परमेश्वर के दैनिक वचन : जीवन में प्रवेश | अंश 482

पतरस एवं पौलुस के सार में अन्तर से तुझे समझना चाहिए कि वे सभी लोग जो जीवन का अनुसरण नहीं करते हैं वे व्यर्थ में परिश्रम करते हैं! तू परमेश्वर में विश्वास करता है और परमेश्वर का अनुसरण करता है, और इस प्रकार तुझे अपने ह्रदय में परमेश्वर से प्रेम करना होगा। तुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर फेंकना होगा, परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने का प्रयास करना होगा, और परमेश्वर के एक प्राणी के कर्तव्य को निभाना होगा। चूँकि तू परमेश्वर पर विश्वास करता है और परमेश्वर का अनुसरण करता है, तुझे हर एक चीज़ को उसके लिए अर्पण करना चाहिए, और व्यक्तिगत चुनाव या मांग नहीं करना चाहिए, और तुझे परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति को हासिल करना चाहिए। चूँकि तुझे सृजा गया था, तो तुझे उस प्रभु की आज्ञा का पालन करना चाहिए जिसने तुझे सृजा था, क्योंकि तू सहज रूप से स्वयं के ऊपर प्रभुता नहीं रखता है, और तेरे पास अपनी नियति को नियन्त्रित करने की योग्यता नहीं है। चूँकि तू ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर में विश्वास करता है, तो तुझे पवित्रता एवं बदलाव की खोज करनी चाहिए। चूँकि तू परमेश्वर का एक प्राणी है, तो तुझे अपने कर्तव्य से चिपके रहना चाहिए, और अपने स्थान को बनाए रखना चाहिए, और तुझे अपने कर्तव्य का अतिक्रमण नहीं करना होगा। यह तुझे विवश करने के लिए नहीं है, या सिद्धान्तों के माध्यम से तुझे दबाने के लिए नहीं है, परन्तु ऐसा पथ है जिसके माध्यम से तू अपने कर्तव्य को निभा सकता है, और जिसे हासिल किया जा सकता है—और हासिल किया जाना चाहिए—उन सभी लोगों के द्वारा जो धार्मिकता को अंजाम देते हैं। यदि तू पतरस एवं पौलुस के सार की तुलना करे, तो तू जान जाएगा कि तुझे किस प्रकार कोशिश करनी चाहिए। उन पथों के विषय में जिन पर पतरस एवं पौलुस के द्वारा चला गया था, एक पथ है सिद्ध बनाए जाने का पथ, और दूसरा पथ है निष्कासन का पथ; पतरस एवं पौलुस दो विभिन्न पथों का प्रतिनिधित्व करते हैं। हालाँकि प्रत्येक ने पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त किया था, और प्रत्येक ने पवित्र आत्मा के अद्भुत ज्ञान एवं रोशनी को हासिल किया था, और प्रत्येक ने उसे स्वीकार किया जिसे प्रभु यीशु के द्वारा उन्हें सौंपा गया था, फिर भी वह फल जो प्रत्येक में उत्पन्न हुआ था वह एक समान नहीं था: एक ने सचमुच में फल उत्पन्न किया था, और दूसरे ने नहीं। उनके मूल-तत्वों से, उस कार्य से जो उन्होंने किया था, उससे जिसे उनके द्वारा बाह्य रूप से अभिव्यक्त किया गया था, और उनके निर्णायक अन्त से, तुझे यह समझना चाहिए कि तुझे कौन सा पथ लेना चाहिए, वह पथ जिस पर चलने के लिए तुझे चयन करना चाहिए। वे स्पष्ट रूप से दो भिन्न भिन्न पथों पर चले थे। पौलुस एवं पतरस, दोनों अपने अपने पथ के सार थे, और इस प्रकार बिलकुल प्रारम्भ से ही इन दो पथों को मिसाल के रूप में दर्शाने के लिए उन्हें प्रदर्शित किया गया था। पौलुस के अनुभवों के मुख्य बिन्दु क्या हैं, और वह इसे क्यों पूरा नहीं कर पाया था? पतरस के अनुभवों के मुख्य बिन्दु क्या हैं, और उसने किस प्रकार सिद्ध बनाए जाने का अनुभव किया था? यदि तू तुलना करे कि उन दोनों ने किसके विषय में चिंता किया, तो तू जान जाएगा कि परमेश्वर को बिलकुल किस किस्म के व्यक्ति की ज़रूरत है, परमेश्वर की इच्छा क्या है, परमेश्वर का स्वभाव कैसा है, किस किस्म के व्यक्ति को अन्ततः सिद्ध बनाया जाएगा, और साथ ही किस किस्म के व्यक्ति को सिद्ध नहीं बनाया जाएगा, उन लोगों का स्वभाव कैसा है जिन्हें सिद्ध बनाया जाएगा, और उन लोगों का स्वभाव कैसा है जिन्हें सिद्ध नहीं बनाया जाएगा—सार के इन मामलों को पतरस एवं पौलुस के अनुभवों में देखा जा सकता है। परमेश्वर ने सभी चीज़ों की सृष्टि की थी, और इस प्रकार वह समूची सृष्टि को अपने प्रभुत्व के अधीन लाता है, और अपने प्रभुत्व के प्रति समर्पित करवाता है; वह सभी चीज़ों को आदेश देगा, ताकि सभी चीज़ें उसके हाथों में हों। परमेश्वर की सारी सृष्टि, जिसमें जानवर, पेड़-पौधे, मानवजाति, पहाड़ एवं नदियां, और झीलें शामिल हैं—सभी को उसके प्रभुत्व के अधीन आना होगा। आकाश एवं धरती पर की सभी चीज़ों को उसके प्रभुत्व के अधीन आना होगा। उनके पास कोई विकल्प नहीं हो सकता है, और उन सब को उसी के आयोजनों के अधीन होना होगा। इसकी आज्ञा परमेश्वर के द्वारा दी गई थी, और यह परमेश्वर का अधिकार है। परमेश्वर सभी चीज़ों को आज्ञा देता है, और प्रत्येक को उसके किस्म के अनुसार वर्गीकृत करके सभी चीजों की पद श्रृंखला का आदेश देता है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार उनके स्वयं के पद को आबंटित करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह कितना बड़ा है, कोई भी प्राणी परमेश्वर से बढ़कर नहीं हो सकता है, और सभी चीज़ें मानवजाति की सेवा करती हैं जिन्हें परमेश्वर के द्वारा सृजा गया था, और कोई भी प्राणी परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करने की हिम्मत नहीं करता है या परमेश्वर से कोई मांग नहीं करता है। और इस प्रकार मनुष्य को, परमेश्वर के एक प्राणी के रूप में, मनुष्य के कर्तव्य को निभाना ही होगा। इस बात की परवाह किए बगैर कि वह सभी चीज़ों का प्रभु है या शासक, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य का रुतबा सभी चीज़ों के मध्य कितना ऊँचा है, वह फिर भी परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन सिर्फ एक छोटा सा मानव प्राणी है, और वह एक तुच्छ मानव प्राणी, और परमेश्वर के एक जीवधारी से अधिक और कुछ नहीं है, और वह कभी भी परमेश्वर से ऊपर नहीं होगा। परमेश्वर के एक प्राणी के रूप में, मनुष्य को परमेश्वर के एक प्राणी के अपने कर्तव्य को निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और अन्य चुनाव किए बिना परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। ऐसे लोग जो परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करते हैं उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ या उस चीज़ की खोज नहीं करनी चाहिए जिसकी वे व्यक्तिगत रूप से अभिलाषा करते हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि जिसकी तू खोज करता है वह सत्य है, तो जो कुछ तू अभ्यास में लाता है वह सत्य है, और जो कुछ तू अर्जित करता है वह तेरे स्वभाव में हुआ परिवर्तन है, तो वह पथ जिस पर तूने कदम रखा है वह सही पथ है। यदि जिसे तू खोजता है वह देह की आशीषें हैं, और जिसे तू अभ्यास में लाता है वह तेरी स्वयं की धारणाओं की सच्चाई है, और यदि तेरे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं है, और तू देह में प्रकट परमेश्वर के प्रति बिलकुल भी आज्ञाकारी नहीं है, और तू अभी भी अस्पष्टता में रह रहा है, तो जिसे तू खोज रहा है वह निश्चय ही तुझे नरक ले जाएगा, क्योंकि वह पथ जिस पर तू चलता है वह असफलता का पथ है। तुझे सिद्ध बनाया जाएगा या निष्कासित किया जाएगा यह तेरे स्वयं के अनुसरण पर निर्भर होता है, जिसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

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