित होने का साहस तो बिलकुल भी नहीं करोगे। क्योंकि उसकी संगति ऐसी चीज़ है जिसका तुमने कभी अनुभव नहीं किया है, जिसके बारे में तुमने कभी जाना नहीं है, तुम्हारा मन उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। तुम उसके ज्ञान से बस भविष्य में ताड़ना और न्याय से गुज़रने का एक मार्ग पा सकते हो। परन्तु यह मार्ग केवल एक सैद्धांतिक ज्ञान ही हो सकता है; यह तुम्हारी समझ का स्थान नहीं ले सकता, तुम्हारे अनुभव का स्थान तो बिलकुल भी नहीं ले सकता। शायद तुम सोचते हो कि जो कुछ वह कहता है वह काफी सही है, परन्तु अपने अनुभव में, तुम इसे अनेक बातों में अव्यावहारिक पाते हो। शायद तुम्हें लगे जो तुमने सुना वो पूरी तरह अव्यावहारिक है; उस समय तुम इसके बारे में धारणाएँ पाल लेते हो, तुम इसे स्वीकार तो करते हो, लेकिन केवल अनिच्छा से। परन्तु जब तुम अनुभव करते हो, तो वह ज्ञान जिससे तुमने धारणाएँ बनायी थीं, तुम्हारे अभ्यास का मार्ग बन जाता है। जितना अधिक तुम अभ्यास करते हो, उतना ही अधिक तुम उन वचनों के सही मूल्य और अर्थ को समझते हो जो तुमने सुने हैं। स्वयं अनुभव प्राप्त कर लेने के पश्चात्, तुम उस ज्ञान के बारे में बात कर पाते हो जो तुम्हारे पास उन चीज़ों के बारे में होना चाहिए जो तुमने अनुभव की हैं। इसके साथ, तुम ऐसे लोगों के बीच अंतर कर सकते हो जिनका ज्ञान वास्तविक और व्यावहारिक है और ऐसे लोग जिनका ज्ञान सिद्धांत पर आधारित है और बेकार है। इसलिए, वह ज्ञान जिसकी तुम चर्चा करते हो वह सत्य के अनुरूप है या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि तुम्हारे पास उसका व्यावहारिक अनुभव है या नहीं। जहाँ तुम्हारे अनुभवों में सच्चाई होगी, वहाँ तुम्हारा ज्ञान व्यावहारिक और मूल्यवान होगा। तुम अपने अनुभव के माध्यम से, विवेक और अंतर्दृष्टि भी प्राप्त कर सकते हो, अपने ज्ञान को गहरा कर सकते हो, तुम्हें कैसा आचरण करना चाहिए, इस बारे में अपनी बुद्धि और सामान्य बोध बढ़ा सकते हो। जिन लोगों में सत्य नहीं होता, उनके द्वारा व्यक्त ज्ञान मात्र सिद्धांत होता है, फिर भले ही वह ज्ञान कितना ही ऊँचा क्यों न हो। जब देह के मामलों की बात आती है तो हो सकता है कि इस प्रकार का व्यक्ति बहुत बुद्धिमान हो, परन्तु जब आध्यात्मिक मामलों की बात आती है तो वह अंतर नहीं कर पाता। क्योंकि आध्यात्मिक मामलों में ऐसे लोगों को कोई अनुभव नहीं होता। ऐसे लोग आध्यात्मिक मामलों में प्रबुद्ध नहीं होते और आध्यात्मिक मामलों को बिल्कुल नहीं समझते। चाहे तुम किसी भी तरह का ज्ञान व्यक्त करो, अगर यह तुम्हारा अस्तित्व है, तो यह तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव है, तुम्हारा वास्तविक ज्ञान है। जो लोग केवल सिद्धांत की ही बात करते हैं—जिनमें सत्य या वास्तविकता नहीं होती—वे जिस बारे में बात करते हैं, उसे उनका अस्तित्व भी कहा जा सकता है, क्योंकि उनका सिद्धांत गहरे चिंतन से ही आया है और यह उनके गहरे मनन का परिणाम है। परन्तु यह केवल सिद्धांत ही है, यह कल्पना से अधिक कुछ नहीं है!
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य
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