शब्द और धर्म-सिद्धांत सुनाने और सत्य वास्तविकता के बीच अंतर (अंश 66)
कुछ लोगों में बिल्कुल भी समझ नहीं होती। वे हर उस व्यक्ति का अनुसरण करते हैं जो अगुआई करता है। जब अच्छे लोग अगुआई कर रहे होते हैं तो वे अच्छा व्यवहार सीखते हैं, जब बुरे लोग अगुआई कर रहे होते हैं तो वे बुरा व्यवहार सीखते हैं। वे जिसका भी अनुसरण कर रहे होते हैं उससे सीखते हैं। जब वे अविश्वासियों का अनुसरण करते हैं, तो वे राक्षसों का अनुकरण करते हैं। जब वे उन लोगों का अनुसरण करते हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे मानवता की कुछ झलक पाना सीखते हैं। वे सत्य को समझने और सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान नहीं देते, बल्कि केवल दूसरों का अनुसरण करते हैं और आँख मूँदकर उनकी नकल करते हैं। वे जिसे भी पसंद करते हैं उसी की बात सुनते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति सत्य को समझ सकता है? कदापि नहीं। जो लोग सत्य को नहीं समझते, उनमें कभी भी वास्तविक परिवर्तन नहीं होगा। ज्ञान और धर्म-सिद्धांत, मानव व्यवहार, बोलने का ढंग—ये बाहरी चीजें लोगों से सीखी जा सकती हैं। हालाँकि सत्य और जीवन केवल परमेश्वर के वचनों और कार्यों से प्राप्त किया जा सकता है, प्रसिद्ध या असाधारण लोगों से कभी भी नहीं। विश्वासियों को परमेश्वर के वचन कैसे खाना और पीना चाहिए? यह सीधे तौर पर इस महत्वपूर्ण प्रश्न से जुड़ा है कि व्यक्ति सत्य को समझ और प्राप्त कर सकता है या नहीं। परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का एक सही मार्ग होना चाहिए; अपने कलीसियाई जीवन में और अपना कर्तव्य निभाते समय विश्वासियों को परमेश्वर के वचन खाना और पीना चाहिए जो वास्तविक जीवन की समस्याओं को लक्षित करते हैं, और उन समस्याओं का समाधान करते हैं। सत्य को समझने का यही एकमात्र तरीका है। हालाँकि यदि वे सत्य को समझते हैं लेकिन उसका अभ्यास नहीं करते, तो वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ होंगे। कुछ लोगों की क्षमता अच्छी होती है लेकिन वे सत्य से प्रेम नहीं करते; भले ही वे थोड़ा-बहुत सत्य समझ सकते हैं, पर वे उसका अभ्यास नहीं करते। क्या ऐसे लोग सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं? सत्य समझना सिद्धांतों को समझने जितना सरल नहीं है। सत्य समझने के लिए, तुम्हारे लिए पहले यह जानना ज़रूरी है कि परमेश्वर के वचनों को कैसे खाना और पीना है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के प्रति प्रेम के सत्य से संबंधित अवतरण के खाने-पीने को लो। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “‘प्रेम’, जैसा कि कहा जाता है, ऐसे स्नेह को कहते हैं जो शुद्ध और निष्कलंक है, जहाँ तुम प्रेम करने, महसूस करने और विचारशील होने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हो। प्रेम में कोई शर्त, कोई बाधा और कोई दूरी नहीं होती। प्रेम में कोई संदेह, कोई कपट और कोई चालाकी नहीं होती। प्रेम में कोई व्यापार नहीं होता और उसमें कुछ भी अशुद्ध नहीं होता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बुलाए बहुत जाते हैं, पर चुने कुछ ही जाते हैं)। परमेश्वर प्रेम को इस प्रकार परिभाषित करता है, और यह सत्य है। लेकिन तुम्हें किससे प्रेम करना चाहिए? क्या तुम्हें अपने पति से प्रेम करना चाहिए? अपनी पत्नी से करना चाहिए? कलीसिया में अपने भाईयों और बहनों से करना चाहिए? नहीं। जब परमेश्वर प्रेम की बात करता है, तो वह तुम्हारे साथी मनुष्य के प्रति प्रेम के बारे में नहीं कहता है, बल्कि मनुष्य के परमेश्वर के प्रति प्रेम के बारे में कहता है। यदि कोई व्यक्ति वास्तव में परमेश्वर को जान गया है, सचमुच देखता है कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, और देखता है कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सबसे सच्चा और ईमानदार है, तो उस व्यक्ति का परमेश्वर के प्रति प्रेम भी सच्चा होता है। कोई व्यक्ति परमेश्वर से प्रेम करने का अभ्यास कैसे करता है? सबसे पहले उसे अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना चाहिए; तब उसका हृदय परमेश्वर से प्रेम कर सकता है। यदि किसी व्यक्ति का हृदय सचमुच देखता है कि परमेश्वर कितना प्यारा है, तो उसे उस पर संदेह नहीं होगा, उसके और परमेश्वर के बीच कोई दूरी नहीं होगी, और उसका परमेश्वर-प्रेमी हृदय शुद्ध और निष्कलंक होगा। “निष्कलंक” का अर्थ है अनावश्यक इच्छाओं का न होना और परमेश्वर से अनावश्यक माँगें न करना, उसके सामने कोई शर्त न रखना और बहाने न बनाना। इसका अर्थ है कि वह पहले तुम्हारे दिल में आता है; इसका अर्थ है कि तुम्हारे हृदय में केवल उसके वचन हैं। यह एक ऐसा स्नेह है जो शुद्ध और निष्कलंक है। इस “स्नेह” का अर्थ है कि परमेश्वर का तुम्हारे हृदय में एक विशेष स्थान है; और कि तुम हमेशा परमेश्वर के बारे में विचार करते हो और उसे याद करते हो, और प्रत्येक क्षण उन्हें मन में ला सकते हो। प्रेम का अर्थ है कि प्रेम के लिए अपने हृदय का उपयोग करना। “प्रेम के लिए अपने हृदय का उपयोग” करने में विचारशील होना, परवाह करना और तड़प शामिल है। अपने हृदय से परमेश्वर से प्रेम करने में सफल होने के लिए, तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर को जानना होगा, उसके स्वभाव को जानना होगा, और उसकी सुंदरता को जानना होगा। यदि तुम परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते, तो तुम चाहकर भी उससे प्रेम नहीं कर पाओगे। वर्तमान समय में तुम सभी लोग सत्य की ओर प्रयास करने और सत्य प्राप्त करने के इच्छुक हो। भले ही तुम्हारे पास परमेश्वर के बारे में कोई वास्तविक ज्ञान नहीं है, फिर भी तुम्हें उसके लिए तरसने, उसके करीब आने, उसके प्रति समर्पण करने, उसके प्रति विचारशील होने, अपने मन में जो कुछ भी है उसे उसके साथ साझा करने और अपनी कठिनाइयाँ उसे बताने के लिए अपने दिल का उपयोग करना चाहिए। यदि तुम सत्य को नहीं समझते तो परमेश्वर की खोज करो; जब तुम स्वयं कुछ सँभाल नहीं सकते तो परमेश्वर की ओर देखो और उस पर निर्भर रहो। जब तुम इस तरह परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, तो पवित्र आत्मा तुमको प्रबुद्ध करेगा और तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। इस सोच में मत फँसो, “मुझे परमेश्वर के लिए क्या करना चाहिए? मुझे कौन से बड़े काम करने चाहिए?” ये केवल खोखले शब्द हैं और बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं हैं। ये केवल तभी व्यावहारिक होते हैं जब तुम अपना हृदय परमेश्वर से प्रेम करने में लगाते हो, और छोटे-छोटे मामलों और कर्तव्यों में उसे संतुष्ट करते हो जिन्हें तुम करने में सक्षम हो। भले ही तुम जोर से यह नहीं कहते कि तुम्हें परमेश्वर से कैसे और किस हद तक प्रेम करना चाहिए, तुम्हारे हृदय में परमेश्वर रहता है, और तुम्हारा हृदय उसे संतुष्ट करने के लिए तैयार रहता है। चाहे तुम्हें कितनी भी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ें, जब तक तुम्हारा दिल परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए तैयार है, और तुम उसे संतुष्ट करने के लिए कुछ चीजें करने में सक्षम हो, और उसे संतुष्ट करने के लिए कुछ कठिनाइयों का सामना कर सकते हो, तो तुम वास्तव में उससे प्यार करते हो। यदि तुम कुछ सत्य समझते हो और सभी मामलों को सँभालते समय सिद्धांतवादी बने रहते हो, तो तुम परमेश्वर के प्यार को महसूस कर पाओगे; तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वह सत्य है, वास्तविकता है, और हर समय लोगों की मदद करता है; तुम यह भी महसूस करोगे कि लोग परमेश्वर के वचनों से दूर नहीं जा सकते और उनके हृदय परमेश्वर के बिना नहीं रह सकते; तुम महसूस करोगे कि परमेश्वर के बिना कोई जीवन नहीं है, और यदि तुमने सच में परमेश्वर को छोड़ दिया, तो तुम बस जी नहीं पाओगे, जो कष्टदायी होगा। जब तुम यह सब महसूस करते हो, तो तुम्हारे दिल में प्यार होता है, तुम्हारे दिल में परमेश्वर होता है। “प्रेम करने, महसूस करने और विचारशील होने के लिए अपने हृदय का उपयोग करो।” इसमें कई चीजें शामिल हैं। परमेश्वर मनुष्य से सच्चे प्रेम की अपेक्षा करता है; दूसरे शब्दों में, तुम्हें अपने हृदय से उससे प्रेम करना चाहिए और उसके लिए विचारशील होना चाहिए, और उसे सदैव अपने मन में रखना चाहिए। इसका अर्थ बस वचनों को बोलना नहीं है, न ही इसका अर्थ किसी के सामने इरादतन कुछ व्यक्त करना है; बल्कि मुख्य रूप से इसका अर्थ है बगैर किसी प्रेरणा, मिलावट या दिल में संदेह के चीजों को हृदय से करना, अपने हृदय को अपने जीवन का संचालन और सभी कार्यों पर नियंत्रण करने देना। यदि तुम सत्य को समझ पाते हो, तो परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान होता है। जो व्यक्ति हमेशा परमेश्वर पर संदेह करता है, वह क्या सोचता है? “क्या परमेश्वर का ऐसा करना उचित है? परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है? अगर परमेश्वर के ऐसा कहने के पीछे कोई कारण नहीं है, तो मैं इसके प्रति समर्पण नहीं करूँगा। अगर परमेश्वर का ऐसा करना धार्मिक नहीं है, तो मैं समर्पण नहीं करूँगा। मैं फिलहाल इसे छोड़ दूँगा।” संदेह नहीं पालने का अर्थ यह मानना है कि परमेश्वर जो कुछ भी कहता और करता है, वह सही है, और परमेश्वर के लिए कुछ भी सही या गलत नहीं होता, और मनुष्य को परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए, परमेश्वर के प्रति विचारशील होना चाहिए, परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, और उनके विचारों और चिंताओं को साझा करना चाहिए। भले ही परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह तुम्हें अर्थपूर्ण लगे या न लगे, चाहे यह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुकूल हो या नहीं, और भले ही यह मनुष्य के सिद्धांतों के अनुरूप हो या नहीं, तुम्हें हमेशा इन चीजों के प्रति परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले हृदय के साथ समर्पित होना और देखना चाहिए। इस प्रकार का अभ्यास सत्य के अनुरूप होता है? यह प्रेम की अभिव्यक्ति और अभ्यास है। इसलिए, यदि तुम सत्य की समझ प्राप्त करना चाहते हो, तो यह बहुत महत्वपूर्ण है कि तुम्हें पता हो कि परमेश्वर के वचनों को कैसे खाना-पीना है। अगर तुम परमेश्वर के केवल थोड़े-बहुत वचन पढ़ते हो और उन्हें भी पूरी ईमानदारी से नहीं पढ़ते, मन से उन पर चिंतन नहीं करते, तो तुम सत्य नहीं समझ पाओगे। तब तुम केवल सिद्धांत की थोड़ी-बहुत समझ हासिल कर पाओगे। ऐसे में तुम्हारे लिए परमेश्वर के इरादों और उसके वचनों में छिपे उसके उद्देश्यों को समझना बहुत मुश्किल होगा। अगर तुम उन लक्ष्यों या परिणामों को नहीं समझते हो जिसे परमेश्वर के वचन प्राप्त करना चाहते हैं, अगर तुम यह नहीं समझते हो कि उसके वचन मनुष्य में क्या पूर्ण और हासिल करना चाहते हैं, तो यह साबित करता है कि तुमने अभी तक सत्य को समझा नहीं है। परमेश्वर जो कहता है उसे क्यों कहता है? वह उस लहजे में क्यों बोलता है? वह अपने हर वचन में इतना ईमानदार और निष्कपट क्यों है? वह कुछ विशिष्ट वचनों को उपयोग के लिए क्यों चुनता है? क्या तुम जानते हो? अगर निश्चित होकर नहीं बता सकते, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर के इरादों या उसके उद्देश्यों को नहीं समझते हो। अगर तुम उनके वचनों के पीछे के संदर्भ को नहीं समझते हो, तो तुम सत्य को समझ या उसका अभ्यास कैसे कर सकते हो? सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर द्वारा कहे जाने वाले हर वचन का अर्थ समझना होगा, फिर इन वचनों को समझकर उन्हें अभ्यास में लाना होगा, जिससे तुम परमेश्वर के वचनों को अपने भीतर जी सको और वे तुम्हारी वास्तविकता बन जाएँ। ऐसा करके तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लोगे। तुम्हारे द्वारा परमेश्वर के वचन को पूरी तरह से समझ लिए जाने पर ही तुम वास्तव में सत्य को समझ सकते हो। मात्र कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत समझकर तुम सोचते हो कि तुम सत्य समझते हो और तुम्हारे पास वास्तविकता है। यह अपने आपको धोखा देना है। तुम यह तक नहीं जानते कि परमेश्वर क्यों चाहता है कि लोग सत्य का अभ्यास करें। इससे साबित होता है कि तुम्हें परमेश्वर के इरादों की समझ नहीं है और तुम अभी भी सत्य की समझ नहीं रखते। वास्तव में, परमेश्वर लोगों को शुद्ध करके बचाने के लिए उनसे यह अपेक्षा करता है, ताकि लोग अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागकर परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसे जानने वाले बन सकें। इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए परमेश्वर चाहता है कि लोग सत्य का अभ्यास करें।
परमेश्वर उन लोगों के लिए सत्य व्यक्त करता है जो सत्य से प्रेम करते हैं, जिनमें सत्य की प्यास है, और जो सत्य खोजते हैं। वे लोग जो शब्दों और धर्म-सिद्धांतों में उलझे रहते हैं तथा लंबे, आडंबरपूर्ण भाषण देना पसंद करते हैं, वे कभी भी सत्य प्राप्त नहीं कर पाएँगे; वे स्वयं को बेवकूफ बना रहे हैं। परमेश्वर के वचनों और सत्य के बारे में उनके दृष्टिकोण गलत हैं, जो सीधा है उसे पढ़ने के लिए वे अपनी गरदन उल्टी कर लेते हैं, उनका दृष्टिकोण पूरी तरह गलत होता है। कुछ लोग परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करना पसंद करते हैं। वे हमेशा इस बात का अध्ययन करते हैं कि कैसे परमेश्वर के वचन गंतव्य के बारे में बताते हैं या कैसे आशीष प्राप्त किए जाएँ, इस बारे में बात करते हैं। उन्हें ऐसे वचनों में अधिक रुचि होती है। यदि परमेश्वर के वचन उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं और आशीष पाने की उनकी इच्छा पूरी नहीं करते, तो वे नकारात्मक हो जाते हैं, फिर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना नहीं चाहते। यह दिखाता है कि उन्हें सत्य में कोई दिलचस्पी नहीं है। परिणामस्वरूप, वे सत्य को लेकर ईमानदार नहीं हैं; वे बस उन्हीं सत्य को स्वीकारने में सक्षम हैं जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हैं। भले ही वे परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर बेहद उत्साही हैं और कुछ अच्छे कर्म करने के लिए हरसंभव तरीके से प्रयास करते हैं और खुद को अच्छे से पेश करते हैं, लेकिन वे यह सब केवल भविष्य में एक अच्छी मंजिल पाने के लिए कर रहे हैं। इस तथ्य के बावजूद कि वे कलीसियाई जीवन से जुड़े हैं, परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, वे सत्य का अभ्यास नहीं करेंगे, न उसे प्राप्त करेंगे। कुछ लोग होते हैं जो परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते हैं, लेकिन वे बस बिना रुचि के काम करते हैं; वे सोचते हैं कि उन्होंने बस कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझकर सत्य पा लिया है। वे कितने बेवकूफ हैं! परमेश्वर का वचन ही सत्य है। हालांकि, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद यह जरूरी नहीं कि कोई सत्य समझ ही ले, और सत्य प्राप्त कर ले। परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के बाद यदि तुम सत्य को हासिल करने में असफल हो जाते हो, तो तुमने बस शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को हासिल किया है। यदि तुम सत्य का अभ्यास करना या सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना नहीं जानते, तो फिर तुम सत्य वास्तविकता से वंचित रह जाते हो। भले ही तुम अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ते हो, लेकिन बाद में तुम परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ पाते, तुम्हें केवल कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत ही हासिल हो पाते हैं। सत्य समझने के लिए परमेश्वर के वचनों को कैसे खाएं-पिएँ? सर्वप्रथम, तुम्हें पता होना चाहिए कि परमेश्वर के वचन समझने की दृष्टि से इतने सरल नहीं हैं; परमेश्वर के वचन में बहुत गहराई है। परमेश्वर के वचनों के एक वाक्य का अनुभव करने में भी पूरा जीवन लग जाता है। अनेक वर्षों के अनुभव के बगैर, तुम परमेश्वर के वचनों को संभवतः कैसे समझ सकते हो? यदि परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए, तुम परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते हो और उसके वचनों के उद्देश्यों, उनके उद्गम, उस प्रभाव को नहीं समझते जो वे प्राप्त करना चाहते हैं, या जो वे हासिल करना चाहते हैं, तो क्या इसका यह अर्थ है कि तुम सत्य समझते हो? संभवतः तुमने परमेश्वर के वचनों को कई बार पढ़ा हो और शायद तुमने इसके कई अंशों को कंठस्थ कर लिया हो, लेकिन तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते और तुम बिल्कुल नहीं बदले हो, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध हमेशा की तरह दूरस्थ और विरक्त है। जब तुम्हारे सामने कोई ऐसी चीज आती है जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाती, तो तुम परमेश्वर के प्रति संदेहास्पद रहते हो, तुम उसे समझ नहीं पाते, उससे बहस करते हो, उसके बारे में धारणाएं बना लेते हो और गलतफहमियां पाल लेते हो, उसका विरोध और निंदा करते हो। यह किस तरह का स्वभाव है? यह अहंकार का, सत्य से विमुख हो जाने का स्वभाव है। जो लोग इतने अहंकारी और सत्य से विमुख हुए हों, वे इसे कैसे स्वीकार सकते हैं या कैसे इसका अभ्यास कर सकते हैं? ऐसे लोग कभी भी सत्य या परमेश्वर को प्राप्त नहीं करेंगे। भले ही हर किसी के पास “वचन देह में प्रकट होता है” की एक प्रति है, और वे हर दिन परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, और जब वे सत्य पर संगति सुनते हैं तो नोट्स बनाते हैं, लेकिन हर किसी पर इसका प्रभाव अलग होता है। कुछ लोग स्वयं को ज्ञान और धर्म-सिद्धांतों से सुसज्जित करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं; कुछ लोग हमेशा यह खोजते और चिंता करते हैं कि लोगों को कैसा अच्छा व्यवहार दिखाना चाहिए; कुछ लोग रहस्यों का खुलासा करने वाले गहन वचनों को पढ़ने के इच्छुक होते हैं; कुछ लोग भविष्य के गंतव्य के बारे में बोले गए वचनों को लेकर सबसे अधिक चिंतित होते हैं; कुछ लोग राज्य के युग के प्रशासनिक आदेशों का अध्ययन करना और परमेश्वर के स्वभाव का अध्ययन करना पसंद करते हैं; कुछ लोग परमेश्वर की ओर से मनुष्य को दिए गए सांत्वना और प्रोत्साहन के वचनों को पढ़ने के इच्छुक होते हैं; कुछ लोग भविष्यवाणियाँ, परमेश्वर के वादे और आशीष के वचन पढ़ने के इच्छुक होते हैं; कुछ लोग उन वचनों को पढ़ने के इच्छुक होते हैं जो पवित्र आत्मा सभी कलीसियाओं से कहता है, और “उसका पुत्र” बनने के इच्छुक होते हैं। क्या वे इस तरह से परमेश्वर के वचनों को पढ़कर सत्य प्राप्त कर सकते हैं? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं? क्या इस तरह से परमेश्वर पर विश्वास करने से उन्हें बचाया जा सकता है? तुम लोगों को इन चीजों को स्पष्ट रूप से देखना होगा। वर्तमान में कुछ नए विश्वासी हैं जो कहते हैं, “मनुष्य को सांत्वना देने वाले परमेश्वर के वचन अद्भुत हैं; वह कहता है, ‘मेरा बेटा, मेरा बेटा।’ इस दुनिया में कौन तुम्हें इस तरह सांत्वना देगा?” वे सोचते हैं कि वे परमेश्वर के पुत्र हैं, और यह नहीं समझते कि परमेश्वर ये वचन किससे कह रहा है। कुछ ऐसे भी हैं जो कुछ वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी इसे नहीं समझते; वे इस तरह की बातें बेशर्मी से कहते हैं और इसके बारे में उन्हें कोई घबराहट या शर्मिंदगी महसूस नहीं होती। क्या वे सत्य को समझते हैं? वे परमेश्वर के इरादों को नहीं समझते, फिर भी वे उसके “पुत्र” का स्थान ग्रहण करने का साहस करते हैं! जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो वे क्या समझते हैं? उन्होंने उनकी पूरी तरह गलत व्याख्या की है! जब सत्य से प्रेम न करने वाले लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ेंगे तो वे उन्हें नहीं समझेंगे। जब तुम उनके साथ सत्य पर संगति करते हो, तो वे इसे स्वीकारने को महत्व नहीं देते। इसके विपरीत जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे परमेश्वर के वचनों को पढ़कर प्रेरित होते हैं। वे परमेश्वर के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य महसूस करते हैं। वे सच्चे मार्ग की जाँच करने और सत्य को स्वीकारने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों को परमेश्वर के पास लौटने और सत्य प्राप्त करने की आशा होती है। जिन लोगों को परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करना पसंद है उन्हें हमेशा इस बात को लेकर चिंता रहती है कि परमेश्वर किस प्रकार अपना रूप बदलता है, परमेश्वर इस संसार को कब छोड़ेगा, और परमेश्वर का दिन कौन-सा होगा। उन्हें अपनी जिंदगी की कोई परवाह नहीं होती। लोग खुद उन मामलों की चिंता कर रहे हैं जो परमेश्वर का अपना मामला है। यदि तुम हमेशा इस तरह के प्रश्न पूछते हो, तो तुम परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों और उसकी प्रबंधन योजना में हस्तक्षेप कर रहे हो। यह अनुचित है और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करता है। यदि तुम विशेष रूप से प्रश्न पूछने या उत्तर जानने के इच्छुक हो, और अपने आप को नियंत्रित नहीं कर सकते, तो परमेश्वर से प्रार्थना करो और कहो, “हे परमेश्वर, ये मामले तुम्हारी प्रबंधन योजना से संबंधित हैं और ये तुम्हारा अपना मामला है। मैं उन मामलों में ताक-झाँक नहीं करूँगा जो मेरी पहुँच से बाहर हैं या जिनके बारे में मुझे पता नहीं होना चाहिए। कृपया मुझे अनुचित चीजें करने से रोको।” मनुष्य परमेश्वर के मामलों को कैसे समझ सकता है? यदि परमेश्वर ने अपने कार्यों और प्रबंधन योजना से संबंधित कुछ मामलों का उल्लेख या उसकी घोषणा नहीं की है, तो इससे यह साबित होता है कि वह इसे लोगों के सामने प्रकट नहीं करना चाहता। परमेश्वर जो कुछ भी लोगों को बताना चाहता है वह उसके वचनों में है, और तुम्हें जो भी सत्य समझना चाहिए वह उसके वचनों में है। ऐसे बहुत से सत्य हैं जिन्हें तुम्हें समझना चाहिए। तुम्हें केवल परमेश्वर के वचनों पर गौर करने की आवश्यकता है; यदि वहाँ कुछ नहीं मिल पाता, तो उत्तर के लिए दबाव न डालो। यदि परमेश्वर ने तुम्हें नहीं बताया है, तो पूछते रहना और जाँच-पड़ताल करते रहना व्यर्थ है। उसने तुम्हें वह सब कुछ बताया है जो तुम्हें जानना चाहिए, और वह तुम्हें वह सब नहीं बताएगा या नहीं प्रकट करेगा जो तुम्हें नहीं जानना चाहिए। वर्तमान समय में अधिकांश विश्वासियों ने अभी तक सही रास्ते पर प्रवेश नहीं किया है; वे नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय उन पर कैसे विचार करें, उनका अभ्यास करना या अनुभव करना तो दूर की बात है। कुछ ऐसे भी हैं जो अपना कर्तव्य नहीं निभाते, या उचित कार्यों में संलग्न नहीं होते। ऐसे विश्वासियों के लिए सत्य को समझना और भी कठिन होता है। सत्य को समझने के लिए व्यक्ति को दीर्घकालिक अनुभव की आवश्यकता होती है। यदि तुम परमेश्वर के वचनों को कर्तव्यनिष्ठा से नहीं पढ़ते, या उसके वचनों का अभ्यास या अनुभव नहीं करते, तो तुम सत्य को कैसे समझोगे या वास्तविकता में प्रवेश कैसे करोगे? यदि तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण नहीं करते तो तुम आस्था के सही रास्ते पर कैसे प्रवेश करोगे? और यदि तुम आस्था के सही मार्ग पर प्रवेश नहीं करते, तो तुम कैसे बचाए जाओगे? सच्चे विश्वासियों को इन मामलों के बारे में स्पष्ट होना चाहिए।
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