सत्य के अनुसरण का महत्व और उसके अनुसरण का मार्ग (भाग एक)
अभी-अभी भाई ने सत्य का अनुसरण करने के विषय पर संगति की। इतनी संगति करने के बाद क्या तुम लोगों को लगता है कि कैसे सत्य का अनुसरण करना सबसे महत्वपूर्ण चीज है और अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा? शायद अब तुम में से कुछ लोग तैयार हो और सत्य का कर्मठता से अनुसरण करने, परमेश्वर के वचनों पर कड़ी मेहनत करने, और सत्य को और ज्यादा समझने और उसका ज्यादा अभ्यास करने का प्रयास करने का मन बना चुके हो। क्या यह सही मानसिकता है? बेशक यह सही मानसिकता है। अगर इतनी संगति करने के बाद भी तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया नहीं है, तो यह सामान्य नहीं है, और ये वचन व्यर्थ होंगे। सत्य उन सभी के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है, जो ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसके प्रकट होने की लालसा रखते हैं और उन सबके लिए भी, जो सत्य से प्रेम करते हैं और अंत के दिनों में परमेश्वर का उद्धार पाने की आशा करते हैं। सत्य का अनुसरण करना अन्य सभी चीजों से ज्यादा महत्वपूर्ण है : यह हमारी नौकरियों, हमारे जीवन या हमारी दैहिक संभावनाओं से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्या अब तुम लोग सत्य का अनुसरण करने का महत्व समझते हो? तुम लोग निस्संदेह यह समझते हुए अपने दिलों में कुछ भावनाएँ अनुभव कर रहे हो कि सत्य का अनुसरण करना तुम्हारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज है—कह सकते हैं कि तुममें से प्रत्येक के लिए जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना है। इतनी संगति सुनने के बाद, अब तुम लोगों में से प्रत्येक के दिल में ऐसी नींव, ऐसा ज्ञान, भावना और एहसास हो सकता है। इस तरह का ज्ञान और भावनाएँ सही और सटीक हैं, और ये साबित करती हैं कि तुम लोगों ने जो समझा है, वह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुरूप है, वह तुम लोगों में से प्रत्येक पर जो कुछ करेगा उस चीज और उसके इरादों के अनुरूप है।
ज्यादातर लोग आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं। अगर वे सत्य थोड़ा समझते भी हैं, तो भी वे आशीष पाने का अपना इरादा नहीं छोड़ सकते। सत्य के प्रति मनुष्य का क्या रवैया है? अपने दिलों में, ज्यादातर लोग सत्य से विमुख हो चुके हैं और उन्हें इसकी परवाह तक नहीं है। क्योंकि मनुष्य सत्य से अपरिचित है। वह नहीं समझता कि सत्य क्या है, और यह तो बिल्कुल नहीं समझता कि वह कहाँ से आता है, उसे उसका अनुसरण क्यों करना चाहिए, उसे क्यों स्वीकारना चाहिए, उसका अभ्यास क्यों करना चाहिए, या परमेश्वर उसे इतना ज्यादा क्यों व्यक्त करता है। ये सभी प्रश्न हर व्यक्ति के लिए अनजाने हैं और उन्होंने कभी इन पर विचार नहीं किया है और न ही कभी इनसे रूबरू हुए हैं। अब जबकि परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय का कार्य कर रहा है और उसने कई वचन व्यक्त किए हैं, परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर सत्य के हर पहलू से जुड़े कई मामले हमारे सामने आते हैं। सत्य खोजे बिना कोई उपाय नहीं है, इसलिए हमें सत्य की समझ की जरूरत है और हमें वास्तविकता के प्रकाश में परमेश्वर के वचन पढ़ने चाहिए। परमेश्वर के वचनों का प्रत्येक वाक्य सत्य है और उसे समझने के लिए व्यक्ति को उसे व्यक्तिगत रूप से अनुभव करने की जरूरत है। क्योंकि जन्म से लेकर वयस्क होने, नौकरी पाने, शादी करने और करियर में व्यवस्थित होने तक, व्यक्ति के परिवेश में सब-कुछ—जिसमें वे लोग, घटनाएँ और चीजें शामिल हैं जिनके संपर्क में वह आता है और वे सभी चीजें जो उसके आसपास होती हैं—वास्तव में सत्य से संबंधित है, लेकिन एक भी व्यक्ति इन चीजों को सत्य के अनुसार नहीं देखता। इसीलिए कहा जाता है कि सत्य से सभी अपरिचित हैं। पूरी मानवजाति में कोई भी सत्य नहीं समझता, अतः इसके लिए आवश्यक है कि तुम लोग अभी से सत्य का सामना करना, उसे स्वीकारना और उसका अनुसरण करना शुरू कर दो। यह जरूरी है। अगर तुमने अभी तक यह नहीं समझा है कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए सत्य का अनुसरण करना आवश्यक है, और सिर्फ सत्य ही तुम्हें बदल सकता है, तुम्हें पूर्ण बना सकता है, तुम्हें उद्धार दिला सकता है और तुम्हें सच में परमेश्वर के पास आने में सक्षम बना सकता है—अगर तुम इन चीजों को नहीं समझ सकते, तो तुम्हें सत्य में रुचि नहीं होगी, तुम उसका अनुसरण नहीं कर पाओगे, और जैसे-जैसे तुम आगे बढ़ोगे, तुम्हारा उत्साह घटता जाएगा। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास के लिए कलीसियाई जीवन जीना और अपना कर्तव्य निभाना पर्याप्त है, तो हमें फिर भी सत्य का अनुसरण करने की जरूरत क्यों है? हम कोई बुराई नहीं करते, न ही हम दूसरों का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर के विरोधी नकली अगुआओं या मसीह-विरोधियों का अनुसरण तो बिल्कुल भी नहीं करते। हम सब परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में कुछ सिद्धांत समझते हैं और परमेश्वर में अपनी आस्था अंत तक कायम रख सकते हैं, इसलिए हमें ज्यादा गहरे सत्य समझने की जरूरत नहीं है।” क्या यह दृष्टिकोण सही है? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि परमेश्वर लोगों को तभी बचा सकता है, जब वे सत्य प्राप्त कर लेते हैं।) यह सही है। अपने दिलों में कुछ लोग अब मनुष्य के उद्धार के लिए सत्य के महत्व से अस्पष्ट रूप से अवगत हैं। वे अभी भी सत्य के मनुष्य का जीवन बनने का मूल्य और महत्व स्पष्ट रूप से देखने से दूर हो सकते हैं, लेकिन उनके दिलों में यह भावना और जागरूकता बहुत मूल्यवान है। महत्वपूर्ण यह है कि क्या यह भावना और जागरूकता लोगों के दिलों में जड़ें जमा सकती है, और यह लोगों के भावी अनुसरणों पर निर्भर करता है। तुममें अब यह जागरूकता होना अच्छी बात है। इससे आशा बँधती है कि तुम उद्धार की राह पर चल सकते हो। सत्य का अनुसरण करना वास्तव में महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, जब तुम नकारात्मक और कमजोर होते हो तो क्या तुम सत्य के समर्थन और पोषण के बिना मजबूत बन सकते हो? क्या तुम अपनी कमजोरियों पर काबू पा सकते हो? क्या तुम यह पहचान और विश्लेषण कर सकते हो कि कौन-सी चीज तुम्हें कमजोर और नकारात्मक बनाती है? तुम निश्चित रूप से नहीं पहचान सकते! जब तुम अपने कर्तव्य निभाने में अनमने रहते हो, तो क्या सत्य का अनुसरण किए बिना तुम इस भ्रष्ट स्वभाव को ठीक कर सकते हो? क्या तुम अपने कर्तव्य निभाने में परमेश्वर के प्रति वफादारी प्राप्त कर सकते हो? सत्य खोजे बिना क्या मनुष्य खुद को जान सकता है और अपनी भ्रष्टता, अपना अहंकार ठीक कर सकता है? मनुष्य में हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ होती हैं और वह परमेश्वर को हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से मापता रहता है। क्या सत्य के अभाव में इसे ठीक किया जा सकता है? नहीं किया जा सकता। जीवन में अपने सामने आने वाली कई चीजों में हमें विकल्पों का सामना करना पड़ता है। अगर हम सत्य नहीं समझते, अगर हम नहीं जानते कि परमेश्वर के इरादे क्या हैं और वह हमसे क्या चाहता है, तो हमारे पास अभ्यास का कोई मार्ग नहीं होता। तब हम अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करेंगे, और हम आसानी से गलतियाँ करेंगे और गलत मार्ग अपनाएँगे। क्या मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का अस्तित्व शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से ठीक किया जा सकता है, जिन्हें वह समझता है? अगर तुम सत्य नहीं खोजते, तो कोई कह सकता है कि तुम जीवन में जो कुछ भी करते हो उसमें कोई सिद्धांत नहीं होता, अनुसरण करने के लिए कोई मार्ग नहीं होता, और कोई लक्ष्य या दिशाएँ नहीं होतीं। अगर यह सच है, तो तुम लोग जो कुछ भी करते हो, वह सत्य-सिद्धांतों के विपरीत है, परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध और उसके साथ विश्वासघात का संकेत है, और परमेश्वर तुम्हारे कार्यों से घृणा करेगा और उन्हें कोसेगा। अगर तुम लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हो, तो परमेश्वर का न्याय और ताड़ना न स्वीकारने पर तुम लोगों में से कोई नहीं बचेगा। इसलिए, सत्य को वास्तव में समझने से पहले, हर व्यक्ति को कुछ न्याय और ताड़ना, कुछ दंड और अनुशासन का सामना करना पड़ेगा। इन सबका उद्देश्य लोगों को सत्य प्राप्त करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने में सक्षम बनाना है।
भले ही तुम लोग परमेश्वर में विश्वास करने के कुछ सिद्धांत समझते हो, फिर भी हर चीज का अनुभव करते समय तुम लोग अक्सर भ्रमित महसूस करते हो। तुम किंकर्तव्यविमूढ़ और परमेश्वर के इरादे समझने में असमर्थ महसूस करते हो, तुम नहीं जानते कि किस चीज का अभ्यास करना है, और कितनी भी चिंता करने से कोई समाधान नहीं मिलता। तुम संगति करना चाहते हो लेकिन तुम नहीं जानते कि समस्या क्या है, तुम परमेश्वर के वचनों में उत्तर तलाशना चाहते हो, लेकिन उसके वचन असीमित हैं और तुम्हारे पास कोई लक्ष्य नहीं है। क्या अक्सर ऐसा नहीं होता? यह एक संकेत है कि नए विश्वासी तमाम चीजों में सत्य खोजना नहीं जानते। इसलिए, सभाओं में तुम लोगों के ज्यादातर प्रश्न सत्य से संबंधित नहीं होते, जैसे कि तुम्हारी संगति के ज्यादातर शब्द सत्य से संबंधित नहीं होते। यह दर्शाता है कि ज्यादातर लोग नहीं जानते कि वास्तविक जीवन में सत्य का अभ्यास कैसे करें, न ही वे यह जानते हैं कि जब घटनाएँ उन पर आकर पड़ती हैं तो सत्य कैसे खोजें, अपने अभ्यास के लिए सिद्धांत और लक्ष्य के रूप में सत्य तो उनके पास बिल्कुल नहीं होता। क्या यह सबके लिए एक मुश्किल है? अगर तुमने सत्य का सिद्धांत समझ लिया होता और अपने साथ होने वाली घटनाओं में उसका सार बूझ लिया होता, तो क्या तुम फिर भी अक्सर भ्रमित होते? निश्चित रूप से नहीं होते। अगर तुम्हें कुछ भ्रम महसूस होता भी है, तो वह या तो इसलिए होता है कि सत्य के बारे में तुम्हारी समझ बहुत उथली है, या सत्य के बारे में तुम्हारा अनुभव सीमित है। तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझ सकते, तुम्हारी भ्रष्टता ठीक नहीं हुई है, और तुम अपने दिल में दर्द महसूस करते हो। अब सत्य का अनुसरण करने में तुम लोगों की सबसे बड़ी कठिनाई क्या है? क्या यह कि जब सत्य का कोई विषय संगति के लिए उठाया जाता है, तो तुम लोग डर जाते हो? शब्द और धर्म-सिद्धांत व्यक्त करने और वास्तविकता न बता पाने से डर जाते हो? और इस बात से ज्यादा डरते हो कि जब तुम्हारे साथ चीजें घटित होंगी, तो तुम हक्के-बक्के रह जाओगे? (हाँ।) ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोगों के दिलों में सत्य नहीं है। अगर होता, तो तुम लोगों को इन चीजों को सँभालना इतना कठिन न लगता। कुछ लोग नहीं जानते कि जब उनके ऊपर घटनाएँ आ पड़ें, तो क्या करना चाहिए। वे परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजना जानते हैं, लेकिन सही उत्तर तुरंत नहीं मिलता, इसलिए वे समझौतावादी नजरिया अपनाते हैं। अर्थात्, वे परमेश्वर के वचनों के अर्थ की शाब्दिक समझ से संतुष्ट होकर नियमों का पालन करते हैं। अगर वे प्रार्थना करते हैं और उनके दिल शांत और आश्वस्त हो जाते हैं, और अगर उनके भाई-बहन उन्हें उससे बड़ी अंतर्दृष्टियाँ नहीं दे पाते जितनी बड़ी खुद उनकी है तो उन्हें लगता है कि इस तरह से अभ्यास करना पर्याप्त है। वास्तव में, ऐसा अभ्यास सत्य के मानक से बहुत दूर है, सत्य की वास्तविकता से बहुत दूर है, और परमेश्वर के इरादों से बहुत दूर है। यह सत्य का अभ्यास करने का सिद्धांत नहीं है। अगर तुम सत्य का अभ्यास करना और उसे समझना चाहते हो, तो सबसे पहले अपनी रोज की जिंदगी में कुछ घटने पर तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए। इसका अर्थ है कि तुम्हें चीजों को परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर देखना चाहिए; जब समस्या का सार स्पष्ट हो जाएगा तो तुम्हारी समझ में आ जाएगा कि सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कैसे अभ्यास करना है। और अगर तुम हमेशा ही चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखोगे तो तुम्हें तुम्हारे आसपास घटने वाली हर चीज में परमेश्वर का हाथ—परमेश्वर का कर्म—नजर आने लगेगा। कुछ लोगों को लगता है कि उनके आसपास जो भी होता है, उसका परमेश्वर में उनकी आस्था या सत्य से कोई संबंध नहीं है; वे बस अपनी खुद की मर्जी से चलते हैं और शैतान के फलसफे के अनुसार व्यवहार करते हैं। क्या इस तरह वे कोई सबक सीख सकते हैं? बिल्कुल नहीं। इसी कारण कुछ लोग परमेश्वर में दस-बीस वर्ष तक विश्वास करने के बावजूद सत्य या जीवन प्रवेश की कोई समझ नहीं रखते। वे अपने रोज के जीवन में परमेश्वर को शामिल करने, या अपने आसपास घटने वाली चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखने में असमर्थ हैं; इसलिए जब भी उनके साथ कुछ होता है, वे इसमें सही-गलत का अंतर नहीं कर पाते, न ही वे सत्य-सिद्धांतों के अनुसार इससे निपट पाते हैं। ऐसे लोग जीवन प्रवेश नहीं कर पाते। कुछ लोग सिर्फ सभा में परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए अपना दिमाग लगाते हैं; ऐसे अवसरों पर वे थोड़े-बहुत ज्ञान की बात कर सकते हैं, पर वे वास्तविक जीवन में अपने साथ होने वाली किसी भी चीज के साथ परमेश्वर के वचनों को लागू नहीं कर सकते, न ही वे जानते हैं कि सत्य का अभ्यास कैसे करना है, और इसलिए वे सोचते हैं कि उनके दैनिक जीवन में जो कुछ घटता है वह सत्य से जुड़ा नहीं होता, और उसका परमेश्वर के वचनों से कोई संबंध नहीं होता। परमेश्वर में अपनी आस्था में, ऐसा लगता है कि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को सिर्फ ज्ञान का क्षेत्र मानकर चलते हैं, जिसका उनकी रोज की जिंदगी से कोई संबंध नहीं है, और जो उनके विचारों, उनके जीवन के लक्ष्यों और जीवन के अनुसरणों से पूरी तरह कटा हुआ है। परमेश्वर में विश्वास के ऐसे स्वरूप के बारे में क्या? क्या वे सत्य को समझ पाने और वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होंगे? जब वे परमेश्वर में इस तरह विश्वास करते हैं, तो क्या वे परमेश्वर के अनुयायी हैं? वे परमेश्वर में सचमुच विश्वास करने वाले लोग नहीं हैं, उनका अनुयायी होना तो दूर की बात है। अपने जीवन की सभी समस्याओं को—इनमें परिवार, शादी, कामकाज या उनकी संभावनाओं से जुड़ा सब कुछ शामिल हैं—वे ऐसी समस्याएँ मानते हैं जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं होता, इसलिए वे इन्हें मानवीय उपायों से सुलझाने की कोशिश करते हैं। इस तरह के अनुभव से वे कभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाएंगे, कभी भी यह नहीं समझ पाएंगे कि परमेश्वर लोगों में क्या करना चाहता है, और उनमें क्या परिणाम हासिल करना चाहता है। परमेश्वर लोगों को बचाने, उनके भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करके बदलने के लिए सत्य व्यक्त करता है, पर उन्हें यह पता ही नहीं है कि सिर्फ सत्य को स्वीकार करके और इसका अनुसरण करके ही वे अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर सकते हैं; उन्हें पता ही नहीं है कि अपने रोजाना के जीवन में परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास करके ही वे सत्य प्राप्त कर सकते हैं। क्या ऐसे लोग मंदबुद्धि और अज्ञानी नहीं हैं? क्या वे सबसे मूर्ख, हास्यास्पद लोग नहीं हैं? कुछ लोगों ने परमेश्वर में अपनी आस्था में कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं किया। उन्हें लगता है कि परमेश्वर में आस्था का मतलब है सभाओं में जाना, प्रार्थना करना, भजन गाना, परमेश्वर के वचन पढ़ना; वे धार्मिक अनुष्ठानों पर जोर देते हैं, और वे कभी परमेश्वर के वचनों का अभ्यास या अनुभव नहीं करते। धार्मिक दुनिया के लोग इसी तरीके से परमेश्वर में विश्वास करते हैं। और जब लोग परमेश्वर में आस्था जैसी महत्वपूर्ण चीज को धार्मिक विश्वास मानने लगते हैं, तो क्या वे छद्म-विश्वासियों में शामिल नहीं हैं? क्या वे गैर-विश्वासी नहीं हैं? सत्य के अनुसरण के लिए बहुत-सी प्रक्रियाओं का अनुभव करने की जरूरत होती है। इसका एक सरल पक्ष है, और इसका एक जटिल पक्ष भी है। सरल शब्दों में, हमें अपने आसपास होने वाली हर चीज में सत्य की खोज करनी चाहिए और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना चाहिए। एक बार जब तुम ऐसा करना शुरू कर दोगे, तो तुम यह देखोगे कि तुम्हें परमेश्वर पर अपने विश्वास में कितना सत्य हासिल करने और उसका अनुसरण करने की जरूरत है, तुम जानोगे कि सत्य बहुत व्यावहारिक है और सत्य ही जीवन है। परमेश्वर मानवजाति को बचाता है ताकि मानवजाति सत्य को जीवन के रूप में प्राप्त कर सके। सारी सृजित मानवजाति को सत्य को जीवन के रूप में स्वीकार करना चाहिए, सिर्फ उन्हें ही नहीं जो कर्तव्यों को निभाते हैं, या जो अगुआ और कार्यकर्ता हैं, और या जो परमेश्वर की सेवा करते हैं। परमेश्वर के वचन समूची मानवजाति के लिए हैं, और परमेश्वर समूची मानवजाति से बात करता है। इसलिए सभी सृजित प्राणियों और समूची मानवजाति को परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकार करना चाहिए, सभी चीजों में सत्य की खोज करनी चाहिए, और फिर सत्य-सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, ताकि वे सत्य का अभ्यास और इसके प्रति समर्पण करने योग्य बन सकें। सत्य का अभ्यास अगर सिर्फ अगुआओं और कार्यकर्ताओं से अपेक्षित हो, तो यह परमेश्वर के इरादे के बिल्कुल विपरीत होगा, क्योंकि परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया सत्य समूची मानवजाति के लिए है, और इसे मानवजाति को बचाने के लिए व्यक्त किया जाता है, न कि सिर्फ कुछ लोगों को बचाने के लिए। अगर ऐसी बात होती तो परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचनों का थोड़ा अर्थ ही होता। क्या अब तुम लोगों के पास सत्य के अनुसरण का मार्ग है? सत्य का अनुसरण करते हुए सबसे पहले किस चीज का अभ्यास करना चाहिए? सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और प्रवचन और संगति सुनने में ज्यादा समय बिताना चाहिए। जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आए, तो ज्यादा प्रार्थना करो, ज्यादा खोजो। जब तुम अधिक सत्य से युक्त हो जाओगे, जब तुम लोग तेजी से विकसित होगे और तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद होगा, तो तुम कोई कर्तव्य निभा पाओगे, कुछ काम हाथ में ले पाओगे, और कुछ परीक्षणों और प्रलोभनों से गुजरने में सक्षम हो जाओगे। उस समय तुम महसूस करोगे कि तुमने वास्तव में कुछ सत्य समझ और पा लिए हैं, और तुम जानोगे कि परमेश्वर द्वारा कहे गए सभी वचन सत्य हैं, कि वे भ्रष्ट मानवजाति के उद्धार के लिए अत्यंत अनिवार्य सत्य हैं, और वे अनूठे सृष्टिकर्ता द्वारा प्रदान किए गए जीवन के सत्य हैं। अभी, तुम लोगों के पास कोई अनुभव नहीं है; सिर्फ तुम्हारे हृदय में थोड़ी-सी लालसा है। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन गहन हैं, और उनमें बहुत-सी ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम प्राप्त नहीं कर सकते, और बहुत-से ऐसे सत्य हैं जिन्हें तुम नहीं समझ सकते। कुछ चीजों का सार अभी भी अस्पष्ट है, और तुम्हें लगता है कि सत्य के बारे में तुम्हारी समझ बहुत सतही है। बस इतना है कि तुम्हारे दिल में ऐसी लालसा और ऐसी ऊर्जा है, लेकिन तुम सत्य प्राप्त कर सकते हो या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम लोग भविष्य में उसका अभ्यास और अनुसरण कैसे करते हो।
अंत के दिनों के न्याय के कार्य में, कल्पना करो कि अगर परमेश्वर सिर्फ कुछ सरल सत्य व्यक्त करे : ज्यादा गहरा कुछ नहीं, लोगों का न्याय और उन्हें उजागर करने से बहुत ज्यादा संबंधित तो बिल्कुल भी नहीं, बल्कि लोग जो स्वीकार और समझ सकते हैं, उसके अनुसार सिर्फ थोड़े-से वचन—बस वादे और आशीष के कुछ वचन या प्रोत्साहन के कुछ वचन। अगर लोग इन वचनों को स्वीकार भी लें, तो क्या वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं? एक उदाहरण लो। मान लो, परमेश्वर बस यह कहता है, “तुम सभी लोगों में भ्रष्टता बहुत गहरी है। तुम सभी सत्य से रहित हो और तुम सभी मेरे प्रति अनिष्ठावान हो। तुम लोगों का प्रकृति-सार शैतान की प्रकृति बन गया है; तुम लोग साक्षात शैतान बन गए हो। तुम लोग मेरे प्रति शत्रुतापूर्ण हो और तुम लोगों को सत्य से कोई प्रेम नहीं है।” फिर वह लोगों से कहता है, “जाओ, इसका पता लगाओ!” इसके तुरंत बाद कहता है, “धन्य है वह, जो सत्य से प्रेम करता है। जो मेरे प्रति निष्ठावान है, वह मेरे इरादे पूरे करने में सक्षम होगा, इस राह पर अंत तक चलेगा, और मेरा वादा हासिल करेगा।” अगर परमेश्वर लोगों से बस यह कह दे, तो क्या उनके हृदय हिल्लोरें मारने लग जाएँगे? क्या वे सत्य की दिशा में प्रयास करेंगे? लोगों को कैसा लगेगा? “हमने परमेश्वर के सभी वचन पढ़े हैं, और हालाँकि हम सभी में भ्रष्ट स्वभाव हैं, फिर भी हम बुरे लोग नहीं हैं और परमेश्वर का विरोध नहीं करेंगे। बस इतना है कि हममें विद्रोही स्वभाव हैं, हम नैतिक रूप से कुछ हद तक भ्रष्ट और हीन चरित्र के हैं, और सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण करना पसंद करते हैं। अब जबकि हम कुछ सत्य समझते हैं और आत्मचिंतन कर खुद को जान सकते हैं, तो हम निश्चित रूप से इन भ्रष्ट चीजों को त्याग सकते हैं।” क्या इस स्थिति में बहुत लोग हैं? उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास का सिद्धांत समझना ही सत्य समझना है, और यह बहुत खतरनाक है। जो लोग गर्व से शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, वे अपने सिर पर कोई परीक्षण आते ही तुरंत गिर जाते हैं और उजागर हो जाते हैं। क्या सत्य का अनुसरण किए बिना और न्याय एवं ताड़ना स्वीकारे बिना कोई भ्रष्ट स्वभाव त्यागा जा सकता है? यह असंभव है। तुम लोगों को यह स्पष्ट होना चाहिए कि समय अब समाप्त हो रहा है, और अगर तुम सत्य प्राप्त करने के लिए कष्ट नहीं उठा सकते और कीमत नहीं चुका सकते, तो धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर में विश्वास करके अपना समय बरबाद करना आसान होगा। फिर, जब महा क्लेश आएगा, तो तुम्हारे पास चाहकर भी सत्य का अनुसरण करने का समय नहीं होगा, और तुम उद्धार का अपना मौका पूरी तरह से खो दोगे। हालाँकि तुम लोग अब परमेश्वर में विश्वास करते हो, लेकिन तुम परमेश्वर के इरादे नहीं समझते। क्या तुम लोग वास्तव में जानते हो कि परमेश्वर सत्य क्यों व्यक्त करता है, और न्याय का कार्य क्यों करता है? हर वचन, हर विषय, हर सत्य जो परमेश्वर व्यक्त करता है, वह महत्वपूर्ण और तुम लोगों के लिए बेहद फायदेमंद है। चाहे तुम आज इसे देख पाओ, अनुभव कर पाओ या महसूस कर पाओ या नहीं, और चाहे तुमने अभी वास्तव में कितना भी हासिल किया हो, अपने तीन से पाँच वर्षों के अनुभव के बाद तुम लोग महसूस करोगे कि आज परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और परमेश्वर का ये वचन व्यक्त करना कितना उत्कृष्ट है! अगर परमेश्वर अभी भी मनुष्य से वैसा ही लाड़-प्यार करता जैसा उसने अनुग्रह के युग में किया था, उसे “अपनी गोद का मेमना” और एक खोई हुई भेड़ कहता, जिसे खोजने के लिए वह अन्य निन्यानवे भेड़ों को छोड़ देता, तो मनुष्य सोचता, “परमेश्वर की दया और प्रेममय दयालुता बहुत महान है; मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम बहुत गहरा है!” अगर मनुष्य परमेश्वर के बारे में हमेशा इस तरह से सोचता और उसे इस तरह से देखता है, तो वह वास्तव में परमेश्वर को नहीं खोजेगा, वह परमेश्वर के पास नहीं आएगा, वह परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं होगा और कि उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होगा। परमेश्वर की सच्ची समझ के बिना मनुष्य अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं त्याग पाएगा; वह परमेश्वर और सत्य के साथ तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करेगा, और वह परमेश्वर का विरोध करेगा जैसा कि दानव और शैतान करते हैं। अगर ऐसा मामला है, तो मनुष्य कभी नहीं समझेगा कि सत्य क्या है, वह वास्तव में कभी नहीं समझेगा कि परमेश्वर में विश्वास करना और उसका अनुसरण करना क्या होता है, और सत्य खोजना और प्राप्त करना क्या होता है। यह सच है। अगर परमेश्वर ने ये वचन व्यक्त नहीं किए होते; अगर उसने हर आखिरी व्यक्ति को ताड़ना देकर उसका न्याय न किया होता और हर व्यक्ति के साथ ऐसे कठोर वचनों से व्यवहार न किया होता, तो लोग सोचते कि परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ है कि उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया है, कि परमेश्वर में विश्वास करना बाद में स्वर्गारोहण, राज्य में प्रवेश और राजा की तरह शक्ति का इस्तेमाल करना है। कुछ लोग कहते हैं, “मेरे जैसा आदमी लगभग एक सेंचूरियन यानी सौ सैनिकों का नायक हो सकता है!” दूसरे कहते हैं, “मैं ज्यादा कुछ नहीं माँगता। राज्य में मैं चौकीदारी भी कर सकता हूँ या गलियों में झाड़ू भी लगा सकता हूँ!” यह परमेश्वर में विश्वास करने वाले हर व्यक्ति का मूल इरादा, आदर्श और इच्छा होती है। परमेश्वर ने बहुत-सी बातें कही हैं जो मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं, उसकी असंयत इच्छाओं और उसके भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह उजागर करती हैं। मनुष्य जो कुछ भी सोचता है, वह सत्य के अनुरूप या परमेश्वर के अनुकूल नहीं है, और मनुष्य जिसकी आशा करता है या जिसे आदर्श रूप से प्राप्त करना चाहता है, वह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं है। यह सब पूरी तरह से परमेश्वर के विपरीत है। जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उनका सामना परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के वचनों से होता है, परमेश्वर के उन वचनों से जो मनुष्य का प्रकृति-सार उजागर करते हैं, उन वचनों से जो मनुष्य की धारणाओं से मेल नहीं खाते, और परमेश्वर के कार्य करने के उस तरीके से जो मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाता। हालाँकि बहुत-से लोग स्वीकारते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और वे परमेश्वर के कार्य में सहयोग करने और परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारने के इच्छुक हैं, लेकिन उनके लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करना बहुत कठिन है। जब सत्य का अनुसरण करने की बात आती है, तो बहुत-से लोग उदासीन हो जाते हैं, और जब सत्य के बारे में संगति करने की बात आती है, तो वे ऊँघने लगते हैं और सुनने पर ध्यान नहीं देते। लेकिन जब रहस्यों, आशीषों और वादों की बात आती है, तो उनमें जान पड़ जाती है। क्या हो रहा है? अपने हृदय की गहराई में, लोग सत्य से प्रेम नहीं करते। उन्हें लगता है कि उसका अनुसरण करना बहुत कष्टकारी, श्रमसाध्य, बहुत दर्दनाक और चुकाने की दृष्टि से बहुत बड़ी कीमत है। अगर सत्य का अनुसरण करना प्राथमिक विद्यालय की पाठ्यपुस्तक या नर्सरी की कविता पढ़ने जितना सरल हो, तो कुछ लोगों को इसमें थोड़ी दिलचस्पी हो सकती है, क्योंकि यह सरल, आसान होगा, और इसके लिए कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी या ज्यादा ऊर्जा खर्च नहीं करनी पड़ेगी। अब, यह बिल्कुल उल्टा है। सत्य का अनुसरण करना न तो इतना आसान है, न ही इतना सरल। ऐसा नहीं है कि, अगर लोगों में परमेश्वर के वचन पढ़ने और समझने की पर्याप्त क्षमता हो, तो वे स्वाभाविक रूप से सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर लेते हैं; शब्द और धर्म-सिद्धांत समझने का मतलब सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना नहीं है। कुछ लोग परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर इतने उत्साही होते हैं कि वे सभाओं में और उपदेश और संगतियाँ सुनते समय नोट्स लेते हैं। लेकिन कुछ समय बाद वे इसके बारे में सोचते हैं और इससे उन्हें कुछ हासिल नहीं होता : वे सब-कुछ भूल जाते हैं और चाहते हुए भी कुछ याद नहीं रख पाते, इसलिए उन्हें लगता है कि सत्य प्राप्त करना आसान नहीं, और सिर्फ तब जाकर उन्हें समझ आता है कि परमेश्वर में विश्वास करना कोई आसान बात नहीं है। दूसरे लोगों को लगता है कि उन्होंने सभाओं के बाद बहुत-कुछ हासिल किया और समझा है, लेकिन रात भर सोने के बाद वे इसके बारे में सब-कुछ भूल चुके होते हैं, जो कि कोई सभा न होने से ज्यादा अलग नहीं है। कुछ और भी लोग हैं जो परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद प्रबुद्ध और रोशन महसूस करते हैं। वे खुद से बहुत प्रसन्न महसूस करते हैं, लेकिन गैर-विश्वासियों के साथ कुछ देर बात करने के बाद, उनका दिमाग भटक जाता है, और जब वे घर जाते हैं और परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, तो वे उसे महसूस नहीं कर पाते। वे सत्य का अनुसरण करने, अपने स्वभाव बदलने और परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के बारे में सब-कुछ भूल जाते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और वे सिर्फ कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत ही समझते हैं। परमेश्वर के वचनों ने अभी तक उनमें जड़ें नहीं जमाई हैं, जिससे साबित होता है कि उनके दिल में अभी भी परमेश्वर के लिए जगह नहीं है, और इसलिए, बाहरी मामले निपटाते समय परमेश्वर उनके दिल का प्रभारी नहीं होता। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना कोई आसान बात नहीं है। कुछ परीक्षणों, असफलताओं और बाधाओं का अनुभव किए बिना लोगों को वास्तव में लाभ नहीं मिलेगा, और सिर्फ रटकर याद करने से काम नहीं चलेगा। आजकल, ज्यादातर लोग कुछ वर्षों तक विश्वास कर चुकने के बाद ही कुछ सत्य समझना शुरू करते हैं। खासकर कुछ असफलताओं और बाधाओं का अनुभव करने के बाद, वे सत्य का अनुसरण करने का महत्व महसूस करते हैं, और सिर्फ तभी वे परमेश्वर के वचन पढ़ने, सत्य पर संगति करने और सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करना शुरू करते हैं। सिर्फ तभी वे वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू करते हैं।
कुछ लोग कहते हैं, “ऐसा क्यों होता है कि जब कोई कठिनाई या रुकावट आती है, तो मैं विवश महसूस करने लगता हूँ और समझ नहीं आता कि क्या करूँ, और मुझे लगता है कि परमेश्वर में विश्वास करना बहुत कठिन है? ऐसा क्यों होता है कि जब कठिनाइयाँ आती हैं तो मैं नकारात्मक पड़ जाता हूँ और मुझमें परमेश्वर पर विश्वास करने का उत्साह नहीं रहता? ऐसा क्यों होता है कि कभी-कभी मेरा बैठकों में मन नहीं लगता या परमेश्वर के वचन पढ़ने में दिलचस्पी नहीं होती, पर अगर मैं गैर-विश्वासियों की चीजों के बारे में बात करता हूँ, तो उत्साहित हो जाता हूँ?” यहाँ चल क्या रहा है? असल में मनुष्य के प्रकृति सार को देखें तो ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मनुष्य सत्य से प्रेम नहीं करता। यदि लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में उनकी आस्था सच्ची हो सकती है? क्या उनके दिलों में परमेश्वर के लिए जगह हो सकती है? क्या परमेश्वर उनके दिलों में है? नहीं है, यह तय है। यदि तुम्हारे दिल में परमेश्वर नहीं है और परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, तो इससे साबित होता है कि तुम्हारे दिल में सत्य नहीं है, तुम किसी भी सत्य को नहीं समझते, और तुम किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं करोगे। इसलिए जब परमेश्वर के वचन पर विचार करने और सत्य का अभ्यास करने की बात आती है, तो लोग उदासीन हो जाते हैं और उनके पास कोई रास्ता नहीं बचता। अगर तुमसे पैसा कमाने को कहा जाए और कहा जाए कि तुम एक खास कार्य करके ज्यादा पैसा कमा सकते हो, तो तुम सभी कठिनाइयाँ दूर करके सफल होने के लिए हर संभव प्रयास करोगे, और तुम असफलता से नहीं डरोगे बल्कि कोशिश करते जाओगे। कुछ रुचियाँ तुम्हें खींचती हैं, तुम्हारा हृदय रुचियों में जकड़ा रहता है, वे रुचियाँ तुम्हारे दिल में सबसे पहले आती हैं, और तुम्हें लगता है कि पैसा और रुचियाँ बहुत जरूरी हैं और इन्हें आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता, इसलिए तुम अपनी इच्छाएँ और उद्देश्य पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास करोगे, चाहे इसके लिए तुम्हें कोई भी कीमत चुकानी पड़े। इसलिए अगर तुम सत्य के अनुसरण को अपने जीवन की पहली प्राथमिकता बनाते हो, तो मेरा मानना है कि तुम मार्ग विहीन नहीं रहोगे, न ही तुम्हारे पास कम समय होगा, किसी कठिनाई का अनुभव करना तो दूर की बात है, जो सत्य का अनुसरण करने और उसका अभ्यास करने में रुकावट डाले। क्या तुम लोगों के भीतर ऐसा संकल्प है? यह ऐसा है जैसे कोई माता-पिता अपने बच्चों को संतुष्ट करने के लिए कोई भी कीमत चुका देंगे। जब बच्चे बताते हैं कि कॉलेज जाने में कितना खर्च आएगा, और परिवार के पास इतना पैसा नहीं होता, तो माता-पिता पैसे उधार लेते हैं, पैसे इकट्ठे करते हैं, या व्यवसाय के तरीके ढूँढ़ते हैं या उधार न ले पाए तो छोटा-मोटा काम करते हैं। चाहे वे जितना कष्ट सहें, अपने बच्चों को कॉलेज भेजने, अपने बच्चों की सफलता और अपने बच्चों को अच्छी संभावनाएँ दिलाने लायक जरूरी पैसा इकट्ठा कर लेते हैं। अगर सत्य के अनुसरण में तुम लोगों के पास सचमुच ऐसा संकल्प हो, तो मुझे लगता है कि ऐसी कोई मुश्किल नहीं होनी चाहिए जिसे तुम में से कोई भी दूर न कर पाए, जब तक कि तुम मानसिक रूप से कमजोर न हो या तुम में कोई जन्मजात मानसिक विकार न हो। अगर तुम बौद्धिक विकलांगता के साथ पैदा नहीं हुए हो, तो तुम उसे हासिल कर पाओगे जो एक सामान्य व्यक्ति का दिमाग हासिल कर सकता है, और कोई भी कठिनाई तब कठिनाई नहीं रह जाती। चूँकि सत्य का अनुसरण कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे मनुष्य की कल्पनाओं से पाया जा सके। इसके लिए पवित्र आत्मा के कार्य की आवश्यकता होती है, और मनुष्य केवल सहयोग करता है। जब तक हमारे पास इसे आगे बढ़ाने की इच्छा है, पवित्र आत्मा हर समय हमारा मार्गदर्शन करेगा, हमारा भरण-पोषण करेगा और हमें प्रबुद्ध करेगा, हमें हर कठिनाई से गुजरने और उस सत्य को समझने देगा, जिसे हम नहीं समझते। क्योंकि जो मनुष्य के लिए असंभव है वह परमेश्वर के लिए संभव है। मनुष्य कुछ भी नहीं है। यदि परमेश्वर कार्य न करे, तो मनुष्य के सभी महान प्रयास और परिश्रम व्यर्थ हैं।
अनुग्रह के युग में लोग यह भी कहते थे कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, पर उनका लक्ष्य स्वर्ग में प्रवेश करना होता था। वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने के बारे में बात नहीं करते थे, न वे बचाए जाने का मतलब जानते थे। वे बस नियमों से बँधे रहते थे, धार्मिक सेवाओं का पालन करते थे और फिर बाइबल पढ़ते थे। फिर उन्हें यह सोचकर एक धुंधली-सी आशा बनी रहती थी कि कमोबेश इतना ही करना है, और मरने के बाद वे स्वर्ग में प्रवेश कर पाएँगे। अंत के दिनों में कार्य का यह चरण इतना आसान नहीं होता, और परमेश्वर के कार्य की हर चीज एक वास्तविकता होती है, जिसके लिए हमें असल में कीमत चुकानी होती है, व्यावहारिक रूप से उसे खोजना और अनुभव करना पड़ता है, ताकि हम परमेश्वर के व्यक्त किए वचनों से सत्य प्राप्त कर सकें। अगर लोगों की मान्यताएँ अभी भी अनुग्रह के युग से मिलती-जुलती हैं, तो स्वर्गारोहण या तीसरे स्वर्ग में जाने की प्रतीक्षा करने से पहले, हर हफ्ते केवल एक साथ इकट्ठे होना, बाइबल पढ़ना, और फिर प्रार्थना करना, गाना और परमेश्वर की स्तुति करना, तो एक इंसान कितना अहंकारी हो सकता है! भ्रष्ट मानव जाति ऐसी ही है। चाहे परमेश्वर जितना भी कार्य करे, जब तक वह मनुष्य से कोई वायदा करता है, मनुष्य उस पर कायम रहेगा, इसे हमेशा एक नियम के रूप में देखेगा और कभी भी परमेश्वर के कार्य या उसके इरादों की जरा भी खोज नहीं करेगा, बल्कि केवल स्वर्गारोहण की प्रतीक्षा करेगा। लोग नहीं जानते कि वे क्या हैं, वे अच्छी चीजों का सपना देखते हैं और बड़ी ऊँचाई पाने की आकांक्षा रखते हैं। उनमें से कोई भी यह नहीं सोचता कि वह शैतान की श्रेणी का है। यह सोचना तो दूर की बात है कि वह विनाश की वस्तु है। वे सभी सोचते हैं कि वे ईमानदारी से परमेश्वर में भरोसा रखते हैं, अपने कर्तव्यों के पालन में बड़ा कष्ट सहते हैं, और उन्होंने कभी भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं किया है, इसलिए वे पहले ही परमेश्वर द्वारा बचाए जा चुके हैं, और निश्चित ही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने में सक्षम हैं। यह दृष्टिकोण ही गलत है, और वे वास्तव में सत्य को बिल्कुल भी नहीं समझते। खासकर जब लोग पहली बार परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे अवज्ञाकारी, क्रोधी और विशेष रूप से अहंकारी होते हैं। उन्हें कोई फूटी आँख नहीं सुहाता, और वे किसी को भी अपने जितना अच्छा नहीं मानते—यहाँ तक कि परमेश्वर को भी नहीं। भले ही किसी व्यक्ति ने मसीह को स्वीकार कर लिया हो, इसका मतलब यह नहीं कि मसीह जो कहता है या मसीह ने जो कुछ भी किया है, वह उसे स्वीकार कर सकता है। वे परमेश्वर के कार्य के इस चरण को नाममात्र के लिए स्वीकारते हैं, और देहधारी परमेश्वर को केवल नाम भर के लिए स्वीकार करते हैं। पर इसका मतलब यह नहीं कि परमेश्वर ने जो किया है उसके प्रति उनके पास कोई धारणाएँ, कोई कल्पनाएँ और कोई प्रतिरोध नहीं है। कुछ लोग जब मसीह को देखते हैं तो उत्साहित और रोमांचित हो जाते हैं, अपने दिल में सम्मानित महसूस करते हैं, और उन्हें लगता है कि उनका जीवन व्यर्थ नहीं गया है। हालाँकि उनमें सत्य का अभाव होता है और वे परमेश्वर को नहीं जानते, इसलिए जब वे मसीह को बोलते देखते हैं तो उनके मन में धारणाएँ होती हैं। जब वे मसीह को चीजों से निपटते देखते हैं, तो उनके मन में धारणाएँ होती हैं, और मसीह का किसी के प्रति क्या रवैया है, इसके बारे में भी धारणाएँ होती हैं। यहाँ तक कि मसीह क्या खाता है, क्या पहनता है और उसके किसी चेहरे की अभिव्यक्ति या हाव-भाव पर भी उनकी धारणाएँ, राय और विचार होते हैं। यह क्या है? यह ऐसा है कि मूल रूप से मनुष्य की कल्पना का परमेश्वर वास्तविक परमेश्वर से अलग है, और जिन लोगों में स्वाभाविक रूप से भ्रष्ट स्वभाव और अहंकारी प्रकृति हैं, उनके लिए धारणाएँ न रखना, प्रतिरोध न करना और मनुष्य के देहधारी पुत्र के प्रति राय न रखना असंभव होता है। यदि कोई परमेश्वर के दिव्य सार को नहीं पहचानता, तो परमेश्वर के प्रति उसका समर्पित होना और उससे भी ज्यादा उससे प्रेम कर पाना और उससे डरना मुश्किल होता है। मगर जिन लोगों ने कई साल तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है, वे देहधारी परमेश्वर को कैसे जानेंगे और उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे, खासकर वे जिन्होंने परमेश्वर के बहुत से उपदेश और संगति सुनी है? उन्होंने निजी तौर पर परमेश्वर के बारे में धारणा रखने से लेकर परमेश्वर का ज्ञान होने तक, और विद्रोह और प्रतिरोध से लेकर सच्चे समर्पण तक की प्रक्रिया को महसूस किया है। उन्होंने निजी तौर से पाया है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है, प्रत्येक वचन जो वह कहता है, और जो कुछ भी वह सँभालता है, उसमें सत्य सिद्धांत शामिल होते हैं। लोगों के मन में धारणाएँ नहीं होनी चाहिए, प्रतिरोध या द्वेष तो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। कुछ वर्षों के अनुभव के बाद जब लोग सत्य को थोड़ा समझ पाएँगे, तो वे इससे ठीक से पेश आएँगे और जब थोड़ा-सा सत्य उनका जीवन बन चुका होगा और उन्होंने अभ्यास के सिद्धांत प्राप्त कर लिए होंगे, तो वे स्वाभाविक रूप से कोई मूर्खता नहीं करेंगे। जो नए विश्वासी हैं और जिनके पास इन मामलों का कोई अनुभव नहीं है, उनमें परमेश्वर से विद्रोह करने, उसका प्रतिरोध करने की संभावना होती है, उनमें मूर्खतापूर्ण और लापरवाहीपूर्ण चीजें करने की संभावना होती है। कुछ गंभीर प्रकृति के लोग परमेश्वर का मूल्यांकन और उसकी निंदा कर सकते हैं और फिर पूरी तरह नाकाम हो सकते हैं। दूसरे लोग लगातार कलीसिया के काम में बाधा डालकर उसे खराब कर रहे होते हैं, और उन्हें हटा दिया जाता है। क्या तुम लोग अब परमेश्वर के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से भरे हुए हो? क्या तुम्हें लगता है कि देहधारी परमेश्वर पर विश्वास करना बहुत मुश्किल है? कुछ लोग कहते हैं, “जब हम प्रभु में विश्वास करते थे, तो यह काफी सरल था। हम बस एक साथ इकट्ठे होते थे, उपदेश सुनते थे, और चीजों के लिए प्रभु से प्रार्थना करते थे। किसी ने हमसे सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के लिए नहीं कहा था, हमें प्रभु के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने और सत्य का अनुसरण करने के लिए प्रेरित करना तो दूर की बात है। पादरी और प्रचारक बस बाइबल की व्याख्या कर देते थे, और हम इसे जिस भी तरह चाहें, समझ पाते थे। अब जब हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उसके व्यक्त किए गए सत्य इतने सारे हैं कि हमें लगने लगा है कि सत्य का अभ्यास करना तो बहुत कठिन है, और वास्तविकता में प्रवेश करना तो सचमुच मुश्किल है!” क्या तुम लोगों ने कभी सोचा है कि अगर तुम अभी भी उसी तरह से परमेश्वर में विश्वास करते हो जिस तरह से तुम प्रभु में विश्वास करते थे, तो क्या तुम सत्य और जीवन को प्राप्त कर पाओगे? क्या तुम्हें परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकेगा? (नहीं बचाया जा सकता।) यह तथ्य कि तुम लोग इसका एहसास कर पा रहे हो, दिखाता है कि तुम लोगों ने प्रगति की है।
परमेश्वर में विश्वास कल्पनाओं या धारणाओं के आधार पर नहीं हो सकता, दिलचस्पी पर तो बिल्कुल भी नहीं हो सकता। अगर तुम थोड़ी-बहुत रुचि या आवेग के आधार पर परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो यह बेहतर होगा कि तुम शांत होकर सावधानी के साथ सोचो कि क्या तुम विश्वास जारी रखना चाहते हो, क्या तुम सचमुच सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, क्या तुम वास्तव में परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो, क्या तुमने पहले से परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलने का मन बनाया है, और क्या तुमने पहले ही से सत्य का अनुसरण करने का मन बनाया है। इन बिंदुओं पर जोर क्यों दिया जा रहा है? क्योंकि अब हम जिस पर विश्वास करते हैं वह देहधारी परमेश्वर है, और परमेश्वर के देहधारण का अर्थ है कि वह स्वर्ग से पृथ्वी पर आया और वास्तव में एक इंसान बन गया, जिसका रूप बिल्कुल मनुष्य जैसा ही है, लेकिन जो मसीह है, जो खुद में परमेश्वर है, और जो कोई साधारण इंसान नहीं है। परमेश्वर के देहधारण ने वास्तव में लोगों का न्याय करने और उन्हें शुद्ध करने का कार्य किया है, वास्तव में कई वचन अभिव्यक्त किए हैं, बहुत सारा कार्य किया है, और कई लोगों का चयन किया है, और वह वास्तव में अपने कार्य और अपने सुसमाचार का विस्तार कर रहा है। इस व्यावहारिक कार्य का प्रत्येक अंश इसकी पुष्टि करता है कि लोगों को बचाने और पूर्ण करने की परमेश्वर की इच्छा के लिए स्वाभाविक रूप से यह जरूरी है कि लोग असल में उसके वचनों और कार्य का अनुभव करें। ताकि वे सत्य को पा सकें और वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पित हो पाएँ और उसकी आराधना कर सकें। यही है जिसे परमेश्वर पूर्ण बनाना चाहता है। जब से तुम लोगों ने परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करना शुरू किया है, तब से अब तक तुम लोगों ने कुछ चीजों का अनुभव किया होगा, भले ही तुमने सोचा हो कि वे ज्ञानातीत हैं, या वे नग्न आँखों को दिख रही थीं या इंसान के दिमाग की पकड़ में आ रही थीं। संक्षेप में, परमेश्वर हर काम व्यावहारिक तरीके से करता है। हम पर, हमारे बीच और हमारे चारों ओर कार्य करता है, ताकि हम उसे देख सकें और उसे छू सकें। इसलिए सत्य का अनुसरण एक व्यावहारिक सीख है, और हमें सत्य की प्राप्ति में सहयोग देने वाले अपने प्रयासों पर भरोसा करके सामने आने वाली हर चीज में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना चाहिए। सत्य का अनुसरण करना वैसा नहीं है जैसी लोग कल्पना करते हैं। लोग सोचते हैं कि परमेश्वर के वचनों को पढ़ना और उनके शाब्दिक अर्थ को समझना सत्य को समझना है, और जब तक वे कुशलता से बोल सकते हैं, वे सत्य का अभ्यास कर रहे होते हैं। यह इतना सरल भी नहीं है। सत्य के अनुसरण के लिए हमें असल में सत्य को खोजने और उसे स्वीकार करने, कष्ट सहने और कीमत चुकाने, अनुभव करने, खोजने, विचार करने, संगति करने, अभ्यास करने और असल जीवन में कड़ी मेहनत करने की जरूरत होती है। केवल तभी हम धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों और सत्य में प्रवेश कर पाते हैं और उससे कुछ प्राप्त कर सकते हैं। एक दिन जब तुम समझ जाओगे कि सत्य क्या है और सत्य का सार क्या है, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि देहधारी परमेश्वर के कहे हुए वचन हमारी वास्तविकता की जरूरतें हैं, कि वे हमारे अभ्यास के सिद्धांत हैं जो हमें अपनी सभी समस्याओं से निपटने के लिए चाहिए, और परमेश्वर के ये वचन हमारे जीवन का लक्ष्य और दिशा हैं। उस समय तुम देखोगे कि परमेश्वर जो कुछ करता है वह कितना सार्थक है, और परमेश्वर का देहधारण हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण और मूल्यवान है! हर वाक्य जो परमेश्वर बोलता है, उसके कार्य का हर चरण, उसका हर वचन और कार्य, उसके खयाल, उसके विचार और उसका नजरिया सभी लोगों की शुद्धि और उन्हें बचाने के लिए हैं, और उनमें से कोई भी यूँ ही नहीं है। वे सभी वास्तविक और व्यावहारिक हैं। इसलिए चाहे कोई किसी भी धर्म से आया हो या गैर-विश्वासियों में से परिवर्तित हुआ हो, उसे अब धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर में विश्वास नहीं करना चाहिए। उसे अब धार्मिक स्वप्नों से मतलब नहीं रखना चाहिए, यह सपना देखते हुए कि जब बड़ी आपदाएँ आएँगी, तो उसे अचानक प्रभु से मिलने के लिए आकाश में ले जाया जाएगा। यह दिवास्वप्न है। परमेश्वर मनुष्य को उजागर करने और उसका न्याय करने, और व्यावहारिक तरीके से सत्य को व्यक्त करके मनुष्य की भ्रष्टता को शुद्ध करने, और व्यावहारिक तरीके से मनुष्य को शैतान के प्रभाव से बचाने आया है। इस अवधि के दौरान मनुष्य को कई उत्पीड़नों और क्लेशों से गुजरना होगा, और शुद्ध करने और बदलने से पहले उसे कई बार काट-छाँट और कई न्याय और ताड़नाओं का अनुभव करना होगा। परमेश्वर के कार्य के इस अनुभव के जरिए ही वह सत्य प्राप्त कर सकता है। एक बार जब तुमने सत्य प्राप्त कर लिया, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए जगह बन जाएगी, और तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रति वो सच्चा भय और समर्पण आएगा जैसा परमेश्वर करना चाहता ही है। एक बार जब तुमने सत्य को समझ लिया और तुम उसका मूल्य जान गए, और सत्य ने तुम्हारे हृदय में जड़ें जमा लीं, और तुम्हें सत्य का व्यावहारिक अनुभव और ज्ञान हो गया, तो परमेश्वर का वचन तुम्हारे मन में बस जाएगा। क्या यह प्रक्रिया व्यावहारिक लगती है? (हाँ लगती है।) तो फिर यह प्रक्रिया ऐसा क्या चाहती है कि जिसे लोग करें? सबसे पहले तो लोगों के पास परमेश्वर को समर्पित दिल होना चाहिए, वे परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकार करने, और परमेश्वर के हाथों काट-छाँट, परीक्षणों और शोधन के प्रति समर्पण करने की मानसिकता रखने वाले हों ताकि उन्हें उनकी भ्रष्टता से शुद्ध किया जा सके, ताकि वे सत्य का अभ्यास कर पाएँ और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकें, और वे परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। जब तक किसी को पता होता है कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करना है, तब तक उसे पता रहेगा कि परमेश्वर उसमें क्या पूरा करना चाहता है और वह क्या परिणाम पाना चाहता है। परमेश्वर के वचन मनुष्य पर दो मुख्य प्रभाव डालते हैं। पहला, वे मनुष्य को स्वयं को जानने का मौका देते हैं। दूसरा, वे मनुष्य को मौका देते हैं कि वह परमेश्वर को जाने। ये दोनों प्रभाव अगर हासिल हो गए, तो व्यक्ति सचमुच परमेश्वर के वचनों को जान जाएगा और सचमुच सत्य को समझ जाएगा।
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