परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 22
परमेश्वर के प्रबंधन के अस्तित्व के समय से ही, वह अपने कार्य को सम्पन्न करने के लिए हमेशा ही पूरी तरह से समर्पित रहा है। उनसे अपने व्यक्तित्व को पर्दे में छिपाने के बावजूद, वह हमेशा मनुष्य के अगल बगल ही रहा है, उन पर कार्य करता रहा है, अपने स्वभाव को प्रकट करता रहा है, अपने सार से समूची मानवजाति की अगुवाई करता रहा है, और अपनी सामर्थ, अपनी बुद्धि, और अपने अधिकार के माध्यम से हर एक व्यक्ति पर अपना कार्य करता रहा है, इस प्रकार वह व्यवस्था के युग, अनुग्रह के युग, और अब राज्य के युग को अस्तित्व में लाता है। यद्यपि परमेश्वर मनुष्य से अपने व्यक्तित्व को छुपाता है, फिर भी उसके स्वभाव, उसके अस्तित्व, और मानवजाति के प्रति उसकी इच्छा को सादगी से मनुष्य पर देखने एवं अनुभव करने के लिए प्रकट किया गया है। दूसरे शब्दों में, यद्यपि मानव परमेश्वर को देख या स्पर्श नहीं कर सकता है, फिर भी परमेश्वर का स्वभाव एवं परमेश्वर का सार जिसके सम्पर्क में मानवता रही है वे पूरी तरह से स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या यह सत्य नहीं है? इसके बावजूद कि परमेश्वर किस तरीके से एवं किस कोण से अपना कार्य करता है, वह हमेशा लोगों से अपनी सच्ची पहचान के अनुसार बर्ताव करता है, ऐसा कार्य करता है जिसे करने की उससे अपेक्षा की जाती है और वैसी बातें कहता है जिसे कहने की उससे अपेक्षा की जाती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर किस स्थान से बोलता है—वह तीसरे आसमान में खड़ा हो सकता है, या देह में खड़ा हो सकता है, या यहाँ तक कि एक साधारण व्यक्ति के रूप में भी—वह बिना किसी छल या छिपाव के हमेशा अपने सारे हृदय और अपने सारे मन के साथ मनुष्य से बोलता है। जब वह अपने कार्य को क्रियान्वित करता है, परमेश्वर अपने वचन एवं अपने स्वभाव को अभिव्यक्त करता है, और बिना किसी प्रकार के सन्देह के जो वह है उसे प्रकट करता है। वह अपने जीवन और अपने अस्तित्व के साथ मानवजाति की अगुवाई करता है। इसी तरह से मनुष्य ने व्यवस्था के युग—मानवता का पालन युग—के दौरान अदृश्य एवं अनछुए परमेश्वर के मार्गदर्शन के अधीन जीवन बिताया था।
व्यवस्था के युग के बाद पहली बार परमेश्वर ने देह धारण किया था, ऐसा देह धारण जो साढ़े तैंतीस वर्षों तक बना रहा। एक मनुष्य के लिए, क्या साढ़े तैंतीस साल का समय एक लम्बा समय है? (इतना लम्बा नहीं है।) जबकि किसी मानव प्राणी की जीवन अवधि सामान्यत: तीस या ऐसे कुछ सालों से कहीं ज़्यादा लम्बी होती है, यह मनुष्य के लिए एक बहुत ही लम्बा समय नहीं है। किन्तु देहधारी परमेश्वर के लिए, ये साढ़े तैंतीस साल बहुत ही लम्बा है। वह एक व्यक्ति बन गया—एक साधारण व्यक्ति जिसने परमेश्वर के कार्य और आदेश को अपने ऊपर उठाया था। इसका अर्थ था कि उसे ऐसा कार्य करना था जिसे एक सामान्य व्यक्ति संभाल नहीं सकता है, जबकि उसने पीड़ा को भी सहन किया जिसका सामना सामान्य लोग नहीं कर सकते हैं। अनुग्रह के युग के दौरान प्रभु यीशु के द्वारा सहन की गई पीड़ा की मात्रा, उसके कार्य की शुरूआत से लेकर उस समय तक जब उसे क्रूस पर कीलों से जड़ दिया गया था, शायद यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे आज के लोग किसी व्यक्ति में देख सकते थे, किन्तु क्या तुम लोग कम से कम बाइबल की कहानियों के जरिए इसकी थोड़ी सराहना कर सकते हो? इसकी परवाह किए बगैर कि इन लिखित तथ्यों में कितने विवरण हैं, कुल मिलाकर, इस समयावधि के दौरान परमेश्वर का कार्य कष्ट एवं पीड़ा से भरा हुआ था। एक भ्रष्ट मनुष्य के लिए, साढ़े तैंतीस साल का समय एक लम्बा समय नहीं है; थोड़ी सी पीड़ा कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन पवित्र, निष्कलंक परमेश्वर के लिए, जिसे सारी मानवजाति के पापों को सहना है, और जिसे पापियों के साथ खाना, सोना और रहना है, यह पीड़ा बहुत ही बड़ी है। वह सृष्टिकर्ता, सभी चीज़ों का स्वामी और सब कुछ का शासक है, फिर भी जब वह संसार में आया तो उसे भ्रष्ट मनुष्यों के अत्याचार एवं क्रूरता को सहना पड़ा था। अपने कार्य को पूर्ण करने और मानवता को दुर्गति से छुड़ाने के लिए, उसे मनुष्य के द्वारा दोषी ठहराया जाना था, और उसे सारी मानवजाति के पापों को उठाना था। पीड़ा की मात्रा जिससे होकर वह गुज़रा था उसकी गहराई को संभवतः साधारण लोगों के द्वारा नापा एवं सराहा नहीं जा सकता है। यह पीड़ा क्या दर्शाती है? यह मनुष्य जाति के लिए परमेश्वर के अत्यधिक प्रेम को दर्शाती है। यह उस अपमान के लिए है जिसे उसने सहा था और उस कीमत के लिए है जिसे उसने मनुष्य के उद्धार के लिए, उनके पापों से उन्हें छुड़ाने के लिए, और अपने कार्य के इस चरण को पूर्ण करने के लिए चुकाया था। इसका अर्थ यह भी है कि मनुष्य परमेश्वर के द्वारा क्रूस से छुड़ाया जाएगा। यह एक ऐसी कीमत है जिसे लहू से, एवं जीवन से चुकाया गया है, यह एक ऐसी कीमत है जिसे सृजे गए प्राणी नहीं दे सकते हैं। यह इसलिए है क्योंकि उसके पास परमेश्वर का सार है और वह परमेश्वर के स्वरूप से सुसज्जित है जिससे वह इस प्रकार की पीड़ा और इस प्रकार के कार्य को सहन कर सकता है। यह कुछ ऐसा है जिसे कोई भी सृजा गया प्राणी उसके स्थान पर नहीं कर सकता है। अनुग्रह के युग के दौरान यह परमेश्वर का कार्य है और उसके स्वभाव का एक प्रकाशन है। क्या यह जो परमेश्वर है उसके विषय में कोई चीज़ प्रकट करता है? क्या यह इस योग्य है कि मानवजाति इसे जाने?
उस युग में, यद्यपि मनुष्य ने परमेश्वर के व्यक्तित्व को नहीं देखा था, फिर भी उन्होंने परमेश्वर के पाप के बलिदान को प्राप्त किया था और उन्हें परमेश्वर के द्वारा क्रूस से छुड़ाया गया था। हो सकता है कि मानवजाति उस कार्य से अपरिचित नहीं थी जिसे अनुग्रह के युग के दौरान परमेश्वर ने किया था, लेकिन क्या कोई उस स्वभाव एवं इच्छा से परिचित था जिसे परमेश्वर के द्वारा इस समयावधि के दौरान अभिव्यक्त किया गया था? विभिन्न युगों के दौरान विभिन्न माध्यमों के जरिए मनुष्य महज परमेश्वर के कार्य की विषय-वस्तु को ही जानता है, या परमेश्वर से सम्बन्धित उन कहानियों को जानता है जो उसी समय घटित हुई थीं जब परमेश्वर अपने कार्य को क्रियान्वित कर रहा था। ये विवरण एवं कहानियाँ ज़्यादा से ज़्यादा परमेश्वर के विषय में कुछ सूचना या प्राचीन कथाएँ हैं, और इनका परमेश्वर के स्वभाव एवं सार के साथ कोई वास्ता नहीं है। अतः इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि लोग परमेश्वर के बारे में कितनी कहानियाँ जानते हैं, इसका यह मतलब नहीं है कि उनके पास परमेश्वर के स्वभाव या उसके सार की एक गहरी समझ एवं ज्ञान है। जैसा यह व्यवस्था के युग में था, यद्यपि ऐसे लोग जो अनुग्रह के युग से थे उन्होंने देहधारी परमेश्वर के साथ बहुत ही करीबी एवं घनिष्ठ सम्पर्क का अनुभव किया था, फिर भी परमेश्वर के स्वभाव एवं परमेश्वर के सार के विषय में उनका ज्ञान वस्तुतः अस्तित्वहीन था।
राज्य के युग में, परमेश्वर ने फिर से देहधारण किया, उसी प्रकार से जैसा उसने पहली बार किया था। कार्य की इस समयावधि के दौरान, परमेश्वर अब भी अपने कार्य को सादगी से अभिव्यक्त करता है, उस कार्य को करता है जिसे उसे करना चाहिए, जो वह है उसे प्रकट करता है। ठीक उसी समय, वह मनुष्य की अनाज्ञाकारिता एवं अज्ञानता को निरन्तर सहता एवं बर्दाश्त करता है। क्या इस समयावधि के दौरान भी परमेश्वर ने निरन्तर अपने स्वभाव को प्रकट नहीं किया है और अपनी इच्छा को अभिव्यक्त नहीं किया है? इसलिए, मनुष्य की सृष्टि से लेकर अब तक, परमेश्वर का स्वभाव, उसका अस्तित्व, और उसकी इच्छा, वे हमेशा से ही प्रत्येक व्यक्ति के लिए खुले हुए हैं। परमेश्वर ने कभी भी जानबूझकर अपने सार, अपने स्वभाव, या अपनी इच्छा को नहीं छुपाया है। यह सिर्फ ऐसा है कि मानवजाति इसकी परवाह नहीं करती कि परमेश्वर क्या कर रहा है, उसकी इच्छा क्या है—इसी लिए परमेश्वर के बारे में मनुष्य की समझ इतनी दयनीय है। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर अपने व्यक्तित्व (स्वरूप) को छिपाता है, तो वह हर एक क्षण मानवजाति के साथ खड़ा भी हो रहा है, और सभी समयों पर खुले तौर पर अपनी इच्छा, स्वभाव एवं सार को पेश भी कर रहा है। एक अर्थ में, परमेश्वर का व्यक्तित्व (स्वरूप) भी सभी लोगों के लिए खुला हुआ है, लेकिन मनुष्य के अंधेपन एवं अनाज्ञाकारिता के कारण, वे हमेशा परमेश्वर के रूप को देखने में असमर्थ होते हैं। अतः यदि स्थिति ऐसी है, तो क्या प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर के स्वभाव और स्वयं परमेश्वर को समझना आसान नहीं होना चाहिए? उत्तर देने के लिए यह एक बहुत ही कठिन प्रश्न है, सही है? तुम लोग कह सकते हो कि यह आसान है, लेकिन जबकि कुछ लोग परमेश्वर को जानने का प्रयास करते हैं, वे वास्तव में उसे नहीं जान सकते हैं या उसके विषय में एक स्पष्ट समझ प्राप्त नहीं कर सकते हैं—यह हमेशा से ही धुंधला एवं अस्पष्ट होता है। किन्तु यदि तुम लोग कहो कि यह आसान नहीं है, तो वह भी सही नहीं है। इतने लम्बे समय तक परमेश्वर के कार्य का विषय होने के बाद, प्रत्येक के पास अपने अनुभवों के माध्यम से परमेश्वर के साथ वास्तविक व्यवहार होना चाहिए। उन्हें कम से कम अपने हृदयों में कुछ हद तक परमेश्वर का एहसास करना चाहिए था या उन्हें पहले आत्मिक स्तर पर परमेश्वर के साथ टकराना चाहिए था, और इस प्रकार उनके पास कम से कम परमेश्वर के स्वभाव के विषय में थोड़ी बहुत भावनात्मक जागरूकता होनी चाहिए थी या उन्हें उसकी कुछ समझ प्राप्त करनी चाहिए थी। जब मनुष्य ने परमेश्वर का अनुसरण करना शुरू किया था उस समय से लेकर अब तक, मानवजाति ने बहुत कुछ प्राप्त किया है, लेकिन सभी प्रकार के कारणों की वजह से—मानवजाति की कम क्षमता, अज्ञानता, विद्रोहीपन एवं विभिन्न इरादे—मानवजाति ने इसमें से बहुत कुछ को खो भी दिया है। क्या परमेश्वर ने मानवजाति को पहले से ही काफी कुछ नहीं दिया है? यद्यपि परमेश्वर अपने व्यक्तित्व (स्वरूप) को मनुष्यों से छुपाता है, फिर भी अपने स्वरूप से, और यहाँ तक कि अपने जीवन से भी उनकी आपूर्ति करता है; परमेश्वर के विषय में मानवता का ज्ञान केवल उतना ही नहीं होना चाहिए जितना अब है। इसीलिए मैं सोचता हूँ कि परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव, एवं स्वयं परमेश्वर के विषय में तुम लोगों के साथ आगे संगति करना आवश्यक है। इसका उद्देश्य यह है ताकि हज़ारों सालों की देखभाल एवं विचार वह व्यर्थ में ही समाप्त न हो जाए, और ताकि मानवजाति उनके प्रति परमेश्वर की इच्छा को सचमुच में समझ सके और उसकी सराहना कर सके। यह इसलिए है ताकि लोग परमेश्वर के विषय में अपने ज्ञान में एक नए कदम की ओर आगे बढ़ सकें। साथ ही यह परमेश्वर को लोगों के हृदयों में अपने असली स्थान पर वापस लौटाएगा, अर्थात्, उसके साथ इंसाफ करने के लिए।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I
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