मद पंद्रह : वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे मसीह के सार को नकारते हैं (भाग दो) खंड चार
ग. मसीह-विरोधी मसीह की नम्रता और छिपे होने से कैसे पेश आते हैं
मसीह-विरोधी मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता से कैसे पेश आते हैं, यह कई तरह से अभिव्यक्त होता है और अभी हमने कुछ विशिष्ट उदाहरण उजागर किए हैं। हम इस पहलू पर अपनी संगति यहीं समाप्त करेंगे। मसीह के दूसरे पहलू—उसकी नम्रता और छिपे होने—के बारे में मसीह-विरोधी अभी भी अपना विशिष्ट स्वभाव सार प्रदर्शित करते हैं, और उनमें वही अनिवार्य अभिव्यक्तियाँ और नजरिये होते हैं, जो वे मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता के साथ पेश आने में रखते हैं। वे अभी भी इन चीजों को परमेश्वर से नहीं स्वीकार सकते, या उन्हें सकारात्मक चीजों के रूप में नहीं स्वीकार सकते, इसके बजाय वे उनका तिरस्कार करते हैं, यहाँ तक कि उनका मजाक भी उड़ाते हैं और उनकी निंदा भी करते हैं, और फिर उन्हें नकार देते हैं। यह तीन भागों की शृंखला है : पहले, वे देखते हैं, फिर वे निंदा करते हैं, और अंत में वे नकार देते हैं। ये सब मसीह-विरोधियों की आदतन हरकतें हैं; यह मसीह-विरोधियों के सार द्वारा निर्धारित होता है। नम्रता और छिपा होना क्या है? इसे शाब्दिक रूप से समझना कठिन नहीं होना चाहिए—इसका अर्थ है दिखावा पसंद न करना, अपना प्रदर्शन न करना, अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने से बचना और अज्ञात बने रहना। यह देहधारी परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के अंतर्निहित व्यक्तित्व को छूता है। रूप-रंग के आधार पर लोगों के लिए यह देखना मुश्किल नहीं होना चाहिए : मसीह की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, वह सत्ता हथियाने की कोशिश नहीं करता, उसे सत्ता की कोई इच्छा नहीं है, वह लोगों के दिलों को पिंजरे में बंद नहीं करता, न ही वह उनके मन-मस्तिष्क पढ़ता है; मसीह सरल, साफ, स्पष्ट रूप से बोलता है, बहला-फुसलाकर लोगों के सच्चे विचार जानने के लिए कभी जिज्ञासा भरे शब्द या चालें इस्तेमाल नहीं करता। अगर लोग कुछ कहना चाहते हैं, तो वे कह सकते हैं; अगर नहीं, तो वह उन्हें मजबूर नहीं करता। जब मसीह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और उनकी विभिन्न अवस्थाएँ उजागर करता है, तो वह सीधे बोलता है और स्पष्ट रूप से उन्हें इंगित करता है; इसके अलावा, चीजें सँभालने का मसीह का तरीका बहुत सरल है। जिन लोगों ने मेरे साथ बातचीत की है उनकी मेरे प्रति यह धारणा होनी चाहिए और उन्हें कहना चाहिए, “तुम बहुत सीधे-साधे हो, तुम्हारे पास सांसारिक आचरण की कोई चालें नहीं हैं। तुम्हारे पास दर्जा होने के बावजूद तुम किसी समूह में श्रेष्ठता की भावना महसूस करते प्रतीत नहीं होते।” यह कथन वास्तव में सटीक है; मुझे सुर्खियों में रहना या दूसरों के सामने अपनी प्रसिद्धि बढ़ाना पसंद नहीं है। अगर मेरे पास वाकई यह दर्जा न होता और परमेश्वर ने मेरी गवाही न दी होती तो मेरा अंतर्निहित व्यक्तित्व भीड़ के पीछे रहने का है, मैं खुद को दिखाने की इच्छा नहीं रखता, मेरे पास भले ही कुछ विशेष कौशल हैं मैं नहीं चाहता कि दूसरे लोग यह जानें, क्योंकि अगर लोग जान गए तो वे मेरा पीछा करेंगे, जो परेशानी भरा और सँभालने में मुश्किल है। इसलिए, मैं चाहे जहाँ भी जाऊँ, जैसे ही लोग मेरा पीछा करना शुरू करते हैं, मैं उन्हें भगाने के तरीके ढूँढ़ता हूँ, जब जरूरी हो तो मामलों पर चर्चा करता हूँ और जब जरूरी न हो, तो उन्हें जल्दी से उनके उचित स्थानों पर अपना-अपना काम करने के लिए वापस भेज देता हूँ। भ्रष्ट लोगों के लिए यह अकल्पनीय है, “हम इंसान तुमसे बहुत प्यार करते हैं और तुम्हारा इतना समर्थन करते हैं! हम तुम पर इतने मोहित हैं! तुम हमारा यह स्नेह क्यों नहीं स्वीकारते?” यह क्या बात है? मैंने तुमसे वह कह दिया है जो मुझे कहना चाहिए, तुम्हें वह निर्देश दे दिया है जो मुझे देना चाहिए, इसलिए जाकर वह करो जो तुम्हें करना चाहिए, मेरे इर्द-गिर्द चक्कर मत लगाओ, मुझे यह पसंद नहीं है। अपनी नजर में लोग सोचते हैं, “हे परमेश्वर, इतना बड़ा काम करने के बाद क्या तुम भी अक्सर आत्म-संतुष्ट महसूस नहीं करते? इतने सारे अनुयायियों के साथ क्या तुम भी हमेशा श्रेष्ठ महसूस नहीं करते? क्या तुम हमेशा विशेष व्यवहार का आनंद नहीं लेना चाहते?” मैं कहता हूँ कि मैंने ऐसा कभी महसूस नहीं किया; मैं कभी इतने सारे अनुयायी होने के प्रति सजग नहीं होता, मैं श्रेष्ठ महसूस नहीं करता, और मुझे इस बात की कोई सुध नहीं है कि मेरा दर्जा कितना ऊँचा है। मुझे बताओ, अगर कोई सामान्य व्यक्ति ऐसी स्थिति में होता, तो वह रोजाना कितना खुश होता? क्या उसे सुध होती कि क्या खाना है या क्या पहनना है? क्या वह पूरे दिन हवा में उड़ता न रहता? क्या वह हमेशा यह उम्मीद नहीं करता कि लोग उसके पीछे-पीछे चलें? (हाँ।) विशेष रूप से, जिनके पास कुछ योग्यताएँ होती हैं, वे हमेशा बैठकें आयोजित करने, भाषणों के दौरान ध्यान आकर्षित होने की भावना और तालियों की गड़गड़ाहट का आनंद लेने के तरीके खोज लेते हैं, सोचते हैं कि यह मांस खाने और शराब पीने के आनंद से बढ़कर है। मुझे आश्चर्य है कि मुझे ऐसा क्यों नहीं लगता? मुझे ऐसा क्यों नहीं लगता कि यह अच्छा है? मैं उस भावना को पसंद क्यों नहीं करता? संगीत की दुनिया में, जिनके पास जरा-सी क्षमता है, खासकर जो नाच-गा सकते हैं, वे देवी, देवता, संगीत-सम्राट, संगीत-साम्राज्ञी, यहाँ तक कि पिता, माता और पितामह भी कहलाते हैं। ये अच्छी उपाधियाँ नहीं हैं। इसके अलावा, कुछ लोग “शाओ[क] वांग” या “शाओ ली” कहे जाने पर असंतुष्ट महसूस करते हैं, उन्हें लगता है कि इससे उनकी वरिष्ठता कम होती है, इसलिए वे अपनी वरिष्ठता का स्तर बदलने के तरीके खोजते हैं, ताकि लोग उन्हें भविष्य में राजा या रानी कहकर बुलाएँ। यह भ्रष्ट मानवजाति है। परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद कुछ लोग कहते हैं कि विश्वासियों को गैर-विश्वासियों की तरह ढीठ नहीं होना चाहिए, उन्हें देवता, राजा या रानी कहकर नहीं बुलाना चाहिए, उन्हें नम्र और विनीत होना चाहिए। वे मानते हैं कि खुद को सीधे विनीत कहना थोड़ा अभद्र है, यह पर्याप्त रूप से छोटा या निम्न नहीं है, इसलिए वे खुद को नन्हे, छोटे, धूल, तुच्छ और कुछ तो रेत का कण और नैनोमीटर भी कहकर बुलाते हैं। वे सत्य पर ध्यान नहीं देते, बल्कि अश्लीलता पर ध्यान देते हैं, खुद के लिए छोटी खरपतवार, अंकुर, यहाँ तक कि धूल, कीचड़, गोबर इत्यादि जैसे नामों का प्रयोग करते हैं। इनमें से प्रत्येक नाम पिछले नामों से ज्यादा अप्रिय और निम्नतर है, लेकिन क्या ये कुछ बदल सकते हैं? मैं देखता हूँ कि इन नामों वाले लोग भी बहुत घमंडी, बुरे और कुछ लोग तो दुष्ट भी होते हैं। ऐसे नाम वाले लोग न सिर्फ छोटे या विनम्र नहीं हुए, बल्कि ढीठ, दुष्ट और दुर्भावनापूर्ण बने हुए हैं।
पहली बार जब परमेश्वर ने धरती पर कार्य करने के लिए देहधारण किया, तो उसका कार्य सरल और संक्षिप्त था, लेकिन यह मानवजाति के उद्धार के कार्य का एक अपरिहार्य और महत्वपूर्ण चरण था। लेकिन सलीब पर चढ़ाए जाने के बाद प्रभु यीशु फिर से जीवित हो गया और मानवजाति के सामने पुनः प्रकट हुए बिना स्वर्गारोहण कर गया। वह फिर से मानवजाति के सामने प्रकट क्यों नहीं हुआ? यह परमेश्वर की नम्रता और उसका छिपा होना है। आम इंसानी तर्क के अनुसार, परमेश्वर देहधारी हुआ और उसने मानवजाति की अस्वीकृति, बदनामी, निंदा, अपमान इत्यादि सहते हुए साढ़े तैंतीस वर्षों तक कष्ट सहे, और सलीब पर चढ़ाए जाने और फिर से जीवित होने के बाद उसे अपनी जीत और महिमा के फलों का आनंद लेने के लिए लोगों के बीच लौट आना चाहिए था। उसे और साढ़े तैंतीस वर्ष या उससे भी ज्यादा लंबे समय तक जीना चाहिए था, मानवजाति से अपनी आराधना और आदर करने का आनंद लेना चाहिए था और वह जिस दर्जे और व्यवहार का हकदार था उसका आनंद लेना चाहिए था। लेकिन परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया। कार्य के इस चरण में परमेश्वर उन मनुष्यों की तरह नहीं जो थोड़ी-सी भी क्षमता होने पर अपनी उपस्थिति महसूस कराने की कोशिश करते हैं, बल्कि बिना किसी समारोह के, धीरे से और चुपचाप आया, परमेश्वर दुनिया के सामने यह ढिंढोरा नहीं पीटना चाहता था, “मैं यहाँ हूँ, मैं स्वयं परमेश्वर हूँ!” परमेश्वर ने अपने लिए ऐसा एक भी वचन नहीं कहा, बल्कि चुपचाप एक अस्तबल में पैदा हो गया। परमेश्वर की आराधना करने आए तीन बुद्धिमान पुरुषों की घटना को छोड़कर, प्रभु यीशु मसीह का शेष जीवन कठिनाइयों और पीड़ा से भरा रहा, जो उसके सलीब पर चढ़ने के साथ ही समाप्त हुआ। परमेश्वर ने महिमा प्राप्त की और मनुष्य के पाप क्षमा किए—इसका मतलब है कि उसने मानवजाति के लिए एक महान कर्म किया, क्योंकि उसने पाप और दुख के सागर से बचने में लोगों की मदद की, और वह मानवजाति का उद्धारक है। इसलिए, यह तर्कसंगत है कि परमेश्वर को मानवजाति की आराधना, प्रशंसा और उसके साष्टांग प्रणाम का आनंद लेना चाहिए था। लेकिन परमेश्वर बिना कोई आवाज किए, चुपचाप और खामोशी से चला गया। पिछले दो हजार वर्षों में परमेश्वर का कार्य लगातार फैलता रहा है। फैलने की यह प्रक्रिया कठिनाई, रक्तपात और समस्त मानवजाति की निंदा और बदनामी से भरी हुई है। लेकिन, मानवजाति का परमेश्वर के प्रति चाहे जो भी रवैया हो, उसने सत्य व्यक्त करना जारी रखा है और मनुष्य को बचाने का अपना कार्य कभी नहीं छोड़ा है। इसके अलावा, इन दो हजार वर्षों के दौरान, परमेश्वर ने खुद को घोषित करने के लिए, यह कहने के लिए कभी स्पष्ट वचनों का इस्तेमाल नहीं किया है कि प्रभु यीशु उसका देहधारी देह है और मानवजाति को उसकी आराधना करनी चाहिए और उसे स्वीकारना चाहिए। परमेश्वर बस सबसे सरल तरीका अपनाकर अपने सेवकों को सभी राष्ट्रों और स्थानों पर स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए भेजता है, जिससे ज्यादा लोग पश्चात्ताप कर सकें, परमेश्वर के सामने आ सकें और उसका उद्धार स्वीकार सकें, और इस तरह अपने पापों की क्षमा प्राप्त कर सकें। परमेश्वर ने यह कहने के लिए कभी अनावश्यक वचनों का इस्तेमाल नहीं किया है कि वह आगामी मसीहा है; इसके बजाय, उसने तथ्यों के जरिये साबित किया है कि उसने जो कुछ भी किया है वह स्वयं परमेश्वर का कार्य है, प्रभु यीशु का उद्धार परमेश्वर का अपना उद्धार है, प्रभु यीशु ने समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाया है, और कि वह स्वयं परमेश्वर है। वर्तमान देहधारण में परमेश्वर उसी तरीके से और उसी रूप में लोगों के बीच आया। परमेश्वर का देह में आना मानवजाति के लिए एक बहुत बड़ा आशीष है, एक बेहद दुर्लभ अवसर है, और इससे भी बढ़कर, यह मानवजाति का सौभाग्य है। लेकिन स्वयं परमेश्वर के लिए इसका क्या अर्थ है? यह सबसे दर्दनाक चीज है। क्या तुम लोग इसे समझ सकते हो? परमेश्वर का सार परमेश्वर है। परमेश्वर, जो परमेश्वर की पहचान रखता है, जिसमें स्वाभाविक रूप से अहंकार का अभाव है, और इसके बजाय वह विश्वासपात्र, पवित्र और धार्मिक है। मानवजाति के बीच आने से उसे मनुष्य के विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों का सामना करना होगा, जिसका अर्थ है कि वे सभी लोग, जिन्हें वह बचाना चाहता है, वे लोग हैं जिनसे वह घृणा करता है और जिन्हें वह घिनौना पाता है। परमेश्वर में अहंकारी स्वभाव, दुष्टता और धोखेबाजी का अभाव है, वह सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है, वह धार्मिक और पवित्र है, लेकिन जिसका वह सामना करता है, वह वास्तव में मनुष्यों का एक समूह है जो उसके सार का विरोधी और शत्रु है। परमेश्वर सबसे ज्यादा क्या देता है? अपना प्रेम, धैर्य, दया और सहनशीलता। परमेश्वर का प्रेम, दया और सहनशीलता उसकी नम्रता और उसका छिपा होना है। भ्रष्ट मानवजाति सोचती है, “परमेश्वर इतना बड़ा कार्य करता है, इतनी बड़ी महिमा प्राप्त करता है और इतनी सारी चीजों पर संप्रभु है, तो वह खुद को जताता या घोषित क्यों नहीं करता?” मनुष्यों को यह चुटकी बजाने जितना आसान लगता है; जब वे कोई अच्छा कर्म करते हैं तो वे उसे दस गुना बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, जब वे थोड़ा-सा अच्छा काम करते हैं तो वे उसका दो-तीन गुना विस्तार कर देते हैं, उसे अनंत रूप से बड़ा करके बताते हैं, और सोचते हैं कि जितना ज्यादा विस्तार से वे ऐसा करेंगे, उतना ही बेहतर होगा। लेकिन परमेश्वर के सार में ये चीजें नहीं हैं। चाहे परमेश्वर कुछ भी करे, उसमें मनुष्य के तथाकथित “लेनदेनों” जैसा कुछ नहीं होता; परमेश्वर कुछ माँगना नहीं चाहता, वह “पारिश्रमिक” नहीं चाहता, जैसा कि मनुष्य कहते हैं। परमेश्वर के पास दर्जे की इच्छा नहीं होती जैसी कि भ्रष्ट मानवजाति में होती है, वह यह नहीं कहता, “मैं परमेश्वर हूँ; मैं जो चाहता हूँ वही करता हूँ, और चाहे मैं कुछ भी करूँ, तुम्हें मेरी अच्छाई याद रखनी चाहिए, तुम्हें मेरे द्वारा की जाने वाली सारी चीजें दिल से लेनी चाहिए और मुझे हमेशा याद रखना चाहिए।” परमेश्वर में ठीक ऐसा सार नहीं है; उसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, उसमें भ्रष्ट मानवजाति का अहंकारी स्वभाव नहीं है, और वह खुद को घोषित नहीं करता। कुछ लोग कहते हैं, “अगर तुम खुद को घोषित नहीं करते, तो लोग कैसे जान सकते हैं कि तुम परमेश्वर हो? वे कैसे देख सकते हैं कि तुम्हारे पास परमेश्वर का दर्जा है?” यह अनावश्यक है; यह वह चीज है जिसे परमेश्वर का सार प्राप्त कर सकता है। परमेश्वर में परमेश्वर का सार है; चाहे वह कितना भी नम्र और छिपा हुआ हो, कितने भी गुप्त रूप से कार्य करता हो, मानवजाति के प्रति कितनी भी दया और सहनशीलता दिखाता हो, लोगों पर उसके वचनों, कार्य, क्रियाकलापों आदि का अंतिम प्रभाव यही होना है कि सृजित मनुष्य सृष्टिकर्ता की संप्रभुता स्वीकारें, सृष्टिकर्ता के सामने झुकें और उसकी आराधना करें, और सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति स्वेच्छा से समर्पण करें। यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है। और ठीक यही है, जिसे मसीह-विरोधी प्राप्त नहीं कर सकते। उनमें महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं, और साथ ही उनमें अहंकारी, क्रूर और दुष्ट स्वभाव होते हैं, उनमें सत्य का अभाव होता है, और फिर भी वे लोगों पर कब्जा और नियंत्रण करना चाहते हैं, और लोगों से अपने प्रति समर्पण और अपनी आराधना करवाना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों के सार के आधार पर आकलन करें तो, क्या वे दुष्ट नहीं हैं? मसीह-विरोधी परमेश्वर से उसके चुने हुए लोगों के लिए होड़ करते हैं, क्या परमेश्वर उनसे होड़ करेगा? क्या परमेश्वर में यह सार है? क्या परमेश्वर झगड़ा करके सृजित मनुष्यों की आराधना और समर्पण प्राप्त करता है? (नहीं।) वह इसे कैसे प्राप्त करता है? सृजित प्राणी परमेश्वर द्वारा बनाए गए हैं; सिर्फ सृष्टिकर्ता ही जानता है कि मानवजाति को क्या चाहिए, उसके पास क्या होना चाहिए, और उसे कैसे जीना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कोई व्यक्ति एक मशीन बनाता है। सिर्फ उसका आविष्कारक ही उसके दोष और खामियाँ और उन्हें ठीक करना जानता है, मशीन की नकल बनाने का प्रयास करने वाला नहीं। इसी तरह, मानवजाति को परमेश्वर ने बनाया था; सिर्फ परमेश्वर ही जानता है कि लोगों को क्या चाहिए, सिर्फ परमेश्वर ही मानवजाति को बचा सकता है, और सिर्फ परमेश्वर ही भ्रष्ट मनुष्यों को सच्चे मनुष्यों में बदल सकता है। परमेश्वर यह सब अपने अधिकार से नहीं करता, न ही अपने बारे में घोषणाएँ करके या खुद को सही ठहराकर या लोगों को दबाकर, गुमराह या नियंत्रित करके करता है; परमेश्वर ये साधन और तरीके इस्तेमाल नहीं करता, सिर्फ शैतान और मसीह-विरोधी ही इन्हें इस्तेमाल करते हैं।
इतनी संगति के बाद परमेश्वर की नम्रता और उसके छिपे होने के बारे में तुम लोगों की समझ क्या है? परमेश्वर की नम्रता और उसका छिपा होना क्या है? क्या उसका छिपा होना अपनी पहचान जानबूझकर छिपाना है, अपना सार और वास्तविक परिस्थितियाँ जानबूझकर छिपाना है? (नहीं।) क्या नम्रता कोई कृत्रिम तरीके से दिखाई गई चीज है? क्या यह आत्म-संयम है? क्या यह दिखावा है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “तुम देहधारी परमेश्वर हो, ऐसे कुलीन दर्जे वाला कोई व्यक्ति ऐसे साधारण कपड़े कैसे पहन सकता है?” मैं कहता हूँ कि मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ, एक साधारण जीवन जी रहा हूँ; मेरे बारे में सब-कुछ साधारण है, तो मैं साधारण कपड़े क्यों नहीं पहन सकता? कुछ लोग कहते हैं, “तुम मसीह हो, देहधारी परमेश्वर हो। तुम्हारा दर्जा कुलीन है—अपने आप को छोटा मत समझो।” मैं कहता हूँ, कैसा छोटा समझना? मैं अपने आप को ज्यादा महत्व नहीं देता या अपने आप को छोटा नहीं समझता; मैं वही हूँ जो मैं हूँ, मैं वही करता हूँ जो मुझे करना चाहिए, और वही कहता हूँ जो मुझे कहना चाहिए—इसमें क्या गलत है? न तो अपने आप को ज्यादा महत्व देना सही है और न ही अपने आप को छोटा समझना; अपने आप को ज्यादा महत्व देना अहंकार है, अपने आप को छोटा समझना दिखावा और धूर्तता है। कुछ लोग कहते हैं, “देहधारी परमेश्वर की चाल-ढाल किसी मशहूर हस्ती जैसी होनी चाहिए, और तुम्हारा भाषण और व्यवहार सुरुचिपूर्ण होना चाहिए। समाज में उन शक्तिशाली महिलाओं का केश-विन्यास, पहनावा और साज-सिंगार देखो, वे रुतबे वाले लोग हैं, वे वो हैं जिनके बारे में लोग बहुत ऊँची राय रखते हैं!” मैं कहता हूँ, रुतबा क्या होता है? अगर लोग मेरा आदर करते हैं तो इससे क्या फर्क पड़ता है? मैं इसकी परवाह नहीं करता; अगर तुम मेरा आदर करते हो तो मुझे यह घृणित लगता है और मुझे इससे उबकाई आती है। तुम मेरा बिल्कुल भी आदर मत करो। दूसरे लोग कहते हैं, “समाज में उन महिला उद्यमियों को देखो, वे बहुत ही शानदार और सुरुचिपूर्ण ढंग से कपड़े पहनती हैं। एक ही नजर में तुम समझ सकते हो कि वे शक्तिशाली, कुलीन हस्तियाँ हैं—तुम उनसे क्यों नहीं सीखते?” मुझे ऐसा कुछ क्यों सीखना चाहिए, जो मुझे पसंद नहीं है? मैं ऐसे कपड़े पहनता हूँ जो मेरी उम्र से मेल खाते हैं, मुझे दिखावा क्यों करना चाहिए? मुझे दूसरों से क्यों सीखना चाहिए? मैं मैं हूँ, मैं किसके लिए दिखावा कर रहा हूँ? क्या यह धोखा नहीं है? मुझे बताओ, देहधारी परमेश्वर को कैसी समानता, रूप, वाणी और व्यवहार रखना चाहिए, जो उसकी पहचान से मेल खाए? क्या तुम लोगों के पास इसके लिए मानक हैं? तुम लोगों के पास अवश्य होंगे, वरना तुम लोग मसीह को इस तरह से न देखते। मेरे पास मेरे मानक हैं—क्या मेरे मानक सत्य-सिद्धांतों के दायरे से परे हैं? (नहीं।) कुछ लोग हमेशा मेरे पहनने या खाने के बारे में धारणाएँ क्यों रखते हैं, वे लगातार मेरे बारे में सारांश प्रस्तुत करते रहते हैं और निर्णय देते रहते हैं—क्या यह घृणित नहीं है? वे मुझे इस तरह से क्यों देखते हैं? उनकी नजर में मसीह जो कुछ भी करता है वह गलत है, वह सब नकारात्मक है, उसमें हमेशा कुछ न कुछ दाल में काला होता है। वे कितने दुष्ट होंगे! परमेश्वर की विभिन्न पहचानों, परमेश्वर के विभिन्न परिप्रेक्ष्यों—परमेश्वर के आत्मा, स्वयं परमेश्वर के सार से लेकर देहधारी परमेश्वर की मानवता तक—की इस शृंखला से आँकते हुए, परमेश्वर के सार में कोई अहंकार या शैतान की कोई महत्वाकांक्षा और इच्छा नहीं है, और मनुष्य की रुतबा पाने की तथाकथित प्रेरणाशक्ति तो और भी कम है। स्वयं परमेश्वर के सार को छोड़कर, जो कुछ परमेश्वर में है, उसकी सबसे प्रमुख विशेषता, परमेश्वर के सार के अलावा, उसकी नम्रता और उसका छिपा होना है। यह नम्रता दिखावटी नहीं है, यह छिपा होना जानबूझकर बचना नहीं है; यह परमेश्वर का सार है, यह स्वयं परमेश्वर है। परमेश्वर चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र में हो या उसने मनुष्य के रूप में देहधारण किया हो, उसका सार नहीं बदलता। अगर कोई इस आधार पर यह नहीं देख सकता कि देहधारी मसीह में परमेश्वर का सार है, तो वह किस तरह का व्यक्ति है? उसमें आध्यात्मिक समझ की कमी है, वह छद्म-विश्वासी है। अगर लोग परमेश्वर की नम्रता और उसके छिपे होने के सार को देखते हैं, तो वे सोचते हैं : “लगता नहीं कि परमेश्वर के पास इतना बड़ा अधिकार है। यह कहना कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, बहुत विश्वसनीय नहीं लगता, यह कहना ज्यादा सुरक्षित है कि परमेश्वर शक्तिमान है। चूँकि उसके पास इतना बड़ा अधिकार नहीं है, तो वह मानवजाति पर संप्रभुता कैसे रख सकता है? चूँकि वह कभी परमेश्वर का दर्जा और उसकी पहचान प्रदर्शित नहीं करता तो क्या वह शैतान को हरा सकता है? परमेश्वर के बारे में कहा जाता है कि उसके पास बुद्धि है—क्या बुद्धि सब-कुछ तय कर सकती है? कौन ज्यादा बड़ी है, बुद्धि या सर्वशक्तिमत्ता? क्या बुद्धि सर्वशक्तिमत्ता को झुका सकती है? क्या बुद्धि सर्वशक्तिमत्ता को प्रभावित कर सकती है?” लोग इस पर विचार करते हैं, लेकिन इसकी असलियत नहीं जान पाते और इसे समझ नहीं पाते। कुछ लोग अपने दिलों में कुछ संदेह रखते हैं, और फिर वे धीरे-धीरे उन्हें पचा जाते हैं, अपने अनुभवों के जरिये इस मामले को लगातार खोजने और समझने की कोशिश करते रहते हैं, और अनजाने ही वे कुछ अवधारणात्मक ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। सिर्फ मसीह-विरोधी ही, परमेश्वर के सार के इन तमाम पहलुओं, इन तमाम अभिव्यक्तियों और उसके तमाम क्रियाकलापों पर संदेह करने के बाद, न सिर्फ यह समझने में विफल रहते हैं कि यह परमेश्वर की नम्रता और उसका छिपा होना है, यही परमेश्वर के बारे में प्यारी बात है, बल्कि इसके विपरीत उन्हें परमेश्वर के बारे में और ज्यादा संदेह होने लगते हैं और वे परमेश्वर की और ज्यादा कठोर निंदा करने लगते हैं। वे हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता पर संदेह करते हैं, उन्हें संदेह है कि परमेश्वर शैतान को हरा सकता है, उन्हें संदेह है कि परमेश्वर मानवजाति को बचा सकता है, उन्हें संदेह है कि परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन-योजना सफलतापूर्वक पूरी हो सकती है, और इससे भी बढ़कर, उन्हें इस तथ्य पर संदेह है कि परमेश्वर अपनी महिमा के साथ स्वयं को अनगिनत लोगों के सामने प्रकट करेगा। इन चीजों पर संदेह करने के बाद वे क्या करते हैं? वे इन चीजों को नकार देते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधी कहते हैं, “मसीह की नम्रता और उसके छिपे होने का कोई मतलब नहीं है, वे प्रशंसा या गुणगान के योग्य नहीं हैं, और वे परमेश्वर का सार नहीं हैं। ऐसी नम्रता और छिपा होना वे चीजें नहीं हैं, जो परमेश्वर में हैं; मसीह की नम्रता और उसका छिपा होना उसकी अक्षमता की अभिव्यक्तियाँ हैं। दुनिया में जब तक किसी के पास थोड़ा-सा भी रुतबा है, उसे राजा, महाराजा या सम्राट का ताज पहना दिया जाता है। मसीह ने अपना राज्य स्थापित कर लिया है और उसके बहुत-से अनुयायी हैं, और साथ ही सुसमाचार-कार्य तेज रफ्तार से फैल रहा है—क्या इसका मतलब यह नहीं कि मसीह की शक्ति बढ़ रही है? लेकिन उसके क्रियाकलापों के आधार पर आँकें तो, उसका इरादा अपनी शक्ति बढ़ाने या ऐसी शक्ति रखने का नहीं है। ऐसा लगता है कि उसके पास यह शक्ति रखने, मसीह का राज्य रखने की क्षमता नहीं है। तो क्या मैं उसका अनुसरण करके आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? क्या मैं अगले युग का स्वामी बन सकता हूँ? क्या मैं अनगिनत देशों और लोगों पर शासन कर सकता हूँ? क्या वह इस पुरानी दुनिया, इस भ्रष्ट मानवजाति को नष्ट कर सकता है? मसीह के साधारण रूप को देखते हुए, वह बड़ी चीजें कैसे कर सकता है?” ऐसे संदेह मसीह-विरोधियों के दिलों में हमेशा उठते हैं। मसीह की नम्रता और उसका छिपा होना ऐसी चीजें हैं, जिन्हें सभी भ्रष्ट मनुष्य, विशेष रूप से मसीह-विरोधी, स्वीकारने, स्वीकृति देने या समझने में असमर्थ हैं; मसीह-विरोधी परमेश्वर की नम्रता और उसके छिपे होने को परमेश्वर की पहचान और सार के बारे में अपने संदेहों के प्रमाण के तौर पर लेते हैं, वे उन्हें परमेश्वर के अधिकार को नकारने के प्रमाण और हथकंडे के रूप में लेते हैं, और इस तरह परमेश्वर की पहचान और सार को, और मसीह के सार को भी नकारते हैं। मसीह के सार को नकारने के बाद मसीह-विरोधी अपने अधिकार-क्षेत्र में परमेश्वर के चुने हुए लोगों के खिलाफ बिना दया के, बिना उदारता के और बिना डर के कार्य करना शुरू कर देते हैं, और साथ ही, वे अपनी क्षमताओं, कौशलों या महत्वाकांक्षाओं को जरा भी नहीं नकारते या उन पर जरा भी संदेह नहीं करते। अपने प्रभाव-क्षेत्र में, उस क्षेत्र में जहाँ वे कार्य कर सकते हैं, मसीह-विरोधी अपने पंजे फैलाकर, जिन्हें नियंत्रित कर सकते हैं उन्हें नियंत्रित करते हैं, और जिन्हें गुमराह कर सकते हैं उन्हें गुमराह करते हैं; वे मसीह और परमेश्वर को पूरी तरह से विचार से बाहर कर परमेश्वर, मसीह और परमेश्वर के घर से पूरी तरह से नाता तोड़ लेते हैं।
मसीह-विरोधी मसीह की नम्रता और छिपे होने से कैसे पेश आते हैं, इसके बारे में जो मद है, जब उसकी बात आती है, तो हम मुख्य रूप से क्या संगति कर रहे हैं? परमेश्वर की नम्रता और उसका छिपा होना—जिसे लोगों को समझना चाहिए—मसीह-विरोधियों की नजर में, जो कुछ वे करना चाहते हैं उसे करने के लिए और परमेश्वर के घर में एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के लिए, सबसे ज्यादा मुफीद स्थितियाँ हैं। परमेश्वर देह में छिपा हुआ है और अंत के दिनों में कार्य का यह चरण रूप में अनुग्रह के युग से अलग है। हालाँकि परमेश्वर इस चरण में कौतुक और चमत्कार नहीं दिखाता, लेकिन उसने बहुत ज्यादा वचन, असंख्य ज्यादा वचन बोले हैं। परमेश्वर चाहे जैसे भी कार्य करे, जब तक वह देहधारी है, तब तक अपना कार्य करने के साथ उसे बहुत अपमान सहना पड़ता है। सिर्फ ऐसा परमेश्वर ही जिसमें दिव्य सार है, वास्तव में विनम्र बन सकता है और अपना कार्य करने के लिए स्वयं को एक साधारण व्यक्ति के रूप में छिपा सकता है, क्योंकि उसमें नम्रता और छिपे होने का सार है। इसके विपरीत, शैतान ऐसा करने में एकदम असमर्थ है। मनुष्यों के बीच कार्य करने के लिए शैतान किस तरह का देह धारण करेगा? पहले, उसका स्वरूप रोबदार होगा, और वह क्रूर, धोखेबाज और दुष्ट होगा; फिर, लोगों के साथ खिलवाड़ करने और उन्हें बहकाने के लिए उसे विभिन्न रणनीतियों और तकनीकों में, और साथ ही विभिन्न कपटी चालों में भी, महारत हासिल करनी होगी, उसे काफी निर्दयी और दुर्भावनापूर्ण होना होगा। उसे लगातार लोगों के बीच दिखना होगा और हर जगह सुर्खियों में रहना होगा, इस डर से कि कोई उसे जान न ले, और उसे हमेशा अपनी प्रसिद्धि बढ़ाने और खुद को बढ़ावा देने की कोशिश करनी होगी। जब लोग अंततः उसे राजा या सम्राट कहेंगे, तो वह संतुष्ट होगा। परमेश्वर जो करता है, वह उससे बिल्कुल उलटा होता है जो शैतान करता है। परमेश्वर धैर्य रखता है और छिपता रहता है, और ऐसा करते समय वह सृष्टिकर्ता की दया और प्रेमपूर्ण दयालुता का उपयोग करके लोगों में अपने वचनों और अपने जीवन को कार्यान्वित करता है, ताकि लोग सत्य समझ सकें, बचाए जा सकें, और सामान्य मानवता और सामान्य मानव-जीवन वाले सच्चे सृजित प्राणी बन सकें। हालाँकि परमेश्वर जो करता है वह मानवजाति के लिए अमूल्य है, फिर भी परमेश्वर इसे अपनी जिम्मेदारी मानता है। इसलिए, वह व्यक्तिगत रूप से देहधारी हुआ, और एक माता या पिता की तरह अथक रूप से लोगों को पोषण प्रदान करता है, उनकी सहायता करता है, उनका समर्थन करता है, उन्हें प्रबुद्ध और रोशन करता है। बेशक, वह लोगों को ताड़ना भी देता है, उनका न्याय भी करता है, उन्हें ताड़ित और अनुशासित भी करता है, उन्हें दिन-प्रतिदिन बदलते हुए, दिन-प्रतिदिन एक सामान्य कलीसियाई जीवन जीते हुए, और दिन-प्रतिदिन जीवन में बढ़ते हुए देखता है। इस तरह, परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। मानवजाति के बीच, मनुष्य परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत, उसकी महान शक्ति और उसकी महिमा की प्रशंसा करते हैं, लेकिन परमेश्वर के वचनों में, उसने लोगों से कब कहा है : “मैंने मानवजाति के लिए बहुत चीजें की हैं, मैंने बहुत त्याग किया है; लोगों को मेरी प्रशंसा और गुणगान करना चाहिए”? क्या परमेश्वर मानवजाति से ऐसी माँगें करता है? नहीं। यह स्वयं परमेश्वर है। परमेश्वर ने लोगों के साथ आदान-प्रदान करने के लिए यह कहते हुए कभी शर्तों का उपयोग नहीं किया है, “मैंने मसीह को तुम लोगों के बीच रखा है, तुम लोगों को उसके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए, उसके वचन सुनने चाहिए, उसके प्रति समर्पण करना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए। गड़बड़ी या व्यवधान पैदा मत करो, वह तुम लोगों से जो कुछ भी करने के लिए कहे उसे करो, जैसे भी तुम लोगों से करने के लिए कहे वैसे करो, और जब सब-कुछ पूरा हो जाएगा, तो तुम सभी लोगों को श्रेय दिया जाएगा।” क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कुछ कहा है? क्या यह परमेश्वर का इरादा है? नहीं। इसके विपरीत, ये मसीह-विरोधी हैं जो हमेशा लोगों को बहकाने, विवश करने, नियंत्रित करने और उनसे संबंधित हर चीज पर कब्ज़ा करने के लिए विभिन्न साधनों का उपयोग करने की कोशिश करते हैं, ताकि लोग परमेश्वर को छोड़कर उनके सामने आ जाएँ। ये मसीह-विरोधी हैं, जो जब भी कोई छोटा-मोटा कर्म करते हैं, तो उसके बारे में हर जगह जताते हैं और घोषणा करते हैं। मसीह-विरोधी न सिर्फ परमेश्वर की नम्रता और उसके छिपे होने को समझ नहीं पाते, स्वीकार नहीं पाते, उसकी प्रशंसा या गुणगान नहीं कर पाते, बल्कि इसके बजाय वे इन चीजों का तिरस्कार और इनकी ईश-निंदा भी करते हैं। यह मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार द्वारा निर्धारित होता है।
आज हमने इस बात की तीन अभिव्यक्तियों पर संगति की है कि मसीह-विरोधी कैसे मसीह के सार को नकारते हैं। आओ, अब इस पर अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं। क्या तुम लोगों के कोई प्रश्न हैं? (नहीं।) ठीक है, अलविदा!
21 नवंबर 2020
फुटनोट :
क. चीनी-भाषी अपने से उम्र में छोटे व्यक्ति के उपनाम से पहले “शाओ” लगाते हैं।
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2025 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।