परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 70

07 मार्च, 2021

खोई हुई भेड़ का दृष्टांत

मत्ती 18:12-14 तुम क्या सोचते हो? यदि किसी मनुष्य की सौ भेड़ें हों, और उनमें से एक भटक जाए, तो क्या वह निन्यानबे को छोड़कर, और पहाड़ों पर जाकर, उस भटकी हुई को न ढूँढ़ेगा? और यदि ऐसा हो कि उसे पाए, तो मैं तुम से सच कहता हूँ कि वह उन निन्यानबे भेड़ों के लिये जो भटकी नहीं थीं, इतना आनन्द नहीं करेगा जितना कि इस भेड़ के लिये करेगा। ऐसा ही तुम्हारे पिता की जो स्वर्ग में है यह इच्छा नहीं कि इन छोटों में से एक भी नष्‍ट हो।

यह अंश एक दृष्टांत है—यह लोगों को किस प्रकार की भावना देता है? यहाँ उपयोग किया गया अभिव्यक्ति का यह तरीका—दृष्टांत—मानवीय भाषा में एक अलंकार है, और इस प्रकार यह मनुष्य के ज्ञान के दायरे के भीतर आता है। यदि परमेश्वर ने व्यवस्था के युग में ऐसा ही कुछ कहा होता, तो लोगों को लगता कि ये वचन वास्तव में परमेश्वर के अनुरूप नहीं हैं, लेकिन जब अनुग्रह के युग में मनुष्य के पुत्र ने ये वचन कहे, तब लोगों को ये सुकून देने वाले, गर्मजोशी से भरे और अंतरंग महसूस हुए। जब परमेश्वर देह बन गया, जब वह एक मनुष्य के रूप में प्रकट हुआ, तो उसने अपने हृदय की वाणी व्यक्त करने के लिए अपनी मानवता से आए एक बहुत ही उचित दृष्टांत का उपयोग किया। इस वाणी ने परमेश्वर की अपनी वाणी और उस कार्य का प्रतिनिधित्व किया, जो वह उस युग में करना चाहता था। इसने अनुग्रह के युग के लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये को भी दर्शाया। लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये के परिप्रेक्ष्य से देखें तो, उसने हर व्यक्ति की तुलना एक भेड़ से की। यदि एक भेड़ खो जाती है, तो उसे खोजने के लिए वह जो कुछ भी कर सकता है, सो करेगा। इसने उस समय मनुष्यों के बीच परमेश्वर के कार्य के सिद्धांत को दर्शाया, जब वह देह में था। परमेश्वर ने उस कार्य में अपने संकल्प और रवैये को दर्शाने के लिए इस दृष्टांत का उपयोग किया। यह परमेश्वर के देह बनने का लाभ था : वह मानवजाति के ज्ञान का लाभ उठा सकता था और लोगों से बात करने और अपनी इच्छा व्यक्त करने के लिए मानवीय भाषा का उपयोग कर सकता था। उसने मनुष्य को अपनी गहन, दिव्य भाषा, जिसे समझने में लोगों को संघर्ष करना पड़ता था, मानवीय भाषा में, मानवीय तरीके से समझाई या "अनुवादित" की। इससे लोगों को उसकी इच्छा को समझने और यह जानने में सहायता मिली कि वह क्या करना चाहता है। वह मानवीय भाषा का प्रयोग करके मानवीय परिप्रेक्ष्य से लोगों के साथ वार्तालाप कर सकता था, और लोगों के साथ उस तरीके से बातचीत कर सकता था, जिसे वे समझ सकते थे। यहाँ तक कि वह मानवीय भाषा और ज्ञान का उपयोग करके बोल और कार्य कर सकता था, ताकि लोग परमेश्वर की दयालुता और घनिष्ठता महसूस कर सकें, ताकि वे उसके हृदय को देख सकें। तुम लोग इसमें क्या देखते हो? क्या परमेश्वर के वचनों और कार्यों में कोई निषेध है? लोग समझते हैं कि ऐसा कोई तरीका नहीं है, जिससे परमेश्वर यह बताने के लिए कि स्वयं परमेश्वर क्या कहना चाहता है, कौन-सा कार्य करना चाहता है, या अपनी स्वयं की इच्छा व्यक्त करने के लिए वह मनुष्यों के ज्ञान, भाषा या बोलने के तरीकों का उपयोग कर सके। किंतु यह गलत सोच है। परमेश्वर ने इस प्रकार के दृष्टांत का उपयोग इसलिए किया, ताकि लोग परमेश्वर की वास्तविकता और ईमानदारी महसूस कर सकें, और उस समयावधि के दौरान लोगों के प्रति उसके रवैये को देख सकें। इस दृष्टांत ने लंबे समय से व्यवस्था के अधीन जी रहे लोगों को स्वप्न से जगा दिया, और इसने अनुग्रह के युग में रहने वाले लोगों को भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रेरित किया। इस दृष्टांत वाले अंश को पढ़कर लोग मानवजाति को बचाने में परमेश्वर की ईमानदारी को जानते हैं और परमेश्वर के हृदय में मानवजाति को दिए गए वजन और महत्व को समझते हैं।

आओ, इस अंश के अंतिम वाक्य पर एक नज़र डालें : "ऐसा ही तुम्हारे पिता की जो स्वर्ग में है यह इच्छा नहीं कि इन छोटों में से एक भी नष्‍ट हो।" क्या ये प्रभु यीशु के अपने वचन थे या उसके स्वर्गिक पिता के वचन थे? सतही तौर पर ऐसा लगता है कि यह प्रभु यीशु है जो बोल रहा है, किंतु उसकी इच्छा स्वयं परमेश्वर की इच्छा को दर्शाती है, इसीलिए उसने कहा : "ऐसा ही तुम्हारे पिता की जो स्वर्ग में है यह इच्छा नहीं कि इन छोटों में से एक भी नष्‍ट हो।" उस समय लोग केवल स्वर्गिक पिता को ही परमेश्वर के रूप में स्वीकार करते थे, और यह मानते थे कि यह व्यक्ति, जिसे वे अपनी आँखों के सामने देखते हैं, बस उसके द्वारा भेजा हुआ है और यह स्वर्गिक पिता का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। इसीलिए प्रभु यीशु को इस दृष्टांत के अंत में यह वाक्य जोड़ना पड़ा, ताकि लोग वास्तव में मानवजाति के लिए परमेश्वर की इच्छा अनुभव कर सकें, और उसके कथन की प्रामाणिकता और सटीकता महसूस कर सकें। भले ही यह वाक्य कहना एक साधारण बात थी, किंतु यह बहुत परवाह और प्रेम के साथ बोला गया था और इसने प्रभु यीशु की विनम्रता और प्रच्छन्नता प्रकट की। चाहे परमेश्वर देह बना या उसने आध्यात्मिक क्षेत्र में कार्य किया, वह मनुष्य के हृदय को सर्वोत्तम ढंग से जानता था, और सर्वोत्तम ढंग से समझता था कि लोगों को किस चीज़ की आवश्यकता है, और जानता था कि लोग किस बात से चिंतित हैं और क्या चीज़ उन्हें भ्रमित करती है, इसीलिए उसने यह वाक्य जोड़ा। इस वाक्य ने मानवजाति में छिपी एक समस्या उजागर कर दी : मनुष्य के पुत्र ने जो कुछ कहा, लोगों को उस पर संशय था, अर्थात्, जब प्रभु यीशु बोल रहा था, तो उसे यह जोड़ना पड़ा : "ऐसा ही तुम्हारे पिता की जो स्वर्ग में है यह इच्छा नहीं कि इन छोटों में से एक भी नष्‍ट हो," और केवल इस आधार पर ही उसके वचन लोगों को अपनी सटीकता का विश्वास दिलाने और उनकी विश्वसनीयता बढ़ाने में सफल हो सकते थे। यह दिखाता है कि जब परमेश्वर एक सामान्य मनुष्य का पुत्र बन गया, तब परमेश्वर और मानवजाति के बीच एक बड़ा असहज संबंध था, और कि मनुष्य के पुत्र की स्थिति बड़ी उलझन भरी थी। इससे यह भी पता चलता है कि उस समय मनुष्यों के बीच प्रभु यीशु की हैसियत कितनी मामूली थी। जब उसने यह कहा, तो यह वास्तव में लोगों को यह बताने के लिए था : तुम लोग निश्चिंत हो सकते हो—ये वचन मेरे अपने हृदय की बात नहीं दर्शाते, बल्कि ये उस परमेश्वर की इच्छा है, जो तुम लोगों के हृदय में है। मानवजाति के लिए, क्या यह एक विडंबना नहीं थी? भले ही देह में रहकर काम कर रहे परमेश्वर को अनेक ऐसे फायदे थे, जो उसके अपने व्यक्तित्व में नहीं थे, फिर भी उसे उनके संदेहों और अस्वीकृति को और साथ ही उनकी संवेदनशून्यता और मूढ़़ता को भी सहन करना पड़ा। ऐसा कहा जा सकता है कि मनुष्य के पुत्र के कार्य की प्रक्रिया मनुष्य की अस्वीकृति और उसके द्वारा अपने साथ प्रतिस्पर्धा किए जाने का अनुभव करने की प्रक्रिया थी। इससे भी अधिक, यह मानवजाति के भरोसे को निरंतर जीतने और अपने स्वरूप और सार के माध्यम से मानवजाति पर विजय पाने के लिए कार्य करने की प्रक्रिया थी। यह इतना ही नहीं था कि देहधारी परमेश्वर शैतान के विरुद्ध जमीनी लड़ाई लड़ रहा था; इससे भी अधिक यह परमेश्वर का एक सामान्य मनुष्य बनकर अपने अनुयायियों के साथ संघर्ष शुरू करना था, और इस संघर्ष में मनुष्य के पुत्र ने अपनी विनम्रता के साथ, अपने स्वरूप के साथ और अपने प्रेम और बुद्धि के साथ अपना कार्य पूरा किया। उसने उन लोगों को प्राप्त किया जिन्हें वह चाहता था, वह पहचान और हैसियत प्राप्त की जिसका वह हकदार था, और अपने सिंहासन की ओर "लौट" गया।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

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