मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए (भाग तीन)
हमारी संगति ने अभी-अभी मुख्य रूप से, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए, इस पर परमेश्वर की प्रबंधन योजना के संदर्भ में, परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से गौर किया। दूसरी ओर से देखने पर यह थोड़ा सरल है। स्वयं मनुष्य के संदर्भ में, मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए? अत्यंत सरल रूप में, अगर मनुष्य व्यवस्था के अधीन जीता, सत्य को न समझता, और उसका अनुसरण व्यवस्था कायम रखने से अधिक कुछ न होता, तो आखिरकार उसका क्या परिणाम होता? इसका बस एकमात्र परिणाम यही होता कि व्यवस्था कायम न रख पाने के कारण मनुष्य व्यवस्था द्वारा दंडित होता। वहाँ से अनुग्रह के युग की ओर जाएँ तो : उस युग में, मनुष्य बहुत-कुछ समझता था, उसने मनुष्य के बारे में परमेश्वर से काफी नई जानकारियाँ—मानव आचरण के लिए दिशा-निर्देश और आज्ञाएँ—प्राप्त कर ली थीं। धर्म-सिद्धांत के संबंध में मनुष्य बहुत लाभान्वित हुआ। फिर भी, मनुष्य को आशा थी कि उसे सत्य समझे बिना ही परमेश्वर की और अधिक रक्षा, समर्थन, आशीष और अनुग्रह प्राप्त होंगे; मनुष्य का नजरिया अभी भी परमेश्वर से विनती करने का था, और विनती करते समय उसके प्रयासों का लक्ष्य और दिशा अभी भी शारीरिक जीवन, शारीरिक ऐशो-आराम, और बेहतर शारीरिक जीवनयापन की ओर थी। उसके अनुसरण का लक्ष्य अभी भी सत्य के प्रतिकूल और उसके विरुद्ध था। सत्य के अनुसरण में सक्षम होने में मनुष्य अभी भी पीछे था, वह ऐसे वास्तविक जीवन में प्रवेश नहीं कर सका था, जिसमें सत्य व्यक्ति के अस्तित्व का आधार होता है। मनुष्य के जीवन की यही वास्तविकताएँ हैं, जो वह सभी व्यवस्थाओं या अनुग्रह के युग की आज्ञाओं और बाध्यताओं को समझने, और सत्य को अब तक न समझने की बुनियाद पर जीता है। जब मनुष्य के जीवन की ये वास्तविकताएँ हों, तो वे बिना एहसास किए ही अक्सर अपनी दिशा खो देंगे। उसी तरह जैसे लोग कहते हैं : “मैं उलझन में हूँ, कुछ सूझ नहीं रहा।” अविरत उलझन की ऐसी दशा में, मनुष्य अक्सर एक शून्य में डूब जाएगा, परेशान हो जाएगा, नहीं जान पाएगा कि मनुष्य क्यों जीता है या भविष्य कैसा होगा, उसे यह तो और भी पता नहीं होगा कि असल जीवन में सामने आने वाले विभिन्न लोगों, घटनाओं, और चीजों का सामना कैसे करना है, और उनका सामना करने का सही तरीका क्या है। परमेश्वर के बहुत-से अनुयायी, विश्वासी भी हैं, जो आज्ञाओं का पालन करते हुए, परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद उठाते हुए भी, रुतबे, दौलत, आशाजनक भविष्य, समकक्षियों के बीच प्रतिष्ठा, शानदार शादियों, घरेलू संतृप्ति, और ऐश्वर्य के पीछे भागते हैं—और आज के समाज में, वे देहसुख, जीवन के ऐशो-आराम और आसानी के पीछे भागते हैं; विलासितापूर्ण भवनों, और गाड़ियों के पीछे भागते हैं; मानवजाति के रहस्यों और भविष्य की खोजबीन करने के लिए दुनिया भर की सैर के पीछे भागते हैं। मानवजाति अनेक व्यवस्थाओं और व्यावहारिक मानदंडों के नियमों और बंधनों को स्वीकृति में, भविष्य, मानवजाति के रहस्यों और मानवजाति के ज्ञान की सीमा से बाहर के हर मामले में झाँकने की अपनी प्रवृत्ति को छोड़ नहीं पाती है। ऐसा करते समय लोग अक्सर निस्सार, अवसादग्रस्त, खिन्न, नाराज, परेशान और भयभीत महसूस करते हैं, इतना अधिक कि जब उन पर बहुत-सी चीजें आन पड़ती हैं, तो उन्हें अपने गरम मिजाज और भावनाओं पर काबू करने में बहुत मुश्किल होती है। ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो काम में विषम हालात या घरेलू झगड़े, घरेलू मनमुटाव, वैवाहिक परेशानियों या सामाजिक भेदभाव जैसे भड़काऊ हालात का सामना होने पर, उदासी, अवसाद, दमन इत्यादि में डूब जाते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जो भावनाओं के चरम बिंदु पर पहुँच जाते हैं; कुछ ऐसे भी हैं जो उग्र साधनों के इस्तेमाल से अपने जीवन का अंत कर लेना चाहते हैं। जाहिर तौर पर ऐसे भी लोग हैं जो समाज में दूसरों से अलग-थलग रहने और अकेलेपन को चुन लेते हैं। इन सबसे समाज में कैसी चीजें पैदा हुई हैं? एकांतवासी, पुरुष और स्त्रियाँ; नैदानिक अवसाद; इत्यादि। ईसाइयों के जीवन में भी ऐसी बातों की कमी नहीं है; ये अक्सर होती हैं। सब-कुछ कहने-करने के बाद, इसका मूल कारण यह है कि मानवजाति नहीं समझती कि सत्य क्या है, मनुष्य कहाँ से आता है, कहाँ जा रहा है, मनुष्य जीवित क्यों है और उसे कैसे जीना चाहिए। मनुष्य नहीं जानता कि विभिन्न प्रकार के लोगों, घटनाओं, और चीजों से सामना होने पर, इन बातों को कैसे सँभाले, ठीक करे, दूर करे या कैसे इन सभी बातों को गहराई से देखे, ताकि वह सृजनकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं में, खुशी और आराम से जी सके। मानवजाति के पास यह क्षमता नहीं है। परमेश्वर की सत्य की अभिव्यक्ति के बिना और बिना उसके मनुष्य को यह बताए कि उसे लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखना चाहिए, और कैसा आचरण और कार्य करना चाहिए, मनुष्य अपने स्वयं के प्रयासों, अपने द्वारा अर्जित ज्ञान, समझे हुए जीवन कौशल, समझे हुए खेल के नियमों, और आचरण के नियमों और सांसारिक आचरण के फलसफों पर भरोसा करता है। वह मानव जीवन के अपने अनुभव और उसके प्रति उसके खुलासे पर, यहाँ तक कि किताबों से सीखी बातों पर भरोसा करता है—फिर भी जब वास्तविक जीवन अपनी तमाम मुश्किलें लेकर उनके सामने आता है, तो वह शक्तिहीन हो जाता है। ऐसे हालात में जीने वाले लोगों के लिए बाइबल पढ़ना बेकार है। प्रभु यीशु से प्रार्थना करना भी बेकार है, यहोवा से प्रार्थना की तो बात ही न करो। प्राचीन काल के नबियों ने जो भविष्यवाणियाँ कीं, उनको पढ़ने से भी उनकी समस्याएँ हल नहीं हो सकतीं। इसलिए कुछ लोग दुनिया की यात्रा करते हैं; वे चंद्रमा और मंगल की खोज पर जाते हैं, या भविष्य के बारे में बता सकने वाले नबियों को खोजकर उनसे बातें करते हैं। लेकिन ऐसा कर चुकने के बावजूद लोगों के दिलों में परेशानी, उदासी छाई रहती है, उन्हें तसल्ली नहीं मिलती। उनकी तरक्की की दिशा और लक्ष्य उन्हें बहुत दुर्ग्राह्य और खोखले लगते हैं। कुल मिलाकर मानवजाति का जीवन बहुत खोखला बना रहता है। मनुष्य के जीवन की यथास्थिति ऐसी होने के कारण वह अपना मनोरंजन करने के लिए अनेक साधनों का आविष्कार करता है : उदाहरण के लिए, पश्चिमी देशवासी जिनका आनंद उठाते हैं, ऐसे आधुनिक वीडियो गेम, बंगी जंपिंग, सर्फिंग, पर्वतारोहण, स्काईडाइविंग, चीनी जिन्हें पसंद करते हैं ऐसे विभिन्न नाटक, गाने, और नृत्य, और दक्षिण-पूर्व एशिया के पसंदीदा लेडीबॉय शो। लोग ऐसी चीजें भी देखते हैं, जो उनके आध्यात्मिक संसार और शारीरिक वासनाओं को संतुष्ट करते हैं। फिर भी उनका आमोद-प्रमोद चाहे जो हो, वे चाहे जो भी देखें, लोग अपने दिलों की गहराइयों में भविष्य को लेकर उलझन में ही रहते हैं। किसी ने दुनिया के चाहे जितने चक्कर लगाए हों, चाहे लोग चंद्रमा और मंगल पर हो आए हों, फिर भी लौटकर बस जाने के बाद वे पूरी तरह पहले जैसे ही हतोत्साहित हो जाते हैं। देखा जाए तो वे न जाने से कहीं अधिक जाने के कारण दुखी और परेशान हो जाएँगे। मनुष्यों को लगता है कि वे इतने खोखले, सामर्थ्यहीन, उलझे हुए और विचलित, और आने वाले अनजाने समय का पता लगाने के इतने इच्छुक इसलिए हैं क्योंकि लोग स्वयं का मनोरंजन करना नहीं जानते, जीने का तरीका नहीं जानते। वे सोचते हैं कि ऐसा इसलिए है कि लोग जीवन का आनंद लेना या मौजूदा पल का आनंद उठाना नहीं जानते; उन्हें लगता है कि उनकी रुचियाँ और अभिरुचियाँ बहुत मामूली हैं—पर्याप्त व्यापक नहीं हैं। फिर भी लोग चाहे जितनी रुचियाँ पालें, जितने भी मनोरंजनों में भाग लें, दुनिया की जितनी भी जगहों की सैर कर लें, मनुष्यों को तब भी लगता है कि वे जिस तरह जीते हैं और उनके अस्तित्व की दिशा और लक्ष्य जैसे हैं वो उनकी कामना के अनुरूप नहीं हैं। संक्षेप में, सामान्य रूप से लोग जो महसूस करते हैं, वह खोखलापन और ऊब है। कुछ लोग इस खोखलेपन और ऊब के चलते, सारी दुनिया के रुचिकर व्यंजनों का स्वाद लेना चाहते हैं; वे जहाँ भी जाते हैं, खाने पर ही जोर देते हैं। दूसरे जहाँ कहीं जाते हैं, जी भर के मौज करने, खाने-पीने, और आमोद-प्रमोद में जुट जाते हैं—फिर भी खा-पी लेने और मौज-मस्ती कर लेने के बाद, वे पहले से ज्यादा रिक्त होते हैं। इसके लिए क्या किया जाए? इस भावना को झटक पाना असंभव क्यों है? जब लोग बंद रास्ते में पहुँच जाते हैं, तो कुछ लोग नशीले पदार्थों, अफीम, एक्सटेसी का सेवन करने लगते हैं, और हर प्रकार की भौतिक चीजों से खुद को उत्तेजना देने में लग जाते हैं। और इसका परिणाम क्या होता है? मनुष्य के खोखलेपन को ठीक करने में क्या इनमें से कोई भी तरीका कारगर होता है? क्या इनमें से कोई भी उनकी समस्याएँ जड़ से खत्म कर सकता है? (नहीं।) वे ऐसा क्यों नहीं कर पाते? ऐसा इसलिए क्योंकि मनुष्य अपनी भावनाओं के सहारे जीता है। वह सत्य को नहीं समझता, वह नहीं जानता कि खोखलेपन, बेचैनी, संभ्रांति जैसी मानवजाति की समस्याएँ किससे पैदा होती हैं, न ही वह जानता है कि किन साधनों से इन्हें ठीक किया जाए। उसे लगता है कि अगर शारीरिक आनंद का ख्याल रख लिया जाए, और उसकी शारीरिक वासनाओं की दुनिया तुष्ट और तृप्त हो जाए, तो उसकी आत्मा की खोखली भावना दूर हो जाएगी। क्या ऐसा होता है? तथ्य यह है कि ऐसा नहीं होता। अगर तुम इन धर्मोपदेशों को धर्म-सिद्धांत के रूप में स्वीकार कर निकल चुके हो, मगर उनका जरा भी अनुसरण या अभ्यास नहीं करते, और अगर तुम परमेश्वर के इन वचनों को लोगों और चीजों को देखने, और अपने आचरण व कार्य का आधार और मानदंड नहीं मानते, तो तुम्हारे अस्तित्व का ढंग और जीवन के प्रति दृष्टिकोण कभी नहीं बदलेगा। और अगर ये चीजें नहीं बदलीं, तो तुम्हारा जीवन, तुम्हारी शैली, और इसके अस्तित्व का मूल्य कभी नहीं बदलेगा। और अगर तुम्हारे जीवन के अस्तित्व की शैली और मूल्य कभी न बदले, तो इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि एक दिन, देर-सवेर, जिन धर्म-सिद्धांतों को तुम समझते हो, वे तुम्हें आत्मा के आधार-स्तंभों जैसे लगेंगे; देर-सवेर, वे तुम्हारे लिए सूत्रवाक्य और सिद्धांत बन जाएँगे, ऐसी चीजें, जिनसे हालात के अनुसार तुम अपने भीतर की दुनिया के खोखलेपन को भरोगे। अगर तुम्हारे अनुसरण की दिशा और लक्ष्य नहीं बदले, तो तुम उन्हीं लोगों जैसे होगे, जिन्होंने परमेश्वर का एक भी वचन नहीं सुना है। तुम्हारे प्रयासों की दिशा और लक्ष्य अभी भी मनोरंजन और शारीरिक संतुष्टि की खोज ही रहेगा। तुम अभी भी अपने खोखलेपन और उलझन को ठीक करने की कोशिश में दुनिया की यात्रा करोगे, रहस्यों की खोज करोगे। इसमें कोई शक नहीं कि तब तुम उसी रास्ते पर चलोगे जिस पर वे चल रहे होंगे। वे दुनिया भर के व्यंजनों का स्वाद लेने और दुनिया की शानदार विलासिताओं का आनंद लेने के बाद भी खोखला महसूस करते हैं, वैसे ही तुम भी करोगे। सच्चे मार्ग और परमेश्वर के वचनों के साथ बने रहकर भी अगर तुम उनका अनुसरण या अभ्यास नहीं करोगे, तो तुम्हारा परिणाम उन जैसा ही होगा, सच्ची खुशी, सच्चे उल्लास, सच्ची आजादी आदि और सच्ची शांति के बिना, अक्सर खोखला, विचलित, रोषपूर्ण और दमित महसूस करोगे। और फिर, अंत में तुम्हारा परिणाम भी उन जैसा ही होगा।
मनुष्य के परिणाम के मामले में परमेश्वर किस बात पर गौर करता है? वह नहीं देखता कि तुमने उसके कितने वचन पढ़े हैं या तुमने कितने धर्मोपदेश सुने हैं। परमेश्वर ये चीजें नहीं देखता। वह इस बात पर गौर करता है कि तुमने अपने अनुसरण में कितना सत्य प्राप्त किया है, तुम कितने सत्य का अभ्यास कर सकते हो; वह गौर करता है कि क्या तुम अपने जीवन में, लोगों और चीजों को देखने और अपने आचरण व कार्य के लिए, उसके वचनों को आधार और सत्य को मानदंड मानते हो—वह गौर करता है कि क्या तुम्हें ऐसा अनुभव है, क्या तुम्हारे पास ऐसी गवाही है। अगर तुम्हारे रोजमर्रा के जीवन में और परमेश्वर का अनुसरण करने के दौरान ऐसी कोई गवाही नहीं है, और इनमें से किसी भी चीज की पुष्टि नहीं हुई है, तो परमेश्वर तुम्हें भी गैर-विश्वासियों के समान ही मानेगा। क्या उसका ऐसा मानना कहानी का अंत है? नहीं; ऐसा तो होगा ही नहीं कि परमेश्वर तुम्हें ऐसा मानकर छोड़ दे। इसके बजाय, वह तुम्हारा परिणाम तय करेगा। परमेश्वर तुम्हारे चलने के मार्ग को देखकर तुम्हारा परिणाम तय करता है; वह तुम्हारा परिणाम इस आधार पर तय करता है कि अनुसरण और लक्ष्य के क्षेत्र में तुम कैसा प्रदर्शन करते हो, सत्य के प्रति तुम्हारा क्या रवैया है, और क्या तुमने सत्य के अनुसरण के मार्ग पर अपने कदम रखे हैं। वह इस तरह क्यों तय करता है? जब सत्य का अनुसरण न करने वाले किसी व्यक्ति ने परमेश्वर के वचन पढ़े हों, और बहुत-से वचन सुने हों, फिर भी वह उसके वचनों को लोगों और चीजों पर अपने विचारों और अपने आचरण और कार्यों का मानदंड नहीं मानता, तो वह व्यक्ति अंत में बचाया नहीं जा सकेगा। यह रही सबसे महत्वपूर्ण बात : यदि ऐसा व्यक्ति जीता रहे, तो उसका क्या होगा? क्या वह सभी चीजों का मुखिया बन सकेगा? क्या वह परमेश्वर के स्थान में सभी चीजों का संचालक बन सकेगा? क्या वह आदेश के लायक होगा? विश्वास के योग्य होगा? अगर परमेश्वर तुम्हें सारी चीजें सौंप दे, तो क्या तुम वैसा करोगे जैसा आज मानवजाति करती है, परमेश्वर द्वारा सृजित जीवित प्राणियों की अंधाधुंध हत्या करोगे, परमेश्वर द्वारा सृजित अनगिनत जीवों को अंधाधुंध ढंग से नष्ट कर दोगे, परमेश्वर द्वारा मानवजाति को प्रदत्त अनगिनत चीजों को अंधाधुंध ढंग से दूषित कर दोगे? स्पष्ट तौर पर तुम ऐसा ही करोगे! इसलिए अगर परमेश्वर ये दुनिया और तमाम चीजें तुम्हें सौंप दे, तो तमाम चीजों का अंततः किससे सामना होगा? उनका कोई सच्चा संचालक नहीं होगा; उन्हें शैतान द्वारा भ्रष्ट मानवजाति द्वारा दूषित कर नष्ट कर दिया जाएगा। आखिरकार, सभी चीजों, सभी चीजों में जीवित प्राणियों, और शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई मानवजाति के समान ही नियति होगी : वे परमेश्वर द्वारा नष्ट कर दिए जाएँगे। यह ऐसी चीज है जिसे देखने की परमेश्वर आशा नहीं रखता। इसलिए, यदि ऐसे व्यक्ति ने परमेश्वर के अनेक वचन सुने हैं, और उसके वचनों में सिर्फ बहुत-से धर्म-सिद्धांत समझे हैं, फिर भी वह सभी चीजों के मुखिया होने के कर्तव्य का बीड़ा उठाने या परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने और उनके अनुसार आचरण व कार्य करने में सक्षम नहीं है, तो परमेश्वर उसे कोई भी मामला नहीं सौंपेगा, क्योंकि वह अयोग्य है। परमेश्वर कड़ी मेहनत से सृजित सभी चीजों को शैतान द्वारा भ्रष्ट मानवजाति के हाथों दूसरी बार नष्ट और दूषित होते नहीं देखना चाहता, न ही जिस मानवजाति का उसने छह हजार वर्ष तक प्रबंधन किया है, उसे ऐसे इंसानों के हाथों नष्ट होते देखना चाहता है। परमेश्वर बस यह देखना चाहता है कि उसके द्वारा उद्धार पाए लोगों के समूह के संचालन में, उसके द्वारा कड़ी मेहनत से बनाई गई चीजें निरंतर परमेश्वर की देखभाल, रक्षा और अगुआई में अस्तित्व में रहें, और सभी चीजों की व्यवस्था और परमेश्वर द्वारा आदेशित कानूनों के अनुसार जीती रहें। फिर ये किस किस्म के लोग हैं, जो ऐसा भारी बोझ उठा सकते हैं? ऐसी किस्म सिर्फ एक है, और यह वो किस्म है जिसके बारे में मैं बोलता हूँ, जो सत्य का अनुसरण करते हैं, ऐसी किस्म के लोग जो पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सत्य को अपना मानदंड बनाकर लोगों और चीजों को देख सकते हैं और आचरण और कार्य कर सकते हैं। ऐसे लोग विश्वास करने योग्य होते हैं। उनके अस्तित्व का रूप पूरी तरह से शैतान द्वारा भ्रष्ट मानवजाति के रूप से निकला है; अपने अनुसरण के लक्ष्य और रूप, और लोगों और चीजों के प्रति अपने दृष्टिकोण, और अपने आचरण व कार्य में वे पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होने और पूरी तरह से सत्य को अपनी कसौटी मानने में सक्षम हो सकते हैं। ऐसे ही लोग जीते रहने के सचमुच योग्य हैं, और परमेश्वर द्वारा उनके हाथों में सभी चीजों के सौंपे जाने लायक हैं। यही लोग परमेश्वर के आदेश का भारी बोझ उठा सकते हैं। परमेश्वर निश्चित रूप से सत्य का अनुसरण न करने वाले व्यक्ति को सारी चीजें नहीं सौंपेगा। निश्चित रूप से वह सभी चीजें ऐसे लोगों को नहीं सौंपेगा, जो उसके वचन सुनते ही नहीं, और निश्चित रूप से ऐसे लोगों को कोई काम नहीं सौंपेगा। वे परमेश्वर का आदेश पूरा करना तो दूर, स्वयं अपने कर्तव्य भी अच्छे ढंग से नहीं निभा सकते। अगर परमेश्वर उन्हें सारी चीजें सौंप दे, तो उनमें जरा भी वफादारी नहीं होगी, न ही वे उसके वचनों के अनुसार कार्य करेंगे। वे खुश होने पर थोड़ा काम करेंगे, और न होने पर वे खाने-पीने और मौज-मस्ती करने चले जाएँगे। अक्सर वे खोखले और बेचैन होंगे, उन्हें दिल से पता नहीं होगा कि करना क्या है, वे परमेश्वर के आदेश के प्रति वफादार नहीं होंगे। ऐसे लोग निश्चित रूप से वो नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर चाहता है। इसलिए, अगर तुम परमेश्वर के इरादे समझते हो, और भ्रष्ट मानवजाति की कमियों को और साथ ही यह भी जानते हो कि भ्रष्ट मानवजाति को किस मार्ग पर चलना चाहिए, तो तुम्हें सत्य के अनुसरण से शुरू करना चाहिए। परमेश्वर के वचन सुनो और पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने, और आचरण व कार्य करने की दिशा में शुरुआत करो। स्वयं को इस लक्ष्य, इस दिशा की ओर मोड़ो, फिर देर-सवेर वह दिन आएगा, जब परमेश्वर तुम्हारी खपत और अदायगी को याद रखेगा और उसे स्वीकार करेगा। फिर, तुम्हारे जीवित रहने का मूल्य होगा; परमेश्वर तुम्हें स्वीकृति देगा, और तुम तब एक साधारण व्यक्ति नहीं रह जाओगे। तुम्हें नूह को जहाज बनाने में लगे समय जितने लंबे समय तक डटे रहने को नहीं कहा जा रहा है, मगर तुम्हें कम-से-कम इस जीवनकाल में तो डटे रहना होगा। क्या तुम एक सौ बीस वर्ष जीवित रहोगे? कोई नहीं जानता, मगर यह कहना काफी है कि आधुनिक मानवजाति का जीवनकाल इतना नहीं होता है। फिलहाल सत्य का अनुसरण करना जहाज बनाने की अपेक्षा बहुत आसान है। जहाज बनाना बहुत मुश्किल था और तब कोई आधुनिक औजार नहीं थे—उसे पूरी तरह इंसानी ताकत से, और ऊपर से बिल्कुल प्रतिकूल माहौल में बनाया गया था। इसमें बहुत लंबा समय लगा, और मदद करने वाले लोग बहुत थोड़े थे। तुम्हारे लिए अभी सत्य का अनुसरण करना तब जहाज बनाने की अपेक्षा बहुत आसान है। तुम्हारा बड़े पैमाने का माहौल और जीवन के छोटे पैमाने के हालात, सत्य का अनुसरण करने के मामले में, तुम्हें बड़े लाभ की स्थिति में रखकर बड़ी सुविधा प्रदान करते हैं।
“मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए” विषय पर आज की संगति में मुख्य रूप से विषय के दो पहलुओं पर केंद्रित है। एक पहलू था परमेश्वर के नजरिये से, उसकी प्रबंधन योजना, उसकी इच्छाओं और उसकी ललक के बारे में सरल संगति; दूसरा था खुद लोगों के नजरिये से उनके ही भीतर की समस्याओं का विश्लेषण, जिसने सत्य का अनुसरण करने की जरूरत और महत्त्व को समझाया। इनमें से किसी भी कोण से देखा जाए, सत्य का अनुसरण करना मनुष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और गंभीर रूप से अत्यावश्यक है। किसी भी नजरिये से देखें, सत्य का अनुसरण जीवन का वह मार्ग और लक्ष्य है, जिसे परमेश्वर के प्रत्येक अनुयायी को और हर उस व्यक्ति को चुनना चाहिए जिसने परमेश्वर के वचन सुने हैं। सत्य के अनुसरण को किसी आदर्श या कामना के रूप में नहीं लेना चाहिए, न ही इसके बारे में दिए गए वक्तव्यों को किसी आध्यात्मिक सुविधा के साधन के रूप में लेना चाहिए; इसके बजाय, व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों और मनुष्य से उसकी अपेक्षाओं को लेकर उन्हें अत्यंत व्यावहारिक ढंग से वास्तविक जीवन में अपने अभ्यास के लिए सिद्धांतों और आधार के रूप में बदल देना चाहिए, ताकि उनके जीवन का लक्ष्य और अस्तित्व की विधि बदल सके, बेशक, इससे व्यक्ति का जीवन अधिक सार्थक भी बनता है। इस प्रकार, छोटे पैमाने पर, सत्य का अनुसरण करते हुए, तुम जिस मार्ग पर चलते हो और तुम्हारा जो चुनाव है, वे दोनों सही होंगे—और विराट पैमाने पर, सत्य का अनुसरण करने के कारण तुम अंततः अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त हो जाओगे और बचा लिए जाओगे। जो बचा लिए जाएँगे, वे परमेश्वर की दृष्टि में, सिर्फ उसकी आँखों के तारे या उसके हाथों में खजाना नहीं हैं, वे सिर्फ उसके राज्य के सरल मुख्य आधार तो और भी नहीं हैं। तुम्हें, भविष्य की मानवजाति के सदस्य को, मिलने वाला आशीष सचमुच बहुत महान है, ऐसा जो पहले कभी देखा नहीं गया, न ही कभी देखा जाएगा; तुम्हें एक-के-बाद-एक अच्छी चीजें इस तरह मिलेंगी जैसे तुम सोच भी नहीं सकते। किसी भी हालत में, अभी जो काम पहले किया जाना है, वह है सत्य के अनुसरण के लक्ष्य को स्थापित करना। इस लक्ष्य की स्थापना तुम्हारे आध्यात्मिक संसार के खोखलेपन के समाधान के लिए नहीं है, न ही यह तुम्हारे दिल की गहराई में भरे दमन और रोष, या अनिश्चितता और विभ्रांति को ठीक करने के लिए है। यह इसके लिए नहीं है। इसके बजाय, यह उस वास्तविक और सच्चे लक्ष्य के रूप में कार्य करने के लिए है जिस ओर व्यक्ति को आचरण और कार्य करना चाहिए। यह इतना सरल है। क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह सरल है? तुम लोग ऐसा कहने की हिम्मत नहीं करते, मगर तथ्य यह है कि यह काफी सरल है—बात यहीं आ जाती है कि किसी व्यक्ति में सत्य के अनुसरण का संकल्प है या नहीं। यदि तुममें वास्तव में सचमुच वह संकल्प है, तो ऐसा कौन-सा सत्य है जिसके अभ्यास का कोई विशिष्ट मार्ग नहीं है? सभी के मार्ग हैं, हैं या नहीं? (जरूर हैं।) सत्य के किसी भी क्षेत्र में, उसके अभ्यास के लिए एक विशिष्ट आधार रखना और कार्य की किसी भी परियोजना के लिए अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांत रखना—यह परिणाम सचमुच संकल्प रखने वाले लोग प्राप्त कर सकते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं, “मसलों से सामना होने पर मैं अभी भी अभ्यास करना नहीं जानता।” ऐसा इसलिए होता है क्योंकि तुम खोजने में असफल रहते हो। अगर तुम खोजते, तो तुम्हारे पास मार्ग होता। एक कहावत है, है न? वह इस प्रकार है, “ढूँढ़ो तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा” (मत्ती 7:7)। क्या तुमने खोजा है? क्या तुमने खटखटाया है? परमेश्वर के वचन पढ़ते समय क्या तुमने सत्य पर चिंतन-मनन किया है? यदि तुम उस चिंतन-मनन में मेहनत करते हो, तो सब-कुछ समझने में सक्षम हो जाओगे। समस्त सत्य परमेश्वर के वचनों में है; बस जरूरत है कि तुम इसे पढ़ो और उस पर चिंतन-मनन करो। निठल्ले मत रहो; ईमानदारी से ध्यान दो। जिन समस्याओं को तुम खुद सुलझा न सको, उनके लिए तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और कुछ समय तक तुम्हें सत्य खोजना होगा, और कभी-कभी तुम्हें धैर्य के साथ, परमेश्वर के समय में उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि परमेश्वर तुम्हारे लिए एक माहौल तैयार कर उसमें सभी चीजों का खुलासा करे, तुम्हें अपने वचनों के एक अंश से प्रबुद्ध करे, तुम्हारे हृदय को स्पष्टता दे, और तुम्हारे पास अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांत हों, तो क्या इस तरह तुम समझ नहीं जाओगे? इसलिए, सत्य का अनुसरण ऐसी कोई अमूर्त चीज नहीं है, न ही यह बहुत कठिन है। चाहे किसी भी कोण से देखा जाए, चाहे तुम्हारे रोजमर्रा के जीवन से देखा जाए, या तुम्हारे कर्तव्य से, या कलीसिया के कार्य से, या फिर दूसरों से तुम्हारी बातचीत से देखा जाए, तुम अभ्यास की दिशा और इसके मानदंड जानने के लिए सत्य खोज सकते हो। यह कतई मुश्किल नहीं है। मनुष्य के लिए अतीत की अपेक्षा अब परमेश्वर में विश्वास रखना कहीं अधिक आसान है, क्योंकि परमेश्वर के बहुत-से वचन उपलब्ध हैं, तुम लोग बहुत-से धर्मोपदेश सुनते हो, और सत्य के हर पहलू पर इतनी संगतियाँ उपलब्ध हैं। यदि किसी के पास आध्यात्मिक समझ है और उसमें योग्यता है, तो वह पहले ही समझ चुका होगा। जिन लोगों के पास आध्यात्मिक समझ नहीं है, जिनकी योग्यता बहुत तुच्छ है, वही लोग हमेशा कहते हैं कि वे अमुक-अमुक चीजें नहीं समझते, और कभी चीजों की असलियत नहीं जान पाते। किसी भी मुश्किल के आते ही वे उलझ जाते हैं; सत्य पर संगति से उनकी उलझन दूर होती है, मगर थोड़ी देर बाद, वे फिर से उलझ जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे बिल्कुल ही बेपरवाह होकर अपने दिन ज़ाया करते हैं। वे बस बहुत आलसी हैं, खोजते नहीं हैं। अगर तुम परमेश्वर के और अधिक प्रासंगिक वचन पढ़ोगे और खोजोगे, तो चीजों को समझना आसान हो जाएगा, क्योंकि ये सभी वचन आसानी से समझ आने वाली आम भाषा में हैं। मानसिक रूप से कमजोर लोगों को छोड़कर कोई भी सामान्य व्यक्ति इन्हें समझ सकता है। ये वचन अनेक मामलों का स्पष्ट वर्णन करते हैं, और तुम्हें सब-कुछ बताते हैं। अगर ऐसा नहीं है कि तुम सत्य के अनुसरण को बहुत बड़ी बात नहीं मानते, और वास्तव में तुम सत्य प्राप्त करने की दिली लालसा रखते हो, और इसके अनुसरण को जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज मानते हो, तो कोई भी चीज तुम्हारे लिए अड़चन नहीं बन सकती या सत्य को समझने और उसका अभ्यास करने से नहीं रोक सकती।
सत्य के अनुसरण का सरलतम नियम यह है कि तुम्हें परमेश्वर से सभी चीजों को स्वीकारना और सभी चीजों में समर्पण करना चाहिए। यह इसका एक अंश है। दूसरा अंश यह है कि अपने कर्तव्य और जो तुम्हें करना है, और उससे भी बढ़कर, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए आदेश और तुम्हारे दायित्व, साथ ही वह महत्वपूर्ण कार्य जो तुम्हारे कर्तव्य से बाहर है, मगर उसे पूरा करने में तुम्हारी जरूरत है, ऐसे कार्य जिसकी व्यवस्था तुम्हारे लिए हुई है और जिसे करने के लिए तुम्हें नामित किया गया है—यह कितना भी कठिन क्यों न हो, तुम्हें इसकी कीमत चुकानी चाहिए। भले ही तुम्हें अपनी पूरी शक्ति से इसमें जुट जाना हो, भले ही उत्पीड़न सामने मंडरा रहा हो, और भले ही इससे तुम्हारा जीवन जोखिम में पड़ जाए, तुम्हें यह कीमत चुकाने में संकोच न करते हुए अपनी मृत्यु तक अपनी वफादारी दिखाकर समर्पण करना है। वास्तविकता में, अपनी वास्तविक खपत और अपने वास्तविक अभ्यास में सत्य का अनुसरण इस प्रकार अभिव्यक्त होता है। क्या यह कठिन है? (नहीं।) मुझे ऐसे लोग पसंद हैं जो कहते हैं यह कठिन नहीं है, क्योंकि उनके दिल सत्य का अनुसरण करने को लालायित हैं, उनके दिल दृढ़प्रतिज्ञ और वफादार हैं—उनके दिलों में शक्ति है, इसलिए उन पर आई कोई भी मुश्किल कठिन नहीं होती। लेकिन अगर लोगों में आत्मविश्वास न हो, यदि उन्हें स्वयं पर संदेह हो, जैसा कि लोग अक्सर कहते हैं, तो फिर उनके लिए सब-कुछ खत्म हो चुका है। अगर कोई व्यक्ति कीचड़ के ढेर जितना बेकार है, कुछ भी उपयोगी करने को अभिप्रेरित नहीं है, मगर खाने-पीने और मौज-मस्ती के नाम पर उसमें जान आ जाती है, और मुश्किलें सामने आने पर वह निराश हो जाता है, और सत्य के बारे में संगति की बात आने पर उसमें उत्साह नहीं होता, उसमें जरा भी अभिप्रेरणा नहीं होती, ऐसा व्यक्ति किस किस्म का है? वह ऐसा है जिसे सत्य से प्रेम नहीं है। यदि अनुग्रह के युग या व्यवस्था के युग में, मनुष्य से सत्य का अनुसरण करने की अपेक्षा की गई होती, तो यह उसके लिए एक चुनौती जैसी होती। यह आसान नहीं होता, क्योंकि तब मानवजाति के हालात अलग थे, और परमेश्वर की उससे अपेक्षाओं के मानक भी अलग थे। इसलिए अतीत के युगों में, नूह, अब्राहम, अय्यूब और पतरस जैसे प्रमुख लोगों के अलावा, ज्यादा लोग ऐसे नहीं थे जो परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देकर उसे समर्पित होने में सक्षम थे। लेकिन परमेश्वर ने उन दो युगों के लोगों को दोष नहीं दिया, क्योंकि उसने लोगों को उद्धार के मानकों तक पहुँचने का तरीका नहीं बताया था। अंतिम युग में कार्य के इस चरण में, परमेश्वर लोगों को स्पष्ट रूप से सत्य के हर उस पहलू के बारे में बताता है, जिसका अभ्यास उन्हें करना है। यदि लोग अभी भी उनका अभ्यास नहीं करते, और अभी भी परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर पाते, तो यह परमेश्वर की गलती नहीं है; यह मसला मनुष्य के सत्य से प्रेम न करने और उससे विमुख होने का है। इसलिए, सत्य का अनुसरण करने के इस समय में, लोगों के लिए सत्य का अनुसरण करना कोई चुनौती नहीं है—सचमुच, यह ऐसा कार्य है जिसमें वे सक्षम हैं। एक दृष्टि से, ऐसा इसलिए है क्योंकि सब-कुछ इसके अनुकूल है; दूसरी दृष्टि से, लोगों के हालात और बुनियाद सत्य का अनुसरण करने के लिए पर्याप्त हैं। अगर अंततः कोई सत्य प्राप्त करने में सफल नहीं होता, तो इसका कारण यह है कि उसके मसले बहुत गंभीर हैं। ऐसा व्यक्ति चाहे उसे जो भी दंड मिले, जो भी परिणाम मिले और जैसी भी मृत्यु मिले, उस लायक ही है। वह जरा भी तरस के योग्य नहीं है। परमेश्वर के लिए, लोगों के लिए तरस या करुणा जैसे कोई शब्द नहीं हैं। वह व्यक्ति का परिणाम मनुष्य से अपनी अपेक्षाओं, अपने स्वभावों और स्वयं द्वारा स्थापित व्यवस्था और नियमों के आधार पर तय करता है; और जिस तरह जैसा प्रदर्शन होता है वैसा ही परिणाम होता है, इसी तरह किसी व्यक्ति के लिए यह जीवन और आने वाली दुनिया तय होती है। यह इतना ही सरल है। अंत में कितने जीवित बचेंगे, या कितनों को दंड मिलेगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। परमेश्वर इसकी परवाह नहीं करता। इन वचनों से तुम लोगों ने क्या समझा है? इनसे तुम सबको क्या जानकारी मिलती है? क्या तुम जानते हो? चलो देखते हैं, क्या तुम इतने चतुर और युक्तिसंपन्न हो कि जवाब दे सको। अगर तुम लोग जवाब न दे सको, तो मैं सिर्फ एक शब्द से तुम्हारा आकलन करूँगा—मूर्ख। मैं तुम लोगों को मूर्ख क्यों कहता हूँ? मैं तुम सबको बताता हूँ। मैंने कहा था कि अंत में कितने लोग जीवित रहते हैं, कितने नष्ट हो जाते हैं और दंड पाते हैं, इसकी परमेश्वर को परवाह नहीं। यह तुम सबको क्या बताता है? यह तुम लोगों को बताता है कि परमेश्वर ने लोगों की निश्चित संख्या निर्धारित नहीं की है। तुम इसके लिए संघर्ष कर सकते हो, लेकिन आखिरकार जो जीवित बचता है या दंडित होता है, वह चाहे तुम हो, कोई दूसरा, या कोई समूह हो, वह उस संख्या का हिस्सा नहीं होता, जो परमेश्वर ने पहले ही तय कर रखी है। परमेश्वर आज की तरह कार्य करता और बोलता है। वह हर व्यक्ति से निष्पक्ष रूप से पेश आता है और हर व्यक्ति को पर्याप्त अवसर देता है। वह तुम्हें पर्याप्त अवसर, प्रचुर अनुग्रह, और प्रचुर मात्रा में अपने वचन, अपना कार्य, अपनी कृपा और सहिष्णुता देता है। वह हर व्यक्ति के साथ निष्पक्ष है। यदि तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो, परमेश्वर के अनुसरण के मार्ग पर हो, और तुम्हें कितनी भी मुश्किलें सहनी पड़ें, या चुनौतियां झेलनी पड़ें, तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो, और अगर तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो चुका है, तो तुम बचा लिए जाओगे। यदि तुम परमेश्वर की गवाही दे सकते हो, और एक योग्य सृजित प्राणी बन सकते हो, सभी चीजों के योग्य स्वामी बन सकते हो, तो तुम जीवित बच जाओगे। यदि तुम बच गए, तो इसलिए नहीं कि तुम सौभाग्यशाली हो, बल्कि यह तुम्हारी स्वयं की खपत और प्रयासों और तुम्हारे स्वयं के अनुसरण के कारण होगा। यह वही होगा जिसके तुम योग्य हो और जिसके तुम हकदार हो। तुम्हें परमेश्वर द्वारा कुछ अतिरिक्त दिए जाने की जरूरत नहीं होगी। परमेश्वर तुम्हें पूरक मार्गदर्शन और प्रशिक्षण नहीं देता; वह तुम्हारे लिए पूरक वचन नहीं कहता, या तुम्हें विशेष लाभ नहीं देता। वह ये चीजें नहीं करता। जैसे प्रकृति में होता है, उसी तरह यह योग्यतम की उत्तरजीविता है। प्रत्येक प्राणी परमेश्वर द्वारा तय व्यवस्था और नियमों के अनुसार अपनी संतान को जन्म देता है, जितनी भी संख्या में जन्म लें और मर जाएँ। जीवित रह सकने वाले जीवित रहते हैं, जो जीवित नहीं रह सकते, वे मर जाते हैं, और फिर नए को जन्म देते हैं। उनमें से जितने जीवित रह पाते हैं, उतनी ही उनकी संख्या होती है। एक बुरे वर्ष में, एक भी जीवित नहीं रहता; एक अच्छे वर्ष में, ज्यादा जीवित रहते हैं। अंत में, सभी चीजें संतुलन बनाकर रखती हैं। तो, परमेश्वर अपने द्वारा सृजित मानवजाति से कैसे पेश आता है? परमेश्वर का रवैया वही होता है। वह इस तरह निष्पक्ष रूप से हर व्यक्ति को उसका अवसर देता है, और इस तरह हर व्यक्ति से सार्वजनिक रूप से और बिना किसी पारिश्रमिक के बात करता है। वह हर व्यक्ति के साथ कृपालु रहता है, और हर व्यक्ति को ऊपर उठाता है; आगे बढ़ाता है, देखभाल करता है, और हर व्यक्ति की निगरानी करता है। अगर अंत में, तुम सत्य का अनुसरण कर जीवित रहते हो, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानकों पर खरे उतरते हो, तो तुम सफल हो जाओगे। लेकिन अगर तुम उलझन में रहते हुए, खुद को दुर्भाग्यशाली मानकर अपने दिन बर्बाद करते रहते हो, हमेशा बहुत महत्वाकांक्षी होने की ओर प्रवृत्त रहते हो, क्या करना है नहीं जानते, हमेशा सत्य का अनुसरण किए बिना या सही मार्ग पर चले बिना अपनी भावनाओं के अनुसार जीते हो, तो अंत में तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा। अगर तुम परमेश्वर द्वारा तुम पर किए गए कार्य की अनदेखी कर हमेशा अपने दिन जैसे-तैसे गुजारने की इच्छा रखते हो, जरा भी परवाह नहीं करते कि परमेश्वर तुम्हारी अगुआई करता है, या वह तुम्हें मौके, अनुशासन, प्रबुद्धता और सहारा देता है, तो वह यह देख लेगा कि तुम संवेदनहीन मूर्ख हो, और वह तुम्हारी उपेक्षा करेगा। परमेश्वर तुम पर तब कार्य करेगा जब तुम सत्य का अनुसरण करोगे। वह तुम्हारे उल्लंघनों को याद नहीं रखता। यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो परमेश्वर तुमसे जबरदस्ती नहीं करेगा या तुम्हें साथ नहीं घसीटेगा। अनुसरण करोगे तो तुम्हें लाभ होगा; नहीं करोगे तो तुम्हें लाभ नहीं होगा। लोग सत्य का अनुसरण करें या न करें यह उनकी इच्छा है। उन्हें ही फैसला करना है। अपना कार्य समाप्त होने पर परमेश्वर तुमसे तुम्हारा उत्तर-पत्र माँगेगा, और तुम्हें सत्य के मानकों के अनुसार मापेगा। अगर तुम्हारे पास बिल्कुल कोई गवाही नहीं होगी, तो तुम्हें हटाना होगा; तुम जीवित नहीं रह पाओगे। तुम कहोगे, “मैंने बहुत-से कर्तव्य निभाए हैं, बहुत श्रम किया है। मैंने खुद को बहुत खपाया है और काफी कीमत चुकाई है!” और परमेश्वर कहेगा, “लेकिन क्या तुमने सत्य का अनुसरण किया?” तुम सोच-विचार करोगे, और ऐसा लगेगा कि परमेश्वर में विश्वास रखने के बीस, तीस, चालीस या पचास वर्षों में तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया था। परमेश्वर कहेगा, “तुम खुद कहते हो कि तुमने सत्य का अनुसरण नहीं किया। तो फिर दूर हो जाओ। जहाँ चाहो जाओ।” तुम कहोगे, “क्या परमेश्वर को नहीं लगता कि उसे जितने लोगों को बचाना चाहिए था, उनमें से एक कम व्यक्ति को बचाना, सभी चीजों के एक स्वामी का कम होना कितने तरस की बात है?” इस मुकाम पर, क्या परमेश्वर अब भी सोचेगा कि यह अफसोस की बात है? परमेश्वर ने बड़े लंबे समय से धैर्य रखा है; उसने लंबे समय तक प्रतीक्षा की है। उसकी तुमसे अपेक्षाएँ अब खत्म हो चुकी होंगी; तुमसे उसकी आशा बुझ चुकी होगी, और अब वह तुम पर ध्यान नहीं देगा। वह तुम्हारे लिए एक भी आँसू नहीं बहाएगा, तुम्हारे कारण कोई भी पीड़ा या कष्ट नहीं सहेगा। ऐसा क्यों है? क्योंकि सभी चीजों का परिणाम अंत तक आ चुका होगा, परमेश्वर का कार्य अपने समापन पर पहुँच चुका होगा, उसकी प्रबंधन योजना समाप्त होने को आ जाएगी, और अब वह आराम करेगा। परमेश्वर किसी भी व्यक्ति के लिए न खुश होगा, न दुखी, किसी भी व्यक्ति के लिए न रोएगा, न विलाप करेगा। स्पष्ट है, वह किसी भी व्यक्ति के जीवित रहने पर या किसी व्यक्ति के सभी चीजों के स्वामी बन जाने पर न आनंदित होगा न प्रसन्न। ऐसा क्यों है? परमेश्वर ने इस मानवजाति के लिए बड़े लंबे समय तक बहुत अधिक खर्च किया है, और उसे आराम की जरूरत है। उसे छह हजार वर्षों की प्रबंधन योजना की पुस्तक को बंद करना होगा, और अब वह उस पर ध्यान नहीं देगा, कोई योजना नहीं बनाएगा, कोई वचन नहीं कहेगा, या मनुष्य पर कोई कार्य नहीं करेगा। वह अगले युग के स्वामियों को भविष्य का कार्य और आने वाले दिन सौंप देगा। वह क्या है जो मैं तुम लोगों को बता रहा हूँ? वो यह है : अब चूँकि तुम लोग जान गए हो कि अंत में कितने लोग रह जाएँगे, और कौन लोग रहने में सक्षम होंगे, इसलिए तुम सभी उस दिशा में प्रयास कर सकते हो—और ऐसा करने का एकमात्र मार्ग है सत्य का अनुसरण। अपने दिन व्यर्थ न करो; भ्रमित होने से कुछ नहीं होगा। यदि ऐसा दिन आए जब परमेश्वर तुम्हारे द्वारा चुकाई कोई भी कीमत याद न रखे, और परवाह न करे कि तुम किस मार्ग पर चलते हो, या तुम्हारा परिणाम क्या होगा, फिर उसी दिन तुम्हारा परिणाम सचमुच तय हो जाएगा। तो अब तुम लोगों को क्या करना चाहिए? तुम्हें वर्तमान का लाभ उठाना चाहिए, जब परमेश्वर का हृदय अभी भी मानवजाति के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है, जब वह मानवजाति के लिए योजनाएँ बना रहा है, जब वह मनुष्य की प्रत्येक गतिविधि और भाव-भंगिमा पर दुखी और क्षुब्ध हो जाता है। लोगों को जल्द-से-जल्द अपना विकल्प चुन लेना चाहिए। अपने अनुसरण का लक्ष्य और दिशा स्थापित कर लो; अपनी योजनाएँ बनाने के लिए तब तक प्रतीक्षा न करो जब तक परमेश्वर के आराम के दिन न आ जाएँ। यदि तुम्हें तब तक सच्चा पछतावा, खेद, संताप और विलाप महसूस न हो, तो बहुत देर हो चुकी होगी। तुम्हें कोई भी नहीं बचा सकेगा, न ही परमेश्वर बचाएगा। ऐसा इसलिए कि वह समय आने पर, उस पल जब परमेश्वर की योजना सचमुच समाप्त हो जाती है, और वह अपनी आखिरी छाप छोड़कर अपनी योजना की किताब बंद कर रहा होता है, तो वह अब कार्य नहीं करेगा। परमेश्वर को आराम चाहिए; उसे अपनी छह हजार साल की प्रबंधन योजना के फलों का स्वाद लेना है और बचे हुए मनुष्य उसकी खातिर सभी चीजों का जो संचालन करते हैं, उसका आनंद लेना है। परमेश्वर इस दृश्य का आनंद लेना चाहता है कि बचे हुए इंसान उसकी किसी भी इच्छा या कामना का उल्लंघन किए बिना, उसके द्वारा स्थापित नियमों और अधिनियमों के अनुसार सभी चीजों का प्रबंधन कर रहे हैं, मौसमों, सभी चीजों और मानवजाति के लिए उसके द्वारा बनाए अनुक्रम का सूक्ष्मता से अनुपालन कर रहे हैं। परमेश्वर अपने विश्राम का आनंद उठाना चाहता है; वह मानवजाति के बारे में आगे की चिंता किए बिना या उसकी खातिर कार्य किए बिना, अपनी सुख-सुविधा का आनंद लेना चाहता है। क्या तुम यह समझ रहे हो? (हाँ।) वह दिन जल्द ही आ जाएगा। यदि हम आदम और हव्वा के काल में मानवीय आयुकाल की बात कर रहे होते, तो लोगों के पास अभी भी सदियाँ बची होतीं, और बचा हुआ काल बहुत लंबा होता। गौर करो कि नूह को नाव बनाने में कितना समय लगा था। मेरे ख्याल से आज सिर्फ थोड़े-से लोग ही हैं जो सौ से अधिक वर्ष तक जीवित रहेंगे, और यदि तुम नब्बे या सौ तक जियो भी, तो तुम्हारे लिए कितने दशक बचे हैं? ज्यादा नहीं हैं। भले ही आज तुम बीस के हो, और शायद नब्बे तक जियो, तो तुम सत्तर वर्ष और जियोगे, फिर भी यह नूह को जहाज बनाने में जितना समय लगा उससे कम ही है। परमेश्वर के लिए छह हजार वर्ष का समय पलक झपकने के बराबर है, और मनुष्य के लिए जो साठ, अस्सी, या सौ वर्ष हैं, वे परमेश्वर के लिए कुछ सेकंड हैं—अधिक-से-अधिक कुछ मिनट; पलक झपकने के बराबर। जो लोग सही मार्ग पर नहीं चलते, या सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे भी अक्सर कहते हैं, “जीवन छोटा है : पलक झपकते ही हम वृद्ध हो जाते हैं; पलक झपकते ही घर बच्चों और नाती-पोतों से भर जाता है; पलक झपकते ही हमारे जीवन का अंत होने को होता है।” अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो तो क्या? तुम्हारे लिए समय और भी ज्यादा कम है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, और खोखलेपन की दुनिया में जीते हैं, वे अपने दिन ज़ाया करते हैं, और उन सबको लगता है कि समय बहुत तेजी से गुजर जाता है। यदि तुम सच में सत्य का अनुसरण करो, तो क्या होगा? परमेश्वर की व्यवस्था का कोई भी माहौल, व्यक्ति, घटना या चीज तुम्हारे थोड़े समय तक अनुभव के लिए पर्याप्त है—और बड़े लंबे समय के बाद ही तुम थोड़ा-सा ज्ञान, अंतर्दृष्टि और अनुभव हासिल कर पाओगे। यह आसान नहीं है। जब तुम्हारे पास सचमुच ज्ञान और अनुभव होगा, तो तुम्हें समझ आएगा : “बाप रे! जीवन भर के सत्य के अनुसरण से भी मनुष्य ज्यादा कुछ प्राप्त नहीं करता!” फिलहाल, ऐसे बहुत-से लोग हैं जो अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में निबंध लिखते हैं, और मैंने देखा है कि कुछ लोग, जिन्होंने बीस-तीस वर्ष तक परमेश्वर में विश्वास रखा है, सिर्फ दस-बीस वर्ष पहले की विफलताओं और पतन के बारे में लिखते हैं। वे हाल की किसी चीज और अपने वर्तमान जीवन-प्रवेश के बारे में लिखना चाहते हैं, मगर उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है। उनका अनुभव बहुत ही अधिक कम है। अनुभवजन्य गवाही पर निबंध लिखने में, कुछ लोगों को अतीत की अपनी विफलताओं और पतन पर गौर करना होता है, और कमजोर स्मृति वाले लोगों को दूसरों की मदद चाहिए होती है कि वे उन्हें बीती बातें याद कराएँ। परमेश्वर में अपने दस, बीस, यहाँ तक कि तीस वर्षों के विश्वास में उन्होंने बस वह थोड़ा-सा ही प्राप्त किया है, और उसे लिखना बहुत मेहनत का काम है। कुछ निबंध असंबद्ध भी होते हैं, उनके असंबद्ध हिस्सों को जबरन काल्पनिक ढंग से जोड़ा जाता है। दरअसल इन्हें जीवन अनुभव में गिना भी नहीं जा सकता; इनका जीवन से कुछ भी लेना-देना नहीं है। सत्य का अनुसरण न करने पर मनुष्य इतना दयनीय होता है। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) बिल्कुल ऐसा ही है। मैं आशा करता हूँ कि तुममें से कोई भी वह दिन न देखे जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाए, और तुम उसके समक्ष पश्चात्तापी होकर घुटने टेक दो और कहो, “अब मैं स्वयं को जानता हूँ! अब मैं जानता हूँ कि सत्य का अनुसरण कैसे करना है!” बहुत देर हो चुकी है! परमेश्वर तुम पर ध्यान नहीं देगा; अब उसे परवाह नहीं कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं, या तुममें कैसा भ्रष्ट स्वभाव है, या उसके प्रति तुम्हारा रवैया कैसा है, न ही वह परवाह करेगा कि तुम्हें शैतान ने कितनी गहराई से भ्रष्ट किया है या तुम किस किस्म के व्यक्ति हो। ऐसा होने पर, क्या तुम बिल्कुल भीतर तक जम नहीं जाओगे? (हाँ।) अभी यह कल्पना करो : यदि वह पल सचमुच आ गया, तो क्या तुम दुखी होगे? (हाँ।) तुम दुखी क्यों होगे? इसका आशय यह है कि तुम्हें दूसरा मौका कभी नहीं मिलेगा। तुम फिर कभी परमेश्वर के वचन नहीं सुन पाओगे, और परमेश्वर तुम्हें लेकर कभी परेशान नहीं होगा; तुम फिर कभी उसकी चिंता का विषय या उसके सृजित प्राणी नहीं बनोगे। तुम्हारा उसके साथ बिल्कुल कोई संबंध नहीं होगा। यह सोचना कितना भयावह है। अगर तुम अभी इसकी कल्पना कर भी लो, लेकिन जब वह दिन आएगा जब तुम उस मुकाम पर पहुँच जाओगे, तो क्या तुम भौंचक्के नहीं हो जाओगे? यह ठीक वैसा ही होगा जैसा बाइबल में कहा गया है : जब वह समय आएगा, तो लोग अपनी छातियाँ पीटेंगे और पीठ कूटेंगे, दहाड़ मार कर रोएँगे, दाँत पीसेंगे, और ऐसे रोएँगे कि इससे शायद उनकी मौत हो जाए। लेकिन रो-रोकर मर जाना बेकार है—इन सबके लिए बहुत देर हो चुकी होगी! परमेश्वर अब तुम्हारा परमेश्वर नहीं होगा, और तुम अब परमेश्वर के सृजित प्राणी नहीं रहोगे। तुम्हारा उसके साथ कोई संबंध नहीं होगा; तुम उसे नहीं चाहिए होगे। तुम कैसे हो, इससे परमेश्वर को कोई सरोकार नहीं होगा। तुम अब उसके दिल में नहीं होगे, और अब वह तुम्हारी फिक्र नहीं करेगा। फिर क्या तुम परमेश्वर में अपने विश्वास के मार्ग के अंत में नहीं पहुँच चुके होगे? (हाँ।) इसीलिए, यदि तुम कल्पना कर सकने में सक्षम हो, कि ऐसा समय आ सकता है जब परमेश्वर तुम्हें ठुकरा दे, तो तुम्हें वर्तमान को संजोना चाहिए। परमेश्वर तुम्हें ताड़ना दे सकता है, तुम्हारा न्याय कर सकता है, या तुम्हारी काट-छाँट कर सकता है; वह तुम्हें श्राप भी दे सकता है और जबरदस्त तरीके से डांट भी सकता है। ये सब संजोने लायक है : परमेश्वर कम-से-कम अभी भी तुम्हें अपने सृजित प्राणी के रूप में मानता है, कम-से-कम तुमसे अभी भी उसकी अपेक्षाएँ हैं, तुम अब भी उसके दिल में हो, और वह अभी भी तुम्हें डांटने और श्राप देने को तैयार है, इसका अर्थ है कि उसके दिल में अभी भी तुम्हारे लिए चिंता है। यह चिंता ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे कोई अपने जीवन के बदले पा सकता है। अब, मूर्ख न बनो! समझ गए? (हाँ।) अगर समझ गए तो तुम लोग सचमुच मूर्ख नहीं हो; तुम मूर्ख होने का दिखावा कर रहे हो, है न? मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग सचमुच मूर्ख नहीं हो। यदि तुम ये चीजें समझ चुके हो तो अपने दिन ज़ाया न करो। सत्य का अनुसरण मानव जीवन की बहुत बड़ी बात है। कोई भी दूसरी चीज सत्य के अनुसरण जितनी महत्वपूर्ण नहीं है, और सत्य प्राप्त करने से बढ़कर मूल्यवान कोई चीज नहीं है। क्या आज तक परमेश्वर का अनुसरण करना आसान रहा है? जल्दी करो, और सत्य के अनुसरण को महत्व दो! अंत के दिनों के कार्य का यह चरण परमेश्वर की छह हजार वर्ष की प्रबंधन योजना में लोगों पर किए जा रहे सबसे महत्वपूर्ण कार्य का चरण है। सत्य का अनुसरण वह सबसे बड़ी उम्मीद है जो परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों से रखता है। उसे उम्मीद है कि लोग सही मार्ग पर चलेंगे, जो सत्य के अनुसरण का मार्ग है। परमेश्वर को निराश न करो, उसे दुखी न करो, और ऐसा मत करो कि अंतिम पल आने पर वह तुम्हें अपने दिल से निकाल दे और तुम्हारी चिंता न करे या उसके दिल में तुम्हारे प्रति कोई घृणा बची रहे। ऐसी स्थिति न आने दो। क्या तुम्हें समझ आया? (बिल्कुल।)
आज हमारी संगति का विषय क्या था? (मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए।) मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए—यह थोड़ा भारी विषय है, है न? यह भारी क्यों है? क्योंकि यह महत्वपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति के भविष्य के लिए, प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के लिए, और जिस रूप में प्रत्येक व्यक्ति अगले युग में अस्तित्व में रहेगा, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए, आशा करता हूँ कि तुम लोग इस विषय पर आज की वार्ता को दो-चार बार ज्यादा सुनोगे, ताकि तुम पर इसकी छाप गहरी हो सके। चाहे तुमने अतीत में सत्य का अनुसरण किया हो या न किया हो, और चाहे तुम सत्य का अनुसरण करने, मेहनत करने को तैयार हो या न हो, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए” विषय पर आज की संगति से और इससे आगे, सत्य का अनुसरण करने के लिए अपना संकल्प दृढ़ कर लो, और अपनी इच्छा को मजबूत कर लो। यही सर्वोत्तम विकल्प है। क्या ऐसा कर सकते हो? (हाँ।) बढ़िया। आज हमने मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए के बारे में संगति की। संगति के लिए हमारा अगला विषय है सत्य का अनुसरण कैसे करें। अब चूँकि मैंने बता दिया है कि विषय क्या है, तो इस बारे में थोड़ा सोच-विचार करो और देखो कि तुम्हें इस विषय का क्या ज्ञान है। पहले इस पर गौर कर लो। इसी के साथ आज की संगति का समापन होता है।
3 सितंबर 2022
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