भ्रष्ट स्वभाव हल करने के उपायों के बारे में वचन (अंश 52)

कुछ लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए कभी सत्‍य की तलाश नहीं करते। वे अपनी कल्‍पनाओं के अनुसार आचरण करते हुए, सिर्फ वही करते हैं जो उन्‍हें अच्‍छा लगता है, वे हमेशा स्‍वेच्‍छाचारी और उतावले बने रहते हैं। वे सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर नहीं चलते। “स्‍वेच्‍छाचारी और उतावला” होने का क्‍या अर्थ है? इसका अर्थ है, जब तुम्‍हारा किसी समस्‍या से सामना हो, तो किसी सोच-विचार या खोज की प्रक्रिया के बगै़र उस तरह का आचरण करना जो तुम्हारे हिसाब से ठीक बैठता हो। किसी और का कहा हुआ कुछ भी तुम्हारे दिल को नहीं छू सकता, न ही तुम्हारे मन को बदल सकता है। यहाँ तक कि सत्य की संगति किए जाने पर भी तुम उसे स्वीकार नहीं कर सकते, तुम अपनी ही राय पर अड़े रहते हो, जब दूसरे लोग कुछ भी सही कहते हैं, तब तुम नहीं सुनते, खुद को ही सही मानते हो और अपने ही विचारों से चिपके रहते हो। भले ही तुम्हारी सोच सही हो, तुम्हें दूसरे लोगों की राय पर भी ध्यान देना चाहिए। और अगर तुम ऐसा बिल्कुल नहीं करते, तो क्या यह अत्यधिक आत्मतुष्ट होना नहीं है? जो लोग अत्यधिक आत्मतुष्ट और मनमाने होते हैं, उनके लिए सत्य को स्वीकारना आसान नहीं होता। अगर तुम कुछ गलत करते हो और दूसरे यह कहते हुए तुम्हारी आलोचना करते हैं, “तुम इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहे हो!” तो तुम जवाब देते हो, “भले ही मैं इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहा, फिर भी मैं इसे इसी तरह से करने वाला हूँ,” और फिर तुम कोई ऐसा कारण ढूँढ़ लेते हो जिससे यह उन्हें सही लगने लगे। अगर वे यह कहते हुए तुम्हें फटकार लगाते हैं, “तुम्हारा इस तरह से काम करना व्यवधान है और यह कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाएगा,” तो न केवल तुम नहीं सुनते, बल्कि बहाने भी बनाते रहते हो : “मुझे लगता है कि यही सही तरीका है, इसलिए मैं इसे इसी तरह करने वाला हूँ।” यह कौन-सा स्वभाव है? (अहंकार।) यह अहंकार है। अहंकारी स्वभाव तुम्हें मनमौजी बनाता है। अगर तुम्हारी प्रकृति अहंकारी है, तो तुम दूसरों की बात न सुनकर स्‍वेच्‍छाचारी और उतावले ढंग से व्यवहार करोगे। तब तुम अपनी स्वेच्‍छाचारिता और उतावलेपन का समाधान कैसे करते हो? उदाहरण के तौर पर, मान लो, तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है और तुम्हारे अपने विचार और योजनाएँ हैं। ऐसे में, यह तय करने से पहले कि क्या करना है, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और तुम्हें कम से कम इस मामले के बारे में तुम क्या सोचते और क्या मानते हो, इसके संबंध में सभी के साथ संगति करनी चाहिए, और सभी से कहना चाहिए कि वे तुम्हें बताएँ कि तुम्हारे विचार सही और सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, और अपनी निगरानी करने को कहना चाहिए। मनमानी और उतावलेपन का समाधान करने का यह सबसे अच्छा तरीका है। सबसे पहले, तुम अपने दृष्टिकोणों पर रोशनी डाल सकते हो और सत्‍य खोजने की कोशिश कर सकते हो; मनमानी और उतावलेपन का समाधान करने के अभ्यास का यह पहला कदम है। दूसरा कदम तब होता है जब दूसरे लोग अपनी असहमतियों को व्‍यक्‍त करते हैं—ऐसे में, स्‍वेच्‍छाचारी और उतावलेपन से बचने के लिए तुम किस तरह का अभ्यास कर सकते हो? पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे किनारे रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्‍हें उस पर जोर नहीं देते रहना चाहिए। यह एक तरह की प्रगति है; यह सत्‍य खोजने, स्‍वयं को नकारने और परमेश्वर के इरादे पूरे करने का रवैया दर्शाता है। जैसे ही तुम यह रवैया अपनाते हो और साथ ही तुम अपनी राय से चिपके नहीं रहते, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से सत्य जानना चाहिए, और फिर परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ना चाहिए—परमेश्वर के वचनों के आधार पर काम करने का तरीका ढूंढो। यही सबसे उपयुक्त और सटीक अभ्यास है। जब तुम सत्य की तलाश करते हो और कोई ऐसी समस्या रखते हो जिस पर सभी लोग संगति करें और सत्य खोजें, तभी पवित्र आत्मा प्रबुद्धता प्रदान करता है। परमेश्वर लोगों को सिद्धांतों के अनुसार प्रबुद्ध करता है। वह लोगों के रवैये का जायजा लेता है। अगर तुम हठपूर्वक अपनी बात पर अड़े रहते हो, फिर चाहे तुम्हारा दृष्टिकोण सही हो या गलत, तो परमेश्वर तुमसे अपना मुँह छिपा लेगा और तुम्हारी उपेक्षा करेगा; वह तुम्हें बेनकाब करने और तुम्हारी भद्दी दशा को उजागर करने के लिए तुम्हें दीवार से टकराने देगा। दूसरी ओर, यदि तुम्हारा रवैया सही है, अपने तरीके पर अड़े रहने वाला नहीं है, न ही वह आत्मतुष्ट, मनमाना और उतावला रवैया है, बल्कि सत्य की खोज करने और उसे स्वीकारने का रवैया है, अगर तुम सभी के साथ संगति करते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे बीच कार्य आरंभ करेगा और संभवतः वह तुम्हें किसी की बातों के माध्यम से समझ की ओर ले जाएगा। कभी-कभी जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है, तो वह सिर्फ कुछ शब्दों या वाक्यांशों में ही, या तुम्हें कोई विचार देकर, मामले की तह तक ले जाता है। तुम एक ही क्षण में समझ जाते हो कि जिस धारणा से तुम चिपके रहे हो वह गलत है, और उसी क्षण तुम यह भी समझ जाते हो कि इस काम को सबसे अच्छे तरीके से कैसे किया जा सकता है। इस स्तर तक पहुँचने के बाद, क्या तुम बुराई करने और गलती के परिणाम भुगतने से सफलतापूर्वक बच नहीं जाते हो? क्या यह परमेश्वर से मिला सुरक्षा नहीं है? (हाँ।) इस तरह की चीज को कैसे हासिल किया जाता है? वह तभी प्राप्त होती है, जब तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है और जब तुम समर्पित हृदय से सत्य खोजते हो। जब तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन प्राप्त कर लेते हो और अभ्यास के सिद्धांत निर्धारित कर लेते हो तो तुम्हारा अभ्यास सत्य के अनुरूप होगा और तुम परमेश्वर के इरादे पूरे कर लोगे। तुम्हारा इस तरह से सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होना मुख्य रूप से किस चीज पर निर्भर करता है? मुख्य रूप से यह तुम्हारे सही इरादों और रवैये पर निर्भर करता है। यह सबसे अहम है। जब पवित्र आत्मा काम करता है, वह लोगों के इरादों और नजरियों की जांच-पड़ताल करता है, और वह निर्णय लेता है कि क्या इन कारकों के आधार पर उन्हें प्रबुद्ध करना है या उन्हें राह दिखानी है। अगर लोग परमेश्वर का कार्य समझ सकें और इस मामले को स्पष्टता से देखें, तो वे जानेंगे कि परमेश्वर से कैसे प्रार्थना करनी है और सत्य कैसे खोजना है। क्या तुम लोग इसे स्पष्ट देख सकते हो? अक्सर, लोग बुराई करने से बचना चाहते हैं, सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों के अनुसार अनुसरण करना चाहते हैं। लेकिन यह सत्य के प्रति लोगों के रवैये पर और इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है और क्या वह परमेश्वर को समर्पित है। अगर तुम अपने निजी इरादों को जाने दे सको और तुममें परमेश्वर के प्रति समर्पण की मानसिकता हो, तुम सच्चे मन से परमेश्वर से प्रार्थना कर खोज रहे हो तो परमेश्वर से प्रबोधन पाने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। परमेश्वर किसी न किसी तरीके से तुम्हें समझा देगा कि सत्य के सिद्धांत क्या हैं और सत्य के मुख्य बिंदु कहाँ निहित हैं। जब तुम परमेश्वर से प्रार्थना और खोज करते हो, और अगर तुम्हारे पास सही मानसिकता है और तुम ईमानदार हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। इसमें चिंता की एक ही बात है जब लोग वास्तव में सत्य की खोज नहीं कर रहे होते हैं, बल्कि दूसरों को दिखाने के लिए बस जैसे-तैसे काम करते हैं और औपचारिकताएँ निभा रहे होते हैं। ऐसी स्थिति में वे परमेश्वर की प्रबुद्धता प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे। यदि तुम्हारा रवैया हठपूर्वक आग्रह करना, सत्य को नकारना, औरों के सुझाव न मानना, सत्य न खोजना, केवल अपने आपमें विश्वास रखना और मनमर्जी करना है—यदि यह तुम्हारा रवैया है और तुम्हें इस बात की परवाह नहीं है कि परमेश्वर क्या करता है या क्या अपेक्षा करता है, तो परमेश्वर की प्रतिक्रिया क्या होगी? वह तुम पर ध्यान नहीं देता। वह तुम्हें दरकिनार कर देता है। क्या तुम मनमाने नहीं हो? क्या तुम अहंकारी नहीं हो? क्या तुम हमेशा खुद को ही सही नहीं मानते हो? यदि तुममें समर्पण नहीं है, यदि तुम कभी खोज नहीं करते, यदि तुम्हारा हृदय परमेश्वर के लिए पूरी तरह से बंद और उसका विरोधी है, तो परमेश्वर तुम्हारी तरफ कोई ध्यान नहीं देता। परमेश्वर तुम पर ध्यान क्यों नहीं देता? क्योंकि जब तुम्हारा दिल परमेश्वर के लिए बंद है, तो क्या तुम परमेश्वर का प्रबोधन स्वीकार सकते हो? क्या तुम परमेश्वर की फटकार को महसूस कर सकते हो? लोग जब दुराग्रही होते हैं, जब उनकी शैतानी प्रकृति और बर्बरता सामने आने लगती है, तो वे परमेश्वर के किसी भी कार्य को महसूस नहीं कर पाते, उन सबका कोई फायदा नहीं होता—तो परमेश्वर बेकार का काम नहीं करता। यदि तुम्हारा रवैया ऐसा अड़ियल और विरोधी है, तो परमेश्वर तुमसे छिपा रहता है, परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता। अगर तुम इस हद तक अड़ियल और विरोधी हो और इतनी सीमित सोच वाले हो, तो परमेश्वर कभी भी तुममें कुछ भी जबरन नहीं करेगा, या तुम पर कुछ भी लादेगा नहीं, वह कभी भी तुम्हें बार-बार प्रेरित और प्रबुद्ध करने की कोशिश नहीं करेगा—परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता। परमेश्वर इस प्रकार कार्य क्यों नहीं करता? इसका मुख्य कारण यह है कि परमेश्वर ने तुममें एक खास तरह का स्वभाव देख लिया है, ऐसी पाशविकता देख ली जो सत्य से विमुख है और तर्क से परे है। तुम्हें क्या लगता है, जब किसी जंगली जानवर की पाशविकता फट पड़ रही हो, तो क्या लोग उसे काबू में कर सकते हैं? क्या उस पर चीखना-चिल्लाना किसी काम आता है? क्या तर्क करने या उसे सुकून देने से कोई लाभ होता है? क्या लोग उसके नजदीक भी जाने की हिम्मत कर सकते हैं? इसका वर्णन करने का एक अच्छा तरीका है : तर्क देना विवेक से परे है। जब तुम्हारी पशुता फट पड़ रही होती है और तुम विवेक से परे हो जाते हो, तो परमेश्वर क्या करता है? परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देता। जब तुम विवेक से परे हो जाते हो, तो परमेश्वर तुमसे और क्या कहेगा? और कुछ भी कहना बेकार है। और जब परमेश्वर तुम पर ध्यान नहीं देता, तो तुम धन्य होते हो या कष्ट उठाते हो? तुम्हें कोई लाभ मिलता है या नुकसान उठाते हो? निस्संदेह तुम्हें नुकसान होता है। और इसका कारण कौन है? (हम खुद।) तुम्हीं ने ये हालात पैदा किए। किसी ने तुम्हें यह सब करने के लिए मजबूर नहीं किया और फिर भी तुम परेशान हो। क्या यह मुसीबत तुमने खुद पैदा नहीं की है? परमेश्वर तुम पर कोई ध्यान नहीं देता, तुम परमेश्वर को महसूस नहीं कर पाते, तुम्हारे हृदय में अंधेरा है, और तुम्हारा जीवन संकट में पड़ गया है—तुमने यह मुसीबत खुद बुलाई है, तुम इसी लायक हो!

किसी मामले का सामना करते वक्त अगर लोग सत्य खोजे बिना ही बहुत मनमानी करें और अपने ही विचारों पर अड़े रहें तो यह बहुत खतरनाक है। परमेश्वर ऐसे लोगों से तिरस्कार कर उन्हें अलग कर देगा। इसका दुष्परिणाम क्या होगा? निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि उन पर निकाल देने का खतरा मंडरा रहा है। हालाँकि, जो लोग सत्य खोजते हैं, वे पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं और नतीजे में परमेश्वर की आशीष प्राप्त कर सकते हैं। सत्य को खोजने और नहीं खोजने के दो अलग-अलग रवैये तुम्हारे अंदर दो अलग-अलग दशाएँ और दो अलग-अलग नतीजे ला सकते हैं। तुम लोग कैसा नतीजा पसंद करोगे? (मैं परमेश्वर का प्रबोधन पाना पसंद करूँगा।) अगर लोग परमेश्वर द्वारा प्रबुद्ध और निर्देशित होना और उसके अनुग्रह प्राप्त करना चाहते हैं, तो उनका रवैया किस तरह का होना चाहिए? उनमें खोजने और परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया होना चाहिए। चाहे तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, दूसरों के साथ बातचीत कर रहे हो या अपने सामने आई किसी विशेष समस्या से निपट रहे हो, तुममें खोज और समर्पण का रवैया होना चाहिए। इस तरह का रवैया होने पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है। सत्य खोजने और इसके प्रति समर्पण में सक्षम होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। अगर तुममें खोज और समर्पण का रवैया नहीं है, बल्कि तुम अड़ियल विरोधी बनकर खुद से चिपके रहते हो, सत्य को स्वीकारने से मना करते हो और उससे विमुख हो चुके हो तो तुम स्वाभाविक रूप से बहुत अधिक बुराई करोगे। तुम खुद को ऐसा करने से रोक नहीं पाओगे! अगर लोग इस समस्या को हल करने के लिए कभी सत्य का अनुसरण नहीं करें, तो अंतिम परिणाम यह होगा कि चाहे वे कितना भी अनुभव कर लें, चाहे वे कितनी भी परिस्थितियों में खुद को पाएँ, चाहे परमेश्वर उनके लिए कितने ही सबक निर्धारित करे, वे फिर भी सत्य को नहीं समझेंगे, और अंततः सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ रहेंगे। अगर लोगों में सत्य-वास्तविकता नहीं होगी, तो वे परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में असमर्थ होंगे, और अगर वे कभी परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकेंगे, फिर वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने वाले लोग नहीं होंगे। लोग लगातार अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का अनुसरण करने की इच्छा करते हैं। क्या चीजें इतनी सरल हैं? बिल्कुल नहीं। लोगों के जीवन में ये चीजें बेहद महत्वपूर्ण हैं! अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट करना और उसका भय मानना, और बुराई से दूर रहना आसान नहीं है। लेकिन मैं तुम लोगों को अभ्यास का एक सिद्धांत बताऊँगा : अगर अपने साथ कुछ होने पर तुममें खोज और समर्पण का रवैया रहता है, तो यह तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम्हारे लिए अंतिम लक्ष्य तुम्हारी रक्षा किया जाना नहीं है। यह लक्ष्य है तुम्हें सत्य समझाना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बनाना; यही अंतिम लक्ष्य है। अगर समस्त अनुभवों में तुम्हारा यह रवैया रहता है, तो तुम्हें कभी यह महसूस नहीं होगा कि अपना कर्तव्य निभाना और परमेश्वर के इरादे पूरे करना खोखले शब्द और नारे हैं; वह अब इतना कठिन नहीं लगेगा। इसके बजाय, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम पहले ही कई सत्य समझ जाओगे। अगर तुम इस तरह अनुभव करने का प्रयास करोगे, तो तुम निश्चित रूप से फल प्राप्त करोगे। यह मायने नहीं रखता कि तुम कौन हो, तुम्हारी उम्र कितनी है, तुम कितने शिक्षित हो, तुमने कितने साल परमेश्वर में विश्वास किया है, या तुम कौन-सा कर्तव्य निभाते हो। अगर तुम्हारा रवैया खोजपूर्ण और समर्पण का रहता है, अगर तुम इस तरह से अनुभव करते हो, तो अंततः तुम्हारा सत्य को समझना और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना निश्चित है। हालाँकि, अगर अपने साथ होने वाली हर चीज में तुम्हारा खोज और समर्पण का रवैया नहीं रहता है, तो तुम सत्य को नहीं समझ पाओगे, न ही तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। जो लोग कभी सत्य नहीं समझते और कभी सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते हैं, वे सोचते हैं, “सत्य क्या है और धर्म-सिद्धांत क्या हैं? सत्य वास्तविकता क्या है और सत्य वास्तविकता नहीं होना क्या होता है? मुझे यह समझ क्यों नहीं आता?” अक्सर वे सत्य के बारे में संगति और उपदेश सुनते हैं, वे जल्दी उठते हैं और परमेश्वर के वचनों को सुनते हुए देर से सोते हैं, ज्यादा सुनते हैं, ज्यादा सीखते हैं और ज्यादा लिखते हैं। जो शिक्षाप्रद बातें वे सुनते हैं, उन्हें अपनी कॉपी में लिख लेते हैं, और ऐसी कई कॉपियाँ भर देते हैं। उन्होंने बहुत ज्यादा मेहनत की, लेकिन, दुर्भाग्य से, वे कभी सत्य को नहीं समझ पाते। नतीजतन, उन्हें लगता है कि सत्य बहुत गहरा है। कई वर्षों तक सुनने के बाद, वे कुछ धर्म-सिद्धांत समझ लेते हैं, लेकिन वे उन्हें अभ्यास में क्यों नहीं ला पाते? वे मामलों का सामना करते हुए उलझन में क्यों पड़ जाते हैं? वे सत्य समझने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने को बहुत गूढ़ मानते हैं और महसूस करते हैं कि इन चीजों को प्राप्त करना बहुत मुश्किल है। दरअसल, उन्होंने इसे गलत समझा है। परमेश्वर में विश्वास करने और सत्य समझने का मतलब शब्दों का खेल खेलना नहीं है, यह कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर बात कर पाना भर भी नहीं है—इसका यह मतलब नहीं है। परमेश्वर में विश्वास में जिस बात पर सबसे अधिक जोर दिया जाता है वह है सत्य का अभ्यास करना और सत्य का अभ्यास करने में सिद्धांतों को समझने में सक्षम होना। सत्य का अभ्यास करना क्या है और सिद्धांतों के साथ मामलों को निपटाना क्या है, यह समझने पर ही कहा जा सकता है कि व्यक्ति सत्य समझ गया है और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर चुका है। सत्य का अभ्यास करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होना सबसे महत्वपूर्ण बात है।

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