केवल सच्चे समर्पण के साथ ही व्यक्ति असली भरोसा रख सकता है (भाग दो)

आओ एक ऐसे मामले के बारे में संगति करें जो मानवीय धारणाओं के सर्वाधिक प्रतिकूल है। मूसा चालीस बरस जंगल में रहा। चालीस बरस किसी व्यक्ति के जीवन का अधिकांश होता है। अगर कोई व्यक्ति अस्सी साल जीता है तो चालीस साल उसकी आधी जिंदगी हुई। रहने के लिए जंगल किस प्रकार का परिवेश है? जंगल रहने के लिए अत्यंत बुरी जगह तो थी ही जिसमें मूसा को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन उससे भी बड़ी समस्या यह थी कि इन चालीस बरसों में उसका इस्राएलियों के साथ कोई संपर्क नहीं रहा, और परमेश्वर भी उसके सामने प्रकट नहीं हुआ। परमेश्वर ने मूसा का शोधन करने के लिए इस माहौल की व्यवस्था की। क्या यह मानवीय धारणाओं से मेल खाता है? अगर लोगों में सच्ची आस्था न हो तो यह आम तौर पर कैसे दिखाई देगी? पहले दो साल तक उनके दिल में थोड़ी शक्ति बची रहेगी और वे सोचेंगे, “परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है, लेकिन मैं नहीं डरता। मेरे पास परमेश्वर है! जब तक परमेश्वर मुझे मरने नहीं देगा, तब तक मैं आखिरी साँस तक जीऊँगा। मैं परमेश्वर के भरोसे जीता हूँ। मेरे पास भरोसा है। मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए!” उनके पास इतना संकल्प होता है क्योंकि उनके पास अभी भी भेड़ों का साथ है। लेकिन कुछ साल बीतने के बाद भेड़ें कम होने लगती हैं और दिन भर सनसनाती हवा चलती रहती है। रात के सन्नाटे में लोगों को तनहाई सताती है। अपने दिल की बात साझा करने के लिए उनके पास कोई नहीं होता। जब वे आसमान को ताकते हैं तो उन्हें बस चाँद-सितारे दिखते हैं। बरसात और बादलों वाली रातों में जब चाँद भी नहीं दिखता तो वे और भी तन्हा महसूस करते हैं। अनजाने में ही उनका भरोसा धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगता है। जब उनका भरोसा ठंडा पड़ चुका होता है तो शिकायतों और गलतफहमियों से भरा दिल सामने आ जाता है। ठीक उसके बाद, उनकी आंतरिक दशा अधिकाधिक हताशा भरी होती जाती है और उनका जीवन धीरे-धीरे निरर्थक होने लगता है। उन्हें निरंतर लगता है कि परमेश्वर उनका ख्याल नहीं रख रहा है और उन्हें त्याग चुका है। वे परमेश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा देते हैं और उनका भरोसा निरंतर कम होता जाता है। अगर तुममें सच्ची आस्था न हो तो तुम समय या परिवेश की परीक्षा में टिक नहीं पाओगे। अगर तुम परमेश्वर की परीक्षा में टिक नहीं सकते तो परमेश्वर न तो तुमसे बात करेगा, न ही तुम्हें दिखाई देगा। परमेश्वर यह देखना चाहता है कि क्या तुम उसके अस्तित्व पर विश्वास करते हो या नहीं, क्या तुम उसका अस्तित्व स्वीकारते हो या नहीं, और क्या तुम्हारे दिल में सच्ची आस्था है या नहीं। परमेश्वर इसी तरह लोगों के दिल की गहराइयों में पड़ताल करता है। क्या धरती और स्वर्ग के बीच रहने वाले लोग परमेश्वर के हाथों में हैं? वे सब परमेश्वर के हाथों में हैं। यह बिल्कुल ऐसा ही है। तुम चाहे जंगल में रहो या चाँद पर, तुम परमेश्वर के हाथों में रहते हो। बिल्कुल ऐसा ही है। अगर परमेश्वर तुम्हारे सामने प्रकट नहीं हुआ तो तुम परमेश्वर के अस्तित्व और संप्रभुता का कैसे अनुभव कर सकते हो? “परमेश्वर का अस्तित्व है और वह सभी चीजों का संप्रभु है,” इस सत्य को अपने दिल में कैसे जड़ें जमाने दोगे ताकि यह कभी न मिटे? तुम इस कथन को अपना जीवन कैसे बना सकते हो, इसे अपने जीवन को चलाने वाली ताकत, और वह भरोसा और शक्ति कैसे बनाओगे जो तुम्हें जिंदा रखती है? (प्रार्थना से।) यह व्यावहारिक है। यही अभ्यास का मार्ग है। जब तुम्हारा सबसे कठिन दौर चल रहा हो, जब तुम परमेश्वर को सबसे कम महसूस कर पाते हो, जब तुम सर्वाधिक कष्ट में और अकेले होते हो, जब तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर से दूर हो, तो वह इकलौती चीज क्या है जो तुम्हें सबसे पहले करनी चाहिए? परमेश्वर को पुकारना। परमेश्वर को पुकारने से तुम्हें शक्ति मिलती है। परमेश्वर को पुकारने से तुम्हें उसका अस्तित्व महसूस होता है। परमेश्वर को पुकारने से तुम्हें उसकी संप्रभुता महसूस होती है। जब तुम परमेश्वर को पुकारते हो, परमेश्वर से प्रार्थना करते हो और अपना जीवन उसके हाथों में सौंपते हो तो तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर तुम्हारे बगल में है और उसने तुम्हें छोड़ा नहीं है। जब तुम्हें लगेगा कि परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ा नहीं है, जब तुम वास्तव में महसूस करोगे कि वह तुम्हारे बगल में है तो क्या तुम्हारा भरोसा बढ़ेगा? अगर तुम सच्चा भरोसा रखते हो तो क्या यह समय के साथ नष्ट होकर मिट पाएगा? बिल्कुल भी नहीं। क्या भरोसे की समस्या का अब समाधान हो चुका है? क्या लोग महज बाइबल लेकर चलने और इसके पदों का प्रत्येक शब्द रटकर सच्चा भरोसा पा सकते हैं? यह समस्या सुलझाने के लिए तुम्हें अब भी परमेश्वर से प्रार्थना करनी होगी और उस पर भरोसा करना होगा। मूसा ने जंगल में वे चालीस बरस कैसे बिताए? उस समय बाइबल नहीं थी, उसके इर्द-गिर्द लोग भी बहुत थोड़े थे। उसके पास कुछ था तो सिर्फ भेड़ें। बेशक मूसा की अगुआई परमेश्वर ने की। भले ही बाइबल में यह नहीं लिखा है कि परमेश्वर ने उसकी अगुआई कैसे की, परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ या नहीं, परमेश्वर ने उससे बात की या नहीं की, या क्या परमेश्वर ने मूसा को यह समझने दिया या नहीं कि उसने उससे चालीस साल तक जंगल में जीवन व्यतीत करवाया, फिर भी यह एक अकाट्य तथ्य है कि मूसा जंगल में चालीस साल रहकर भी जिंदा रहा। इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता। अपने दिल की बात सुनाने के लिए आसपास कोई न होने के बावजूद वह जंगल में चालीस साल कैसे बचा रह पाया? सच्ची आस्था के बिना किसी के लिए भी यह असंभव होता—यह चमत्कार था! इस मामले में लोग चाहे जो सोचें, उन्हें लगता है कि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता था। यह मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से बिल्कुल मेल नहीं खाता! लेकिन यह कोई दंतकथा नहीं है, न फंतासी कथा है, यह वास्तविक, अपरिवर्तनीय और अकाट्य तथ्य है। इस तथ्य की मौजूदगी लोगों को क्या दिखाती है? अगर तुम्हारी परमेश्वर पर सच्ची आस्था है तो जब तक एक भी साँस बची है, परमेश्वर तुम्हें त्यागेगा नहीं। यह परमेश्वर के अस्तित्व का एक तथ्य है। अगर तुम्हारे पास ऐसा सच्चा भरोसा और परमेश्वर के बारे में ऐसी सच्ची समझ है, तो फिर तुम्हारा भरोसा काफी ज्यादा है। तुम खुद को चाहे जिस माहौल में पाओ, और तुम इस माहौल में चाहे जितनी देर रहो, तुम्हारा भरोसा नहीं मिटेगा।

मूसा चालीस साल जंगल में रहा। परमेश्वर न कभी उसके सामने प्रकट हुआ, न उसने उसे सत्य प्रदान किया। मूसा के हाथ में परमेश्वर के वचनों की कोई किताब भी नहीं थी, उसके पास परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कोई नहीं था, न ही ऐसा कोई था जिसे अपने दिल की बात सुना पाता। जंगल में अकेले रहते हुए वह केवल परमेश्वर से प्रार्थना के सहारे जी सकता था। आखिरकार, इससे मूसा ने सच्चा भरोसा पा लिया। तो परमेश्वर ने ऐसा क्यों किया? परमेश्वर ने मूसा को एक आदेश सौंपना था, उसका श्रेष्ठ उपयोग करना था, और परमेश्वर को उस पर कार्य करना था, इसलिए उसने उसे खूब तपाया। परमेश्वर ने मूसा में क्या तपाया? (उसका भरोसा।) परमेश्वर उसके भरोसे को तपाना नहीं, पूर्ण बनाना चाहता था। परमेश्वर इंसान के नेक इरादों को तपाना चाहता है, और उन चीजों को तपाना चाहता है जिन्हें इंसान की दृढ़ता, उसकी खूबियाँ और कौशल, और उसकी उग्रता कहा जाता है। मूसा ने उस समय मिस्र क्यों छोड़ा? (क्योंकि उसने उग्रता के कारण एक मिस्रवासी को मार डाला था।) तो क्या उस समय परमेश्वर उसका इस्तेमाल कर सकता था? (नहीं।) अगर तब परमेश्वर उसे इस्तेमाल करता तो क्या होता? वह मिस्रवासियों से नफरत करता था और हमेशा आवेश में आकर कार्य करना चाहता था। अगर वह एक और व्यक्ति को मार डालता तो क्या इससे दिक्कतें खड़ी नहीं हो जातीं? अगर परमेश्वर उसे इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले जाने को कहता, और फिरौन के सहमत न होने पर मूसा आवेश में आकर कार्य करता तो क्या इससे मुसीबत खड़ी नहीं हो जाती? परमेश्वर कहता, “क्या इस तरह पेश आकर तुम परमेश्वर की नुमाइंदगी कर सकते हो?” इसलिए, उसकी उग्रता के कारण परमेश्वर उसका उपयोग न कर सका। उग्रता मनुष्यों के लिए बिल्कुल निषेध है। अगर तुम उग्र हो, अगर तुम चीजों को हमेशा अपनी स्वाभाविकता और अपने आवेग के आधार पर करना चाहते हो, और अगर समस्याओं को हमेशा मानवीय तरीकों से हल करना चाहते हो; अगर तुम परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं रखते और ऐसी सच्ची आस्था के कारण तुम उस पर निर्भर नहीं रहते और उसकी संप्रभुता पर विश्वास नहीं करते तो परमेश्वर तुम्हारा उपयोग नहीं कर सकेगा। अगर परमेश्वर तुम्हारा उपयोग करने का प्रयास करे तो तुम कुछ हासिल करना तो दूर रहा, चीजों को वास्तव में बिगाड़ दोगे। इसलिए मिस्रवासी को मार डालने के बाद मूसा जंगल में भाग गया। परमेश्वर ने जंगल के परिवेश का उपयोग उसकी इच्छा, उग्रता, उसके नेक इरादों, उत्साह और आवेग के साथ ही उस पौरुष को तपाने के लिए किया जिसके चलते उसने अपने लोगों के हितों की रक्षा की और नाइंसाफी से लड़ा था। ये सारी चीजें मानवीय इच्छा, उग्रता और स्वाभाविकता की हैं। परमेश्वर ने उसका साथ देने के लिए चंद इस्राएलियों की व्यवस्था क्यों नहीं की? अगर उसके साथ एक और व्यक्ति होता तो शायद वह परमेश्वर पर नहीं, बल्कि दूसरे व्यक्ति पर भरोसा करता। ऐसे माहौल में शोधन से मूसा अंततः कैसा व्यक्ति बना? वह परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उस पर सच्चा भरोसा कर सका। इससे पता चलता है कि उसकी स्वाभाविक उग्रता खत्म हो गई थी। जब वह जंगल से बाहर आया तो क्या उसमें अब भी उग्रता और पौरुष था? (नहीं।) यह किससे दिखा? (मूसा ने कहा कि वह अब अच्छा वक्ता नहीं रहा।) वह फिर कभी वाक्पटु ढंग से बोल नहीं सका, तो क्या उसके पास अभी भी अपने इरादे और आवेग थे? (नहीं।) इस तरह से देखें तो जब परमेश्वर किसी व्यक्ति को पूर्ण बनाना चाहता है, परमेश्वर पर किसी व्यक्ति के भरोसे को पूर्ण बनाना चाहता है, भले ही वह इस व्यक्ति का उपयोग करे या न करे, परमेश्वर सत्य और परमेश्वर के इरादों के प्रति इस व्यक्ति की समझ को पूर्ण बनाएगा और इस व्यक्ति को ऐसा बनाएगा कि वह बिना किसी मिलावट के, अर्थात मानवीय पौरुष, आवेग, महत्वाकांक्षा और जुनून के बिना, उग्रता, और मानवीय नेक इरादों और उत्साह के बिना—इन तथाकथित विश्वासों के बिना वास्तव में और पूरी तरह परमेश्वर के प्रति समर्पण करे। हर कोई मानवीय इच्छा से उपजने वाली इन चीजों की प्रशंसा और अनुसरण करता है, ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें सापेक्षिक ढंग से लोग दिल से अच्छा और सकारात्मक कहते हैं। ये ऐसी चीजें हैं जिनके अनुसार हर कोई जीना चाहता है। ये लोगों के विश्वास हैं। जब लोगों के पास ये चीजें नहीं होती तो वे सच्चे ढंग से परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं और उनकी कथनी-करनी का आधार मानवीय कल्पनाएँ और मानवीय अच्छाई नहीं होंगी। जब लोग फिर से परमेश्वर के सामने आएँगे तो उनमें परमेश्वर में सच्ची आस्था के और अधिक तत्व होंगे। सच्ची आस्था के तत्व क्या होते हैं? क्या वे अब भी परमेश्वर को यह कहकर सलाह देंगे, “परमेश्वर, तुम जो चीजें करते हो वे मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाती हैं, और लोगों को तुम्हारे कार्यकलाप स्वीकारने में मुश्किल होती है। तुम्हें इन्हें फलाँ-फलाँ तरीके से करने की जरूरत है,” और “परमेश्वर, तुमने जो कहा वह सही नहीं लगता। तुम्हारा लहजा खराब है, दृष्टिकोण गलत है, और तुम जो शब्द इस्तेमाल करते हो वे गलत हैं”? उनकी ये चीजें मिट चुकी हैं और वे आइंदा परमेश्वर को सलाह नहीं देंगे। वे सच्चे ढंग से परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, विवेकवान होने और परमेश्वर के प्रति भय रखने में सक्षम होंगे। चालीस बरस तक जंगल में तपने के बाद मूसा को वास्तव में परमेश्वर के अस्तित्व का एहसास हुआ। जिस माहौल में किसी अकेले इंसान के लिए जीवित रहना भी असंभव था, उसमें वह हर दिन जीवित रहने और साल-दर-साल उम्मीद कायम रखने के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहा, और अंत तक जीवित रहा। उसने सचमुच परमेश्वर को देखा। यह न कोई संयोग था, न कोई किंवदंती थी। इसमें कुछ भी आकस्मिक या अचानक नहीं था। यह सब सच था। उसने परमेश्वर का वास्तविक अस्तित्व देखा और यह भी देखा कि सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता हकीकत है। एक बार जब लोगों में परमेश्वर का कार्य ऐसा प्रभाव जमा लेगा तो उनके हृदय बदल जाएँगे। उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ मिट जाएँगी और उन्हें लगेगा कि वे स्वयं कुछ नहीं हैं और वे परमेश्वर के बिना कुछ नहीं कर सकते। नतीजतन, वे चीजों को अपने ही तरीके से करने पर अड़े रहना नहीं चाहेंगे। क्या इस समय लोग ऐसी बातें कहेंगे “प्रभु, तेरे साथ ऐसा कभी न होगा”? (नहीं कहेंगे।) हम कह सकते हैं कि इस समय लोग परमेश्वर को रोकने के लिए मानवीय धारणाओं के आधार पर बात नहीं करेंगे, न ही वे मानवीय इच्छा से या जैसा ठीक समझते हैं वैसे कार्य करने पर अड़े रहेंगे। इस समय लोग किस आधार पर जीते हैं? वे क्या जीते हैं? व्यक्तिपरक रूप से वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकते हैं। वस्तुनिष्ठ रूप से वे स्वाभाविक ढंग से चीजों को होने दे सकते हैं, वे प्रतीक्षा कर परमेश्वर के इरादे खोज सकते हैं, और परमेश्वर उनसे जो कुछ भी करने को कहता है, उसमें निजी पसंद-नापसंद के बिना उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं।

अतीत में जब परमेश्वर ने मूसा को इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले जाने के लिए भेजा तो परमेश्वर द्वारा उसे ऐसा आदेश दिए जाने पर मूसा की क्या प्रतिक्रिया थी? (उसने कहा कि वह बोलने में निपुण नहीं है, बल्कि मुँह और जीभ का भद्दा है।) उसे यह एक, थोड़ा-सा संदेह था कि वह बोलने में निपुण नहीं, बल्कि मुँह और जीभ का भद्दा है। लेकिन क्या उसने परमेश्वर के आदेश का प्रतिरोध किया? उसने इसे कैसे लिया? वह जमीन पर लेटकर दंडवत हो गया। जमीन पर लेटकर दंडवत होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है समर्पित होकर स्वीकार करना। वह अपनी निजी प्राथमिकताओं की परवाह किए बिना परमेश्वर के सामने पूरा दंडवत हो गया, और उसने अपनी किसी भी संभावित कठिनाई का उल्लेख नहीं किया। परमेश्वर जो कुछ भी उससे कराए, वह उसे तुरंत करने के लिए तैयार था। यह महसूस करने के बाद भी कि वह कुछ नहीं कर सकता, वह परमेश्वर का आदेश स्वीकारने में सक्षम क्यों था? क्योंकि उसमें सच्चा भरोसा था। उसे सभी चीजों और घटनाओं पर परमेश्वर की संप्रभुता का कुछ अनुभव था और जंगल में अपने चालीस वर्षों के अनुभव में उसने जान लिया था कि परमेश्वर की संप्रभुता सर्वशक्तिमान है। इसलिए उसने परमेश्वर का आदेश पूरी तत्परता से स्वीकार लिया, और परमेश्वर ने उसे जो आदेश दिया था, उसे पूरा करने के लिए बिना कुछ बोले निकल पड़ा। इसका क्या अर्थ है कि वह निकल पड़ा? इसका अर्थ है कि वह परमेश्वर पर सच्चा भरोसा करता था, उस पर सच्ची निर्भरता थी और उसके प्रति सच्चा समर्पण करता था। वह कायर नहीं था, और उसने अपनी पसंद नहीं चुनी या मना करने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय उसे पूरा विश्वास था, और भरोसे से ओतप्रोत होकर वह परमेश्वर का आदेश कार्यान्वित करने निकल पड़ा। वह यह मानता था, “अगर परमेश्वर ने यह आदेश दिया है, तो यह सब परमेश्वर के कहे अनुसार किया जाएगा। परमेश्वर ने मुझे इस्राएलियों को मिस्र से बाहर लाने को कहा है, इसलिए मैं जाऊँगा। चूँकि यह आदेश परमेश्वर ने दिया है, इसलिए वही काम कराएगा, और वही मुझे शक्ति देगा। मुझे सिर्फ सहयोग करने की जरूरत है।” यही अंतर्दृष्टि मूसा के पास थी। आध्यात्मिक समझ की कमी वाले लोग सोचते हैं कि परमेश्वर के सौंपे हुए कार्य वे अपने दम पर कर सकते हैं। क्या लोगों में ऐसी क्षमताएँ होती हैं? बिल्कुल नहीं। अगर लोग कायर होंगे तो वे मिस्र के फिरौन से मिलने का साहस तक नहीं करेंगे। वे मन ही मन में कहेंगे : “मिस्र का फिरौन शैतान राजा है। उसके पास फौज है और वह एक आदेश पर मुझे मरवा सकता है। मैं इतने सारे इस्राएलियों की अगुआई कर कैसे ले जा सकता हूँ? क्या मिस्र का फिरौन मेरी सुनेगा?” इन शब्दों में इनकार, प्रतिरोध और विद्रोह है। ये परमेश्वर में कोई विश्वास प्रकट नहीं करते, और यह असली भरोसा नहीं है। उस दौर के हालात इस्राएलियों या मूसा के लिए अनुकूल नहीं थे। मनुष्य के दृष्टिकोण से इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले जाना असंभव काम था, क्योंकि मिस्र की सीमा पर लाल सागर था, जिसे पार करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। क्या मूसा को सचमुच पता नहीं होगा कि इस आदेश को पूरा करना कितना कठिन है? वह दिल ही दिल में ये जानता था, फिर भी उसने केवल यही कहा कि वह बोलने-चालने में धीमा है और कोई भी उसकी बातों पर ध्यान नहीं देगा। उसने परमेश्वर का आदेश दिल से खारिज नहीं किया। परमेश्वर ने जब इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले जाने को कहा तो मूसा ने दंडवत होकर इसे स्वीकार कर लिया। उसने मुश्किलों का जिक्र क्यों नहीं किया? क्या ऐसा था कि चालीस साल जंगल में बिताने के बाद वह यह नहीं जानता था कि इंसानों की दुनिया के खतरे क्या हैं या मिस्र में चीजें किस स्थिति में पहुँच चुकी हैं या इस्राएलियों की वर्तमान दुर्दशा क्या है? क्या वह इन चीजों को साफ तौर पर नहीं देख पा रहा था? क्या यही हो रहा था? बिल्कुल भी नहीं। मूसा होशियार और बुद्धिमान था। वह ये सारी चीजें जानता था, इंसानों की दुनिया में इन्हें खुद भुगतकर अनुभव लेने के बाद वह इन्हें कभी नहीं भुला सकता था। वह उन चीजों को बखूबी जानता था। तो क्या वह जानता था कि परमेश्वर ने उसे जो आदेश दिया है, वह कितना कठिन है? (हाँ।) अगर वह जानता था तो वह उस आदेश को कैसे स्वीकार कर सका? उसे परमेश्वर पर भरोसा था। अपने जीवन भर के अनुभव से वह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास करता था, इसलिए उसने परमेश्वर के इस आदेश को जरा-भी संदेह किए बिना पूरे भरोसे के साथ स्वीकार लिया। उसके क्या-क्या अनुभव थे? जरा बताओ। (उसका यह अनुभव था कि हर बार जब भी उसने परमेश्वर को पुकारा और जब भी वह परमेश्वर के निकट आया तो परमेश्वर ने उसकी अगुआई कर मार्गदर्शन किया। मूसा ने देखा कि परमेश्वर कभी भी अपने वचनों से नहीं मुकरा, और उसे परमेश्वर पर सच्चा भरोसा था।) यह एक पहलू रहा। और कुछ? (जंगल में चालीस साल के दौरान मूसा ने परमेश्वर को पुकारकर और प्रार्थना करके वास्तव में उसकी संप्रभुता को देख लिया था। वह जीवित रहा और सब कुछ झेल पाया, और उसे परमेश्वर की संप्रभुता में सच्ची आस्था थी।) और कुछ? (परमेश्वर पहले ही मूसा पर बहुत कार्य कर चुका था। मूसा कुछ-कुछ जानता था कि परमेश्वर ने स्वर्ग, धरती और सभी चीजों को कैसे बनाया, परमेश्वर ने किस तरह नूह के समय दुनिया को नष्ट करने के लिए बाढ़ का इस्तेमाल किया, और वह अब्राहम और ऐसी अन्य चीजों के बारे में कुछ-कुछ जानता था। उसने ये बातें पेंटाटेच यानी पंचग्रंथ में लिखीं, जिससे साबित होता है कि परमेश्वर के इन सभी कर्मों में उसे अंतर्दृष्टि मिली और वह जानता था कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। इसलिए वह मानता था कि चूँकि परमेश्वर उसकी अगुआई करेगा, इसलिए उसका बीड़ा निश्चित रूप से सफल होगा। वह परमेश्वर के कर्म देखना चाहता था, यह देखना चाहता था कि परमेश्वर उसके जरिए क्या साधेगा और किस तरह उसकी मदद और मार्गदर्शन करेगा। उसे यही भरोसा था।) यही बात थी। मुझे बताओ, जंगल में बिताए चालीस वर्षों में, क्या मूसा यह अनुभव करने में सक्षम था कि परमेश्वर के लिए कुछ भी कठिन नहीं है, कि मनुष्य परमेश्वर के हाथ में है? हाँ, बिल्कुल सक्षम था—यह उसका सबसे सच्चा अनुभव था। जंगल में बिताए चालीस वर्षों में, ऐसी बहुत-सी चीजें थीं जिनसे उसकी जान को खतरा था, और उसे नहीं पता था कि वह उनसे बच पाएगा या नहीं। वह रोज अपने जीवन के लिए संघर्ष और सुरक्षा के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करता था। यही उसकी एकमात्र इच्छा थी। उन चालीस वर्षों में जिस चीज का उसने सबसे गहराई से अनुभव किया, वह थी परमेश्वर की संप्रभुता और सुरक्षा। बाद में, जब वह परमेश्वर का आदेश स्वीकार रहा था, तब उसकी पहली भावना यही रही होगी : “परमेश्वर के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। अगर परमेश्वर कहता है कि यह हो सकता है, तो यह निश्चित रूप से हो सकता है। चूँकि परमेश्वर ने मुझे ऐसा आदेश दिया है, इसलिए वह निश्चित करेगा कि यह पूरा हो—इसे वही करेगा, कोई मनुष्य नहीं।” कार्य करने से पहले लोगों के लिए योजना बनाना और पहले से तैयारी करना जरूरी है। उन्हें पहले प्रारंभिक तैयारियाँ करनी चाहिए। क्या परमेश्वर के लिए भी कार्य करने से पहले ये चीजें करनी जरूरी हैं? उसे ऐसी कोई जरूरत नहीं है। प्रत्येक सृजित प्राणी, चाहे वह कितना भी प्रभावशाली, कितना भी सक्षम या सामर्थ्यवान क्यों न हो, चाहे वह कितना भी उन्मत्त क्यों न हो, वह परमेश्वर के हाथ में है। मूसा को यह भरोसा, ज्ञान और अनुभव था, इसलिए उसके हृदय में तनिक भी संदेह या भय नहीं था। इसलिए, परमेश्वर में उसका भरोसा विशेष रूप से असली और शुद्ध था। कहा जा सकता है कि वह भरोसे से भरा हुआ था।

अभी-अभी मैंने इस बारे में बात की कि सच्ची आस्था क्या होती है। बताओ जरा, आखिरकार परमेश्वर लोगों से विश्वास चाहता है या सच्ची आस्था? (वह लोगों की सच्ची आस्था चाहता है।) परमेश्वर जो चाहता है वह है लोगों की सच्ची आस्था। सच्ची आस्था क्या होती है? सबसे सरल और सीधे शब्दों में कहें तो यह परमेश्वर पर लोगों का सच्चा भरोसा है। सच्चा भरोसा व्यवहार में कैसा दिखता है? लोगों की असल जिंदगी के सारे कार्यकलापों से इसका क्या वास्ता है? (लोग मानते हैं कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है और इन्हें नियत करता है। वे उन सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास करते हैं जिनका वे सामना करते हैं और मानते हैं कि परमेश्वर के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है।) (लोग मानते हैं कि परमेश्वर का कहा एक-एक वचन घटित होकर रहेगा।) इस पर और आगे सोचो। और कैसे असली भरोसा दिखता है? (मूसा का भरोसा साधारण विश्वासियों से अलग है। जब उसने उत्पत्ति ग्रंथ लिखा तो वह मानता था कि परमेश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजें अपने वचनों से बनाई थीं, वह मानता था कि स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजें परमेश्वर के वचनों के जरिए साकार हुईं, वह मानता था कि जो कुछ भी परमेश्वर कहता है वह अस्तित्व में आता है और जो भी परमेश्वर आज्ञा देता है वह अटल रहता है, और वह मानता था कि परमेश्वर के सभी वचन घटित होकर रहेंगे और पूरे होंगे। इस लिहाज से उसे परमेश्वर पर सच्चा भरोसा था। वह इस तथ्य पर महज विश्वास नहीं करता था कि परमेश्वर सचमुच है। वह मानता था कि स्वर्ग, धरती और सभी चीजें परमेश्वर की बनाई हुई हैं। अपने दिल से वह पूरी तरह मानता था कि परमेश्वर के वचनों ने सब कुछ साकार किया है, और वह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास करता था। अगर वह परमेश्वर पर ऐसा भरोसा न करता तो उत्पत्ति ग्रंथ कभी न लिख पाता। ये वचन भी पवित्र आत्मा ने प्रेरित या प्रकट किए थे, और वह स्पष्ट रूप से इसे देख सका।) जरा बताओ, क्या परमेश्वर का वास्तविक अस्तित्व इसलिए तथ्य है क्योंकि लोग ऐसा मानते हैं? (नहीं।) परमेश्वर का वास्तविक अस्तित्व किस प्रकार का तथ्य है? (चाहे लोग मानें या न मानें, परमेश्वर का अस्तित्व है, और परमेश्वर स्वयं-सिद्ध और शाश्वत है।) कम से कम परमेश्वर पर भरोसे का आधार यह तो होना ही चाहिए : परमेश्वर का अस्तित्व तुम्हारी मौखिक स्वीकृति के कारण नहीं है, न तुम्हारी स्वीकृति के बिना उसका अस्तित्व मिट जाएगा। बल्कि, तुम उस पर विश्वास करो या न करो, या उसे स्वीकार करो या न करो, परमेश्वर का अस्तित्व है। परमेश्वर शाश्वत सृष्टिकर्ता और सारी चीजों का शाश्वत संप्रभु है। लोगों को यह समझ लेना क्यों जरूरी है? इससे लोगों में क्या बदलाव आ सकता है? कुछ लोग कहते हैं, “अगर हम तुझ पर विश्वास करें तो तू परमेश्वर है, लेकिन अगर हम तुझ पर विश्वास न करें तो तू परमेश्वर नहीं है।” ये कैसे शब्द हैं? ये विद्रोही और भ्रामक शब्द हैं। परमेश्वर कहता है : “अगर तुम मुझ पर विश्वास न करो तो मैं तब भी परमेश्वर ही हूँ और मैं तब भी तुम्हारी नियति का संप्रभु हूँ। तुम इसे बदल नहीं सकते।” यह ऐसा तथ्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता। कोई नास्तिक व्यक्ति परमेश्वर को चाहे जितना नकारे या उसका प्रतिरोध करे, उसका भाग्य तब भी परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन रहेगा, और वह परमेश्वर के दंड से बच नहीं सकता। अगर तुम परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को पूरी तरह स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण करो और परमेश्वर के व्यक्त किए हुए सभी सत्य स्वीकार करो तो परमेश्वर के वचन तुम्हारे जीने का तरीका बदल सकते हैं, तुम्हारे जीवन लक्ष्य और तुम्हारी खोज की दिशा बदल सकते हैं, तुम जो मार्ग चुनते हो उसे बदल सकते हैं, और तुम्हारे जीवन के मायने बदल सकते हैं। कुछ लोग अपने मुँह से कहते हैं कि वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं और परमेश्वर सभी चीजों का और जो भी चीज अस्तित्व में है, उसका संप्रभु है, लेकिन वे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं हो पाते और वे यह नहीं समझ पाते कि परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग व्यवस्थाएँ करता है। ये लोग हमेशा अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के पीछे भागना चाहते हैं और हमेशा बड़े काम करना चाहते हैं, लेकिन वे बार-बार नाकामियों का सामना करते हैं और अंततः हार और टूट कर वे लहूलुहान होकर रह जाते हैं। तब जाकर वे समर्पण करते हैं। अगर वे वास्तव में परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास करते तो क्या वे इस तरह कार्य करते? उनके लिए ऐसा करना असंभव होता। उन्हें किस तरह आगे बढ़ना चाहिए? उन्हें सबसे पहले परमेश्वर का इरादा समझना चाहिए। मानवजाति के उद्धार के अपने कार्य के तहत परमेश्वर लोगों को भ्रष्ट स्वभाव त्यागने और शैतान के प्रभाव से मुक्त होने, जीवन के सही मार्ग पर चलने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में मदद करता है। अगर लोग वास्तव में परमेश्वर का इरादा समझ लें तो वे सत्य के अनुसरण और परमेश्वर को समझने की खोज में परमेश्वर की अपेक्षाओं का पालन करेंगे, और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर लेंगे। सिर्फ इसी तरह से वे परमेश्वर के इरादे के अनुरूप हो सकते हैं। बहुत-से लोग परमेश्वर पर विश्वास तो करते हैं लेकिन उसके प्रति समर्पण नहीं कर पाते। वे हमेशा अपनी इच्छाओं का पीछा करते रहना चाहते हैं, लेकिन अंत में वे सब नाकाम हो जाते हैं। केवल तब जाकर वे अपने दिल की बात अपनी जुबान पर लाते हैं, “यह नियति है, और परमेश्वर ने जो नियत किया है उसे कोई नहीं बदल सकता!” इस समय जब वे फिर से कहते हैं, “मैं परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता हूँ और मानता हूँ कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है,” तो क्या ये शब्द उनके पहले कहे गए शब्दों से अलग हैं? वे पहले जिन सिद्धांतों की बात करते थे, उनकी तुलना में वे कहीं अधिक व्यावहारिक हैं। पहले वे सिर्फ मौखिक रूप से स्वीकारते और मानते थे कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है, लेकिन अपने साथ कुछ घटने पर वे परमेश्वर के प्रति समर्पण और परमेश्वर के वचनों के आधार पर सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते थे। वे मन ही मन सोचते थे कि वे अपनी आकाँक्षाओं को खुद ही साकार कर सकते हैं। इस तरह से वे मन ही मन परमेश्वर के जिन वचनों पर विश्वास करते थे और जो सिद्धांत उनकी जुबान पर थे, वे उनके कार्यों के सिद्धांत नहीं बन सके। यानी, उन्हें विश्वास नहीं था कि परमेश्वर के वचन पूरे सत्य हैं और सारी चीजें साध सकते हैं। उन्हें लगता था कि वे सत्य समझते हैं, लेकिन वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं हो सके, इसलिए वे सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत समझ सके, सत्य वास्तविकता को नहीं। उन्होंने अपने मुँह से यह तो कहा कि वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास करते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में वे परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाए। वे हमेशा अपने मार्गों पर चलते रहे, हमेशा अपनी इच्छाओं के पीछे भागना चाहते रहे और परमेश्वर की अपेक्षाओं का उल्लंघन करते रहे। क्या यह सच्चा समर्पण है? क्या यहाँ सच्चा विश्वास और सच्चा भरोसा है? (नहीं।) ऐसा कुछ भी नहीं है, जो बहुत ही दयनीय बात है! परमेश्वर पर सच्चे भरोसे की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? सच्चे भरोसे वाले लोग कम से कम यह विश्वास तो करते ही हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और वे घटित और साकार होंगे, और वे मानते हैं कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना ही जीवन का सही मार्ग है। अपने जीवन में वे परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर निर्भर रहते हैं, परमेश्वर के वचनों को अपने वास्तविक जीवन में उतारते हैं, हर चीज में परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हैं, ईमानदार बनने की कोशिश करते हैं, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को जीते हैं। वे परमेश्वर के अस्तित्व और उसकी संप्रभुता में विश्वास तो करते ही हैं, अपने असल जीवन में परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण का प्रयास भी करते हैं। अगर उनमें विद्रोह की भावना उठती है तो वे आत्मचिंतन कर सकते हैं, सत्य स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर का अनुशासन स्वीकार कर सकते हैं और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं। अगर तुम इस तरह से अभ्यास करते हो तो तुम जिस सत्य पर विश्वास करते और जिसे मानते हो वह तुम्हारी जीवन वास्तविकता बन जाएगा। यह सत्य तुम्हारे विचारों और तुम्हारे जीवन का मार्गदर्शन कर सकेगा और तुम्हारे पूरे जीवन को दिशा दे सकेगा। इस समय तुम परमेश्वर में सच्चा भरोसा पैदा कर सकोगे। जब तुम्हारे पास परमेश्वर में वास्तविक विश्वास और सच्चा समर्पण होता है, तो इससे असली भरोसा पैदा होता है। यह भरोसा परमेश्वर में सच्ची आस्था है। यह सच्ची आस्था कहाँ से आती है? यह परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने और इस प्रकार सत्य को समझने से आती है। लोग सत्य को जितना अधिक समझेंगे, उतना ही अधिक परमेश्वर पर उनका भरोसा बढ़ेगा, वे परमेश्वर के बारे में जितना अधिक जानेंगे, उतना ही अधिक वे सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण करेंगे। लोगों में सच्ची आस्था इसी तरह आती है।

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