परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 36

05 मार्च, 2021

परमेश्वर को सदोम नष्ट करना ही होगा (चुने हुए अंश)

(उत्पत्ति 18:26) यहोवा ने कहा, "यदि मुझे सदोम में पचास धर्मी मिलें, तो उनके कारण उस सारे स्थान को छोड़ूँगा।"

(उत्पत्ति 18:29) फिर उसने उससे यह भी कहा, "कदाचित् वहाँ चालीस मिलें।" उसने कहा, "तो भी मैं ऐसा न करूँगा।"

(उत्पत्ति 18:30) फिर उसने कहा, "कदाचित् वहाँ तीस मिलें।" उसने कहा, "तो भी मैं ऐसा न करूँगा।"

(उत्पत्ति 18:31) फिर उसने कहा, "कदाचित् उसमें बीस मिलें।" उसने कहा, "मैं उसका नाश न करूँगा।"

(उत्पत्ति 18:32) फिर उसने कहा, "कदाचित् उसमें दस मिलें।" उसने कहा, "तो भी मैं उसका नाश न करूँगा।"

परमेश्वर केवल ऐसे लोगों के विषय में ही चिंता करता है जो उसके वचनों को मानने और उसकी आज्ञाओं का पालन करने के योग्य हैं

ऊपर दिए गए अंशों में कई मुख्य शब्द समाविष्ट हैं: संख्या। पहला, यहोवा ने कहा कि यदि उसे नगर में पचास धर्मी मिलें, तो वह उस सारे स्थान को छोड़ देगा, दूसरे शब्दों में, वह नगर का नाश नहीं करेगा। अतः क्या वहाँ सदोम के भीतर वास्तव में पचास धर्मी थे? वहाँ नहीं थे। इसके तुरन्त बाद, अब्राहम ने परमेश्वर से क्या कहा? उसने कहा, कदाचित् वहाँ चालीस मिलें। परमेश्वर ने कहा, मैं नाश नहीं करूंगा। इसके आगे, अब्राहम ने कहा, यदि वहाँ तीस मिलें? परमेश्वर ने कहा, मैं नाश नहीं करूंगा। यदि वहाँ बीस मिलें? मैं नाश नहीं करूंगा। दस? मैं नाश नहीं करूंगा। क्या वहाँ नगर के भीतर वास्तव में दस धर्मी थे? वहाँ पर दस नहीं थे—केवल एक ही था। और वह कौन था? वह लूत था। उस समय, सदोम में मात्र एक ही धर्मी व्यक्ति था, परन्तु क्या परमेश्वर बहुत कठोर था या बलपूर्वक मांग कर रहा था जब बात इस संख्या तक पहुंच गयी? नहीं, वह कठोर नहीं था। और इस प्रकार, जब मनुष्य लगातार पूछता रहा, "चालीस हों तो क्या?" "तीस हों तो क्या?" जब वह "दस हों तो क्या" तक नहीं पहुंच गया? परमेश्वर ने कहा, "यदि वहाँ पर मात्र दस भी होंगे तो मैं उस नगर को नाश नहीं करूंगा; मैं उसे बचा रखूंगा, और इन दस के कारण सभी को माफ कर दूंगा।" दस की संख्या काफी दयनीय होती, परन्तु ऐसा हुआ कि, सदोम में वास्तव में उतनी संख्या में भी धर्मी लोग नहीं थे। तो तू देख, कि परमेश्वर की नज़रों में, नगर के लोगों का पाप एवं दुष्टता ऐसी थी कि परमेश्वर के पास उसे नष्ट करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। परमेश्वर का क्या अभिप्राय था जब उसने कहा कि वह उस नगर को नष्ट नहीं करेगा यदि उस में पचास धर्मी मिलें? परमेश्वर के लिए ये संख्याएं महत्वपूर्ण नहीं थीं। जो महत्वपूर्ण था वह यह कि उस नगर में ऐसे धर्मी हैं या नहीं जिन्हें वह चाहता था। यदि उस नगर में मात्र एक धर्मी मनुष्य होता, तो परमेश्वर उस नगर के विनाश के कारण उनकी हानि की अनुमति नहीं देता। इसका अर्थ यह है कि, इसके बावजूद कि परमेश्वर उस नगर को नष्ट करने वाला था या नहीं, और इसके बावजूद कि उसके भीतर कितने धर्मी थे या नहीं, परमेश्वर के लिए यह पापी नगर श्रापित एवं घिनौना था, और इसे नष्ट किया जाना चाहिए, इसे परमेश्वर की दृष्टि से ओझल हो जाना चाहिए, जबकि धर्मी लोगों को बने रहना चाहिए। युग के बावजूद, मानवजाति के विकास की अवस्था के बावजूद, परमेश्वर की मनोवृत्ति नहीं बदलती है: वह बुराई से घृणा करता है, और अपनी नज़रों में धर्मी की परवाह करता है। परमेश्वर की यह स्पष्ट मनोवृत्ति ही परमेश्वर की हस्ती (मूल-तत्व) का सच्चा प्रकाशन है। क्योंकि वहाँ उस नगर के भीतर केवल एक ही धर्मी व्यक्ति था, इसलिए परमेश्वर और नहीं हिचकिचाया। अंत का परिणाम यह था कि सदोम को आवश्यक रूप से नष्ट किया जाएगा। इस में तुम लोग क्या देखते हो? उस युग में, परमेश्वर ने उस नगर को नष्ट नहीं किया होता यदि उसके भीतर पचास धर्मी होते, और तब भी नष्ट नहीं करता यदि दस धर्मी भी होते, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर ने मानवजाति को क्षमा करने और उसके प्रति सहनशील होने का निर्णय लिया होता, या कुछ लोगों के कारण मार्गदर्शन देने का कार्य किया होता जो उसका आदर करने और उसकी आराधना करने के योग्य होते। परमेश्वर मनुष्य की धार्मिकता में बड़ा विश्वास करता है, ऐसे लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसकी आराधना करने के योग्य हैं, और वह ऐसे लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसके सामने भले कार्यों को करने के योग्य हैं।

अति प्राचीन समयों से लेकर आज के दिन तक, क्या तुम लोगों ने कभी बाइबल में पढ़ा है कि परमेश्वर किसी व्यक्ति से सत्य का संवाद करता है, या किसी व्यक्ति को परमेश्वर के मार्ग के बारे में बताया है? नहीं, कभी नहीं। मनुष्य के लिए परमेश्वर के वचन जिनके विषय में हम पढ़ते हैं वे लोगों को केवल यह बताते थे कि क्या करना था। कुछ लोग गए और उसे किया, परन्तु कुछ लोगों ने नहीं किया; कुछ लोगों ने विश्वास किया, और कुछ लोगों ने नहीं किया। बस यही सब कुछ था। इस प्रकार, उस युग के धर्मी लोग—वे जो परमेश्वर की निगाहों में धर्मी थे—महज ऐसे लोग थे जो केवल परमेश्वर के वचन को सुन सकते थे और परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन कर सकते थे। वे ऐसे सेवक थे जिन्होंने परमेश्वर के वचन को मनुष्य के बीच में सम्पन्न किया था। क्या इस प्रकार के लोगों को ऐसे मनुष्य कहा जा सकता था जो परमेश्वर को जानते थे? क्या उन्हें ऐसे लोग कहा जा सकता था जिन्हें परमेश्वर के द्वारा सिद्ध किया गया था? नहीं, उन्हें नहीं कहा जा सकता था। और इस प्रकार, उनकी संख्या के बावजूद, परमेश्वर की दृष्टि में क्या ये धर्मी लोग परमेश्वर के विश्वासपात्र कहलाने के योग्य थे? क्या उन्हें परमेश्वर के गवाह कहा जा सकता था? बिलकुल भी नहीं! वे निश्चित तौर पर परमेश्वर के विश्वासपात्र एवं गवाह कहलाने के योग्य नहीं थे। और इस प्रकार परमेश्वर ने ऐसे लोगों को क्या कहा? बाइबल में, पवित्र शास्त्र के उन अंशों तक जिन्हें अभी पढ़ा गया है, ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहाँ परमेश्वर ने उन्हें "मेरे सेवक" कहकर सम्बोधित किया है। कहने का तात्पर्य है, उस समय, परमेश्वर की निगाहों में ये धर्मी लोग परमेश्वर के सेवक थे, ये ऐसे लोग थे जो पृथ्वी पर उसकी सेवाकरते थे। और परमेश्वर ने इस विशिष्ट नाम के विषय में किस प्रकार सोचा था? उसने उन्हें ऐसा क्यों कहा था? क्या परमेश्वर के पास ऐसे मापदंड हैं इस बात के विषय में कि वह इन लोगों को अपने हृदय में क्या कहकर पुकारता है? निश्चित तौर पर उसके पास हैं। परमेश्वर के पास मापदंड हैं, इसके बावजूद कि वह लोगों को धर्मी, सिद्ध, ईमानदार, या सेवक कहकर पुकारता है या नहीं। जब वह किसी व्यक्ति को अपना सेवक कहकर पुकारता है, तो उसे दृढ़ विश्वास है कि यह व्यक्ति उसके संदेशवाहकों को ग्रहण करने के योग्य है, और परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने के योग्य है, और जिस बात की आज्ञा संदेशवाहकों के द्वारा दी जाती है वह उसे सम्पन्न कर सकता है। और यह व्यक्ति क्या सम्पन्न करता है? उसे जिसे पृथ्वी पर क्रियान्वित एवं सम्पन्न करने के लिए परमेश्वर मनुष्य को आज्ञा देता है। उस समय, क्या जिसे पृथ्वी पर क्रियान्वित एवं सम्पन्न करने के लिए परमेश्वर मनुष्य को आज्ञा देता है उसे परमेश्वर का मार्ग कहा जा सकता है? नहीं, इसे नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि उस समय, परमेश्वर ने केवल यह माँगा था कि मनुष्य कुछ साधारण चीज़ों को करे; उसने कुछ साधारण आज्ञाओं को बोला था, मनुष्य को केवल कुछ निश्चित चीज़ें करने को कहते हुए, इससे ज़्यादा और कुछ नहीं। परमेश्वर अपनी योजना के अनुसार कार्य कर रहा था। क्योंकि उस समय, बहुत सी परिस्थितियां तब तक मौजूद नहीं थीं, समय तब तक पूरा नहीं हुआ था, और मानवजाति के लिए परमेश्वर के मार्ग का भार उठाना बहुत मुश्किल था, इस प्रकार परमेश्वर के मार्ग को अभी उसके हृदय से प्रकट होना था। जिन धर्मियों के विषय में परमेश्वर ने कहा था, वे बीस हों या तीस, उन्हें वह अपने सेवकों के रूप में देखता था। जब परमेश्वर के संदेशवाहक इन सेवकों के पास आते, तब वे इन्हें ग्रहण करने, उनकी आज्ञाओं का पालन करने, और उनके वचन के अनुसार कार्य करने के योग्य होते। यह बिलकुल वही था जिसे परमेश्वर की निगाहों में सेवकों के द्वारा किया जाना चाहिए था, और उसे अर्जित किया जाना चाहिए। स्वयं के द्वारा लोगों को विशिष्ट नाम देने में परमेश्वर न्यायसंगत है। वह उन्हें अपने सेवक कहकर नहीं पुकारता है क्योंकि वे वैसे ही थे जैसे अब तुम लोग हो—क्योंकि उन्होंने काफी प्रचार सुना था, वे जानते थे कि परमेश्वर क्या करनेवाला है, वे परमेश्वर की अधिकांश इच्छा को जानते थे, और उसकी प्रबन्धकीय योजना को समझते थे—परन्तु क्योंकि उनकी मानवता सच्ची थी और वे परमेश्वर के वचनों को मानने के योग्य थे; जब परमेश्वर ने उन्हें आज्ञा दी, तो जो कुछ वे कर रहे थे वे उसे दर किनार करने के योग्य थे और उसे सम्पन्न करने के योग्य थे जिसकी परमेश्वर ने आज्ञा दी थी। और इस प्रकार, परमेश्वर के लिए, सेवक की उपाधि के अर्थ में दूसरी परत यह है कि उन्होंने पृथ्वी पर उसके कार्य के साथ सहयोग किया था, और हालाँकि वे परमेश्वर के संदेशवाहक नहीं थे, फिर भी वे पृथ्वी पर परमेश्वर के वचनों का निर्वाहन करनेवाले और उन्हें क्रियान्वित करनेवाले थे। तो तुम लोग देखो, कि ये सेवक या धर्मी लोग परमेश्वर के हृदय में बड़ा प्रभाव रखते थे। वह कार्य जिसकी परमेश्वर पृथ्वी पर साहसिक शुरुआत करने वाला था उसे लोगों की सहायता के बिना पूरा नहीं किया जा सकता था, और परमेश्वर के सेवकों के द्वारा ली गई भूमिका को परमेश्वर के संदेशवाहकों के द्वारा बदला नहीं जा सकता था। प्रत्येक नियत कार्य जिसकी आज्ञा परमेश्वर ने इन सेवकों को दी थी वह उसके लिए अत्याधिक महत्व रखता था, और इस प्रकार वह उन्हें खो नहीं सकता था। परमेश्वर के साथ इन सेवकों के सहयोग के बिना, मानवजाति के मध्य उसका कार्य ठहराव की ओर आ गया होता, जिसके परिणामस्वरूप परमेश्वर की प्रबन्धकीय योजना और परमेश्वर की आशाएं निरर्थक हो गई होतीं।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

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