केवल सच्चे समर्पण के साथ ही व्यक्ति असली भरोसा रख सकता है (भाग तीन)

जिस प्रक्रिया से लोगों को परमेश्वर में सच्ची आस्था आती है, उसमें परमेश्वर क्या करता है? (वह प्रबोधन और मार्गदर्शन करता है, परिवेश का आयोजन करता है, और फिर सत्य को लेकर इसे लोगों में कार्यान्वित करता है।) जब प्रभु यीशु ने पतरस को फटकारा तो यह परमेश्वर की ओर से उसे उजागर करना, उसका न्याय करना और उसकी निंदा करना था। परमेश्वर पर सच्चा भरोसा हासिल करने से पहले क्या लोगों को इन चीजों का अनुभव करना पड़ेगा? (बिल्कुल।) उन्हें इन चीजों का अनुभव क्यों करना पड़ता है? क्या इन चीजों के बिना यह हासिल करना असंभव होगा? क्या न्याय किए जाने, उजागर होने, डाँट-फटकार, अनुशासन और यहाँ तक कि अभिशाप से बचना संभव है? (नहीं।) मान लो, प्रभु यीशु ने पतरस को डाँटने के बजाय उसके साथ इस मसले पर दोस्ताना अंदाज में चर्चा की होती और कहता, “पतरस, मैं जानता हूँ कि तुम्हारे कहने की मंशा अच्छी है, लेकिन आइंदा इस तरह मत बोलना। मानवीय नेक इरादों के कारण मेरी योजना में अड़चन मत डालो। शैतान की ओर से मत बोलो और शैतान का निर्गम-द्वार मत बनो। भविष्य में और सावधान रहना और बिना सोचे न बोलना। बोलने से पहले ध्यान से सोचना कि क्या तुम्हारे शब्द सही हैं और कहीं ये परमेश्वर को दुखी या क्रोधित तो नहीं कर देंगे।” क्या इस तरह बोलने से बात बनेगी? (नहीं।) क्यों नहीं? मनुष्यों को शैतान बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है और उनके भ्रष्ट स्वभाव की जड़ें बहुत गहरी हैं। वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं। उनके सारे विचार, कार्यकलाप, कल्पनाएँ, धारणाएँ, उनके जीवन के सभी लक्ष्य और दिशाएँ, और उनकी सारी कथनी-करनी की प्रेरणाएँ उनके भ्रष्ट स्वभाव से उपजती हैं। अगर परमेश्वर उन्हें न फटकारे तो क्या यह ठीक रहेगा? क्या उन्हें इस समस्या की गंभीरता का एहसास होगा? क्या उनके पाप का मूल कारण मिटाया जा सकता है? (नहीं।) अगर उनके पाप का मूल कारण मिटाया नहीं जा सकता तो क्या लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं? (नहीं।) क्या तुम अब समझ गए कि परमेश्वर द्वारा लोगों की निंदा करना और उन्हें धिक्कारना अच्छी बात है या बुरी? (यह अच्छी बात है।) क्या परमेश्वर का लोगों के बारे में खुलासे करना अच्छी बात है? (बिल्कुल।) वह लोगों की किन चीजों को प्रकट करता है? (वह उनकी कमजोरी, आध्यात्मिक कद और परमेश्वर में उनके भरोसे को प्रकट करता है।) वह लोगों को पूरी तरह प्रकट कर देता है। तुम जिन धर्म-सिद्धांतों को मानते हो, जो जुमले लगातार दोहराते हो, तुम्हारे विश्वास, तुम्हारा बाहरी जोश और नेक इरादे ऐसी चीजें नहीं हैं कि परमेश्वर इन्हें स्वीकृति दे। वह ये चीजें नहीं चाहता है। तुम चाहे कितने ही जोशीले हो या कितनी ही यात्रा कर चुके हो, क्या यह दिखा सकता है कि तुम्हारे पास सत्य है? क्या यह दिखा सकता है कि तुम्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था है? (नहीं।) परमेश्वर इन चीजों को स्वीकृति नहीं देता। मानवीय अच्छाइयाँ और कल्पनाएँ बेकार हैं। परमेश्वर की स्वीकृति पाने और परमेश्वर में सच्ची आस्था रखने के लिए, तुम्हें उन तमाम तरीकों का अनुभव लेना चाहिए जिनके जरिए परमेश्वर कार्य करता है : उजागर करना, न्याय करना, निंदा करना, धिक्कारना—कभी-कभी अनुशासित करने और दंड देने की जरूरत भी पड़ती है। क्या इन चीजों से डरने की जरूरत है? वे डरने वाली चीजें नहीं हैं। इनमें परमेश्वर के इरादे, परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे और परमेश्वर का प्रेम निहित है। इस कष्ट को सहना सार्थक है! परमेश्वर ये चीजें करता है और लोगों पर कार्य करने के लिए ये तरीके इस्तेमाल करता है। इससे पता चलता है कि परमेश्वर इन लोगों से अपेक्षा करता है और उनसे कुछ हासिल करना चाहता है। परमेश्वर ये चीजें मनमाने ढंग से, बिना कारण या कल्पनाओं के आधार पर नहीं करता। ये चीजें पूरी तरह परमेश्वर का इरादा दिखाती हैं। परमेश्वर का इरादा क्या है? वह चाहता है कि लोगों को परमेश्वर में सच्ची आस्था हो, लोग सत्य स्वीकारें, अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागें और उद्धार प्राप्त करें।

तुम्हीं बताओ कि जब पतरस तीन बार प्रभु से मुकर गया तो क्या उसने अपनी आस्था पर चिंतन किया? (हाँ।) सामान्य मानवता वाले लोग, वे लोग जो सत्य का अनुसरण करते हैं नाकामियों और ठोकरों का सामना करने पर आत्मचिंतन करेंगे। पतरस ने जरूर इस तरह से आत्मचिंतन किया होगा। सत्य से प्रेम न करने वाले लोग कभी आत्मचिंतन नहीं करेंगे। पतरस जैसी स्थिति का सामना करने पर वे कहेंगे, “भले ही मैंने प्रभु को तीन बार अस्वीकार किया है लेकिन ये असाधारण हालात थे। ऐसा कौन है जो ऐसे असाधारण हालात में परेशान, भयभीत और कमजोर महसूस नहीं करेगा? यह कोई बड़ी बात नहीं है। प्रभु के लिए मेरा प्रेम अभी भी बहुत अधिक है, मेरा दिल जोश से भरा है, मेरी आत्मा मजबूत है और मैं प्रभु को न कभी छोड़ूँगा, न कभी त्यागूँगा! प्रभु से तीन बार मुकरना सिर्फ एक छोटा-सा कलंक है और परमेश्वर शायद इसे याद नहीं रखेगा। आखिरकार, परमेश्वर पर मेरा गहरा भरोसा है।” यह किस प्रकार का चिंतन है? क्या यह सत्य को स्वीकार करने का रवैया है? क्या यह सच्चा भरोसा हासिल करने का तरीका है? (नहीं।) क्या होता अगर पतरस यह सोचता, “प्रभु यीशु, तुम लोगों को बखूबी जानते हो, लेकिन तुमने यह दाँव कैसे लगा लिया कि मैं ऐसी चीज करूँगा? तुम्हें यह भविष्यवाणी नहीं करनी चाहिए थी कि मैं तुमसे मुकर जाऊँगा। बल्कि, तुम्हें यह भविष्यवाणी करनी चाहिए थी कि मैं तुम्हें तीन बार पहचानूँगा। यह अच्छा रहता और तब मैं सिर ऊँचा कर तुम्हारा अनुसरण कर पाता। साथ ही, इससे तुम पर मेरा गहरा भरोसा दिख जाता और तुम्हारी भविष्यवाणी भी सटीक साबित होती। हम दोनों उससे संतुष्ट होते। मैं तुम पर सचमुच कितना विश्वास करता हूँ। तुम्हें मुझे पूर्ण बनाना ही चाहिए और इज्जत देनी चाहिए! तुम्हें मुझे फटकारना नहीं चाहिए। मुझसे ऐसा सलूक नहीं करना चाहिए। मैं इज्जतदार पतरस हूँ। मुझे परमेश्वर से मुकरने वाले शब्द कभी नहीं कहने चाहिए थे। यह बहुत ही लज्जास्पद और शर्मनाक है! मेरे साथ ही ऐसा क्यों? किसी और के साथ क्यों नहीं? तुमने जो किया वह उचित नहीं था! मानता हूँ कि मैं तुमसे मुकर गया, लेकिन क्या तुम्हें इस तरह मेरा खुलासा करने की जरूरत थी जिससे हर कोई मुझे शर्मिंदा होते देख सके? मैं यहाँ से कहाँ जाऊँगा? क्या अब भी मुझे भविष्य में अच्छी मंजिल मिल सकती है? क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुमने मुझे छोड़ दिया है? मेरा दिल कहता है कि यह उचित नहीं है।” परमेश्वर से इस तरह बहस करना सही है या गलत? (यह गलत है।) यह कैसी दशा है? यहाँ पतरस के मन में अवज्ञा और शिकायतें हैं। पतरस शिकायत करता है कि परमेश्वर का कार्य उसकी धारणाओं और रुचियों से मेल नहीं खाता है। इससे वह दूसरों की नजरों में गिरकर सम्मान गँवा बैठता है, जिससे वह अपना सिर ऊँचा नहीं रख पाता। यहाँ उसके पास मानवीय विकल्प हैं, उसके पास मानवीय शिकायतें, अवज्ञा, प्रतिरोध और विद्रोह हैं। ये सारी चीजें भ्रष्ट स्वभाव हैं। इस तरीके से सोचना, इस तरीके से पेश आना और इस तरह का रवैया अपनाना और इस तरह की दशा होना स्पष्ट रूप से गलत है। अगर लोग इस तरह सोचते और पेश आते हों और परमेश्वर उन्हें फटकारे नहीं तो क्या अपना खुलासा होने के बाद उनमें सच्ची आस्था उत्पन्न हो सकती है? क्या वे परमेश्वर पर सच्चा भरोसा रख सकते हैं? (नहीं।) जो लोग परमेश्वर द्वारा उनमें प्रकट चीजों के प्रति और परमेश्वर कैसे उनके साथ इस तरह पेश आता है इसे लेकर शिकायतें करते हैं, विद्रोह करते हैं, प्रतिरोध करते हैं और इन्हें अस्वीकार करते हैं, उनके लिए कैसा नतीजा निर्धारित है? ऐसे लोगों के जीवन में इससे क्या होने वाला है? इससे होने वाली पहली चीज है नुकसान। “नुकसान” का अर्थ क्या है? परमेश्वर की नजर में, तुमसे निपटना बहुत बड़ी मुसीबत है। तुम्हारे साथ चाहे जो हो, तुम्हारे पास हमेशा विकल्प होते हैं और तुम्हारे पास हमेशा अपनी रुचियाँ, अपनी इच्छा, अपनी राय और अपनी कल्पनाएँ, धारणाएँ और निष्कर्ष होते हैं। तो फिर, तुम अब भी परमेश्वर पर विश्वास क्यों करते हो? तुम्हारे लिए परमेश्वर केवल वो है जिस पर तुम विश्वास रखते हो और आध्यात्मिक सहारा लेते हो। तुम्हें परमेश्वर, परमेश्वर के वचन, परमेश्वर का सत्य या परमेश्वर का जीवन पोषण नहीं चाहिए, और तुम्हें यह तो बिल्कुल भी नहीं चाहिए कि परमेश्वर तुम पर ऐसा कोई न्याय का कार्य करे जिससे तुम्हें बहुत पीड़ा पहुँचे। इसके जवाब में परमेश्वर कहता है : “यह तो आसान है, मुझे तुम्हारे साथ ऐसा करने की जरूरत नहीं है। बस एक ही चीज है : तुम्हें मुझे छोड़ना होगा। तुम्हें अपने विकल्प चुनने का अधिकार है और मुझे भी विकल्प चुनने का अधिकार है। तुम चाहो तो खुद को बचाने का मेरा तरीका ठुकरा सकते हो, ठीक उसी तरह मैं भी तुम्हें न बचाने का फैसला कर सकता हूँ।” क्या इसका यह तात्पर्य है कि तुम्हारा और परमेश्वर का एक-दूसरे से कोई वास्ता नहीं है? क्या यह परमेश्वर की स्वतंत्रता है? (हाँ।) क्या परमेश्वर को ऐसा करने का अधिकार है? (बिल्कुल।) क्या लोगों को यह अधिकार है कि वे परमेश्वर का उद्धार न स्वीकारने का विकल्प चुन सकें? (बिल्कुल।) लोगों के पास भी यह अधिकार है। तुम परमेश्वर के उद्धार को छोड़ या ठुकरा सकते हो, लेकिन अंत में नुकसान तुम्हारा ही होगा। परमेश्वर तुम्हें पूर्ण तो नहीं ही बनाएगा, वह तुम्हें तिरस्कृत करके हटा भी देगा। अंत में तुम्हें दोगुना दंड मिलेगा। तुम्हारा यही हश्र होना है। तुम्हारे लिए यही मुसीबत रखी है! इसलिए जो लोग बचा लिए जाना चाहते हैं उन्हें परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण का विकल्प चुनना होगा। केवल इसी तरह से लोग परमेश्वर में सच्चा भरोसा पैदा कर सकते हैं और उसमें सच्ची आस्था रख सकते हैं। परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण की प्रक्रिया में धीरे-धीरे ऐसी आस्था उपजती है।

लोगों का भ्रष्ट स्वभाव उनकी कथनी-करनी के पीछे इरादों में, चीजों को लेकर उनके दृष्टिकोण में, उनके हर विचार और ख्याल में, और सत्य, परमेश्वर और परमेश्वर के कार्य के प्रति उनके विचारों, समझ, धारणाओं, दृष्टिकोण, इच्छाओं और माँगों में छिपा होता है। लोगों को पता भी नहीं चलता और यह उनकी कथनी-करनी से प्रकट होने लगता है। तो फिर परमेश्वर लोगों के अंदर की इन चीजों से कैसे पेश आता है? वह तुम्हें प्रकट करने के लिए विभिन्न परिवेशों का इंतजाम करता है। वह तुम्हें न केवल प्रकट करेगा, बल्कि तुम्हारा न्याय भी करेगा। जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करते हो, जब तुम्हारे मन में ऐसे विचार और ख्याल आते हैं जो परमेश्वर की अवहेलना करते हैं, जब तुम्हारी दशाएँ और दृष्टिकोण ऐसे होते हैं जो परमेश्वर से संघर्ष करते हैं, जब तुम्हारी ऐसी दशा होती है जहाँ तुम परमेश्वर को गलत समझते हो, या उसका प्रतिरोध और विरोध करते हो, तब परमेश्वर तुम्हें फटकारेगा, तुम्हारा न्याय करेगा और तुम्हें ताड़ना देगा, और वह कभी-कभी तुम्हें अनुशासित और दंडित भी करेगा। तुम्हें अनुशासित करने और फटकारने का क्या उद्देश्य है? (हमसे पश्चात्ताप कराना और हमें बदलना।) बिल्कुल, इसका मकसद तुमसे पश्चात्ताप कराना है। तुम्हें अनुशासित करने और फटकारने का नतीजा यह होता है कि इसके कारण तुम अपना रास्ता बदल देते हो। इसका उद्देश्य तुम्हें यह समझाना है कि तुम्हारे विचार मनुष्य की धारणाएँ हैं, और वे गलत हैं; तुम्हारी प्रेरणाएँ शैतान से पैदा होती हैं, वे मनुष्य की इच्छा से उत्पन्न होती हैं, वे सत्य के अनुरूप नहीं होतीं, वे परमेश्वर से मेल नहीं खातीं, वे परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट नहीं कर सकतीं, वे परमेश्वर के लिए घृणित और कुत्सित हैं, वे उसके क्रोध को भड़काती हैं, यहाँ तक कि उसके शाप को भी जगा देती हैं। इसे समझने के बाद तुम्हें अपनी प्रेरणाएँ और रवैया बदलना पड़ता है। और वे कैसे बदलते हैं? सबसे पहले, तुम्हें परमेश्वर के तुम्हारे साथ व्यवहार करने के तरीके के प्रति, और उन परिवेशों, लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति समर्पित होना चाहिए, जिनका वह तुम्हारे लिए इंतजाम करता है; छिद्रान्वेषण मत करो, वस्तुपरक बहाने मत बनाओ, और अपनी जिम्मेदारियों से न भागो। दूसरे, उस सत्य की तलाश करो जिसका लोगों को तब अभ्यास करना और उसमें प्रवेश करना चाहिए जब परमेश्वर अपना कार्य करता है। परमेश्वर चाहता है कि तुम इन चीजों को समझो। वो चाहता है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों और शैतानी सार को पहचानो, तुम उन परिवेशों के प्रति समर्पण करने योग्य बनो जिनकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है और अंततः, तुम उसके इरादों और उसकी अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास कर सको। तब तुमने परीक्षा पार कर ली होगी। जब तुम परमेश्वर का प्रतिरोध और विरोध करना छोड़ देते हो, तब तुम परमेश्वर से बहस करना बंद कर उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम हो जाओगे। जब परमेश्वर कहता है : “शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” तो तुम उत्तर देते हो, “अगर परमेश्वर कहता है मैं शैतान हूँ, तो मैं शैतान हूँ। हालाँकि मुझे समझ में नहीं आता कि मैंने क्या गलत कर दिया या परमेश्वर क्यों कह रहा है कि मैं शैतान हूँ, लेकिन अगर वह चाहता है कि मैं उसके पीछे जाऊँ, तो मैं हिचकूँगा नहीं। मुझे परमेश्वर की इच्छाएँ खोजनी चाहिए।” परमेश्वर जब कहता है कि तुम्हारे काम की प्रकृति शैतानी है, तो तुम कहते हो, “परमेश्वर के कहे अनुसार मैं चीजों को समझूँगा और सब स्वीकारूँगा।” यह कैसा रवैया है? यह समर्पण है। क्या यह तब भी समर्पण कहलाएगा जब तुम परमेश्वर की यह बात बेमन से मान तो लेते हो कि तुम दानव और शैतान हो, लेकिन इसे स्वीकार नहीं पाते—और समर्पण नहीं कर पाते—जब वह कहता है कि तुम पशु हो? समर्पण का अर्थ है पूर्ण अनुपालन और स्वीकारोक्ति, न बहस करना और न शर्तें रखना। इसका अर्थ है कारण और प्रभाव का विश्लेषण न करना, फिर चाहे कितने ही वस्तुनिष्ठ कारण हों, और केवल स्वीकारोक्ति से अपना सरोकार रखना। इस तरह का समर्पण पा लेने पर लोग परमेश्वर में सच्ची आस्था के करीब पहुँच जाते हैं। परमेश्वर जितना अधिक कार्य करता है और तुम जितना अधिक अनुभव करते हो, सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता तुम्हारे लिए उतनी ही अधिक वास्तविक होने लगती है, तब परमेश्वर पर तुम्हारा भरोसा उतना ही अधिक बढ़ेगा और तुम्हें उतना ही अधिक महसूस होगा, “परमेश्वर का हर कार्य नेक होता है, उसका कोई कार्य बुरा नहीं होता। मुझे अपने मन से नहीं चुनना चाहिए, बल्कि समर्पण करना चाहिए। मेरा दायित्व, मेरा उत्तरदायित्व, मेरा कर्तव्य है—समर्पण करना। सृजित प्राणी होने के नाते मुझे यह करना चाहिए। अगर मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण भी न कर सकूँ तो फिर मैं क्या हूँ? मैं पशु हूँ, एक दानव हूँ!” क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि अब तुममें सच्ची आस्था है? एक बार जब तुम इस मुकाम पर आ जाओगे, तो तुममें कोई कलुषता न होगी, इसलिए परमेश्वर के लिए तुम्हारा उपयोग करना सरल हो जाएगा और तुम्हारे लिए भी परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करना आसान हो जाएगा। जब तुम्हारे पास परमेश्वर की स्वीकृति होगी, तो तुम उसका आशीष भी पा सकोगे। इस तरह समर्पण में सीखने के लिए बहुत-से सबक हैं।

पतरस में परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण था। जब परमेश्वर ने कहा : “शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” तो वह चुप रहा और आत्मचिंतन करने लगा। आज के लोग ऐसा नहीं कर सकते। अगर परमेश्वर कहता है : “शैतान, मेरे सामने से दूर हो!” तो वे कहेंगे, “तुम शैतान किसे कह रहे हो? मुझे शैतान कहना ठीक नहीं है। यह कहो कि मुझे परमेश्वर ने चुना है—यह खासा अच्छा रहेगा। इसे मैं स्वीकार लूँगा और इसके प्रति समर्पण कर लूँगा। अगर तुम मुझे शैतान कहते हो तो मैं समर्पण नहीं कर सकता।” अगर तुम समर्पण नहीं कर सकते तो क्या तुम्हें परमेश्वर पर सच्चा भरोसा है? क्या तुममें सच्चा समर्पण है? (नहीं।) समर्पण और सच्चे भरोसे में क्या संबंध है? जब तुम्हारे पास सच्ची आस्था होगी, केवल तभी तुममें सच्चा समर्पण होगा। जब तुम सच में परमेश्वर के प्रति समर्पण करोगे, केवल तभी तुम्हारे अंदर धीरे-धीरे परमेश्वर पर सच्चा भरोसा उत्पन्न हो सकता है। सच में परमेश्वर के प्रति समर्पण की प्रक्रिया में तुम सच्चा भरोसा प्राप्त करते हो, लेकिन अगर तुममें सच्चे भरोसे की कमी है तो क्या तुम वाकई परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो? (नहीं।) ये चीजें आपस में जुड़ी हैं और ये नियमों या तर्क का मामला नहीं हैं। सत्य फलसफा नहीं है, यह तर्कसंगत नहीं होता। सत्य आपस में जुड़े होते हैं और ये एक-दूसरे से बिल्कुल अलग नहीं किए जा सकते। अगर तुम कहते हो, “परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के लिए तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा होना ही चाहिए, और अगर तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा है तो परमेश्वर के प्रति समर्पण करना ही चाहिए,” तो यह एक नियम, एक वाक्यांश, एक सिद्धांत, एक आडंबरपूर्ण दृष्टिकोण है! जीवन के मसले नियम नहीं होते हैं। तुम मुँह-जुबानी स्वीकारते रहते हो कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही तुम्हारा एकमात्र उद्धारक और एकमात्र सच्चा परमेश्वर है, लेकिन क्या तुम्हें परमेश्वर पर सच्चा भरोसा है? जब तुम क्लेश का सामना करते हो तो मजबूती से टिके रहने के लिए किस पर निर्भर रहते हो? अनेक लोग सर्वशक्तिमान परमेश्वर को इसलिए स्वीकारते हैं क्योंकि वह बहुत सारे सत्य व्यक्त कर चुका है। वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए उसे स्वीकारते हैं। लेकिन गिरफ्तारी और कष्टों से पाला पड़ने पर कई लोग पीछे हट जाते हैं, कई लोग अपने घरों में दुबक जाते हैं और उनमें अपने कर्तव्य निभाने की हिम्मत नहीं होती है। इस समय, तुम्हारे ये शब्द—“मैं परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास करता हूँ, मैं मानता हूँ कि मनुष्य की नियति परमेश्वर के नियंत्रण में है और यह भी कि मेरी किस्मत परमेश्वर के हाथों में है”—न जाने कब के गायब हो चुके होते हैं। यह तुम्हारे लिए सिर्फ एक जुमला था। चूँकि तुम इन शब्दों का अभ्यास और अनुभव करने का साहस नहीं करते, और तुम इन शब्दों के अनुसार नहीं जीते हो तो क्या तुम्हें परमेश्वर पर सच्चा भरोसा है? परमेश्वर में आस्था रखने का सार केवल परमेश्वर के नाम पर विश्वास करना भर नहीं है, बल्कि इस तथ्य पर विश्वास करना है कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है। तुम्हें इस तथ्य को अपना जीवन बनाना होगा, इसे अपने जीवन की असली गवाही बनाना होगा। तुम्हें इन शब्दों के अनुसार जीना होगा। यानी स्थितियों का सामना होने पर इन शब्दों को अपने व्यवहार, और अपने कार्यकलापों की दिशा और लक्ष्य का मार्गदर्शन करने देना होगा। तुम्हें इन शब्दों के अनुसार क्यों जीना होगा? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए किसी बाहरी देश में जाने में सक्षम हो जाते हो और तुम्हें यह काफी अच्छा लगता है। विदेश में बड़े लाल अजगर का शासन नहीं चलता और वहाँ विश्वास रखने के कारण किसी को सताया नहीं जाता; परमेश्वर पर विश्वास करने से तुम्हारी जान खतरे में नहीं पड़ती, इसलिए तुम्हें जोखिम नहीं उठाने पड़ते। जबकि मुख्य भूमि चीन में परमेश्वर के विश्वासियों के सिर पर हर समय गिरफ्तारी का खतरा मँडराता रहता है; वे राक्षसों की माँद में रह रहे हैं, और यह बहुत खतरनाक है! तभी एक दिन परमेश्वर कहता है : “तुम कई साल से विदेश में परमेश्वर पर विश्वास कर रहे हो और कुछ जीवन अनुभव ले चुके हो। मुख्य भूमि चीन में एक ऐसी जगह है जहाँ भाई-बहन जीवन के मामले में अपरिपक्व हैं। तुम्हें वापस लौटकर उनका चरवाहा बनना चाहिए।” यह जिम्मेदारी सामने आने पर तुम क्या करोगे? (समर्पण कर इसे स्वीकारूँगा।) तुम इसे बाहरी मन से स्वीकार सकते हो, लेकिन तुम्हारा दिल असहज हो जाएगा। रात में बिस्तर में जाकर तुम रोओगे और प्रार्थना करोगे, “परमेश्वर, तुम मेरी कमजोरी जानते हो। मेरा आध्यात्मिक कद बहुत कम है। अगर मैं मुख्य भूमि में लौट भी जाऊँ, तो भी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को चरा नहीं पाऊँगा! क्या तुम वहाँ किसी और को नहीं भेज सकते? मुझे यह आदेश मिला है और मैं जाना भी चाहता हूँ, लेकिन डरता हूँ कि अगर मैं गया तो मैं इसे अच्छी तरह से कार्यान्वित नहीं कर पाऊँगा, कि मैं अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से नहीं निभा पाऊँगा, और मैं तुम्हारे इरादों के अनुरूप जी नहीं पाऊँगा! क्या मैं दो साल और विदेश में नहीं रह सकता?” तुम कौन-सा विकल्प चुन रहे हो? तुम जाने से पूरी तरह इनकार नहीं कर रहे हो, लेकिन जाने के लिए पूरी तरह राजी भी नहीं हो। यह बोले बगैर टालमटोल करना है। क्या इसे परमेश्वर के प्रति समर्पण कहेंगे? यह परमेश्वर से सबसे स्पष्ट विद्रोह है। तुम्हारी वापस न लौटने की इच्छा का मतलब है कि तुम्हारे अंदर प्रतिरोधी भावनाएँ हैं। क्या परमेश्वर यह जानता है? (वह जानता है।) परमेश्वर कहेगा, “मत जाओ। मैं तुम्हारे प्रति कठोरता नहीं बरत रहा हूँ, मैं तो बस तुम्हारा परीक्षण कर रहा हूँ।” इस प्रकार उसने तुम्हारा खुलासा कर दिया। क्या तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो? क्या तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हो? क्या तुममें सच्चा भरोसा है? (नहीं।) क्या यह कमजोरी है? (नहीं।) यह विद्रोह है, यह परमेश्वर का विरोध है। इस परीक्षण ने यह प्रकट कर दिया कि तुम्हें परमेश्वर पर सच्चा भरोसा नहीं है, तुममें सच्चा समर्पण नहीं है और तुम यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है। तुम कहते हो, “अगर मुझे डर लग रहा है, तो मेरा न जाने का फैसला जायज है। जब तक मेरी जान को खतरा है, मैं मना कर सकता हूँ। मुझे यह आदेश स्वीकारने की जरूरत नहीं है और मैं अपना मार्ग खुद चुन सकता हूँ। मैं शिकवे-शिकायतों से भर सकता हूँ।” यह कैसा भरोसा है? यहाँ कोई सच्चा भरोसा नहीं है। तुम्हारे नारे चाहे जितने बड़े हों, क्या उनका कोई असर होगा? बिल्कुल भी नहीं। क्या तुम्हारी कसमों का कोई असर होगा? अगर दूसरे लोग सत्य पर संगति करें और तुम्हें मनाएँ तो क्या इसका कोई फायदा होगा? (नहीं।) भले ही तुम दूसरे लोगों के द्वारा तुम्हें मनाने के बाद अनिच्छा से मुख्य भूमि चले जाओ तो क्या यह सच्चा समर्पण होगा? परमेश्वर तुमसे समर्पण इस तरह नहीं कराना चाहता। तुम्हारा अनिच्छा से जाना बेकार रहेगा। परमेश्वर तुममें कार्य नहीं करेगा और इससे तुम्हारे हाथ कुछ नहीं लगेगा। परमेश्वर लोगों को कार्य करने के लिए बाध्य नहीं करता। इसके लिए तुम्हें सहर्ष तैयार होना चाहिए। अगर तुम नहीं जाना चाहते, कोई तीसरा मार्ग अपनाना चाहते हो, और हमेशा बचने, ठुकराने और टालने की कोशिश करते हो, तो फिर तुम्हें जाने की जरूरत नहीं है। जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद काफी बड़ा हो और तुममें वैसा ही भरोसा होगा तो तुम अपनी इच्छा से जाने का अनुरोध करोगे, “चाहे कोई दूसरा न जाए लेकिन मैं जाऊँगा। इस बार मुझे सचमुच कोई डर नहीं है, और मैं अपनी जान जोखिम में डालने को तैयार हूँ! क्या यह जीवन परमेश्वर ने नहीं दिया है? शैतान से ऐसा भी क्या डर? वह परमेश्वर के हाथ का खिलौना है, और मैं उससे नहीं डरता! अगर मुझे गिरफ्तार न किया गया तो इसके पीछे परमेश्वर का अनुग्रह होगा और उसकी दया होगी। अगर ऐसी परिस्थिति बनी कि मुझे गिरफ्तार कर लिया जाता है तो इसका कारण यह होगा कि परमेश्वर ने इसकी अनुमति दी है। चाहे मैं कैद में मर जाऊँ, तो भी मुझे परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए! मेरा यह संकल्प होना चाहिए—मैं अपना जीवन परमेश्वर को सौंप दूँगा। मैंने अपने जीवन में जो समझा, अनुभव किया और जाना है, उसके बारे में उन भाई-बहनों के साथ संगति करूँगा जिनके पास समझ और ज्ञान की कमी है। इस तरह उनमें मेरे जैसा भरोसा और संकल्प पैदा हो सकता है, और वे परमेश्वर के सामने आकर उसकी गवाही दे सकते हैं। मुझे परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होकर यह भारी बोझ उठाना चाहिए। भले ही यह भारी बोझ उठाने के लिए जोखिम उठाने और अपनी जान कुर्बान करने की जरूरत है, फिर भी मुझे कोई डर नहीं है। अब मैं अपने बारे में नहीं सोचता; मेरे पास परमेश्वर है, मेरा जीवन उसके हाथ में है, और मैं उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति स्वेच्छा से समर्पित हूँ।” जब तुम वहाँ लौटोगे तो तुम्हें उस परिवेश में कष्ट सहने पड़ेंगे। हो सकता है तुम जल्दी बूढ़े हो जाओ, तुम्हारे बाल पकने लगें और चेहरा झुर्रियों से भर जाए। हो सकता है तुम बीमार पड़ जाओ या गिरफ्तार कर सताए जाओ, या जानलेवा खतरे में घिर जाओ। तुम्हें इन मुसीबतों का सामना कैसे करना चाहिए? यह बात भी सच्चे भरोसे से जुड़ी है। कुछ लोग उत्साह के प्रस्फुटन में लौट सकते हैं, लेकिन लौटने के बाद इन कठिनाइयों का सामना करने पर वे क्या करेंगे? तुम्हें जोखिम उठाकर परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास करना चाहिए। भले ही तुम थोड़ा बुढ़ाते नजर आओ या थोड़े बीमार पड़ जाओ, ये मामूली बातें हैं। अगर तुम परमेश्वर के प्रति पाप करते हो और उसका आदेश ठुकराते हो, तो तुम इस जीवन में परमेश्वर के हाथों पूर्ण बनाए जाने का अवसर खो बैठोगे। अगर तुम अपने जीवन में परमेश्वर के प्रति पाप करते हो और उसका आदेश ठुकराते हो तो यह चिरस्थायी कलंक होगा! इस अवसर को खोने का मतलब है कि तुम अपनी जवानी के कितने ही साल देकर इसे वापस नहीं पा सकते। स्वस्थ और मजबूत शरीर होने का क्या लाभ है? सुंदर चेहरे और अच्छी कद-काठी का क्या फायदा है? भले ही तुम अस्सी साल के हो जाओ और तुम्हारा दिमाग तब भी तेज चले, अगर तुम परमेश्वर के कहे एक भी वाक्य का अर्थ नहीं समझ सकते तो क्या यह दयनीय बात नहीं होगी? यह अति दयनीय बात होगी! तो, वह सबसे अहम और अनमोल चीज क्या है जिसे लोगों को परमेश्वर के सामने आने पर हासिल करना चाहिए? यह है परमेश्वर में सच्ची आस्था। तुम पर चाहे जो आ पड़े, अगर तुम पहले समर्पण करते हो, भले ही उस समय तुम्हारे मन में परमेश्वर के बारे में कुछ छोटी-मोटी गलतफहमियाँ पैदा हों, या तुम पूरी तरह न समझ पाओ कि परमेश्वर इस तरह से कार्य क्यों कर रहा है, तो भी तुम नकारात्मक और कमजोर नहीं पड़ोगे। जैसा कि पतरस ने कहा, “भले ही परमेश्वर मनुष्यों के साथ इस तरह खेलता हो, जैसे कि वे खिलौने हों, तो भी मनुष्यों को क्या शिकायत होगी?” अगर तुममें इतना-सा भरोसा भी नहीं है, तो क्या तुम तब भी पतरस के समान समर्पित हो सकते हो? अक्सर परमेश्वर तुम्हारे साथ जो करता है वह तुम्हारे आध्यात्मिक कद, कल्पनाओं और धारणाओं के अनुरूप उचित और तर्कसंगत होता है। परमेश्वर तुम्हारे आध्यात्मिक कद के अनुसार कार्य करता है। फिर भी तुम इसे स्वीकार नहीं कर सकते तो क्या तुम पतरस जैसा समर्पण पा सकते हो? यह तो और भी असंभव बात होगी। इसलिए तुम्हें इस दिशा और इस लक्ष्य में प्रयास करने होंगे। तब जाकर ही तुम परमेश्वर में सच्ची आस्था पा सकोगे।

अगर लोगों में सच्ची आस्था की कमी हो तो क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं? यह कहना मुश्किल है। परमेश्वर पर सच्चा भरोसा रखकर ही वे सचमुच उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं। बात बिल्कुल ऐसी ही है। अगर तुम वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते तो तुम्हारे पास परमेश्वर का प्रबोधन, मार्गदर्शन या पूर्णता प्राप्त करने का कोई और अवसर नहीं होगा। तुमने परमेश्वर के हाथों पूर्ण बनने के ये सारे अवसर ठुकरा दिए। तुम इन्हें नहीं चाहते हो। तुम उन्हें ठुकरा रहे हो, टाल रहे हो और लगातार उनसे बचते फिर रहे हो। तुम हमेशा शारीरिक सुख-सुविधाओं वाला और कष्टरहित परिवेश चुनते हो। यह दिक्कत की बात है! तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर सकते। तुम परमेश्वर के मार्गदर्शन, परमेश्वर की अगुआई और परमेश्वर की सुरक्षा का अनुभव नहीं कर सकते। तुम परमेश्वर के कर्मों को नहीं देख सकते। लिहाजा तुम न तो सत्य और न सच्चा भरोसा हासिल कर पाओगे—तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा! अगर तुम सत्य हासिल नहीं कर सकते और तुम परमेश्वर के वचन हासिल कर इन्हें अपना जीवन नहीं बना सकते, तो क्या तुम्हें परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया जा सकता है? बिल्कुल नहीं। तुम परमेश्वर से प्रबोधन, मार्गदर्शन और पूर्णता पाकर कौन-सी मुख्य चीज हासिल करना चाहते हो? तुम सत्य और परमेश्वर के वचन प्राप्त करते हो। यानी परमेश्वर के वचन तुम्हारी वास्तविकता, तुम्हारे जीवन का स्रोत और तुम्हारे कार्यों का सिद्धांत, आधार और मानदंड बन जाते हैं। जब यह मामला होता है तो तुम किस चीज को जीते हो? क्या अब भी भ्रष्ट स्वभाव को जीते हो? (नहीं।) क्या परमेश्वर तुमसे कहेगा, “शैतान, मेरे सामने से दूर हो”? (वह नहीं कहेगा।) परमेश्वर क्या कहेगा? परमेश्वर ने अय्यूब के लिए कौन-सी परिभाषा दी थी? (वह परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है, वह पूर्ण व्यक्ति है।) यहाँ इन शब्दों को दोहराना उचित है। अगर तुम अय्यूब को परमेश्वर से मिली यह उपाधि और परिभाषा पाना चाहते हो, तो क्या यह आसान है? (नहीं।) यह आसान नहीं है। तुम्हें हर चीज में परमेश्वर के दिल को संतुष्ट करना पड़ेगा, हर जगह परमेश्वर के इरादे खोजने होंगे, परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य करना पड़ेगा, और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना होगा। अगर तुम सिर्फ यह कहते हो कि तुम परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्था के प्रति समर्पण करोगे, लेकिन फिर यह विश्लेषण करने बैठ जाते हो कि ऐसी विशेष परिस्थितियाँ, लोग, घटनाएँ और चीजें तुम पर क्यों आन पड़ती हैं, तुम्हें शिकायतें और गलतफहमियाँ होने लगती हैं, और तुम परमेश्वर के इरादों का गलत अर्थ निकालने लगते हो, तो यह परमेश्वर के लिए बहुत दुखदायी होगा! अगर तुम परमेश्वर को नहीं चाहते हो तो परमेश्वर भी तुम्हें नहीं चाहेगा। तुम्हारा एक-दूसरे से कोई वास्ता नहीं रहेगा। अगर चीजें इसी तरह चलती रहीं तो क्या दिक्कत नहीं हो जाएगी? चूँकि तुम परमेश्वर के सृजित प्राणी नहीं बनना चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हारा संप्रभु नहीं होगा, न ही तुम्हारा परमेश्वर है। अंत में परमेश्वर तुम्हें कैसे परिभाषित करेगा? “हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।” क्या तुम लोग चाहते हो कि तुम्हारे लिए ये शब्द कहे जाएँ? (नहीं।) अगर यह बात तुम लोगों के लिए कही जाए तो इसका क्या अर्थ है? (इसका यह अर्थ है कि परमेश्वर ने हमारी निंदा कर हमें हटाया और दंडित किया है।) यह बिल्कुल भी अच्छा नहीं है! एक बार परमेश्वर तुम्हारी निंदा कर तुम्हें हटा दे तो यह किसी अगुआ या अधिकारी द्वारा निंदा करने जैसा नहीं है—यह परमेश्वर है! परमेश्वर तुम्हें जीवन प्रदान करता है और तुम्हारे जीवन का पालनहार है। अब जबकि परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता तो क्या तुम जीवित रह सकते हो? (नहीं।) इसका क्या अर्थ है? यह तुम्हारा अंतिम नतीजा बताता है, जो अच्छी बात नहीं है। यह बिल्कुल भी शुभ संकेत नहीं है। अगर मैं यह कहूँ कि कोई व्यक्ति परमेश्वर का भय मानता है, बुराई से दूर रहता है और पूर्ण व्यक्ति है, तो यह एक शुभ संकेत है, और ऐसे व्यक्ति को निश्चित रूप से परमेश्वर का आशीष मिलेगा। परमेश्वर ने अय्यूब का मूल्यांकन जिन वचनों से किया था, तुम लोग उनसे कैसे पेश आओगे? अगर तुम यह सोचते हो कि अय्यूब क्या खाता था, क्या पहनता था, कैसे चलता था और उसका स्वभाव कैसा था और इन चीजों की नकल करने की कोशिश करते हो तो तुम गलत कर रहे हो। तुम्हें फौरन विचार कर यह पता लगाना होगा, “अय्यूब ने यह कैसे किया? परमेश्वर की स्वीकृति पाने के लिए उसने किन आदर्शों को जिया? परमेश्वर ने कहा कि अय्यूब उसका भय मानता था और बुराई से दूर रहता था, वह एक पूर्ण व्यक्ति था। यह कोई छोटी बात नहीं है। ऐसा खुद परमेश्वर ने कहा। मुझे अय्यूब की मिसाल का अनुसरण करना होगा, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का उपाय खोजना होगा, और ऐसा इंसान बनने का जतन करना होगा जो परमेश्वर का भय मानने के साथ बुराई से भी दूर रहता हो। ऐसा करने पर परमेश्वर मुझे स्वीकृति देगा और मुझे भी इस उपाधि से पुकारेगा। मैं परमेश्वर की नजरों में पूर्ण व्यक्ति बनना चाहता हूँ।” यह सोच परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है।

30 दिसंबर 2016

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