केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है (भाग दो)

यहूदिया से यहूदियों के निर्वासन के बारे में बहुत-से लोगों के मन में धारणाएँ हैं, पर सत्य की खोज करने वाले लोग इस घटना से प्रबुद्धता प्राप्त कर सकते हैं। अगर व्यक्ति में समझने की क्षमता हो, तो इस घटना से वह यह देख पाएगा कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव अपमान बर्दाश्त नहीं करता। पर कुछ लोगों में समझने की क्षमता नहीं होती। अगर उन्हें लगता है कि परमेश्वर ने जो कुछ किया वह उनकी धारणाओं से मेल नहीं खाता, तो उन्हें पहले इस बात से सहमत होना चाहिए कि परमेश्वर धार्मिक है और उसका स्वभाव अपमान बर्दाश्त नहीं करता; यह निश्चित है। फिर उन्हें प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए और यह देखना चाहिए कि परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने और उसका क्रोध भड़काने के लिए यहूदियों ने क्या किया। सिर्फ इसी तरीके से लोग अपनी धारणाओं का पूरी तरह से समाधान कर सकते हैं, इस घटना के माध्यम से परमेश्वर के स्वभाव को समझ सकते हैं, और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण कर सकते हैं। सत्य को समझना लोगों के लिए आसान नहीं है। भले ही तुमने पहले परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद लिया हो, या उसका मार्गदर्शन और आदेश स्वीकार करके कार्य किया हो, या भले ही तुमने कुछ चीजें अर्पित की हों या कुछ त्याग किया हो—यहाँ तक कि लोग तुम्हें किसी तरह का योगदान देने वाला समझते हों, किसी भी स्थिति में तुम्हें इन चीजों को अपनी पूँजी नहीं समझना चाहिए। यह पहली चीज है। दूसरी चीज यह है कि तुम्हें इन चीजों को मोलभाव के ऐसे औजार के रूप में कभी नहीं देखना चाहिए जिन्हें तुम परमेश्वर पर हावी होने और उस पर यह हुक्म चलाने के लिए इस्तेमाल कर सको कि वह तुमसे कैसे पेश आए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब परमेश्वर के वचन और उसका रवैया तुम्हारी धारणाओं से मेल न खाए, या तुम्हारे प्रति कठोर प्रतीत हो, तो तुम्हें उसका प्रतिरोध और विरोध नहीं करना चाहिए। यह तीसरी चीज है। क्या तुम लोग ये तीन चीजें कर सकते हो? ये तीन चीजें वास्तविकता से संबंधित हैं। क्या लोगों में ये अवस्थाएँ होना आसान है? (हाँ, आसान हैं।) लोगों में ये अवस्थाएँ क्यों होती हैं? लोगों में ये अभिव्यक्तियाँ क्यों होती हैं? परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति का प्रबंधन करता है और सभी चीजों पर संप्रभु है, पर क्या परमेश्वर इन चीजों को पूँजी समझता है? क्या परमेश्वर इसका श्रेय लेता है? क्या परमेश्वर ऐसी अभिव्यक्तियाँ प्रकट करता है और कहता है, “मैंने ये सारी महान चीजें तुम्हारे लिए की हैं। तुम लोग मेरा धन्यवाद क्यों नहीं करते?” (नहीं, वह ऐसा नहीं करता।) परमेश्वर के मन में ये चीजें नहीं आतीं। तो फिर मनुष्य हर छोटी-मोटी चीज का त्याग करने या जरा-सा खपने, या हर छोटा-मोटा योगदान करने के लिए परमेश्वर से श्रेय की अपेक्षा क्यों करता है? मनुष्य में इस तरह की अभिव्यक्तियाँ और प्रकाशन क्यों होते हैं? जवाब बहुत आसान है। इसका कारण यह है कि मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है। परमेश्वर में इस तरह की अभिव्यक्तियाँ और प्रकाशन क्यों नहीं होते हैं? इसका कारण यह है कि परमेश्वर का सार सत्य है और सत्य पवित्र है। यही जवाब है। लोगों में इस तरह की अभिव्यक्तियाँ और प्रकाशन इसलिए होते हैं, क्योंकि उनके स्वभाव भ्रष्ट हैं। क्या इस समस्या का समाधान हो सकता है? मैंने अभी जिन तीन चीजों का जिक्र किया, क्या वे इसका समाधान कर सकती हैं? (हाँ, कर सकती हैं।) मैंने जिन तीन चीजों का जिक्र किया है, उनमें से किसी को भी व्यवहार में लाना आसान नहीं है, पर एक समाधान है। इन तीन चीजों को सुनने के बाद लोग सोच सकते हैं, “हमें यह करने की अनुमति नहीं है, हमें वह करने की अनुमति नहीं है। हमसे बस खाली दिमाग वाली कठपुतली होने की अपेक्षा की जाती है।” क्या ऐसा ही है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर कैसा है? मैं तुम लोगों को बता दूँ कि परमेश्वर तुम्हें ये चीजें नहीं करने देता क्योंकि यह तुम्हारी ही सुरक्षा के लिए है। यह पहली चीज है। तुम्हारे अनुसरण का तरीका सत्य के अनुरूप नहीं है, और वह सही मार्ग नहीं है। अपने से पहले आए लोगों की गलतियाँ मत दोहराओ। अगर तुम अपनी त्यागी और खपाई हुई चीजों के साथ ऐसी पूँजी और मोलभाव के औजार के रूप में बर्ताव करते हो जिन्हें तुम भुना सकते हो और फिर तुम अपने प्रति परमेश्वर का रवैया अविचारशील लगने पर उसका विरोध करते हो तो तुम्हारा रवैया सत्य के अनुरूप नहीं है, उसमें कोई मानवता नहीं है और यह सही नहीं है। अगर तुम्हारे पास हजार कारण भी हों, तो भी तुम्हारा रवैया गलत होता है; वह किसी भी तरह से सत्य के साथ संगत नहीं होता, और वह परमेश्वर का प्रतिरोध करने के समान होता है। यह वह रवैया नहीं होता, जो व्यक्ति में होना चाहिए। यह दूसरी चीज है। तीसरी चीज यह है कि अगर तुम इस रवैये से चिपके रहते हो, तो तुम कभी सत्य को समझ या प्राप्त नहीं करोगे। न सिर्फ तुम सत्य को प्राप्त नहीं करोगे, बल्कि खुद को नुकसान भी पहुँचाओगे; तुम वह गरिमा और कर्तव्य खो दोगे जो एक सृजित प्राणी के पास होने चाहिए। अगर तुम सोचते हो, “मैं अपने रवैये पर कायम हूँ, और कोई इस बारे में कुछ नहीं कर सकता! मुझे विश्वास है कि मैं सही हूँ, इसलिए मैं अपनी सोच पर कायम रहूँगा। मेरे विचार उचित हैं, इसलिए मैं अंत तक उन पर कायम रहूँगा!” किसी चीज पर हठपूर्वक टिके रहने से तुम्हें किसी भी तरह से लाभ नहीं होगा। तुम्हारे संकल्प या किसी चीज पर दृढ़ता से टिके रहने के कारण परमेश्वर अपना रवैया नहीं बदलेगा। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर सिर्फ इस वजह से अपना रवैया कभी नहीं बदलेगा कि तुम अपने रवैये पर अडिग हो। उलटे, परमेश्वर तुम्हारे प्रति ऐसा रवैया अपनाएगा, जो तुम्हारी विद्रोहशीलता और हठी प्रतिरोध के अनुरूप होगा। यह चौथी और सबसे महत्वपूर्ण चीज है। क्या इन चार चीजों के बारे में कुछ ऐसा है, जो तुम नहीं समझते? क्या मेरे द्वारा उल्लिखित इन चार चीजों में से कोई सिर्फ खोखले शब्द हैं जो मनुष्य की वास्तविक अवस्था के अनुरूप नहीं हैं, और जो मनुष्य के जीवन के व्यावहारिक पक्ष में कोई मदद नहीं करते? (नहीं, ये सभी मददगार हैं।) क्या इनमें से कोई चीज अभ्यास का मार्ग होने के बजाय सिर्फ खोखला धर्म-सिद्धांत है? (नहीं।) क्या ये चार चीजें इस संबंध में मददगार हैं कि लोगों को अपने दैनिक जीवन में सत्य-वास्तविकताओं में कैसे प्रवेश करना चाहिए? (हाँ, हैं।) अगर तुम लोग इन चार चीजों के बारे में अपनी समझ में स्पष्ट हो, इन्हें व्यवहार में लाते हो और इनका अनुभव करते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध सामान्य रहेंगे। ये चार चीजें विभिन्न प्रलोभनों के दौरान या तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से सामना होने पर तुम्हारी रक्षा करेंगी। विद्रोही अवस्था में होने पर तुम सत्य के इन पहलुओं के बारे में सोचो, उनके साथ अपनी तुलना करो और तदनुसार अभ्यास करो। अगर शुरू में तुम इन्हें व्यवहार में न ला पाओ, तो तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, और साथ ही यह पहचानना चाहिए कि परमेश्वर ने ऐसा क्यों किया। तुम्हें चिंतन करके यह भी पहचानना चाहिए कि तुममें कौन-सी भ्रष्ट अवस्थाएँ और भ्रष्टता के कौन-से प्रकाशन हैं, जो तुम्हें अभ्यास या समर्पण करने में अक्षम बना रहे हैं। अगर तुम इस तरीके से सत्य को खोजने में सक्षम होते हो, तो तुम्हारी अवस्था सामान्य रहेगी और तुम स्वाभाविक रूप से इन सत्य-वास्तविकताओं में प्रवेश करोगे।

चाहे कोई भी मामला हो, अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो या तो तुम धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार कार्य करोगे, या फिर विद्रोहशीलता से कार्य करते हुए प्रतिरोध करोगे। यह शत-प्रतिशत निश्चित है। शायद कभी-कभी बाहर से ऐसा न लगे कि तुम परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहे हो, बुरे काम कर रहे हो, या विघ्न या व्यवधान पैदा कर रहे हो, पर जरूरी नहीं कि इसका यह मतलब हो कि तुम्हारे क्रियाकलाप सत्य के अनुरूप हैं। कभी-कभी तुम धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर कार्य कर सकते हो, और भले ही इससे कोई व्यवधान या नुकसान न हो, पर अगर वह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो तुम्हारे क्रियाकलाप परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हैं। ऐसे अवसर भी होते हैं, जब तुम्हारे मन में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ हो सकती हैं। अगर तुम उन्हें शब्दों में व्यक्त नहीं भी करते, तो भी तुम उन धारणाओं और कल्पनाओं को अपने भीतर पकड़े रहते हो, सोचते हो कि परमेश्वर को यह या वह करना चाहिए और उसके बारे में फैसले दे देते हो। तुमने बाहर से कुछ भी गलत नहीं किया, पर भीतर से तुम लगातार परमेश्वर के प्रति विद्रोहशीलता और प्रतिरोध की अवस्था में होते हो। उदाहरण के लिए, मैंने अभी परमेश्वर के प्रेम के बारे में धारणाएँ रखने और उसे सीमित करने के बारे में बात की। भले ही तुमने अपने धारणाओं और कल्पनाओं के कारण परमेश्वर के कार्य में बाधाएँ या गड़बड़ियाँ न पैदा की हों, फिर भी तुम्हारी दशा यह साबित करती है कि अपने दिल में तुम निरंतर परमेश्वर के बारे में फैसले देते रहे हो और उसे गलत समझ रहे हो। इससे हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं? यही कि तुम निरंतर परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहे हो। क्या मैं सत्य नहीं कह रहा हूँ? (हाँ, तुम सत्य कह रहे हो।) अगर कोई ऐसा दिन आता है, जब यहूदिया से यहूदियों के निर्वासन जैसा कुछ हो जाता है, तो तुम्हारी धारणाएँ तुम्हें परमेश्वर के क्रियाकलापों के लिए “आमीन” कहने, या परमेश्वर की प्रशंसा करने और उसके क्रियाकलापों की प्रतिक्रिया के रूप में उसके प्रति भय और समर्पण विकसित करने में असमर्थ बना देंगी। इसके बजाय तुम अपने दिल में परमेश्वर को गलत समझोगे, उसकी शिकायत करोगे, यहाँ तक कि उसके प्रति थोड़ा प्रतिरोधी भी महसूस करोगे। अपने दिल की गहराई में तुम परमेश्वर से कहोगे, “परमेश्वर, तुम्हें यह नहीं करना चाहिए था। यह बहुत असंवेदनशील था! तुम अपने सृजित प्राणियों के साथ ऐसा व्यवहार कैसे कर सकते हो? तुम अपने चुने हुए लोगों के साथ ऐसा व्यवहार कैसे कर सकते हो? तुमने जो कुछ किया है, उसे देखने के बाद मैं तुम्हारी प्रशंसा के गीत नहीं गा सकता या तुम्हारे क्रियाकलापों की सराहना नहीं कर सकता। मैं अंदर से पीड़ित हूँ और निराश महसूस कर रहा हूँ, मानो मैं उस परमेश्वर पर भरोसा नहीं कर सकता, जिसकी मैं असीम आराधना करता हूँ। मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, वह ऐसा नहीं है। मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, उसे अपने सृजित प्राणियों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, वह इतना निष्ठुर या क्रूर नहीं है। मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, वह मनुष्यों के साथ, बच्चों की तरह, कोमलता और सजगता से व्यवहार करता है, जिससे उन्हें प्रचुर मात्रा में धन्य और गर्मजोशी से भरा होने का एहसास करवाता है, वह अभी के जैसा निष्ठुर और उदासीन व्यवहार नहीं करता।” जब यह व्यथा तुम्हारे भीतर गहरे उभरती है, तो तुम अपने सामने घटित होने वाले तथ्यों को परमेश्वर के कार्य के रूप में नहीं देखते। तुम इसे स्वीकारते नहीं या “आमीन” नहीं कहते, इसकी प्रशंसा करना तो दूर की बात है। इस तरह, तुम्हारी भावनाएँ और अवस्था परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की है या विरोध की? (विरोध की।) यह स्पष्ट है कि यह सच्चा समर्पण नहीं है। यहाँ कोई समर्पण नहीं है, सिर्फ शिकायत, विरोध और अवज्ञा, यहाँ तक कि क्रोध भी है। क्या यह वही रवैया है, जो एक सृजित प्राणी का अपने सृष्टिकर्ता के प्रति होना चाहिए? नहीं, यह वह रवैया नहीं है। तुम्हारे दिल में विरोधाभास है; तुम सोचते हो, “अगर परमेश्वर ने ऐसा किया है, तो मेरा दिल इसे अनुमोदित क्यों नहीं करता? ज्यादातर लोग इसे स्वीकार क्यों नहीं करते? परमेश्वर के क्रियाकलाप मनुष्य के प्रति इतने असंवेदनशील क्यों हैं, वे रक्तपात और नरसंहार से भरे हुए क्यों हैं?” इस क्षण तुम्हारे दिल में मौजूद परमेश्वर और वास्तविक जीवन में सच में मौजूद सृष्टिकर्ता विरोधाभास में और एक-दूसरे के विपरीत होते हैं, नहीं होते क्या? (हाँ, होते हैं।) तो तुम्हें किसमें विश्वास करना चाहिए? इस क्षण, तुम्हें अपने दिल की गहराई में मौजूद अपनी धारणाओं के परमेश्वर में विश्वास करने का चुनाव करना चाहिए, या उस परमेश्वर में जो तुम्हारे ठीक सामने वास्तविक क्रियाकलाप कर रहा है? (उस परमेश्वर में जो हमारे ठीक सामने वास्तविक क्रियाकलाप कर रहा है।) अपनी व्यक्तिपरक इच्छाओं के संबंध में लोग अपने ठीक सामने क्रियाकलाप करने वाले परमेश्वर में विश्वास करने के बहुत इच्छुक होते हैं, पर उनकी धारणाओं, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और भावनाओं के कारण वे अपने दिल में मौजूद परमेश्वर को एक ओर रखना चुनते हैं और खुद को अपने ठीक सामने वास्तविक क्रियाकलाप कर रहे परमेश्वर को स्वीकारने के लिए बाध्य करते हैं। पर अपने दिल की गहराइयों में वे अब भी, सृष्टिकर्ता जो कर रहा है उसके सभी तथ्यों को स्वीकारने में असमर्थ रहते हैं; वे अभी भी खुद को छिपाए रखते हैं और अपनी छोटी-सी दुनिया में जीते हैं और अपने दिलों की गहराई में जिस परमेश्वर की उन्होंने कल्पना की होती है, उससे बिना थके बातचीत और मेलजोल करते रहते हैं, जबकि वास्तविक परमेश्वर उन्हें हमेशा अस्पष्ट प्रतीत होता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो सोचते हैं, “काश, असली परमेश्वर हो ही नहीं। मेरा परमेश्वर वह है जिसकी मैं अपने दिल में कल्पना करता हूँ, जो प्रेम से भरपूर है और लोगों को अपनी गर्मजोशी का एहसास करवाता है। वह एक सच्चा परमेश्वर है। व्यावहारिक परमेश्वर वैसा नहीं है जैसी मैंने कल्पना की थी, क्योंकि जो चीजें वह करता है उससे मुझे निराशा होती है और मैं उसकी तरफ से कोई गर्मजोशी महसूस नहीं कर पाता। खास तौर से, मैं मन से स्वीकार नहीं कर पाता कि उसके न्याय और ताड़ना से कितने लोग निंदा कर निकाल दिए जाते हैं।” यह किस तरह का व्यक्ति कहता है? ऐसी बातें छद्म-विश्वासी और वे लोग करते हैं जो सत्य को स्वीकार नहीं करते। ये सभी विभिन्न अवस्थाएँ हैं जो लोगों में तब होती हैं जब लोग परमेश्वर के कार्य को नहीं समझते, और जब उनकी कल्पनाओं और परमेश्वर के व्यावहारिक कार्य में विरोधाभास होता है। तो ये अवस्थाएँ किस तरह पैदा होती हैं? एक चीज तो यह है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, और दूसरे, जब कुछ होता है और तथ्य लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाते, उनका बुलबुला फूट जाता है और सपना चकनाचूर हो जाता है, और उन्हें यह महसूस होता है कि आशीष पाने की उनकी मंशा और इच्छा पूरी नहीं हो सकती, तो वे अंततः क्या करने का फैसला करते हैं? वे भाग खड़े होते हैं, समझौता करते हैं, और हठ करते हैं। कुछ लोग बीच का रास्ता अपनाते हुए कहते हैं, “मैं दोनों पक्षों को स्वीकारूँगा। मेरे दिल में मूल रूप से जो परमेश्वर था, वह परमेश्वर और प्रेम है। और जो परमेश्वर मेरी आँखों के सामने महान कर्म कर रहा है और अपना अधिकार इस्तेमाल कर रहा है, वह भी परमेश्वर है। मैं दोनों को स्वीकार करूँगा और किसी को नहीं छोडूँगा।” लोग अक्सर इस तरह की अवस्था में रहते हुए दो नावों पर सवार रहते हैं। लोग अक्सर अपने मन के परमेश्वर के विचार में फँसे रहते हैं। वे दौड़-भाग करते हैं, खुद को खपाते हैं, चीजें अर्पित करते हैं, और इस अज्ञात परमेश्वर के लिए काम करते हैं। वे अपने कर्तव्य निभाने के लिए कोई भी कीमत चुकाएँगे, यहाँ तक कि अपनी जान भी दे देंगे और अपना सब कुछ न्योछावर कर देंगे। चाहे लोगों की अभिव्यक्तियाँ जिस भी प्रकार की हों, या उनमें जो भी अवस्थाएँ उत्पन्न हों, जब उनके मन में इस तरह का परमेश्वर मौजूद होता है तो वास्तविक सृष्टिकर्ता की नजर में लोगों के क्रियाकलाप अच्छे होते हैं या बुरे? यह समर्पण है या प्रतिरोध? स्पष्टतः ये अच्छे कर्म नहीं हैं और याद रखे जाने योग्य नहीं हैं। इससे यह भी प्रकट होता है कि लोगों ने वास्तव में समर्पण या खुद को अर्पित नहीं किया है; बल्कि वे प्रतिरोध, विद्रोह और विरोध से भरे हैं। यह ठीक इसलिए है कि लोगों में ये अवस्थाएँ होती हैं और वे अक्सर ऐसी अवस्थाओं के भीतर रहते हैं, कि जब लोग अपने सपने से जागते हैं और वास्तविक दुनिया में जीते हैं, तो उन्हें यह एहसास होता है कि वास्तविक जीवन में परमेश्वर के क्रियाकलाप उनकी मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते। बल्कि उसके क्रियाकलाप लोगों को हर तरह से आहत करते हैं, उन्हें महसूस कराते हैं कि वह हर तरह से उदासीन है और मनुष्य के प्रति हर तरह से असंवेदनशील है। यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो संदेह करते हुए कहते हैं, “क्या परमेश्वर प्रेम है? क्या वह अब भी लोगों से प्रेम करता है? कहा जाता है कि परमेश्वर मनुष्य की चिंता करता है और उससे अपने समान प्रेम करता है। यह तुम कहाँ देखते हो? मैंने इसे कभी क्यों नहीं देखा?” यह एक समस्या है! लोग अक्सर इन अवस्थाओं में रहते हैं, जिससे मनुष्य और परमेश्वर के बीच विरोधाभास और भी चरम सीमा पर पहुँच जाता है और उनके बीच दूरी बढ़ती जाती है। जब लोग परमेश्वर को अपनी धारणाओं के अनुरूप कुछ करता देखते हैं, तो वे सोचते हैं, “मेरे परमेश्वर ने धरा‑कंपा देने वाला काम किया है। वही वह परमेश्वर है, जिसमें मैं सचमुच विश्वास करना चाहता हूँ। सिर्फ वही मेरा परमेश्वर है। मैं उसका सृजित प्राणी बनने के लिए तैयार हूँ। सिर्फ वही मेरा सृष्टिकर्ता है।” पर जब उनके दैनिक जीवन में मुश्किलें, नकारात्मकता या कमजोरियाँ उत्पन्न होती हैं, और जिस परमेश्वर की वे कल्पना करते हैं वह हर समय उनकी मदद करने या उनकी जरूरतें पूरी करने में असमर्थ रहता है, तो परमेश्वर में उनकी आस्था कमजोर पड़ जाती है या लुप्त ही हो जाती है। लोगों की इन तमाम अवस्थाओं, अभिव्यक्तियों और जो वे प्रकट करते हैं, उनका क्या कारण है? इसका कारण यह है कि लोग सृष्टिकर्ता को बिल्कुल नहीं समझते। तुम उसे नहीं समझते; यही एकमात्र कारण है। मनुष्य और परमेश्वर के बीच सभी विरोधाभासों, दूरियों और गलतफहमियों की जड़ यही है। तो लोग इस समस्या को कैसे सुलझाएँ? पहले तो उन्हें अपनी धारणाओं का समाधान करना चाहिए। दूसरा, वास्तविक जिंदगी में लोगों को परमेश्वर द्वारा अपने भीतर किए जाने वाले हर कार्य का अनुभव करना चाहिए, उससे गुजरना चाहिए, उसे खोजना चाहिए और उस पर विचार करना चाहिए, और उस बिंदु पर पहुँचना चाहिए जहाँ वे परमेश्वर द्वारा उनके लिए की गई हर व्यवस्था के आगे, और परमेश्वर द्वारा उनके लिए आयोजित सभी लोगों, घटनाओं और चीजों के आगे पूरी तरह समर्पण करने में सक्षम हो जाएँ। समर्पण करने का क्या उद्देश्य है? इन सभी सत्यों को पहचानना और समझना।

क्या तुम लोगों को वह विषयवस्तु बहुत गूढ़ लगती है, जिस पर हमने अभी-अभी संगति की है? क्या तुम लोग इसे समझ सकते हो? क्या तुम इसे समझने में सक्षम हो? (हाँ, हम सक्षम हैं।) तुम्हें इसे सिद्धांत के तौर पर समझ पाने में सक्षम होना चाहिए, पर क्या इसे सिद्धांत के तौर पर समझने का अर्थ सत्य को समझना और स्वीकार करना है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो सत्य को समझने और स्वीकार करने का क्या अर्थ है? तुम्हें अपने दैनिक जीवन में अक्सर अपनी जाँच करनी चाहिए, पर तुम्हें जाँच क्या करनी चाहिए? (यह जाँच करनी चाहिए कि क्या हममें वे अवस्थाएँ और अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनके बारे में परमेश्वर बताता है, और परमेश्वर के बारे में लोगों में क्या धारणाएँ और गलतफहमियाँ हैं।) बिल्कुल सही। तुम्हें इन चीजों की जाँच करनी चाहिए; यह जाँचना चाहिए कि तुम कौन-सी भ्रष्टता प्रकट करते हो, और तुममें कौन-सी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वे आत्म-परीक्षा के जरिए कुछ भी पता नहीं लगा सकते हैं। पहले दूसरों को देखकर इसका आसानी से समाधान किया जा सकता है। दूसरे लोग तुम्हारे लिए आईना हैं। जब तुम लोगों को कुछ स्वभाव या अवस्थाएँ प्रकट करते देखो, तो पलटकर अपनी जाँच करो, और देखो कि क्या यह बात तुम पर भी लागू होती है; देखो कि क्या यही धारणाएँ और कल्पनाएँ तुम्हारे भीतर भी हैं, और क्या तुम भी उसी अवस्था में हो। अगर हाँ, तो तुम्हें इसके बारे में क्या करना चाहिए? क्या तुम्हें खुद को उजागर करते हुए इन चीजों का गहन-विश्लेषण करना चाहिए या इनसे चिपके रहकर इनके “फूलने और फलने” का इंतजार करना चाहिए? (हमें खुद को उजागर कर इनका विश्लेषण करना चाहिए।) तुम्हें इन चीजों को सामने रखकर इनका विश्लेषण करना चाहिए, ताकि हर किसी को इसका लाभ मिल सके, और इसके माध्यम से हर कोई भ्रष्ट अवस्थाओं को सही तरह से पहचान सके, सत्य को समझ सके, कोई रास्ता ढूँढ़ सके और मिलकर इस तरह की समस्याओं को सुलझा सके। धारणाओं और नकारात्मक दशाओं का गहन-विश्लेषण करने का क्या उद्देश्य है? (ताकि लोग अपनी धारणाओं और नकारात्मक दशाओं का कोई समाधान ढूँढ़ सकें।) और समाधान ढूँढ़ने का क्या उद्देश्य है? सत्य प्राप्त करना। तुम्हारी धारणाओं का समाधान करने का उद्देश्य तुम्हें यह पहचान करवाना है कि वे गलत थीं, और वे कोई ऐसी चीज नहीं हैं जो तुम्हारे पास होनी चाहिए। तुम्हें उन्हें जाने देना चाहिए, उनसे चिपके नहीं रहना चाहिए। फिर सक्रियता से यह खोजना चाहिए कि सही क्या है, सकारात्मक चीजें वास्तव में क्या हैं, और सत्य वास्तव में क्या है। जब तुम सकारात्मक चीजें और सत्य स्वीकार लेते हो, और उन्हें अभ्यास, विचार और उन परिप्रेक्ष्यों के सिद्धांत समझते हो जो तुममें होने चाहिए, तो एक बदलाव आता है और तुम सत्य प्राप्त कर लेते हो। तो इन सत्यों की रोशनी में लोगों को यहूदियों के यहूदिया से निर्वासन को किस तरह देखना चाहिए? इस घटना के बारे में लोगों की आम धारणा क्या है? (यही कि परमेश्वर को यहूदियों को यहूदिया से बाहर नहीं खदेड़ना चाहिए था, और उसे यहूदियों की रक्षा करनी चाहिए थी। चाहे उन्होंने परमेश्वर का कैसे भी प्रतिरोध किया हो, और इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने उसे सलीब पर चढ़ा दिया, उसे उनके पाप हमेशा के लिए माफ कर देने चाहिए थे, और सिर्फ यही परमेश्वर का प्रेम है।) ये मनुष्य की धारणाएँ हैं। क्या ये बेतुकी नहीं हैं? अगर परमेश्वर मनुष्य की धारणाओं के अनुसार कार्य करता, तो क्या तब भी उसका स्वभाव धार्मिक होता? भले ही लोग निर्वासित होने से परेशान थे, पर परमेश्वर के उनके प्रतिरोध और निंदा ने परमेश्वर की नजर में सीमा पार कर ली थी; उनके क्रियाकलाप शैतान के क्रियाकलापों से भिन्न नहीं थे, फिर भी परमेश्वर इस पर क्रोधित क्यों नहीं हो सकता था? कुछ लोग सत्य स्वीकार नहीं कर पाते और सोचते हैं, “परमेश्वर लोगों के साथ इस तरह व्यवहार कैसे कर सकता है? लोग इस तरह का प्रेम स्वीकार नहीं कर सकते, यह उनके प्रति बहुत असंवेदनशील है! यह प्रेम जैसा नहीं दिखता। अगर परमेश्वर यहूदियों के साथ इस तरह व्यवहार करता है, तो परमेश्वर में प्रेम नहीं है।” यह परमेश्वर के प्रेम को नकारता है, और यह मनुष्य की धारणा है। मनुष्य की क्या धारणा है? (मनुष्य ने परमेश्वर के प्रेम के बारे में फैसला दे दिया है।) हाँ, जब लोग किसी चीज के बारे में फैसला देते हैं, तो वह एक धारणा होती है, और वह सत्य के अनुरूप नहीं होती, न ही वह सत्य होती है। यहाँ लोगों ने किस चीज के बारे में फैसला दिया है? उन्होंने परमेश्वर के कार्य करने के तरीके के बारे में फैसला दिया है; वे सोचते हैं कि परमेश्वर को कुछ निश्चित तरीकों से कार्य करना चाहिए, तभी वह परमेश्वर का कार्य होगा, और ये वे तरीके हैं जिनके अनुसार परमेश्वर को अपना कार्य करना चाहिए। परमेश्वर के कार्य करने के तरीके के बारे में लोगों ने एक फैसला दिया है और यह फैसला उनकी धारणा है। तो जिस तरीके से परमेश्वर चीजें करता है, उसके बारे में लोगों ने किस तरह का फैसला दिया है? उन्होंने जो फैसला दिया है, उनके मन में इस बात के प्रति असहजता पैदा करती है कि परमेश्वर ने इस स्थिति में कैसे कार्य किया और उन्हें परमेश्वर को गलत समझने और उसका विरोध करने पर मजबूर करती है? (लोग सोचते हैं कि परमेश्वर को यहूदियों पर भरपूर अनुग्रह और आशीषों की बौछार करनी चाहिए थी, पर इसके बजाय उसने इन धारणाओं और कल्पनाओं, और लोगों की अपेक्षाओं के बाहर जाकर कार्य किया; उसने यहूदियों को बाहर निकाल दिया और उन्हें पृथ्वी पर भटकने के लिए मजबूर किया। लोग इसे नहीं समझते, और इसने गंभीर धारणाओं को जन्म दिया।) कई लोगों के मन में परमेश्वर द्वारा यहूदियों के प्रति किए गए क्रियाकलापों के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ हैं। दूसरे शब्दों में, लोग परमेश्वर के क्रियाकलापों से असहज हैं और सोचते हैं कि उसे इस तरह नहीं करना चाहिए था। क्या यह एक धारणा है? (हाँ, बिल्कुल।) तो, जब लोग सोचते हैं कि परमेश्वर को “वैसा नहीं करना चाहिए था” जैसा उसने किया, तो क्या यह परमेश्वर के क्रियाकलापों के बारे में फैसला देना नहीं है? तुम्हें कैसे पता कि परमेश्वर को ऐसा नहीं करना चाहिए था? तुम्हारे यह कहने का क्या आधार है कि परमेश्वर को ऐसा नहीं करना चाहिए था? अगर तुम सोचते हो कि परमेश्वर को ऐसा नहीं करना चाहिए था, पर उसने ऐसा किया, तो क्या इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर परमेश्वर नहीं है? क्या इसका अर्थ है कि परमेश्वर ने जो किया वह गलत था, और सत्य के अनुरूप नहीं था? क्या इस मामले में मनुष्य मूर्ख नहीं है? मनुष्य हद दर्जे का मूर्ख और अज्ञानी है, घमंडी और आत्मतुष्ट है; उसके लिए परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बनाना और परमेश्वर के बारे में फैसला देना सबसे आसान बात है। अगर इस तरह के लोग सत्य स्वीकार नहीं कर सकते तो यह बहुत खतरनाक है, और उन्हें निकाले जाने की प्रबल संभावना है।

यहूदिया से यहूदियों के निर्वासन के बारे में बहुत-से लोगों के मन में धारणाएँ और मत हैं, और वे परमेश्वर के इरादे नहीं समझते, पर इस समस्या का समाधान बहुत आसान है। मैं तुम लोगों को इसका एक सरल तरीका बताता हूँ। सुनो और देखो कि क्या यह तुम लोगों की समस्याएँ सुलझा सकता है। सबसे आसान तरीका यह है कि सबसे पहले लोगों को यह जानना चाहिए कि वे सृजित प्राणी हैं, और सृजित प्राणियों के लिए अपने सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है। अगर सृजित प्राणी लगातार अपने सृष्टिकर्ता के बारे में धारणाएँ रखते हैं, और उसके प्रति समर्पित नहीं हो सकते, तो यह एक बड़ा विद्रोह होगा। लोगों को यह समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता का सृजित प्राणियों के साथ व्यवहार करने का एक बुनियादी सिद्धांत है जो सर्वोच्च सिद्धांत भी है। सृष्टिकर्ता सृजित प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह पूरी तरह से उसकी प्रबंधन योजना और उसके कार्य की जरूरतों पर आधारित है; उसे किसी व्यक्ति से सलाह लेने की जरूरत नहीं है, न ही उसे किसी व्यक्ति से स्वीकृति प्राप्त करने की आवश्यकता है। जो कुछ भी उसे करना चाहिए और जिस भी तरह से उसे लोगों से व्यवहार करना चाहिए, वह करता है और वह चाहे जो भी करता हो और जिस भी तरह से लोगों से व्यवहार करता हो, वह सब सत्य सिद्धांतों और उन सिद्धांतों के अनुरूप होता है जिनके अनुसार सृष्टिकर्ता कार्य करता है। एक सृजित प्राणी के रूप में करने लायक केवल एक ही चीज है और वह है सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करना; व्यक्ति को अपनी किसी पसंद का चयन नहीं करना चाहिए। यही वह विवेक है जो सृजित प्राणियों में होना चाहिए और अगर किसी व्यक्ति के पास यह नहीं है तो वह व्यक्ति कहलाने योग्य नहीं है। लोगों को अवश्य ही समझना चाहिए कि सृष्टिकर्ता हमेशा सृष्टिकर्ता ही रहेगा; उसके पास किसी भी सृजित प्राणी के बारे में जैसे चाहे वैसे आयोजन करने और उन पर संप्रभुता रखने का सामर्थ्य है और वह इसके योग्य है और ऐसा करने के लिए उसे किसी कारण की आवश्यकता नहीं होती है। यह उसका अधिकार है। सृजित प्राणियों के पास यह फैसला देने का कोई अधिकार और योग्यता नहीं है कि सृष्टिकर्ता जो कुछ भी करता है वह सही है या गलत है या उसे कैसे कार्य करना चाहिए। कोई भी सृजित प्राणी यह चुनने का हक नहीं रखता कि उसे सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना है या नहीं; किसी भी सृजित प्राणी को यह माँग करने का हक नहीं है कि सृष्टिकर्ता को उस पर संप्रभुता कैसे रखनी चाहिए या उसकी नियति की व्यवस्था कैसे करनी चाहिए। यह सर्वोच्च सत्य है। सृष्टिकर्ता ने अपने सृजित प्राणियों के साथ चाहे जो भी किया हो या उसने यह चाहे जैसे भी किया हो, सृजित मनुष्यों को केवल एक ही काम करना चाहिए : सृष्टिकर्ता द्वारा की गई हरेक चीज खोजना, इसके प्रति समर्पण करना, इसे जानना और स्वीकार करना। इसका अंतिम नतीजा यह होगा कि सृष्टिकर्ता ने अपनी प्रबंधन योजना और अपना काम पूरा कर लिया होगा और उसकी प्रबंधन योजना बिना किसी अवरोध के आगे बढ़ चुकी होगी; इस बीच, चूँकि सृजित प्राणियों ने सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाएँ स्वीकार कर ली हैं और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर लिया है, इसलिए वे सत्य हासिल कर चुके होंगे, सृष्टिकर्ता के इरादे समझ चुके होंगे और उसके स्वभाव को जानने लगे होंगे। एक और सिद्धांत है जो मुझे तुम्हें बताना चाहिए : सृष्टिकर्ता चाहे जो भी करे, उसकी अभिव्यक्तियाँ जिस भी प्रकार की हों, उसका कार्य बड़ा हो या छोटा, वह फिर भी सृष्टिकर्ता ही है; जबकि समस्त मनुष्य, जिन्हें उसने सृजित किया, चाहे उन्होंने कुछ भी किया हो, या वे कितने भी प्रतिभाशाली और गुणी क्यों न हों, वे सृजित प्राणी ही रहते हैं। जहाँ तक सृजित मनुष्यों का सवाल है, चाहे जितना भी अनुग्रह और जितने भी आशीष उन्होंने सृष्टिकर्ता से प्राप्त कर लिए हों, या जितनी भी दया, प्रेमपूर्ण करुणा और उदारता प्राप्त कर ली हो, उन्हें खुद को भीड़ से अलग नहीं मानना चाहिए, या यह नहीं सोचना चाहिए कि वे परमेश्वर के बराबर हो सकते हैं और सृजित प्राणियों में ऊँचा दर्जा प्राप्त कर चुके हैं। परमेश्वर ने तुम्हें चाहे जितने उपहार दिए हों, या जितना भी अनुग्रह प्रदान किया हो, या जितनी भी दयालुता से उसने तुम्हारे साथ व्यवहार किया हो, या चाहे उसने तुम्हें कोई विशेष खूबी दी हो, इनमें से कुछ भी तुम्हारी पूँजी नहीं है। तुम एक सृजित प्राणी हो, और इस तरह तुम सदा एक सृजित प्राणी ही रहोगे। तुम्हें कभी नहीं सोचना चाहिए, “मैं परमेश्वर के हाथों में उसका लाड़ला हूँ। परमेश्वर मुझे कभी नहीं त्यागेगा, परमेश्वर का रवैया मेरे प्रति हमेशा प्रेम, देखभाल और नाजुक दुलार के साथ-साथ सुकून के गर्मजोशी भरे बोलों और प्रबोधन का होगा।” इसके विपरीत, सृष्टिकर्ता की दृष्टि में तुम अन्य सभी सृजित प्राणियों की ही तरह हो; परमेश्वर तुम्हें जिस तरह चाहे, उस तरह इस्तेमाल कर सकता है, और साथ ही तुम्हारे लिए जैसा चाहे, वैसा आयोजन कर सकता है, और तुम्हारे लिए सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों के बीच जैसी चाहे वैसी कोई भी भूमिका निभाने की व्यवस्था कर सकता है। लोगों को यह ज्ञान होना चाहिए और उनमें यह विवेक होना चाहिए। अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो परमेश्वर के साथ उसका संबंध अधिक सामान्य हो जाएगा, और वह उसके साथ एक सबसे ज्यादा वैध संबंध स्थापित कर लेगा; अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो वह अपने स्थान को सही ढंग से उन्मुख कर पाएगा, वहाँ अपना आसन ग्रहण कर पाएगा और अपना कर्तव्य निभा पाएगा।

इन वचनों को सुनने के बाद तुम लोग क्या सोचते हो? क्या तुम अब भी परमेश्वर को गलत समझोगे? कुछ लोग कहते हैं, “यह देखते हुए कि परमेश्वर लोगों के साथ इस तरह व्यवहार करता है, जब परमेश्वर ने कहा था कि उसकी नजर में लोग चींटियों की तरह हैं, और कीड़े-मकोड़ों से भी कम हैं, ऐसा लगता है कि यह सिर्फ सैद्धांतिक नहीं था, बल्कि वास्तविकता थी! परमेश्वर मनुष्य के साथ उतना करीब या घनिष्ठ नहीं है, जितना लोगों ने कल्पना की थी।” लोगों के दिल ठंडे हो जाते हैं मानो उनके जलते दिलों पर पानी डाल दिया गया हो, जिसके कारण लोग ठंडे हो गए हों। क्या तुम लोग कहोगे कि उनके दिलों का ठंडा हो जाना या उनका परमेश्वर के बारे में निरंतर गलतफहमियाँ रखना बेहतर है? (उनके दिलों का ठंडा हो जाना बेहतर है।) सिर्फ थोड़ी देर के लिए ठंडा होकर ही वे परमेश्वर के स्वभाव को समझ सकते हैं। सृजित प्राणियों में यह विवेक होना चाहिए कि वे हर चीज के लिए सत्य को अपने सिद्धांत के रूप में इस्तेमाल कर सकें; उन्हें हर चीज को देखने के आधार के रूप में सत्य का इस्तेमाल करना चाहिए, और वे जो कुछ भी करते हैं उसके लिए उन्हें अपने सिद्धांत और आधार के रूप में सत्य का इस्तेमाल करना चाहिए। यही सही तरीका है। पर इससे उलट, लोग अपने दिल में हमेशा यह सोचते हैं कि परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता किसी अन्य व्यक्ति के साथ उनके रिश्ते जैसा है, और उनका मेलजोल बराबरी के स्तर पर होना चाहिए। क्या यह अच्छी स्थिति है? (नहीं, यह अच्छी स्थिति नहीं है।) कैसे नहीं है? लोगों ने खुद को गलत स्थिति में डाल लिया है; वे परमेश्वर के साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार नहीं करते। इसका कारण यह है कि लोगों में परमेश्वर के बारे में बहुत सारी गलतफहमियाँ हैं, पर परमेश्वर लोगों की गलतफहमियों या हठधर्मिता के परिणामस्वरूप अपना रवैया नहीं बदलेगा। उलटे, वह न सिर्फ अपना रवैया नहीं बदलेगा, बल्कि लोगों में पहले की तरह सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता रहेगा, और समूची मानवजाति के जीवन की व्यवस्था करेगा और उस पर अपनी संप्रभुता रखेगा। पर मनुष्य में परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बनाने और उसका प्रतिरोध और विद्रोह करने की प्रवृत्ति होती है, इसलिए मनुष्य को बहुत कष्ट झेलना होता है। लोग परमेश्वर के करीब आने और उसके साथ देह से जुड़ा संबंध बनाने की कोशिश करते हैं, और वे अपनी भावनाओं, पूँजी, प्रतिभाओं, क्षमताओं, उन्होंने कितना दिया है, अपनी पिछली उपलब्धियों और हर तरह के अन्य कारणों के बारे में बात करते हैं। अगर लोग हमेशा ऐसी अवस्थाओं में रहते हैं, तो क्या वे सत्य प्राप्त कर सकते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला दिल नहीं है, तुम हमेशा भ्रामक विचार रखते हो, एक सृजित प्राणी की स्थिति ग्रहण करने में अक्षम हो, निरंकुश महत्वाकांक्षाएँ रखते हो और हमेशा ऊँचे पद की लालसा रखते हो, तो अंततः यह तुम्हें अपने कर्तव्य को सही तरीके से निभाने या अपने प्रति परमेश्वर की अपेक्षाओं और रवैयों को सही तरह से समझने में असमर्थ बना देगा। भले ही तुम निरंतर शोधित हो रहे हो और लगातार कष्ट उठा रहे हो, फिर भी तुम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को छोड़ने में असमर्थ हो, और यह तक सोचते हो कि वह तुम्हीं हो जिससे परमेश्वर सबसे ज्यादा प्रेम करता है और जिसकी सबसे ज्यादा परवाह करता है। नतीजतन, जब तुम्हारे साथ कुछ वास्तविक घटित होता है, और तुम देखते हो कि परमेश्वर उस तरह काम नहीं करता और यह तुम्हारी खुशफहमी मात्र थी, तो तुम्हें एक झटका महसूस होता है और आघात पहुँचता है; तुम शिकायत करते हो और महसूस करते हो कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है। तुम्हारी भावनाएँ भी आहत होती हैं। क्या इस कष्ट का कोई मूल्य है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) लोगों ने अपनी खुशफहमी, धारणाओं और कल्पनाओं के कारण कष्ट मोल लिया है। यह उनके लिए सबसे ज्यादा समस्यात्मक चीज है, और उन्हें खुद को सुधारने की जरूरत है। उन्हें ऐसा कैसे करना चाहिए? यह मानकर कि परमेश्वर सबके प्रति धार्मिक है, और परमेश्वर जो भी कार्य करता है, वे सब मानवजाति को बचाने के लिए हैं—उसका कोई दूसरा एजेंडा नहीं है। लोगों को जो करना चाहिए, वह है सृजित प्राणी की स्थिति ग्रहण कर सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करना; सृष्टिकर्ता जो कुछ भी करता है उसे स्वीकार कर उसके आगे समर्पण करना, इन चीजों में सत्य और परमेश्वर के इरादे खोजना, और परमेश्वर के आचरण को पहचानना। अगर लोग परमेश्वर के क्रियाकलापों का मूल्यांकन करने और उनके बारे में फैसला देने के लिए हमेशा अपनी धारणाओं का उपयोग करते हैं, परमेश्वर से हमेशा अनुचित माँगें करते हैं, और इस बात पर जोर देते हैं कि परमेश्वर उनके तरीके से चीजें करे, तो वे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हैं, और वे न सिर्फ सत्य समझ पाने में अक्षम होते हैं, बल्कि अंततः उनके लिए परमेश्वर द्वारा तिरस्कृत किए जाने और निकाल दिए जाने के अलावा और कुछ नहीं बचेगा। अगर लोग परमेश्वर के आशीष पाना चाहते हैं, तो उन्हें एक ही चीज करने की जरूरत है और वह यह कि सृष्टिकर्ता द्वारा की जाने वाली हर चीज खोजें, उसके प्रति समर्पित हों, उसे पहचानें और स्वीकारें। लोगों के लिए सत्य को समझने, परमेश्वर को जानने, परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल करने और बचाए जाने का यही एकमात्र तरीका है।

18 मई 2018

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