सत्य का अनुसरण कैसे करें (12) भाग चार
तुम्हारे परिवार ने तुम्हें और कैसी शिक्षा दी है? उदाहरण के लिए, तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें अक्सर बताते हैं : “अगर तुमने ज्यादा मुँह चलाया और बोलने में उतावलापन दिखाया, तो देर-सबेर तुम मुसीबत में फँस जाओगे! तुम्हें याद रखना चाहिए कि ‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है’! इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अगर तुम बहुत ज्यादा बोलोगे, तो निश्चित तौर पर तुम्हारे मुँह से कुछ गलत निकल ही जाएगा। चाहे कोई भी मौका हो, बिना सोचे-समझे कुछ मत बोलो—कुछ भी कहने से पहले दूसरों की बातें सुनो। अगर तुम बहुमत के साथ चलोगे, तो सब ठीक रहेगा। लेकिन अगर तुम हमेशा दूसरों से अलग दिखने की कोशिश करोगे, लगातार बिना सोचे-समझे कुछ भी बोलोगे और अपने चीफ, बॉस या दूसरों की राय जाने बिना अपनी राय सामने रखोगे, और बाद में पता चला कि तुम्हारे चीफ या बॉस की राय तुमसे अलग है, तो वे तुम्हारा जीना मुश्किल कर देंगे। क्या इससे किसी का भला हो सकता है? नादान बच्चे, आगे से तुम्हें सावधानी बरतनी होगी। जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है। बस इसे याद रखो, और बिना सोचे-समझे कुछ मत बोलो! मुँह खाना खाने, साँस लेने, अपने वरिष्ठों से मीठी बातें करने और दूसरों की खुशामद करने के लिए है, सच बोलने के लिए नहीं। तुम्हें बुद्धिमानी से अपने शब्दों को चुनना चाहिए, चालें चलनी और तरकीबें लड़ानी चाहिए और अपने दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए। कुछ भी कहने से पहले, मन में उन बातों पर मंथन करो, उन्हें बार-बार दोहराओ, और अपनी बात कहने के लिए सही समय का इंतजार करो। तुम्हारी बात परिस्थिति पर भी निर्भर होनी चाहिए। अगर तुम अपनी राय बताना शुरू करते हो, मगर फिर देखते हो कि लोग इसमें दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं या अच्छी प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं, तो वहीं रुक जाओ और सोचो कि अपनी राय इस तरह कैसे बताई जाए जिससे सभी खुश रहें और किसी को ठेस न पहुँचे। एक बुद्धिमान बच्चा यही करेगा। ऐसा करने से, तुम मुसीबत में नहीं फँसोगे और सभी तुम्हें पसंद करेंगे। और जब सभी तुम्हें पसंद करेंगे, तो क्या यह तुम्हारे लिए फायदेमंद नहीं होगा? क्या इससे भविष्य में तुम्हारे लिए ज्यादा अवसर नहीं पैदा होंगे?” तुम्हारा परिवार यह बताकर तुम्हें न केवल अच्छी प्रतिष्ठा पाने, शीर्ष पर पहुँचने और दूसरों के बीच अपनी जगह बनाने के तरीके की शिक्षा देता है, बल्कि तुम्हें यह भी सिखाता है कि बाहरी दिखावों के जरिये दूसरों को कैसे धोखा दें और कैसे सच नहीं बोलें, और कैसे अपने मन की कोई भी बात दूसरों के सामने न कहें। कुछ लोग जो सच बोलने के बाद मुसीबत में पड़ गए हैं, वे अपने परिवार की बताई इस कहावत को याद करते हैं, “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,” और इससे सबक लेते हैं। इसके बाद वे इस कहावत को अमल में लाने और इसे अपना आदर्श वाक्य बनाने के लिए ज्यादा इच्छुक हो जाते हैं। दूसरे लोग मुसीबत में नहीं पड़े, लेकिन इस संबंध में अपने परिवार की शिक्षा को ईमानदारी से स्वीकारते हैं, और हर मौके पर इस कहावत को लगातार अमल में लाते हैं। वे इसे जितना अधिक अमल में लाते हैं, उतना ही उन्हें महसूस होता है कि “मेरे माँ-बाप और दादा-दादी को मेरी कितनी परवाह है, वे सभी मेरे प्रति ईमानदार हैं और सिर्फ मेरा भला चाहते हैं। मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ कि उन्होंने मुझे यह कहावत बताई, ‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,’ वरना मैं अपने बड़बोलेपन के कारण बार-बार मुसीबत में पड़ जाता और कई लोग मेरा जीना हराम कर देते या मुझे अपमान भरी नजरों से देखते या मेरा उपहास करते और मजाक उड़ाते। यह कहावत कितनी उपयोगी और लाभकारी है!” इस कहावत को अमल में लाने से उन्हें बहुत सारे ठोस फायदे मिलते हैं। बेशक, जब वे परमेश्वर के समक्ष आते हैं, तब भी यही सोचते हैं कि यह कहावत सबसे उपयोगी और लाभकारी चीज है। जब भी कोई भाई या बहन अपनी व्यक्तिगत दशा, भ्रष्टता या अनुभवजन्य ज्ञान के बारे में खुलकर संगति करते हैं, तो वे भी संगति करना चाहते हैं और एक स्पष्टवादी और सच्चा इंसान बनना चाहते हैं, और वे भी ईमानदारी से अपने मन या दिल की बात कहना चाहते हैं, ताकि कुछ समय के लिए उनके मन को राहत मिले, जो इतने सालों से दबा हुआ है या वे कुछ हद तक आजादी और मुक्ति पाना चाहते हैं। मगर जैसे ही अपने माँ-बाप की बार-बार सिखाई बातें उनके कानों में गूँजती हैं कि “‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,’ बिना सोचे-समझे कुछ मत कहो, बोलने वाला बनने के बजाय सुनने वाले बनो, और दूसरों की बातें सुनना सीखो,” तो वे अपनी बात मन में ही दबा लेते हैं। जब बाकी सभी लोग अपनी बात कह देते हैं, तो वे कुछ नहीं कहते और मन-ही-मन सोचते हैं : “बढ़िया है, इस बार मैंने कुछ न कहकर अच्छा ही किया, क्योंकि अगर मैं अपनी बात कह देता, तो लोग मेरे बारे में कोई न कोई राय बना लेते, और मैं शायद कुछ खो बैठता। कुछ न कहना ही सबसे अच्छा है, शायद इस तरह सबको यही लगेगा कि मैं ईमानदार हूँ और इतना कपटी नहीं हूँ, बल्कि स्वाभाविक रूप से खामोश रहने वाला व्यक्ति हूँ, और इसलिए कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ जो साजिश रचता हो या जो बहुत भ्रष्ट हो, और विशेष रूप से ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ जो परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखता है, बल्कि मैं एक सरल और सच्चा व्यक्ति हूँ। लोगों का मेरे बारे में ऐसा सोचना बुरा तो नहीं है, फिर मैं कुछ क्यों कहूँ? ‘जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,’ इस कहावत का पालन करके मुझे वाकई कुछ परिणाम दिख रहे हैं, तो मैं इसी तरह व्यवहार करता रहूँगा।” इस कहावत का पालन करने से उसे एक अच्छा, कुछ हासिल होने वाला एहसास होता है, और इसलिए वह एक बार, दो बार चुप रहता है, और ऐसा तब तक चलता है, जब एक दिन उसके अंदर इतनी सारी बातें इकट्ठी हो जाती हैं कि वह अपने भाई-बहनों को सब खुलकर बताना चाहता है, मगर ऐसा लगता है मानो उसके मुँह और होंठ सिल गए हों, और वह कुछ नहीं कह पाता है। क्योंकि वह अपने भाई-बहनों से कुछ नहीं कह पाता है, तो परमेश्वर से बात करने की कोशिश करता है, उसके सामने घुटने टेककर कहता है, “परमेश्वर, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ। मैं...।” भले ही वह अपने मन में कई बार इस पर विचार कर चुका है, मगर वह नहीं जानता कि अपनी बात कैसे कहे, वह इसे व्यक्त नहीं कर पाता है, ऐसा लगता है जैसे वह एकदम गूँगा हो गया है। वह सही शब्द चुनना या यहाँ तक कि ठीक से वाक्य बनाना भी नहीं जानता है। इतने वर्षों से इकट्ठी हुई भावनाएँ उस पर काफी दबाव बनाती हैं, ऐसा महसूस कराती हैं मानो वह एक अँधकारमय और घिनौना जीवन जी रहा हो, और जब वह परमेश्वर को अपने दिल की बात बताने और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का मन बनाता है, तो उसके पास कहने को शब्द ही नहीं होते और वह नहीं जानता कि शुरुआत कहाँ से करें या अपनी बात कैसे कहें। क्या वह दुखी नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) तो फिर, उसके पास परमेश्वर से कहने के लिए कुछ क्यों नहीं है? वह सिर्फ अपना परिचय देता है। वह परमेश्वर को अपने दिल की बात बताना चाहता है, पर उसके पास शब्द नहीं है, और अंत में वह बस इतना कह पाता है : “परमेश्वर मुझे कुछ शब्द दो, ताकि मुझे जो कहना चाहिए वह कह सकूँ!” तब परमेश्वर जवाब देता है : “तुम्हें कहना तो बहुत कुछ चाहिए, पर तुम कहना ही नहीं चाहते, और मौका मिलने पर भी तुम कुछ कहते नहीं हो, इसलिए मैंने तुम्हें जो कुछ भी दिया है, सब वापस लेता हूँ। तुम्हें यह नहीं मिलेगा, तुम इसके लायक नहीं हो।” तब जाकर उसे एहसास होता है कि बीते सालों में उसने कितना कुछ खोया है। भले ही उसे लगता है कि उसने बहुत गरिमामय जीवन जिया है, खुद को अच्छी तरह से ढककर रखा है और सही तरीके से दिखाने की कोशिश की है, मगर जब वह देखता है कि उसके भाई-बहन हर वक्त लाभ उठाते आए हैं, और वे बिना हिचकिचाहट अपने अनुभवों के बारे में बात कर सकते हैं और अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बता सकते हैं, तो उसे एहसास होता है कि वह खुद तो एक वाक्य भी नहीं कह सकता है, और उसे कहने का तरीका भी नहीं पता है। ऐसे लोगों ने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है, तो वे स्वयं के बारे में जो जानते हैं वो बताना चाहते हैं, परमेश्वर के वचनों के अपने अनुभव पर चर्चा करना चाहते हैं, परमेश्वर से कुछ प्रबोधन और थोड़ी रोशनी प्राप्त करना चाहते हैं, और कुछ हासिल करना चाहते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से, क्योंकि वे सभी अक्सर इस राय पर अड़े रहते हैं कि “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है,” और अक्सर इस विचार से बंधे और नियंत्रित होते हैं, इसलिए वे इतने सालों से इसी कहावत के अनुसार जीते आए हैं, उन्हें परमेश्वर से कोई प्रबोधन या रोशनी नहीं मिली है, और जीवन प्रवेश के संबंध में वे आज भी गरीब, दयनीय और खाली हाथ हैं। उन्होंने इस कहावत और विचार पर पूरी तरह से अमल किया है और इनका अच्छी तरह से पालन किया है, मगर इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी, उन्हें थोड़ा भी सत्य हासिल नहीं हुआ है, और वे आज भी गरीब और अंधे बने हुए हैं। परमेश्वर ने उन्हें मुँह तो दिए, पर उनमें सत्य पर संगति करने की कोई क्षमता नहीं है, न ही अपनी भावनाओं और ज्ञान के बारे में बात करने की क्षमता है, फिर भाई-बहनों से बात करने की क्षमता होना तो दूर की बात है। इससे भी ज्यादा दयनीय यह है कि उनके पास परमेश्वर से बात करने की क्षमता भी नहीं है, और उन्होंने ऐसी क्षमता खो दी है। क्या वे दयनीय नहीं हैं? (हाँ, बिल्कुल हैं।) दयनीय और निराशाजनक। क्या तुम्हें बात करना नापसंद नहीं है? क्या तुम्हें हमेशा इस बात का डर नहीं लगता कि जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है? तो फिर तुम्हें हमेशा चुप ही रहना चाहिए। तुम अपने अंतरतम के विचारों को ढककर रखते हो और जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है उसे दबाए रखते हो, उसे मुहरबंद कर देते हो और सामने आने से रोकते हो। तुम लगातार अपनी इज्जत खोने, खतरा महसूस होने, अपनी असलियत दूसरों के सामने उजागर करने से डरते हो, और इस बात से भी डरते हो कि अब तुम दूसरों की नजरों में एक आदर्श, ईमानदार और अच्छे इंसान नहीं रहोगे, तो तुम खुद को ढक लेते हो और अपने असली विचारों के बारे में कुछ नहीं कहते हो। फिर अंत में क्या होता है? तुम हर तरह से गूँगे बन जाते हो। तुम्हें इतना नुकसान किसने पहुँचाया? इसकी जड़ में, तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा है जिसने तुम्हें इतना नुकसान पहुँचाया है। मगर तुम्हारे व्यक्तिगत परिप्रेक्ष्य से, ऐसा इसलिए भी है क्योंकि तुम्हें शैतानी फलसफों के अनुसार जीना पसंद है, इसीलिए तुमने यह माना कि तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा सही है, और यह नहीं माना कि परमेश्वर तुमसे जो अपेक्षाएँ करता है वे सकारात्मक हैं। तुम्हारे परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों को तुम सकारात्मक चीज मानते हो, जबकि परमेश्वर के वचनों, उसकी अपेक्षाओं और उसके प्रावधान, सहायता और शिक्षण को ऐसी नकारात्मक चीजें मानते हो जिनसे बचकर रहना चाहिए। इसलिए, शुरुआत में परमेश्वर ने तुम्हें चाहे कितना भी दिया हो, इतने सालों तक सतर्कता बरतने और इनकार करने के कारण, अंत में परमेश्वर तुमसे सब कुछ वापस ले लेता है और तुम्हें कुछ नहीं देता, क्योंकि तुम इन्हें पाने के लायक ही नहीं हो। इससे पहले कि यह सब हो, तुम्हें इस संबंध में अपने परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावों को त्याग देना चाहिए, और इस गलत विचार को स्वीकार नहीं करना चाहिए कि “जो ज्यादा बोलता है वह अधिक गलतियाँ करता है।” यह कहावत तुम्हें अधिक संकीर्ण, अधिक धूर्त और पाखंडी बनाती है। यह लोगों के ईमानदार होने की परमेश्वर की अपेक्षा और उनके स्पष्टवादी और सच्चे होने की उसकी उम्मीद के बिल्कुल विपरीत और विरोधी है। परमेश्वर का विश्वासी और अनुयायी होने के नाते, तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के लिए पूरी तरह से दृढ़ होना चाहिए। और जब तुम सत्य का अनुसरण करने के लिए पूरी तरह दृढ़ होगे, तब तुम्हें अपने परिवार से मिली शिक्षा के प्रभावों को भी त्याग देने पर बिल्कुल दृढ़ होना चाहिए जो तुम्हें सकारात्मक लगते हैं—इसमें कोई चुनाव बिल्कुल नहीं करना चाहिए। अपने परिवार से मिली शिक्षा का तुम पर चाहे जैसा भी प्रभाव पड़ा हो, वे तुम्हारे लिए चाहे कितने भी अच्छे या फायदेमंद क्यों न हों, वे चाहे तुम्हारी कितनी भी रक्षा करें, मगर वे लोगों और शैतान से आते हैं, और तुम्हें उन्हें त्याग देना चाहिए। भले ही परमेश्वर के वचन और लोगों से उसकी अपेक्षाएँ, तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा के प्रभावों से अलग हों, या वे तुम्हारे हितों को नुकसान ही क्यों न पहुँचाएँ, और तुम्हारे अधिकारों को छीन लें, और भले ही तुम्हें ऐसा लगता हो कि वे तुम्हारी रक्षा नहीं करते, बल्कि तुम्हारी असलियत सामने लाने और तुम्हें मूर्ख दिखाने के लिए हैं, फिर भी तुम्हें उन्हें सकारात्मक चीजें ही मानना चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर से आते हैं, वे सत्य हैं, और तुम्हें उन्हें स्वीकारना चाहिए। अगर तुम्हारे परिवार ने तुम्हें जिन चीजों की शिक्षा दी है उनका प्रभाव तुम्हारी सोच और आचरण, जीवन जीने के तुम्हारे नजरिये और तुम्हारे द्वारा अपनाए गए मार्ग पर पड़ता है, तो तुम्हें उन्हें त्याग देना चाहिए और उन पर अड़े नहीं रहना चाहिए। बल्कि, तुम्हें उन्हें परमेश्वर से आए संबंधित सत्यों से बदल देना चाहिए, और ऐसा करने में, तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें सिखाई गई चीजों की अंतर्निहित समस्याओं और सार को लगातार समझना और पहचानना भी चाहिए, और फिर अधिक सटीकता, व्यावहारिकता और सच्चाई से परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और अभ्यास करना चाहिए। लोगों और चीजों के बारे में परमेश्वर से आने वाले विचारों, दृष्टिकोणों और अभ्यास के सिद्धांतों को स्वीकार करना—यही एक सृजित प्राणी की कर्तव्य-बद्ध जिम्मेदारी है, और एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए; यही वह विचार और दृष्टिकोण भी है जो एक सृजित प्राणी को रखना चाहिए।
कुछ परिवारों में माँ-बाप, अपने बच्चों को उनके जीवन, लक्ष्यों और भविष्य के लिए सकारात्मक और फायदेमंद लगने वाली चीजें सिखाने के अलावा, उनमें कुछ अपेक्षाकृत कट्टर और कुत्सित विचार और दृष्टिकोण भी डाल देते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसे माँ-बाप कहते हैं : “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है।” यह कहावत बताती है कि तुम्हें कैसा आचरण करना चाहिए। यह कहावत कि “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है,” तुम्हें दो विकल्पों में से एक को चुनने पर मजबूर करती है। यह तुम्हें एक सच्चा खलनायक बनने के लिए मजबूर करती है, यानी लोगों के पीठ-पीछे बुराई करने से बेहतर है खुलेआम बुराई करो। इस तरह, भले ही लोगों को लगे कि तुम अच्छे काम नहीं करते हो, फिर भी वे तुम्हारी सराहना करेंगे और तुम्हें स्वीकारेंगे। इसका मतलब है, चाहे तुम कोई भी बुरे काम करो, तुम्हें उन्हें सबके सामने, खुले तौर पर और स्पष्ट रूप से करना चाहिए। कुछ परिवार अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा और सीख देते हैं। वे न केवल समाज में उन लोगों से घृणा नहीं करते जिनके विचार और व्यवहार घृणित और बुरे होते हैं, बल्कि वे अपने बच्चों को यह कहकर सिखाते हैं : “इन लोगों को कम मत समझना। वास्तव में, यह जरूरी नहीं कि वे बुरे लोग हों—वे नकली सज्जनों से बेहतर भी हो सकते हैं।” एक ओर, वे तुम्हें बताते हैं कि कैसा इंसान बनना है, वहीं दूसरी ओर, वे तुम्हें यह भी सिखाते हैं कि लोगों को कैसे पहचानें, किस तरह के लोगों को सकारात्मक मानें, और किस तरह के लोगों को नकारात्मक मानें; वे तुम्हें सकारात्मक और नकारात्मक चीजों में अंतर करना और आचरण करना भी सिखाते हैं—वे तुम्हें इसी तरह की शिक्षा देते और ऐसे सिखाते हैं। तो, ऐसी शिक्षा से लोगों पर अप्रत्यक्ष रूप से कैसा प्रभाव पड़ता है? (वे अच्छे-बुरे में अंतर नहीं कर पाते।) सही कहा, वे अच्छे-बुरे और सही-गलत में अंतर नहीं कर पाते। आओ सबसे पहले देखें कि मनुष्य इन तथाकथित खलनायकों और नकली सज्जनों को कैसे देखते हैं। पहली बात, मनुष्यों को लगता है कि सच्चे खलनायक बुरे लोग नहीं हैं, और जो सही मायनों में नकली सज्जन हैं वे बुरे लोग हैं। नकली सज्जन वे कहलाते हैं जो दूसरों के पीठ-पीछे बुरे काम करते हैं और सामने अच्छा बनने का दिखावा करते हैं। वे लोगों के सामने परोपकार, धार्मिकता और नैतिकता की बातें करते हैं, लेकिन उनके पीठ-पीछे सभी तरह के बुरे काम करते हैं। वे हर तरह की अच्छी बातें करते हुए ऐसे बुरे काम करते हैं—ऐसे लोग तिरस्कार के लायक ही हैं। जहाँ तक सच्चे खलनायकों की बात है, वे लोगों के सामने भी उतने ही बुरे होते हैं जितना कि उनके पीठ-पीछे, और फिर भी लोगों के तिरस्कार का पात्र बनने के बजाय ऐसे आदर्श बन जाते हैं जिनका अनुकरण और अध्ययन किया जाता है। ऐसी कहावत और दृष्टिकोण वास्तव में अच्छे और बुरे व्यक्ति को लेकर लोगों की अवधारणाओं को भ्रमित करते हैं। इसलिए लोगों को कुछ भी ठीक-ठीक पता नहीं होता, और उनकी अवधारणाएँ बहुत धुंधली हो जाती हैं। जब परिवार लोगों को ऐसी शिक्षा देता है, तो उनमें से कुछ ऐसा भी सोचते हैं, “एक सच्चा खलनायक बनकर मैं ईमानदार बन रहा हूँ। मैं हर काम खुलकर कर रहा हूँ। मुझे कुछ कहना होता है तो तुम्हारे मुँह पर कहता हूँ। अगर मैं तुम्हें नुकसान पहुँचाता हूँ या तुम्हें नापसंद करता हूँ या तुम्हारा फायदा उठाना चाहता हूँ, तो यह सब तुम्हारे सामने और तुम्हें बताकर करूँगा।” यह कैसा तर्क है? यह किस प्रकार का प्रकृति सार है? जब बुरे लोग बुरे काम और कुकर्म करते हैं, तो इसके लिए एक सैद्धांतिक आधार खोजते हैं, और यह होता है उनका तर्क। वे कहते हैं : “देखो, मैं जो कर रहा हूँ वह भले ही इतना अच्छा न हो, लेकिन यह नकली सज्जन बनने से तो बेहतर है। मैं यह सब लोगों के सामने करता हूँ और सभी इस बारे में जानते हैं—इसे ईमानदार होना कहा जाता है!” इस तरह, खलनायक खुद को ईमानदार दिखाने की कोशिश करते हैं। इस तरह की सोच रखने के कारण, असली ईमानदारी और असली बुराई को लेकर लोगों की अवधारणाएँ बहुत धुंधली हो गई हैं। वे नहीं जानते कि ईमानदार होना क्या है, और सोचते हैं, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरी बातों से किसी को दुख होता है या नहीं, मेरी बातें सही हैं या नहीं, और क्या वे तर्कपूर्ण हैं या क्या वे सिद्धांतों और सत्य के अनुरूप हैं। अगर मैं बोलने की हिम्मत करूँगा, परिणामों की चिंता नहीं करूँगा, और अगर मेरा स्वभाव सच्चा होगा, प्रकृति सीधी-स्पष्ट होगी, और मैं बिल्कुल सीधा रहूँगा, और अगर मेरे मन में कोई धूर्त इरादे नहीं होंगे, तो सब सही है।” क्या यह सही-गलत को पलटने का मामला नहीं है? (बिल्कुल है।) इस तरह, नकारात्मक चीजों को सकारात्मक चीजों में बदल दिया जाता है। इसी कारण कुछ लोग इसे अपना आधार मानते हैं और इस कहावत के अनुसार आचरण करते हैं, और यह भी मान लेते हैं कि न्याय उनके पक्ष में है; वे सोचते हैं, “जो भी हो, मैं तुम्हारा फायदा नहीं उठा रहा, न ही तुम्हारी पीठ-पीछे चालें चल रहा हूँ। मैं खुलकर सबके सामने चीजें कर रहा हूँ। तुम्हें जो समझना है समझ लो। मेरे हिसाब से यह ईमानदारी है! जैसी कि कहावत है, ‘अगर व्यक्ति ईमानदार हो तो उसे अफवाहों की चिंता नहीं करनी चाहिए,’ इसलिए तुम्हें जो सोचना है सोचो!” क्या यह शैतान का तर्क नहीं है? क्या यह लुटेरों का तर्क नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या तुम्हारे लिए कुकर्म करना, बिना वजह परेशानी खड़ी करना, अत्याचारी की तरह व्यवहार करना और बुराई करना सही है? बुराई करना बस बुराई करना ही होता है : अगर तुम जो करते हो उसका सार बुराई करना है, तो यह बुराई ही है। तुम्हारे क्रियाकलापों को कैसे मापा जाता है? उन्हें इस आधार पर नहीं मापा जाता है कि क्या तुम्हारी कोई मंशाएँ थीं या क्या तुमने उन्हें सबके सामने किया या क्या तुम्हारे पास सच्चा स्वभाव है। उन्हें सत्य और परमेश्वर के वचनों के आधार पर मापा जाता है। हर चीज को मापने का मानक सत्य ही है, और इस मामले में यह बात बिल्कुल सही ढंग से लागू होती है। सत्य की माप के हिसाब से, अगर कोई चीज बुरी है, तो वह बुरी ही होगी; अगर कोई चीज सकारात्मक है, तो वह सकारात्मक ही होगी; अगर कोई चीज सकारात्मक नहीं है, तो वह सकारात्मक नहीं होगी। और वे कौन-सी चीजें हैं जिन्हें लोग ईमानदार होना, और सच्चा स्वभाव और सीधी-स्पष्ट प्रकृति होना मानते हैं? इसे शब्दों को तोड़-मरोड़कर पेश करना और कुतर्क करना, अवधारणाओं को भ्रमित करना और बकवास बातें करना कहा जाता है, इसे लोगों को पथभ्रष्ट करना कहा जाता है, और अगर तुम लोगों को पथभ्रष्ट करते हो तो तुम कुकर्म कर रहे हो। चाहे लोगों के पीठ-पीछे किया जाए या उनके सामने, बुराई तो बुराई ही होती है। किसी के पीठ-पीछे बुराई करना दुष्टता है, जबकि किसी के सामने बुराई करना वास्तव में दुर्भावनापूर्ण और बुरा है, मगर इन सभी का संबंध बुराई से है। तो मुझे बताओ, क्या लोगों को यह कहावत स्वीकारनी चाहिए “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है?” (नहीं, नहीं स्वीकारनी चाहिए।) सकारात्मक क्या है—नकली सज्जन के व्यवहार संबंधी सिद्धांत या सच्चे खलनायक के व्यवहार संबंधी सिद्धांत? (इनमें से कोई भी नहीं।) बिल्कुल सही, दोनों ही नकारात्मक हैं। तो, नकली सज्जन मत बनो, और न ही सच्चे खलनायक बनो, और अपने माँ-बाप की बकवास मत सुनो। माँ-बाप हमेशा बकवास क्यों करते रहते हैं? क्योंकि वे इसी तरह का आचरण करते हैं। उन्हें हमेशा यही लगता है कि “मेरा स्वभाव सच्चा है, मैं एक सच्चा इंसान हूँ, मैं स्पष्टवादी हूँ, मैं अपनी भावनाओं को ईमानदारी से व्यक्त करता हूँ, मैं उदार हूँ, मैं सीधा-सादा हूँ और मुझे अफवाहों के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है, मैं शालीनता से व्यवहार करता हूँ और सही मार्ग पर चलता हूँ, तो मुझे किस बात का डर? मैं कुछ भी गलत नहीं करता, तो मुझे अपने दरवाजे पर राक्षसों के दस्तक देने का डर नहीं है!” राक्षस अभी तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक नहीं दे रहे हैं, पर तुमने कम बुरे कर्म नहीं किए हैं और देर-सबेर तुम्हें दंडित किया जाएगा। तुम ईमानदार हो और अफवाहों से नहीं डरते, पर ईमानदार होना क्या दर्शाता है? क्या यह सत्य को दर्शाता है? क्या ईमानदार होना सत्य के अनुरूप होना है? क्या तुम सत्य समझते हो? अपने कुकर्म के लिए बहाने या तर्क मत सोचो, ऐसा करना निरर्थक है! अगर यह सत्य के अनुरूप नहीं है, तो यह कुकर्म है! तुम्हें तो यह भी लगता है कि तुम्हारा स्वभाव सच्चा है। क्योंकि तुम्हारा स्वभाव सच्चा है, तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि तुम दूसरों का फायदा उठा सकते हो? या दूसरों को नुकसान पहुँचा सकते हो? यह कौन-सा तर्क है? (शैतान का तर्क।) यह लुटेरों और राक्षसों का तर्क कहलाता है! तुम बुराई करते हो, और फिर भी उसे सही और उचित समझते हो, उसके लिए बहाने बनाते हो और उसे सही ठहराने की कोशिश करते हो। क्या यह बेशर्मी नहीं है? (बिल्कुल है।) मैं तुम्हें फिर से बता दूँ कि परमेश्वर के वचनों में, लोगों को सच्चा खलनायक या नकली सज्जन बनने देने का कहीं कोई उल्लेख नहीं है, न ही सच्चा खलनायक या नकली सज्जन बनने की ऐसी कोई अपेक्षा की गई है। ये सभी कहावतें बकवास और शैतानी शब्द हैं, जो लोगों को धोखा देती और गुमराह करती हैं। वे सत्य नहीं समझने वालों को गुमराह कर सकती हैं, लेकिन अगर तुम सत्य समझते हो, तो तुम्हें अब ऐसी कहावतों पर टिके नहीं रहना चाहिए या उनसे प्रभावित नहीं होना चाहिए। चाहे लोग नकली सज्जन हों या सच्चे खलनायक, वे सभी राक्षस, जानवर और बदमाश हैं, और वे बिल्कुल भी अच्छे नहीं हैं, वे दुष्ट हैं और बुराई से जुड़े हुए हैं। अगर वे दुष्ट नहीं हैं तो वे विद्वेषपूर्ण हैं, और एक नकली सज्जन और एक सच्चे खलनायक के बीच एकमात्र अंतर उनके काम करने के तरीके में है : एक खुलेआम बुराई करता है जबकि दूसरा चोरी-छिपे। साथ ही, उनके आचरण करने के तरीके भी अलग हैं। एक खुलेआम बुराई करता है, जबकि दूसरा लोगों के पीठ पीछे गंदी चालें चलता है; एक अधिक धूर्त और मक्कार है, जबकि दूसरा अधिक दबंग, हावी होने वाला और जहरीले दाँत दिखाने वाला है; एक अधिक पतित है और चोरी-छिपे काम करता है, जबकि दूसरा अधिक घिनौना और अहंकारी है। ये चीजों को करने के दो शैतानी तरीके हैं, एक खुलेआम बुराई करना और दूसरा चोरी-छिपे बुराई करना। अगर तुम खुलेआम बुराई करते हो तो तुम सच्चे खलनायक हो, और अगर छुपकर करते हो तो नकली सज्जन हो। इसमें डींगें हाँकने वाली क्या बात है? अगर तुम इस कहावत को अपना आदर्श-वाक्य मानते हो, तो क्या तुम बेवकूफ नहीं हो? अगर तुम्हें उन चीजों से गहरा नुकसान पहुँचा है जिनकी शिक्षा तुम्हारे परिवार ने दी है या इस संबंध में जो चीजें तुम्हारे मन में बैठा दी गई हैं या अगर तुम उन चीजों से चिपके हुए हो, तो मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम जल्द-से-जल्द उन्हें त्याग सकोगे, उन्हें पहचान सकोगे और उनकी असलियत देख सकोगे। इस कहावत से चिपके मत रहो और यह सोचना बंद करो कि इससे तुम्हारी सुरक्षा होती है या यह तुम्हें ईमानदार या चरित्रवान, मानवता और सच्चे स्वभाव वाला व्यक्ति बना रहा है। यह कहावत व्यक्ति के आचरण का मानक नहीं है। जैसा मैं सोचता हूँ, उसके अनुसार इस कहावत की कड़ी निंदा करता हूँ, मुझे यह सबसे ज्यादा नापसंद है। मुझे न केवल नकली सज्जनों से, बल्कि सच्चे खलनायकों से भी घृणा है—मुझे दोनों प्रकार के लोगों से नफरत है। अगर तुम नकली सज्जन हो, तो मेरे हिसाब से तुम किसी काम के नहीं हो, और तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। लेकिन अगर तुम सच्चे खलनायक हो, तब तो तुम और भी ज्यादा बदतर हो। तुम सच्चे मार्ग से अच्छी तरह परिचित हो और फिर भी जानबूझकर पाप करते हो; जाहिर है कि तुम सत्य जानते हो फिर भी सरासर इसका उल्लंघन करते हो, इस पर अमल करने में विफल रहते हो, और इसके बजाय खुलेआम सत्य का विरोध करते हो, और इसलिए तुम जल्दी ही मर जाओगे। यह मत सोचो, “मेरी प्रकृति सीधी-स्पष्ट है, मैं नकली सज्जन नहीं हूँ। भले ही मैं खलनायक हूँ, पर एक सच्चा खलनायक हूँ।” तुम सच्चे कैसे हो? तुम्हारी “सच्चाई” सत्य नहीं है, और न ही यह कोई सकारात्मक चीज है। तुम्हारी “सच्चाई” तुम्हारे अहंकारी और दुष्ट स्वभावों के सार की अभिव्यक्ति है। तुम सत्य या सही मायनों में वास्तविक चीज की तरह सच्चे नहीं हो, बल्कि सच्चे शैतान, सच्चे दानवों, और सच्चे दुष्टों की तरह “सच्चे” हो। तो, जहाँ तक इस कहावत की बात है कि “नकली सज्जन की तुलना में सच्चा खलनायक बनना बेहतर है,” जिसकी शिक्षा तुम्हें तुम्हारे परिवार से मिली है, तुम्हें इसे भी त्याग देना चाहिए, क्योंकि इसका आचरण के उन सिद्धांतों से कोई संबंध नहीं है जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है, और यह किसी भी तरह से उनके जैसा तो कतई नहीं है। इसलिए, तुम्हें इससे चिपके रहने के बजाय जितनी जल्दी हो सके इसे त्याग देना चाहिए।
परिवार अपनी शिक्षा से एक और प्रकार का प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए, तुम्हारे परिवार के लोग हमेशा तुमसे कहते हैं : “भीड़ से बहुत ज्यादा अलग मत दिखो, खुद पर लगाम लगाओ और अपनी कथनी और करनी के साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत प्रतिभाओं, क्षमताओं, बुद्धि वगैरह पर थोड़ा संयम रखो। सबसे अलग दिखने वाला व्यक्ति मत बनो। जैसी कि कहावत है, ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है’ और ‘शहतीर का जो हिस्सा बाहर निकला होता है वह सबसे पहले सड़ता है।’ अगर तुम अपना बचाव करना चाहते हो और अपने समूह में दीर्घकालिक और स्थायी जगह पाना चाहते हो, तो वह पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखता है, तुम्हें खुद पर लगाम लगानी चाहिए और सबसे ऊपर उठने की महत्वाकांक्षा नहीं पालनी चाहिए। जरा उस बिजली के खंभे के बारे में सोचो, तूफान आने पर सबसे पहले चोट उसी पर पड़ती है, क्योंकि आसमानी बिजली सबसे ऊँची चीज पर गिरती है; और जब तूफानी हवा चलती है, तो खतरा सबसे ऊँचे पेड़ को ही होता है और वह जड़ से उखड़ जाता है; और सर्दियों में, सबसे ऊँचा पहाड़ ही पहले जमता है। लोगों के साथ भी ऐसा ही है—अगर तुम हमेशा दूसरों से अलग दिखोगे और सबका ध्यान खींचोगे, तो किसी न किसी की नजर तुम पर पड़ेगी, और वह तुम्हें दंडित करने के लिए गंभीरता से सोचेगा। ऐसा पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखती है, अकेले मत उड़ो। तुम्हें झुंड में ही रहना चाहिए। वरना, अगर तुम्हारे आस-पास कोई सामाजिक विरोध वाला आंदोलन खड़ा होता है, तो सबसे पहले तुम ही दंडित किए जाओगे, क्योंकि तुम सबसे अलग दिखने वाला पक्षी हो। कलीसिया में अगुआ या समूह के प्रमुख मत बनो। वरना, परमेश्वर के घर में कार्य-संबंधी कोई भी नुकसान या समस्या होने पर, अगुआ या सुपरवाइजर होने के नाते, सबसे पहले उँगली तुम पर ही उठेगी। तो, वह पक्षी मत बनो जो अपनी गर्दन उठाए रखता है, क्योंकि जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। तुम्हें कछुए की तरह अपना सिर छुपाकर पीछे हटना सीखना होगा।” तुम अपने माँ-बाप की इन बातों को याद रखते हो, और जब अगुआ चुनने का समय आता है, तो तुम यह कहकर उस ओहदे को ठुकरा देते हो, “ओह, यह मुझसे नहीं होगा! मेरा परिवार और बच्चे हैं, मैं उनके साथ एकदम बंधा हुआ हूँ। मैं अगुआ नहीं बन सकता। तुम लोगों को ही अगुआ बनना चाहिए, मुझे मत चुनो।” मान लो कि फिर भी तुम्हें अगुआ बना दिया जाता है, पर तुम इस ओहदे को स्वीकारना नहीं चाहते। तुम कहते हो, “मुझे यह ओहदा छोड़ना होगा। तुम लोग ही अगुआ बनो। मैं यह मौका तुम सबको दे रहा हूँ। तुम यह ओहदा ले सकते हो, मैं इसे छोड़ रहा हूँ।” तुम मन में सोचते हो, “हुंह! जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। तुम जितनी ऊँचाई पर चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे, और ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे। मैं तुम्हें अगुआ बनने दूँगा, और अगुआ बनने के बाद एक दिन ऐसा आएगा जब तुम अपना तमाशा बना लोगे। मैं कभी अगुआ नहीं बनना चाहता, मैं कामयाबी की सीढ़ी नहीं चढ़ना चाहता, यानी मैं ऊँचाई से गिरूँगा भी नहीं। जरा सोचो, क्या फलाँ व्यक्ति को अगुआ के ओहदे से बर्खास्त नहीं किया गया था? बर्खास्त किए जाने के बाद उसे निकाल दिया गया—उसे एक साधारण विश्वासी बनने का भी मौका नहीं मिला। यह उन कहावतों का एक आदर्श उदाहरण है, ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है’ और ‘शहतीर का जो हिस्सा बाहर निकला होता है वह सबसे पहले सड़ता है।’ सही कहा न मैंने? क्या उसे दंडित नहीं किया गया था? लोगों को अपना बचाव करना सीखना चाहिए, वरना उनकी बुद्धि किस काम की? अगर तुम्हारे पास दिमाग है, तो खुद को बचाने के लिए उसका इस्तेमाल करो। कुछ लोग इस मुद्दे को स्पष्टता से नहीं समझ पाते, लेकिन समाज में और लोगों के किसी भी समूह में ऐसा ही होता है—‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।’ जब तुम अपनी गर्दन उठाओगे, तो तुम्हारा बहुत सम्मान होगा, जब तक कि तुम्हें गोली नहीं मार दी जाती। तब तुम्हें एहसास होगा कि जो लोग खुद को सबसे सामने रखते हैं उन्हें इसका योग्य फल देर-सबेर मिल ही जाता है।” ये तुम्हारे माँ-बाप और परिवार की गंभीर शिक्षाएँ और अनुभव हैं, और उनके जीवनकाल का परिष्कृत ज्ञान भी है, जिसे वे बिना किसी हिचकिचाहट के तुम्हारे कानों में फुसफुसाते हैं। “तुम्हारे कानों में फुसफुसाने” से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि किसी दिन, तुम्हारी माँ तुम्हारे कान में फुसफुसाती है, “मैं तुम्हें बता दूँ, अगर मैंने जीवन में कोई चीज सीखी है तो वो यह है कि ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है,’ जिसका मतलब है कि अगर कोई सबसे अलग दिखता हो या बहुत ज्यादा ध्यान खींचता हो, तो उसके दंडित होने की काफी संभावना है। अब देखो, तुम्हारे डैड कितने विनम्र और निष्कपट हैं, ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें दमन के किसी अभियान में दंडित किया गया था। तुम्हारे डैड में साहित्यिक प्रतिभा है, वे लिख सकते हैं और भाषण दे सकते हैं, उनमें अगुआई करने का भी कौशल है, पर वे भीड़ से कुछ ज्यादा ही अलग दिखे और फिर उन्हें दंडित किया गया। तब से, ऐसा क्यों है कि तुम्हारे डैड कभी सरकारी अधिकारी और ऊँची हस्ती बनने के बारे में बात तक नहीं करते? इसकी वजह यही है। मैं तुम्हें दिल से यह सच बता रही हूँ। तुम्हें इसे अच्छी तरह सुनकर याद रखना होगा। भूलना मत, जहाँ भी जाओ इसे याद रखना। एक माँ होने के नाते यही वो सबसे अच्छी चीज है जो मैं तुम्हें दे सकती हूँ।” इसके बाद से तुम उनकी बातें याद रखते हो, और जब भी तुम्हें वह कहावत याद आती है “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है,” तो यह तुम्हें अपने डैड की याद दिलाती है, और जब भी तुम उनके बारे में सोचते हो, तुम इस कहावत को याद करते हो। तुम्हारे डैड एक समय ऐसे पक्षी थे जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखते थे, इसी वजह से वे गोली के शिकार बने, और अब उनके उदास और निराश चेहरे ने तुम्हारे दिमाग पर गहरी छाप छोड़ दी है। तो, जब भी तुम भीड़ से अलग दिखना चाहते हो, अपने मन की बात कहना चाहते हो और परमेश्वर के घर में ईमानदारी से अपना कर्तव्य पूरा करना चाहते हो, तो तुम्हारे कानों में अपनी माँ के दिल से निकली यह सलाह गूँजती है—“जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।” तो, तुम एक बार फिर पीछे हट जाते हो, सोचते हो, “मैं कोई प्रतिभा या विशेष क्षमताएँ नहीं दिखा सकता, मुझे खुद पर संयम रखकर उन्हें दबाए रखना होगा। और जहाँ तक लोगों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपना पूरा दिल, दिमाग और ताकत लगाने के लिए परमेश्वर के उपदेश की बात है, तो मुझे इन वचनों का एक हद तक ही अभ्यास करना होगा और बहुत ज्यादा मेहनत करके दूसरों से अलग दिखने से बचना होगा। अगर मैंने बहुत ज्यादा मेहनत की और कलीसिया के कार्य की अगुआई करके दूसरों से अलग दिखने लगा, और फिर परमेश्वर के घर के कार्य में कुछ गड़बड़ हुई और उसका जिम्मेदार मुझे ठहराया गया, तो क्या होगा? मैं यह जिम्मेदारी कैसे उठाऊँ? क्या मुझे बाहर निकाल दिया जाएगा? क्या मैं बलि का बकरा बनूँगा, वह पक्षी बनूँगा जो अपनी गर्दन बाहर निकाले रखता है? परमेश्वर के घर में, यह कहना मुश्किल है कि ऐसे मामलों का नतीजा क्या होगा। तो, चाहे मैं जो भी करूँ, मुझे अपने लिए बच निकलने का रास्ता छोड़ना होगा, मुझे अपनी सुरक्षा करना सीखना ही होगा, और कुछ भी कहने या करने से पहले अपनी सफलता सुनिश्चित करनी होगी। यही सबसे सही बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला है, क्योंकि मेरी माँ कहती है, ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।’” यह कहावत तुम्हारे दिल की गहराई में जड़ें जमा चुकी है और तुम्हारे दैनिक जीवन पर इसका गहरा प्रभाव है। बेशक, इससे भी ज्यादा, यह अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारे रवैये को प्रभावित करती है। क्या इसमें गंभीर समस्याएँ नहीं हैं? इसलिए, जब भी तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, ईमानदारी से खुद को खपाना चाहते हो, और पूरे दिल से अपनी सारी ताकत का इस्तेमाल करना चाहते हो, तो यह कहावत—“जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है”—हमेशा तुम्हारा रास्ता रोकती है, और अंत में तुम हमेशा अपने लिए बचने का रास्ता और पैंतरेबाजी के लिए जगह छोड़ते हो, और बच निकलने का रास्ता छोड़ने के बाद तुम सिर्फ नाप-तौलकर ही अपना कर्तव्य निभाते हो। क्या मैंने गलत कहा? क्या इस संबंध में तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा तुम्हें उजागर करके निपटाए जाने से काफी हद तक बचाती है? तुम्हारे लिए तो यह एक और ताबीज है, है न? (हाँ।)
अब तक हमने जिन बातों पर संगति की है उनके आधार पर, अपने परिवार से मिली शिक्षा के कारण लोगों के पास कितने ताबीज हैं? (सात।) इतने सारे ताबीजों के साथ, क्या यह सच है कि कोई भी सामान्य शैतान और राक्षस तुम्हें नुकसान पहुँचाने की हिम्मत नहीं करेगा? ये सभी ताबीज तुम्हें मानव संसार में रहते हुए बेहद सुरक्षित, आरामदायक, और प्रसन्न महसूस कराते हैं। इसी के साथ, वे तुम्हें यह भी महसूस कराती हैं कि तुम्हारे लिए परिवार कितना महत्वपूर्ण है, और तुम्हारे परिवार द्वारा तुम्हें दी गई सुरक्षा और ताबीज कितने महत्वपूर्ण हैं और बिल्कुल सही समय पर दिए गए हैं। जब भी तुम्हें इन ताबीजों के कारण ठोस लाभ और सुरक्षा मिलती है, तो तुम्हें अपने परिवार का होना बेहद महत्वपूर्ण लगता है, और तुम हमेशा उन पर निर्भर रहोगे। जब भी तुम कठिनाइयों का सामना करते हो, सही फैसला नहीं कर पाते और घबरा जाते हो, तो एक पल के लिए खुद को संभालकर सोचते हो, “मेरे माँ-बाप ने मुझसे क्या कहा था? मेरे बड़ों ने मुझे कौन से कौशल सिखाए थे? उन्होंने मुझे क्या आदर्श-वाक्य दिए थे?” तुम फौरन, सहज रूप से और अपने-आप उन विभिन्न विचारों और परवरिश पर निर्भर हो जाते हो जो तुम्हें अपने परिवार से मिली थी, तुम उनमें अपनी सुरक्षा खोजते हो। ऐसे समय में, परिवार तुम्हारे लिए एक सुरक्षित ठिकाना, एक सहारा, और तुम्हें आगे बढ़ाने वाली शक्ति बन जाता है, जो हमेशा मजबूत, अडिग और अपरिवर्तनीय होता है; यह एक ऐसा मानसिक सहारा है जो तुम्हें जीते रहने की हिम्मत देता है और तुम्हें घबराने और सही फैसले न कर पाने से बचाता है। ऐसे समय में, तुम इस गहरे एहसास से भरे होते हो : “मेरे लिए मेरा परिवार बेहद महत्वपूर्ण है, यह मुझे जबरदस्त मानसिक शक्ति देता है, साथ ही मेरे आध्यात्मिक सहारे का स्रोत भी है।” तुम अक्सर यह सोचकर खुद को बधाई देते हो, “अच्छा हुआ जो मैंने अपने माँ-बाप की बात मानी, वरना अभी मैं बेहद शर्मनाक परिस्थिति में होता, कोई मुझ पर धौंस जमा रहा होता या नुकसान पहुँचा रहा होता। किस्मत से, मेरे पास यह तुरुप का पत्ता है, मेरे पास यह ताबीज है। तो, परमेश्वर के घर में और कलीसिया में भी, यहाँ तक कि अपना कर्तव्य निभाते समय भी, कोई मुझ पर धौंस नहीं जमाएगा, और मैं कलीसिया से बाहर निकाले या निपटाए जाने के खतरे से बचा रहूँगा। अपने परिवार से मिली शिक्षा की सुरक्षा के कारण, ये चीजें मेरे साथ शायद कभी हो ही न।” लेकिन तुम कुछ भूल रहे हो। तुम उस माहौल में जी रहे हो जो तुम्हारी कल्पना में ताबीजों वाला माहौल है और जिसमें तुम अपनी रक्षा कर सकते हो, मगर तुम यह नहीं जानते कि तुमने परमेश्वर का आदेश पूरा किया है या नहीं। तुमने परमेश्वर के आदेश को नजरंदाज किया है, और सृजित प्राणी के रूप में अपनी पहचान के साथ ही उस कर्तव्य को भी अनदेखा किया है जो एक सृजित प्राणी को निभाना चाहिए। तुमने उस रवैये को भी नजरअंदाज किया है जो तुम्हें अपनाना चाहिए और उस सब को भी नजरअंदाज किया है जो तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने के दौरान अर्पित करना चाहिए; जीवन और मूल्यों के बारे में जो सच्चा नजरिया तुम्हें संजोना चाहिए, उसकी जगह तुम्हारे परिवार द्वारा सिखाए गए दृष्टिकोणों ने ले ली है, और तुम्हारे परिवार से मिली शिक्षा ने तुम्हारे उद्धार के अवसरों को भी प्रभावित किया है। इसलिए, सभी को अपने परिवार से मिली शिक्षा के विभिन्न प्रभावों को त्याग देना चाहिए, यह बेहद जरूरी है। यह सत्य का वह पहलू है जिसका अभ्यास किया जाना चाहिए, और इस वास्तविकता में बिना देरी किए प्रवेश भी करना चाहिए। क्योंकि, अगर समाज तुमसे कुछ कहे, तो मुमकिन है कि तुम इसे ठुकराने का कोई तार्किक या सहज फैसला कर लोगे; अगर कोई अजनबी या तुमसे असंबंधित कोई व्यक्ति कुछ कहे, तो तुम इसे स्वीकारने या ठुकराने का तर्कसंगत ढंग से या सोच-समझकर फैसला लोगे; लेकिन अगर तुम्हारा परिवार तुमसे कुछ कहे, तो तुम बिना झिझक या बिना सोचे-विचारे इसे पूरी तरह स्वीकार लोगे, और यह वास्तव में तुम्हारे लिए बेहद खतरनाक बात है। क्योंकि तुम्हें लगता है कि परिवार कभी किसी को नुकसान नहीं पहुँचा सकता, और तुम्हारा परिवार जो भी करता है वह तुम्हारी भलाई के लिए होता है, वह तुम्हारी रक्षा के लिए और तुम्हारी खातिर करता है। इस काल्पनिक सिद्धांत के आधार पर, लोग इन अमूर्त और मूर्त चीजों से आसानी से परेशान और प्रभावित होते हैं, जो उनका परिवार कहलाता है। मूर्त चीजें व्यक्ति के परिवार के सदस्य और परिवार के सभी मामले हैं, जबकि अमूर्त चीजें विभिन्न विचार और सीख हैं जो परिवार से मिलती हैं; साथ ही, इसमें आचरण करने और अपने मामलों से निपटने के लिए मिली थोड़ी शिक्षा भी शामिल है। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।)
परिवार से मिली शिक्षा के प्रभावों पर चर्चा करने के लिए काफी कुछ है। आज इन बातों पर संगति पूरी करने के बाद, तुम लोगों को इन पर विचार करना चाहिए और उन्हें सारांशित करना चाहिए; यह सोचना चाहिए कि इनमें से कौन-से विचार और दृष्टिकोण—उन्हें छोड़कर जिनका मैंने आज उल्लेख किया—तुम्हारे दैनिक जीवन में तुम लोगों को प्रभावित कर सकते हैं। अभी हमने जिन बातों पर संगति की है उसमें से ज्यादातर संसार से निपटने के लोगों के सिद्धांतों और तरीकों से संबंधित है, और ऐसे विषय बहुत कम हैं जिनका संबंध लोगों और चीजों को देखने के तरीकों से है। लोगों को अपने परिवार से मिली शिक्षा के प्रभावों के दायरे में ये सभी चीजें आती हैं। कुछ ऐसी समस्याएँ भी हैं जो जीवन पर लोगों के नजरिये या संसार से निपटने के उनके तरीकों से संबंधित नहीं हैं, तो हम उन पर और बात नहीं करेंगे। तो फिर, आज के लिए हमारी संगति यहीं समाप्त होती है। फिर मिलेंगे!
11 फ़रवरी 2023
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