मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं (खंड एक)

परिशिष्ट : सुसमाचार प्रचार करने के संबंध में अतिरिक्त सत्य

पिछली कुछ सभाओं में जिस विषय पर चर्चा की गई थी वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन मानक स्तर के तरीके से करने के बारे में था और हमने उन कर्तव्यों को श्रेणीबद्ध किया था जिन्हें लोगों और कर्मचारियों दोनों को ही करना चाहिए। वे खास श्रेणियाँ क्या हैं? (पहली श्रेणी में सुसमाचार कार्यकर्ता आते हैं, दूसरी श्रेणी में कलीसिया में अलग-अलग स्तरों पर मौजूद अगुआ और कार्यकर्ता शामिल हैं, तीसरी श्रेणी में वे कर्मचारी आते हैं जो अलग-अलग विशेष कर्तव्य करते हैं, चौथी श्रेणी में वे मौजूद हैं जो साधारण कर्तव्य करते हैं, पाँचवीं श्रेणी में वे लोग हैं जो अपने खाली समय में कर्तव्य करते हैं और छठी श्रेणी में वे सभी शामिल हैं जो कोई कर्तव्य नहीं करते हैं।) कुल मिलाकर छह श्रेणियाँ हैं। पिछली बार हमने पहली श्रेणी पर चर्चा की थी, जो सुसमाचार प्रचार करने के कर्तव्य से संबंधित सिद्धांतों और सत्य के बारे में है। इसमें सुसमाचार प्रचार करने के सभी पहलुओं से संबंधित विषय वस्तु है जिसमें ध्यान देने योग्य बातें, प्रासंगिक सिद्धांत और सत्य, वे क्षेत्र जिनके बारे में लोगों को सावधान रहना चाहिए और साथ ही वे आम गलतियाँ और विकृतियाँ शामिल हैं जो इस कर्त्तव्य को करने की प्रक्रिया में होती हैं। किसी खास विषय पर धर्मोपदेश सुनने के बाद क्या तुम उसमें निहित मुख्य बातों को संक्षेप में प्रस्तुत कर सकते हो? अगर तुम किसी विषय की मुख्य सामग्री को समझ पाते हो, संबंधित सत्य को दिल में उतार पाते हो और फिर धीरे-धीरे, अपना कर्तव्य करने के दौरान उन्हें अपनी वास्तविकता, अपने जीवन और अपने अभ्यास के रास्ते में बदल पाते हो, तो इसका मतलब है कि तुमने वाकई उस सामग्री को आत्मसात कर लिया है जिस पर मैं संगति करता रहा हूँ। अगर किसी धर्मोपदेश के बारे में संगति करने के बाद, तुम लोगों के मन में सिर्फ एक सामान्य धारणा ही बन पाती है या तुम्हें कुछ घटनाएँ और कहानियाँ ही याद रहती हैं, लेकिन तुम यह नहीं समझ पाते हो कि आधारभूत सत्य और सिद्धांत क्या हो सकते हैं और इन चीजों पर क्यों चर्चा की गई, तो क्या इसे समझ का होना माना जाता है? क्या इसे सत्य को समझना माना जाता है? (नहीं माना जाता।) इसे सत्य को समझना नहीं माना जाता; इसका मतलब है कि तुम्हें यह समझ नहीं आया कि कौन से सत्य बताए जा रहे थे, तुम उन्हें समझ नहीं पाए और तुमने उन्हें स्वीकार नहीं किया। तो क्या तुम लोग संक्षेप में प्रस्तुत कर सकते हो? क्या कोई मुझे हमारी पिछली संगति के मुख्य बिंदु बता सकता है? (हमने सात बिंदुओं को संक्षेप में प्रस्तुत किया था : पहला, सुसमाचार कार्यकर्ताओं को कैसे परिभाषित किया जाए; दूसरा, सुसमाचार प्रचार के कर्तव्य का सार; तीसरा, इस कर्तव्य के प्रति लोगों का रवैया और उनके आंतरिक नजरिये; चौथा, सुसमाचार प्रचार करने के लिए अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांत, जैसे कि सुसमाचार प्रचार प्राप्त करने के सिद्धांतों के अनुरूप कौन है और कौन नहीं; पाँचवाँ, सुसमाचार प्रचार प्राप्त करने के सिद्धांतों से मेल खाने वालों के साथ कैसे व्यवहार किया जाए; छठा, जब सुसमाचार कार्यकर्ता अपना कर्तव्य निभाने के दौरान अपने पद छोड़ देते हैं और भाग जाते हैं तो उसके परिणाम; सातवाँ, पूरे इतिहास में सुसमाचार प्रचार करने वाले संतों का बलिदान और हमें अपने कर्तव्य करने के लिए मौजूदा अवसरों को कैसे सँजोना चाहिए और कैसे अपने आप को तेजी से सत्य से सुसज्जित करना चाहिए।) तुम्हारे सारांश में हमारी पिछली संगति के मुख्य पहलू आमतौर पर आ गए हैं—बहुत खूब। क्या कुछ छूट गया है? (इसमें एक और बिंदु है : लोगों के नजरिये बदलना ताकि वे यह समझ जाएँ कि सुसमाचार प्रचार करना सिर्फ सुसमाचार कार्यकर्ताओं का कर्तव्य नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी जिम्मेदारी है जिससे परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और उसका अनुसरण करने वाले लोगों में से कोई भी जी नहीं चुरा सकता है। यह एक ऐसा सत्य है जिसे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को जरूर हृदयंगम कर लेना चाहिए।) सुसमाचार प्रचार करना हर व्यक्ति की जिम्मेदारी और दायित्व है—यह भी इसका एक पहलू है। क्या तुम लोग इस सत्य के बारे में संगति करने का उद्देश्य जानते हो? इसका उद्देश्य लोगों की समझ में विचलनों को संबोधित करना है। क्या तुम्हें पता है कि किन पहलूओं में विचलन होते हैं? (मुझे नहीं पता।) तुम्हारे नहीं जानने से यह साबित होता है कि तुम लोग सत्य के इस पहलू को नहीं समझते हो। तो, मुझे इस सत्य के बारे में संगति करने की जरूरत क्यों पड़ी? सकारात्मक पक्ष यह है कि यह सत्य का वह एक पहलू है जिसे लोगों को समझना चाहिए। नकारात्मक पक्ष यह है कि यह उन विचलनों को संबोधित करने के लिए है जो सुसमाचार प्रचार करने के बारे में लोगों की समझ में मौजूद हैं।

बहुत से लोगों में सुसमाचार प्रचार करने के इस मामले की समझ में विचलन होते हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि “फिलहाल मैं एक विशेष कर्तव्य कर रहा हूँ, इसलिए सुसमाचार प्रचार करने से मेरा कोई सरोकार नहीं है। इससे मेरा कोई मतलब नहीं है। इसलिए सुसमाचार प्रचार करने के लिए जिन सत्यों, सिद्धांतों और परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझना जरूरी है वे मेरे लिए अप्रासंगिक हैं। मुझे इन चीजों को समझने की जरूरत नहीं है।” इसलिए जब सुसमाचार प्रचार करने के बारे में सत्य के इस पहलू की संगति की जाती है तो वे बेपरवाह रहते हैं, ध्यान से विचार नहीं करते हैं और बिल्कुल ध्यान नहीं देते हैं। अगर वे सुन भी लेते हैं, तो भी उन्हें पता नहीं होता कि किस विषय पर चर्चा की गई है। ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं कि “परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, मैं हमेशा अगुआ बना रहा हूँ। मुझमें काबिलियत और कार्य क्षमता है। मैं अगुआ बनने के लिए ही पैदा हुआ था। ऐसा लगता है मानो परमेश्वर ने मुझे जो कर्तव्य दिया है और मेरे जीवन का जो ध्येय है वह अगुआ बनना है।” निहितार्थ से, उनके कहने का मतलब है कि सुसमाचार प्रचार करने से उनका कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, जब सुसमाचार प्रचार करने के बारे में सत्य पर संगति की जाती है, तो वे इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। पिछली सभा में जिस बारे में संगति की गई थी, उसे संक्षेप में प्रस्तुत करने को कहने पर कुछ लोग बहुत देर तक अपने विवरणों के पन्ने पलटते रहते हैं, पर फिर भी कोई जवाब नहीं दे पाते हैं। ऐसा क्यों होता है? क्या इसकी वजह उनकी कमजोर याददाश्त है? (नहीं।) क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके जीवन में बहुत कुछ चल रहा है और उनके मन तनावग्रस्त हैं? (नहीं।) ऐसा नहीं है। इससे पता चलता है कि सत्य के प्रति लोगों का रवैया उससे विमुख होने का है, सत्य से प्रेम करने का नहीं है। इसलिए, मैं सभी को चेतावनी देता हूँ और सभी को यह बताता हूँ कि सुसमाचार प्रचार करना एक खास तरह के व्यक्ति या लोगों के विशेष समूह की खास जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह हर उस व्यक्ति की जिम्मेदारी है जो परमेश्वर का अनुसरण करता है। लोगों को सुसमाचार प्रचार करने का सत्य क्यों समझना चाहिए? लोगों के लिए ये सत्य जानना क्यों जरूरी है? सृजित प्राणी होने के नाते, परमेश्वर का अनुसरण करने वालों में से एक होने के नाते, चाहे व्यक्ति की उम्र, लिंग कोई भी हो या वह कितना भी जवान या बूढ़ा क्यों न हो, सुसमाचार प्रचार करना एक ऐसा मिशन और जिम्मेदारी है जिसे हर किसी को स्वीकार करना चाहिए। अगर यह ध्येय तुम्हें दिया जाता है और तुमसे खुद को खपाने, कीमत चुकाने या अपने जीवन की आहुति देने की अपेक्षा की जाती है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इसे स्वीकार करने के लिए कर्तव्यबद्ध महसूस करना चाहिए। यही सत्य है, तुम्हें यही बात समझनी चाहिए। यह कोई साधारण धर्म-सिद्धांत नहीं है—यही सत्य है। मैं क्यों कहता हूँ कि यही सत्य है? क्योंकि चाहे समय किसी भी तरह से बदलता रहे, दशक कैसे भी गुजरते रहें या जगहें और खाली स्थान किसी भी तरह से बदलते रहें, सुसमाचार प्रचार करना और परमेश्वर की गवाही देना हमेशा एक सकारात्मक चीज ही होगी। इसका अर्थ और मूल्य कभी नहीं बदलेगा : समय या भौगोलिक स्थान में हुए बदलावों से इस पर बिल्कुल प्रभाव नहीं पड़ेगा। सुसमाचार प्रचार करना और परमेश्वर की गवाही देना शाश्वत है, और सृजित प्राणी होने के नाते तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए और इसका अभ्यास करना चाहिए। यह शाश्वत सत्य है। कुछ लोग कहते है, “सुसमाचार प्रचार करना वह कर्तव्य नहीं है जो मैं निभाता हूँ।” हालाँकि, लोगों को सुसमाचार प्रचार करने से संबंधित इस सत्य को समझना चाहिए, क्योंकि यह दर्शनों से संबंधित सत्य है, और परमेश्वर में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को इसे समझना चाहिए; यह परमेश्वर में आस्था का आधार है और जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद है। इसके अतिरिक्त, कलीसिया में चाहे तुम कोई भी कर्तव्य करते हो, तुम्हें गैर-विश्वासियों के संपर्क में आने के अवसर मिलेंगे और इसलिए उन्हें सुसमाचार सुनाने की जिम्मेदारी तुम्हारी होगी। जैसे ही तुम सुसमाचार प्रचार करने के सत्य को समझ जाओगे, तुम अपने दिल में यह जान लोगे कि “परमेश्वर के नए कार्य का प्रसार करना और मानवता को बचाने के परमेश्वर के कार्य के सुसमाचार का प्रसार करना मेरी जिम्मेदारी है। चाहे जगह या समय कोई भी हो और चाहे मेरी स्थिति या भूमिका कुछ भी हो, अगर मैं एक अभिनेता के रूप में सेवा कर रहा हूँ तो सुसमाचार प्रचार करना मेरा दायित्व बनता है; और अगर मैं अभी एक कलीसियाई अगुआ हूँ तो सुसमाचार प्रचार करने का दायित्व मेरा भी है। मैं अभी चाहे कोई भी कर्तव्य निभा रहा हूँ, राज्य के सुसमाचार का प्रसार करना मेरा दायित्व है। मुझे जब भी कोई अवसर मिले या मेरे पास खाली समय हो, मुझे जाकर सुसमाचार प्रचार करना चाहिए। यह एक ऐसी जिम्मेदारी है जिससे मैं जी नहीं चुरा सकता।” क्या फिलहाल ज्यादातर लोग इसी तरीके से सोचते हैं? (नहीं।) तो फिर ज्यादातर लोग क्या सोचते हैं? “अभी मेरे पास एक निश्चित कर्तव्य है। मैं एक खास पेशे, शिक्षा की एक शाखा की पढ़ाई और गहन अध्ययन कर रहा हूँ, इसलिए सुसमाचार प्रचार करने से मेरा कोई सरोकार नहीं है।” यह किस तरह का रवैया है? यह अपनी जिम्मेदारी और मिशन से बचकर भागने का रवैया है, एक नकारात्मक रवैया है। ये परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखने वाले लोग नहीं हैं, ये परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं। चाहे तुम कोई भी हो, अगर तुम सुसमाचार प्रचार करने की जिम्मेदारी नहीं लेते तो क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि तुममें जमीर और विवेक की कमी है? अगर तुम लोग सक्रिय और रचनात्मक रूप से सहयोग नहीं कर रहे हो, चीजों की जिम्मेदारी स्वीकार नहीं कर रहे हो और समर्पण नहीं कर रहे हो, तो तुम निष्क्रिय और नकारात्मक रूप से, खानापूर्ति कर रहे हो—और यह रवैया अस्वीकार्य है। चाहे तुम कोई भी कर्तव्य करते हो, चाहे इसमें कोई भी पेशा या शिक्षा की शाखा शामिल हो, तुम जो प्राथमिक परिणाम हासिल करते हो उनमें से एक परिणाम मानवता को बचाने में परमेश्वर के कार्य के सुसमाचार की गवाही देने और उसका प्रसार करने की तुम्हारी क्षमता होनी चाहिए। यह सृजित प्राणी से न्यूनतम अपेक्षा है। अगर तुम इस न्यूनतम अपेक्षा को भी पूरा नहीं कर पाए, तो परमेश्वर में विश्वास रखने के इन वर्षों के दौरान अपना कर्तव्य करने से तुमने क्या हासिल किया है? तुमने क्या प्राप्त किया है? क्या तुम परमेश्वर के इरादों को समझते हो? भले ही तुम कई वर्षों से अपना कर्तव्य कर रहे हो और अपने पेशे में माहिर हो गए हो, अगर परमेश्वर की गवाही देने के लिए कहे जाने पर तुम कुछ भी नहीं कह पाए या सत्य के किसी भी पहलू पर संगति नहीं कर पाए, तो फिर यहाँ समस्या क्या है? यहाँ समस्या यह है कि तुम सत्य को समझते ही नहीं हो। यह कहना कुछ लोगों को अनुचित लग सकता है कि वे सत्य को नहीं समझते हैं। शायद उन्हें लगता हो कि उन्होंने प्रभावी रूप से अपना कर्तव्य किया है, लेकिन दरअसल वे परमेश्वर के कार्य के दर्शन और मानवता को बचाने के लिए उसके इरादों को नहीं समझते हैं। क्या यह सत्य को समझने के समान है? कम-से-कम तुमने परमेश्वर में अपने विश्वास के लिए सच्चे मार्ग में कोई नींव स्थापित नहीं की है। तुम परमेश्वर के कार्य और मानवता के लिए उसके उद्धार के सुसमाचार का प्रसार करने का कोई बोझ नहीं उठाते हो, और तुममें किसी भी तरह की अंतर्दृष्टि, समझ या बोध बिल्कुल नहीं है। तो फिर क्या तुम्हें वाकई परमेश्वर का अनुसरण करने वाला व्यक्ति माना जा सकता है? क्या तुमने परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित किया है? अगर तुमने इनमें से एक भी चीज हासिल नहीं की है, तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता नहीं है।

अब, चलो उस विषय पर लौटते हैं जिस पर हम इससे पहले चर्चा कर रहे थे। सुसमाचार प्रचार करना परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों की जिम्मेदारी और दायित्व है। सत्य के इस पहलू पर चर्चा कर लेने के बाद, अब बताओ कि वह कौन सा मद है जिसे सभी को समझना चाहिए? चाहे कोई व्यक्ति कीमत चुकाता हो, परमेश्वर के लिए खुद को खपाने हेतु अपने परिवार और कार्य का त्याग करता हो या अपना जीवन भी अर्पित कर देता हो, दरअसल ये सभी सतही चीजें हैं। आखिर में परमेश्वर लोगों से क्या अपेक्षा करता है? होता यह है कि जैसे-जैसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ता है और तुम्हारा जीवन परिपक्व होता है, समय गुजरने के साथ, तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के कार्य और मानवता को बचाने में उसके इरादे के बारे में अलग-अलग सत्यों को समझना शुरू कर देते हो। सुसमाचार प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने की तुम्हारी जिम्मेदारी तेजी से स्पष्ट होने लगती है और इस कर्तव्य को निभाने का तुम्हारा दृढ़ निश्चय और मजबूत हो जाता है। अगर कोई कलीसियाई अगुआ बहुत वर्षों से काम कर रहा है, लेकिन जैसे-जैसे कलीसिया की अगुवाई करने के उसके वर्ष बीतने लगते हैं, उसका जोश कम होने लगता है, वह पहले जैसा प्रेरित नहीं होता है और वह सुसमाचार प्रचार करने का बोझ कम लेता है तो वह अपना कर्तव्य कितनी अच्छी तरह से करता है? (अच्छी तरह से नहीं करता है।) क्यों? इसमें क्या समस्या सामने आती है? अगर वह ऐसी स्थिति में विकसित होता है या जीता है, तो कम-से-कम एक बात तो तय है : इस व्यक्ति ने इन वर्षों के दौरान न तो सत्य का अनुसरण किया है और न ही कोई वास्तविक कार्य किया है। वह बड़े लाल अजगर के नौकरशाही वर्ग की तरह है। फलस्वरूप, उसके पास परमेश्वर के नाम की घोषणा करने और उसके कार्य की गवाही देने की कोई जिम्मेदारी या अंतर्दृष्टि नहीं है। क्या यही परिणाम नहीं है? (हाँ।) यह अनिवार्य परिणाम है। चाहे यह व्यक्ति कितने भी वर्षों से काम कर रहा हो, भले ही वह सोचता हो कि उसका आध्यात्मिक कद बड़ा है, यह कि वह परमेश्वर की जिम्मेदारी का ध्यान रख सकता है और परमेश्वर के इरादों के अनुसार सेवा कर सकता है, फिर भी जब सुसमाचार प्रचार करने की बात आती है तो वह पीछे हट जाता है, उसे नहीं पता होता है कि इसे कैसे करना है। जब उसका सामना ऐसे लोगों से होता है जो परमेश्वर के प्रकटन के लिए इच्छुक हैं और सच्चे मार्ग को खोजने और उसकी जाँच-पड़ताल करने के लिए आते हैं, तो उसकी जुबान पर ताला पड़ जाता है। वह एक शब्द भी नहीं बोल पाता और नहीं जानता कि शुरुआत कहाँ से करनी है। यहाँ क्या समस्या है? यहाँ समस्या यह है कि वह सत्य को नहीं समझता है और उसने सत्य को प्राप्त नहीं किया है, इसलिए वह परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकता है। केवल वही लोग जो सत्य को समझते हैं, परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं। सुसमाचार प्रचार करना और परमेश्वर की गवाही देना तुम्हारे कर्तव्यों के दायरे में आता है। अगर तुम सत्य को समझते हो, अगर तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है तो सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल करने वाले लोगों से मिलने पर तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ क्यों नहीं होगा? क्या यह कोई समस्या नहीं है? क्या तुम अक्सर खुद को ऐसी स्थितियों में पाते हो? (हाँ।) यहाँ क्या समस्या है? तुम पर कोई जिम्मेदारी नहीं है। क्या जिम्मेदारी न होना कोई समस्या है? क्या तुम बिना जिम्मेदारी के अपना कर्तव्य कर सकते हो? अगर तुम अपना कर्तव्य करते भी हो, तो क्या उसे वफादारी से कर सकते हो? क्या तुम इसे इस तरह कर सकते हो जो मानक स्तर का हो? जबकि बोझ न लेना कोई घातक समस्या नहीं हो सकती, फिर भी यह एक गंभीर समस्या है, क्योंकि इससे यह बात प्रभावित होती है कि तुम अपना कर्तव्य कितनी अच्छी तरह से करते हो। क्या इस समस्या को हल करना जरूरी नहीं है? (बिल्कुल है।) तो, तुम इसे कैसे हल करोगे? तुम्हें सुसमाचार प्रचार करने के बारे में अपने गलत नजरियों को उलटना होगा और इसके सत्य को समझना होगा। वे सभी कार्य जिनमें तुम फिलहाल शामिल हो, उनका सुसमाचार प्रचार करने से सीधा संबंध है और वे सुसमाचार प्रचार करने के दायरे में आते हैं। इनका लक्ष्य परमेश्वर की गवाही देना, सुसमाचार कार्य को फैलाना, परमेश्वर के नाम के बारे में गवाही देना और मानवता को बचाने के परमेश्वर के कार्य के इस सुसमाचार का प्रसार करना है, ताकि ज्यादा लोग इसके बारे में जानें और ज्यादा लोग परमेश्वर के सामने आएँ, परमेश्वर की विजय को स्वीकार करें, परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करें और आखिर में, अगर वे परमेश्वर की पूर्णता प्राप्त करने के लिए पर्याप्त रूप से भाग्यशाली हों—तो यह और भी बेहतर है। परमेश्वर के सामने ज्यादा लोगों के आने का क्या मतलब है और इससे अंतिम परिणाम के रूप में क्या हासिल होना चाहिए? (ज्यादा लोगों को परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कराया जाए।) यह लक्ष्य क्यों हासिल किया जाना चाहिए? क्योंकि यह परमेश्वर का इरादा है। यही वजह है कि हम अथक रूप से इन सत्यों को समझाते हैं। अगर इसका परमेश्वर के इरादे से कोई सरोकार न होता, तो इन चीजों के बारे में बात करना व्यर्थ और खोखला होता। क्योंकि यह परमेश्वर का इरादा है, हम इसे स्पष्ट करते हैं और इसे समझने में सबकी मदद करते हैं, ताकि वे जान जाएँ कि यही सत्य है और सभी को सुसमाचार प्रचार करने के इस सत्य में प्रयास झोंकना चाहिए, ताकि हर व्यक्ति के पास इस तरह की अंतर्दृष्टि हो और वह इस तरह की जिम्मेदारी को विकसित कर सके।

अगला सवाल यह है कि क्यों हमें और ज्यादा लोगों को परमेश्वर का इरादा समझने देना चाहिए ताकि वे सुसमाचार प्रचार कर सकें और अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकें? इसे क्यों करना चाहिए? कुछ लोग कह सकते हैं, “परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले, इसलिए हमें ज्यादा लोगों को परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने देना चाहिए।” यह कथन सही है, लेकिन यह सवाल का मूलभूत जवाब नहीं है। तो, इस सवाल का मूलभूत जवाब क्या है? क्या तुम लोगों को मालूम है? (परमेश्वर उन लोगों का समूह प्राप्त करना चाहता है जो परमेश्वर के साथ एक दिल और एक मन के हैं।) परमेश्वर उन लोगों का समूह प्राप्त करना चाहता है जो परमेश्वर के साथ एक दिल और एक मन के हैं और इसे सुसमाचार फैलाकर प्राप्त किया जाना चाहिए। अभी हम जो बात कर रहे हैं वह व्यापक रूप से सुसमाचार प्रचार करने के बारे में है। क्या व्यापक रूप से सुसमाचार प्रचार करने और लोगों का एक समूह प्राप्त करने के बीच कोई फर्क है? (हाँ।) तो फिर, व्यापक रूप से सुसमाचार प्रचार करने का क्या उद्देश्य है? (जितने लोगों को बचा सकें उतने लोगों को बचाना।) जितने लोगों को बचा सकें उतने लोगों को बचाना परमेश्वर के उद्धार का सिद्धांत तो है, लेकिन इस सवाल का जवाब नहीं है। इस कार्य की शुरुआत से मैंने बार-बार इस बारे में बात की है कि कैसे इस बार परमेश्वर का आगमन एक युग का उद्घाटन करने, एक नया युग लाने और पुराने युग को समाप्त करने हेतु कार्य करने के लिए हुआ है—राज्य का युग लाने और अनुग्रह का युग समाप्त करने के लिए हुआ है। अंतिम दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने वाले सभी लोगों ने इस तथ्य को देखा है। परमेश्वर नया कार्य करता रहा है, मानवता के साथ न्याय करने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है और मानवता को शुद्ध कर रहा है और उसे बचा रहा है। राज्य का सुसमाचार कई देशों में फैलना शुरू हो गया है। यह मानवता पहले से ही व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग से निकल चुकी है। अब वे बाइबल नहीं पढ़ते हैं, अब वे क्रूस के नीचे नहीं जीते हैं और अब वे उद्धारकर्ता यीशु का नाम नहीं पुकारते हैं। इसके बजाय, वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम पर प्रार्थना करते हैं और इसके साथ ही, परमेश्वर के मौजूदा वचनों को अपने जीवन में जीवित रहने के सिद्धांतों, तरीकों और लक्ष्यों के रूप में स्वीकार करते हैं। इस अभिप्राय से, क्या ये लोग पहले से ही एक नये युग में प्रवेश नहीं कर चुके हैं? (बिल्कुल।) वे एक नए युग में प्रवेश कर चुके हैं। तो, वह कौन-सा युग है जिसमें अंतिम दिनों में सुसमाचार और परमेश्वर के नए वचनों को स्वीकार नहीं करने वाले इससे भी ज्यादा लोग अब भी जी रहे हैं? वे अब भी अनुग्रह के युग में जी रहे हैं। अब, तुम लोगों की क्या जिम्मेदारी बनती है? यह कि तुम उन्हें अनुग्रह के युग से निकालकर नए युग में ले जाओ। क्या तुम लोग सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करके और उसका नाम पुकारकर परमेश्वर का आदेश पूरा कर सकते हो? क्या सिर्फ परमेश्वर के कुछ वचनों का प्रचार करना ही काफी है? यकीनन नहीं है। इसके लिए तुम सभी को सुसमाचार प्रचार करने के इस आदेश को स्वीकारने, परमेश्वर के वचनों को व्यापक रूप से प्रसारित करने, परमेश्वर के वचनों का प्रसार विभिन्न तरीकों से करने और राज्य के सुसमाचार का प्रसार करने और इसे फैलाने का बोझ उठाने की जरूरत है। फैलाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है परमेश्वर के वचनों को उन लोगों तक पहुँचाना जिन्होंने अंतिम दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार नहीं किया है, ज्यादा लोगों को यह बताना कि परमेश्वर नया कार्य करता रहा है और फिर उन्हें परमेश्वर के वचनों के बारे में गवाही देना, परमेश्वर के कार्य के बारे में गवाही देने के लिए अपने अनुभवों का उपयोग करना और उन्हें भी नए युग में ले जाना—इस तरह वे भी बस तुम लोगों की तरह नए युग में प्रवेश करेंगे। परमेश्वर का इरादा स्पष्ट है। नए युग में प्रवेश करना सिर्फ तुम्हारे लिए नहीं है जिन्होंने उसके वचनों को सुना है, उन्हें स्वीकार किया है और उसका अनुसरण किया है, बल्कि वह पूरी मानवता को इस नए युग में जाने का मार्ग दिखाएगा। यह परमेश्वर का इरादा है और एक ऐसा सत्य है जिसे अब परमेश्वर का अनुसरण करने वाले हर व्यक्ति को समझना चाहिए। परमेश्वर लोगों के एक समूह, एक छोटे गुट या एक छोटे जातीय समूह को नए युग में जाने का मार्ग नहीं दिखा रहा है; बल्कि, उसका इरादा संपूर्ण मानवता को इस नए युग में ले जाने का है। इस लक्ष्य को कैसे हासिल किया जा सकता है? (व्यापक रूप से सुसमाचार प्रचार कर।) सचमुच, इस लक्ष्य को व्यापक रूप से सुसमाचार प्रचार कर, व्यापक रूप से सुसमाचार प्रचार के तरीकों और मार्गों का उपयोग कर हासिल करना होगा। व्यापक रूप से सुसमाचार प्रचार करने के बारे में बात करना आसान है, लेकिन इसे खास तौर से कैसे किया जाना चाहिए? (इसके लिए मानव सहयोग की जरूरत होती है।) हाँ बिल्कुल, इसके लिए मानव सहयोग की जरूरत होती है। अगर लोग हमेशा अपने दिलों में कुछ पुरानी चीजों से चिपके रहते हैं, हमेशा कुछ विकृत वस्तुओं को पालते हैं, पुराने विनियमों और अभ्यासों को पकड़कर रखते हैं, लेकिन सुसमाचार के कार्य को गंभीरता से नहीं लेते और सुसमाचार के कार्य को अपने लिए व्यर्थ मानते हुए परमेश्वर के आदेश को स्वीकार नहीं करते हैं, तो क्या परमेश्वर द्वारा ऐसे लोगों को उन्नत किया और उनका उपयोग किया जा सकता है? क्या उनमें परमेश्वर के सामने जीने की योग्यताएँ हो सकती हैं? क्या उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिल सकती है? बिल्कुल नहीं। इसलिए, मुझे तुम लोगों के सोचने के तरीके के बारे में तुम्हें परामर्श देना होगा, ऐसे किसी भी तत्व पर ध्यान देना होगा जिन्हें तुम नहीं समझते हो और जब तक तुम सुसंगत सत्यों को हृदयंगम नहीं कर लेते, तब तक मुझे उन्हें अथक रूप से समझाते रहना होगा। चाहे तुम कितने भी जड़ और मंद-बुद्धि क्यों न हो, मुझे तुमसे बातें करते रहना होगा और तुम्हें समझाते रहना होगा कि यह परमेश्वर का इरादा है, इस कर्तव्य को तुम्हें जरूर पूरा करना पड़ेगा और इस जीवनकाल में यह तुम्हारा ध्येय और दायित्व है। अगर तुम मेरी बातों पर ध्यान नहीं देते या उन्हें नहीं समझ पाते, तो मुझे बोलना जारी रखना होगा। चाहे तुम इससे तंग आ जाओ, फिर भी मुझे तब तक बोलना जारी रखना होगा जब तक तुम सत्य को नहीं समझ लेते। सत्य क्या है? परमेश्वर जो व्यक्त करता है वही सत्य है; यह परमेश्वर के इरादे, मानवता से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और वह सत्य वास्तविकता है जो नए युग के लोगों के पास जरूर होनी चाहिए। लोगों को परमेश्वर के इरादों के साथ कैसे पेश आना चाहिए? उन्हें निस्संदेह रूप से और पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों को स्वीकार करना चाहिए, फिर खुद को समर्पित करके सहयोग करना चाहिए, जिससे कि परमेश्वर के इरादे संतुष्ट हो जाएँ। यह व्यक्ति का दायित्व है। जब मैं इसे इस तरह से कहता हूँ, तो क्या तुम लोगों को समझ आता है? हो सकता है कुछ लोग कहें कि “ओह, परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग उसके आदेश को स्वीकार करें, लेकिन इससे हम जैसे तुच्छ व्यक्तियों का क्या लेना-देना है?” क्या तुम्हें लगता है कि इसका उनसे कोई लेना-देना है? (बिल्कुल है।) इसका उनसे क्या लेना-देना है? मैं तुम्हें समझाता हूँ। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और इंसान उसके सृजित प्राणी हैं। “सृजन करना” और “सृजित” के बीच क्या संबंध है? यह कार्य करने और जिस पर कार्य किया जा रहा है उसके बीच का, सृजन करने और जो सृजित हो रहा है उसके बीच का संबंध है। चूँकि सृष्टिकर्ता के इरादे तुम लोगों को बता दिए गए हैं, तो तुम्हें किस रवैये से प्रतिक्रिया देनी चाहिए? (मुझे उन्हें स्वीकार करना चाहिए और अपनी पूरी ताकत से सहयोग करना चाहिए।) बिल्कुल सही, तुम्हें अपनी पूरी ताकत से सहयोग करते हुए उनके आगे समर्पण कर उन्हें स्वीकार करना चाहिए, चाहे इसके लिए तुम्हें कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। क्या इस सहयोग में सत्य को खोजना शामिल है? क्या इसमें सत्य को समझना शामिल है? इसमें दोनों बातें शामिल हैं। चूँकि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं और आदेश को समझते हो, ये तुम्हारे ध्येय से संबंधित हैं, ये तुम्हारे कर्तव्य हैं—चूँकि तुम इस बात को जानते हो, इसलिए तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए। जिस व्यक्ति में जमीर और विवेक है, उसे यही करना चाहिए। अगर तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाएँ और आदेश मालूम हैं, फिर भी तुम उन्हें स्वीकार नहीं कर पा रहे हो, तो इसका मतलब है कि तुम्हारे पास जमीर और विवेक दोनों ही नहीं हैं और तुम इंसान कहलाने के लायक नहीं हो। हो सकता है कुछ लोगों को यह बात अब भी समझ नहीं आए और वे सोचें कि “परमेश्वर के इरादों से हमारा क्या लेना-देना है?” अगर परमेश्वर के इरादों से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है, तो इसका मतलब है कि तुम परमेश्वर के अनुयायी या परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं हो। मिसाल के तौर पर, तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया है और कई वर्षों तक तुम्हारी परवरिश की है; तुमने उनका दिया खाना खाया है, तुम उनके घर में रहे हो और तुमने उनके पैसे खर्च किए हैं। लेकिन जब घर में कोई समस्या होती है और तुम कहते हो कि तुम्हारा इससे कोई सरोकार नहीं है, तुम इसे नजरअंदाज कर देते हो और बस भाग जाते हो, तो तुम किस तरह के कमीने इंसान हो? यह कहना कि तुम बाहर वाले हो सुनने में अच्छा लगता है; लेकिन सच तो यह है कि तुम एक विद्रोही कमीने, इंसान के भेष में दरिंदे और एक जानवर से भी निचले स्तर के हो। तुम लोगों को परमेश्वर का इरादा साफ-साफ बता दिया गया है, और परमेश्वर कहता है, “तुम लोगों ने कार्य के इस चरण को स्वीकार कर लिया है और मैं पहले से ही तुम लोगों को ये वचन दे चुका हूँ ताकि पहले तुम उन्हें सुन सको और तुमने उन्हें सुन लिया है, समझ लिया है और आत्मसात कर लिया है। अब, मैं तुम्हें अपना इरादा और तुमसे अपनी अपेक्षा भी बताऊँगा। तुम्हें मेरे कार्य, मेरे वचनों और उन चीजों का प्रसार करना चाहिए जिन्हें मैं संपूर्ण मानवता को अपनी वाणी सुनने देने के लिए पूरा करने जा रहा हूँ; तुम्हें मेरे राज्य का सुसमाचार फैलाना चाहिए ताकि संपूर्ण मानवता जल्दी से परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर सके और राज्य के युग में प्रवेश कर सके। यह परमेश्वर का इरादा और अपेक्षा है।” यह सुनकर तुम्हें किस तरह से विचार करना चाहिए? तुम्हारा रवैया किस तरह का होना चाहिए? तुम्हें किस तरीके से चुनाव करना चाहिए? तुम्हें वह कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए जो एक सृजित प्राणी को निभाना चाहिए? कुछ लोगों को महसूस हो सकता है कि यह बोझ भारी है, लेकिन सिर्फ महसूस करना ही अपने आप में काफी नहीं है; तुम्हें कर्म करने और सच्ची समझ की जरूरत है। तुम्हें परमेश्वर से ऐसे प्रार्थना करनी चाहिए : “हे परमेश्वर, तुमने मुझे सुसमाचार प्रचार की जिम्मेदारी सौंपी है—यह तुम्हारा उन्नयन है। हालाँकि मैं सत्य को बहुत ही कम समझता हूँ, फिर भी उस आदेश को पूरा करने के लिए मैं अपना भरसक प्रयास करने के लिए तैयार हूँ। मैंने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं और कुछ सत्यों को समझा है—यह सब कुछ तुम्हारा आशीष है और अब मेरी यह जिम्मेदारी है कि मैं परमेश्वर के वचनों और कार्य की गवाही दूँ ताकि इस आदेश को पूरा कर सकूँ।” यह बात सही है; जब लोगों के पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल होता है, तो परमेश्वर उनका मार्गदर्शन करता है। परमेश्वर ने पहले ही लोगों को साफ-साफ बता दिया है और कहा है कि परमेश्वर के सुसमाचार का प्रसार करना एक दायित्व और जिम्मेदारी है जिससे कोई भी नहीं बच सकता है। यह जीवन भर का कर्तव्य है, हर सृजित प्राणी का कर्तव्य है। क्या इन वचनों में परमेश्वर का कोई आदेश निहित है? क्या इनमें उसका सत्योपदेश निहित है? (हाँ, इनमें है।) क्या इनमें परमेश्वर का इरादा निहित है? (हाँ।) क्या इनमें ऐसे सत्य हैं जिन्हें लोगों को समझना चाहिए? (हाँ।) क्या इनमें अभ्यास के ऐसे सिद्धांत और मार्ग हैं जिनका कोई पालन कर सकता है? (हाँ।) मैंने कुल कितनी बातों का जिक्र किया? (चार बातों का : पहली बात परमेश्वर की आज्ञा और सत्योपदेश है। दूसरी बात परमेश्वर का इरादा है। तीसरी बात वे सत्य हैं जिन्हें हमें समझना चाहिए। चौथी बात अभ्यास के वे सिद्धांत और मार्ग हैं जिनका व्यक्ति को पालन करना चाहिए।) सही है; मैंने कुल मिलाकर यही चार बातें बताई हैं। इसके बाद चलो हर बात की खास सामग्री के बारे में संगति करें।

पहली मद परमेश्वर का आदेश है। परमेश्वर का आदेश क्या है? (राज्य के सुसमाचार का प्रसार करना।) यह व्यापक रूप से राज्य के सुसमाचार का प्रचार करना है। दूसरी मद परमेश्वर का इरादा है। परमेश्वर का इरादा क्या है? यह ज्यादा लोगों को यह बताना है कि परमेश्वर का आगमन पहले ही हो चुका है, वह नया कार्य कर रहा है और यह कि परमेश्वर इस युग को बदलने, पुराने युग को समाप्त करने और मानवता का मार्गदर्शन करके उसे एक नए युग में ले जाने का इरादा रखता है। यही परमेश्वर का इरादा है, है कि नहीं? क्या यह कह सकते हैं कि परमेश्वर का इरादा सुसमाचार फैलाना है? यह इतना सरल नहीं है। सुसमाचार फैलाने का एक अंतिम उद्देश्य और नतीजा होता है—वह क्या होना चाहिए? (ज्यादा लोगों को यह बताना है कि परमेश्वर का आगमन पहले ही हो चुका है, वह नया कार्य कर रहा है और वह पुराने युग को समाप्त करने और संपूर्ण मानवता का मार्गदर्शन करके उसे एक नए युग में ले जाने का इरादा रखता है।) सही कहा, संपूर्ण मानवता का मार्गदर्शन करके उसे एक नए युग में ले जाना। मानवता पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? मानवता एक नए युग में प्रवेश करती है; यह युग परिवर्तित हो जाता है। तो, परमेश्वर का इरादा क्या है? कृपया इसे दोहराएँ। (परमेश्वर इस युग को बदलने, पुराने युग को समाप्त करने और संपूर्ण मानवता का मार्गदर्शन करके उसे एक नए युग में ले जाने का इरादा रखता है।) तुम इनमें से कुछ भी नहीं छोड़ सकते हो—क्या तुमने यह सबकुछ लिख लिया है? (हाँ।) तीसरी मद वह सत्य है जिसे लोगों को समझना चाहिए। यह सत्य क्या होना चाहिए? (सुसमाचार प्रचार करना हर सृजित प्राणी का कर्तव्य और जिम्मेदारी है।) यही सत्य है। इस सत्य के भीतर लोगों को सुसमाचार प्रचार करने के कर्तव्य को स्वीकार करना चाहिए और फिर इस कथन के भीतर अभ्यास के सिद्धांतों और मार्गों को खोजना चाहिए। यही कथन लोगों के लिए सत्य है। यह कथन क्या है? (सुसमाचार प्रचार करना हर सृजित प्राणी का कर्तव्य और जिम्मेदारी है।) यही कर्तव्य और ध्येय होना चाहिए। तुम कर्तव्य और ध्येय को कैसे समझ सकते हो? कर्तव्य वह जिम्मेदारी है जिसे व्यक्ति को निभाना चाहिए और जो जिम्मेदारी व्यक्ति को निभानी चाहिए वह उसका कर्तव्य भी है। लेकिन ध्येय अलग चीज है; ध्येय जिम्मेदारी से बड़ा, ज्यादा उपयुक्त, ज्यादा गहरे अर्थ वाला और ज्यादा वजनदार होता है। क्या तुम लोगों ने इसे लिख लिया है? (हाँ।) अब, मैंने एक चीज देखी है; हम जिन सभी सामग्रियों पर चर्चा कर रहे हैं उन्हें तुम्हें पहले लिखित में दर्ज करना होगा, उसके बाद ही तुम लोगों को उनके बारे में कोई अंदाजा हो सकेगा। अगर तुम उन्हें नहीं लिखोगे और बस ऐसे ही सुनते रहोगे, तो इससे तुम्हारे मन में इसकी हल्की-सी छाप तक नहीं पड़ेगी। इससे क्या पता चलता है? इससे पता चलता है कि लोग सत्य को नहीं समझते हैं; वे धर्म-सिद्धांत के थोड़े से हिस्से को ही समझ पाते हैं और वे सत्य की परिभाषा, विचार और रूपरेखा को थोड़ा-सा जान पाते हैं। जब इन सत्यों के खास विवरणों की बात आती है, तो उनका अभ्यास करने और उन्हें लागू करने के तरीके के बारे में वे बिल्कुल अनजान होते हैं, है कि नहीं? तुममें से ज्यादातर लोगों के लिए दो या तीन घंटों तक धर्म-सिद्धांत के बारे में बात करना मुश्किल नहीं होता है, लेकिन जब तुम्हारे द्वारा अनुभव किए गए और समझे गए अभ्यास के सिद्धांतों और मार्गों का उपयोग करके स्थितियों को ठीक करने के लिए सत्य को लागू करने की बात आती है—तो वह कार्य मुश्किल होता है। तो यहाँ क्या समस्या है? सत्य को नहीं समझना, क्या यह बात सही नहीं है? चलो, अब चौथे मद की तरफ बढ़ें। चौथा मद क्या है? (अभ्यास के वे सिद्धांत और मार्ग जिनका व्यक्ति को पालन करना चाहिए।) ये सिद्धांत और मार्ग कैसे निर्धारित किए जाते हैं? ये दो चीजों के आधार पर निर्धारित किए जाते हैं : पहली चीज परमेश्वर का इरादा है और दूसरी चीज सत्य है। ये दो ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को जरूर समझना चाहिए। मिसाल के तौर पर, अगर तुम्हें सुसमाचार प्रचार करने के लिए कहा जाता है और तुम इसे करने के अनिच्छुक हो, लेकिन परमेश्वर कहता है कि सुसमाचार प्रचार करना उसका इरादा है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हारे अभ्यास के सिद्धांत क्या होने चाहिए? तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए? तुम्हें इनकार किए बिना, विश्लेषण या पड़ताल किए बिना, कोई कारण पूछे बिना इसके आगे समर्पण कर इसे पूरी तरह से स्वीकार कर लेना चाहिए। यह सच्चा समर्पण है। यह एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जिसका सत्य का अभ्यास करते समय जरूर पालन करना चाहिए। जब हम परिभाषित करने के तरीके से परमेश्वर के इरादे के बारे में बात करते हैं, तो आम तौर पर यह किस बारे में होता है? परमेश्वर का इरादा दरअसल परमेश्वर की इच्छा, उद्देश्य, स्रोत और उसके क्रियाकलापों के लिए शुरुआती बिंदु है। आध्यात्मिक दृष्टि से, इसे परमेश्वर का “इरादा” या “दर्शन” कहा जाता है। जब परमेश्वर तुम्हारे सामने अपना इरादा प्रकट करता है, तो वह तुम्हें एक सामान्य दिशा देता है, जिससे तुम्हें मालूम हो जाता है कि वह क्या करने का इरादा रखता है। हालाँकि, अगर परमेश्वर ब्यौरे या सिद्धांत प्रदान न करे, तो क्या तुम्हें अभ्यास करने के सटीक मार्ग और दिशा का पता होगा? तुम्हें नहीं होगा। यही वजह है कि जब मैं लोगों से कुछ करने के लिए कहता हूँ, तो जिन लोगों में अच्छे फैसले करने की क्षमता है, जिनके पास दिल और आत्मा है, वे इसे स्वीकार करने के बाद तुरंत विवरण और इसे खास तौर पर कैसे करना है इसका तरीका खोजते हैं। जिन लोगों में अच्छे फैसले करने की क्षमता नहीं हैं, जिनके पास दिल और आत्मा नहीं है, वे सोच सकते हैं कि यह तो आसान कार्य है और ज्यादा विवरण का इंतजार किए बिना तुरंत क्रियाकलाप में लग सकते हैं। अच्छे फैसले करने की क्षमता न होना और किसी कार्य को आँख मूँदकर करने का यही मतलब है। जब तुम्हें परमेश्वर से कोई आदेश मिलता है और तुम अपना कर्तव्य निभाने और अपना ध्येय पूरा करने का लक्ष्य रखते हो, तो तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के इरादे को समझना चाहिए। तुम्हें यह जानने की जरूरत है कि यह आदेश परमेश्वर की तरफ से आता है और यह उसका इरादा है और तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए, इस पर ध्यान देना चाहिए और इससे भी जरूरी यह है कि तुम्हें इसके आगे समर्पण कर देना चाहिए। दूसरे, तुम्हें यह पता लगाना चाहिए कि इस कर्तव्य को करने के लिए तुम्हें किन सत्यों को समझने की जरूरत है, तुम्हें किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और तुम्हें ऐसे किस तरीके से अभ्यास करना चाहिए जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों और परमेश्वर के घर के कार्य को फायदा हो। ये अभ्यास के सिद्धांत हैं। परमेश्वर के इरादे को समझने के बाद, तुम्हें इस कर्तव्य को करने से संबंधित सत्य को तुरंत खोजना और समझना चाहिए और सत्य को समझने के बाद, इन सत्यों का अभ्यास करने के सिद्धांतों और मार्ग को सुनिश्चित करना चाहिए। “सिद्धांत” का क्या मतलब है? खासतौर से, सिद्धांत किसी ऐसी चीज के बारे में होता है जिस पर सत्य का अभ्यास करते समय लक्ष्य प्राप्त करना या नतीजे उत्पन्न करना आधारित होना चाहिए। मिसाल के तौर पर, अगर तुम्हें कोई सामान खरीदने का कार्य दिया गया है, तो अभ्यास के खास सिद्धांत क्या हैं? सबसे पहले, तुम्हें खरीदे जाने वाले सामान के विशेष विवरणों और मॉडल को, इसे किन गुणवत्ता मानकों को पूरा करना चाहिए इस बात को, और क्या बताई गई कीमत उपयुक्त है इसे समझने की जरूरत है। खोजने की प्रक्रिया में तुम्हें अभ्यास के खास सिद्धांतों के बारे में स्पष्टता हासिल होगी। ये सिद्धांत तुम्हें एक पैमाना और एक सीमा प्रदान करते हैं—जब तक तुम इस सीमा में बने रहोगे, तब तक तुम ठीक रहोगे। जब तुम सामान के विशेष विवरणों, गुणवत्ता और कीमत के बारे में आधारभूत सिद्धांतों को समझ लेते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम इस कार्य के लिए अपेक्षित मानकों को समझ गए हो। इसका मतलब है कि तुमने वास्तव में अभ्यास करना सीख लिया है। सत्य का अभ्यास करने के लिए सिद्धांतों को समझना जरूरी है : सिद्धांत कुंजी हैं, सबसे आधारभूत तत्व हैं। जब तुम अपना कर्तव्य करने के मूल सिद्धांतों को समझ लेते हो, तो इससे पता चलता है कि तुम उस कर्तव्य को करने के अपेक्षित मानकों को समझते हो। इन सिद्धांतों में माहिर होना यह जानने के समान है कि सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए। तो, अभ्यास करने की यह क्षमता किस आधार पर स्थापित हुई है? यह परमेश्वर के इरादे और सत्य को समझने की नींव पर आधारित है। अगर तुम परमेश्वर की अपेक्षा क्या है इसका सिर्फ एक वाक्य जानते हो, तो क्या इसे सत्य को समझना माना जाता है? नहीं, इसे नहीं माना जाता है। सत्य को समझना माने जाने के लिए किन मानकों पर खरा उतरना जरूरी है? तुम्हें अपना कर्तव्य करने के मायने और मूल्य को समझना चाहिए और जब ये दो पहलू तुम्हारे लिए स्पष्ट हो जाते हैं, तो इसका मतलब है कि तुम अपने कर्तव्य को करने के सत्य को समझ गए हो। इसके अलावा, सत्य को समझ लेने के बाद, तुम्हें अपने कर्तव्य को करने के सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों को भी समझना चाहिए। जब तुम अपना कर्तव्य करने के सिद्धांतों को समझकर उन्हें लागू कर पाते हो और कभी-कभी थोड़ी-सी समझदारी का भी उपयोग करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य करने की प्रभावशीलता को सुनिश्चित कर सकते हो। इन सिद्धांतों को समझकर और उनके अनुसार क्रियाकलाप करके तुम सत्य का अभ्यास करने के स्तर तक पहुँच सकते हो। अगर तुम अपना कर्तव्य किसी मानवीय इरादे को मिलाए बिना करते हो, अगर तुम इसे पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति समर्पण करके और परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्था के अनुसार, परमेश्वर के वचनों से पूरी तरह से एकमत होते हुए करते हो तो फिर तुमने अपना कर्तव्य पूरी तरह से मानक स्तर पर पूरा कर लिया है, और चाहे परमेश्वर की अपेक्षाओं की तुलना में परिणामों में कुछ अंतर मौजूद हों तो भी इसे परमेश्वर की अपेक्षाओं को हासिल करना माना जाता है। अगर तुम पूर्ण रूप से सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य करते हो और अगर तुम अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता तक निष्ठावान हो, तो फिर तुम्हारे कर्तव्य का निर्वहन परमेश्वर के इरादे के साथ पूर्ण रूप से मेल खाता है। तुमने सृजित प्राणी के रूप में अपने पूरे दिल, मन और ताकत से अपना कर्तव्य निभाया है, जो कि सत्य का अभ्यास करके हासिल किया गया परिणाम है। अब, सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों को समझने के लिए, तुम्हें सबसे पहले क्या समझना चाहिए ताकि यह परिणाम हासिल हो जाए? (सबसे पहले, हमें परमेश्वर के इरादे को समझना होगा, और फिर, इनकार किए बिना और पूर्ण रूप से समर्पण करके उसे स्वीकार करना होगा।) लोगों के पास अभ्यास और रवैये के संबंध में यह चीज जरूर होनी चाहिए। इसके बाद हमें क्या समझना चाहिए? तुम्हें सत्य को समझना चाहिए, और सत्य के भीतर मौजूद विवरणों से ही सिद्धांत और मार्ग बने हुए हैं। तुम्हें जिन सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों का पालन करना चाहिए, उन्हें समझने के लिए तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के इरादे को समझना होगा और उसके बाद सत्य को समझना होगा। यही दो मुख्य बिन्दु हैं, और इनमें जो विस्तृत सामग्री निहित है उसी से बाकी सब बने हुए हैं।

पहली श्रेणी, जो सुसमाचार प्रचार करने का अपना कर्तव्य करने वाले लोगों के विषय में है, उसका यहाँ थोड़े समय के लिए समापन किया जाएगा। आज, मैंने थोड़ा और परिशिष्ट के रूप में जोड़ दिया है, जो पिछली बार चर्चा की गई मुख्य विषय वस्तु के लिए अनुस्मारक का कार्य करेगा। इसके साथ ही, यह एक चेतावनी भी है ताकि हर व्यक्ति इस सत्य के महत्व को जान ले, जिससे हर वह कार्य और हर वह कर्तव्य जो तुम अभी कर रहे हो, वह इसी दिशा और लक्ष्य की तरफ उन्मुख हो और इसी नींव पर किया जाए—जो सभी सुसमाचार प्रचार करने से संबंधित हैं। हालाँकि, तुम अग्रिम पंक्ति में रहकर सुसमाचार के संभावित प्राप्तकर्ताओं के साथ बातचीत नहीं कर रहे हो, फिर भी ऐसा कहा जा सकता है कि तुम्हारे द्वारा किए जाने वाले सभी कर्तव्य सुसमाचार कार्य से संबंधित हैं। इस आधार पर, क्या हर व्यक्ति को सुसमाचार प्रचार करने से संबंधित सत्य की ज्यादा स्पष्ट और रोशन समझ नहीं होनी चाहिए? (हाँ।) आज के परिशिष्ट के जरिए, क्या तुम सभी ने सुसमाचार प्रचार करने के कर्तव्य के वजन और महत्व की स्पष्ट समझ हासिल की है? (हाँ।) तो अब, भविष्य में इस सत्य के प्रति तुम्हारा सबसे उपयुक्त और सही रवैया क्या होना चाहिए? सुसमाचार फैलाना परमेश्वर का इरादा है। परमेश्वर इस पुराने युग को समाप्त करने तथा और अधिक लोगों को इस पुराने युग से नए युग में ले जाने और अपने समक्ष लाने का इरादा रखता है। यह परमेश्वर का इरादा है और इसे हर किसी को समझना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “मैं समझता हूँ, लेकिन मैं वह जोश नहीं जुटा सकता हूँ जो सुसमाचार प्रचार करने के लिए जरूरी है और मेरे पास अपनी भूमिका निभाने का दिल नहीं है।” यहाँ क्या मसला है? (मानवता का अभाव।) बिल्कुल सही। तुम अपने आप को सृजित प्राणी और परमेश्वर का अनुयायी मानते हो, लेकिन जब परमेश्वर के उस इरादे की बात आती है जिसके बारे में वह अक्सर सभी को चेतावनी देता है, उसका अविलंब इरादा सभी लोगों को स्पष्ट रूप से समझा दिया गया है, अगर तुम इस पर कोई ध्यान नहीं देते हो और इसकी परवाह नहीं करते हो, तो इससे तुम किस तरह के व्यक्ति बन जाते हो? यह मानवता के अभाव की अभिव्यक्ति है। तुम परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करना चाहते हो और कहते हो कि वह तुम्हारा परमेश्वर और प्रभु है, लेकिन जब परमेश्वर के इरादे की बात आती है, तो तुम कोई लिहाज, जरा-सी भी विचारशीलता नहीं दिखाते हो। यह मानवता का अभाव है और ऐसा व्यक्ति बेरहम होता है। यह विषय यहीं समाप्त होता है।

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