परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 75

28 मार्च, 2021

यीशु पाँच हज़ार लोगों को खिलाता है

यूहन्ना 6:8-13 उसके चेलों में से शमौन पतरस के भाई अन्द्रियास ने उससे कहा, "यहाँ एक लड़का है जिसके पास जौ की पाँच रोटी और दो मछलियाँ हैं; परन्तु इतने लोगों के लिये वे क्या हैं?" यीशु ने कहा, "लोगों को बैठा दो।" उस जगह बहुत घास थी: तब लोग जिनमें पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हज़ार की थी, बैठ गए। तब यीशु ने रोटियाँ लीं, और धन्यवाद करके बैठनेवालों को बाँट दीं; और वैसे ही मछलियों में से जितनी वे चाहते थे बाँट दिया। जब वे खाकर तृप्‍त हो गए तो उसने अपने चेलों से कहा, "बचे हुए टुकड़े बटोर लो कि कुछ फेंका न जाए।" अत: उन्होंने बटोरा, और जौ की पाँच रोटियों के टुकड़ों से जो खानेवालों से बच रहे थे, बारह टोकरियाँ भरीं।

"पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ" की संकल्पना क्या है? पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ आम तौर पर कितने लोगों के लिए पर्याप्त होंगी? यदि तुम एक औसत व्यक्ति की भूख के आधार पर मापो, तो ये केवल दो व्यक्तियों के लिए ही पर्याप्त होंगी। "पाँच रोटियों और दो मछलियों" का मूलत: यही विचार है। किंतु इस अंश में, पाँच रोटियों और दो मछलियों से कितने लोगों को खिलाया गया? पवित्रशास्त्र में यह दर्ज है : "उस जगह बहुत घास थी: तब लोग जिनमें पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हज़ार की थी, बैठ गए।" पाँच रोटियों और दो मछलियों की तुलना में क्या पाँच हज़ार एक बड़ी संख्या है? इतनी बड़ी संख्या क्या दर्शाती है? मानवीय परिप्रेक्ष्य से पाँच हज़ार लोगों में पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ बाँटना असंभव होगा, क्योंकि लोगों और भोजन के बीच का अंतर बहुत बड़ा है। यदि प्रत्येक व्यक्ति को केवल एक छोटा-सा टुकड़ा भी मिलता, तब भी यह पाँच हज़ार लोगों के लिए काफी न होता। परंतु यहाँ प्रभु यीशु ने एक चमत्कार किया—उसने न केवल यह सुनिश्चित किया कि पाँच हज़ार लोग भरपेट खा लें, बल्कि कुछ भोजन बच भी गया। पवित्रशास्त्र में लिखा है : "जब वे खाकर तृप्‍त हो गए तो उसने अपने चेलों से कहा, 'बचे हुए टुकड़े बटोर लो कि कुछ फेंका न जाए।' अत: उन्होंने बटोरा, और जौ की पाँच रोटियों के टुकड़ों से जो खानेवालों से बच रहे थे, बारह टोकरियाँ भरीं।" इस चमत्कार ने लोगों को प्रभु यीशु की पहचान और हैसियत देखने में सक्षम बनाया, और यह भी कि परमेश्वर के लिए कुछ भी असंभव नहीं है—इस तरह उन्होंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की सच्चाई को देखा। पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ पाँच हज़ार लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त थीं, परंतु यदि वहाँ कोई भोजन न होता, तो क्या परमेश्वर पाँच हज़ार लोगों को खिला सकता था? निस्संदेह वह खिला सकता था! यह एक चमत्कार था, इसलिए अनिवार्य रूप से लोगों को लगा कि यह समझ से बाहर, अविश्वसनीय और रहस्यमय है, परंतु परमेश्वर के लिए ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं थी। जब परमेश्वर के लिए यह एक सामान्य चीज़ थी, तो इसे अब व्याख्या करने के लिए क्यों चुना है? क्योंकि इस चमत्कार के पीछे प्रभु यीशु की इच्छा निहित है, जिसे मानवजाति द्वारा कभी देखा नहीं गया है।

पहले, आओ यह समझने का प्रयास करें कि ये पाँच हज़ार लोग किस प्रकार के थे। क्या वे प्रभु यीशु के अनुयायी थे? पवित्रशास्त्र से हम जानते हैं कि वे उसके अनुयायी नहीं थे। क्या वे जानते थे कि प्रभु यीशु कौन है? निश्चित रूप से नहीं! कम से कम, वे यह नहीं जानते थे कि जो व्यक्ति उनके सामने खड़ा है वह प्रभु यीशु है, या हो सकता है कि कुछ लोग केवल इतना जानते हों कि उसका नाम क्या है, और वे उसके द्वारा की गई चीज़ों के बारे में कुछ जानते हों या उनके बारे में उन्होंने कुछ सुना हो। प्रभु यीशु के बारे में उनकी उत्सुकता केवल तभी जाग्रत हुई थी, जब उन्होंने उसके बारे में कहानियाँ सुनी थीं, पर तुम लोग निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते कि वे उसका अनुसरण करते थे, और यह तो बिलकुल भी नहीं कह सकते कि वे उसे समझते थे। जब प्रभु यीशु ने इन पाँच हज़ार लोगों को देखा, तो वे भूखे थे और केवल अपना पेट भरने के बारे में ही सोच सकते थे, इसलिए यह इस संदर्भ में था कि प्रभु यीशु ने उनकी इच्छा पूरी की। जब उसने उनकी इच्छा पूरी की, तो उसके हृदय में क्या था? इन लोगों के प्रति उसका रवैया क्या था, जो केवल अपना पेट भरना चाहते थे? इस समय प्रभु यीशु के विचार और उसका रवैया परमेश्वर के स्वभाव और सार से संबंधित थे। इन लोगों का सामना करने पर, जो खाली पेट थे और केवल भरपेट भोजन करना चाहते थे, और जो उसके प्रति उत्सुकता और आशा से भरे थे, प्रभु यीशु ने केवल उन पर अनुग्रह करने के लिए इस चमत्कार का उपयोग करने के बारे में सोचा। किंतु उसने यह आशा नहीं की कि वे उसके अनुयायी बन जाएँगे, क्योंकि वह जानता था कि वे केवल मौज-मस्ती करना और पेट भरकर खाना चाहते थे, इसलिए उसने वहाँ जो कुछ उसके पास था, उसका सर्वोत्तम उपयोग किया, और पाँच हज़ार लोगों को खिलाने के लिए पाँच रोटियों और दो मछलियों का उपयोग किया। उसने उन लोगों की आँखें खोल दीं, जिन्हें रोमांचक चीज़ें देखने में मज़ा आता था, जो चमत्कार देखना चाहते थे, और उन्होंने अपनी आँखों से उन चीज़ों को देखा, जिन्हें देहधारी परमेश्वर पूरी कर सकता था। यद्यपि प्रभु यीशु ने उनकी उत्सुकता शांत करने के लिए कुछ मूर्त चीज़ों का उपयोग किया, किंतु वह अपने हृदय में पहले से जानता था कि ये पाँच हज़ार लोग बस अच्छा भोजन करना चाहते हैं, इसलिए उसने उन्हें उपदेश नहीं दिया, बल्कि उनसे कुछ भी नहीं कहा—उसने बस उन्हें वह चमत्कार घटित होता देखने दिया। वह इन लोगों के साथ ठीक उसी तरह से व्यवहार नहीं कर सकता था, जिस तरह से वह अपने उन शिष्यों के साथ करता था जो वास्तव में उसका अनुसरण करते थे, परंतु परमेश्वर के हृदय में सभी प्राणी उसके शासन के अधीन हैं, और आवश्यकता पड़ने पर वह अपनी दृष्टि में सभी प्राणियों को परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने देता है। भले ही ये लोग नहीं जानते थे कि वह कौन है या वे उसे समझते नहीं थे या रोटियाँ और मछली खाने के बाद भी उनके ऊपर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था या उसके प्रति उनमें कोई कृतज्ञता नहीं थी, यह ऐसा कुछ नहीं था जिसका परमेश्वर ने मुद्दा बनाया हो—उसने उन्हें परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने का एक अद्भुत अवसर दिया था। कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें उसके सिद्धांत होते हैं, कि वह अविश्वासियों पर नज़र नहीं रखता या उनकी सुरक्षा नहीं करता, और कि, विशेष रूप से, वह उन्हें अपने अनुग्रह का आनंद नहीं उठाने देता। क्या मामला वास्तव में ऐसा ही है? परमेश्वर की नज़रों में, जब तक वे ऐसे जीवित प्राणी हैं जिन्हें उसने स्वयं बनाया है, वह उनका प्रबंधन और उनकी परवाह करेगा; और अनेक तरीकों से वह उनके साथ व्यवहार करेगा, उनके लिए योजना बनाएगा और उन पर शासन करेगा। सभी चीज़ों के प्रति परमेश्वर के यही विचार और यही रवैया है।

यद्यपि रोटी और मछली खाने वाले पाँच हज़ार लोगों ने प्रभु यीशु का अनुसरण करने की योजना नहीं बनाई, फिर भी उसने उनसे कोई कठोर माँग नहीं की; जब उन्होंने भरपेट खा लिया, तो क्या तुम लोग जानते हो कि प्रभु यीशु ने क्या किया? क्या उसने उन्हें ज़रा भी उपदेश दिया? ऐसा करने के बाद वह कहाँ गया? पवित्रशास्त्र में दर्ज नहीं है कि प्रभु यीशु ने उनसे कुछ कहा था; बस अपना चमत्कार पूरा करके वह चुपके से चला गया। तो क्या उसने इन लोगों से कोई अपेक्षा की? क्या उसके मन में उनके प्रति कोई नफ़रत थी? नहीं, ऐसा कुछ नहीं था। वह बस इन लोगों पर अब और ध्यान देना नहीं चाहता था, जो उसका अनुसरण नहीं कर सकते थे, और इस समय उसके हृदय में दर्द था। क्योंकि उसने मानवजाति की भ्रष्टता को देखा था और उसके द्वारा नकारे जाने का अनुभव किया था, जब उसने इन लोगों को देखा और जब वह उनके साथ था, तो मनुष्य की मूढ़ता और अज्ञानता से वह बहुत दुःखी हुआ और उसके हृदय को पीड़ा पहुँची, वह बस इन लोगों को जल्दी से जल्दी छोड़कर चला जाना चाहता था। प्रभु ने अपने हृदय में उनसे कोई अपेक्षाएँ नहीं कीं, वह उन पर कोई ध्यान देना नहीं चाहता था, और इससे भी अधिक, वह अपनी ऊर्जा उन पर व्यय नहीं करना चाहता था। वह जानता था कि वे उसका अनुसरण नहीं कर सकते, किंतु इस सबके बावजूद, उनके प्रति उसका रवैया अभी भी बिलकुल स्पष्ट था। वह बस उनके साथ दयालुता का बरताव करना चाहता था, उन्हें अनुग्रह प्रदान करना चाहता था, और निस्संदेह, यह अपने शासन के अधीन प्रत्येक प्राणी के प्रति परमेश्वर का रवैया था—प्रत्येक प्राणी के साथ दयालुता का व्यवहार करना, उनका भरण-पोषण करना, उनका पालन-पोषण करना। जिस मुख्य कारण से प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर था, उस कारण से उसने बहुत ही प्राकृतिक ढंग से स्वयं परमेश्वर के सार को प्रकट किया और इन लोगों के साथ दयालुता का बरताव किया। उसने उनके साथ परोपकार और सहनशीलता वाले हृदय से व्यवहार किया, और ऐसे हृदय से उसने उन पर दया दिखाई। चाहे इन लोगों ने प्रभु यीशु को जैसे भी देखा, और चाहे इसका जैसा भी परिणाम होता, उसने हर प्राणी के साथ समस्त सृष्टि के प्रभु की अपनी स्थिति के आधार पर व्यवहार किया। उसने जो कुछ भी प्रकट किया, वह बिना किसी अपवाद के परमेश्वर का स्वभाव और स्वरूप था। प्रभु यीशु ने चुपचाप यह काम किया, और फिर चुपचाप चला गया—परमेश्वर के स्वभाव का यह कौन-सा पहलू है? क्या तुम कह सकते हो कि यह परमेश्वर की प्रेममय करुणा है? क्या तुम कह सकते हो कि यह परमेश्वर की निस्स्वार्थता है? क्या कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा कर सकता है? निश्चित रूप से नहीं! सार रूप में, ये पाँच हज़ार लोग कौन थे, जिन्हें प्रभु यीशु ने पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ खिलाईं? क्या तुम कह सकते हो कि वे ऐसे लोग थे, जो उसके अनुकूल थे? क्या तुम कह सकते हो कि वे सभी परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण थे? ऐसा निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि वे प्रभु यीशु के बिलकुल भी अनुरूप नहीं थे, और उनका सार परमेश्वर के प्रति एकदम शत्रुतापूर्ण था। परंतु परमेश्वर ने उनके साथ कैसा बरताव किया? उसने परमेश्वर के प्रति लोगों का विरोध शांत करने के लिए एक तरीके का उपयोग किया था—इस तरीके को "दयालुता" कहते हैं। अर्थात्, यद्यपि प्रभु यीशु ने उन्हें पापियों के रूप में देखा, किंतु परमेश्वर की नज़रों में वे फिर भी उसकी रचना थे, इसलिए उसने इन पापियों के साथ फिर भी दयालुता का व्यवहार किया। यह परमेश्वर की सहनशीलता है, और यह सहनशीलता परमेश्वर की अपनी पहचान और सार से निर्धारित होती है। इसलिए, यह ऐसी चीज़ है, जिसे करने में परमेश्वर द्वारा सृजित कोई भी मनुष्य सक्षम नहीं है—केवल परमेश्वर ही इसे कर सकता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

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