परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 121

22 जुलाई, 2020

सृष्टिकर्ता की संप्रभुता से मानवजाति का भाग्य और विश्व का भाग्य अविभाज्य हैं

तुम सब वयस्क हो। तुम लोगों में से कुछ अधेड़-उम्र के हैं; कुछ लोग वृद्धावस्था में कदम रख चुके हैं। तुम लोग परमेश्वर पर विश्वास न करने से लेकर, उस पर विश्वास करने और परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करने से लेकर परमेश्वर के वचन को स्वीकार करने और उसके कार्यों का अनुभव करने तक के दौर से गुजरे हो। तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता का कितना ज्ञान है? मनुष्य के भाग्य में तुम्हें कौन-सी अंतर्दृष्टियाँ प्राप्त हुई हैं? क्या कोई व्यक्ति हर इच्छित चीज़ को प्राप्त कर सकता है? अपने अस्तित्व में आने के कुछ दशकों के दौरान कितनी चीज़ें हैं जिन्हें जैसा तुम चाहते थे उन्हें उसी तरह से पूरा करने में सक्षम रहे हो? जैसी तुमने कभी उम्मीद नहीं की थी, वैसी कितनी चीज़ें हैं जो हुई हैं? कितनी चीज़ें सुखद आश्चर्यों के रूप में आई हैं? ऐसी कितनी चीज़ें हैं जिनकी इस उम्मीद में लोग अभी भी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उनके परिणाम सुखद होंगे—अवचेतन रूप में सही पल की प्रतीक्षा कर रहे हैं, स्वर्ग की इच्छा की प्रतीक्षा कर रहे हैं? कितनी चीज़ें लोगों को असहाय और कुंठित महसूस कराती हैं? सभी यही सोचकर कि उनकी ज़िन्दगी में हर एक चीज़ वैसी ही होगी जैसा वे चाहते हैं, कि उनके पास भोजन या वस्त्रों का अभाव नहीं होगा, और उनका भाग्य असाधारण ढंग से उदित होगा, अपने भाग्य को लेकर आशाओं से भरे हैं। कोई भी ऐसा जीवन नहीं चाहता जिसमें दरिद्रता हो, जो दबा-कुचला हो, कठिनाइयों से भरा हो, आपदाओं से घिरा हो। परन्तु लोग इन चीज़ों का न तो पूर्वानुमान लगा सकते हैं, न ही उन्हें नियन्त्रित कर सकते हैं। शायद कुछ लोगों के लिए, अतीत बस अनुभवों का घालमेल है; वे कभी नहीं सीखते कि स्वर्ग की इच्छा क्या है, और न ही वे इसकी कोई परवाह ही करते हैं कि वह क्या है। वे बिना सोचे समझे, जानवरों की तरह, दिन-रात जीते हुए, इस बारे में परवाह किए बिना कि मानवजाति का भाग्य क्या है, या मानव क्यों जीवित है या उसे किस प्रकार जीना चाहिए, अपना जीवन बिताते हैं। ऐसे लोग मनुष्य के भाग्य के बारे में कोई समझ प्राप्त किए बिना ही वृद्धावस्था तक पहुँच जाते हैं, और मरने की घड़ी तक उन्हें पता ही नहीं होता है कि जीवन वास्तव में क्या है। ऐसे लोग मरे हुए हैं; वे ऐसे प्राणी हैं जिनमें आत्मा नहीं है; वे जानवर हैं। यद्यपि लोग सृष्टि के अंदर रहते हैं और अनेक तरीकों से आनन्द प्राप्त करते हैं जिनसे संसार अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, यद्यपि वे इस भौतिक संसार को निरन्तर आगे बढ़ते हुए देखते हैं, फिर भी उनके स्वयं के अनुभव का—जो उनका हृदय और उनकी आत्मा महसूस और अनुभव करती है—भौतिक चीज़ों के साथ कोई लेना-देना नहीं होता, और कोई भी भौतिक चीज़ अनुभव का पर्याय नहीं बन सकती। अनुभव किसी व्यक्ति के हृदय की गहराई में निहित एक अभिज्ञान है, ऐसी चीज़ है जिसे खुली आँखों से नहीं देखा जा सकता। यह अभिज्ञान मनुष्य के जीवन और उसके भाग्य के बारे में उसकी समझ, और उसकी अनुभूति में निहित होता है। यह प्रायः किसी को भी इस आशंका से ग्रस्त कर देता है कि एक अनदेखा स्वामी इन सभी चीज़ों को व्यवस्थित कर रहा है, मनुष्य के लिए हर एक चीज़ का आयोजन कर रहा है। इन सबके बीच, व्यक्ति भाग्य की व्यवस्थाओं और आयोजनों को स्वीकार करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता; और इंसान सृजनकर्ता द्वारा उसके लिए बनाए गए मार्ग को स्वीकारने और अपनी नियति पर सृजनकर्ता की संप्रभुता को स्वीकारने के अलावा कुछ नहीं कर पाता। यह एक निर्विवाद सत्य है। इंसान अपने भाग्य के बारे में कोई भी अन्तर्दृष्टि और दृष्टिकोण रखे, लेकिन वह इस सच्चाई को बदल नहीं सकता।

तुम प्रतिदिन कहाँ जाओगे, क्या करोगे, किस व्यक्ति या चीज़ का सामना करोगे, क्या कहोगे, तुम्हारे साथ क्या होगा—क्या इनमें से किसी के बारे में भी भविष्यवाणी की जा सकती है? लोग इन सभी घटनाओं का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते, और वे स्थितियां क्या रूप लेंगी, उस पर तो उनका बिलकुल भी नियन्त्रण नहीं है। जीवन में, ऐसी अप्रत्याशित घटनाएँ हर समय घटती हैं, और ऐसा प्रतिदिन होता है। ये रोज़ होने वाले उतार-चढ़ाव, और जिस तरीके से वे प्रकट होते हैं, या जिस ढंग से वे सामने आते हैं, मनुष्य को निरन्तर याद दिलाते हैं कि कुछ भी एकाएक नहीं होता, प्रत्येक घटना के घटने की प्रक्रिया, प्रत्येक घटना की अनिवार्यता का स्वरूप, मनुष्य की इच्छा से बदला नहीं जा सकता। हर घटना सृजनकर्ता की ओर से मनुष्यजाति को दी गई एक चेतावनी होती है, और वह यह सन्देश भी देती है कि मनुष्य अपने भाग्य को नियन्त्रित नहीं कर सकता। प्रत्येक घटना मानवजाति की अनियन्त्रित, व्यर्थ महत्वाकांक्षा और अपने भाग्य को अपने हाथों में लेने की इच्छा का खण्डन है। ये मानवजाति के चेहरे पर एक के बाद एक मारे गए जोरदार थप्पड़ों की तरह हैं, जो लोगों को इस बात पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य करती हैं कि अंततः कौन है जो उनके भाग्य को संचालित और नियन्त्रित करता है। और जब मनुष्य की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ लगातार नाकाम और ध्वस्त होती हैं, तो मनुष्य स्वाभाविक रूप से जो उसके भाग्य में है, उसे अवचेतन मन में स्वीकार कर लेता है—वास्तविकता की स्वीकृति, स्वर्ग की इच्छा और सृजनकर्ता की संप्रभुता की स्वीकृति। इन दैनिक उतार-चढ़ावों से लेकर, समस्त मानव-जीवन के भाग्य तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो सृजनकर्ता की योजना और उसकी संप्रभुता को प्रकट नहीं करता हो; ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह सन्देश नहीं देता हो कि "सृजनकर्ता के अधिकार से परे नहीं जाया जा सकता," जो इस शाश्वत सत्य को व्यक्त न करता हो कि "सृजनकर्ता का अधिकार ही सर्वोच्च है।"

मानवजाति और विश्व के भाग्य सृजनकर्ता की संप्रभुता के साथ घनिष्ठता से गुँथे हुए हैं, और सृजनकर्ता के आयोजनों के साथ अविभाज्य रूप से बँधे हुए हैं; अंत में, वे सृजनकर्ता के अधिकार से अलग नहीं हो सकते। सभी चीज़ों के नियमों के माध्यम से मनुष्य सृजनकर्ता के आयोजन और उसकी संप्रभुता को समझ जाता है; सभी चीज़ों के जीने के नियमों के माध्यम से वह सृजनकर्ता के संचालन को समझ जाता है, सभी चीज़ों की नियति से वह उन तरीकों के बारे में अनुमान लगा लेता है जिनके द्वारा सृजनकर्ता अपनी संप्रभुता का उपयोग करता है और उन पर नियन्त्रण करता है; मानवजाति के जीवन चक्रों और सभी चीज़ों में, मनुष्य वास्तव में सभी चीज़ों और जीवित प्राणियों के लिए सृजनकर्ता के आयोजनों और व्यवस्थाओं का अनुभव करता है, वह देखता है कि किस प्रकार वे आयोजन और व्यवस्थाएँ सभी सांसारिक कानूनों, नियमों, संस्थानों और अन्य सभी शक्तियों और ताक़तों की जगह ले लेती हैं। ऐसा होने पर, मानवजाति यह मानने को बाध्य हो जाती है कि कोई भी सृजित प्राणी सृजनकर्ता की संप्रभुता का उल्लंघन नहीं कर सकता, सृजनकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित घटनाओं और चीज़ों को कोई भी शक्ति छीन या बदल नहीं सकती। मनुष्य इन अलौकिक कानूनों और नियमों के अधीन जीता है, सभी चीज़ें कायम रहती हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी वंश बढ़ाती हैं और फैलती हैं। क्या यह सृजनकर्ता के अधिकार का असली मूर्तरूप नहीं है? यद्यपि मनुष्य, वस्तुगत नियमों में, सभी घटनाओं और सभी चीज़ों के लिए सृजनकर्ता की संप्रभुता और उसके विधान को देखता है, फिर भी कितने लोग सृजनकर्ता द्वारा विश्व के लिए बनाए गए संप्रभुता के सिद्धान्तों को समझ पाते हैं? कितने लोग वास्तव में अपने भाग्य पर सृजनकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्था को जान, पहचान, और स्वीकार कर पाते हैं, और उसके प्रति समर्पण कर पाते हैं? कौन, सभी चीज़ों पर सृजनकर्ता की संप्रभुता के सत्य पर विश्वास करने के बाद, वास्तव में विश्वास करेगा और पहचानेगा कि सृजनकर्ता मानव जीवन के भाग्य को भी निर्धारित करता है? कौन वास्तव में इस सच को समझ सकता है कि मनुष्य का भाग्य सृजनकर्ता की हथेली पर टिका हुआ है? इस सच्चाई को जानकर कि वह मानवजाति के भाग्य को संचालित और नियन्त्रित करता है, सृजनकर्ता की संप्रभुता के प्रति मानवजाति को किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? जो कोई भी इस सच्चाई से रूबरू हो चुका है, उसे अपने जीवन में इस बारे में निर्णय ले लेना चाहिए।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III

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