सत्य का अनुसरण कैसे करें (19) भाग दो

पिछली सभा में हमने अपनी संगति कहाँ छोड़ी थी? (पिछली सभा में परमेश्वर ने “परिवार से मिलने वाले बोझ त्याग देने” के बारे में संगति की थी। इसका एक अंश संतान से रखी जाने वाली अपेक्षाओं को जाने देना है। परमेश्वर ने यह हमें दो चरणों में समझाया : एक बच्चों के कम-उम्र होने पर उनसे माता-पिता के व्यवहार को लेकर था, और दूसरा बच्चों के वयस्क हो जाने पर वे जैसा व्यवहार करते हैं उसे लेकर। उनके बच्चों की उम्र चाहे जो हो, वे वयस्क हों या नहीं, असलियत में, माता-पिता का व्यवहार और कार्यकलाप परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के विरुद्ध होते हैं। वे हमेशा अपने बच्चों की नियति पर नियंत्रण कर उनके जीवन में दखल देना चाहते हैं, लेकिन बच्चे जो पथ चुनते हैं और जिन चीजों का अनुसरण करते हैं, उन्हें माता-पिता नियत नहीं कर सकते। लोगों की नियति ऐसी चीज नहीं है जिसे माता-पिता नियंत्रित कर सकें। परमेश्वर ने मामलों को देखने का सही नजरिया भी बताया : बच्चे के जीवन का कोई भी चरण हो, उनके माता-पिता के लिए अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर देना ही काफी है, और बाकी सब परमेश्वर की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और पूर्वनियति के प्रति समर्पण से जुड़ा है।) पिछली बार, हमने इस तथ्य पर संगति की कि लोगों को संतान से अभिभावकीय अपेक्षाओं को जाने देना चाहिए। बेशक, ये अपेक्षाएँ इंसानी इच्छा और विचार-प्रक्रिया से प्रेरित होती हैं, और वे इस तथ्य के अनुकूल नहीं होतीं कि परमेश्वर मानव नियति की व्यवस्था करता है। ये अपेक्षाएँ इंसानी जिम्मेदारियों का हिस्सा नहीं हैं; ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को जाने देना चाहिए। अपने बच्चों से माता-पिता की अपेक्षाएँ चाहे जितनी भी बड़ी क्यों न हों, और माता-पिता अपने बच्चों से अपनी अपेक्षाओं को चाहे जितना भी सही और उचित मानते हों, अगर ये अपेक्षाएँ इस सत्य के विरुद्ध हों कि मानव नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता है, तो ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को जाने देना चाहिए। कहा जा सकता है कि यह एक नकारात्मक चीज भी है; यह न उचित है न सकारात्मक। यह माता-पिता की जिम्मेदारियों के विरुद्ध और उन जिम्मेदारियों के दायरे से बाहर है, और ये अपेक्षाएँ और माँगें अवास्तविक हैं, जो मनुष्यता के विपरीत हैं। पिछली बार, हमने कुछ असामान्य कर्मों और आचरण और साथ ही कुछ चरम बर्ताव पर भी संगति की थी, जो माता-पिता अपने नाबालिग बच्चों के साथ करते हैं, जिससे उनके बच्चों पर तरह-तरह के नकारात्मक प्रभाव और दबाव पड़ते हैं, और छोटे बच्चों की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक खुशहाली बरबाद हो जाती है। ये चीजें संकेत देती हैं कि उनके माता-पिता की करनी अनुपयुक्त और अनुचित है। ये ऐसे विचार और कर्म हैं जिन्हें सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों को जाने देना चाहिए, क्योंकि मनुष्यता के नजरिये से यह किसी बच्चे की शारीरिक और मानसिक खुशहाली को बरबाद कर देने का एक क्रूर और अमानवीय तरीका है। इसलिए, माता-पिता को अपने नाबालिग बच्चों के प्रति बस अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए, बच्चों के भविष्य और नियति की योजना बना कर उसे नियंत्रित, आयोजित या नियत नहीं करना चाहिए। क्या पिछली बार हमने माता-पिता द्वारा अपने नाबालिग बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने के बारे में दो मुख्य पहलू नहीं उठाए थे? (हाँ, हमने उठाए थे।) अगर ये दो पहलू कार्यान्वित कर दिए जाएँ, तो तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है। अगर ये कार्यान्वित न किए जाएँ, तो भले ही तुम अपने बच्चों को पाल-पोसकर कोई कलाकार या प्रतिभाशाली व्यक्ति बना दो, फिर भी तुम्हारी जिम्मेदारी पूरी नहीं हुई होगी। भले ही माता-पिता अपने बच्चों पर कितनी भी मेहनत क्यों न करें, चाहे इसका अर्थ चिंता से बाल सफेद करना हो, बीमार पड़ने तक थक जाना हो; चाहे वे कितनी भी बड़ी कीमत क्यों न चुकाएँ, कितनी भी लगन से क्यों न करें, कितना भी खर्च क्यों न करें, इनमें से कुछ भी जिम्मेदारियाँ पूरी करना नहीं माना जा सकता। तो मेरी इस बात का क्या अर्थ है कि माता-पिता को अपने छोटे बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए? दो मुख्य पहलू क्या हैं? किसे याद हैं? (पिछली बार, परमेश्वर ने दो जिम्मेदारियों के बारे में संगति की थी। एक है बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य की देखभाल करना, और दूसरा है उन्हें मार्गदर्शन देना, शिक्षित करना और उनके मानसिक स्वास्थ्य बनाए रखने में मदद करना।) यह बहुत सरल है। वास्तविकता में, किसी बच्चे के शारीरिक स्वास्थ्य की देखभाल आसान है; बस उन्हें ढेर सारे चोट-खरोंच न लगने दो, उन्हें गलत चीजें न खाने दो, ऐसा कुछ मत करो जिससे उनकी बढ़त पर नकारात्मक असर पड़े, और जितना संभव हो सके, माता-पिता सुनिश्चित करें कि बच्चे भरपेट खाना खाएँ, अच्छा खाएँ, सेहतमंद तरीके से खाएँ, जितना जरूरी हो उतना आराम करें, बीमारियों से मुक्त रहें या कभी-कभी ही बीमार पड़ें, और उनके बीमार पड़ने पर समय रहते उनका इलाज करवाएँ। क्या ज्यादातर माता-पिता इन कसौटियों पर खरे उतरते हैं? (हाँ।) यह ऐसी चीज है जो लोग हासिल कर सकते हैं; परमेश्वर लोगों को जो कार्य देता है, वे आसान हैं। चूँकि जानवर भी ये मानक हासिल कर सकते हैं, तो अगर लोग इन्हें हासिल न कर पाएँ, तो क्या वे जानवरों से बदतर नहीं हैं? (हाँ, जरूर हैं।) अगर जानवर भी ये चीजें हासिल कर सकते हैं, मगर इंसान नहीं कर सकते, तो वे सचमुच दयनीय हैं। अपने बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति माता-पिता की यही जिम्मेदारी है। अगर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य की बात करें, तो यह भी एक ऐसी जिम्मेदारी है जो माता-पिता को अपने छोटे बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करते समय पूरी करनी चाहिए। जब उनके बच्चे शारीरिक रूप से स्वस्थ हों, तो माता-पिता को उनके मानसिक और वैचारिक स्वास्थ्य को भी बढ़ावा देना चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे समस्याओं के बारे में उन विधियों और दिशाओं में सोचें जो सकारात्मक, सक्रिय और आशावादी हों, ताकि वे बेहतर जीवन जी सकें, और उग्रवादी, विकृतियों की ओर प्रवृत्त या शत्रुतापूर्ण न हों। इनके अलावा और क्या? उन्हें बड़े हो कर सामान्य, स्वस्थ और सुखी बनने में सक्षम होना चाहिए। मिसाल के तौर पर, जब बच्चे अपने माता-पिता की बातें समझने लगें और उनके साथ सरल और सामान्य बातचीत कर सकें, जब वे नई चीजों में रुचि दिखाने लगें, तो माता-पिता उन्हें बाइबल की कहानियाँ बता सकते हैं या उनका मार्गदर्शन करने के लिए निज-आचरण के बारे में सरल कहानियाँ सुना सकते हैं। इस तरह बच्चे समझ सकते हैं कि अपने आचरण का क्या अर्थ है, और अच्छा बच्चा और अच्छा व्यक्ति होने के लिए क्या करना चाहिए। यह बच्चों के लिए मानसिक मार्गदर्शन का एक रूप है। माता-पिता को उन्हें सिर्फ यह नहीं बताना चाहिए कि उन्हें बड़े होने पर ढेरों पैसा कमाना चाहिए या उच्च अधिकारी बनना चाहिए जिससे उन्हें असीम धन-संपत्ति मिले, और वे कष्ट सहने या कड़ी शारीरिक मेहनत करने से बच सकें, उन्हें वह ताकत और प्रतिष्ठा मिले जिससे वे दूसरों पर हुक्म चला सकें। उन्हें अपने बच्चों के मन में ऐसी नकारात्मक चीजें नहीं बिठानी चाहिए, बल्कि उनके साथ सकारात्मक चीजें साझा करनी चाहिए। या उन्हें अपने बच्चों को ऐसी कहानियाँ सुनानी चाहिए जो उम्र के मुताबिक और सकारात्मक शैक्षणिक संदेश वाली हों। मिसाल के तौर पर, उन्हें यह सिखाना कि वे झूठ न बोलें और ऐसे बच्चे न बनें जो झूठ बोलते हों, उन्हें यह समझाना कि झूठ बोलने के नतीजे खुद सहने होते हैं, उन्हें झूठ बोलने को ले कर अपना खुद का रवैया स्पष्ट करना चाहिए, और इस बात पर जोर देना चाहिए कि झूठ बोलने वाले बच्चे बुरे होते हैं, और लोग ऐसे बच्चों को पसंद नहीं करते। कम-से-कम उन्हें अपने बच्चों को यह जानने देना चाहिए कि उन्हें ईमानदार होना चाहिए। इसके अलावा, माता-पिता को अपने बच्चों को अतिवादी या उग्रवादी विचार विकसित करने से रोकना चाहिए। इसे कैसे रोका जा सकता है? माता-पिता को अपने बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि वे दूसरों के प्रति सहिष्णु होना, सब्र रखना, क्षमा करना, कोई घटना होने पर हठी या स्वार्थी न होना और दूसरों के साथ मेलजोल में दयालु और सद्भावनापूर्ण होना सीखें; अगर नुकसान पहुँचाने की कोशिश करने वाले बुरे या खराब लोगों से उनका सामना हो, तो टकराव और हिंसा के साथ उस स्थिति से निपटने के बजाय मामले से दूर जाना सीखना चाहिए। माता-पिता को अपने छोटे बच्चों के मन में हिंसक प्रवृत्ति के बीज या विचार नहीं बोने चाहिए। उन्हें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि हिंसा ऐसी चीज नहीं है जिसे माता-पिता ठीक मानते हैं, और हिंसा की प्रवृत्ति वाले बच्चे अच्छे बच्चे नहीं होते। अगर लोगों में हिंसक प्रवृत्तियाँ होती हैं, तो वे अंत में अपराध करने की ओर मुड़ सकते हैं, और फिर सामाजिक प्रतिरोध और कानून के अनुसार दंड से उनका सामना हो सकता है। हिंसक प्रवृत्तियों वाले लोग अच्छे नहीं हैं, वे ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें अच्छा माना जाता है। दूसरी ओर माता-पिता को अपने बच्चों को आत्मनिर्भर होना सिखाना चाहिए। बच्चों को आशा नहीं करनी चाहिए कि उन्हें खाना और कपड़े बस यूँ ही मिल जाएँगे; वे जब भी काम करने में सक्षम हो जाएँ या काम करना जान जाएँ तो उन्हें लगातार आलस की मानसिकता छोड़कर खुद काम करना सीखना चाहिए। माता-पिता को विविध विधियों से अपने बच्चों का मार्गदर्शन करना चाहिए ताकि वे ये सकारात्मक और सही मामले समझ सकें। बेशक, जब माता-पिता नकारात्मक चीजें होते या उत्पन्न होते देखें, तो उन्हें अपने बच्चों को सीधे सूचित करना चाहिए कि ऐसा व्यवहार अच्छा नहीं है, अच्छे बच्चे ऐसे काम नहीं करते, वे खुद भी ऐसा व्यवहार पसंद नहीं करते, और ऐसा करने वाले बच्चों को भविष्य में कानूनी दंड, जुर्माना और प्रतिकार मिल सकते हैं। संक्षेप में कहें, तो माता-पिता को अपने बच्चों को आचरण और कार्य करने के सरलतम और सबसे बुनियादी सिद्धांत बताने चाहिए। कम-से-कम बालिग होने से पहले ही बच्चों को समझ-बूझ को अमल में लाना, अच्छे-बुरे में फर्क करना सीख लेना चाहिए और जान लेना चाहिए कि अच्छे बनाम बुरे इंसान को कौन-से कार्यकलाप परिभाषित करते हैं, कौन-से कार्यकलाप अच्छे व्यक्ति का आचरण प्रदर्शित करते हैं, और कौन-से कार्यकलाप बुरे माने जाते हैं और बुरे व्यक्ति का आचरण प्रदर्शित करते हैं। ये सबसे बुनियादी चीजें हैं जो उन्हें सिखाई जानी चाहिए। इसके अलावा, बच्चों को समझना चाहिए कि कुछ व्यवहारों से दूसरे लोग घृणा करते हैं, जैसे कि चोरी करना या अनुमति लिए बिना किसी की चीजें ले लेना, उनकी मंजूरी के बिना उनकी चीजें इस्तेमाल करना, गप्पें फैलाना, और लोगों के बीच फूट के बीज बोना। ये और ऐसे कार्यकलाप एक बुरे व्यक्ति के आचरण का संकेत देते हैं, ये नकारात्मक हैं, और परमेश्वर को अच्छे नहीं लगते। जब बच्चे थोड़े बड़े हो जाएँ, तो उन्हें अपने किसी भी काम में हठी न होना, तेजी से दिलचस्पी न खोना या आवेगपूर्ण या लापरवाह न होना सिखाना चाहिए। उन्हें सोचना चाहिए कि वे जो कुछ भी करेंगे उसका नतीजा क्या होगा, और अगर वे जान जाएँ कि शायद ये नतीजे प्रतिकूल या विपत्तिकारक होंगे, तो उन्हें अपना हाथ रोक लेना चाहिए, फायदों और आकांक्षाओं को खुद पर हावी नहीं होने देना चाहिए। माता-पिता को अपने बच्चों को बुरे लोगों की ठेठ बातों और कार्यकलापों के बारे में भी शिक्षित करना चाहिए, बुरे लोगों की बुनियादी समझ देनी चाहिए और बुरे लोगों को मापने के मानक बताने चाहिए। उन्हें सीखना चाहिए कि अजनबियों या उनके वायदों पर बड़ी आसानी से भरोसा न करें, और बिना सावधानी के अजनबियों से चीजें स्वीकार न करें। उन्हें ये सभी बातें सिखानी चाहिए, क्योंकि संसार और समाज बुरा है और फंदों से भरा हुआ है। बच्चों को किसी पर भी आसानी से भरोसा नहीं कर लेना चाहिए; उन्हें सिखाना चाहिए कि वे बुरे और खराब लोगों को समझें-बूझें, बुरे लोगों से सावधान रहें और उनसे दूरी बनाकर रखें, ताकि वे फँसने या धोखा खाने से बच सकें। इन बुनियादी सबकों के बारे में माता-पिता को अपने बच्चों का उनके प्रारंभिक वर्षों में एक सकारात्मक नजरिये से मार्गदर्शन और निर्देशन करना चाहिए। एक ओर, उन्हें यह सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए कि उनके बच्चे उनकी परवरिश के दौरान स्वस्थ और सशक्त विकसित हों, और दूसरी ओर, उन्हें अपने बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास को बढ़ावा देना चाहिए। एक स्वस्थ मन के क्या लक्षण हैं? व्यक्ति का जीवन के प्रति सही नजरिया रखना और सही पथ पर चल पाना इसके लक्षण हैं। ऐसे लोग भले ही परमेश्वर में विश्वास न रखें, फिर भी वे अपने प्रारंभिक वर्षों में बुरी प्रवृत्तियों का अनुसरण करने से बचे रहते हैं। अगर माता-पिता अपने बच्चों में कोई भटकाव देखें, तो उन्हें फौरन उनके बर्ताव को देखना और सुधारना चाहिए, अपने बच्चों को सही रास्ता दिखाना चाहिए। मिसाल के तौर पर, अगर उनके बच्चों का अपने बचपन में बुरी प्रवृत्तियों या कुछ कुतर्कों, कुविचारों और नजरियों के कारण होने वाली चीजों से सामना हो जाए, तो जिन चीजों की उन्हें समझ-बूझ नहीं है, वहाँ वे उनका अनुकरण या नकल कर सकते हैं। माता-पिता को चाहिए कि इन मसलों का जल्द पता लगाएँ और तुरंत सुधार और सही मार्गदर्शन करें। यह भी उनकी जिम्मेदारी है। संक्षेप में कहें, तो लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि उनके बच्चों को अपने विचारों, आचरण, दूसरों से बर्ताव, और विविध लोगों, घटनाओं और चीजों के बोध के लिए बुनियादी, सकारात्मक और सही दिशा मिले, ताकि वे कपटी दिशा के बजाय रचनात्मक दिशा में विकसित हो सकें। मिसाल के तौर पर, गैर-विश्वासी अक्सर कहते हैं, “जीवन और मृत्यु पूर्व-नियत हैं; संपत्ति और सम्मान का फैसला स्वर्ग करता है।” किसी व्यक्ति को जीवन में जितनी मात्रा में कष्ट और आनंद का अनुभव होना चाहिए वह परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है, और यह मात्रा इंसानों द्वारा बदली नहीं जा सकती। एक ओर, माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों को इन वस्तुपरक तथ्यों की जानकारी दें, और दूसरी ओर उन्हें सिखाएँ कि जीवन सिर्फ शारीरिक जरूरतों के बारे में नहीं है, और यह निश्चित रूप से सुख के बारे में नहीं है। लोगों के करने के लिए खाने, पीने और मनोरंजन तलाशने से ज्यादा जरूरी कुछ चीजें हैं; उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखना चाहिए, सत्य का अनुसरण करना चाहिए और परमेश्वर से उद्धार प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। अगर लोग सिर्फ सुख, खाने, पीने और देह की मौज-मस्ती खोजने के लिए जिएँ, तो फिर वे चलती-फिरती लाश की तरह हैं, उनके जीवन का कोई मूल्य नहीं है। वे कोई सकारात्मक या सार्थक मूल्य नहीं रचते, और वे जीने या इंसान होने के लायक भी नहीं हैं। भले ही कोई बच्चा परमेश्वर में विश्वास न रखे, फिर भी उसे कम-से-कम एक अच्छा व्यक्ति बनने दो, कोई ऐसा जो अपना उचित कर्तव्य निभाए। बेशक, अगर वह परमेश्वर द्वारा चुना गया है, और बड़ा हो कर कलीसियाई जीवन में भाग लेना चाहता है, अपना कर्तव्य निभाना चाहता है, तो यह और भी अच्छी बात है। अगर उनके बच्चे इस तरह के हैं, तो माता-पिता को अपने कम-उम्र बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और ज्यादा उन सिद्धांतों के आधार पर पूरी करनी चाहिए जिनके द्वारा परमेश्वर ने लोगों को आगाह किया है। अगर तुम नहीं जानते कि क्या तुम्हारे बच्चे परमेश्वर में विश्वास रखेंगे और वे परमेश्वर द्वारा चुने जाएँगे या नहीं, कम-से-कम तुम्हें अपने बच्चों के प्रारंभिक वर्षों में उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। भले ही तुम ये चीजें न जानो या इन्हें समझने में असमर्थ हो, फिर भी तुम्हें ये जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। तुम्हें जो दायित्व और जिम्मेदारियाँ पूरी करनी हैं, उन्हें तुम्हें जहाँ तक संभव हो वहाँ तक कार्यान्वित करना चाहिए, जो सकारात्मक विचार और चीजें तुम पहले से ही जानते हो उन्हें अपने बच्चों के साथ साझा करना चाहिए। कम-से-कम इतना तो सुनिश्चित करो ही कि उनका आध्यात्मिक विकास एक रचनात्मक दिशा में हो, और उनका मन स्वच्छ और स्वस्थ हो। तुम अपनी अपेक्षाओं, विकास या दमन के तहत उन्हें छोटी उम्र से ही हर प्रकार के कौशल और ज्ञान का अध्ययन करने पर मजबूर मत करो। और भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि कुछ माता-पिता उनके बच्चों के विविध प्रतिभा कार्यक्रमों, शैक्षणिक और एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में भाग लेते समय उनके साथ जाते हैं, तरह-तरह की सामाजिक प्रवृत्तियों के पीछे भागते हैं, संवाददाता सम्मेलनों, अनुबंधों, और अध्ययन सत्रों में जाते हैं, और हर तरह के प्रतियोगिता और स्वीकरण भाषणों, वगैरह में पहुँच जाते हैं। कम-से-कम माता-पिता के तौर पर ये चीजें खुद करके उन्हें अपने बच्चों को अपने पदचिह्नों पर नहीं चलने देना चाहिए। अगर माता-पिता अपने बच्चों को ऐसी गतिविधियों में साथ लाते हैं, तो एक ओर यह स्पष्ट है कि उन्होंने माता-पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं। दूसरी ओर, वे अपने बच्चों को खुले तौर पर एक ऐसे रास्ते पर ले जा रहे हैं जहाँ से वे लौट नहीं सकते, वे उनके रचनात्मक मानसिक विकास में रुकावट पैदा कर रहे हैं। ऐसे माता-पिता अपने बच्चों को किधर ले जा रहे हैं? वे उन्हें बुरी प्रवृत्तियों की ओर ले जा रहे हैं यह ऐसी चीज है जो माता-पिता को नहीं करनी चाहिए। इसके अलावा, अपने बच्चों के भविष्य के पथ और जिस करियर को वे अपनाएँगे, उसे लेकर माता-पिता को उनके मन में ऐसी चीजें नहीं बिठानी चाहिए जैसे, “उसे देखो, वह एक पियानोवादक है, उसने चार-पाँच वर्ष की उम्र में पियानो बजाना शुरू कर दिया। वह खेल-कूद में नहीं लगा, उसके कोई दोस्त या खिलौने नहीं थे, वह हर दिन पियानो का अभ्यास करता था। उसके माता-पिता पियानो कक्षाओं में उसके साथ जाते थे, विविध शिक्षकों से परामर्श करते थे, और उन्हें पियानो प्रतियोगिताओं में डालते थे। देखो अब वह कितना प्रसिद्ध है, अच्छा खाता-पीता है, सजता-सँवरता है, जहाँ भी जाता है प्रभामंडल और सम्मान से घिरा रहता है।” क्या ऐसी शिक्षा से बच्चे के मानस का स्वस्थ विकास होता है? (नहीं, नहीं होता।) तो फिर यह कैसी शिक्षा है? यह दानव की शिक्षा है। इस प्रकार की शिक्षा किसी भी किशोर मन के लिए हानिकारक है। यह उनमें शोहरत की आकांक्षा, तरह-तरह के प्रभामंडल, सम्मान, पद और आनंद-उल्लास की लालसा को बढ़ावा देती है। इसके कारण वे छोटी उम्र से ही इन चीजों की लालसा रखते और उनके पीछे भागते हैं, यह उन्हें व्याकुलता, तीव्र आशंका और चिंता में झोंक देती है, और इसे पाने के लिए हर तरह की कीमत चुकाने का कारण बनती है, अपना होमवर्क करने और विभिन्न कौशल सीखने के लिए सुबह जल्दी उठने और देर रात तक काम करने को मजबूर करती है, जिससे वे बचपन के वर्ष गँवा देते हैं, और इन चीजों के लिए उन बेशकीमती वर्षों का सौदा कर देते हैं। बुरी प्रवृत्तियों द्वारा आगे बढ़ाई गई चीजों की बात करें, तो कम-उम्र बच्चों में उनका प्रतिरोध करने या उन्हें समझने-बूझने की क्षमता नहीं होती। इसलिए अपने कम-उम्र बच्चों के संरक्षक के रूप में संसार के बुरे चलनों और तमाम नकारात्मक चीजों से आने वाले विविध नजरियों को समझने-बूझने और उनका विरोध करने में उनकी मदद करके माता-पिता को यह जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। उन्हें सकारात्मक मार्गदर्शन और शिक्षा देनी चाहिए। बेशक, सब की अपनी आकांक्षाएँ होती हैं, यहाँ तक कि अगर कुछ छोटे बच्चों के माता-पिता कुछ उद्यमों से उन्हें रोकने की कोशिश भी करें, तो भी वे इनकी आकांक्षा रख सकते हैं। वे जो चाहते हैं, उसकी कामना करने दो; माता-पिता को अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। माता-पिता के रूप में, अपने बच्चे के विचारों को नियमित करने और उन्हें एक सकारात्मक और रचनात्मक दिशा में ले जाने का दायित्व और जिम्मेदारी तुम्हारी है। क्या वे तुम्हारी बात सुनेंगे या बड़े हो कर तुम्हारी शिक्षाओं पर अमल करेंगे, यह उनकी निजी पसंद है जिसमें तुम दखल नहीं दे सकते या जिसे तुम नियंत्रित नहीं कर सकते। संक्षेप में कहें, तो बच्चों के प्रारंभिक वर्षों के दौरान, उनके मन में विविध स्वस्थ, उचित और सकारात्मक विचार और नजरिये और साथ ही जीवन लक्ष्य बिठाना माता-पिता की जिम्मेदारी और दायित्व होता है। यह माता-पिता की जिम्मेदारी है।

कुछ माता-पिता कहते हैं, “मैं यह भी नहीं जानता कि अपने बच्चों को कैसे पढ़ाऊँ। बचपन से ही मैं नासमझ रहा हूँ, सही-गलत में फर्क किए बिना जो माता-पिता ने कहा वही करता रहा हूँ। मैं अभी भी नहीं जानता कि बच्चों को कैसे पढ़ाऊँ।” न जानने को ले कर चिंता मत करो; यह अनिवार्य रूप से बुरी चीज नहीं है। उससे भी बदतर तब है जब तुम उसे जान कर भी उस पर अमल नहीं करते, अभी भी अपने बच्चों को उत्कृष्ट बनने की ही शिक्षा देते हो, और कहते हो, “मैं अब अच्छा नहीं रहा, लेकिन चाहता हूँ कि मेरे बच्चे मुझसे आगे बढ़ जाएँ। युवा पीढ़ी अपने बड़े-बूढ़ों की रोशनी में दमकती है, और उसे उनसे आगे बढ़ना चाहिए। मैं फिलहाल एक अनुभाग प्रमुख के तौर पर कार्यरत हूँ; इसलिए मेरे बच्चे को महापौर, राज्यपाल या और भी ऊँचे सरकारी स्तर तक पहुँचना चाहिए, या राष्ट्रपति बनना चाहिए।” ऐसे लोगों से और कुछ कहने की जरूरत नहीं है। हम ऐसे लोगों के साथ मेलजोल नहीं रखते। हम माता-पिता की जिस जिम्मेदारी की बात कर रहे हैं, वह सकारात्मक, सक्रिय और सत्य से संबंधित है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, अगर वे अपने बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करना चाहते हैं, मगर अनिश्चित हैं कि वह जिम्मेदारी कैसे निभाएँ, तो वे शुरुआत से सीखना शुरू करें—यह आसान है। वयस्कों को पढ़ाना आसान नहीं होता, मगर बच्चों को पढ़ाना आसान होता है, है कि नहीं? सीखने और पढ़ाने का काम साथ-साथ करो, वह पढ़ाओ जो तुमने अभी-अभी सीखा है। क्या यह आसान नहीं है? अपने बच्चों को शिक्षा देना आसान है। अपने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित जिम्मेदारी पूरी करना इससे भी बेहतर है। भले ही तुम इसे बढ़िया ढंग से न कर सको, यह उन्हें बिल्कुल भी शिक्षा न देने से बेहतर है। बच्चे छोटे और नादान हैं; अगर तुम उन्हें टेलीविजन और विविध स्रोतों से जानकारी पाने दोगे, उनकी पसंद का उद्यम करने दो, और शिक्षा और विनियमन के बिना जैसा चाहें वैसे उन्हें सोचने और करने दो, तो तुमने माता-पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की है। तुम अपने कर्तव्य में नाकामयाब रहे हो, और तुमने अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा नहीं किया है। अगर माता-पिता को अपने बच्चों के प्रति जिम्मेदारी पूरी करनी है, तो वे निष्क्रिय नहीं हो सकते, बल्कि उन्हें सक्रियता से ऐसे कुछ ज्ञान और सीख का अध्ययन करना चाहिए जो उनके बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का पोषण कर सके, या शुरू से शुरू कर सत्य से संबंधित कुछ बुनियादी सिद्धांत सीखने चाहिए। माता-पिता को ये तमाम चीजें करनी चाहिए : इसे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना कहा जाता है। बेशक, तुम्हारा सीखना बेकार नहीं होगा। सीखने और अपने बच्चों को शिक्षित करने की प्रक्रिया में, तुम भी कुछ हासिल करोगे। इसलिए कि एक रचनात्मक दिशा में अपने बच्चों को अपना मानसिक स्वास्थ्य विकसित करने की शिक्षा देते समय, एक वयस्क के रूप में तुम अनिवार्य रूप से कुछ सकारात्मक विचारों के संपर्क में आओगे और उन्हें सीखोगे। जब तुम अपने आचरण और कार्य के लिए इन सकारात्मक विचारों या सिद्धांतों और मानदंडों पर सूक्ष्मता और गंभीरता से दृष्टि डालोगे, तो तुम अनजाने ही कुछ हासिल करोगे—यह बेकार नहीं जाएगा। अपने ही बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करना कोई ऐसी चीज नहीं है जो तुम दूसरों की खातिर करते हो; तुम्हें इसलिए करना चाहिए क्योंकि उनके साथ तुम्हारा रिश्ता भावनात्मक और रक्त दोनों का है। यह करने के बाद भी अगर तुम्हारे बच्चे कोई ऐसा कार्य या व्यवहार करें जो तुम्हारी अपेक्षाओं पर खरा न उतरे, तो भी कम-से-कम तुमने कुछ तो हासिल किया ही है। तुम जानते हो कि अपने बच्चों को शिक्षा देने और उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का क्या अर्थ होता है। तुम पहले ही अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके हो। जहाँ तक इसकी बात है कि तुम्हारे बच्चे अनुसरण के लिए कौन-सा पथ चुनते हैं, वे किस प्रकार का आचरण करना चुनते हैं, और जीवन में कैसी नियति उनकी प्रतीक्षा में है, तो ये अब तुम्हारी चिंताएँ नहीं हैं। उनके वयस्क हो जाने पर तुम सिर्फ किनारे खड़े होकर उनके जीवन और नियति के पन्ने खुलते हुए देख सकते हो। तब उसमें सहभागी होने का तुम्हारा कोई दायित्व या जिम्मेदारी नहीं रह जाती। अगर तुमने उनके बचपन में समय से मार्गदर्शन और शिक्षा नहीं दी, कुछ मामलों में उनके लिए सीमाएँ नहीं खींचीं, तो उनके वयस्क होकर ऐसी अप्रत्याशित बातें कहने या करने या ऐसे विचार और व्यवहार प्रदर्शित करने पर, जिनकी तुम्हें उम्मीद नहीं थी, तो तुम्हें पछतावा हो सकता है। मिसाल के तौर पर, जब वे छोटे थे, तो तुमने यह कहकर उन्हें निरंतर शिक्षित किया, “मेहनत से पढ़ो, कॉलेज जाओ, स्नातकोत्तर पढ़ाई की कोशिश करो, या पीएचडी करो, अच्छी नौकरी ढूँढ़ो, शादी के लिए अच्छा रिश्ता ढूँढ़ो और घर बसाओ, और फिर जीवन अच्छा रहेगा।” तुम्हारे शिक्षण, प्रोत्साहन और तरह-तरह के दबाव के जरिये तुमने जो रास्ता बनाया उन्होंने उसे जिया और उस पर चलते रहे, उन्होंने तुम्हारी अपेक्षा के अनुसार चीजें हासिल कीं, ठीक वैसे ही जैसा तुम चाहते थे, और अब वे वापस जाने में असमर्थ हैं। अगर अपनी आस्था के कारण कुछ खास सत्यों और परमेश्वर के इरादों को समझ लेने के बाद, और सही विचार और नजरिये प्राप्त कर लेने के बाद, अब तुम उन्हें उन चीजों का अनुसरण न करने की बात बताने की कोशिश करोगे, तो वे जवाब में कह सकते हैं, “क्या मैं ठीक वही नहीं कर रहा हूँ जो आपने चाहा था? क्या आपने मुझे बचपन में ये बातें नहीं सिखाई थीं? क्या आपने मुझसे यह माँग नहीं की थी? अब आप मुझे क्यों रोक रहे हैं? मैं जो कर रहा हूँ क्या वह गलत है? मैंने ये चीजें हासिल की हैं और मैं अब उनके मजे ले रहा हूँ; आपको खुश और संतुष्ट होना चाहिए, मुझ पर गर्व होना चाहिए, होना चाहिए न?” यह सुनकर तुम्हें कैसा लगेगा? तुम्हें खुश होना चाहिए या रोना चाहिए? क्या तुम्हें पछतावा नहीं होगा? (बिल्कुल।) अब तुम उन्हें वापस नहीं जीत सकते। अगर तुमने उन्हें उनके बचपन में ऐसी शिक्षा नहीं दी होती, अगर तुमने बिना किसी दबाव के उन्हें खुशहाल बचपन दिया होता, बाकी लोगों से बढ़कर रहना, ऊँचे पद पर आसीन होना, ढेरों पैसा बनाना, या शोहरत, लाभ और हैसियत के पीछे भागना नहीं सिखाया होता, अगर तुमने उन्हें बस अच्छा, साधारण इंसान रहने दिया होता, यह माँग किए बिना कि वे ढेरों पैसा कमाएँ, मजे लूटें, या तुम्हें इतना सारा लौटाएँ, महज इतना चाहा होता कि वे स्वस्थ और खुश रहें, सरल और प्रसन्न मन इंसान बनें, तो शायद परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद तुम्हारे मन में जो विचार और नजरिये हैं, उनमें से कुछ को स्वीकार करने को वे तैयार हो जाते। तब शायद उनका जीवन खुशहाल होता, जीवन और समाज का उन पर कम दबाव होता। हालाँकि उन्होंने शोहरत और लाभ हासिल नहीं किए, कम-से-कम उनके दिल खुश, सुकून-भरे और शांत होते। लेकिन उनके विकासशील वर्षों में तुम्हारे निरंतर उकसाने और आग्रह के कारण, तुम्हारे दबाव से, उन्होंने ज्ञान, धन, शोहरत और लाभ का अनवरत अनुसरण किया। अंत में, उन्होंने शोहरत, लाभ और हैसियत हासिल की, उनका जीवन सुधर गया, उन्होंने ज्यादा मजे किए, और ज्यादा पैसा कमाया, लेकिन उनका जीवन थकाऊ है। जब भी तुम उन्हें देखते हो, उनके चेहरे पर थकान दिखाई देती है। तुम्हारे पास वापस घर लौटने पर ही वे अपना मुखौटा उतारने और यह मानने की हिम्मत करते हैं कि वे थके हुए हैं और आराम करना चाहते हैं। लेकिन बाहर कदम रखते ही वे वैसे नहीं रहते—वे फिर से मुखौटा लगा लेते हैं। तुम उनकी थकी हुई और दयनीय अभिव्यक्ति देख कर उनके लिए बुरा महसूस करते हो, लेकिन तुम्हारे पास वह सामर्थ्य नहीं है कि उन्हें पीछे लौटा सको। वे अब लौट नहीं सकते। ऐसा कैसे हुआ? क्या इसका तुम्हारी परवरिश से संबंध नहीं है? (हाँ है।) इनमें से कोई भी चीज उन्हें सहज ही मालूम नहीं थी या उन्होंने बचपन से उसके लिए प्रयास नहीं किया था; इसका तुम्हारी परवरिश से पक्का रिश्ता है। उनका चेहरा देखकर, उनके जीवन को इस हाल में देखकर क्या तुम परेशान नहीं होते? (हाँ।) लेकिन तुम सामर्थ्यहीन हो; बस पछतावा और दुख बाकी रह गया है। तुम्हें लग सकता है कि शैतान तुम्हारे बच्चे को पूरी तरह से दूर ले गया है, वह वापस नहीं लौट सकता, और तुममें उसे बचाने की सामर्थ्य नहीं है। यह इसलिए हुआ क्योंकि तुमने माता-पिता के तौर पर अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की। तुम्हीं ने उसे नुकसान पहुँचाया, उसे अपनी त्रुटिपूर्ण विचारधारा की शिक्षा और मार्गदर्शन से भटका दिया। वह कभी वापस लौटकर नहीं आ सकता, और अंत में तुम्हें सिर्फ पछतावा ही होता है। तुम बेसहारा देखते रहते हो जबकि तुम्हारा बच्चा कष्ट सहता रहता है, इस बुरे समाज से भ्रष्ट होकर, जीवन के दबावों के बोझ से दबा रहता है, और तुम्हारे पास उसे बचाने का कोई उपाय नहीं होता। तुम बस इतना कह पाते हो, “अक्सर घर आया करो, तुम्हारे लिए कुछ स्वादिष्ट बनाएँगे।” भोजन कौन-सी समस्या सुलझा सकता है? यह कुछ भी नहीं सुलझा सकता। उसके विचार पहले ही परिपक्व हो कर आकार ले चुके हैं, और वह हासिल की हुई शोहरत और हैसियत को जाने देने को तैयार नहीं है। वह बस आगे बढ़ सकता है, और कभी वापस मुड़ नहीं सकता। माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को उनके प्रारंभिक वर्षों में गलत मार्गदर्शन देने और उनमें गलत विचार बिठाने के ये प्रतिकूल नतीजे होते हैं। इसलिए इन वर्षों में, माता-पिता को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, अपने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का मार्गदर्शन करना चाहिए, और उनके विचारों और कार्यों को रचनात्मक दिशा में आगे बढ़ाना चाहिए। यह एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है। तुम कह सकते हो, “मैं बच्चों को शिक्षित करने के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता,” मगर क्या तुम अपनी जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर सकते? अगर तुम सच में इस संसार और समाज को समझते हो, अगर तुम सचमुच समझते हो कि शोहरत और लाभ क्या हैं, अगर तुम सांसारिक शोहरत और लाभ का सचमुच परित्याग कर सकते हो, तो तुम्हें अपने बच्चों की रक्षा करनी चाहिए, और उन्हें उनके प्रारंभिक वर्षों में, समाज से इन गलत विचारों को तेजी से स्वीकार नहीं करने देना चाहिए। मिसाल के तौर पर, माध्यमिक शाला में प्रवेश करने पर, कुछ बच्चों का ध्यान ऐसी चीजों पर चला जाता है कि किसी खास बड़े उद्योगपति के पास कितने अरब डॉलर की संपत्ति है, उस इलाके के सबसे धनी व्यक्ति के पास कौन-सी आलीशान गाड़ियाँ हैं, एक दूसरा व्यक्ति किस पद पर है, उसके पास कितना धन है, उसके घर पर कितनी गाड़ियाँ खड़ी हैं, और वे कैसी चीजों का मजा लेते हैं। वे सोच में पड़ जाते हैं : “मैं अभी माध्यमिक शाला में हूँ। मुझे कॉलेज के बाद अच्छी नौकरी नहीं मिली तो क्या होगा? नौकरी के बिना अगर मैं एक आलीशान घर और आलीशान गाड़ी नहीं ले सका, तो क्या करूँगा? बिना धन-दौलत के मैं असाधारण कैसे बनूँगा?” वे चिंता करने लगते हैं और समाज के उन लोगों से ईर्ष्या करने लगते हैं जिनके पास प्रतिष्ठा है और जिनका जीवन विलासितापूर्ण और भव्य है। जब बच्चे इन चीजों के बारे में जागरूक हो जाते हैं, तो वे समाज से विविध जानकारी, आयोजनों और घटनाओं की सूचनाएँ लेने लगते हैं, और अपने किशोर मन में वे दबाव और व्याकुलता महसूस करने लगते हैं, और अपने भविष्य की चिंता करने और उसकी योजना बनाने में जुट जाते हैं। ऐसी स्थिति में क्या माता-पिता को अपनी जिम्मेदारी पूरी कर उन्हें आराम और मार्गदर्शन नहीं देना चाहिए, उन्हें यह समझने में मदद नहीं करनी चाहिए कि इन मामलों को उचित ढंग से कैसे देखें और सँभालें? उन्हें सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके बच्चे कम उम्र में इन चीजों के फेर में न पड़ें, ताकि वे उनके बारे में सही नजरिया बना सकें। मुझे बताओ, माता-पिता को अपने बच्चों से इन मामलों पर कैसे बात करनी चाहिए? आजकल, क्या बहुत छोटी उम्र में ही बच्चों पर समाज के विविध पहलुओं का असर नहीं पड़ रहा है? (हाँ।) क्या आजकल बच्चे गायकों, फिल्मी सितारों, नामी खिलाड़ियों और साथ ही इंटरनेट सेलेब्रिटियों, उद्योगपतियों, दौलतमंद लोगों और अरबपतियों के बारे में बहुत-कुछ नहीं जानते—वे कितना पैसा कमाते हैं, क्या पहनते हैं, कैसे मजे लेते हैं, कितनी आलीशान गाड़ियाँ उनके पास हैं, वगैरह-वगैरह? (बिल्कुल।) इसलिए इस पेचीदा समाज में माता-पिता को अपनी अभिभावकीय जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, अपने बच्चों को बचाना चाहिए, और उन्हें एक स्वस्थ दिमाग देना चाहिए। जब बच्चे इन चीजों से अवगत हो जाएँ, या वे कोई हानिकारक जानकारी सुनें या पाएँ, तो माता-पिता को उन्हें सही विचारों और नजरियों का विकास करना सिखाना चाहिए ताकि वे समय रहते इन चीजों से पीछे हट सकें। कम-से-कम माता-पिता को उन्हें एक सरल धर्म-सिद्धांत सिखाना चाहिए : “तुम अभी छोटे हो, और तुम्हारी उम्र में, तुम्हारी जिम्मेदारी अच्छी तरह पढ़ाई करने और वह सीखने की है, जो तुम्हें सीखने की जरूरत है। तुम्हें दूसरी चीजों के बारे में सोचने की जरूरत नहीं है; तुम कितना कमाओगे या तुम क्या खरीदोगे, इनकी अभी तुम्हें परवाह करने की जरूरत नहीं है—ये तुम्हारे बड़े होने के बाद की बातें हैं। अभी के लिए तुम अपना स्कूल का काम करने, अपने शिक्षक द्वारा दिए गए काम को पूरा करने, और अपने जीवन की चीजों का प्रबंध करने पर ध्यान दो। तुम्हें किसी और चीज के बारे में बहुत ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है। समाज में प्रवेश करने और उनके साथ संपर्क में आने के बाद अगर इन पर विचार करोगे तो भी देर नहीं हुई होगी। फिलहाल समाज में होने वाली चीजें वयस्कों की बातें हैं। तुम अभी वयस्क नहीं हो, इसलिए ये वे चीजें नहीं है जिनके बारे में तुम्हें सोचना चाहिए या जिनमें तुम्हें भाग लेना चाहिए। अभी तुम अपना स्कूल का कार्य अच्छे ढंग से करने पर ध्यान दो, और हमारी बात सुनो। हम वयस्क हैं, तुमसे ज्यादा जानते हैं, इसलिए तुम्हें हम जो भी बताएँ उसे सुनना चाहिए। अगर तुम समाज में इन चीजों के बारे में जानोगे और उनका अनुसरण कर उनकी नकल करोगे, तो यह तुम्हारी पढ़ाई और स्कूल के कार्य के लिए लाभकारी नहीं होगा—इससे तुम्हारे सीखने पर असर पड़ेगा। बाद में तुम कैसे व्यक्ति बनोगे या कैसा करियर पकड़ोगे : ये चीजें बाद में सोचने की हैं। फिलहाल तुम्हारा काम अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना है। अगर तुम अपनी पढ़ाई में उत्कृष्ट नहीं होगे, तो तुम अपनी शिक्षा में सफल नहीं हो पाओगे, और तुम एक अच्छा बच्चा नहीं बनोगे। दूसरी चीजों के बारे में मत सोचो; ये तुम्हारे काम की नहीं हैं। जब तुम बड़े हो जाओगे, तब तुम ये चीजें समझ जाओगे।” क्या यह सबसे बुनियादी धर्म-सिद्धांत नहीं है जो लोगों को समझना चाहिए? (हाँ।) बच्चों को यह जानने दो : “फिलहाल तुम्हारा काम पढ़ाई करना है, खाना, पीना और मजे करना नहीं। अगर तुम पढ़ाई नहीं करोगे, तो तुम अपना वक्त बरबाद करोगे, और अपनी शिक्षा की अनदेखी करोगे। समाज में खाने, पीने, मनोरंजन और दूसरे छिटपुट मामलों से जुड़ी सभी चीजें बड़ों के लिए हैं। जो अभी वयस्क नहीं हैं उन्हें उन गतिविधियों में शामिल नहीं होना चाहिए।” क्या ये बातें हजम करना बच्चों के लिए आसान है? (हाँ।) तुम उन्हें इन मामलों के बारे में जानने या उनके बारे में ईर्ष्यालु होने के अधिकार से वंचित नहीं कर रहे हो। साथ ही, तुम यह संकेत दे रहे हो कि उन्हें क्या करना चाहिए। क्या बच्चों को इस तरह शिक्षित करना अच्छा है? (हाँ।) क्या यह कार्य का आसान तरीका है? (हाँ।) माता-पिता को ऐसा करना सीखना चाहिए और जितना हो सके उन्हें अध्ययन करना चाहिए कि अपने कम-उम्र बच्चों को कैसे शिक्षित करें और देखें कि वे अपनी क्षमता, स्थितियों और काबिलियत के आधार पर उनकी देखभाल कैसे कर सकते हैं; उन्हें उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, और यह सब अपनी पूरी काबिलियत से करना चाहिए। इसके लिए कोई सख्त या दृढ़ मानक नहीं हैं; ये हर व्यक्ति के लिए अलग होते हैं। प्रत्येक परिवार के हालात अलग होते हैं, और सबकी काबिलियत अलग होती है। इसलिए, अपने बच्चों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी के विषय में, प्रत्येक व्यक्ति के तरीके अलग होते हैं। तुम्हें वही करना चाहिए जो असरदार ढंग से काम करे, जिससे वांछित परिणाम मिलें। तुम्हें अपने बच्चों के व्यक्तित्वों, उम्र और लिंग के अनुसार खुद को ढालना चाहिए : कुछ को थोड़ी ज्यादा सख्ती की जरूरत हो सकती है, जबकि दूसरों को थोड़ी नरमी की। कुछ को ज्यादा जोर लगाने पर लाभ होता है, जबकि दूसरे सुकून भरे माहौल में पनप सकते हैं। माता-पिता को अपने बच्चों के निजी हालात के आधार पर अपने तरीके ढालने पड़ते हैं। जो भी हो, अंतिम लक्ष्य उनका मानसिक स्वास्थ्य सुनिश्चित करना है, उन्हें अपने विचारों और कामों के लिए अपने मानदंडों दोनों में रचनात्मक दिशा में राह दिखाना है। ऐसा कुछ भी मत थोपो जो मनुष्यता के विरुद्ध हो, जो प्राकृतिक विकास के विधानों के विरुद्ध हो, या उससे अधिक हो जो वे अपनी इस उम्र के दायरे में या अपनी काबिलियत की सीमा में हासिल कर सकते हों। जब माता-पिता ये सब कर सकें तो वे अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके होंगे। क्या यह हासिल करना मुश्किल है? यह कोई पेचीदा मामला नहीं है।

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