सत्य का अनुसरण कैसे करें (9) भाग दो

लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने से जुड़ा एक और मुद्दा भी है। कुछ लोग कहते हैं : “अभी तुम लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों, और इच्छाओं को त्यागने की बात करते हो—क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि समय निकट है, अंत के दिन आ गए हैं, और आपदाएँ आ गई हैं, और क्योंकि परमेश्वर का दिन आ गया है, तो तुम चाहते हो कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें?” यही बात है न? (नहीं।) जवाब इसके बिल्कुल उलट है : नहीं! तो चलो अब विशेष कारण पर चर्चा करते हैं। क्योंकि जवाब “नहीं” में है, तो यकीनन इसमें कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर संगति करने और समझाने की जरूरत है। आओ इस बारे में बात करें : दो हजार साल या फिर कुछ सौ साल पहले तक, संपूर्ण सामाजिक परिवेश आज से अलग था; पूरी मानवजाति के लिए सभी चीजें आज से अलग थीं। उनका जीवन परिवेश बहुत व्यवस्थित हुआ करता था। संसार आज जितना दुष्ट नहीं था, मानव समाज इतना अराजक नहीं था जितना अब है, और कोई आपदाएँ नहीं थीं। क्या तब भी लोगों को अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की जरूरत थी? (हाँ।) क्यों? एक कारण बताओ और उसके बारे में तुम लोग जो भी जानते हो वह बताओ। (अब जब मानवजाति शैतान द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी है, उनके पास शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है, तो जब वे अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हैं, यह सब शोहरत, लाभ और रुतबा पाने के लिए होता है। क्योंकि वे शोहरत और लाभ के पीछे भागते हैं, तो वे संघर्ष करते और एक-दूसरे से लड़ते हैं, और इसका परिणाम यह होता है कि वे शैतान द्वारा और अधिक गहराई से भ्रष्ट कर दिए जाते हैं, जिससे उनके मानवीय होने की समानता उतरोत्तर गायब होती जाती है, और वे परमेश्वर से अधिक से अधिक दूर होते जाते हैं। इससे यह देखा जा सकता है कि आदर्शों और इच्छाओं के अनुसरण का मार्ग गलत है। तो ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि परमेश्वर का दिन निकट है, और वह अपेक्षा करता है कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें; बल्कि, लोगों को तो इन चीजों का अनुसरण ही नहीं करना चाहिए। उन्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सही ढंग से अनुसरण करना चाहिए।) क्या तुम लोगों को लगता है कि लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना अभ्यास का सिद्धांत है? (हाँ।) क्या लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना सत्य है? क्या परमेश्वर मनुष्य से यही अपेक्षा करता है? (हाँ।) यह एक सत्य है, मनुष्य से परमेश्वर की एक अपेक्षा है। तो क्या फिर लोगों को इसी मार्ग के अनुसार चलना चाहिए? (बिल्कुल।) क्योंकि यह सत्य है, परमेश्वर की मनुष्य से एक विशिष्ट अपेक्षा है, और वह मार्ग है जिसके अनुसार लोगों को चलना चाहिए, क्या वह समय और पृष्ठभूमि से अलग बनाया गया है? (नहीं।) क्यों नहीं? क्योंकि सत्य, परमेश्वर की अपेक्षाएँ और परमेश्वर का मार्ग समय, स्थान या परिवेश बदलने के साथ नहीं बदलते हैं। समय कोई भी हो, स्थान कोई भी हो, और परिवेश कोई भी हो, सत्य तो हमेशा सत्य ही होता है, और मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षा का मानक नहीं बदलता है, और न ही उस मानक में बदलाव होता है जिसकी उसे अपने अनुयायियों से अपेक्षा होती है। तो फिर समय, स्थान या प्रसंग चाहे जो भी हो, परमेश्वर का अनुसरण करने वालों को परमेश्वर के जिस मार्ग के अनुसार चलना चाहिए, वह नहीं बदलता है। तो, आज के युग में लोगों से अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की अपेक्षा करना मनुष्य के लिए ऐसी अपेक्षा नहीं है जो समय निकट आने या अंत के दिन करीब आने के कारण सामने रखी गई हो; न ही ऐसा इसलिए है क्योंकि दिन कम रह गए हैं और आपदाएँ बड़ी होने लगी हैं, न ही इसका कारण मनुष्य के आपदा में घिर जाने का डर है, जिसकी वजह से मनुष्य से ऐसी तात्कालिक अपेक्षा की गई है, उनसे चरम और मौलिक कार्रवाई में शामिल होने की अपेक्षा की गई है, ताकि वे सत्य वास्तविकता में तीव्रतम गति से प्रवेश कर सकें। कारण यह नहीं है। फिर क्या कारण है? समय कोई भी हो, चाहे कुछ सौ या कुछ हजार साल पहले—यहाँ तक कि वर्तमान में भी—इस संबंध में मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ नहीं बदली हैं। बात बस इतनी है कि कुछ हजार साल पहले, यहाँ तक कि आज से पहले किसी भी समय, परमेश्वर ने इन वचनों को सार्वजनिक रूप से मानवजाति के लिए विस्तार से प्रकाशित नहीं किया था, मगर फिर भी मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ कभी भी नहीं बदली हैं। जब से मानवजाति ने अभिलेख रखने शुरू किए, उनसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ कभी भी यह नहीं रहीं कि वे संसार का अनुसरण करने के लिए परिश्रम करें, या संसार में अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करें। मनुष्य से उसकी एकमात्र अपेक्षा यही है कि वे उसके वचनों को सुनें, उसके मार्ग के अनुसार चलें, संसार के साथ कीचड़ में न लोटें, और संसार के पीछे न भागें। सांसारिक लोगों को सांसारिक मामलों से निपटने दो; यह सब उन्हें ही पूरा करने दो। उनका परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करने वालों से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर के विश्वासियों को बस परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलना और उसका अनुसरण करना चाहिए। परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलना कुछ ऐसा है जिसके प्रति परमेश्वर के विश्वासी और अनुयायी कर्तव्यबद्ध हैं। यह मामला समय, स्थान या पृष्ठभूमि के साथ नहीं बदलता है। यहाँ तक कि भविष्य में भी, जब मानवजाति बचा ली जाएगी और अगले युग में प्रवेश करेगी, तब भी यह अपेक्षा नहीं बदलेगी। परमेश्वर के वचनों को सुनना और उसके मार्ग के अनुसार चलना वह रवैया और विशिष्ट अभ्यास है जो परमेश्वर के अनुयायी को उसके प्रति रखना चाहिए। सिर्फ परमेश्वर के वचनों को सुनकर और उसके मार्ग के अनुसार चलकर ही लोग सफलतापूर्वक परमेश्वर का भय मानते हुए बुराई से दूर रह सकते हैं। तो परमेश्वर का लोगों से अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की अपेक्षा रखना समय, अनूठे परिवेश या पृष्ठभूमि के कारण नहीं है; बल्कि, जब से मनुष्य का अस्तित्व है, तब से परमेश्वर ने हमेशा उनसे इस मानक और सिद्धांत को बनाए रखने की अपेक्षा की है, भले ही उसने उन्हें स्पष्ट रूप से वचन नहीं दिए थे। चाहे कितने भी लोग इसे हासिल कर लें, कितने भी लोग उसके वचनों को अभ्यास में ला पाएँ, या वे उसके कितने ही वचनों को समझने में सक्षम हों, परमेश्वर की यह अपेक्षा कभी नहीं बदलती है। बाइबल में देखो, जहाँ भी उन खास लोगों के अभिलेख हैं जिन्हें परमेश्वर ने खास समय पर चुना था—नूह, अब्राहम, इसहाक, अय्यूब वगैरह। उनसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ, वे जिस मार्ग के अनुसार चले, उनके जीवन के लक्ष्य और दिशा, और उन्होंने जिन लक्ष्यों का अनुसरण किया और जीवन और अस्तित्व के लिए उन्होंने जो कुछ भी किया, सभी में मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ निहित हैं। मनुष्य से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं? उनमें यह शामिल है कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें, है न? (बिल्कुल।) चाहे आत्मा में हो या स्वरूप में, उन्हें शोर-शराबे वाली, बेतरतीब, दुष्ट मानवजाति से दूर रहना चाहिए और उनकी शोर-शराबे वाली, अराजक, दुष्ट प्रवृत्तियों से भी दूर रहना चाहिए। पहले, एक शब्द हुआ करता था जो बहुत उपयुक्त नहीं था—“पवित्र।” वास्तव में, इस शब्द का अर्थ तुमसे यह अपेक्षा है कि तुम अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दो—यह तुम्हें एक अविश्वासी बनने से, या अविश्वासियों वाले कार्य करने, या उन चीजों का अनुसरण करने से रोकने के लिए है जिनका अनुसरण अविश्वासी करते हैं, बल्कि यह तुमसे उन चीजों का अनुसरण करवाने के लिए है जिनका अनुसरण विश्वासी को करना चाहिए। इसका यही अर्थ है। तो, जब कुछ लोग कहते हैं : “क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि समय निकट है, अंत के दिन आ गए हैं, और आपदाएँ आ गई हैं, और इसीलिए परमेश्वर चाहता है कि लोग अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग दें?” इस सवाल का जवाब क्या होना चाहिए? यही कि मनुष्य से परमेश्वर की कोई भी और सभी अपेक्षाएँ सत्य हैं, और यह ऐसा मार्ग है जिसके अनुसार लोगों को चलना चाहिए। वे समय, स्थान, परिवेश, भौगोलिक स्थान या सामाजिक पृष्ठभूमि के बदलने के साथ नहीं बदलते हैं। परमेश्वर के वचन सत्य हैं, वह सत्य जो अनादि काल से नहीं बदला है, जो अनंत काल तक नहीं बदलेगा—तो मनुष्य से परमेश्वर की हर एक अपेक्षा और उसके द्वारा उनके सामने रखा गया अभ्यास का हर एक विशिष्ट सिद्धांत, उसके द्वारा मानवजाति की रचना करने के बाद का है, जब उनके पास समय के अभिलेख तक नहीं थे। वे परमेश्वर के साथ सह-अस्तित्व में रहे हैं। दूसरे शब्दों में, जब से मनुष्य अस्तित्व में आया, मानवजाति स्वयं से परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझने में सक्षम रही है। अपेक्षाएँ चाहे किसी भी क्षेत्र से जुड़ी हों, वे सभी शाश्वत हैं, और कभी नहीं बदलेंगी। कुल मिलाकर, मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ उसके वचनों को सुनना और उसके मार्ग के अनुसार चलना है। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) परमेश्वर की अपेक्षाओं का संसार के विकास, मानव की सामाजिक पृष्ठभूमि, समय या स्थान, या उस भौगोलिक परिवेश और जगह से कोई लेना-देना नहीं है जिसमें लोग रहते हैं। परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद, लोगों का उनका पालन और उनका अभ्यास करना उचित है। परमेश्वर की लोगों से कोई और अपेक्षा नहीं है। जब वे उसके वचनों को सुनते और समझते हैं, तो उनके लिए उनका पालन और अभ्यास करना ही पर्याप्त है; वे उसकी नजरों में मानक-स्तर का सृजित प्राणी होने की कसौटी पर खरे उतरते हैं। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) तो, समय, सामाजिक परिवेश या पृष्ठभूमि या भौगोलिक स्थिति चाहे जो भी हो, तुम्हें बस परमेश्वर के वचनों को सुनना और यह समझना है कि वह क्या कहता है और उसकी तुमसे क्या अपेक्षाएँ हैं, और फिर अगली चीज जो तुम्हें करनी चाहिए वह है उसके वचनों को ध्यान देकर सुनना, समर्पण करना और अभ्यास करना। इन बातों की चिंता मत करो कि, “क्या इस समय बाहरी संसार में बड़ी आपदाएँ आ रही हैं? क्या संसार अराजक हो गया है? क्या संसार में जाना खतरनाक है? क्या मैं महामारी के कारण बीमार पड़ सकता हूँ? क्या मैं मर सकता हूँ? क्या मैं आपदाओं में गिर जाऊँगा? क्या वहाँ बाहर कोई प्रलोभन हैं?” ऐसी बातों पर विचार करना बेकार है और इनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हें बस सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलने से सरोकार रखना चाहिए, न कि बाहरी संसार के परिवेश से। बाहरी संसार का परिवेश चाहे जैसा भी हो, तुम एक सृजित प्राणी हो, और परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। सृष्टिकर्ता और सृजित प्राणियों के बीच का संबंध कभी नहीं बदलेगा, तुम्हारी पहचान नहीं बदलेगी, और न ही परमेश्वर का सार बदलेगा। तुम हमेशा ऐसे व्यक्ति रहोगे जिसे परमेश्वर के मार्ग के अनुसार चलना चाहिए, जिसे उसके वचनों को सुनना चाहिए और उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। परमेश्वर ही हमेशा तुम पर संप्रभु रहेगा, तुम्हारा भाग्य निर्धारित करेगा, और जीवन में तुम्हारी अगुआई करेगा। उसके साथ तुम्हारा रिश्ता नहीं बदलेगा, उसकी पहचान नहीं बदलेगी, और न ही तुम्हारी पहचान बदलेगी। इन सबके कारण, चाहे समय कोई भी हो, तुम्हारी जिम्मेदारी, दायित्व और सर्वोच्च कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को सुनना, उनके प्रति समर्पण करना और उनका अभ्यास करना होगा। यह कभी गलत नहीं होगा, और यह उच्चतम मानक है। क्या यह मसला सुलझ गया है? (बिल्कुल।) इसका समाधान हो गया है। क्या मेरी बातें स्पष्ट थीं? क्या मेरी बातें तुम लोगों से ज्यादा सही थीं? (बिल्कुल।) मेरी बात कैसे सही थी? (हम बस मोटे तौर पर बात कर रहे थे, मगर परमेश्वर ने इस मुद्दे का अच्छी तरह से विश्लेषण किया है, और यह भी संगति की है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, ये वे मार्ग हैं जिनका लोगों को पालन करना चाहिए, उन्हें परमेश्वर के वचनों को सुनना चाहिए और उसके मार्ग के अनुसार चलना चाहिए। परमेश्वर ने यह सब स्पष्ट बताया है।) मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य का एक पहलू है। यह वाक्यांश “सत्य का एक पहलू” एक सिद्धांत है, तो क्या चीजें इस सिद्धांत का समर्थन करती हैं? ये वही पहले बताए गए विशिष्ट तथ्य और सामग्रियाँ हैं। इन सभी तथ्यों के प्रमाण मौजूद हैं; उनमें से एक भी मनगढ़ंत नहीं है, एक भी काल्पनिक नहीं है। वे सभी तथ्य हैं, या वे तथ्यों की बाहरी घटना का सार और वास्तविकता हैं। अगर तुम उन्हें समझ-बूझ सकते हो, तो इससे यह साबित होता है कि तुम सत्य समझते हो। तुम लोग इस बात को सबके सामने जोर से इसलिए नहीं बोल सकते क्योंकि तुम लोग अभी तक सत्य के इस पहलू को नहीं समझते, न ही तुम इन घटनाओं के अंतर्निहित सार और वास्तविकता को समझते हो, तो तुम लोग बस अपनी भावनाओं और ज्ञान के बारे में थोड़ा-बहुत बोल देते हो, जो सत्य से कोसों दूर है। यही बात है न? (हाँ।) यह समस्या हल हो गई है, तो इसे यहीं रहने देते हैं। जहाँ तक रुचियों और शौक के कारण उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने की बात है, क्या इस प्रश्न को अतिरिक्त बिंदु के रूप में शामिल करना आवश्यक था? (हाँ।) यह जरूरी था। हर एक सवाल सत्य के किसी न किसी पहलू को छूता है, यानी यह कुछ तथ्यों की वास्तविकता और सार को छूता है, और वास्तविकता और सार के पीछे हमेशा परमेश्वर की व्यवस्थाएँ, योजनाएँ, विचार और इच्छाएँ होती हैं। और क्या? परमेश्वर के कुछ विशिष्ट तरीके और उसके कार्यों का आधार, लक्ष्य और पृष्ठभूमि होती है। यह सब वास्तविकता है।

रुचियों और शौक से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने के विषय पर संगति पूरी करने के बाद, हमें अगले विषय पर संगति शुरू करनी चाहिए। अगला विषय क्या है? यह कि लोगों को शादी से उत्पन्न होने वाले अपने लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। जाहिर है कि यह विषय शादी से जुड़ी सभी विभिन्न समस्याओं के बारे में होगा। क्या यह विषय रुचियों और शौक से थोड़ा ज्यादा बड़ा नहीं है? इसके आकार से मत डरो। हम इसे टुकड़ों में देखेंगे, धीरे-धीरे संगति करके इस विषय को समझेंगे और इसकी गहराई में जाएँगे। इस विषय पर संगति में हम जो रुख अपनाएँगे वह समस्याओं के सार के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों परिप्रेक्ष्य और पहलुओं से शादी की समस्या का विश्लेषण करना है; शादी के बारे में लोगों की अलग-अलग समझ, सही और गलत दोनों; शादी में वे जो गलतियाँ करते हैं, साथ ही विभिन्न गलत विचार और दृष्टिकोण जो इस समस्या को जन्म देते हैं, जिनकी वजह से लोग आखिरकार शादी से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देने में सक्षम होते हैं। “त्याग देने” की कोशिश का सबसे अच्छा और सबसे आसान अभ्यास यह है : सबसे पहले, तुम्हें समस्याओं का सार स्पष्ट रूप से देखना होगा, और उनकी असलियत जाननी होगी कि वे सकारात्मक हैं या नकारात्मक। फिर तुम्हें समस्याओं से सही और तार्किक ढंग से निपटने में सक्षम होना होगा। यह चीजों का सक्रिय पक्ष है। चीजों के निष्क्रिय पक्ष पर, तुम्हें समस्याओं से उपजे गलत विचारों, दृष्टिकोणों और रवैये, या फिर उन नुकसानदेह और नकारात्मक प्रभावों को समझने और उनकी असलियत देखने में सक्षम होना होगा जो वे तुम्हारी मानवता में उत्पन्न करते हैं, और फिर इन पहलुओं से उनका त्याग करने में सक्षम होना होगा। दूसरे शब्दों में, इन समस्याओं को समझने और इनकी असलियत पहचानने में सक्षम होना होगा, तुम्हें इन समस्याओं से उत्पन्न होने वाले गलत विचारों से बंधना या इनके आगे विवश नहीं होना, और उन्हें तुम्हारे जीवन पर काबू पाकर तुम्हें गलत मार्ग पर ले जाने नहीं देना है, या तुम्हें गलत फैसला करने की दिशा में ले जाने नहीं देना है। संक्षेप में, चाहे हम सकारात्मक पक्ष पर संगति कर रहे हों या नकारात्मक पक्ष पर, अंतिम लक्ष्य लोगों को शादी की समस्या से तर्कसंगत रूप से निपटने में सक्षम बनाना है, ताकि वे इसे समझने और इसे देखने के लिए भ्रामक विचारों और नजरिये का उपयोग न करें, और न ही इसके प्रति गलत रवैया अपनाएँ। यही “त्याग देने” के अभ्यास को सही से समझना है। अच्छा, तो अब हम शादी से उत्पन्न होने वाले लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं पर संगति करना जारी रखते हैं। सबसे पहले, हम शादी की परिभाषा को देखते हैं, इसकी अवधारणा क्या है। तुममें से ज्यादातर लोग शादीशुदा नहीं हो, है न? मैं देख पा रहा हूँ कि तुममें से कई लोग बालिग हो चुके हैं। बालिग होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम्हारी शादी की उम्र हो चुकी है या शादी की उम्र जा चुकी है। चाहे तुम उस उम्र में हो या उसे पार कर चुके हो, शादी के बारे में हर व्यक्ति के कुछ अपेक्षाकृत दकियानूसी विचार, परिभाषाएँ और अवधारणाएँ होती हैं, चाहे वह सही हो या गलत। तो सबसे पहले यह जानते हैं कि वास्तव में शादी है क्या। पहले, तुम लोग अपने शब्दों में बताओ : वास्तव में शादी क्या है? अगर हम यह जानना चाहें कि शादी क्या है, इस बारे में बात करने के लिए कौन योग्य है, तो शायद ये वे लोग हैं जिनकी पहले शादी हो चुकी है। तो आओ सबसे पहले उन लोगों से शुरुआत करें जिनकी शादी हो चुकी है, और जब उनकी बात पूरी हो जाए, तो हम अविवाहित लोगों की ओर बढ़ेंगे। तुम लोग शादी के बारे में अपने विचार बता सकते हो, और हम इसके बारे में तुम लोगों की समझ और परिभाषा सुनेंगे। तुम्हें जो कहना है कहो, चाहे यह सुनने में अच्छा लगे या न लगे—शादी को लेकर तुम्हारी शिकायतें या इससे जुड़ी तुम्हारी उम्मीदें, सब ठीक है। (शादी करने से पहले, हर किसी की कुछ उम्मीदें होती हैं। कुछ लोग इसलिए शादी करते हैं ताकि वे एक समृद्ध जीवनशैली जी सकें, जबकि कुछ लोग एक खुशहाल शादी चाहते हैं, किसी सफेद घोड़े पर आने वाले राजकुमार की खोज में होते हैं, यह कल्पना करते हैं कि वे खुशहाल जीवन जिएँगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने कुछ उद्देश्यों को पूरा करने के लिए शादी करना चाहते हैं।) तो तुम्हारे विचार में, वास्तव में शादी क्या है? क्या यह एक लेनदेन है? क्या यह एक खेल है? क्या है? तुमने जिन परिस्थितियों का जिक्र किया है उनमें से कुछ संपन्न जीवन जीने के बारे में हैं, जो एक प्रकार का लेनदेन है। और क्या? (मुझे लगता है कि मेरे लिए, शादी ऐसी चीज है जिसके लिए मैं तरसता हूँ, जिसे मैं पाना चाहता हूँ।) और कोई कुछ कहना चाहता है? शादीशुदा लोगों को शादी के बारे में क्या जानकारी है? खासकर वे लोग जिनकी शादी को दस या बीस साल हो गए हैं—शादी के बारे में तुम लोगों की क्या भावनाएँ हैं? क्या तुम लोगों के पास आम तौर पर शादी के बारे में बहुत-से विचार नहीं होते? एक तो तुम्हें अपनी शादी का अनुभव है, और दूसरी बात, तुमने अपने आस-पास के लोगों की शादियाँ भी देखी हैं; साथ ही, तुमने दूसरों की शादियों पर भी विचार किया है जिन्हें तुमने किताबों, साहित्य और फिल्मों में देखा है। तो इन सभी पहलुओं से, तुम्हें क्या लगता है, शादी क्या है? तुम इसे कैसे परिभाषित करोगे? तुम इससे क्या समझते हो? तुम शादी की क्या परिभाषा दोगे? शादीशुदा लोग, जो कुछ सालों से शादीशुदा हैं—खासकर तुममें से वो लोग जिन्होंने बच्चे पाले हैं—शादी के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? बोलो। (मैं थोड़ा बता सकती हूँ। मैंने छोटी उम्र से ही बहुत सारे टीवी सीरियल देखे हैं। मैं हमेशा से एक खुशहाल शादीशुदा जीवन चाहती थी, मगर शादी करने के बाद पता चला कि यह मेरी कल्पना से बिल्कुल अलग चीज थी। शादी के बाद सबसे पहले मुझे अपने परिवार के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी, जो बहुत थकाऊ था। दूसरी बात, मेरे पति के और मेरे स्वभाव के बीच असंगतता के कारण, और जिन चीजों के लिए हम तरसते थे और जिनके पीछे हम भागते थे—खास तौर से हमारे रास्ते अलग-अलग होने के कारण—हमारे जीवन में इतने मतभेद थे कि अक्सर हमारी बहस हो जाती थी। जीवन कठिन था। उस वक्त, मुझे एहसास हुआ कि बचपन में मैं जिस शादीशुदा जीवन के लिए तरसती थी वह असल में यथार्थवादी नहीं था। यह तो बस एक खूबसूरत चाह थी, मगर वास्तविक जीवन ऐसा नहीं है। शादी के बारे में मेरे विचार यही हैं।) तो तुम्हारे विचार में शादी का अनुभव कड़वा है, है न? (हाँ।) तो शादी को लेकर तुम्हारी सभी यादें कड़वी, थकाऊ, पीड़ादायक हैं, और याद करने लायक नहीं हैं; तुम परेशान थी, तो बाद में, तुमने शादी से सभी उम्मीदें छोड़ दीं। तुम्हें लगता है कि शादी तुम्हारी इच्छाओं के अनुरूप नहीं है, यह अच्छी या रूमानी नहीं है। तुम शादी को एक त्रासदी समझती हो—यही कहना चाहती हो न? (बिल्कुल।) तुम्हारी शादी में, चाहे उन चीजों में जो तुम करने में सक्षम थी या उन चीजों में जिन्हें तुम करने को तैयार नहीं थी, तुम्हें हर चीज को लेकर काफी थकावट और कड़वाहट महसूस होती थी, यही बात है न? (हाँ।) शादी कड़वी होती है—यह एक प्रकार की भावना है, एक ऐसी भावना जिसे लोग समझ सकते हैं या खुद महसूस कर सकते हैं। चाहे रूप जो भी हो, इस समय संसार में शादी और परिवार के बारे में शायद बहुत-से अलग-अलग कथन हैं। फिल्मों और किताबों में ऐसे कई कथन हैं, और समाज में भी शादी के विशेषज्ञ और संबंधों के विशेषज्ञ मौजूद हैं जो सभी प्रकार की शादियों का विश्लेषण करते हैं, जो उन शादियों में आने वाले विवादों को सुलझाते हैं, ताकि उनके बीच मध्यस्थता हो सके। अंत में, समाज ने भी शादी के बारे में कुछ कहावतों को लोकप्रिय बना दिया है। शादी के बारे में इनमें से किस लोकप्रिय कहावत से तुम लोग सबसे ज्यादा सहमत हो या सहानुभूति रखते हो? (परमेश्वर, समाज में लोग अक्सर कहते हैं कि शादी करना कब्र में जाने जैसा है। मुझे लगता है कि शादी करने, परिवार बनाने और बच्चे पैदा करने के बाद, लोगों की जिम्मेदारियाँ होती हैं, उन्हें अपने परिवार को पालने के लिए मरते दम तक काम करना पड़ता है, और इसके अलावा शादी में दो लोगों के साथ रहने से असामंजस्य भी होता है जिससे कई तरह की समस्याएँ और कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं।) असली कहावत क्या है? “शादी एक कब्र है।” क्या चीन की कुछ मशहूर, लोकप्रिय कहावतें भी हैं? क्या यह कहावत, “शादी एक कब्र है” काफी लोकप्रिय नहीं है? (बिल्कुल है।) और क्या? “शादी ऐसा शहर है जहाँ घेराबंदी हैं—जो बाहर हैं वे अंदर आना चाहते हैं, और जो अंदर हैं वे बाहर जाना चाहते हैं।” और क्या? “प्यार के बिना शादी अनैतिक है।” उनका मानना है कि शादी प्यार की निशानी है और प्यार के बिना शादी अनैतिक होती है। वे नैतिकता के मानक को मापने के लिए रूमानी प्रेम का उपयोग करते हैं। क्या शादीशुदा लोगों के पास शादी के बारे में यही परिभाषाएँ और अवधारणाएँ हैं? (हाँ।) संक्षेप में, जो लोग शादीशुदा हैं उनमें कड़वाहट भरी है। इसका वर्णन करने के लिए इस कहावत का इस्तेमाल किया जा सकता है : “शादी एक कब्र है।” क्या यह इतना आसान है? शादीशुदा लोगों ने अपनी बात कह दी है, तो अब हम सुन सकते हैं कि अविवाहित, अकेले रहने वाले लोगों का क्या कहना है। कौन बताना चाहता है कि शादी को लेकर उनकी समझ क्या है? भले ही यह बचकाना हो, या कोई कल्पना हो या ऐसी उम्मीदें हों जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना न हो, इसमें कोई दिक्कत नहीं है। (परमेश्वर, मुझे लगता है कि शादी दो लोगों का एक-दूसरे का साथी बनकर जीवन जीना है, यह दैनिक आवश्यकताओं वाला जीवन है।) क्या तुम्हारी शादी हो चुकी है? क्या इसके संबंध में तुम्हारा अपना कोई अनुभव है? (नहीं।) दैनिक आवश्यकताएँ, साथी बनकर जीना—क्या तुम्हें सचमुच यही लगता है? इतना व्यावहारिक? (मेरे आदर्शों में, शादी ऐसी नहीं है, मगर मैंने अपने मॉम-डैड की शादी में यही देखा है।) तुम्हारे मॉम-डैड की शादी इस तरह की है, लेकिन तुम्हारी आदर्श शादी ऐसी नहीं है। शादी के मामले में तुम्हारी समझ क्या है और तुम किसका अनुसरण करती हो? (जब मैं छोटी थी तो मेरी समझ बस यही थी कि मैं किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करूँ जिसकी मैं सराहना करती हूँ, फिर उसके साथ खुशी-खुशी और प्रेम से रहूँ।) तुम उसके साथ जीना चाहती थी, उसका हाथ पकड़कर साथ में बूढ़ी होना चाहती थी, है न? (हाँ।) यह शादी के बारे में तुम्हारी विशिष्ट समझ है, जिसमें तुम खुद शामिल हो; तुम्हें यह समझ दूसरों को देखकर नहीं मिली है। तुम दूसरों की शादियों में जो देखती हो वह सिर्फ उनका सतही रूप है, और क्योंकि तुमने अभी तक खुद इसका अनुभव नहीं किया है, तो तुम नहीं जानती कि तुम जो देख रही हो वह तथ्यों की वास्तविकता या फिर तथ्यों का बाहरी रूप है; जिस चीज को तुम वास्तविकता मानती हो वह हमेशा तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोण में रहेगी। युवाओं में एक ओर तो शादी का मतलब अपने प्रेमी के साथ रोमांटिक ढंग से जीना, एक दूसरे का हाथ पकड़कर बूढ़े होना और साथ मिलकर जीवन बिताना है। क्या शादी के बारे में तुम लोगों की कोई और समझ है? (नहीं।)

कुछ लोग कहते हैं : “शादी का मतलब है ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ना जो तुमसे प्यार करता हो। वह रूमानी है या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, और न ही तुम्हारा उससे बहुत प्यार करना जरूरी है। कम से कम, उसे तुमसे प्यार करना चाहिए, उसके दिल में तुम्हारी जगह होनी चाहिए, और उसके लक्ष्य, आदर्श, चरित्र, रुचियाँ और शौक तुम्हारे जैसे ही होने चाहिए, ताकि तुम दोनों के बीच तालमेल हो और तुम साथ रह सको।” दूसरे लोग कहते हैं : “जीवन बिताने के लिए कोई ऐसा व्यक्ति ढूँढ़ो जो तुमसे प्यार करे और जिससे तुम प्यार करो। सिर्फ यही खुशहाली है।” और कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके लिए शादी का मतलब है : “तुम्हें किसी अमीर व्यक्ति को ढूँढ़ना चाहिए, ताकि तुम्हें अपने आगे के जीवन में कपड़े और खान-पान की परवाह न करनी पड़े, तुम्हारा भौतिक जीवन संपन्न रहे, और तुम गरीबी में न जियो। उसकी उम्र या शक्ल-सूरत चाहे कैसी भी हो, उसका चरित्र कैसा भी हो, और उसकी पसंद-नापसंद कुछ भी हो, अगर उसके पास पैसा है तो सब ठीक है। अगर वह तुम्हें खर्च करने के लिए पैसे दे सकता है और तुम्हारी भौतिक जरूरतों को पूरा कर सकता है, तो वह स्वीकार्य है। ऐसे व्यक्ति के साथ रहकर तुम खुश रहोगे, और आरामदायक जीवन जियोगे। शादी यही होती है।” लोग शादी के लिए कुछ ऐसी ही परिभाषाएँ देते हैं और शादी से ऐसी ही अपेक्षाएँ रखते हैं। ज्यादातर लोग समझते हैं कि शादी अपना प्रेमी, अपने सपनों का प्यार, एक मनमोहक राजकुमार पाना, उसके साथ रहना और एक-दूसरे को अनुकूल पाना है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कल्पना करते हैं कि उनका मनमोहक राजकुमार कोई बड़ा सितारा या हस्ती होगा, या फिर पैसे, शोहरत और दौलत वाला कोई इंसान होगा। उन्हें लगता है कि सिर्फ ऐसे व्यक्ति के साथ रहना ही एक भरोसेमंद, सुखद, और एक परिपूर्ण शादी है, और सिर्फ ऐसा जीवन ही खुशहाली है। कुछ लोग अपने जीवनसाथी की कल्पना किसी रुतबे वाले व्यक्ति के रूप में करते हैं। कुछ लोग अपने जीवनसाथी की कल्पना किसी खूबसूरत और आकर्षक व्यक्ति के रूप में करते हैं। कुछ लोग अपने जीवनसाथी की कल्पना ऐसे अमीर व्यक्ति के रूप में करते हैं जो अच्छे संपर्क वाले, शक्तिशाली, और धनी परिवार से आता हो। कुछ लोग कल्पना करते हैं कि उनका जीवनसाथी महत्वाकांक्षी और अपने काम में माहिर होगा। कुछ लोग कल्पना करते हैं कि उनका जीवनसाथी विशेष रूप से प्रतिभाशाली होगा। कुछ लोग कल्पना करते हैं कि उनके जीवनसाथी के चरित्र में कुछ विशेष बातें होंगी। लोग शादी से ये सारी और इससे भी अधिक कई अपेक्षाएँ रखते हैं, और बेशक, यही शादी के बारे में लोगों की कल्पनाएँ, धारणाएँ और दृष्टिकोण भी हैं। संक्षेप में, जिनकी पहले शादी हो चुकी है वे कहते हैं कि शादी एक कब्र है, शादी करना किसी कब्र में घुसने जैसा है, या किसी आपदा का सामना करने जैसा है; जो लोग शादीशुदा नहीं हैं उन्हें शादी काफी सुखद और रूमानी लगती है, और वे इसको लेकर लालसा और अपेक्षाओं से भरे होते हैं। लेकिन चाहे शादीशुदा लोग हों या अविवाहित, कोई भी शादी के बारे में अपनी समझ-बूझ या शादी की वास्तविक परिभाषा और अवधारणा पर बहुत स्पष्ट रूप से बात नहीं कर सकता, है ना? (वे नहीं कर सकते।) जिन लोगों ने शादी का अनुभव किया है वे कहते हैं : “शादी एक कब्र है, यह एक कड़वा अनुभव है।” कुछ अविवाहित लोग कहते हैं : “शादी के बारे में तुम्हारी समझ गलत है। तुम शादी को इसलिए बुरा बताते हो, क्योंकि तुम बहुत स्वार्थी हो। तुमने अपनी शादी में अधिक योगदान नहीं दिया। तुम्हारी विभिन्न खामियों और समस्याओं के कारण, तुमने अपनी शादी को तबाह कर दिया। तुमने अपने हाथों से अपनी शादी तोड़ दी और सब खत्म कर दिया।” कुछ ऐसे शादीशुदा लोग भी हैं जो अविवाहित लोगों से कहते हैं : “तुम तो नासमझ बच्चे हो, तुम्हें क्या पता? तुम जानते हो शादी क्या होती है? शादी न तो एक व्यक्ति का मामला है, न ही दो लोगों का—यह दो परिवारों का मामला है, या यूँ कहें कि दो घरानों का मामला है। इसमें ऐसी कई समस्याएँ हैं जो न तो सरल हैं और न ही सीधी। यहाँ तक कि सिर्फ दो लोगों की दुनिया में, जहाँ बात सिर्फ दो व्यक्तियों की हो, तब भी यह इतना आसान नहीं है। शादी के बारे में तुम्हारी समझ और कल्पना चाहे कितनी भी सुखद हो, जैसे-जैसे दिन बीतते जाएँगे, रोजमर्रा की छोटी-छोटी जरूरतें इस पर हावी होती जाएँगी, जब तक कि इसका रंग और स्वाद फीका न पड़ जाए। तुम शादीशुदा नहीं हो, तो तुम्हें क्या ही पता होगा? तुम कभी शादी के बंधन में नहीं रहे, कभी शादी को नहीं संभाला, तो तुम शादी को आंकने या उसके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करने के काबिल नहीं हो। शादी के बारे में तुम्हारी समझ काल्पनिक है, खयाली पुलाव है—यह वास्तविकता पर आधारित नहीं है!” चाहे इस बारे में कोई भी बात कर रहा हो, उसकी बात के पीछे कोई-न-कोई वस्तुनिष्ठ तर्क होता है, लेकिन सब कहने और करने के बाद, वास्तव में शादी का क्या मतलब है? इसे देखने का सबसे सही, सबसे वस्तुनिष्ठ परिप्रेक्ष्य कौन-सा है? सत्य के सबसे अनुरूप क्या है? इसके प्रति क्या नजरिया होना चाहिए? जिन लोगों ने पहले शादी का अनुभव किया है या जिन्होंने इसका अनुभव नहीं किया है, बात चाहे किसी की भी हो, यह तो तय है कि शादी के बारे में उनकी समझ उनकी अपनी कल्पनाओं से भरी है, और दूसरी बात यह कि भ्रष्ट मनुष्य शादी में अपनी भूमिका के संबंध में भावनाओं से भरे हैं। क्योंकि भ्रष्ट मनुष्य उन सिद्धांतों को नहीं समझते हैं जिनका उन्हें विभिन्न परिवेशों में पालन करना चाहिए, और न ही शादी में अपनी भूमिका या उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को समझते हैं जो उन्हें निभाने चाहिए; शादी के बारे में उनकी कुछ बातें बेहद भावनात्मक होती हैं, और उनमें उनका निजी स्वार्थ और तुनकमिजाजी शामिल होती है। बेशक, चाहे कोई व्यक्ति शादीशुदा हो या नहीं, अगर वह शादी को सत्य के परिप्रेक्ष्य से नहीं देखता, और अगर उसके पास परमेश्वर से मिली इसकी सटीक समझ और ज्ञान नहीं है, तो शादी के बारे में उसके अपने व्यावहारिक निजी अनुभव को छोड़कर, इसके बारे में उसकी समझ काफी हद तक समाज और दुष्ट मानवजाति से प्रभावित होती है। इसके अलावा, उनकी समझ समाज के परिवेश, प्रवृत्तियों और सार्वजनिक राय के साथ-साथ समाज के हर स्तर और तबके के लोगों द्वारा शादी के बारे में कही जाने वाली भ्रामक, पक्षपातपूर्ण बातों—जिसे अधिक विशिष्ट रूप से अमानवीय कहा जा सकता है—से भी प्रभावित होती है। दूसरों की कही गई इन बातों के कारण, एक ओर तो लोग अनजाने में इन विचारों और दृष्टिकोणों से प्रभावित और नियंत्रित होते हैं, वहीं दूसरी ओर, वे अनजाने में ही शादी को लेकर ऐसे रवैये और नजरिये के साथ-साथ शादी से निपटने के इन तरीकों, और जीवन के प्रति शादीशुदा लोगों के रवैये को स्वीकार लेते हैं। पहली बात तो यह कि लोगों को शादी के बारे में सकारात्मक समझ नहीं है, न ही उनके पास इसके बारे में कोई सकारात्मक, सटीक ज्ञान और अनुभूति है। इसके अलावा, समाज और दुष्ट मानवजाति दोनों ही, उनके मन में शादी के बारे में नकारात्मक और भ्रामक विचार भर देते हैं। इसलिए, शादी के बारे में लोगों के विचार और दृष्टिकोण विकृत और यहाँ तक कि दुष्टतापूर्ण भी हो जाते हैं। अगर तुम इस समाज में जीते हो और जिंदा हो और तुम्हारे पास देखने के लिए आँखें, सुनने के लिए कान और सवालों पर मंथन करने के लिए विचार हैं, तुम अलग-अलग स्तर तक इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारोगे, जिससे शादी के बारे में तुम्हारी समझ और ज्ञान गलत और पक्षपाती हो जाएगा। उदाहरण के लिए, सौ साल पहले, लोग यह नहीं समझते थे कि रूमानी प्रेम क्या होता है, और शादी के बारे में उनकी समझ बहुत सरल थी। शादी की उम्र होने पर, शादी तय करवाने वाला एक व्यक्ति लड़के-लड़की को एक-दूसरे से मिलवाता था, फिर उनके माता-पिता ही सब संभालते, और लड़के-लड़की की शादी करा देते थे, और वे एक-दूसरे के साथ रहकर अपना जीवन गुजारते थे। इस तरह वे जीवन भर, अपने अंतिम समय तक एक दूसरे का साथ देते थे। शादी इतनी सरल हुआ करती थी। यह बस दो व्यक्तियों का मामला था—अलग-अलग परिवारों के दो लोग एक साथ रहते, एक-दूसरे का साथ देते, एक-दूसरे का ख्याल रखते थे और साथ मिलकर जीवन गुजारते थे। यह इतना आसान था। लेकिन फिर एक वक्त पर लोग रूमानी प्रेम जैसी चीजें बीच में लाने लगे और यह रूमानी प्रेम शादी की विषयवस्तु से जुड़ गया जो आज तक चला आ रहा है। यह शब्द “रूमानी प्रेम” या इसका अर्थ और विचार, अब कुछ ऐसा नहीं है जिसके बारे में लोग, अपने दिल की गहराई में, शर्मिंदगी महसूस करते हैं या जिसके बारे में बात करने में दिक्कत महसूस करते हैं। बल्कि, यह बहुत स्वाभाविक रूप से लोगों के विचारों में मौजूद है, और लोगों के लिए इस पर चर्चा करना स्वाभाविक है, इस हद तक कि जो अभी बालिग भी नहीं हुए हैं, वे भी तथाकथित रूमानी प्रेम पर चर्चा करते हैं। तो ऐसे विचार, दृष्टिकोण और कथन अमूर्त रूप से पुरुषों और महिलाओं, बूढ़े और युवाओं, सभी पर प्रभाव डालते हैं। इस प्रभाव के कारण ही शादी के बारे में हर किसी की समझ इतनी दिखावटी है—अधिक सटीकता से कहें, तो वे पूर्वाग्रह से भरे हैं। सभी ने प्रेम और जुनून से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया है। मनुष्य का तथाकथित “रूमानी प्रेम” सिर्फ प्रेम और जुनून का मेल है।[क] “प्रेम” का क्या अर्थ है? प्रेम एक प्रकार का स्नेह है। “जुनून” का क्या अर्थ है? इसका मतलब वासना है। अब शादी दो लोगों के लिए साथी के रूप में वक्त गुजारने जितनी सरल नहीं है; बल्कि अब यह स्नेह और वासना का खिलौना बन गई है। यही बात है न? (बिल्कुल है।) लोग शादी को वासना और स्नेह का मेल समझने लगे हैं, तो क्या उनकी शादियाँ अच्छी चल सकती हैं? पुरुष और महिला ठोस और उचित ढंग से जीवन व्यतीत नहीं करते, न ही वे अपनी जिम्मेदारियाँ अच्छी तरह से निभाते हैं, और वे व्यावहारिक तरीके से अपना जीवन भी नहीं गुजारते हैं। वे अक्सर प्यार, जुनून, स्नेह और वासना की बातें करते हैं। क्या तुम्हें लगता है कि वे ऐसे सहज रूप से और स्थिरता से जीवन बिता सकते हैं? (बिल्कुल नहीं।) क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो इन प्रलोभनों और लालच से बच सकता है? कोई भी इन प्रलोभनों और लालच से नहीं बच सकता। समाज में लोग एक-दूसरे के प्रति वासना और स्नेह से भरे हुए हैं। वे इसे रूमानी प्रेम कहते हैं, और समकालीन लोग शादी को इसी तरह समझते हैं; यह शादी के बारे में उनका सर्वोच्च मूल्यांकन है, सर्वोच्च आस्वादन है। तो, शादी के बारे में समकालीन लोगों की समझ इतनी बदल गई है कि उसे पहचाना नहीं जा सकता, और यह एक भयानक, भयावह गड़बड़ी है। शादी अब एक पुरुष और महिला के मामले जितना सरल नहीं रह गया है; बल्कि, यह सभी लोगों, पुरुषों और महिलाओं का मामला बन गया है, जो स्नेह और वासना के साथ खेलते हैं—वे पूरी तरह से पथभ्रष्ट हैं। दुष्ट प्रवृत्तियों के प्रलोभन में या दुष्ट विचारों के मन में डाले जाने से, शादी के बारे में लोगों की समझ और परिप्रेक्ष्य विकृत, असामान्य और दुष्ट हो जाते हैं। इसके अलावा, समाज की फिल्मों और टीवी कार्यक्रमों के साथ ही साहित्यिक और कलात्मक रचनाएँ, शादी के बारे में लगातार अधिक दुष्ट और अनैतिक व्याख्याएँ और चित्रण प्रस्तुत करती हैं। निर्देशक, लेखक और अभिनेता, सभी शादी को एक भयानक दशा बताते हैं। यह दुष्टता और वासना से भरी है, जिसकी वजह से अच्छी शादियाँ भी अराजकता में पड़ जाती हैं। तो, जब से रूमानी प्रेम आया है, तब से मानव समाज में तलाक आम हो गए हैं, और इसी तरह विवाहेतर संबंध भी आम हो गए हैं; बहुत-से बच्चों को अपने माता-पिता का तलाक झेलने के लिए मजबूर किया गया है, वे अकेली माँ या अकेले पिता के साथ रहने के लिए मजबूर होते हैं, और उनका बचपन और जवानी इस तरह गुजरती है, या वे अपने माता-पिता की शादी के बिगड़े हालात में बड़े होते हैं। इन सभी अलग-अलग वैवाहिक त्रासदियों, इन गलत या विकृत शादियों का कारण यह है कि समाज शादी के जिस दृष्टिकोण की वकालत करता है वह पूर्वाग्रह से भरा, दुष्टतापूर्ण और अनैतिक है, इस हद तक कि इसमें सदाचार और नैतिकता का अभाव है। क्योंकि मानवजाति के पास सकारात्मक या उचित चीजों की सटीक समझ नहीं है, तो लोग अनजाने में उन विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार लेंगे जिनकी समाज वकालत करता है, चाहे वे कितने भी विकृत क्यों न हों। ये चीजें एक महामारी की तरह हैं, जो तुम्हारे पूरे शरीर में फैल जाती हैं, तुम्हारी हर सोच, विचार और तुम्हारी मानवता के सही हिस्सों को भी नष्ट कर देती हैं। तुम्हारी सामान्य मानवता का जमीर और विवेक जल्द ही धुंधला, अस्पष्ट, या कमजोर हो जाता है; फिर, शैतान से आने वाले ये विचार और दृष्टिकोण, जो विकृत, बुरे और सदाचार और नैतिकता से रहित हैं, तुम्हारे विचारों और दिल की गहराई में और तुम्हारे मानसिक जगत में श्रेष्ठ स्थान रखते हैं और प्रमुख भूमिका निभाते हैं। जब ये चीजें श्रेष्ठ स्थान और प्रमुख भूमिकाएँ अपना लेती हैं, तब शादी जैसे मुद्दों पर तुम्हारा परिप्रेक्ष्य जल्दी ही तुड़ा-मुड़ा और विकृत हो जाता है, और सदाचार और नैतिकता से रहित हो जाता है, इस हद तक कि यह दुष्ट बन जाता है, मगर तुम्हें इसका एहसास तक नहीं होता, और तुम इसे पूरी तरह से सही मानते हो : “जब सभी इस तरह सोचते हैं, तो मैं क्यों नहीं सोचूँ? जब सबका इस तरह से सोचना सही है, तो क्या मेरा भी ऐसा सोचना सही नहीं हुआ? अगर रूमानी प्रेम के बारे में बात करने से कोई नहीं शर्माता, तो मुझे भी नहीं शर्माना चाहिए। पहली बार, मैं थोड़ा संकोची था, थोड़ा शर्मीला था, और मुझे अपनी बात कहने में दिक्कत हुई थी। इसके बारे में कुछ और बार बात करने के बाद मैं ठीक हो गया। इसके बारे में अधिक सुनने और अधिक बात करने से यह बात मेरी अपनी हो गई।” यह सही है कि तुम इस बारे में बात करते हो और सुनते हो, और यह तुम्हारी अपनी बात बन जाती है, लेकिन शादी की सच्ची, वास्तविक समझ तुम्हारे विचारों की गहराइयों में मजबूती से टिक नहीं पाती, यानी तुमने वह अंतरात्मा और विवेक खो दिया है जो एक सामान्य व्यक्ति के रूप में तुम्हारे पास होना चाहिए। इसे खोने का कारण क्या है? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि तुमने शादी के बारे में तथाकथित “रूमानी प्रेम” के दृष्टिकोण को स्वीकार लिया है। शादी के बारे में इस तथाकथित “रूमानी प्रेम” के दृष्टिकोण ने शादी के प्रति तुम्हारी सामान्य मानवता की मूल समझ और जिम्मेदारी की भावना को निगल लिया है। बहुत जल्द, तुम रूमानी प्रेम की अपनी समझ को व्यक्तिगत रूप से अभ्यास में लाना शुरू कर देते हो। तुम लगातार अपने अनुकूल लोगों की खोज में होते हो, जो तुमसे प्यार करते हैं या जिनसे तुम प्यार करते हो, और तुम उचित-अनुचित तरीकों से रूमानी प्रेम के पीछे भागते हो, इस हद तक कष्ट सहते और बेशर्मी दिखाते हो कि रूमानी प्रेम पाने की खातिर तुम अपनी जीवन भर की ऊर्जा खर्च कर देते हो—फिर तुम्हारे पास कुछ नहीं बचता। रूमानी प्रेम खोजते हुए, मान लो कि एक महिला को कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाता है जिसकी वह प्रशंसा करती है, और वह सोचती है : “हम एक-दूसरे से प्यार करते हैं, तो चलो शादी कर लें।” शादी के बाद, वह कुछ समय तक उस व्यक्ति के साथ रहती है, फिर उसे एहसास होता है कि उसमें कुछ खामियाँ हैं, तो वह सोचती है : “वह मुझे पसंद नहीं करता, और न ही मुझे वह इतना पसंद है। हम एक-दूसरे के लिए सही नहीं हैं, इसलिए हमारा रूमानी प्रेम एक गलती थी। ठीक है, हम तलाक ले लेंगे।” तलाक के बाद, वह अपने दो या तीन साल के बच्चे को साथ लिए यह सोचकर किसी दूसरे को ढूँढ़ने की तैयारी करती है : “क्योंकि मेरी पिछली शादी में प्रेम नहीं था, इसलिए मुझे ध्यान रखना होगा कि मेरी अगली शादी में सच्चा रूमानी प्रेम हो। इस बार मुझे निश्चित होना ही पड़ेगा, इसलिए मुझे जाँच-परख करने में कुछ समय लगाना होगा।” कुछ समय बाद, वह किसी और से मिलती है, “अरे, यह तो मेरे सपनों का राजा है, ऐसा व्यक्ति जिसकी मैंने कल्पना की थी कि मैं उसे पसंद करूँगी। वह मुझे पसंद करता है, और मैं उसे पसंद करती हूँ। वह मुझसे अलग नहीं रह सकता और न ही मैं उससे अलग रह सकती हूँ; हम दो चुम्बकों जैसे हैं जो एक दूसरे को आकर्षित करते हैं, हमेशा साथ रहना चाहते हैं। हम प्यार में हैं, तो चलो शादी कर लेते हैं।” तो इस तरह वह दोबारा शादी कर लेती है। शादी के बाद, उसे एक और बच्चा होता है, और दो या तीन साल बाद, वह सोचती है : “इस व्यक्ति में कई खामियाँ हैं; वह आलसी और पेटू दोनों है। उसे शेखी बघारना, डींगें हाँकना, और गप्पें लड़ाना पसंद है। वह अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करता, पैसे कमाकर अपने परिवार को नहीं देता, और वह दिन भर शराब पीता और जुआ खेलता है। मैं ऐसे व्यक्ति से प्यार नहीं करना चाहती। जिस व्यक्ति से मैं प्रेम करती हूँ वह ऐसा नहीं है। तलाक!” दो बच्चों को साथ लेकर वह फिर से तलाक ले लेती है। तलाक लेने के बाद, वह सोचने लगती है : रूमानी प्रेम क्या है? उसके पास जवाब नहीं होता। कुछ लोगों की दो या तीन शादियाँ असफल हो जाती हैं, और आखिर में वे क्या कहते हैं? “मैं रूमानी प्रेम में विश्वास नहीं करता, मैं मानवता में विश्वास करता हूँ।” देखा तुमने, वे इधर-उधर भटकते रहते हैं, और नहीं जानते कि उन्हें किस पर विश्वास करना चाहिए। वे नहीं जानते कि शादी क्या होती है; वे भ्रामक विचारों और परिप्रेक्ष्यों को स्वीकारते हैं, और इन विचारों और परिप्रेक्ष्यों को अपने मानकों के रूप में उपयोग करते हैं। वे व्यक्तिगत रूप से इन विचारों और परिप्रेक्ष्यों को अभ्यास में लाते हैं, और वे अपनी शादी और खुद को नुकसान पहुँचाने के साथ ही दूसरों का भी काफी नुकसान करते हैं; अलग-अलग स्तर पर, वे अगली पीढ़ी और खुद को शारीरिक और आध्यात्मिक, दोनों तरह से नुकसान पहुँचाते हैं। ये सभी चीजें उस कारण का हिस्सा हैं जिससे लोग शादी को लेकर पीड़ित और असहाय महसूस करते हैं, क्योंकि उनके मन में शादी के बारे में अच्छी भावनाएँ नहीं होती हैं। मैंने अभी शादी के बारे में लोगों के विभिन्न परिप्रेक्ष्यों और परिभाषाओं के बारे में संगति की, साथ ही उस स्थिति के बारे में भी बताया जो शादी के संबंध में आधुनिक लोगों के मन में बैठे गलत दृष्टिकोणों की वजह से उत्पन्न हुई है; संक्षेप में, आधुनिक लोगों की शादी की स्थिति अच्छी है या बुरी? (बुरी।) इसमें कोई संभावना नहीं है, इसमें उम्मीद की किरण नहीं है, और यह अब पहले से कहीं अधिक गड़बड़ है। पूरब से पश्चिम तक, दक्षिण से उत्तर तक, मनुष्य की शादी एक भयानक, भयावह स्थिति में है। आज की पीढ़ी के लोग—चालीस या पचास वर्ष से कम आयु के लोग—सभी पिछली और अगली पीढ़ियों की शादियों के दुर्भाग्य के साथ-साथ शादी के संबंध में इन पीढ़ियों के विचारों और शादी को लेकर उनके असफल अनुभवों के गवाह हैं। बेशक, चालीस वर्ष से कम आयु के कई लोग सभी प्रकार की दुर्भाग्यपूर्ण शादियों के शिकार होते हैं; उनमें से कुछ अकेली माताएँ हैं, तो कुछ अकेले पिता हैं; हालाँकि, देखा जाए तो अकेली माताओं की अपेक्षा अकेले पिताओं की संख्या कम है। कुछ लोग अपनी सगी माँ और सौतेले पिता के साथ बड़े होते हैं, कुछ अपने सगे पिता और सौतेली माँ के साथ बड़े होते हैं, और कुछ सौतेले भाई-बहनों के साथ बड़े होते हैं। वहीं कुछ के तलाकशुदा माता-पिता दूसरी शादी कर लेते हैं, और माता-पिता में से कोई भी उन्हें नहीं चाहता, तो वे अनाथ हो जाते हैं, जो समाज में इधर-उधर ठोकरें खाते हुए बड़े होते हैं; फिर वे भी सौतेले पिता या सौतेली माँ, या अकेली माँ या अकेले पिता बन जाते हैं। आधुनिक जमाने की शादी की यही स्थिति है। क्या मानवजाति का इस स्तर तक शादी का प्रबंधन शैतान द्वारा उन्हें भ्रष्ट किए जाने का परिणाम नहीं है? (बिल्कुल है।) मानवजाति के सबसे बुनियादी अस्तित्व और वंश-वृद्धि के इस आवश्यक पहलू को पूरी तरह से विकृत और अस्त-व्यस्त कर दिया गया है। तुम्हें क्या लगता है कि मानवजाति कैसे जीती है? हर एक परिवार के जीवन को देखना कष्टप्रद है, यह इतना बुरा है कि इसे एक नजर देख भी नहीं सकते। अब हम इसके बारे में और बात नहीं करेंगे; इस पर जितनी चर्चा करेंगे, हमें उतनी ही खीझ महसूस होगी, है न?

फुटनोट :

क. मूल पाठ में, “मनुष्य का तथाकथित ‘रूमानी प्रेम’ बस प्रेम और जूनून का मेल है” यह वाक्यांश नहीं है।

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