सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (2) भाग तीन
सत्य के अनुसरण का सीधा संबंध उद्धार की प्राप्ति से है, इसलिए सत्य के अनुसरण का विषय कोई छोटा विषय नहीं है। हालाँकि यह एक सामान्य विषय हो सकता है, लेकिन यह बहुत सारे सत्यों को छूता है। वास्तव में, यह विषय मनुष्य की संभावनाओं और नियति के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा है, और हालाँकि हम इसके बारे में अक्सर संगति करते हैं, लेकिन लोग अभी भी सत्य के अनुसरण के संबंध में उन विभिन्न सत्यों और समस्याओं पर बहुत स्पष्ट नहीं हैं, जिन्हें समझने की उन्हें आवश्यकता है। इसके बजाय, वे बस लोगों द्वारा अच्छे माने जाने वाले विभिन्न व्यवहारों और दृष्टिकोणों को, और साथ ही लोगों की नजरों में कुछ अपेक्षाकृत सक्रिय, ऊर्ध्वदर्शी और सकारात्मक विचारों और मतों को लेकर एक भ्रमित तरीके से सत्य के रूप में उनका अनुसरण करते हैं। यह एक भयंकर भूल है। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं, जिन्हें लोग अच्छी, सही और ठीक मानते हैं, जो सटीक रूप से कहें तो, सत्य नहीं हैं। उनमें से कुछ, ज्यादा से ज्यादा, सत्य के अनुरूप हो सकती हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वे सत्य हैं। ज्यादातर लोगों को सत्य के अनुसरण के बारे में भारी गलतफहमियाँ हैं, और वे उसके प्रति काफी भ्रामक समझ और पूर्वाग्रह रखते हैं। इसलिए हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम इस पर स्पष्ट रूप से संगति करें, और लोगों को इसके भीतर के वे सत्य, जिन्हें उन्हें समझना चाहिए, और वे समस्याएँ, जिन्हें उन्हें हल करना चाहिए, समझाएँ। क्या सत्य के अनुसरण से संबंधित विशिष्ट सामग्री के बारे में, जिस पर हमने अभी संगति की है, तुम लोगों के कोई विचार हैं? क्या तुम्हारी कोई योजनाएँ या इरादें हैं? अब जबकि हमने अपनी संगति के माध्यम से, सत्य का अनुसरण करने के अर्थ की एक ज्यादा विशिष्ट परिभाषा दे दी है, बहुत-से लोग जो करते और प्रकट करते थे, उन चीजों के बारे में थोड़ा उलझन में हैं, और साथ ही इस बारे में भी कि भविष्य में वे क्या करने का इरादा रखते हैं। वे परेशान हैं, और कुछ तो यह भी महसूस करते हैं कि उनके लिए कोई आशा नहीं बची, और उन्हें हटाए जाने का खतरा है। अगर सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति किए जाने के बाद भी लोग उत्साहहीन महसूस करते हैं, तो क्या उनकी दशा सही है? क्या यह सामान्य है? (नहीं, यह सामान्य नहीं है।) अगर तुमने पहले सत्य का अनुसरण किया होता और इस संगति को सुनकर उसकी पुष्टि प्राप्त की होती, तो क्या तुम ज्यादा ऊर्जावान महसूस न करते? (हाँ।) तो लोग उत्साहहीन क्यों महसूस करते हैं? इस उत्साहहीनता की जड़ क्या है? जितना ज्यादा पारदर्शी और स्पष्ट रूप से सत्य पर संगति की जाती है, लोगों के पास उतना ही ज्यादा मार्ग होना चाहिए—तो, अगर लोगों के पास ज्यादा मार्ग है, तो वे ज्यादा उत्साहहीन क्यों महसूस करते हैं? क्या यहाँ समस्या नहीं है? (है।) क्या समस्या है? (अगर व्यक्ति जानता है कि सत्य का अनुसरण करना अच्छा है, लेकिन उसका अनुसरण करने का इच्छुक नहीं है, तो इसका कारण यह है कि वह सत्य से प्रेम नहीं करता।) लोग सत्य से प्रेम नहीं करते या उसका अनुसरण करने का इरादा नहीं रखते—इसीलिए वे उत्साहहीन महसूस करते हैं। और उनके पिछले कार्यों का क्या? (उनकी निंदा की जाती है।) “निंदा” बहुत सही शब्द नहीं है—सटीक रूप से कहें तो, उनके पिछले कार्यों को मान्यता नहीं दी गई है। अपने कार्यों को मान्यता न मिलना, यह किस तरह का परिणाम है? जब व्यक्ति के कार्यों को मान्यता नहीं मिलती, तो क्या हो रहा है? इसका क्या मतलब है? सीधी बात है—अगर व्यक्ति के कार्यों को मान्यता नहीं मिलती, तो यह दर्शाता है कि वह सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा, बल्कि वह उन चीजों का अनुसरण कर रहा है, जिन्हें मनुष्य सही और अच्छा मानता है, और वह अभी भी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जी रहा है। क्या यही नहीं हो रहा? (हो रहा है।) यही हो रहा है। जब लोगों के कार्यों को परमेश्वर द्वारा मान्यता नहीं दी जाती, तो वे परेशान महसूस करते हैं। क्या ऐसे समय उनके पास अभ्यास का कोई सकारात्मक और सही मार्ग नहीं होता? क्या व्यक्ति के लिए यह सही होगा कि वह इसलिए नकारात्मक हो जाए, अपना कर्तव्य त्याग दे और निराशा में डूब जाए कि उसके कार्यों को मान्यता नहीं मिली? क्या यह अभ्यास का सही मार्ग है? (नहीं।) यह अभ्यास का सही मार्ग नहीं है। जब व्यक्ति पर ऐसा कुछ पड़ता है, और उन्हें अपनी समस्याओं का पता चलता है, तो उन्हें तुरंत अपना रास्ता बदल लेना चाहिए। अगर हमारी संगति के माध्यम से तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के अर्थ का और इसका पता चलता है कि तुम्हारे पिछले कार्यों और व्यवहारों का सत्य के अनुसरण से कोई लेना-देना नहीं था, तो चाहे यह तुम्हें परेशान करे या नहीं, पहला काम यह करो कि अभ्यास के अपने पुराने, गलत तरीके और विधियाँ, और साथ ही अपने अनुसरण का गलत मार्ग पलट दो। तुम्हें ये चीजें तुरंत पलट देनी चाहिए। जब परमेश्वर द्वारा व्यक्ति के पिछले कार्य खारिज कर दिए जाते हैं और उन्हें मान्यता नहीं दी जाती, जब परमेश्वर कहता है कि वे कार्य केवल मेहनत थे, और उनका सत्य का अनुसरण करने से कोई लेना-देना नहीं, तो कुछ लोग सोचेंगे, “ओह, हम मनुष्य वास्तव में मूर्ख और अंधे हैं। हम सत्य नहीं समझते और चीजों की असलियत नहीं देख पाते—और इस पूरे समय हम मान रहे थे कि हम सत्य का अभ्यास और अनुसरण कर रहे हैं, और परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। अब जाकर हमें पता चला है कि अपने तथाकथित ‘सत्य के अनुसरण’ में हमने जो कुछ किया, वह केवल अच्छे इंसानी व्यवहार थे—वे सिर्फ वो चीजें थीं, जिन्हें लोग अपनी देह की विभिन्न सहज योग्यताओं, क्षमताओं और गुणों के आधार पर करते हैं। वे सत्य के अनुसरण के सार, परिभाषा और अपेक्षाओं से बहुत अलग हैं; उनका इससे कोई लेना-देना ही नहीं है। हमें इसके बारे में क्या करना चाहिए?” यह एक बड़ी समस्या है और इसे हल किया जाना चाहिए। इसे हल करने का क्या तरीका है? प्रश्न उठाया गया है : यह देखते हुए कि जिन व्यवहारों और दृष्टिकोणों को लोग पहले अच्छा मानते थे, उन्हें समान रूप से खारिज कर दिया गया है, और परमेश्वर उन्हें याद नहीं रखता, न ही उसने उन्हें सत्य के अनुसरण के रूप में परिभाषित किया है—तो फिर, सत्य का अनुसरण क्या है? इसका उत्तर यह है कि सत्य के अनुसरण की परिभाषा का सावधानी से प्रार्थना-पाठ करना चाहिए, और उस परिभाषा से अभ्यास करने का मार्ग खोजना चाहिए, और उसे अपने जीवन की वास्तविकता में बदलना चाहिए। लोगों ने अतीत में सत्य के अनुसरण का अभ्यास नहीं किया, इसलिए अब से उन्हें सत्य के अनुसरण की परिभाषा को अपने आधार के रूप में और अपने व्यवहार की नींव के रूप में लेना चाहिए। तो, सत्य के अनुसरण की क्या परिभाषा है? वह यह है : पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना। इसे और ज्यादा स्पष्ट या सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के पिछले सभी कार्य और व्यवहार क्या थे? क्या वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार थे, सत्य उनकी कसौटी था? याद करो—क्या ऐसा था? (नहीं।) कहा जा सकता है कि ऐसे कार्य और व्यवहार कभी-कभार ही पाए जाते हैं, वे वास्तव में कहीं नहीं पाए जाते। तो, क्या मनुष्य ने परमेश्वर में इतने वर्षों तक विश्वास करने, और उसके वचनों को पढ़ने और उनकी संगति करने से वास्तव में कुछ भी हासिल नहीं किया है? क्या लोगों ने परमेश्वर के वचनों के अनुसार एक भी चीज का अभ्यास नहीं किया है? जिस परिभाषा की हमने यहाँ बात की है, “पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना,” किस पर निर्देशित है? यह किस समस्या का समाधान करने के लिए है? यह मनुष्य की किन समस्याओं और उसके स्वभाव सार के किन पहलुओं पर निर्देशित है? लोग अब सत्य का अनुसरण करने की परिभाषा समझ सकते हैं, लेकिन जब यह बात आती है कि उनके पिछले कार्यों को मान्यता क्यों नहीं दी गई, और क्यों उन्हें सत्य का अनुसरण न करने के रूप में परिभाषित किया गया, तो ये चीजें उनके लिए अस्पष्ट, समझ से बाहर और अज्ञात बनी रहती हैं। कुछ लोग कहेंगे, “जब से हमने परमेश्वर का नाम स्वीकारा है, तब से हमने कितना त्याग किया है : हमने अपने परिवार और काम त्याग दिए, और हमने अपनी संभावनाएँ भी त्याग दीं। हममें से कुछ ने अच्छी नौकरियों से इस्तीफा दे दिया; हममें से कुछ ने सुखी परिवार छोड़ दिए; हममें से कुछ के पास अच्छे वेतन और असीमित संभावनाओं वाला बहुत अच्छा करियर था, हमने वह सब जाने दिया। ये वे चीजें हैं, जिनका हमने त्याग किया है। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद से हमने विनम्र, धैर्यवान और सहिष्णु होना सीखा है। दूसरों के साथ बातचीत करते समय हम उनके साथ बहस में नहीं पड़ते, हम कलीसिया में आने वाले किसी भी मामले को सँभालने की पूरी कोशिश करते हैं, और जब भी हमारे भाई-बहनों को कोई कठिनाई होती है, हम प्यार से उनकी मदद करने का भरसक प्रयास करते हैं। हम दूसरों को नुकसान पहुँचाने से बचते हैं और यथासंभव दूसरों के हितों को क्षति नहीं पहुँचाते। क्या इन दृष्टिकोणों का वास्तव में सत्य का अनुसरण करने से कोई लेना-देना नहीं है?” अब ध्यान से सोचो : मनुष्य के त्याग, व्यय, परिश्रम, सहनशीलता, धैर्य, यहाँ तक कि कष्ट उठाना भी, किससे संबंधित है? ये चीजें कैसे हासिल की जाती हैं? ये किस पर आधारित हैं? कौन-सी प्रेरक शक्ति लोगों को इन्हें करने के लिए प्रेरित करती है? इस पर विचार करो। क्या ये चीजें गहन विचार के योग्य नहीं हैं? (हाँ, हैं।) अच्छा, चूँकि ये गहन विचार के योग्य हैं, आओ आज हम इनकी छानबीन और जाँच करें; आओ देखें कि इन चीजों का, जिन्हें मनुष्य ने हमेशा अच्छा, सही और उत्कृष्ट माना है, सत्य के अनुसरण से कोई लेना-देना है या नहीं।
हम मनुष्य के त्याग, परिश्रम और उसके द्वारा चुकाई जाने वाली कीमतों को देखने से आरंभ करेंगे। इन त्यागों, परिश्रमों और कीमतों के संदर्भ या परिवेश पर ध्यान न दें तो, इन चीजों के लिए मुख्य प्रेरक शक्ति कहाँ से आती है? मेरे विचार से इसके दो स्रोत हैं। पहला है, जब लोग अपने विचारों और धारणाओं में यह सोचते हैं, “अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो तुम्हें खुद को त्याग देना और खपाना चाहिए, और उसके लिए कीमत चुकानी चाहिए। जब लोग ऐसा करते हैं, तो परमेश्वर को अच्छा लगता है। जब लोग आराम में लिप्त होते हैं और सांसारिक चीजों के पीछे दौड़ते हैं, या जब वे उसका नाम स्वीकारने और उसका अनुयायी बनने का दावा करने के बाद भी उदासीन रहकर अपना ही जीवन जीते रहते हैं, तो उसे अच्छा नहीं लगता। जब लोग ऐसा करते हैं, तो परमेश्वर इसे पसंद नहीं करता।” लोगों की व्यक्तिपरक इच्छा के अनुसार, यह विचार एक हकीकत है। परमेश्वर और उसके नए कार्य को स्वीकारने का व्यक्ति का चाहे जो भी कारण हो, उनकी व्यक्तिपरक इच्छा इस तरह से कार्य करने के लिए सहमत होगी, यह विश्वास करते हुए कि परमेश्वर को तभी अच्छा लगता है, जब लोग इस तरह से कार्य करते हैं, और इस तरह से कार्य करके ही वे परमेश्वर की खुशी और संतुष्टि प्राप्त करेंगे। उन्हें लगता है कि अगर लोग लगन से संघर्ष और प्रयास करते हैं, और बदले में कुछ भी माँगे बिना कोशिश करते हैं, और अगर लोग कीमत चुकाने के लिए अपने सुख-दुख की परवाह नहीं करते, और प्रयास करना, कीमत चुकाना और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना और अर्पित करना जारी रखते हैं, तो परमेश्वर निश्चित रूप से प्रसन्न होगा। इसलिए, जब कोई इस पर विश्वास कर लेता है, तो वह पुनर्विचार किए बिना सिर झुका लेता है, और बाकी सब की परवाह किए बिना, वह हर उस चीज का त्याग कर देता है जिसका वह त्याग कर सकता है, और हर वह चीज अर्पित कर देता है जिसे वह अर्पित कर सकता है, और हर वह पीड़ा सहन कर सकता है, जिसे वह सह सकता है। लोग ये दृष्टिकोण अपनाते हैं, पर क्या उनमें से किसी ने परमेश्वर से यह पूछने के लिए अपना सिर उठाया है, “परमेश्वर, क्या जो चीजें मैं कर रहा हूँ, वे वही चीजें हैं जिनकी तुम्हें आवश्यकता है? परमेश्वर, क्या तुम मेरे व्यय, मेरे परिश्रम, मेरी पीड़ा और मेरे द्वारा चुकाई गई कीमतों को मान्यता देते हो?” लोग कभी परमेश्वर से यह नहीं पूछते, और यह जाने बिना कि परमेश्वर की क्या प्रतिक्रिया या रवैया है, यह विश्वास करते हुए कि परमेश्वर उनके इस तरह से कष्ट उठाने पर खुश और संतुष्ट ही होगा, वे अपनी एकतरफा इच्छाओं के आधार पर प्रयास करते रहते हैं, खुद को अर्पित करते और खपाते रहते हैं। कुछ लोग तो इस डर से मोमो तक खाना छोड़ देते हैं कि अगर उन्होंने ऐसा किया, तो परमेश्वर अप्रसन्न हो जाएगा। इसके बजाय, वे यह मानते हुए कि मोमो खाना आराम में लिप्त होना है, उबली हुई मकई की रोटी खाते हैं। वे तभी सहज महसूस करते हैं, जब वे उबली हुई मकई की रोटी, बासी पराँठे और अचार खाते हैं, और जब वे सहज महसूस करते हैं, तो सोचते हैं कि परमेश्वर निश्चित रूप से संतुष्ट होगा। वे अपनी भावनाओं, आनंद, दुःख, क्रोध और खुशी को गलती से परमेश्वर की भावनाएँ, आनंद, दुःख, क्रोध और खुशी समझ लेते हैं। क्या यह बेतुका नहीं है? बहुत-से लोग उन चीजों को सत्य मान लेते हैं, जिन्हें मनुष्य सही मानता है, और उन्हें मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के रूप में वर्णित करते हुए परमेश्वर पर थोप देते हैं, क्योंकि सभी लोग यही मानते हैं। और जब लोग इस तरह का विश्वास रखते हैं, तो बहुत संभावित और स्वाभाविक है कि वे अनजाने ही उन कथनों, व्यवहारों और दृष्टिकोणों को सत्य के रूप में चित्रित करें। और चूँकि लोगों ने निर्धारित कर लिया है कि ये चीजें सत्य हैं, इसलिए वे सोचते हैं कि ये अभ्यास के सिद्धांत होने चाहिए, जिनका मनुष्य को अवश्य पालन करना चाहिए, और अगर कोई इस तरह से इनका अभ्यास और पालन करता है, तो वह परमेश्वर के वचनों का अभ्यास कर रहा है, सत्य का अनुसरण कर रहा है, और बेशक, उसकी इच्छा का पालन कर रहा है। और चूँकि लोग “परमेश्वर की इच्छा का पालन कर रहे हैं” तो क्या उनकी कठिनाइयाँ सार्थक नहीं हैं? क्या वे सही तरह से कीमत नहीं चुका रहे? क्या यह ऐसी चीज नहीं है, जिससे परमेश्वर संतुष्ट होता है और जिसे वह याद रखता है? लोग सोचते हैं कि यह निश्चित रूप से ऐसी ही चीज है। मनुष्य जिसे “सत्य” मानता है, उसके और परमेश्वर के वचनों के बीच यही दूरी और अंतर है। लोग समान रूप से हर उस चीज को सत्य के रूप में वर्गीकृत करते हैं, जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं में मनुष्य के नैतिक चरित्र के अनुरूप है और अच्छी, उत्कृष्ट और सही है, और फिर वे खुद से कड़ी अपेक्षाएँ करते हुए उस दिशा में कार्य और अभ्यास करने का प्रयास करते हैं। वे मानते हैं कि इस तरह वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं, कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति से कम नहीं हैं, और बेशक, वे पूरी तरह से ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें बचाया जा सकता है। तथ्य यह है कि परमेश्वर के वचनों और सत्य का उन चीजों से कोई लेना-देना नहीं है, जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में अच्छा, सही और सकारात्मक मानते हैं। फिर भी जब लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ते और अपने हाथों में पकड़ते हैं, तो वे हर उस चीज को लेकर, जो—उनकी धारणाओं में—अच्छी, सही, सुंदर, दयालु, सकारात्मक है और मनुष्य द्वारा जिसके सत्य और सकारात्मक होने की वकालत की जाती है, अथक रूप से उसका अनुसरण करते हैं, और न केवल खुद उसका अनुसरण कर उसे प्राप्त करना आवश्यक समझते हैं, बल्कि दूसरों से भी उसका अनुसरण कर उसे प्राप्त करने की अपेक्षा करते हैं। जिन चीजों को मनुष्य अच्छा मानता है, लोग उन्हें ही हमेशा गलत ढंग से सत्य समझ लेते हैं, और फिर उन चीजों द्वारा अपेक्षित मानकों और दिशा के अनुसार अनुसरण करते हैं, और इस तरह मानते हैं कि वे पहले से ही सत्य का अनुसरण कर रहे हैं और सत्य वास्तविकता को जी रहे हैं। यह सत्य के अनुसरण के बारे में लोगों की गलत समझ का एक पहलू है। वह गलत समझ यह है कि लोग जिसे—अपनी धारणाओं में—अच्छा, सही और सकारात्मक मानते हैं, उसे अपने मानकों के रूप में ले लेते हैं, और उसे मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं, और उसके वचनों की अपेक्षाओं और मानकों का स्थान दे देते हैं। लोग जिन चीजों को अपनी धारणाओं में सही और अच्छा मानते हैं, उन्हें सत्य समझने की भूल करते हैं, और सिर्फ इतना ही नहीं—वे इन चीजों का पालन और अनुसरण भी करते हैं। क्या यह समस्या नहीं है? (हाँ, है।) यह मनुष्य के विचारों और नजरियों की समस्या है। जब लोग ऐसा करते हैं, तो वे किससे प्रेरित होते हैं? वह मूल कारण क्या है जो उन्हें इन विचारों और भ्रामक समझ की ओर ले जाता है? मूल कारण यह है कि लोग मानते हैं कि परमेश्वर इन चीजों को पसंद करता है, इसलिए वे इन्हें उस पर थोप देते हैं। उदाहरण के लिए, परंपरागत संस्कृति लोगों को मेहनती और मितव्ययी होने के लिए कहती है; मेहनत और मितव्ययिता मानवीय गुण हैं। “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी,” ऐसा ही एक और गुण है, और ऐसा ही गुण है “जैसा तुम्हारा मालिक आज्ञा दे, वैसा करो, वरना तुम्हें अपने सबसे श्रमसाध्य प्रयासों से भी कुछ हासिल नहीं होगा” इत्यादि। हर जाति और समूह में, लोग मानते हैं कि जिस भी चीज को वे अच्छी, सही, सकारात्मक, सक्रिय और ऊर्ध्वमुखी मानते हैं, वह सत्य है, और वे इन चीजों से ऐसे पेश आते हैं मानो वे सत्य हों, और उन्हें परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सभी सत्यों का स्थान दे देते हैं। जिन चीजों पर मनुष्य दृढ़ता से विश्वास करता है और जो शैतान की हैं, उन्हें वे सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानक मान लेते हैं। वे अपने अनुसरण को उन आदर्शों, दिशाओं और लक्ष्यों की ओर निर्देशित करते हैं, जिन्हें वे सही सोचते और मानते हैं। यह एक भयंकर भूल है। मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से आने वाली ये चीजें परमेश्वर के वचनों के बिल्कुल भी अनुरूप नहीं हैं, और ये पूरी तरह से सत्य के विपरीत हैं।
मैं उन चीजों के कुछ उदाहरण दूँगा, जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में अच्छी और सही मानकर सत्य समझने की भूल करते हैं, ताकि यह विचार बहुत अमूर्त न रहे, और तुम लोग इसे समझ सको। उदाहरण के लिए : कुछ स्त्रियाँ परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शृंगार करना और गहने पहनना बंद कर देती हैं। वे यह सोचते हुए अपना शृंगार और गहने एक तरफ रख देती हैं कि परमेश्वर के विश्वासियों को उचित व्यवहार करना चाहिए, कि वे शृंगार नहीं कर सकतीं या सज-सँवर नहीं सकतीं। कुछ लोगों के पास कार होती है, लेकिन वे उसे चलाते नहीं, बल्कि साइकिल चलाते हैं। उन्हें लगता है कि कार चलाना आराम में लिप्त होना है। कुछ लोग इतने समृद्ध होते हैं कि मांस खा सकते हैं, लेकिन यह सोचकर नहीं खाते कि अगर वे हमेशा मांस खाएँगे, और कोई ऐसा समय आया जब परिस्थितियाँ उन्हें मांस न खाने दे, तो वे नकारात्मक और कमजोर हो जाएँगे, और परमेश्वर को धोखा दे देंगे। इसलिए, वे पहले से उसके अभाव की पीड़ा झेलना सीख लेते हैं। दूसरों को लगता है कि परमेश्वर के विश्वासी के रूप में उन्हें अच्छा व्यवहार करना चाहिए, इसलिए वे अपनी खामियों और बुरी आदतों का जायजा लेते हैं, और अपने बोलने का लहजा बदलने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, गुस्से पर काबू रखते हैं, और खुद को परिष्कृत करने और अशिष्ट न होने की पूरी कोशिश करते हैं। वे सोचते हैं कि जब व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करने लगता है, तो उसे स्वयं को नियंत्रित और संयमित करना चाहिए, उसे दूसरों की नजरों में एक अच्छा इंसान और सदाचारी होना चाहिए। उन्हें लगता है कि ऐसा करके वे कीमत चुका रहे हैं, परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं और सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। कुछ लोग समय-समय पर सज-सँवरकर खरीदारी करने जाते हैं और ऐसा करने पर दोषी महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि अब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, इसलिए वे शृंगार नहीं कर सकते और सज-सँवर नहीं सकते और अच्छे कपड़े नहीं पहन सकते। वे मानते हैं कि अगर वे शृंगार करते हैं, सजते-सँवरते हैं और अच्छे कपड़े पहनते हैं, तो परमेश्वर इससे घृणा करेगा और इसे नापसंद करेगा। वे मानते हैं कि परमेश्वर आदिम मानव को पसंद करता है, कि परमेश्वर उद्योग या आधुनिक विज्ञान या कोई प्रवृत्ति पसंद नहीं करता। उन्हें लगता है कि इन चीजों का अनुसरण करना छोड़कर ही वे सत्य का अनुसरण करते हैं। क्या यह विकृत समझ नहीं है? (है।) क्या इन लोगों ने परमेश्वर के वचन ध्यान से पढ़े हैं? क्या उन्होंने उसके वचनों को सत्य माना है? (नहीं।) और चूँकि उन्होंने परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं माना है, तो क्या वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं? (नहीं।) यही कारण है कि ये दृष्टिकोण और अभिव्यक्तियाँ सिर्फ लोगों द्वारा उन चीजों को सत्य समझना है, जिन्हें वे अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानते हैं, और इन चीजों को सत्य का स्थान देना है। वे इच्छा से इन चीजों का अभ्यास करते हैं, जिसके बाद वे समझते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं और वे ऐसे लोग हैं जिनमें सत्य वास्तविकता है। उदाहरण के लिए, ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद से टेलीविजन शो नहीं देखा है या समाचार नहीं देखे हैं, यहाँ तक कि खरीदारी करने भी नहीं गए हैं। वे कई रातें घास के ढेर में सोए हैं और कई दिन कुत्तों के बाड़ों के पास रहकर बिताए हैं, क्योंकि वे सुसमाचार फैला रहे हैं और अपने कर्तव्य निभा रहे हैं। ठंडा खाना खाने से उनके पेट में बहुत दर्द हुआ है, नींद की कमी और अल्प आहार से उनका कई पाउंड वजन कम हुआ है और उन्हें बहुत परेशानी हुई है। वे इन सभी चीजों को अच्छी तरह से जानते हैं, और एक-एक करके उनका हिसाब जोड़ते हैं। वे इन चीजों के इतने स्पष्ट अभिलेख क्यों रखते हैं? इसका कारण यह है कि वे मानते हैं कि ये व्यवहार और दृष्टिकोण सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर को संतुष्ट करना है, और अगर वे इन सभी अच्छे व्यवहारों को प्राप्त कर लेते हैं, तो परमेश्वर उनका अनुमोदन करेगा। इसलिए, लोग शिकायत नहीं करते और बिना किसी झिझक के इन चीजों का अभ्यास करते हैं। अपने मन में, वे कभी इनके बारे में बात करते, इन्हें दोहराते और याद करते नहीं थकते, और उनके दिल बहुत गदगद महसूस करते हैं। और फिर भी, जब वे परमेश्वर के परीक्षणों का सामना करते हैं, जब उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेश वैसा नहीं होता जैसा वे चाहते हैं, जब उनसे उसकी अपेक्षाएँ और उसके कार्य, उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते, तब वे चीजें जिन्हें ये लोग सही मानते हैं, और साथ ही वे कीमतें जो वे चुकाते हैं, और उनके अभ्यास किसी काम के नहीं होंगे। ये चीजें उन्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होने या जिन परिवेशों का वे सामना कर रहे हैं, उनके भीतर उसे जानने में जरा-सी भी मदद नहीं करेंगी। इसके विपरीत, वे उनके परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में अड़चनें और बाधाएँ बन जाएँगी। इसका कारण यह है कि लोगों ने कभी यह नहीं जाना कि जिन चीजों को वे सही मानते हैं, वे मूलभूत रूप से सत्य नहीं हैं, और वे जो अभ्यास करते हैं, वह सत्य का अनुसरण नहीं है। तो फिर, लोगों को इन चीजों से क्या लाभ होने वाला है? सिर्फ एक तरह का अच्छा व्यवहार। लोग उनसे सत्य और जीवन प्राप्त नहीं करेंगे। फिर भी वे गलत ढंग से मानते हैं कि ये अच्छे व्यवहार सत्य वास्तविकता हैं, और वे और भी ज्यादा दृढ़ता से महसूस करते हैं कि जिन चीजों को वे अपनी धारणाओं में सही मानते हैं, वे सत्य और सकारात्मक चीजें हैं, और परिणामस्वरूप, यह निश्चय उनके दिलों में जड़ें जमा लेता है। लोग जिन चीजों को अपनी धारणाओं में सही मानते हैं, उनकी जितनी ज्यादा आराधना और आँख मूँदकर उन पर जितना विश्वास करते हैं, उतना ही ज्यादा वे सत्य को नकारते हैं, और परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके वचनों से उतना ही दूर होते जाते हैं। और साथ ही, लोग जितनी ज्यादा कीमत चुकाते हैं, उतना ही ज्यादा वे सोचते हैं कि वे पूँजी प्राप्त कर रहे हैं, और उतना ही ज्यादा वे मानते हैं कि वे बचाए जाने और परमेश्वर का वादा प्राप्त करने के योग्य हैं। क्या यह एक दुष्चक्र नहीं है? (बिल्कुल है।) इस समस्या की जड़ क्या है? मुख्य अपराधी क्या है? (लोगों का अपनी धारणाओं को सकारात्मक चीजें समझना और उन्हें परमेश्वर के वचनों का स्थान देना।) लोग परमेश्वर के वचनों की जगह अपनी धारणाओं को दे देते हैं, वे परमेश्वर के वचनों को एक तरफ रख देते हैं, और वे अनिवार्य रूप से उनकी उपेक्षा करते हैं। दूसरे शब्दों में, वे परमेश्वर के वचनों को बिल्कुल भी सत्य नहीं मानते। यह कहना सुरक्षित है कि लोग, परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं, लेकिन वे जिसका अनुसरण करते हैं, जिसे चुनते हैं और जिसका अभ्यास करते हैं, वह अभी भी मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित होता है, और उन्होंने परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलना शुरू नहीं किया है। लोगों की अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर में विश्वास करने की समस्या वास्तव में कहाँ से उत्पन्न होती है? मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ कहाँ से उत्पन्न होती हैं? वे कहाँ से आती हैं? कहा जा सकता है कि वे मुख्य रूप से परंपरागत संस्कृति से, और मनुष्य की विरासत से, और साथ ही धार्मिक दुनिया के अनुकूलन और प्रभाव से आती हैं। मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ इन चीजों से सीधे तौर पर संबंधित हैं।
लोग अपने विचारों और नजरियों में और किन बातों को अच्छा, सही और सकारात्मक मानते हैं? तुम उदाहरण के तौर पर कुछ का नाम ले सकते हो। लोग अक्सर कहते हैं, “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है” और “निष्कपट लोग हमेशा जीतते हैं”—ये कुछ उदाहरण हैं, है न? (हाँ।) और ये भी हैं : “भलाई के बदले भलाई और बुराई के बदले बुराई मिलती है; इन चीजों का बदला चुकाया जाएगा, बस अभी इसका समय नहीं आया है,” “बुराई में बने रहना आत्म-विनाश लाता है,” “परमेश्वर जिसे नष्ट करता है, उसकी बुद्धि पहले ही हर लेता है,” “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी,” “अन्य अनुसरण छोटे हैं, किताबें उन सबसे श्रेष्ठ हैं,” इत्यादि। ये सारे दानवी शब्द वीभत्स हैं। ऐसी बातें सुनकर मैं क्रोध से भर जाता हूँ, लेकिन लोग इन्हें बड़ी सरलता से कह देते हैं। वे ऐसी बातें इतनी आसानी से कैसे कह पाते हैं? ऐसा क्यों है कि मैं इन्हें नहीं कह पाता? मुझे ये बातें, ये कहावतें पसंद नहीं। यह तथ्य कि तुम लोग इन कहावतों को इतनी आसानी से बता रहे हो, ये तुम्हारी जबान से धाराप्रवाह बह रही हैं, और जिस तरह से तुम इन्हें बेहिचक बोलते हो, यह साबित करता है कि तुम लोग विशेष रूप से इन चीजों को पसंद और इनकी आराधना करते हो। तुम लोग इन खोखली, भ्रामक, अवास्तविक चीजों की आराधना करते हो, और साथ ही, तुम इन्हें अपने आदर्श वाक्य, और अपने कार्यों के सिद्धांत, मानदंड और आधार मानते हो। और फिर, तुम यह भी सोचते हो कि परमेश्वर भी इन चीजों पर विश्वास करता है, कि उसके वचन इन्हीं विचारों के प्रति बस एक भिन्न दृष्टिकोण हैं, कि ये चीजें उसके वचनों का व्यापक अर्थ हैं : लोगों से अच्छा बनने का आह्वान। क्या यह नजरिया सही है? क्या ये चीजें परमेश्वर के वचनों और उसके द्वारा व्यक्त सत्यों का अर्थ हैं? बिल्कुल नहीं; परमेश्वर का जो मतलब है, उसका इन चीजों से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, सत्य के प्रति लोगों का रवैया बदलना होगा, और सत्य की उनकी पहचान ठीक किए जाने की आवश्यकता है—जिसका अर्थ है कि जिस मानक से वे सत्य को अवस्थित करते हैं, उसे ठीक करने और बदलने की आवश्यकता है। अन्यथा, उनके लिए सत्य स्वीकारना कठिन होगा, और उनके पास उसका अनुसरण करने के मार्ग पर चलने का कोई उपाय नहीं होगा। सत्य क्या है? मोटे तौर पर कहें तो, परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं। ज्यादा विशिष्ट रूप से कहें तो, फिर—सत्य क्या है? मैंने तुम्हें पहले भी बताया है। मैंने क्या कहा था? (“सत्य इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ (भाग तीन))।) सही कहा। सत्य इंसान के आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है। तो, क्या सत्य का उन चीजों से कोई लेना-देना है, जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में सही और अच्छी मानते हैं? (नहीं है।) वे इंसानी चीजें कहाँ से आती हैं? (सांसारिक आचरण के शैतान के फलसफे से और कुछ ऐसे विचारों से जो परंपरागत संस्कृति ने मनुष्य के मन में बैठाए हैं।) सही कहा। सटीक रूप से कहें तो ये चीजें शैतान से उत्पन्न होती हैं। और मनुष्य में ये चीजें डालने वाले प्रतिष्ठित, प्रसिद्ध लोग कौन हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) तुम्हारे वे सभी कुलपिता शैतान हैं—वे जीवित और साक्षात शैतान हैं। जरा चीनी लोगों की इन कहावतों को देखो : “जब कोई दोस्त दूर से आता है तो कितना आनंद होता है,” “तुम आ गए हो तो रह भी सकते हो,” “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो,” “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए,” “तीन संतानोचित दोषों में से कोई वारिस न होना सबसे बुरा है,” “मृत व्यक्ति जीवित लोगों की नजरों में महान होते हैं,” “जब व्यक्ति मृत्यु के करीब आता है तो उसके शब्द सच्चे और दयालु होते हैं।” इन वचनों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करो—क्या इनमें से कोई सत्य है? (नहीं।) ये सब भ्रांतियाँ और दानवी शब्द हैं। मुझे बताओ, लोग कितने मूर्ख होंगे जो परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद भी इन भ्रांतियों और दानवी शब्दों को सत्य समझने की भूल करते हैं? क्या इन लोगों में सत्य समझने की क्षमता है? (नहीं।) ऐसे लोग बेतुके प्रकार के और सत्य समझने में पूरी तरह से अक्षम होते हैं। और तुम लोग—अब परमेश्वर के इतने सारे वचन पढ़ लेने के बाद, क्या तुम्हारे पास सत्य का थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं है? (हाँ, है।) सत्य कहाँ से आता है? (वह परमेश्वर से आता है।) सत्य परमेश्वर से आता है। ऐसे किसी भी वचन पर विश्वास मत करो, जो परमेश्वर द्वारा नहीं कहा गया है। सांसारिक आचरण के ये शैतानी फलसफे और परंपरागत संस्कृति के ये विचार सत्य नहीं हैं, और किसी को इनके अनुसार या इन्हें अपने मानदंड बनाकर लोगों और चीजों को नहीं देखना चाहिए, या आचरण या कार्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये परमेश्वर से नहीं आतीं। अगर कोई चीज मनुष्य से आती है, चाहे वह परंपरागत संस्कृति से आती हो या किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से, या चाहे वह ज्ञानार्जन का उत्पाद हो या समाज का, या चाहे वह जिस भी वंश या जाति के लोगों से आती हो—वह सत्य नहीं है। फिर भी, ठीक यही चीजें हैं, जिन्हें लोग सत्य समझते हैं, जिनका वे सत्य के बदले अनुसरण और अभ्यास करते हैं। और इस पूरे समय वे सोचते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं, कि वे परमेश्वर के इरादे पूरे करने के करीब हैं, जबकि वास्तव में सच इसका ठीक उल्टा है : जब तुम इन चीजों के आधार पर अनुसरण और अभ्यास करते हो, तो तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य से और भी दूर हो जाते हो।
जिन चीजों को मनुष्य अच्छी और सकारात्मक मानता है, लोगों का उन्हें सत्य समझना और उनका इस तरह अनुसरण करना, जैसे कि वे सत्य हों, स्वाभाविक रूप से बेतुका है। यह कैसे हो सकता है कि जिन लोगों ने परमेश्वर का कार्य स्वीकारा है और उनके बहुत-से वचन पढ़े हैं, वे अभी भी मनुष्य द्वारा अच्छी मानी जाने वाली चीजों को सत्य समझते हैं और उनका इस तरह अनुसरण करते हैं, जैसे कि वे सत्य हों? यहाँ क्या समस्या है? यह ये दिखाने के लिए पर्याप्त है कि लोग यह नहीं समझते कि सत्य क्या है, और उन्हें सत्य का कोई वास्तविक ज्ञान नहीं है। यह उस प्रश्न का एक कारक है, जो मैंने अभी पूछा था : “यह देखते हुए कि ये चीजें सत्य नहीं हैं, लोग इनका अभ्यास कैसे करते रह सकते हैं और कैसे यह सोच सकते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं?” मैं दूसरे कारक के बारे में बात करूँगा, जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का उल्लेख करता है। लोग मानते हैं कि जिन चीजों को वे अपनी धारणाओं में अच्छी, सही और सकारात्मक मानते हैं, वे सत्य हैं, और इस आधार पर वे यह विश्वास करते हुए एक साजिश रचते हैं कि जब उन्होंने परमेश्वर को संतुष्ट कर दिया है और परमेश्वर खुश है, तो वह उन्हें वे आशीष प्रदान करेगा, जिनका उसने मनुष्य से वादा किया है। क्या यह साजिश परमेश्वर के साथ सौदा पटाने का प्रयास नहीं है? (है।) एक लिहाज से लोग एक भ्रामक समझ रखते हुए इन चीजों पर कायम रहते हैं और इनका अनुसरण करते हैं, और साथ ही, वे अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के साथ परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश करते हैं। क्या यह दूसरा कारक नहीं है? (है।) हमने अतीत में इस कारक के बारे में अक्सर संगति की है, इसलिए अब हम इस पर विस्तार से बात नहीं करेंगे। तो, मैं तुम लोगों से पूछता हूँ : जब परमेश्वर में विश्वास करने वाला कोई व्यक्ति त्याग करता है, पीड़ित होता है, खुद को खपाता है और परमेश्वर के लिए कीमत चुकाता है, तो क्या ऐसा करने में उसका कोई इरादा और लक्ष्य नहीं होता? (होता है।) क्या कोई है, जो कहता हो, “मैं कुछ नहीं चाहता और कुछ नहीं माँगता। चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ हों, मैं त्याग करूँगा, खुद को खपाऊँगा और कीमत चुकाऊँगा। इसके पीछे और कुछ नहीं है। मेरी कोई व्यक्तिगत इच्छा और महत्वाकांक्षा नहीं है। परमेश्वर जैसे भी मेरे साथ व्यवहार करे, ठीक है। वह मुझे पुरस्कृत करे, न करे—कुछ भी हो, मैंने उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य किया है, मैंने खुद को अर्पित कर दिया है, मैंने सब-कुछ त्याग दिया है, मैंने कीमत चुकाई है और कष्ट सहे हैं”? क्या ऐसे लोग हैं? (नहीं।) आज तक ऐसा व्यक्ति पैदा नहीं हुआ है। कुछ लोग कह सकते हैं, “ऐसे व्यक्ति को शून्य में रहना होगा।” अगर कोई व्यक्ति शून्य में भी रहता हो, तो भी वह ऐसा नहीं होगा : उसमें तब भी भ्रष्ट स्वभाव, महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होंगी, और वह तब भी परमेश्वर के साथ सौदा करने का प्रयास करेगा। तो, इस प्रश्न में दूसरा कारक यह है कि जब लोग उन चीजों को सत्य समझते हैं, जिन्हें वे अपनी धारणाओं में सही मानते हैं, तो वे एक साजिश रचते हैं। और वह साजिश क्या होती है? इन चीजों का अभ्यास इसलिए करना, ताकि इनका विनिमय उन आशीषों से, जिनका वादा परमेश्वर ने मनुष्य से किया है, और एक सुंदर मंजिल से किया जा सके। वे मानते हैं कि अगर मनुष्य किसी चीज को सकारात्मक समझता है, तो वह सही होनी चाहिए, इसलिए वे जो भी सही समझते हैं, वह करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, और सोचते हैं कि उनके इस तरह अभ्यास करने से परमेश्वर उन्हें आशीष देने के लिए बाध्य है। यह है मनुष्य की साजिश। यह दूसरा कारक विशुद्ध रूप से उन लोगों से संबंधित है, जो अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने और परमेश्वर के साथ सौदा करने का प्रयास कर रहे हैं। अगर तुम्हें इस पर यकीन न आए, तो लोगों को सौदे करने से मना करने की कोशिश करो, और उनसे उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ छीन लो—उन्हें उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ छोड़ने को कहो। वे तुरंत पीड़ा सहने और कीमत चुकाने की ऊर्जा खो देंगे। वे ये चीजें करने के लिए ऊर्जा क्यों खो देंगे? क्योंकि उन्हें लगेगा कि उन्होंने अपनी संभावनाएँ और नियति खो दी है, कि अब उन्हें आशीष मिलने की कोई आशा नहीं है, और उनके पास पाने के लिए कुछ नहीं है। जिस चीज का वे अभ्यास करते हैं, वह सत्य नहीं है, और जिस चीज का वे अनुसरण करते हैं, वह सत्य नहीं है, बल्कि वे चीजें हैं, जिन्हें वे सकारात्मक समझते हैं, और फिर भी, जब उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ चूर-चूर हो जाती हैं, तो वे अब इन चीजों की कीमत चुकाने के लिए भी तैयार नहीं होते। मुझे बताओ, लोगों के पास क्या है? क्या उनमें सच्ची आस्था है? (नहीं।) बात थोड़ी और आगे बढ़ाएँ तो, क्या लोग वफादार हैं? कुछ लोग कह सकते हैं, “परमेश्वर अब जो कुछ भी कहता है, हम उसका अनुसरण करते हैं। चाहे वह कुछ भी कहे, हम नकारात्मक या निरुत्साहित नहीं होते, पीछे नहीं हटते, हार तो बिल्कुल भी नहीं मानते। भले ही परमेश्वर हमें न चाहता हो, और वह कहता हो कि हम वे हैं जो श्रम और मेहनत करते हैं, कि हम वे लोग नहीं हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, और हमें बचाए जाने की कोई आशा नहीं है, फिर भी हम बिना किसी हिचकिचाहट के उसका अनुसरण करेंगे और अपने कर्तव्य निभाने में दृढ़ रहेंगे। क्या यह वफादारी नहीं है? क्या यह आस्था रखना नहीं है? क्या वफादार होना और आस्था रखना सत्य का अनुसरण करने के समान ही नहीं है? क्या इसका मतलब यह नहीं है कि हम कुछ हद तक सत्य का अनुसरण कर रहे हैं?” मुझे बताओ, क्या यह सत्य का अनुसरण करना है? (नहीं।) यह कहने का क्या अर्थ है कि यह सत्य का अनुसरण करना नहीं है? इसका अर्थ है कि मनुष्य के सभी “जीवन-अवलंब” हटा दिए गए हैं, कि उनके पास तिनके तक का सहारा नहीं है। तो फिर क्या किया जाए? क्या कुछ है, जो किया जा सकता हो? चाहे लोग इस बारे में कुछ कर सकते हों या नहीं, यह सुनकर उन्हें कैसा लगता है? वे अत्यंत निराश महसूस करते हैं : “क्या वाकई इसका यह अर्थ है कि मुझे आशीष मिलने की कोई आशा नहीं है? यह हो क्या रहा है?” इन परिस्थितियों में लोग पूरी तरह से आपा खो बैठते हैं। अब जबकि मेरे वचनों ने तुम लोगों से तुम्हारे सारे “जीवन-अवलंब” छीन लिए हैं, तो मैं देखूँगा कि तुम लोग यहाँ से कहाँ जाते हो। कुछ लोग कहते हैं, “मेहनत करना, या सौदे करने की कोशिश करना, या विकृत समझ रखना, या कष्ट सहना और कीमत चुकाना सही नहीं है—तो आखिर क्या करना सही है? परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे, हम उसे नहीं छोड़ेंगे। हम अपने कर्तव्य निभाते रहेंगे। क्या यह सत्य का अभ्यास करने के बराबर नहीं है?” इस प्रश्न को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए। चूँकि लोग सत्य नहीं समझते और हमेशा सत्य का अभ्यास करने के अर्थ को लेकर एक विकृत समझ रखते हैं, इसलिए वे मानते हैं कि त्याग करना, खपना, कष्ट उठाना और कीमत चुकाना ही सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के प्रति समर्पित होना है। यह एक भयंकर त्रुटि है। सत्य का अभ्यास करना परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना है, लेकिन लोगों को उनका सिद्धांतों के साथ अभ्यास करना चाहिए—उन्हें ऐसा मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर बिल्कुल नहीं करना चाहिए। परमेश्वर जो चाहता है, वह है एक सच्चा हृदय, परमेश्वर-प्रेमी हृदय, ऐसा हृदय जो उसे संतुष्ट करता हो। सिर्फ इस तरह से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना ही सत्य का अभ्यास करना है। अगर कोई परमेश्वर के लिए खुद को खपाने पर हमेशा परमेश्वर के साथ सौदा करना और अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करना चाहता है, तो वह सत्य का अभ्यास नहीं कर रहा, बल्कि उसके साथ खेल कर रहा है और उसे रौंद रहा है, और वह पाखंडी है। तो, अगर कोई परमेश्वर के न्याय के वचन स्वीकारने में सक्षम है, और परमेश्वर को नहीं छोड़ता और आशीष प्राप्त करने के अपने इरादे और इच्छाएँ चूर-चूर होने के बावजूद अपना कर्तव्य निभाने में लगा रहता है, जबकि उसके पास आशा रखने और प्रेरित होने के लिए कुछ नहीं होता, तो क्या यह सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने के बराबर है? मेरे विचार से, अगर हम सत्य का अनुसरण करने के अर्थ की परिभाषा के आधार पर इसे मापें, तो यह अभी भी सत्य का अनुसरण करना नहीं है, और यह सत्य का अनुसरण करने के मानक पर बिल्कुल भी खरा नहीं उतरता। अब जबकि हमारे पास सत्य के अनुसरण की एक सटीक परिभाषा है, हमें लोगों के कार्यों, आचरण और अभिव्यक्तियों का मूल्यांकन करते समय इसका सख्ती से पालन करना चाहिए। व्यक्ति के पास आशीष पाने की कोई आशा न होते हुए भी उसकी परमेश्वर के साथ बने रहने और अपना कर्तव्य निभाने में जुटे रहने की क्षमता के आधार पर क्या मूल्यांकन किया जा सकता है? सृजित प्राणियों के रूप में लोग अपनी मानवता में दो प्रशंसनीय चीजों के साथ पैदा होते हैं, और अगर तुम उनका उपयोग कर पाओ, तो यह सुनिश्चित करेगा कि तुम—न्यूनतम रूप में—परमेश्वर का अनुसरण तो करते हो। क्या तुम लोग जानते हो कि वे दो चीजें क्या हैं? (जमीर और विवेक।) सही है। दो चीजें हैं, जो मनुष्य की मानवता के भीतर सबसे ज्यादा मूल्यवान हैं—जब लोग सत्य नहीं समझते, जब उनमें बहुत खराब क्षमता होती है, और वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य के संबंध में किसी ज्ञान या प्रवेश से रहित होते हैं, और वे अभी भी दृढ़ता से अपनी जगह खड़े रह सकते हैं, तो वह मूल पूर्व-शर्त क्या है, जो उन्हें इसे प्राप्त करने देती है? उनके पास सामान्य मानवता का जमीर और विवेक होना चाहिए। तो, उत्तर स्पष्ट है। चूँकि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, और आशीष पाने की उनकी कोई इच्छा या महत्वाकांक्षा नहीं होती, चूँकि आशीष पाने की उनकी इच्छा उनसे छीन ली गई है, इसलिए अगर वे अभी भी परमेश्वर का अनुसरण कर अपने कर्तव्य निभा सकते हैं तो वे ऐसा किस आधार पर कर पाते हैं? उन्हें क्या चीज प्रेरित करती है? उनके कार्यों के लिए कोई आधार या प्रेरणा नहीं है—अगर लोगों में सामान्य मानवता का जमीर और विवेक है, तो वे ये चीजें कर सकते हैं। अभी स्थिति ऐसी है : तुम सत्य नहीं समझते, यह एक तथ्य है—और सिद्धांतों की तुम्हारी समझ बेकार है, इसका यह मतलब नहीं है कि तुमने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है। तुम जानते हो कि अपने लिए संभावनाओं और नियति का अनुसरण करने के लिए परमेश्वर के साथ सौदा करने का प्रयास करना गलत है, लेकिन वास्तव में उल्लेखनीय चीज यह होगी कि संभावनाओं और नियति का अनुसरण करने की और आशीष पाने की अपनी इच्छा की निंदा कर उन्हें छीन लिए जाने के बाद भी तुम परमेश्वर का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने में खुश रहो। अगर तुम सत्य प्राप्त किए बिना परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम होते, तो यह किस पर निर्भर करता? यह तुम्हारे जमीर और विवेक पर निर्भर करता। व्यक्ति का जमीर और विवेक उसके सामान्य अस्तित्व, जीवन, और लोगों और चीजों के प्रति उसके आचरण को बनाए रख सकता है। तो, अपने जमीर और विवेक के आधार पर अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अभ्यास करने में क्या फासला है? सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति की अभिव्यक्ति यह होती है कि वह पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखता, आचरण और कार्य करता है, जबकि सिर्फ अपने जमीर और विवेक के आधार पर कार्य करने वाले शायद सत्य का अनुसरण न कर सकते हों, लेकिन वे फिर भी मेहनत कर सकते हैं, अपने कर्तव्य निभा सकते हैं, और अपने बेदाग रिकॉर्ड के साथ परमेश्वर के घर में रह सकते हैं। यह किस चीज पर निर्भर करता है? वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने के बजाय अपने जमीर और विवेक के मानदंड के आधार पर ऐसा करते हैं। तो, इसे ध्यान में रखते हुए, अगर तुम सिर्फ अपने जमीर और विवेक के आधार पर अपना कर्तव्य निभाते हो, तो क्या उसके और सत्य का अनुसरण करने के बीच एक फासला नहीं है? (है।) अपने जमीर और विवेक के आधार पर कर्तव्य निभाना सिर्फ मेहनत करने से संतुष्ट होना है; यह अच्छी तरह से मेहनत करने, व्यवधान या गड़बड़ियाँ पैदा न करने, आज्ञापालन करने और समर्पित होने, अन्य लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करने और अच्छे संबंध रखने, और अपने रिकॉर्ड पर कोई दाग न लगने देने जैसी चीजों को अपने मानकों के रूप में लेना है। क्या यह सत्य का अनुसरण करने के स्तर तक पहुँचता है? नहीं पहुँचता। चाहे व्यक्ति के पास कितने भी अच्छे व्यवहार क्यों न हों, अगर उसे अपने भ्रष्ट स्वभावों का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है, और न ही उसे अपनी विद्रोहशीलता, धारणाओं, परमेश्वर के बारे में गलतफहमियों और अपनी विभिन्न नकारात्मक अवस्थाओं का कोई ज्ञान है; और अगर इन चीजों का समाधान करना उसके लिए असंभव है; अगर उसके लिए सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत समझना असंभव है; और अगर उसके भ्रष्ट स्वभावों के उद्गारों में से एक का भी समाधान नहीं हुआ है; और अगर वह अभी भी अहंकारी और आत्म-तुष्ट, मनमाना और लापरवाह, कुटिल और धोखेबाज है, और कभी-कभी वह नकारात्मक और कमजोर हो जाता है और परमेश्वर पर संदेह करता है, इत्यादि—अगर ये चीजें अभी भी उसके भीतर मौजूद हैं, तो क्या वह परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण हासिल कर सकता है? अगर ये भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उसके भीतर हैं, तो क्या वह वास्तव में परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर पाएगा? अगर व्यक्ति में सिर्फ अच्छे व्यवहार हैं, तो क्या यह सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति है? (नहीं।) मनुष्य में सबसे अच्छी चीजें क्या हैं? सिर्फ मनुष्य का जमीर और विवेक; केवल यही दो सकारात्मक चीजें हैं, और यही मनुष्य में सराहनीय है। लेकिन इनमें से कोई भी सत्य से संबंधित नहीं है; ये मनुष्य द्वारा सत्य के अनुसरण के लिए सबसे बुनियादी पूर्व-शर्तों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, जिसका अर्थ है कि अगर तुम्हारे पास मानवता का सामान्य जमीर और विवेक है, और तुम सत्य समझने में सक्षम हो, तो खुद पर चीजें पड़ने पर तुम सही विकल्प चुनने में सक्षम होगे। मनुष्य में जो जमीर और विवेक है, वह यह है : परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है, और तुम एक सृजित प्राणी हो; परमेश्वर ने तुम्हें चुना है, इसलिए यह सही ही है कि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित हो जाओ और उसके लिए खुद को खपाओ, और यह सही ही है कि तुम उसके वचन सुनो। यह “सही ही है” तुम्हारे जमीर और विवेक द्वारा निर्धारित किया जाता है—लेकिन क्या तुमने परमेश्वर के वचन सुने हैं? तुम्हारे कार्यों के पीछे क्या सिद्धांत और तरीके हैं? तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है—क्या तुमने इसके खिलाफ विद्रोह किया है? क्या तुमने उसे हल किया है? ऐसी चीजों का “सही ही है” से कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम इस नींव से आगे नहीं जाते कि क्या करना सही ही है और कैसे यह करना सही ही है, और तुम “सही ही है” के मापदंडों के बीच रहते हो, तो क्या यह तुम्हारे जमीर और विवेक का परिणाम नहीं है? (है।) तुम्हारा जमीर तुमसे कहता है, “परमेश्वर ने मुझे बचाया है, इसलिए मुझे उसके लिए खपना चाहिए। परमेश्वर ने मेरा जीवन बचाया है और मुझे दूसरा जीवन दिया है, इसलिए यह सही ही है कि मैं उसके प्यार का बदला चुकाऊँ। परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है, और मैं एक सृजित प्राणी हूँ, इसलिए मुझे उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए।” क्या यह तुम्हारे जमीर और विवेक का परिणाम नहीं है? (है।) लोगों में उनके जमीर और विवेक के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले विभिन्न व्यवहार, अभ्यास के तरीके, रवैये और विचार उन मापदंडों से आगे नहीं जाते, जिनमें उनके जमीर और विवेक स्वाभाविक रूप से सक्षम हैं, और वे सत्य का अभ्यास करने के मानदंडों पर खरे नहीं उतर पाते। क्या ऐसा नहीं है? (है।) उदाहरण के लिए, कुछ लोग कह सकते हैं, “परमेश्वर के घर ने कर्तव्य निभाने देकर मुझे उन्नत किया है, और परमेश्वर का घर मुझे खाना देता है, कपड़े देता है और मेरे रहने का इंतजाम करता है। परमेश्वर का घर मेरे जीवन के हर पहलू का ध्यान रखता है। मैंने परमेश्वर के अनुग्रह का भरपूर आनंद लिया है, इसलिए मुझे उसके प्रेम का प्रतिदान देना चाहिए; मुझे अपने कर्तव्य में परमेश्वर के साथ अनमने होकर पेश नहीं आना चाहिए, कोई गड़बड़ी या परेशान करने वाली चीज तो बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर का घर मेरे लिए जो भी व्यवस्था करे, मैं उसके प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ। परमेश्वर का घर मुझसे जो भी करवाए, मैं शिकायत नहीं करूँगा।” इस तरह की घोषणा ठीक है; क्या जमीर और विवेक रखने वाले व्यक्ति के लिए ऐसा करना बहुत आसान नहीं है? (है।) क्या यह सत्य के अभ्यास के स्तर तक पहुँच सकता है? (नहीं पहुँच सकता।) यह सत्य का अभ्यास करने से कम पड़ता है। इसलिए, चाहे व्यक्ति कितने भी अच्छे जमीर वाला या कितने भी सामान्य विवेक वाला हो, या सब-कुछ अपने जमीर और विवेक के नियंत्रण के तहत करने में सक्षम हो, और चाहे उसके कार्य कितने भी उचित और सभ्य हों, या दूसरे इन कार्यों की कितनी भी प्रशंसा करें, वे अच्छे इंसानी व्यवहार होने से आगे नहीं जाते। उन्हें सिर्फ अच्छे इंसानी व्यवहारों के दायरे में ही वर्गीकृत किया जा सकता है; वे मूलभूत रूप से सत्य का अभ्यास करने से पीछे रह जाते हैं। जब तुम दूसरों के साथ अपनी बातचीत अपने विवेक पर आधारित करते हो, तो तुम बोलचाल में थोड़े ज्यादा सौम्य होगे, तुम दूसरों पर हमला नहीं करोगे, या गुस्सा नहीं होगे, तुम दूसरों का दमन नहीं करोगे, या उन्हें नियंत्रित नहीं करोगे, या उन्हें धौंस नहीं दोगे या उनसे लाभ उठाने की कोशिश नहीं करोगे, इत्यादि—ये सभी वे चीजें हैं, जो सामान्य मानवता के विवेक द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं—लेकिन क्या ये सत्य का अभ्यास करने से संबंधित हैं? नहीं, ये नहीं हैं। ये वे चीजें हैं, जो मनुष्य के विवेक से प्राप्त की जा सकती हैं, और इनके और सत्य के बीच एक निश्चित दूरी है।
मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि अपने जमीर और विवेक के आधार पर कार्य करना सत्य का अभ्यास करने से संबंधित नहीं है? मैं एक उदाहरण दूँगा। मान लो, कोई व्यक्ति तुम्हारे प्रति दयालु रहा है, और उसके साथ तुम्हारे अच्छे संबंध हैं, और वह अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारता है, और फिर तुम्हें सुसमाचार सुनाता है—जो परमेश्वर द्वारा तुम्हें सुसमाचार सुनाने के लिए उसका उपयोग करने के समान है। परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारने के बाद तुम उसके प्रति और भी ज्यादा आभारी महसूस करते हो, और हमेशा उसका बदला चुकाने के इरादे रखते हो। इसलिए, तुम जो कुछ भी करते हो, उसमें उसे थोड़ी छूट देते हो, और तुम उससे जो भी कहते हो, उसमें हमेशा विशेष रूप से विनम्र रहते हो। तुम उसके प्रति विशेष रूप से श्रद्धालु, आदरपूर्ण और सहिष्णु रहते हो, और चाहे वह जो भी बुरे काम करे, या उसका चरित्र कैसा भी हो, तुम उसके प्रति इतने ज्यादा धैर्यवान और उदार रहते हो कि जब भी वे चुनौती का सामना करने पर मदद माँगने तुम्हारे पास पहुँचते हैं, तो तुम बिना शर्त उनकी मदद करते हो। तुम ऐसा क्यों करते हो? तुम्हारे कार्यों को क्या प्रभावित कर रहा है? (मेरा जमीर।) यह तुम्हारे जमीर के प्रभाव के रूप में किया जाता है। तुम्हारे जमीर के इस प्रभाव को सकारात्मक या नकारात्मक नहीं कहा जा सकता; कोई सिर्फ इतना ही कह सकता है कि तुममें जमीर और थोड़ी-सी मानवता है, और कि जब कोई तुम पर दया करता है, तो तुम आभारी होते हो और उसका बदला चुकाते हो। इस दृष्टिकोण से, तुम एक सही व्यक्ति हो। लेकिन अगर हम इसे सत्य का उपयोग करके मापें, तो हम एक अलग निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। मान लो, किसी दिन वह व्यक्ति बुराई करे और कलीसिया द्वारा निकाला जाने वाला हो, और तुम अभी भी उसे अपने जमीर का उपयोग करके मापो, और कहो, “यही था जिसने मुझे सुसमाचार सुनाया था। मैं जीते-जी इसकी दया नहीं भूलूँगा; अगर यह न होता, तो मैं वहाँ नहीं होता जहाँ मैं अभी हूँ। भले ही आज इसने बुराई की है, फिर भी मैं इसे उजागर नहीं कर सकता। भले ही मैंने देखा कि इसने जो किया, वह दुष्टता थी, पर मैं ऐसा नहीं कह सकता, क्योंकि इसने मेरी बहुत मदद की है। हो सकता है, मैं इसका बदला न चुका पाऊँ, लेकिन मैं इस पर हमला नहीं कर सकता। अगर कोई दूसरा इसकी रिपोर्ट करना चाहता है, तो कर सकता है, लेकिन मैं नहीं करूँगा। मैं इसके घावों पर नमक नहीं छिड़क सकता—अगर मैंने ऐसा किया, तो यह मुझे किस तरह का व्यक्ति बनाएगा? क्या यह मुझे बिना जमीर का व्यक्ति नहीं बना देगा? क्या जमीर-विहीन व्यक्ति पशु मात्र नहीं है?” तुम क्या सोचते हो? ऐसी परिस्थितियों में जमीर का क्या प्रभाव पड़ता है? क्या वहाँ पड़ने वाला जमीर का प्रभाव सत्य का उल्लंघन नहीं है? (है।) इससे हम देख सकते हैं कि कभी-कभी जमीर का प्रभाव भावनाओं से विवश और प्रभावित होता है और नतीजतन उसके निर्णय सत्य सिद्धांतों से टकराते हैं। इस प्रकार, हम एक तथ्य स्पष्ट रूप से देख सकते हैं : व्यक्ति के जमीर का प्रभाव सत्य के मानक से कमतर होता है, और कभी-कभी लोग अपने जमीर के आधार पर कार्य करते हुए सत्य का उल्लंघन कर देते हैं। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, लेकिन सत्य से नहीं जीते, बल्कि अपने जमीर के आधार पर कार्य करते हो, तो क्या तुम बुराई और परमेश्वर का विरोध कर सकते हो? तुम वास्तव में कुछ बुरी चीजें करने में सक्षम होगे—यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि अपने जमीर के आधार पर काम करना कभी गलत नहीं होता। यह दर्शाता है कि अगर व्यक्ति परमेश्वर को संतुष्ट करना और उसके इरादों के अनुरूप होना चाहता है, तो केवल अपने जमीर के आधार पर कार्य करना बहुत ही अपर्याप्त है। परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए व्यक्ति को सत्य के आधार पर कार्य करना चाहिए। जब तुम अपने जमीर को सत्य मानते हो और उसे अन्य सभी से श्रेष्ठ समझते हो, तब तुमने सत्य को कहाँ रखा है? तुमने उसकी जगह अपने जमीर को दे दी है; क्या यह सत्य का प्रतिरोध करना नहीं है? क्या यह सत्य का विरोध करना नहीं है? अगर तुम अपने जमीर से जीते हो, तो तुम सत्य का उल्लंघन कर सकते हो, और सत्य का उल्लंघन करना परमेश्वर का प्रतिरोध करना है। ऐसे कई लोग हैं, जो परमेश्वर में विश्वास करने के बाद अपने जमीर को अपनी बोलचाल और कार्यों का मानक समझते हैं, और अपने जमीर के आधार पर आचरण भी करते हैं। क्या अपने जमीर के आधार पर कार्य करना सत्य का अभ्यास करना है, या नहीं है? क्या व्यक्ति का जमीर सत्य की जगह ले सकता है? अपने जमीर के आधार पर कार्य करना सत्य के आधार पर कार्य करने से असल में किस तरह भिन्न है? कुछ लोग हमेशा अपने जमीर के आधार पर कार्य करने पर जोर देते हैं, और सोचते हैं कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हैं। क्या यह नजरिया सही है? (नहीं।) क्या व्यक्ति के जमीर की भावनाएँ सत्य की जगह ले सकती हैं? (नहीं ले सकतीं।) ये लोग क्या गलती कर रहे हैं? (सत्य का उल्लंघन कर रहे हैं, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करना है।) सही कहा। वे अपने जमीर की भावनाओं को सत्य के समान मानते हैं, जो उन्हें सत्य का उल्लंघन कर सकने वाला बनाता है। इस तरह का व्यक्ति हमेशा अपने जमीर को कसौटी मानकर उसके मानक के आधार पर लोगों और चीजों को देखता है, और आचरण व कार्य करता है। उसका जमीर उसे उलझाता और नियंत्रित करता है, और साथ ही, उसका विवेक भी उसके जमीर के नियंत्रण में होता है। अगर कोई अपने जमीर से नियंत्रित होता है, तो क्या वह अभी भी सत्य खोज सकता है और उसके अनुसार अभ्यास कर सकता है? नहीं कर सकता। तो क्या जमीर सत्य की जगह ले सकता है? नहीं ले सकता। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “चूँकि हम अपने जमीर का उपयोग यह मापने के लिए नहीं कर सकते कि हम दूसरे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, और हम अपने जमीर को सत्य नहीं मान सकते, तो क्या अपने जमीर के मानकों का उपयोग यह मापने के लिए करना कि हम परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, सही है?” यह प्रश्न विचारणीय है। किसी भी हालत में, व्यक्ति का जमीर सत्य की जगह नहीं ले सकता। अगर तुम्हारे पास सत्य नहीं है और तुम अपने जमीर के आधार पर परमेश्वर के पास जाते हो, तो यह इंसानी मानक के अनुसार ठीक माना जाएगा, लेकिन इस मानक के सहारे तुम परमेश्वर के प्रति प्रेम या समर्पण प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगे—ज्यादा से ज्यादा तुम सत्य का उल्लंघन करने या परमेश्वर का प्रतिरोध करने से बच पाओगे। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम्हें अन्य लोगों के साथ अपने जमीर का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, और तुम्हें परमेश्वर के साथ भी अपने जमीर का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है।” यह सही है या नहीं? वाद और सिद्धांत के दृष्टिकोण से यह गलत लगता है, है न? तो, इसे मापने के लिए सत्य का उपयोग करो—क्या यह तुम्हें सही लगता है? क्या परमेश्वर लोगों से कहता है कि वे अपने जमीर का उपयोग करके उसके पास आएँ? परमेश्वर मनुष्य से क्या चाहता है? वह मनुष्य को अपने पास कैसे आते देखना चाहता है? तुम्हारे पास जमीर हो सकता है, लेकिन क्या तुम ईमानदार हो? अगर तुम्हारे पास जमीर तो है लेकिन तुम ईमानदार नहीं हो, तो इससे काम नहीं चलेगा। परमेश्वर जो चाहता है, वह यह है कि मनुष्य उसके पास ईमानदारी से आए। बाइबल में लिखा है, “तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से, और अपने सारे प्राण से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपनी सारी शक्ति से प्रेम रखना” (मरकुस 12:30)। परमेश्वर क्या चाहता है? (कि लोग परमेश्वर से अपने सारे मन से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपने सारे प्राण से प्रेम करें।) परमेश्वर लोगों से क्या चाहता है? (उनकी ईमानदारी।) सही है। क्या परमेश्वर ने कहा है, “तुम लोगों को मुझसे अपने जमीर और विवेक, और अपनी सहज प्रवृत्ति से प्रेम करना चाहिए”? क्या परमेश्वर ने ऐसा कहा? (नहीं, उसने नहीं कहा।) परमेश्वर ऐसा क्यों नहीं कहता? (क्योंकि जमीर सत्य नहीं है।) जमीर क्या है? (मानवता का निम्नतम मानक।) यह सही है, जमीर और विवेक मानवता के निम्नतम और सबसे बुनियादी मानक हैं। तुम कैसे बता सकते हो कि कोई व्यक्ति अच्छा है या नहीं और उसमें मानवता है या नहीं? तुम इसे कैसे माप सकते हो? तुम इसे किससे मापते हो? निम्नतम और सबसे बुनियादी मानक यह है कि क्या उस व्यक्ति के पास जमीर और विवेक हैं। यही वह मानक है, जिससे तुम माप सकते हो कि किसी व्यक्ति में मानवता है या नहीं। तो, यह मापने का मानक क्या है कि व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं? व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, यह तुम इस आधार पर बता सकते हो कि उसके पास जमीर और विवेक हैं या नहीं—क्या ये वचन सत्य हैं? क्या ये सही हैं? (नहीं।) तो फिर वह क्या है, जो परमेश्वर मनुष्य से चाहता है? (ईमानदारी।) परमेश्वर मनुष्य की ईमानदारी चाहता है। वह ईमानदारी किससे बनी है? ईमानदारी दिखाने के लिए व्यक्ति को क्या करना चाहिए? अगर व्यक्ति प्रार्थना करते हुए यह कह तो देता है कि वह परमेश्वर को अपनी ईमानदारी अर्पित करता है, लेकिन बाद में वह ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खुद को खपाता नहीं या अपना कर्तव्य वफादारी से नहीं निभाता, तो क्या यह ईमानदारी है? यह ईमानदारी नहीं है—यह धोखा है। तो, कौन-सा व्यवहार ईमानदारी की अभिव्यक्ति है? विशिष्ट अभ्यास क्या है? क्या तुम जानते हो? क्या यह परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया नहीं है? (है।) व्यक्ति सिर्फ तभी ईमानदार होता है, जब उसमें समर्पण का रवैया होता है। क्या यह जमीर से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ नहीं है? मनुष्य का जमीर और विवेक ईमानदारी के भी करीब नहीं है, उनके बीच एक दूरी है। लोगों का जमीर और विवेक उनके अस्तित्व, उनके सामान्य जीवन और अन्य लोगों के साथ उनके संबंध बनाए रखने के लिए सबसे बुनियादी शर्तों से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अगर लोग अपना जमीर और विवेक खो दें, तो वे सबसे बुनियादी स्तर पर भी जीवित रहने, या सामान्य जीवन जीने, या अन्य लोगों के साथ संबंध रखने में सक्षम नहीं होंगे। जरा उन लोगों को, जिनके पास जमीर या विवेक नहीं है, उन दुष्ट लोगों को देखो—क्या समूह में कोई स्वेच्छा से उनके साथ बातचीत करेगा? (नहीं।) कोई भी स्वेच्छा से उनके साथ बातचीत नहीं करेगा। उनके साथ बातचीत करते समय लोग क्या महसूस करते हैं? नाराजगी, घृणा—वे उनसे भयभीत, विवश और बाध्य भी महसूस कर सकते हैं। ऐसे लोगों में सामान्य मानवता का जमीर और विवेक तक नहीं होता, और कोई भी स्वेच्छा से उनके साथ बातचीत नहीं करेगा। मुझे बताओ, क्या परमेश्वर इन लोगों को बचाएगा? (नहीं।) अगर कोई किसी दुष्ट व्यक्ति को अपमानित करे, और वह दुष्ट व्यक्ति उसे जवाब देते हुए कहे : “अगर परिस्थितियों ने साथ दिया, तो मैं तुम्हें मार डालूँगा—मैं तुम्हें नष्ट कर दूँगा!” फिर चाहे वे वास्तव में उन चीजों को करने में सक्षम हों या नहीं, क्या यह तथ्य कि वे ऐसी चीजें कह सकते हैं, उन्हें एक दुष्ट व्यक्ति नहीं बना देता? (बना देता है।) तो, वे किस तरह के व्यक्ति होते हैं, जिनके शब्द दूसरों में भय उत्पन्न कर देते हैं? क्या वे जमीर और विवेक वाले व्यक्ति होते हैं? (नहीं।) और क्या जमीर और विवेक से रहित लोगों में मानवता होती है? (नहीं।) कौन उस तरह के दुष्ट व्यक्ति के साथ बातचीत करने का साहस करेगा, जिसमें मानवता ही नहीं है? क्या उन दुष्ट लोगों के अन्य लोगों के साथ सामान्य संबंध होते हैं? (नहीं होते।) अन्य लोगों के साथ उनके संबंधों की स्थिति क्या होती है? हर कोई उनसे डरता है, हर कोई उनके द्वारा प्रतिबंधित और विवश रहता है—वे जिससे भी मिलते हैं, उसी को धौंस देना चाहते हैं, और सभी को दंडित करना चाहते हैं। क्या ऐसे लोगों में सामान्य मानवता होती है? कोई भी उस तरह के व्यक्ति से बातचीत करने की हिम्मत नहीं करता, जिसमें जमीर और विवेक नहीं होता। वे एक सामान्य मानव-जीवन तक नहीं जी सकते, इसलिए वे दानवों और जानवरों से अलग नहीं हैं। समूहों में वे हमेशा दूसरों पर प्रहार करते हैं, एक के बाद दूसरे व्यक्ति को दंडित करते हैं। अंत में सभी उनसे दूरी बना लेते हैं, सभी उनकी उपेक्षा करते हैं। वे कितने भयावह होंगे! वे सामान्य मानवीय संबंध बनाने में भी अक्षम होते हैं और किसी समूह के भीतर पैर नहीं जमा सकते—वे किस तरह की चीज होते हैं? ऐसे लोगों में मानवता भी नहीं होती—क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं? (नहीं।) किस तरह के व्यक्ति में मानवता नहीं होती? जानवर, दानव। परमेश्वर जो सत्य व्यक्त करता है, उन्हें वह मनुष्य को प्रदान करता है, न कि जानवरों और दानवों को। जमीर और विवेक रखने वाले ही मनुष्य कहलाने के योग्य हैं। मुझे फिर से बताओ : क्या सामान्य मानवता को पूरी तरह से जीने के लिए केवल व्यक्ति का जमीर और विवेक से युक्त होना ही काफी है? कोई कह सकता है कि इसमें फासला है, क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं। अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा पा सकने और सामान्य मानवता को जी सकने से पहले उन्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “मेरे पास जमीर और विवेक है। अगर मैं यह सुनिश्चित कर लूँ कि मैं कोई बुराई नहीं करूँगा, तो मुझमें सत्य वास्तविकता होगी।” क्या यह सही है? अगर किसी के पास जमीर और विवेक है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह पहले ही सत्य का अनुसरण कर रहा है—और न ही इस तथ्य का कि वह अपने जमीर और विवेक के अनुसार जी रहा है, तात्पर्य यह है। तो, वास्तव में जमीर और विवेक क्या हैं? मनुष्य का जमीर और विवेक मानवता के सबसे बुनियादी चिह्नक और गुण हैं जो सत्य का अनुसरण करने के लिए लोगों में होने चाहिए। इन दो चीजों के अनुसार जीने का मतलब यह नहीं कि व्यक्ति सत्य का अनुसरण कर रहा है, और इससे यह तो बिल्कुल भी साबित नहीं होता कि उसमें सत्य वास्तविकता है। जिस उदाहरण के बारे में मैंने अभी बात की है, उससे यह देखा जा सकता है कि जब व्यक्ति अपने जमीर और विवेक के आधार पर लोगों और चीजों को देखता है, और आचरण व कार्य करता है, तो उसके सत्य और सिद्धांतों का उल्लंघन करने की संभावना होती है। वे इन चीजों को सत्य को अपनी कसौटी मानकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार करने के मानक से पीछे रह जाते हैं। इसलिए, चाहे तुम्हारे पास कितना भी जमीर हो, और चाहे तुम्हारा विवेक कितना भी सामान्य क्यों न हो, अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को नहीं देख सकते, उसके अनुसार आचरण और कार्य नहीं कर सकते, तो तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे। इसी तरह, चाहे तुम अपने जमीर और विवेक की सहज प्रवृत्ति के दायरे में कितने भी कष्ट उठाओ और मेहनत करो, यह नहीं कहा जा सकता कि तुम सत्य का अनुसरण कर रहे हो।
अभी हमने तीन चीजों का विश्लेषण किया, जिनमें से सभी लोगों में सत्य के अनुसरण के बारे में व्याप्त पूर्वाग्रह और गलतफहमियाँ थीं। मुझे बताओ, वे तीन चीजें क्या थीं? (पहली यह थी कि लोग उन चीजों को सत्य समझने की गलती करते हैं, जिन्हें वे अपनी धारणाओं में अच्छी, सही और सकारात्मक मानते हैं, और उनका अपने मानकों के रूप में उपयोग करते हैं—और उन्हें मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं, और उसके वचनों की अपेक्षाओं और मानकों की जगह दे देते हैं—जिसके बाद वे उन चीजों का अनुसरण और अभ्यास करते हैं। दूसरी यह थी कि लोग अपनी भ्रामक समझ से चिपके होने की नींव पर इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पालते हुए परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश करते हैं। लोग मानते हैं कि जब वे परमेश्वर को संतुष्ट कर लेते हैं और परमेश्वर प्रसन्न होता है, तो परमेश्वर उन्हें अपनी प्रतिज्ञा प्रदान करेगा। तीसरी यह थी कि लोग मानते हैं कि अपने जमीर और विवेक के आधार पर आचरण और कार्य करने के द्वारा वे पहले ही सत्य का अभ्यास कर रहे हैं।) इन तीन चीजों को एक तरफ रखते हुए, सत्य का अनुसरण करने का वास्तव में क्या अर्थ है? आओ सत्य के अनुसरण की अपनी परिभाषा पर वापस लौटें : “पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।” ये वचन लोगों को यह समझाने के लिए पर्याप्त हैं कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है और ऐसा कैसे करना है। हम सत्य का अनुसरण करने के अर्थ के बारे में पहले ही बहुत-कुछ बोल चुके हैं। तो फिर, इसका अनुसरण कैसे किया जाता है? हमने इस बारे में अभी और पहले भी बहुत संगति की है : चाहे तुम लोगों और चीजों को देख रहे हो, या आचरण और कार्य कर रहे हो, यह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर होना चाहिए। यही सत्य का अनुसरण है। अन्य कोई भी चीज, जो इन वचनों से संबंधित नहीं है, सत्य का अनुसरण नहीं है। निस्संदेह, अगर “पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना” मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों की ओर निर्देशित नहीं है, तो यह मनुष्य के कुछ विचारों, दृष्टिकोणों और धारणाओं पर बात करता है। और अगर यह इन चीजों पर बात करता है, और इसका उद्देश्य मनुष्य को सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने और परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम बनाना है, तो स्वाभाविक रूप से, वह इसका अंतिम प्रभाव होगा। “पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना” बिल्कुल स्पष्ट और साफ है। वह मार्ग, जो यह अंततः लोगों को देता है, वह उन्हें अपने अभ्यासों में अपने पूर्वाग्रह दूर करने और अपनी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ छोड़ने में सक्षम बनाता है। साथ ही, लोगों को इस विश्वास के पीछे छिपकर नहीं रहना चाहिए कि वे श्रेष्ठ हैं, कि उनमें मानवता, और जमीर और विवेक हैं, और इसे परमेश्वर के वचनों को अपने आधार और सत्य को अपनी कसौटी के रूप में लेने के अभ्यास के सिद्धांत की जगह नहीं देनी चाहिए। तुम्हारे पास जो भी औचित्य हों, तुममें जो भी खूबियाँ और फायदे हों, वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने और आचरण व कार्य करने की जगह लेने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। यह बिल्कुल निश्चित है। इसके विपरीत, अगर लोगों और चीजों पर तुम्हारे विचारों और तुम्हारे आचरण और कार्यकलापों के आरंभ-बिंदु पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार है, और सत्य तुम्हारे अभ्यास का सिद्धांत है, तो तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। अन्यथा, तुम नहीं कर रहे। कुलमिलाकर, लोगों का इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं के बीच रहना, सौदे करने के इरादे से काम करना, या सत्य के अनुसरण और उसके अभ्यास की जगह लगातार इस विश्वास को देना कि उनमें बड़ी मात्रा में अच्छा नैतिक आचरण है—ऐसे सभी दृष्टिकोण मूर्खतापूर्ण हैं। इनमें से कोई भी सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति नहीं है, और अंततः, इन मूर्खतापूर्ण दृष्टिकोणों का परिणाम यह होता है कि लोग सत्य नहीं समझते, वे परमेश्वर के इरादे समझने में असमर्थ रहते हैं, और वे उद्धार के मार्ग पर चलने में अक्षम होते हैं। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) निस्संदेह, जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनमें—उन लोगों के अलावा जिन्हें बचाया नहीं जा सकता—कुछ ऐसे हैं जो श्रमिक बनने के इच्छुक हैं और जो जीवित बचेंगे। यह ठीक है, इसे सत्य का अनुसरण न करने का एक अच्छा विकल्प माना जा सकता है। तुम विशेष रूप से कौन-सा मार्ग चुनते हो, यह तुम लोगों पर है। शायद कुछ लोग कहेंगे, “इतनी संगति के बाद भी तुमने अभी तक हमें यह नहीं बताया कि लोगों और चीजों को कैसे देखें, या कैसे आचरण और कार्य करें।” क्या मैंने नहीं बताया? (बताया है।) व्यक्ति को किसके अनुसार लोगों और चीजों को देखना, और आचरण और कार्य करना चाहिए? (परमेश्वर के वचनों के अनुसार।) और किसे अपनी कसौटी मानकर यह करना चाहिए? (सत्य को अपनी कसौटी मानकर।) तो परमेश्वर के वचन क्या हैं? सत्य कहाँ है? (परमेश्वर के वचन सत्य हैं।) परमेश्वर के बहुत सारे वचन हैं, वे लोगों को इस बात के हर पहलू के बारे में बताते हैं कि लोगों और चीजों को कैसे देखना है, और कैसे आचरण और कार्य करना है, इसलिए अभी हम इन चीजों के विस्तार में नहीं जाएँगे। एक बार फिर से पढ़ो कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। (सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है? पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना।) तुम लोगों को ये वचन अपने दिलों में अंकित कर लेने चाहिए और इनका उपयोग अपने जीवन के आदर्श-वाक्य के रूप में करना चाहिए। इन्हें अक्सर बाहर निकालो, ताकि तुम इनके बारे में सोच सको और इन पर विचार कर सको; अपने व्यवहार, जीवन में अपने रवैये, चीजों पर अपने विचारों और अपने इरादों और लक्ष्यों को तुलना के लिए उनके सामने रखो। तब तुम स्पष्ट रूप से महसूस कर पाओगे कि तुम्हारी वास्तविक अवस्था क्या है, और तुम जो स्वभाव सार दिखाते हो वह क्या है। इन वचनों से उनकी तुलना करो, और इन वचनों को अपने अभ्यास के सिद्धांतों, मार्ग और दिशा के रूप में लो। जब तुम इस तरह से अनुसरण करते हो, जब तुम पूरी तरह से इन वचनों में प्रवेश करने और इन्हें जीने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम समझ जाओगे कि सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। स्वाभाविक रूप से, जब तुम इन वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करते हो, तो तुम पहले ही सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल चुके होते हो। जब तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो इसका क्या परिणाम होगा? तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की गड़बड़ी, नियंत्रण और बाधाओं के कारण होने वाला संकट अधिकाधिक हलका होता जाएगा। ऐसा क्यों? क्योंकि तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे पास अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल करने का एक मार्ग है, और तुम्हारे बचने की आशा है। तभी तुम महसूस करोगे कि वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करने और उसके वचनों को खाने-पीने का जीवन संतोषप्रद, शांतिपूर्ण और आनंदमय है। कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, उन्हें अभी भी लगता है कि जीवन बहुत खोखला है, और भरोसा करने के लिए उनके पास कुछ नहीं है। अक्सर वे यह भी महसूस करते हैं कि भ्रष्ट स्वभाव के भीतर रहना वास्तव में पीड़ादायक है, और हालाँकि वे उसे त्यागना चाहते हैं, पर त्याग नहीं पाते। वे हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभाव से विवश, बँधे हुए और बाध्य रहते हैं, जिससे उन्हें बहुत कष्ट होता है, लेकिन उनके पास अनुसरण करने के लिए कोई मार्ग नहीं होता। उनके ये कटु दिन अनंत हैं। अगर वे सत्य स्वीकार सकें और उद्धार प्राप्त कर सकें, तो ये कटु दिन बीत जाएँगे। लेकिन इन सबके परिणाम तुम लोगों के भविष्य के अनुसरण और प्रवेश पर निर्भर करते हैं।
29 जनवरी 2022
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