सत्य और परमेश्वर तक पहुँचने के उपायों के बारे में वचन (अंश 3)
काफी संख्या में विश्वासी लोग जीवन स्वभाव में परिवर्तन को महत्व देने में विफल रहते हैं और इसके बजाय वे इस पर ध्यान केंद्रित करते हैं और इसकी चिंता करते हैं कि परमेश्वर का उनके प्रति रवैया क्या है और परमेश्वर के हृदय में उनके लिए स्थान है या नहीं। वे हमेशा इस बात का अनुमान लगाने का प्रयास करते रहते हैं कि वे परमेश्वर की नजर में कैसे दिखते हैं और क्या परमेश्वर के हृदय में उनका कोई स्थान है। बहुत से लोगों के मन में इस प्रकार के विचार होते हैं और यदि वे परमेश्वर के सामने आ जाएँ तो हमेशा इस पर नजर रखते हैं कि उनसे बात करते हुए वह खुश है या नाराज। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो हमेशा दूसरों से पूछते रहते हैं, “क्या परमेश्वर ने मेरी कठिनाइयों का जिक्र किया? वह मेरे बारे में क्या सोचता हैं? क्या वह मेरी चिंता करता है?” कुछ लोगों के पास अधिक गंभीर मुद्दे होते हैं—अगर परमेश्वर उनकी तरफ देखता भर है, तो ऐसा लगता है जैसे उन्हें नई समस्या का पता लग गया है : “अरे नहीं, परमेश्वर ने बस मेरी तरफ देखा और उसकी आँखों में कोई खुशी नहीं दिखी, यह अच्छा संकेत नहीं है।” लोग इस प्रकार की बातों को बहुत महत्व देते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “जिस परमेश्वर में हम विश्वास करते हैं वे देहधारी हैं, इसलिए यदि वे हमारी तरफ ध्यान नहीं देते हैं, तो क्या इसका अर्थ हमारा अंत नहीं है?” यह कहने से उनका तात्पर्य यह है, “यदि परमेश्वर के हृदय में हमारा स्थान नहीं है, तो हम उस पर विश्वास क्यों करें? हमें विश्वास करना ही बंद कर देना चाहिए!” क्या यह समझ का अभाव नहीं है? क्या तुम जानते हो लोगों को परमेश्वर पर विश्वास क्यों करना चाहिए? लोग कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि क्या उनके हृदय में परमेश्वर का स्थान है, और फिर भी वे परमेश्वर के हृदय में स्थान पाना चाहते हैं। वे कितने अहंकारी और दंभी हैं! उनके इस भाग में तर्क की सबसे अधिक कमी है। यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनमें तर्क की इतनी कमी होती है कि जब परमेश्वर किसी और का हालचाल पूछता है और उनका नाम नहीं लेता या उनके बजाय दूसरों की चिंता करता है और परवाह दिखाता है, तो वे असंतुष्ट महसूस करते हैं और परमेश्वर के बारे में बड़बड़ाना और शिकायत करना शुरू कर देते हैं, कहते हैं कि वह अधार्मिक है और निष्पक्ष और उचित भी नहीं है। ऐसे लोगों में समझ की कमी होती है और वे मनोवैज्ञानिक रूप से भी कुछ असामान्य होते हैं। सामान्य परिस्थितियों में लोग हमेशा दावा करते हैं कि वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित हो जाएँगे, परमेश्वर चाहे उनके साथ जो भी बर्ताव करे वे कभी भी शिकायत नहीं करेंगे और वे कहते हैं कि उन्हें परमेश्वर के उनकी काट-छाँट करने या उनका न्याय करने और उन्हें ताड़ना देने से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन जब वास्तव में उनका ऐसी बातों से सामना होता है तो ये बातें उनको स्वीकार नहीं होतीं। क्या लोगों के पास विवेक है? लोग अपने बारे में इतना ऊँचा सोचते हैं और स्वयं को इतना महत्वपूर्ण समझते हैं कि यदि उनको लगता है कि उनको परमेश्वर ने गलत दृष्टि से देखा है, तो वे महसूस करते हैं कि उनके उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है; अगर परमेश्वर उनके साथ वास्तव में उनकी काट-छाँट करे तब की तो बात ही छोड़ो। या यदि परमेश्वर उनसे कठोर स्वर में बात करता है और उसके शब्द लोगों के हृदय में चुभ जाते हैं तो वे नकारात्मक हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना निरर्थक है। वे सोचते हैं, “अगर परमेश्वर मेरी अनदेखी करता है तो मैं उसमें विश्वास कैसे करता रहूँ?” कुछ लोग इस प्रकार के इंसान का भेद नहीं पहचान पाते और सोचते हैं : “देखो परमेश्वर में उनका विश्वास कितना सच्चा है। परमेश्वर उनके लिए कितना महत्वपूर्ण है। वे एक नजर में ही परमेश्वर के अर्थ की व्याख्या कर सकते हैं। वे परमेश्वर के प्रति गहरी निष्ठा रखते हैं—वे वास्तव में पृथ्वी के परमेश्वर को स्वर्ग का परमेश्वर मानते हैं।” क्या ऐसा ही है? ये लोग इतने उलझे हुए होते हैं, उनमें सभी बातों के बारे में अंतर्दृष्टि की अत्यधिक कमी होती है; उनका आध्यात्मिक कद काफी छोटा होता है और वे वास्तव में हर तरह की कुरूपता को प्रकट करते हैं। लोगों का विवेक बहुत कमजोर होता है—वे परमेश्वर से बहुत अधिक अपेक्षाएँ रखते हैं, उससे बहुत कुछ माँगते रहते हैं, उनके पास थोड़ा सा भी विवेक नहीं होता। लोग हमेशा अपेक्षाएँ करते रहते हैं कि परमेश्वर यह करे या वह करे, और स्वयं उसके प्रति पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाते या उसकी आराधना नहीं कर पाते। इसके बजाय वे खुद की प्राथमिकताओं के अनुसार परमेश्वर से अनुचित अपेक्षाएँ करते रहते हैं, और चाहते हैं कि परमेश्वर बेहद उदार हो और किसी भी बात पर क्रोधित न हो, और वह जब भी लोगों से मिले, वह हमेशा मुस्कुराता रहे, उनसे बात करता रहे, और उन्हें सत्य प्रदान करे और उनके साथ सत्य पर संगति करता रहे। वे यह भी अपेक्षा रखते हैं कि परमेश्वर हमेशा धैर्यवान बना रहे और उनके सामने हँसमुख भाव बनाए रखे। लोगों की अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा हैं; वे बेहद तुनकमिजाज होते हैं! तुम लोगों को इन बातों की जाँच करनी चाहिए। मानवीय विवेक काफी तुच्छ होता है, है न? न केवल लोग पूरी तरह से परमेश्वर के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में अक्षम होते हैं या जो कुछ भी परमेश्वर से आता है उसे स्वीकार नहीं कर पाते, बल्कि इसके उलट वे परमेश्वर पर अतिरिक्त अपेक्षाएँ थोपते रहते हैं। परमेश्वर से इस प्रकार की अपेक्षाएँ रखने वाले लोग उसके प्रति निष्ठावान कैसे हो सकते हैं? वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित कैसे हो सकते हैं? वे परमेश्वर से प्रेम कैसे कर सकते हैं? सभी लोगों की ये अपेक्षाएँ होती हैं कि परमेश्वर लोगों से किस तरह प्रेम करे, किस तरह उन्हें बर्दाश्त करे, उनकी निगरानी करे, उनकी रक्षा करे और उनकी देखभाल करे, लेकिन उनमें से कोई यह अपेक्षाएँ नहीं रखता कि वे स्वयं परमेश्वर को किस प्रकार प्रेम करें, किस प्रकार परमेश्वर के बारे में सोचें, किस प्रकार परमेश्वर के प्रति विचारशील हों, किस तरह परमेश्वर को संतुष्ट करें, किस तरह परमेश्वर के लिए अपने हृदय में स्थान बनाएँ और किस तरह परमेश्वर की आराधना करें। क्या लोगों के दिल में ये बातें होती हैं? ये वे चीजें हैं जिन्हें लोगों को हासिल करना चाहिए; तो वे इन चीजों को पाने के लिए कर्मठता से आगे क्यों नहीं बढ़ते? कुछ लोग थोड़े समय के लिए उत्साही हो सकते हैं और कुछ हद तक चीजों का त्याग भी करते हैं और खुद को खपाते भी हैं, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चलता; थोड़ी सी कठिनाई आने पर उनका उत्साह कम हो सकता है, उम्मीद खत्म हो सकती है, और वे शिकायत करने लग सकते हैं। लोगों को बहुत सारी कठिनाइयाँ आती हैं और ऐसे बहुत ही कम लोग होते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर को प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं। इंसानों में विवेक की बेहद कमी होती है, वे गलत स्थान पर खड़े होते हैं और अपने आपको विशिष्ट रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कहते हैं : “परमेश्वर हमें अपनी आँख का तारा मानता है। उसने मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए बिना हिचकिचाए अपने इकलौते पुत्र को सूली पर चढ़ने दिया। हमें वापस पाने के लिए परमेश्वर ने ऊँची कीमत चुकाई है—हम बेहद कीमती हैं और हमारा परमेश्वर के दिल में खास स्थान है। हम लोगों का एक खास समूह हैं और हमारी हैसियत गैर-विश्वासियों से कहीं अधिक ऊँची है—हम स्वर्ग के राज्य के लोग हैं।” वे अपने आप को काफी ऊँचा और महान समझते हैं। अतीत में बहुत से अगुआओं की यही मानसिकता थी, वे मानते थे कि पदोन्नत होने के बाद परमेश्वर के घर में उनकी एक निश्चित हैसियत और प्रतिष्ठा है। वे सोचते थे, “परमेश्वर मुझे बहुत मानता है और मेरे बारे में अच्छा सोचता है, और उसने मुझे अगुआ के रूप में सेवा करने की अनुमति दी है। मुझे उसके लिए जितना हो सके भाग-दौड़ और काम करना चाहिए।” वे अपने आप से बेहद संतुष्ट थे। हालाँकि एक समय के बाद उन्होंने कुछ बुरा किया और उनका असली चेहरा सामने आ गया, फिर उन्हें बदल दिया गया और वे निरुत्साहित हो गए और उनके सिर झुक गए। जब उनका अनुचित व्यवहार उजागर हो गया और उनकी काट-छाँट की गई, तब वे और निराश हो गए और आगे परमेश्वर पर विश्वास रखने में सक्षम नहीं रहे। उन्होंने सोचा, “परमेश्वर को मेरी भावनाओं की कोई कदर नहीं है, उसे मेरा स्वाभिमान बचाने की बिल्कुल परवाह नहीं है। लोग कहते हैं कि परमेश्वर इंसान की कमजोरियों के प्रति सहानुभूति रखता है, तो कुछ छोटे से अपराधों के कारण मुझे बरखास्त क्यों कर दिया गया?” फिर वे निरुत्साहित हो गए और उन्होंने अपनी आस्था छोड़नी चाही। क्या ऐसे लोगों की परमेश्वर में सच्ची आस्था होती है? अगर वे काट-छाँट तक को स्वीकार नहीं कर पाते, तो उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और यह अनिश्चित है कि वे भविष्य में सत्य को स्वीकार कर भी पाएँगे या नहीं। ऐसे लोग खतरे में हैं।
लोग स्वयं से तो बहुत ऊँची अपेक्षाएँ नहीं रखते, लेकिन उन्हें परमेश्वर से बहुत ऊँची अपेक्षाएँ होती हैं। वे परमेश्वर से उन पर विशेष दया दिखाने, उनके प्रति धैर्यवान और सहनशील होने, उन्हें सँजोने, उनका पोषण करने और उनकी तरफ मुस्कुराकर देखने, उनके प्रति सहिष्णु होने, उन्हें छूट देने और कई तरीकों से उनकी देखभाल करने के लिए कहते हैं। वे अपेक्षा रखते हैं कि वह उनके प्रति बिल्कुल भी सख्त न हो, या ऐसा कुछ भी न करे जिससे उन्हें जरा-सी भी परेशानी हो, और वे केवल तभी संतुष्ट होते हैं यदि वह हर दिन उनसे मीठी-मीठी बातें करता रहे। मनुष्य में विवेक की कितनी कमी होती है! उनके मन में यह स्पष्ट नहीं होता कि खुद उन्हें क्या करना चाहिए, क्या हासिल करना चाहिए, उनके दृष्टिकोण क्या होने चाहिए, परमेश्वर की सेवा में उन्हें क्या रुख अपनाना चाहिए, और उन्हें खुद को किस स्थान पर खड़ा करना चाहिए। लोग छोटा-मोटा रुतबा हासिल करने के बाद खुद को बहुत बड़ा मानने लगते हैं और जिन लोगों के पास कोई रुतबा नहीं होता वो भी खुद को काफी ऊँचा समझते हैं। मनुष्य खुद को कभी नहीं जान पाते। तुम्हें परमेश्वर में अपने विश्वास के एक ऐसे बिंदु पर आना होगा जहाँ वह तुमसे जैसे चाहे बात करे, चाहे तुमसे जितना भी सख्त हो, और चाहे तुम्हारी कितनी भी अनदेखी करे, तुम बिना शिकायत किए उस पर विश्वास करना जारी रख सको, और सामान्य रूप से अपने कर्तव्य करते रहो। तब तुम एक परिपक्व और अनुभवी व्यक्ति होगे, और तुम्हारे पास वास्तव में कुछ आध्यात्मिक कद होगा और एक सामान्य व्यक्ति की कुछ समझ होगी। तुम परमेश्वर से अपेक्षाएँ नहीं करोगे, तुम्हारे अंदर असाधारण इच्छाएँ नहीं होंगी और तुम अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर दूसरों से या परमेश्वर से उनके लिए अनुरोध नहीं करोगे। इससे यह पता चलेगा कि तुम कुछ हद तक एक मनुष्य के समान हो। वर्तमान में तुम लोगों की अपेक्षाएँ बहुत सारी हैं, ये अपेक्षाएँ सीमा से काफी परे हैं और तुम में बहुत अधिक मानवीय इरादे हैं। इससे साबित होता है कि तुम सही जगह पर नहीं खड़े हो; तुम जिस जगह खड़े हो वह बहुत ऊँची है, और तुमने खुद को अत्यधिक सम्माननीय मान लिया है—मानो तुम परमेश्वर से बहुत नीचे नहीं हो। इसलिए तुमसे निपटना मुश्किल है, और यह बिल्कुल शैतान की प्रकृति है। यदि ऐसी दशाएँ तुम्हारे भीतर मौजूद हैं, तुम निश्चित रूप से अक्सर नकारात्मक होगे और कम ही सामान्य होगे, इसलिए तुम्हारे जीवन की प्रगति धीमी होगी। इसके विपरीत, जो लोग हृदय से शुद्ध होते हैं और कम नकचढ़े होते हैं, वे सत्य को आसानी से स्वीकार कर तेजी से प्रगति करेंगे। शुद्ध हृदय वाले लोगों को उतनी पीड़ा का अनुभव नहीं होता, लेकिन तुम में बहुत तीव्र भावनाएँ हैं, तुम बहुत नकचढ़े हो, और तुम हमेशा परमेश्वर से माँग करते रहते हो, इसलिए तुम्हें सत्य स्वीकारने में बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ता है, और तुम्हारी जीवन प्रगति धीरे-धीरे होती है। कुछ लोग इसी तरह अनुसरण करते हैं, भले ही दूसरे लोग उन पर कैसे भी हमला करें और उन्हें बाहर कर दें, और वे इससे जरा भी प्रभावित नहीं होते। इस तरह के लोग उदार होते हैं, तो उन्हें थोड़ा कम कष्ट सहना पड़ता है, और अपने जीवन प्रवेश में थोड़ी कम बाधाओं का सामना करना पड़ता है। तुम नकचढ़े हो और हमेशा किसी न किसी चीज से प्रभावित होते रहते हो—किसने तुम्हें गलत ढंग से देखा, किसने तुम्हें नीची दृष्टि से देखा, किसने तुम्हारी अनदेखी की, या परमेश्वर ने क्या कहा जिससे तुम भड़के, या उसने कौन से कठोर वचन कहे जो तुम्हारे दिल को चुभ गए और तुम्हारे आत्मसम्मान को ठेस पहुँची, या उसने कौन सी अच्छी चीज तुमको नहीं बल्कि किसी और को दे दी—और फिर तुम निराश हो जाते हो और परमेश्वर को गलत समझने लगते हो। इस तरह के लोग नकचढ़े होते हैं और उनमें जरा-सा भी विवेक नहीं होता। भले ही कोई उनके साथ सत्य पर कैसे भी संगति करे, वे बस इसे स्वीकार नहीं करेंगे और उनकी समस्याएँ अनसुलझी ही रहेंगी। इन लोगों से निपटना सबसे कठिन होता है।
मैं अक्सर तुम लोगों को इस तरह से संगति करते हुए सुनता हूँ : “मैं कुछ करते समय लड़खड़ा गया और बाद में कुछ कष्ट सहने के बाद मुझे थोड़ी समझ आई।” अधिकांश लोगों को इस प्रकार का अनुभव हुआ है—यह अनुभव बहुत सतही है। हो सकता है कि यह थोड़ी सी समझ वर्षों के अनुभवों के बाद आई हो, और इस थोड़ी सी समझ और परिवर्तन को हासिल करने के लिए ही लोगों ने बहुत सारी पीड़ाओं का अनुभव किया हो और उन्हें भयानक मुश्किलों से गुजरना पड़ा हो। यह कितना दयनीय है! लोगों की आस्था में बहुत सारी अशुद्धियाँ होती हैं, उनके लिए परमेश्वर पर विश्वास करना बहुत कठिन होता है! आज भी प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कई अशुद्धियाँ बाकी हैं, और वे अभी भी परमेश्वर से कई माँगें करते रहते हैं—ये सभी मनुष्य की अशुद्धियाँ हैं। ऐसी अशुद्धियों का होना इस बात का प्रमाण है कि उनकी मानवता में कोई समस्या है, और यह उनके भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा है। मनुष्य द्वारा परमेश्वर से की गई उचित और अनुचित माँगों के बीच अंतर होता है—इसका भेद स्पष्ट रूप से पहचान लेना चाहिए। व्यक्ति को यह स्पष्ट होना चाहिए कि मनुष्य को क्या जगह लेनी चाहिए और उसके पास क्या समझ होनी चाहिए। मैंने देखा है कि कुछ लोग हमेशा इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि लोगों को लेकर मेरी मुख-मुद्रा कैसी है और वे हमेशा इस बात का अध्ययन करते रहते हैं कि परमेश्वर किसके साथ अच्छा व्यवहार करता है और किसके साथ बुरा व्यवहार करता है। यदि वे देखते हैं कि परमेश्वर उन्हें नकारात्मक भाव से देख रहा है, या उन्हें उजागर करते या उनकी निंदा करते सुनते हैं, तो वे इसे भुला नहीं पाते—चाहे तुम उनके साथ कितनी भी संगति करो, इससे काम नहीं चलता, और चाहे कितना भी समय बीत जाए, वे इससे पलट नहीं पाते। वे अपने बारे में फैसला सुनाते रहते हैं, उस एक वाक्यांश को पकड़े रहते हैं और उसका उपयोग यह निर्धारित करने के लिए करते हैं कि उनके प्रति परमेश्वर का रवैया कैसा है। वे नकारात्मकता में डूबे रहते हैं, और चाहे कोई उनके साथ सत्य पर कितनी भी संगति कर ले, वे इसे स्वीकारने को तैयार नहीं होते। यह बिल्कुल समझ से परे है। यह स्पष्ट है कि मनुष्य को परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी नहीं है, और वह इसे बिल्कुल भी नहीं समझता। जब लोग पश्चात्ताप करने और बदलने में सक्षम होंगे, उनके प्रति परमेश्वर का रवैया भी बदलेगा। यदि परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया नहीं बदलता, तो क्या तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया बदल सकता है? यदि तुम बदलते हो, तो परमेश्वर का तुम्हारे साथ व्यवहार करने का तरीका बदलेगा, लेकिन यदि तुम नहीं बदलते, तो तुम्हारे प्रति परमेश्वर का व्यवहार भी नहीं बदलेगा। कुछ लोगों को अभी भी इस बात का कोई ज्ञान नहीं है कि परमेश्वर किस चीज से नफरत करता है, उसे क्या पसंद है, उसका आनंद, क्रोध, दुख और खुशी, उसकी सर्वशक्तिमत्ता और उसकी बुद्धि क्या है, और वे कुछ बोधात्मक ज्ञान के बारे में भी बात नहीं कर सकते—यही वह चीज है जो मनुष्य को सँभालना इतना कठिन बना देती है। मनुष्य उन सभी अच्छे अर्थ वाले वचनों को भूल जाता है जो परमेश्वर ने उससे कहे थे, लेकिन यदि वह केवल एक कठोर टिप्पणी कर देता है या काट-छाँट या न्याय का एक वाक्य भी बोलता है, तो यह मनुष्य के हृदय को भेद देता है। लोग सकारात्मक मार्गदर्शन के वचनों को गंभीरता से क्यों नहीं लेते, जबकि न्याय, काट-छाँट के वचन सुनकर परेशान, नकारात्मक और उनसे उबरने में असमर्थ हो जाते हैं? अंततः उन्हें वापस लौटने में चिंतन की लंबी अवधि लग सकती है, और वे इसे परमेश्वर के कुछ सांत्वनादायी वचनों के साथ जोड़ने के बाद ही जागेंगे। इन सांत्वनादायी वचनों के बिना वे अपनी नकारात्मकता से बाहर नहीं निकल पाएँगे। जब लोग अभी-अभी परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना शुरू कर रहे हैं, तो उनमें परमेश्वर के बारे में बहुत सारा गलत ज्ञान और गलतफहमियाँ हैं। वे हमेशा मानते हैं कि वे सही हैं, हमेशा अपने विचारों से चिपके रहते हैं, और वे उन बातों पर ध्यान नहीं देते जो दूसरे लोग कहते हैं। तीन से पाँच साल का अनुभव प्राप्त करने के बाद ही वे धीरे-धीरे समझना शुरू करते हैं, अंतर्दृष्टि प्राप्त करते हैं, पहचानते हैं कि वे गलत थे, और महसूस करते हैं कि उनसे निपटना कितना कठिन रहा है। ऐसा लगता है मानो वे तभी बड़े हुए हों। जैसे-जैसे वे अधिक अनुभव प्राप्त करते जाते हैं, वे परमेश्वर को समझने लगते हैं, और परमेश्वर के बारे में उनकी गलतफहमियाँ कम होती जाती हैं, वे अब शिकायत नहीं करते, और वे परमेश्वर में सामान्य आस्था रखनी शुरू कर देते हैं। अतीत की तुलना में उनका आध्यात्मिक कद एक वयस्क जैसा ज्यादा दिखता है। वे बच्चों की तरह हुआ करते थे—नाराज हो जाते थे, निराश हो जाते थे और कई बार खुद को परमेश्वर से दूर कर लेते थे। कुछ मामलों का सामना होने पर उन्होंने शिकायत की होगी, परमेश्वर के कुछ वचन उनकी नवीनतम धारणा का विषय बने होंगे, और उन्होंने कई बार परमेश्वर पर संदेह करना शुरू किया होगा—ऐसा तब होता है जब किसी का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा होता है। अब जब उन्होंने इतना कुछ अनुभव कर लिया है, और कई वर्षों तक परमेश्वर के वचनों को पढ़ा है, उन्होंने प्रगति की है, और वे पहले की तुलना में कहीं अधिक स्थिर हो गए हैं। यह सब सत्य को समझने का परिणाम है—यह उनके भीतर प्रभावी होने वाला सत्य है। इसलिए जब तक लोग सत्य को समझते हैं और उसे स्वीकार करने में सक्षम होते हैं, ऐसी कोई मुश्किल नहीं जिसे वे हल न कर सकें, और वे हमेशा कुछ न कुछ प्राप्त करेंगे, चाहे वे कितने भी लंबे समय तक अनुभव करें। बेशक यदि वे लंबे समय तक अनुभव नहीं करते तो ऐसा नहीं होगा, लेकिन जब तक वे अपने हर अनुभव से लाभ प्राप्त करते रहेंगे, वे जीवन में तेजी से आगे बढ़ेंगे।
यह तथ्य कि अब तुम लोगों को अगुआ, कार्यकर्ता या सुपरवाइजर बनने या महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाने के लिए विकसित किया जा रहा है, यह साबित नहीं करता कि तुम लोगों का आध्यात्मिक कद ज्यादा बड़ा है। इसका मतलब बस इतना है कि तुम लोग औसत व्यक्ति की तुलना में थोड़ी बेहतर काबिलियत वाले हो, तुम अपने अनुसरण में थोड़े अधिक कर्मठ हो और तुम्हें विकसित करना थोड़ा अधिक मूल्यवान है। निश्चित रूप से इसका मतलब यह नहीं है कि तुम लोग परमेश्वर को समर्पित होने में सक्षम हो या खुद को परमेश्वर के आयोजनों की दया पर छोड़ सकते हो, और इसका मतलब यह नहीं है कि तुम लोगों ने अपनी संभावनाओं और आशाओं को एक तरफ कर दिया है। लोगों के पास अभी तक इस तरह की कोई समझ नहीं है। जब तुम काम कर रहे होते हो तब भी तुम लोग कुछ नकारात्मकता, आशीष प्राप्त करने के लिए इरादे और आकांक्षाएँ, और यहाँ तक कि मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ साथ लेकर चलते हो। साथ ही, तुम अपना काम करते समय कुछ बोझ लिए चलते हो, मानो तुम ऐसा खुशी-खुशी नहीं करते बल्कि अच्छे कर्मों के माध्यम से पिछले पापों का प्रायश्चित्त कर रहे हो। तुम भी उस बिंदु तक नहीं पहुँचे हो जहाँ चाहे परमेश्वर तुम्हारे साथ कैसा भी व्यवहार करे, तुम केवल उसके इरादों और अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने की चिंता करते रहो। क्या तुम लोग इसे हासिल कर सकते हो? लोगों के पास ये समझ नहीं है। वे सभी परमेश्वर का मन पढ़ना चाहते हैं, सोचते हैं : “असल में परमेश्वर का मेरे प्रति किस प्रकार का रवैया है? क्या वह मुझे सेवा प्रदान करने या मुझे बचाने और पूर्ण बनाने के लिए उपयोग कर रहा है?” वे सभी जानना चाहते हैं, बस कहने की हिम्मत नहीं कर पाते। यह तथ्य कि वे यह कहने की हिम्मत नहीं करते, साबित करता है कि अभी भी एक विचार उन पर हावी है : “इसके बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं है—यह सिर्फ मेरी प्रकृति है और इसे बदलना संभव नहीं है। जब तक मैं खुद को कुछ भी बुरा करने से रोकता रहता हूँ, तब तक यह काफी है—मैं खुद से बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं करता।” वे स्वयं को न्यूनतम संभव स्थिति तक सीमित रखते हैं और अंततः कोई प्रगति नहीं कर पाते, साथ ही अपने कर्तव्यों का पालन करते समय अनमनी सोच रखते हैं। कुछ बार संगति करने के बाद ही तुम लोग सत्य को थोड़ा-बहुत समझने लगते हो और सत्य की वास्तविकता को थोड़ा-बहुत जानने लगते हो। तुम्हारा उपयोग किया जा रहा है या नहीं, या तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया क्या है—ये बातें महत्वपूर्ण नहीं हैं। कुंजी तुम्हारे व्यक्तिपरक प्रयासों में निहित है, तुम जो रास्ता चुनते हो और तुम आखिर बदलने में सक्षम हो या नहीं—ये सबसे अहम बिंदु हैं। भले ही परमेश्वर का तुम्हारे प्रति कितना भी अच्छा रवैया हो, यदि तुम नहीं बदलते तो यह काम नहीं करेगा। यदि कभी तुम्हारे साथ कुछ घटने पर तुम लड़खड़ा जाओ और तुम में थोड़ी सी भी वफादारी न हो, तो चाहे तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया कितना भी अच्छा क्यों न हो, इसका कोई फायदा नहीं होगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम चलने के लिए कौन सा रास्ता चुनते हो। हो सकता है कि अतीत में परमेश्वर ने तुम को शाप दिया हो और तुम्हारे प्रति नफरत और जुगुप्सा के शब्द कहे हों, लेकिन यदि तुम अब बदल गए हो, तो तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया भी बदल जाएगा। लोग हमेशा भयभीत, बेचैन रहते हैं और उनमें सच्ची आस्था की कमी होती है, जो दर्शाता है कि वे परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते। अब जबकि तुम लोगों में थोड़ी समझ आ गई है, तो क्या भविष्य में जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होगा तो क्या तुम तब भी नकारात्मक और कमजोर होगे? क्या तुम सत्य का अभ्यास करने और अपनी गवाही पर दृढ़ रहने में सक्षम होगे? क्या तुम सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पित हो पाओगे? यदि तुम ये चीजें हासिल कर सकते हो, तो तुम्हारे पास सामान्य मानवता की समझ होगी। अब तुम लोगों को मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों और परमेश्वर के उद्धार और इरादों का कुछ ज्ञान है, है न? तुम्हारे पास कम से कम एक मोटा-मोटा अंदाजा तो है। जब एक दिन तुम सत्य के सभी पहलुओं की कुछ वास्तविकताओं में प्रवेश करने में सक्षम होगे, तो तुम पूरी तरह से सामान्य मानवता को जी रहे होगे।
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