परमेश्वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्य है (भाग एक)
इस समय ज्यादातर लोग अपने कर्तव्यों के निर्वहन में कोई बुराई किए बिना अपने कर्तव्यों में टिके हुए हैं, लेकिन क्या वे समर्पित हैं? क्या वे मानक स्तरीय ढंग से अपने कर्तव्य पूरे कर पा रहे हैं? वे अब भी मानक से बहुत पीछे हैं। लोग अपने कर्तव्य ठीक से निभा सकते हैं या नहीं, इसका वास्ता मानवता के मसले से है। तो वे अपने कर्तव्य ठीक से कैसे निभा सकते हैं? अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए उनके पास क्या होना जरूरी है? लोग चाहे जो भी कर्तव्य निभाएँ या जो भी करें, उन्हें बहुत ही सावधानी और गंभीरता बरतनी चाहिए और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए; केवल तभी उनके दिलों में स्थिरता और शांति रहेगी। अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है मेहनती होना, अपनी जिम्मेदारियों के प्रति पूरे मन से समर्पित होना और वे सारी चीजें करना जो तुम्हें करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो किसी कलीसिया अगुआ ने तुम्हें कोई कर्तव्य सौंपा और इसके सामान्य सिद्धांतों के बारे में तुम्हारे साथ संगति की, लेकिन ज्यादा विस्तार से कुछ नहीं बताया—तो इस कर्तव्य को अच्छे से निभाने के लिए तुम्हें किस प्रकार कार्य करना चाहिए? (अपने जमीर पर निर्भर रहकर।) इसे करने के लिए कम-से-कम तुम्हें अपने जमीर पर निर्भर रहना चाहिए। “अपने जमीर पर निर्भर रहना”—तुम इन वचनों को कैसे अमल में ला सकोगे? तुम इन वचनों को कैसे लागू करोगे? (परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचकर और कुछ भी ऐसा न करके जो परमेश्वर को शर्मिंदा करे।) एक पहलू यह है। इसके अलावा, जब तुम कुछ करो, तो तुम्हें इसके बारे में बार-बार विचार-विमर्श करना चाहिए और इसे सत्य सिद्धांतों की कसौटी पर कसना होगा। अगर इसे पूरा करने के बाद तुम्हारे मन को चैन न मिले और तुम्हें लगे जैसे कि इसमें अभी भी कोई समस्या है, और इसे जाँचने के बाद वाकई कोई समस्या नजर आए तो इस बिंदु पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इसे फौरन ठीक कर समस्या दूर करनी चाहिए। यह किस प्रकार का रवैया है? (यह सावधानी और बारीकियों पर ध्यान है।) यह सावधानी और बारीकियों पर ध्यान ही गंभीर और परिश्रमी रवैया है। तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन का आधार गंभीर और जिम्मेदार रवैया होना चाहिए और तुम्हें कहना चाहिए : “यह कार्य मुझे सौंपा गया है, इसलिए इसे करने के लिए, मेरे जानने और हासिल करने की क्षमता के दायरे में, मुझसे जो भी बन पड़े वह मुझे अच्छे से करना चाहिए। मैं कोई गलती नहीं कर सकता।” तुम यह मानसिकता नहीं ओढ़ सकते कि “तकरीबन ठीक-ठाक होना ही बहुत बढ़िया है।” अगर तुम्हारी सोच हमेशा लापरवाह होने वाली रही, तो क्या तुम अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकोगे? (नहीं।) लापरवाह होने की प्रवृत्ति कहाँ से पैदा होती है? क्या यह तुम्हारा शैतानी और भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? लापरवाह होना भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्ति है; यह तब उत्पन्न होती है जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों से विवश होते हैं। यह सीधे तौर पर उनके कर्तव्यों के नतीजों को प्रभावित करती है, यहाँ तक कि उनके कार्य के बिगड़ने का कारण बनती है और कलीसिया के कार्य को भी प्रभावित करती है। यह बहुत ही गंभीर दुष्परिणाम है। अगर तुम अपने कर्तव्य में लगातार लापरवाह रहते हो तो यह किस प्रकार की समस्या है? यह ऐसी समस्या है जिसका संबंध तुम्हारी मानवता से है। जिन लोगों में अंतरात्मा या मानवता नहीं होती है, सिर्फ वही लोग निरंतर लापरवाह रहते हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि हमेशा लापरवाह रहने वाले लोग विश्वसनीय होते हैं? (नहीं।) वे बहुत ही अविश्वसनीय होते हैं! जो अपना कर्तव्य लापरवाही से निभाता है वह गैर-जिम्मेदार व्यक्ति होता है और जो अपने क्रियाकलापों में गैर-जिम्मेदार हो वह ईमानदार व्यक्ति नहीं होता है—वह गैर-भरोसेमंद इंसान होता है। गैर-भरोसेमंद इंसान चाहे कोई भी कार्य करे, वह लापरवाह रहेगा, क्योंकि उसका चरित्र मानक स्तर का नहीं होता है, वह सत्य से प्रेम नहीं करता, और वह बिल्कुल भी ईमानदार व्यक्ति नहीं है। क्या परमेश्वर गैर-भरोसेमंद लोगों को कोई काम सौंप सकता है? बिल्कुल नहीं। चूँकि परमेश्वर लोगों के दिल की गहराइयों की पड़ताल करता है, इसलिए वह कर्तव्य निभाने के लिए कपटी लोगों का बिल्कुल उपयोग नहीं करता है; परमेश्वर सिर्फ ईमानदार लोगों को आशीष देता है, और वह सिर्फ उन्हीं लोगों पर कार्य करता है जो ईमानदार हैं और सत्य से प्रेम करते हैं। जब भी कोई कपटी व्यक्ति कोई कर्तव्य निभाता है तो यह व्यवस्था मनुष्य की बनाई हुई है, और यह मनुष्य की गलती है। जो लोग लापरवाह रहना पसंद करते हैं, उनमें जमीर या विवेक नहीं होता है, उनकी मानवता कमजोर होती है, वे भरोसे के लायक नहीं होते, और बहुत ही अविश्वसनीय होते हैं। क्या पवित्र आत्मा ऐसे लोगों पर कार्य करेगा? कतई नहीं। इसलिए, जो लोग अपने कर्तव्यों में लापरवाह रहना पसंद करते हैं, उन्हें परमेश्वर न तो कभी पूर्ण बनाएगा और न कभी उनका उपयोग करेगा। जो लापरवाह रहना पसंद करते हैं, वे सभी कपटी होते हैं, बुरी मंशाओं से भरे होते हैं, और उनमें बिल्कुल भी जमीर और विवेक नहीं होता है। वे सिद्धांतों या निचली सीमाओं के बिना कार्य करते हैं; वे अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर कार्य करते हैं, और तमाम तरह की खराब चीजें करने में सक्षम होते हैं। उनके सारे कार्यकलाप उनके मिजाज पर निर्भर करते हैं। अगर उनका मिजाज अच्छा है, वे खुश हैं, तो फिर वे थोड़ा-सा अच्छा करेंगे। अगर उनका मिजाज खराब है और वे खिन्न हैं तो फिर वे लापरवाह हो जाएँगे। अगर वे गुस्से में हैं, तो फिर वे मनमानी और लापरवाही दिखा सकते हैं, और महत्वपूर्ण मामले लटका सकते हैं। उनके दिलों में बिल्कुल भी परमेश्वर नहीं होता है। वे बस दिन गुजारते रहते हैं, और बैठे-सुस्ताते मौत का इंतजार करते रहते हैं। इसलिए लापरवाही से अपने कर्तव्य निभाने वाले लोगों को चाहे जैसे नसीहत दी जाए, कोई फायदा नहीं है और उनके साथ सत्य के बारे में संगति करना बेकार है। बार-बार फटकारने पर भी वे अपने तौर-तरीके नहीं सुधारते, वे हृदयहीन हैं; उन्हें सिर्फ निकाल बाहर किया जा सकता है, यही सबसे उचित कार्रवाई है। हृदयहीन लोगों के पास अपने क्रियाकलापों में कोई निचली सीमा नहीं होती है; कोई भी चीज उन पर अंकुश नहीं लगा सकती है। क्या ऐसे लोग जमीर पर आधारित मामले सँभाल सकते हैं? (नहीं।) क्यों नहीं? (उनके पास जमीर के मानक नहीं होते हैं, न उनमें मानवता, या निचली सीमाएँ होती हैं।) बिल्कुल सही। अपने क्रियाकलापों में उनके पास अंतरात्मा के मानक नहीं होते हैं; वे अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर कार्य करते हैं, अपने मिजाज के आधार पर जो चाहते हैं वह करते हैं। उन्हें अपने कर्तव्यों में जो नतीजे मिलेंगे वे अच्छे होंगे या बुरे यह उनके मिजाज पर निर्भर करता है। अगर उनका मिजाज अच्छा हो तो नतीजे अच्छे होंगे, लेकिन मिजाज बुरा हुआ तो नतीजे बुरे मिलेंगे। क्या इस तरीके का कर्तव्य निर्वाह संभवतः मानक स्तर का हो सकता है? वे अपने कर्तव्य सत्य सिद्धांत के आधार पर नहीं, अपनी मनोदशाओं के आधार पर निभाते हैं; इस प्रकार, उनके लिए सत्य को अभ्यास में लाना बहुत कठिन है और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करना भी बहुत कठिन है। जो लोग शारीरिक प्राथमिकताओं के आधार पर कार्य करते हैं वे सत्य को अभ्यास में बिल्कुल भी नहीं लाते हैं।
लोग जो कुछ भी करते हैं उसका वास्ता सत्य खोजने और सत्य को व्यवहार में लाने से होता है; सत्य से जिस चीज का वास्ता होता है उसका संबंध लोगों के चरित्र और उनकी कार्यशैली के दृष्टिकोण से होता है। अधिकांशतः, लोग जब कोई काम सिद्धांतहीन तरीके से करते हैं, तो उसकी वजह यह होती है कि उन्हें उसके पीछे के सिद्धांतों की समझ नहीं होती। लेकिन बहुत बार, न केवल लोगों को सिद्धांतों की समझ नहीं होती बल्कि वे उन्हें समझना भी नहीं चाहते हैं। भले ही उन्हें सिद्धांतों की थोड़ी-बहुत जानकारी हो, फिर भी वे बेहतर नहीं करना चाहते हैं। उनके मन में यह मानक और यह अपेक्षा होती ही नहीं। इसलिए उनके लिए अच्छे से काम करना बहुत कठिन होता है, उनके लिए यह भी बड़ा मुश्किल होता है कि चीजों को इस तरह से सत्य के अनुरूप किया जाए जिससे परमेश्वर संतुष्ट हो। महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग अपने कर्तव्य मानक स्तर पर निभा पाते हैं या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस चीज का अनुसरण करते हैं, वे सत्य का अनुसरण करते हैं कि नहीं और वे सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं कि नहीं। अगर लोग सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते हैं, तो उनके लिए सत्य स्वीकारना आसान नहीं होता, जो बहुत परेशानी वाली बात है—भले ही वे कर्तव्य निभाते हैं, वे महज मजदूरी करते हैं। चाहे तुम सत्य को समझते हो या नहीं, चाहे तुम सिद्धांतों पर महारत हासिल कर पाओ या नहीं, यदि तुम अंतरात्मा के साथ अपना कर्तव्य निभाते हो तो तुम कम से कम औसत नतीजे प्राप्त कर लोगे। सिर्फ यही स्वीकार्य है। फिर यदि तुम सत्य खोजकर सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम कर सको, तो तुम पूर्ण रूप से परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर लोगे और उसके इरादों के अनुसार हो जाओगे। परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं? (यही कि लोग पूरे तन-मन से अपने कर्तव्य अच्छे से निभाएँ।) “पूरे तन-मन से” को कैसे समझा जाना चाहिए? अगर लोग पूरे मन से समर्पित होकर अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो इसका अर्थ है कि वे दिलोजान लगाकर काम कर रहे हैं। यदि वे अपनी शक्ति की एक-एक बूँद का उपयोग करते हैं, तो वे पूरे तन से जुटे हुए हैं। क्या पूरे तन-मन से काम करना आसान है? जमीर और विवेक के बिना इसे हासिल करना आसान नहीं है। अगर किसी व्यक्ति में हृदय न हो, अगर उसमें बुद्धि और विचारशक्ति की कमी हो, और समस्या आने पर वह सत्य की खोज करना न जानता हो, ऐसा करने के लिए उसके पास कोई मार्ग या साधन न हो, तो क्या वह पूरा मन समर्पित कर सकता है? बिल्कुल नहीं। फिर अगर किसी के पास हृदय है तो क्या वह अपना पूरा दिल लगाने में समर्थ है? (हाँ।) अगर व्यक्ति के पास हृदय है लेकिन वह अपना कर्तव्य निभाने में इसका प्रयोग नहीं करता, बल्कि नीच और कुटिल मार्गों के बारे में ही सोचता रहता है और इसका उपयोग अनुचित चीजें करने के लिए करता है तो क्या वह अपने कर्तव्य में पूरा दिल लगा पाएगा? (नहीं।) मान लो कि वह काट-छाँट का अनुभव करता है, अपना भ्रष्ट स्वभाव जान लेता है, और वह परमेश्वर की शपथ लेता है कि वह पश्चात्ताप करने को तैयार है, और उसमें अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने का संकल्प है, लेकिन जब वह कठिनाइयों या प्रलोभनों से घिरता है, तो उसका मन डाँवाडोल हो जाता है, वह अपना कर्तव्य आधे-अधूरे मन से करता है, या उसमें नकारात्मकता आ जाती है और वह भाग खड़ा होता है—उस समय क्या वह अपना पूरा दिल लगाने में समर्थ है? (नहीं।) तुम लोगों ने अभी-अभी कहा कि अगर किसी के पास हृदय है तो वह अपना पूरा दिल लगाने में समर्थ होता है। क्या इस कथन में दम है? (नहीं।) तुम जो कुछ भी करो उसमें तुम्हें अपने आवेगों या कल्पनाओं के भरोसे नहीं रहना चाहिए, अपने जोश के भरोसे रहना तो बहुत दूर की बात है; तुम्हें न तो अपनी भावनाओं के आधार पर आगे बढ़ना चाहिए, न ही मानवीय विचारों के आधार पर—बल्कि तुम्हें लगातार सत्य को खोजने और उसका अभ्यास करने की जरूरत है। उत्साह और भावनाओं या जोश और अस्थायी आवेगों के भरोसे रहने से यह सुनिश्चित नहीं होगा कि तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा लोगे। यह वैसा ही है जैसे जब हर कोई बहुत छोटा होता है तो वह बड़े होने पर अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित कर्तव्य निभाना चाहता है। जब तुम बड़े हो जाते हो, और तुम्हारे लिए यह इच्छा पूरी करने का समय आता है तो ऐसा करने से तुम्हें कौन-सी कठिनाइयाँ रोक सकती हैं? इसका संबंध वास्तविक समस्याओं से है; हर व्यक्ति के सामने वास्तविकता यह है कि उसकी कठिनाइयाँ उसकी आकांक्षाओं से बड़ी होती हैं। उदाहरण के लिए, जब तुम कॉलेज से स्नातक बनने के बाद पैसा कमाने लगते हो तो तुम सोचते हो, “अब जबकि मैं कमाने लगा हूँ तो मुझे सबसे पहले अपने माता-पिता के लिए कुछ बढ़िया कपड़े खरीदने चाहिए, उन्हें कुछ स्वास्थ्य संरक्षक चीजें दिलानी चाहिए, और अब आगे से मुझे अपना संतानोचित निष्ठा दिखानी होगी। मैं उन्हें खर्च करने के लिए अपना पैसा दूँगा ताकि वे अपना हर दिन खुशी से बिता सकें।” लेकिन जब तुम अपनी तनख्वाह पाकर अपना हिसाब-किताब करते हो तो मकान का किराया, खाने-पीने के और दूसरे खर्चे निकालकर तुम्हारे पास शायद ही कुछ पैसा बचता हो, और अभी तो तुम्हें अपने लिए कुछ ढंग के कपड़े खरीदने हैं। जब तुम्हारा सारा पैसा खर्च हो जाता है, तो तुम परेशान हो जाते हो, क्योंकि तुमने अपने उस वादे का उल्लंघन कर दिया कि तुम बड़े होने पर अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए पैसे कमाओगे। तुम सोचते हो, “मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित नहीं हूँ, मुझे अगले महीने कुछ पैसा बचाना होगा।” फिर अगला महीना आता है, और तुम्हारा कमाया हुआ पैसा अभी भी पर्याप्त नहीं होता तो तुम सोचते हो, “अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए मेरे पास काफी वक्त पड़ा है।” धीरे-धीरे समय बीतने के साथ तुम्हें अपना जीवनसाथी मिल जाता है, तुम्हारा अपना परिवार शुरू हो जाता है, बच्चे हो जाते हैं और पैसे की और ज्यादा तंगी होने लगती है। अपनी स्थिति और जीवन की परिस्थितियों के आधार पर अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने की इच्छा पूरी करना तुम्हारे लिए बहुत ही कठिन हो जाता है, क्योंकि तुम्हें अपने परिवार को सहारा देना है, अपना गुजारा चलाना है, और अपने बच्चों की पढ़ाई का बंदोबस्त करना है; जीवित रहने के लिए तुम्हें स्थानीय गुंडों और भ्रष्ट अधिकारियों से मेल-जोल रखना है जो तुम्हें दुखी कर देता है। भले ही तुम अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाना चाहते हो, मगर यह व्यर्थ है; वास्तविक जीवन की तमाम कठिनाइयाँ तुम्हें पस्त कर देती हैं, और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने की तुम्हारी इच्छा धीरे-धीरे वास्तविकता के सामने धूल में मिल जाती है। तो क्या संतानोचित निष्ठा दिखाने का तुम्हारा इरादा अब भी जायज है? (नहीं।) तो फिर जब तुम छोटे थे तो अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होने की तुम्हारी इच्छा असली थी या नकली? (असली।) उस समय तुम्हारी कामना वास्तविक थी, लेकिन यह भोली, मूढ़ और मूर्खतापूर्ण भी थी; यह भरोसे लायक नहीं थी। तुम्हारा वास्तविक रूप कौन-सा है? जो चीजें तुम प्रकट करते हो और अपने वास्तविक जीवन में अभिव्यक्त करते हो, वे तुम्हारी ऐसी सच्ची मानवता और असली रवैये हैं जिनके साथ तुम अपने प्रियजनों से पेश आते हो। तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी निष्ठा दिखाना तब तक लगातार टालते जाते हो, जब तक कि तुम अनजाने में अपने जमीर, आत्म-धिक्कार और अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों का एहसास गँवा नहीं देते। फिर तुम सोचते हो : “हर कोई ऐसा ही है। मैं किसी और से कोई ज्यादा खराब नहीं कर रहा हूँ, और फिर मेरे सामने वास्तविक कठिनाइयाँ भी हैं!” तुम्हारा हरेक हीला-हवाला, तर्क-वितर्क और बहाना—ये सब क्या हैं? ये तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के अंश हैं। तुम्हारे लिए यथार्थ चाहे जितना भी कठिन हो, यह तुम्हें अपनी आवश्यक जिम्मेदारियों से बचकर भागने के चाहे जितने कारण और बहाने मुहैया कराए, और तुम्हारे तर्क और बहाने चाहे जितने ठोस हों, अंत में तुम जो चीजें अभिव्यक्त करते हो वही तुम्हारा पूर्ण और सच्चा रूप है। तो फिर तुम कोई सकारात्मक आकांक्षा कैसे पूरी कर सकते हो? असल जीवन में, सत्य को समझने या हासिल करने से पहले, लोग कौन-सी चीजें अभिव्यक्त करते हैं? क्या वे न्यायसंगत और सकारात्मक हैं? (नहीं।) अगर तुम सत्य को नहीं समझते, तो फिर तुम्हारे कार्यकलाप चाहे जितने अच्छे हों या तुम्हारे विचार चाहे जितने सही लगें, वे फिर भी भ्रष्ट स्वभाव ही हैं, और वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं। इसलिए अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो या इसे नहीं समझते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करना बहुत कठिन होगा, और तब तुम जो कुछ भी जी रहे होगे वह भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा होगा। तुम खुद को चाहे जितना अच्छा, जितना महान, जितना खरा समझो, इस नींव पर तुम जो भी चीजें करोगे वे सत्य के अनुरूप नहीं होंगी। क्या तुम समझ रहे हो? (मैं थोड़ा-सा समझ रहा हूँ।) तुम लोगों की समझ में क्या आया? (सभी लोग अपने कर्तव्य उचित ढंग से निभाना चाहते हैं, लेकिन चूँकि वे अपने भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित होते हैं, इसलिए भले ही वे अपने जमीर के अनुसार कर्तव्य निभाना चाहें, वे निभा नहीं सकते। इसलिए अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करना होगा।) कोई और बताओ, तुम और क्या समझ पाए हो? (जब कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझता है तो वह जो चीजें करता है, उन्हें लोग चाहे जैसे देखें, वे सत्य का अभ्यास नहीं हैं। भले ही लोग यह सोचें कि ये क्रियाकलाप बहुत अच्छे हैं, लेकिन ये क्रियाकलाप परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हो सकते हैं, इसलिए मैंने देख लिया है कि सत्य को समझना बहुत ही महत्वपूर्ण है।) बिल्कुल सही कहा! ऐसा लगता है कि तुम सब लोगों ने इस दौरान कुछ प्रगति की है। सत्य को हासिल करना कोई आसान मामला नहीं है; इसके लिए लोगों को अनेक कीमतें चुकानी पड़ती हैं। दैहिक इच्छाओं के प्रति विद्रोह करने, और सत्य को खोजने और इसका अभ्यास करने के अलावा लोगों को काफी पीड़ा और शोधन भी सहना होगा, और उन्हें शैतान के हाथों अत्याचार और क्रूर उत्पीड़न का अनुभव भी करना होगा—भले ही उनकी मृत्यु न हो, फिर भी उन्हें भयंकर पीड़ा झेलनी होगी—केवल तभी वे अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकते हैं और सत्य हासिल कर सकते हैं। कोई कह सकता है कि सत्य हासिल करना न्याय और ताड़ना का अनुभव करने की प्रक्रिया है और उसके फलस्वरूप शुद्ध बनना है। तुम शायद यह कबूल लोगे कि तुममें भ्रष्ट स्वभाव है और सत्य भी कबूल लोगे, लेकिन जब तुम सत्य का अभ्यास करोगे तो क्या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें बाधित और परेशान करने के लिए बाहर नहीं आएगा? (बिल्कुल छलकेगा।) उस समय लोगों के मन में कौन-सी चीजें उत्पन्न होती हैं? (वे बहस करते हैं और बहाने ढूँढ़ते हैं। वे स्वार्थीपन प्रकट करते हैं और अपने अभिमान और घमंड के बारे में सोचते हैं।) लोगों के स्वभाव की यह समस्या है। कुछ लोग न तो कुछ कहते हैं, न कुछ प्रकट करते हैं, लेकिन जब तुम उनके स्वभाव को देखते हो तो साफ तौर पर समझ सकते हो कि उनके दिलों में विद्रोहीपन है। विद्रोहीपन एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव है। वे चाहे बहस कर रहे हों या बहाने ढूँढ़ रहे हों, वे यह सब अपने हित, अभिमान, रुतबा और घमंड कायम रखने, और किसी प्रकार की मंशा या उद्देश्य पूरा करने के लिए करते हैं। अगर किसी व्यक्ति में इस प्रकार का विद्रोही स्वभाव है तो फिर इससे तमाम तरह की भ्रष्ट मनोदशाएँ उपजेंगी जो परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण और विरोधी होंगी। विद्रोहीपन क्या है? सरल शब्दों में कहें तो यह तब होता है जब किसी के दिल में प्रतिरोध हो, जब वे परमेश्वर के विरुद्ध तन जाते हैं और कहते हैं, “तुम जो वचन कहते हो वे मेरी सोच से अलग क्यों हैं? मुझे ये पसंद क्यों नहीं हैं? मुझे ये पसंद नहीं हैं, इसलिए मैं इन्हें स्वीकार नहीं सकता, और मैं तुम्हें सुनने को तैयार नहीं हूँ।” वे परमेश्वर के विरुद्ध मन बना लेते हैं, वे इस हद तक अवज्ञाकारी होते हैं कि वास्तविकता का विरोध करने लगते हैं, और परमेश्वर ने जो कुछ किया है और वह उनसे जो भी अपेक्षाएँ करता है, वे उन सबका विरोध करने लगते हैं। यही वह स्थिति है जहाँ लोग विद्रोही होते हैं, और सत्य को स्वीकारने और इसका अभ्यास करने में लोगों की यही सबसे बड़ी कठिनाई है। तुम चाहे बहाने ढूँढ़ रहे हो या तमाम वस्तुनिष्ठ तर्क या स्थितियाँ खोज रहे हो, किसी भी स्थिति में, यह तुम्हारे अंदर मौजूद विद्रोही स्वभाव ही है जो तुम्हारे लिए मुसीबत पैदा कर रहा है। मान लो कि तुम इस प्रकार की मनोदशा और तुम्हारे साथ जो कुछ होता है उसे उलटने के लिए इस विद्रोही स्वभाव को दूर कर लेते हो, और कहते हो, “मेरे साथ यह हुआ, और मैं सत्य को नहीं समझता हूँ, न मैं इसका अभ्यास करना जानता हूँ। मैं बस परमेश्वर से प्रार्थना कर सकता हूँ और अभ्यास का मार्ग खोजने के लिए उसके वचन पढ़ने पर निर्भर रह सकता हूँ या सत्य को समझने वाले किसी व्यक्ति से खोज सकता हूँ। अगर मैं अभ्यास का ऐसा तरीका सीख लूँ जो सत्य के अनुरूप हो, जिसे परमेश्वर पसंद करे और जो उसे संतुष्ट करे तो फिर मैं उसी तरह अभ्यास करूँगा।” ऐसी मानसिकता होना सही है; यह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है। अगर तुम इस तरीके से सत्य का अनुसरण करो, तमाम विफलताओं के बावजूद बेहतर करने की कोशिश करते रहो, नकारात्मक या हताश न होओ तो फिर तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागने और परमेश्वर का उद्धार हासिल करने में सक्षम रहोगे।
जब परमेश्वर ने पहली बार अय्यूब का परीक्षण किया, तो क्या उस समय वह अपनी समझ के आधार पर सही ढंग से परमेश्वर का इरादा जान सका था? (नहीं।) तो अय्यूब ने क्या प्रकट किया? क्या उसने समर्पण किया या उसने विद्रोह, प्रतिरोध किया और शिकायत की? (उसने समर्पण किया।) अपने अंदर से बाहर तक वह किस प्रकार की मनोदशा में था? क्या उसने कभी भी लेशमात्र भी अनिच्छा या प्रतिरोध प्रकट किया? नहीं किया। भले ही बाइबल संबंधी दस्तावेजों में सिर्फ साधारण-सा विवरण मिलता है, लेकिन ऐसा नहीं दिखता कि अय्यूब ने कभी बिल्कुल भी विद्रोही मनोदशा प्रकट की हो। क्या इन वचनों से तुम यह देख सकते हो कि अय्यूब बहुत अधिक सत्य समझता था? (नहीं।) हकीकत में अय्यूब उस समय कौन-सा सत्य समझता था? क्या परमेश्वर ने समर्पण के सत्य के बारे में बात की थी? क्या उसने इस बारे में बात की कि लोगों को उसके खिलाफ किस प्रकार विद्रोह नहीं करना चाहिए? उसने इनमें से किसी भी चीज के बारे में बात नहीं की थी। अय्यूब की मनोदशा क्या थी? भले ही उस समय उसके पास नींव के रूप में परमेश्वर के वर्तमान वचन नहीं थे, फिर भी उसके व्यवहार और कार्यों से लोग उसके दिली विचारों और उसके दिल के अंदर की अवस्था को देख सके। क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसे लोग देख और महसूस कर सकें? (बिल्कुल है।) कुछ लोग कहते हैं : “हम नहीं जानते कि वह अपने मन में क्या सोच रहा था।” तुम्हें यह जानने की जरूरत नहीं है; तुम्हें उसके बाहरी कार्यकलाप देखने में सक्षम होना चाहिए। जब उसने परीक्षणों का सामना किया, तो उसने ऐसे व्यक्ति के कार्यकलाप प्रदर्शित किए जिसमें कोई विद्रोह नहीं था और जिसने पूरी तरह परमेश्वर के प्रति समर्पण किया : उसने अपने कपड़े फाड़ दिए और दंडवत हो गया। वह अपने दिल से दंडवत हुआ, और यह पूरी तरह उस समय के उसके समस्त विचारों और जो कुछ वह व्यक्त करना चाहता था उसके अनुरूप था। यह उसके अनुसरण और परमेश्वर के प्रति उसके रवैये को प्रदर्शित करता था। तो परमेश्वर के प्रति उसका रवैया क्या था? परमेश्वर ने उसके साथ जो किया था, उन चीजों के प्रति उसकी क्या प्रतिक्रिया थी? उसकी पहली प्रतिक्रिया यही थी कि आपत्ति और असंतोष जताए बिना स्वीकार और समर्पण किया जाए। आध्यात्मिक मामलों की समझ न रखने वाले कुछ लोग संदेह के साथ कहते हैं : “संसार में ऐसा इंसान कैसे हो सकता है? क्या वह कोई संत नहीं है? यह जरूर झूठी बात है।” वास्तविकता यह है कि अय्यूब जैसे लोग सचमुच में होते हैं, लेकिन अय्यूब एक ही था, और मुझे डर है कि उस जैसा कोई दूसरा कभी नहीं होगा। अय्यूब की मनोदशा ऐसी थी जिसे अविश्वासी “निःस्वार्थी और कामनारहित” बताते हैं। जब परमेश्वर के परीक्षणों से उसका सामना हुआ तो उसने कुछ नहीं कहा; बल्कि उसने परमेश्वर के प्रति अपना रवैया अपने क्रियाकलापों के जरिए व्यक्त किया। उसके दंडवत होने से साबित हुआ कि जब उसके परीक्षणों की घड़ी आई तो वह सचमुच स्वीकारात्मक था और सचमुच समर्पित था और वह बिल्कुल भी प्रतिरोधी नहीं था। वह न कोई दिखावा कर रहा था, न कोई नौटंकी कर रहा था; उसने दूसरे लोगों को दिखाने के लिए ऐसा नहीं किया, उसने परमेश्वर के देखने के लिए यह किया। तो अय्यूब ने ऐसा समर्पण कहाँ से प्राप्त किया? ऐसा नहीं था कि उसने महज एक परीक्षण का अनुभव करके या समर्पण को समझकर इस प्रकार का समर्पण हासिल कर लिया। धरती पर रहने वाली भ्रष्ट मानवजाति के हरेक सदस्य को शैतान भ्रष्ट कर चुका है; इन सबका विद्रोही स्वभाव है। लोग स्वार्थी हैं और वे सब परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हैं। यह ऐसी प्रकृति है जिसे शैतान ने भ्रष्ट किया है; सारी भ्रष्ट मानवजाति की यही प्रकृति है। लेकिन क्या अय्यूब परमेश्वर के सामने रातोरात इस हद तक समर्पण कर सका? कतई नहीं। उसे अनुसरण करना पड़ा था, यही नहीं, अनुसरण के लिए उसके पास एक स्पष्ट लक्ष्य और एक सही मार्ग था। साथ-ही-साथ, यह आवश्यक था कि वह परमेश्वर से मार्गदर्शन ले और परमेश्वर उसकी देखभाल और सुरक्षा करे। चूँकि अय्यूब ने सही मार्ग पर चलने, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का प्रयास किया, सिर्फ इसी कारण वह परमेश्वर से अनुग्रह, दया और आशीष प्राप्त कर सका; फिर वह इसमें निरंतर परमेश्वर का हाथ और मार्गदर्शन देखता रहा, और वह निरंतर परमेश्वर की देख-रेख पाता रहा। केवल तभी वह प्रगति कर सका। तुम लोगों को यह क्यों लगता है कि परमेश्वर ने अय्यूब को ऐसा परीक्षण तब नहीं दिया जब वह बीस साल का था? (तब उसके पास आध्यात्मिक कद नहीं था।) तब वह घड़ी नहीं आई थी। उसका ऐसा परीक्षण तब क्यों नहीं हुआ जब वह चालीस का था? तब भी वह घड़ी नहीं आई थी। परमेश्वर ने उसकी परीक्षा तभी क्यों ली जब वह सत्तर का हो गया? (परमेश्वर का समय आ चुका था।) बिल्कुल सही, समय आ चुका था। तो क्या अब तुम सब लोगों को सत्तर का होने तक प्रतीक्षा करने की जरूरत है? (नहीं।) क्यों नहीं? (अभी हम परमेश्वर के वचन अपने कानों से सुनने में समर्थ हैं। परमेश्वर अपने इरादे और अपनी अपेक्षाएँ हमें बहुत ही स्पष्ट ढंग से समझाता है।) उस युग का कार्य और इस युग का कार्य अलग हैं। उस युग में परमेश्वर ने मनुष्य से बात नहीं की, और मनुष्य सत्य को नहीं समझता था; परमेश्वर ने केवल कुछ साधारण, प्रतिनिधि कार्य किया। जिन लोगों को परमेश्वर में विश्वास था उन्होंने नबियों के बताए वचनों का पालन भर किया, और जो परमेश्वर का भय मानते थे उन्होंने उसके आशीष प्राप्त किए। जो सच्चे मन से परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते थे वे भ्रमित रहते थे; बहुत हुआ तो वे बलिदान चढ़ा और प्रार्थना कर लेते थे, और यह कोई बहुत खराब बात नहीं थी। उस समय क्या अय्यूब के दोस्त भी परमेश्वर के विश्वासी नहीं थे? क्या उनका विश्वास अय्यूब के विश्वास से कहीं निम्न कोटि का नहीं था? वे और अय्यूब एक ही युग के थे, मगर क्या अय्यूब उनसे कहीं ज्यादा बेहतर नहीं था? (जरूर था।) उनमें इतना बड़ा अंतर क्यों था? (इसका संबंध लोगों की प्रकृति और उनके अनुसरण से है।) बिल्कुल सही, इसका संबंध लोगों के अनुसरण से है। जैसी करनी वैसी भरनी। अगर तुम कुछ नहीं बोते हो तो जब समय आएगा तो तुम्हें कतई कोई फसल नहीं मिलेगी। उन चंद भ्रमित लोगों ने अनुसरण नहीं किया; वे आज की कलीसिया के छद्म-विश्वासियों जैसे ही थे। वे केवल विनियमों को मानते थे, और हर चीज में विनियम लागू करना पसंद करते थे। वे सत्य को नहीं समझते थे, और उन्हें लगता था कि वे हमेशा सही हैं और सब कुछ समझते हैं। जब अय्यूब के सामने परीक्षण आए तो उन्होंने उससे कहा : “तुम्हें फौरन कबूलना चाहिए। देख लो, परमेश्वर के दंड सामने हैं।” अंत में उनके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या था? परमेश्वर ने कहा : “तुम लोगों ने इतनी बड़ी उम्र तक जीवन जिया है, लेकिन तुम लोग न तो मेरे कार्यकलापों को स्पष्ट रूप से देख पा रहे हो, न लोगों के प्रति मेरे रवैये को, न ही मेरी कार्य शैली को। तुम लोग वाकई भ्रमित हो; अय्यूब ने स्पष्ट रूप से देख लिया।” तो परमेश्वर अय्यूब के सामने तो आया, लेकिन उन लोगों के सामने नहीं आया; वे इस लायक नहीं थे। उन्होंने परमेश्वर को जानने का प्रयास नहीं किया, और उन्होंने न तो परमेश्वर का भय माना, न बुराई से दूर रहे, इसलिए परमेश्वर उनके सामने प्रकट नहीं हुआ।
अब हर कोई ऐसा इंसान बनना चाहता है जो परमेश्वर का भय माने और बुराई से दूर रहे। तो फिर परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का क्या अर्थ है? यह कहा जा सकता है कि इसमें परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का प्रयास, और उसके प्रति अपने आपको पूरी तरह से अर्पित कर देना शामिल है। इसमें सचमुच परमेश्वर से डरना और उसका भय मानना शामिल है, जिसमें जरा-सा भी न तो कपट हो, न प्रतिरोध और न ही कोई विद्रोह हो। यह पूरी तरह शुद्ध हृदय वाला होना और परमेश्वर के प्रति पूरी तरह वफादार और समर्पित होना है। यह वफादारी और समर्पण पूर्ण होना चाहिए, सापेक्ष नहीं; यह समय या स्थान या किसी की उम्र पर निर्भर नहीं होता है। परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का यही तरीका है। इस प्रकार के अनुसरण के मार्ग पर चलते हुए तुम धीरे-धीरे परमेश्वर को जानने लगोगे और उसके कर्मों का अनुभव करने लगोगे; तुम उसकी देख-रेख और सुरक्षा का एहसास करोगे, उसके अस्तित्व के सत्य का बोध करोगे और उसकी संप्रभुता का एहसास करोगे। आखिरकार, तुम्हें सचमुच यह एहसास होगा कि परमेश्वर हर चीज में है, और वह ठीक तुम्हारे बगल में है। तुम्हें इस तरह का प्रत्यक्ष अनुभव होगा। अगर तुम परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण नहीं करोगे तो तुम्हें कभी भी इन चीजों का एहसास नहीं होगा। लोग कहते हैं, “परमेश्वर सब चीजों का संप्रभु है; वह सर्वव्यापी और सर्वशक्तिशाली है।” तुम यह बात पूरे दिल से मानते हो, लेकिन इन चीजों को देख या अनुभव नहीं कर सकते, तो फिर तुम परमेश्वर को कैसे जान सकोगे? परमेश्वर में विश्वास रखने के इन सारे वर्षों में तुम क्या करते रहे हो? तुम अक्सर सभाओं में जाते हो और धर्मोपदेश सुनते हो, और हमेशा अपना कर्तव्य निभाते हो; तुम कई रास्तों पर चल चुके हो और सुसमाचार का प्रचार करते हुए कुछ लोगों को जीत चुके हो। तो फिर तुम यह क्यों नहीं समझते कि परमेश्वर सब चीजों का संप्रभु है? तुम सत्य को बिल्कुल भी नहीं समझते हो! क्या तुम्हें कुछ भी नहीं दिखता? तुम साफ तौर पर जानते हो कि यही सच्चा मार्ग है लेकिन तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते। भले ही तुम सभाओं में जाते हो, धर्मोपदेश सुनते हो और कलीसिया का जीवन जीते हो लेकिन तुम सत्य नहीं समझते हो और तुममें बिल्कुल भी बदलाव नहीं आया है। तुम बड़े बेचारे हो! छद्म-विश्वासियों की यही दशा होती है, जैसे कि वे परमेश्वर के घर के न हों; परमेश्वर की नजरों में तुम मुफ्तखोर हो, श्रमिक हो। तुम कह सकते हो : “मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ। परमेश्वर, तुम्हें मुझे स्वीकार करना होगा!” और तब परमेश्वर कहेगा : “मैं तुम्हारे दिल में बिल्कुल भी नहीं हूँ, और तुम कोई भी सत्य नहीं स्वीकारते हो। तुम कुकर्मी हो। मुझसे दूर हट जाओ!” ये परमेश्वर के अंतरतम के विचार हैं। तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, तुम्हें इसकी कोई समझ नहीं है कि परमेश्वर ही सत्य, मार्ग और जीवन है और तुम्हें कोई अनुभवजन्य ज्ञान नहीं है। तुम इस बात की गवाही देने के लिए कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं बता सकते कि जिस परमेश्वर में तुम विश्वास रखते हो वही सत्य, मार्ग और जीवन है। तो क्या तुम परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हो? तुम परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते हो। तुम अब भी शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हो, जो चाहे वो करते हो; तुममें और किसी अविश्वासी में कोई स्पष्ट अंतर नहीं है। तुममें यह जो स्वार्थी और घिनौनी तुच्छता है तुम उससे शायद ही विद्रोह कर पाओ और तुम अपनी धारणाओं और विद्रोहीपन का समाधान करना मुश्किल पाते हो। हर बार जब भी परमेश्वर तुम्हारे लिए परिस्थितियों का इंतजाम करता है, तुम सबक नहीं लेते और कई वर्षों के अनुभव के बाद भी तुम्हारे पास कोई स्पष्ट फसल नहीं है, इसलिए तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का शुद्ध होना असंभव है। चाहे तुम बीस, तीस या और भी अधिक वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखे हुए हो, अगर तुम्हारे विद्रोहीपन, प्रतिरोध और भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं हुआ या ये शुद्ध नहीं हुए तो फिर तुम एक ऐसे अनछुए बूढ़े दानव हो जो बिल्कुल भी नहीं बदला है। यह पर्याप्त सबूत है कि तुम छद्म-विश्वासी हो, और तुम्हें आसानी से हटा दिया जाएगा।
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