मद पंद्रह : वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे मसीह के सार को नकारते हैं (भाग दो) खंड दो
मसीह-विरोधी विशेष रूप से शक्ति और रुतबे की पूजा करते हैं। अगर मसीह एक धनी, शक्तिशाली परिवार से आता तो वे कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं करते। लेकिन अगर वह एक साधारण परिवार से आए जिसके पास शक्ति नहीं है तो वे उससे बिल्कुल भी नहीं डरेंगे, उन्हें लगेगा कि वे बड़ी सहजता से परमेश्वर, मसीह का अध्ययन और उनकी आलोचना कर सकते हैं और वे इस बारे में पूरी तरह बेपरवाह रहेंगे। अगर वे वास्तव में यह स्वीकारते और मानते कि यह व्यक्ति देहधारी परमेश्वर है, तो क्या वे ऐसा कर सकते थे? क्या कोई भी ऐसा व्यक्ति, जिसका दिल थोड़ा भी परमेश्वर का भय मानता हो, ऐसा करेगा? क्या वह खुद को संयमित नहीं करेगा? (करेगा।) किस तरह के लोग इस तरह से कार्य कर सकते हैं? क्या यह मसीह-विरोधियों का व्यवहार नहीं है? (है।) अगर तुम स्वीकारते हो कि मसीह का सार स्वयं परमेश्वर है और जिस व्यक्ति का तुम अनुसरण करते हो वह परमेश्वर है, तो तुम्हें मसीह से संबंधित हर चीज कैसे लेनी चाहिए? क्या लोगों के पास सिद्धांत नहीं होने चाहिए? (होने चाहिए।) फिर वे बिना परवाह किए इन सिद्धांतों का उल्लंघन करने की हिम्मत क्यों करते हैं? क्या यह मसीह के प्रति शत्रुता की अभिव्यक्ति नहीं है? चूँकि मसीह का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था, इसलिए मसीह-विरोधी मसीह से असंतुष्ट होने के साथ-साथ उसके परिवार और परिवार के सदस्यों के प्रति भी शत्रुता रखते हैं। और जब उनमें यह शत्रुता पैदा होती है, तो वे रुकते या ठहरते नहीं, बल्कि मसीह के घर के आसपास मँडराते रहते हैं और जब भी मौका मिलता है, पूछताछ करते हैं, मानो वे कोई वैध व्यवसाय कर रहे हों : “क्या मसीह वापस आ गया है? क्या मसीह के प्रकट होने के बाद से उसके परिवार के जीवन का कोई हिस्सा बदल गया है?” वे हर मौके पर इन मामलों में अपनी टाँग अड़ाते हैं। क्या ऐसे लोग घृणास्पद नहीं हैं? क्या वे घिनौने नहीं हैं? क्या वे घृणित नहीं हैं? वे बेहद घृणित और नीच हैं! आओ, अभी यह बात छोड़ देते हैं कि परमेश्वर में उनकी आस्था कैसी है, और बस इस पर विचार करते हैं : जो लोग ऐसी चीजें कर सकते हैं और ऐसे घिनौने विचार रख सकते हैं, उनका चरित्र कैसा होना चाहिए? उनका चरित्र नीच होना चाहिए। वे सभी कमीने और बेहद घृणित और घिनौने हैं! अगर तुम मसीह में विश्वास नहीं करते, तो तुम मुझसे स्पष्ट रूप से कह सकते हो, “तुम परमेश्वर जैसे नहीं लगते; तुम सिर्फ एक व्यक्ति हो। मैंने तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना की है—तुम इसके बारे में क्या कर सकते हो? मैंने तुम्हें नकार दिया है—तुम इसके बारे में क्या कर सकते हो?” अगर तुम विश्वास नहीं करते, तो मैं तुम्हें ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं करूँगा, और कोई भी तुमसे ऐसा करने का आग्रह नहीं करेगा। लेकिन तुम्हें गुप्त रूप से इन तुच्छ क्रियाकलापों में शामिल होने की कोई जरूरत नहीं है। वे किस उद्देश्य की पूर्ति करते हैं? क्या वे तुम्हारी आस्था बढ़ाने में मदद कर सकते हैं? क्या वे तुम्हारी जीवन-प्रगति में मदद कर सकते हैं या परमेश्वर को और अधिक समझने में तुम्हारी मदद कर सकते हैं? वे इनमें से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं करते, तो उनमें शामिल क्यों होते हो? कम-से-कम, जो लोग ऐसे क्रियाकलापों में शामिल होते हैं, उनमें अत्यंत घृणित मानवता होती है; वे मसीह के सार में विश्वास नहीं करते या उसकी पहचान नहीं स्वीकारते। अगर तुम विश्वास नहीं करते तो मत करो। चले जाओ! परमेश्वर के घर में अपने निवास को इतना लंबा क्यों खींचते हो? परमेश्वर में विश्वास न करना और फिर भी आशीष चाहना और महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पालना—यह मसीह-विरोधियों का घिनौनापन है। बेहद घिनौने होने के कारण ऐसे लोग ऐसे “असाधारण” क्रियाकलापों में सक्षम होते हैं। मैं 20 साल घर से दूर रहा, और इन लोगों ने 20 साल उस घर की “अच्छी देखभाल” की; मैं 30 साल घर से दूर रहा, और उन्होंने 30 साल उसकी “देखभाल” की। मैंने सोचा कि ये इतने “दयालु” और निठल्ले क्यों हैं। मुझे इस प्रश्न का उत्तर मिल गया, जो यह है कि वे अंत तक परमेश्वर का विरोध करना चाहते हैं। वे परमेश्वर के सार में या जो कुछ भी उसने किया है उसमें विश्वास नहीं करते। सतही तौर पर वे जिज्ञासु और चिंतित लगते हैं, लेकिन सार में वे निगरानी कर रहे होते हैं और कमजोरी का पता लगाकर उसका लाभ उठाने की कोशिश कर रहे होते हैं, भीतर से वे शत्रुतापूर्ण, नकारने वाले और निंदा करने वाले हैं। फिर भी ये लोग विश्वास क्यों करते हैं? परमेश्वर में उनके विश्वास करने की क्या तुक है? उन्हें विश्वास करना बंद कर देना चाहिए और यहाँ से जल्दी से निकल जाना चाहिए! परमेश्वर के घर को ऐसे लोगों की आवश्यकता नहीं है। उन्हें खुद को शर्मिंदा नहीं करना चाहिए! क्या ऐसी परिस्थितियों और स्थितियों में तुम लोग यही करोगे? अगर तुम लोग कर सकते हो, तो तुम लोग भी उन जैसे ही हो, मसीह-विरोधियों का एक समूह, जो अंत तक, मृत्यु तक लगातार परमेश्वर का विरोध करने के लिए दृढ़-संकल्प है, जो स्थिति का लाभ उठाने और परमेश्वर, उसके सार और उसकी पहचान को नकारने के लिए उसके बारे में सबूत खोजने की कोशिश कर रहा है।
परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, वह कभी गलत नहीं होता। चाहे वह किसी सामान्य, साधारण परिवेश और पृष्ठभूमि में पैदा हुआ हो या किसी प्रतिष्ठित परिवेश और पृष्ठभूमि में, इसमें कोई दोष नहीं होगा, और लोगों को उसका फायदा उठाने की कोई गुंजाइश नहीं होगी। अगर तुम यह साबित करने के लिए देहधारी परमेश्वर में कोई दोष या सबूत खोजने की कोशिश करते हो कि वह मसीह नहीं है या उसमें परमेश्वर का सार नहीं है, तो मैं तुमसे कहता हूँ, तुम्हें कोशिश करने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें विश्वास करने की भी जरूरत नहीं है। बस चले जाओ—तब क्या तुम मुसीबत से बच नहीं जाओगे? अपने लिए जीवन इतना कठिन क्यों बनाते हो? मसीह पर आरोप लगाने, उसे नकारने या उसकी निंदा करने के लिए उसमें दोष या सबूत खोजने की कोशिश करना तुम्हारा वैध व्यवसाय, कर्तव्य या जिम्मेदारी नहीं है। मसीह का जन्म जिस भी परिवार में हुआ हो, वह जिस भी परिवेश में बड़ा हुआ हो, या उसकी मानवता जैसी भी हो, यह स्वयं परमेश्वर, सृष्टिकर्ता का चुनाव था, और इसका किसी से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है, वह सत्य है और वह मानवजाति की खातिर किया जाता है। अगर परमेश्वर का जन्म किसी साधारण परिवार में न होकर किसी महल में हुआ होता, तो क्या किसी साधारण व्यक्ति या निम्न सामाजिक वर्ग के व्यक्ति को परमेश्वर से बातचीत करने का कोई मौका मिलता? तुम्हें मौका न मिलता। तो, क्या परमेश्वर द्वारा जन्म लेने और बड़ा होने के लिए इस तरह का तरीका चुनने में कुछ गलत है? यह वह प्रेम है जो दुनिया में बेमिसाल है, यह सबसे सकारात्मक चीज है। लेकिन मसीह-विरोधी परमेश्वर द्वारा की गई इस सबसे सकारात्मक चीज को इस बात का संकेत मानते हैं कि उसे धमकाना और उसके साथ खिलवाड़ करना आसान है, और वे लगातार उसकी निगरानी करना चाहते हैं और उसके खिलाफ लाभ उठाने की कोशिश करते हैं। तुम किसकी निगरानी कर रहे हो? अगर तुम मसीह के चरित्र और मानवता पर भी भरोसा नहीं कर सकते, और तुम उसका परमेश्वर के रूप में अनुसरण करते हो, तो क्या तुम अपने ही चेहरे पर तमाचा नहीं मार रहे हो? क्या तुम अपने लिए चीजें मुश्किल नहीं बना रहे हो? यह खेल क्यों खेलते हो? क्या इसमें मजा आता है? बाद में, मैंने देखा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकारने वाले ज्यादातर लोग बाद में इस मामले को सही तरीके से सँभाल पाए। कुछ लोग मेरे साथ बातचीत करते समय उत्सुक थे, लेकिन मैंने ऐसे लोगों से परहेज किया और उन्हें अनदेखा किया। अगर तुम सत्य स्वीकार सकते हो, तो हम एक परिवार हैं। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते और हमेशा मेरी व्यक्तिगत जानकारी के बारे में पूछताछ करने की कोशिश करते रहते हो, तो चले जाओ। मैं तुम्हें नहीं पहचानता; हम परिवार नहीं, बल्कि दुश्मन हैं। अगर, परमेश्वर के इतने सारे वचन सुनने और इतने वर्षों से उसका कार्य और चरवाही प्राप्त करने के बाद भी लोग देहधारी परमेश्वर के बारे में ऐसे विचार रखते हैं और उन पर अमल भी करते हैं, तो यह कहा जाना चाहिए कि ऐसे लोगों का स्वभाव परमेश्वर के प्रति विरोधी है। वे परमेश्वर के जन्मजात दुश्मन हैं, सकारात्मक चीजों को स्वीकारने में असमर्थ हैं।
दो हजार साल पहले, पौलुस ने प्रभु यीशु का विरोध करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था, पागलों की तरह उसे सताया था, उसकी आलोचना और निंदा की थी। क्यों? क्योंकि प्रभु यीशु एक साधारण परिवार में पैदा हुआ था, वह आम जनता की तरह एक सामान्य आदमी था, और उसे धर्मशास्त्रियों और फरीसियों से तथाकथित शिक्षा, गहरा असर या प्रभाव नहीं मिला था। पौलुस की नजर में, ऐसा व्यक्ति मसीह कहलाने योग्य नहीं था। क्यों नहीं था? क्योंकि उसकी एक साधारण पहचान थी, उसका सामाजिक रुतबा ज्यादा नहीं था, और वह मानव-समाज में निम्न वर्ग का सदस्य था, और इस प्रकार वह मसीह या जीवित परमेश्वर का पुत्र कहलाने योग्य नहीं था। इस वजह से, पौलुस ने प्रभु यीशु का विरोध करने के लिए हर संभव प्रयास करने का दुस्साहस किया, उसकी निंदा और विरोध करने के लिए अपने प्रभाव, करिश्मे और सरकार का इस्तेमाल किया, उसके काम को नष्ट किया और उसके अनुयायियों को कैद किया। जब पौलुस ने प्रभु यीशु का विरोध किया, तो उसका मानना था कि वह परमेश्वर के कार्य का बचाव कर रहा है, उसके कार्य न्यायसंगत हैं और वह एक न्यायसंगत बल का प्रतिनिधित्व करता है। उसे लगता था कि वह परमेश्वर का नहीं, बल्कि एक साधारण व्यक्ति का विरोध कर रहा है। चूँकि वह मसीह की उत्पत्ति को महान नहीं, बल्कि नीच मानता था, ठीक इसी वजह से उसने निर्लज्जता और लापरवाही से मसीह की आलोचना और निंदा करने का साहस किया, और वह अपने क्रियाकलापों के बारे में अपने दिल में विशेष रूप से शांत और स्थिर महसूस करता था। वह किस तरह का प्राणी था? अगर उसे इस बात का एहसास नहीं हुआ था कि प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर है या वह यह नहीं जानता था कि उसके उपदेश और वचन परमेश्वर से आते हैं, तो भी क्या ऐसा साधारण व्यक्ति उसके चौतरफा हमले के लायक था? क्या वह इस तरह के दुर्भावनापूर्ण हमले के लायक था? क्या वह इस लायक था कि दूसरों को धोखा देने और लोगों के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करने के लिए पौलुस अफवाहें फैलाए और झूठ गढ़े? क्या पौलुस के झूठ निराधार नहीं थे? क्या प्रभु यीशु के किसी भी क्रियाकलाप ने पौलुस के हितों या रुतबे को प्रभावित किया था? नहीं। प्रभु यीशु ने निम्न सामाजिक वर्गों के बीच प्रवचन और उपदेश दिए, और साथ ही, बहुत लोगों ने उसका अनुसरण किया। यह पौलुस जैसे व्यक्ति के जीवन-परिवेश से पूरी तरह से अलग दुनिया थी, तो फिर पौलुस ने प्रभु यीशु को क्यों सताया? यह उसका मसीह-विरोधी सार काम कर रहा था। उसने सोचा, “तुम्हारे उपदेश कितने भी भव्य, सही या स्वीकृत क्यों न हों, अगर मैं कहता हूँ कि तुम मसीह नहीं हो, तो तुम मसीह नहीं हो। अगर मैं तुम्हें नापसंद करता हूँ, तो मैं तुम्हें सताऊँगा, मनमाने ढंग से तुम पर आरोप लगाऊँगा और तुम्हें इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा।” चूँकि मसीह की सामान्य मानवता के भीतर मौजूद ये चीजें पौलुस की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती थीं और पौलुस की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं थीं या धारण नहीं की गई थीं, इसलिए पौलुस जैसे मसीह-विरोधी निर्लज्जता से उसकी आलोचना करने, उसे नकारने और उसकी निंदा करने में सक्षम थे। अंत में क्या हुआ? प्रभु यीशु द्वारा प्रहार करके गिराए जाने के बाद पौलुस ने आखिरकार माना, “हे प्रभु, तू कौन है?” तब प्रभु यीशु ने कहा, “मैं यीशु हूँ, जिसका तुम विरोध करते हो।” तब से पौलुस ने यीशु को एक साधारण व्यक्ति या ऐसा व्यक्ति नहीं माना जो अपनी निम्न उत्पत्ति के कारण मसीह से भिन्न था। क्यों? क्योंकि प्रभु यीशु का प्रकाश लोगों को अंधा कर सकता था, उसके पास अधिकार था और उसके वचन लोगों को और उनकी आत्माओं को प्रहार करके गिरा सकते थे। पौलुस ने मन ही मन सोचा, “क्या यीशु नामक यह व्यक्ति वास्तव में परमेश्वर हो सकता है? क्या यह जीवित परमेश्वर का पुत्र हो सकता है? यह लोगों को प्रहार करके गिरा सकता है, इसलिए वह परमेश्वर ही होना चाहिए। लेकिन बस एक चीज है—जो लोगों को प्रहार करके गिराता है, वह यह साधारण व्यक्ति नहीं है जिसे मसीह कहा जाता है, बल्कि परमेश्वर का आत्मा है। इसलिए, चाहे कुछ भी हो, जब तक तुम यीशु कहलाते रहोगे, तब तक मैं तुम्हारी आराधना में तुम्हारे सामने नहीं झुकूँगा। मैं सिर्फ स्वर्गिक परमेश्वर, परमेश्वर के आत्मा की आराधना करता हूँ।” प्रहार करके गिराए जाने के बाद पौलुस के मन में एक विचार आया। हालाँकि उसे प्रहार करके गिराना एक बुरी बात थी, लेकिन इसने उसे एहसास कराया कि मसीह कहलाने वाले व्यक्ति की एक विशेष पहचान होती है, और मसीह बनना एक बहुत बड़ा सम्मान है, और जो कोई मसीह बनता है वह जीवित परमेश्वर का पुत्र बन सकता है, परमेश्वर के करीब आ सकता है, और परमेश्वर के साथ अपना रिश्ता बदल सकता है, उस साधारण व्यक्ति को विशेष बना सकता है, और उस साधारण व्यक्ति की पहचान को परमेश्वर के पुत्र की पहचान में बदल सकता है। उसने सोचा, “यीशु, भले ही तुम जीवित परमेश्वर के पुत्र हो, लेकिन इसमें इतना प्रभावशाली क्या है? तुम्हारा पिता एक गरीब बढ़ई था और तुम्हारी माँ एक आम गृहिणी थी। तुम आम लोगों के बीच पले-बढ़े और तुम्हारे परिवार की सामाजिक स्थिति निम्न थी और तुममें कोई विशेष योग्यता नहीं है। क्या तुमने कभी उपासना-गृह में प्रवचन दिया है? क्या धर्मशास्त्री और फरीसी तुम्हें मानते हैं? तुमने क्या शिक्षा प्राप्त की है? क्या तुम्हारे माता-पिता के पास ज्ञान की उच्च डिग्री है? तुम्हारे पास इनमें से कुछ नहीं है, फिर भी तुम जीवित परमेश्वर के पुत्र हो। तो, चूँकि मेरे पास ज्ञान की इतनी ऊँची डिग्री है, और मैं उच्च समाज के लोगों के साथ उठता-बैठता हूँ, और मेरे माता-पिता बहुत बुद्धिमान, शिक्षित हैं, और वे एक खास पृष्ठभूमि से आते हैं, इसलिए क्या मेरे लिए मसीह बनना आसान नहीं होगा?” उसका क्या मतलब था? “अगर यीशु जैसा कोई व्यक्ति मसीह हो सकता है, तो क्या मैं, पौलुस, मसीह होने, जीवित परमेश्वर का पुत्र होने के लिए और भी अधिक योग्य नहीं हूँ, क्योंकि मैं इतना असाधारण, करिश्माई, ज्ञानी और उच्च सामाजिक रुतबे वाला हूँ? जब यीशु जीवित था, तो उसने सिर्फ प्रवचन दिया, धर्मशास्त्र पढ़े, पश्चात्ताप के मार्ग का प्रचार किया, हर जगह चला, लोगों की बीमारियाँ ठीक कीं, राक्षस बाहर निकाले, और बहुत सारे चिह्न और चमत्कार दिखाए। बस इतना ही न? इसके बाद वह जीवित परमेश्वर का पुत्र बन गया और स्वर्गारोहण कर गया। यह कितना मुश्किल हो सकता है? मैं, पौलुस, ज्ञान से भरा हुआ हूँ और मेरा कुलीन सामाजिक रुतबा और पहचान है। अगर मैं लोगों के बीच ज्यादा चलूँ, जैसा यीशु ने किया, अपनी प्रसिद्धि बढ़ाऊँ, ज्यादा अनुयायी बनाऊँ और ज्यादा लोगों को लाभ पहुँचाऊँ, और अगर मैं कठिनाइयाँ सह सकूँ, कीमत चुका सकूँ, अपनी सामाजिक स्थिति कम कर सकूँ, ज्यादा उपदेश दे सकूँ, ज्यादा काम कर सकूँ और ज्यादा लोगों को प्राप्त कर सकूँ, तो क्या मेरी पहचान बदल नहीं जाएगी? क्या मैं मनुष्य के पुत्र से परमेश्वर के पुत्र में नहीं बदल जाऊँगा? क्या परमेश्वर का एक पुत्र मसीह नहीं है? मसीह होने में इतनी मुश्किल क्या है? क्या मसीह मनुष्य से पैदा हुआ मनुष्य का पुत्र नहीं है? जब यीशु मसीह बन सकता है, तो मैं, पौलुस, मसीह क्यों नहीं बन सकता? यह बहुत आसान है! जो कुछ भी यीशु ने किया, वह मैं भी करूँगा; जो कुछ भी उसने कहा, वह मैं भी कहूँगा; जैसे वह लोगों के बीच चला, मैं भी वैसे ही चलूँगा। क्या तब मेरे पास यीशु जैसी ही पहचान और प्रतिष्ठा नहीं होगी? क्या मैं परमेश्वर की स्वीकृति पाने की शर्तें पूरी नहीं करता, जैसा यीशु ने किया था?” इसलिए, पौलुस के पत्रों से यीशु की पहचान के बारे में उसकी समझ और धारणा जानना मुश्किल नहीं है। वह मानता था कि प्रभु यीशु एक साधारण व्यक्ति था, जिसने काम करके और कीमत चुकाकर, और खास तौर से सलीब पर चढ़ाए जाने के बाद, स्वर्गिक पिता की स्वीकृति प्राप्त की और जीवित परमेश्वर का पुत्र बन गया—उसकी पहचान बाद में बदली। इस प्रकार, पौलुस जैसे लोग अपने मन में यीशु को पृथ्वी पर परमेश्वर द्वारा पहना गया देह, मानवजाति के बीच देहधारी परमेश्वर का देह कभी नहीं स्वीकारते। वे मसीह का सार कभी नहीं स्वीकारते।
आज के मसीह-विरोधी पौलुस जैसे हैं। पहली बात, उनके विचार, महत्वाकांक्षाएँ और तरीके वैसे ही हैं, और साथ ही, एक और चीज—मूर्खता का लक्षण भी वैसा ही है। उनकी मूर्खता कहाँ से आती है? यह उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से आती है। जब मसीह-विरोधी देहधारी परमेश्वर के देह को देखते हैं, चाहे जिस भी कोण से देखें, तो वे मसीह में परमेश्वर का सार देखने में विफल रहते हैं। चाहे वे जैसे भी देखें, वे इससे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते या परमेश्वर का स्वभाव नहीं समझ सकते। चाहे वे जैसे भी देखें, वे हमेशा यही मानते हैं कि मसीह एक साधारण व्यक्ति है। वे सोचते हैं कि अगर मसीह सब लोगों की आँखों के सामने सीधे स्वर्ग से उतरा होता, तो वह साधारण नहीं होता; वे सोचते हैं कि अगर मसीह की कोई उत्पत्ति या पृष्ठभूमि होती ही नहीं, और वह लोगों के बीच शून्य में से प्रकट हुआ होता, तो यह बहुत असामान्य और असाधारण होता! ऐसी चीजें ही, जिन्हें लोग समझ नहीं पाते, जो असाधारण होती हैं, मसीह-विरोधियों की महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और जिज्ञासा पूरी करती हैं। वे ऐसे मसीह का ही अनुसरण करना पसंद करेंगे, बजाय किसी साधारण व्यक्ति के जो सत्य व्यक्त कर सकता है और उन्हें जीवन प्रदान कर सकता है। चूँकि मसीह मनुष्य से पैदा हुआ था, और वास्तव में एक साधारण व्यक्ति है—एक सामान्य, व्यावहारिक व्यक्ति, जो पर्याप्त ध्यान आकर्षित नहीं करता या इस तरह से बात नहीं करता जो स्वर्ग और पृथ्वी को हिला दे—ठीक इसलिए जब मसीह-विरोधी उसे कुछ समय के लिए देख लेते हैं, तो वे मानते हैं कि मसीह जो कुछ भी करता है उसमें ज्यादा कुछ नहीं है। कुछ पैटर्न का सारांश देने के बाद वे मसीह की नकल करना शुरू कर देते हैं। वे उसके लहजे, उसके बोलने के तरीके और उसके सुर की नकल करते हैं। कुछ लोग तो उसके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले विशिष्ट वचनों की नकल भी करते हैं, यहाँ तक कि उसकी साँस लेने की आवाज और खाँसी की भी नकल करते हैं। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या यह नकल अज्ञानता के कारण है?” ऐसा नहीं है। इसका क्या कारण है? जब मसीह-विरोधी मसीह जैसे साधारण व्यक्ति को देखते हैं, जो बस कुछ साधारण वचन बोलता है, जिसके इतने सारे अनुयायी हैं और इतने सारे लोग उसके प्रति समर्पण कर रहे होते हैं, तो क्या इस मामले के बारे में उनके दिल की गहराई में कुछ विचार नहीं उठते? क्या वे परमेश्वर के लिए आनंदित होते हैं, उसके लिए प्रसन्नता महसूस करते हैं और उसकी प्रशंसा करते हैं, या वे क्रोध, नाराजगी, शत्रुता, ईर्ष्या और डाह महसूस करते हैं? (ईर्ष्या और डाह महसूस करते हैं।) वे सोचते हैं, “तुम परमेश्वर कैसे बन गए? मैं परमेश्वर क्यों नहीं हूँ? तुम कितनी भाषाएँ बोल सकते हो? क्या तुम चिह्न और चमत्कार दिखा सकते हो? तुम लोगों के लिए क्या ला सकते हो? तुममें कौन-से गुण और प्रतिभाएँ हैं? तुममें कौन-सी योग्यताएँ हैं? तुमने इतने सारे लोगों से अपना अनुसरण कैसे करवा लिया? अगर तुम्हारी योग्यताएँ ही इतने सारे लोगों से अपना अनुसरण करवाने के लिए काफी थीं, तो मेरी योग्यताओं से तो और भी ज्यादा लोग मेरा अनुसरण करेंगे।” इसलिए, मसीह-विरोधी इस पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। इसलिए वे पौलुस के इस दृष्टिकोण से पूरी तरह सहमत हैं कि उनके लिए मसीह बनना एक ऐसा सपना है जो पूरा हो सकता है।
जब परमेश्वर लोगों से कर्तव्यनिष्ठ मनुष्य और कर्तव्यनिष्ठ सृजित प्राणी बनने के लिए कहता है, तो मसीह-विरोधी इन वचनों से विशेष रूप से तिरस्कार महसूस करते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह अच्छा और सही है, लेकिन हमें मसीह न बनने देना गलत है। लोग मसीह क्यों नहीं बन सकते? क्या मसीह बस परमेश्वर के जीवन वाला व्यक्ति नहीं होता? इसलिए, अगर हम परमेश्वर के वचन स्वीकारते हैं, उसका सिंचन और चरवाही प्राप्त करते हैं, और हममें परमेश्वर का जीवन होता है, तो क्या हम भी मसीह नहीं बन सकते? तुम मनुष्यों से पैदा हुए एक साधारण व्यक्ति हो, और वही हम भी हैं। किस आधार पर तुम मसीह हो सकते हो, लेकिन हम नहीं हो सकते? क्या तुम भी जीवन में बाद में मसीह नहीं बने? अगर हम कष्ट उठाते हैं और कीमत चुकाते हैं, परमेश्वर के वचन और ज्यादा पढ़ते हैं, परमेश्वर का जीवन जीते हैं, वही वचन बोलते हैं जो परमेश्वर बोलता है, वही करते हैं जो परमेश्वर करना चाहता है, और परमेश्वर का अनुकरण करते हैं, तो क्या हम भी मसीह नहीं बन सकते? इसमें इतनी मुश्किल क्या है?” मसीह-विरोधी मसीह का अनुसरण करने और मसीह के साधारण अनुयायी बनने या सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन सृजित प्राणी बनने से खुश नहीं होते। उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ उन्हें भड़काती हैं : “साधारण व्यक्ति मत बनो। हर मोड़ पर मसीह का अनुसरण और आज्ञापालन करना अक्षमता की अभिव्यक्ति है। मसीह के वचनों और परमेश्वर के वादों से परे तुम्हारे पास उच्चतर लक्ष्य होने चाहिए, जैसे कि परमेश्वर का पुत्र, पहलौठा पुत्र, स्वयं मसीह बनने का प्रयास करना, परमेश्वर द्वारा बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने या परमेश्वर के राज्य में एक स्तंभ बनने का प्रयास करना। ये कितने महान और प्रेरक लक्ष्य हैं!” तुम इन विचारों के बारे में क्या सोचते हो? क्या ये बढ़ावा देने लायक हैं? क्या ये ऐसी चीजें हैं, जो सामान्य लोगों में होनी चाहिए? (नहीं।) चूँकि मसीह-विरोधियों में मसीह की पहचान और सार के बारे में इस तरह की समझ होती है, ठीक इसीलिए वे मसीह का विरोध करने, उसकी आलोचना करने, उसका परीक्षण करने, उसे नकारने और उसकी निंदा करने के अपने शब्दों और क्रियाकलापों को गंभीरता से नहीं लेते। वे सोचते हैं, “किसी व्यक्ति की आलोचना करने में इतना डरावना क्या है? तुम बस एक व्यक्ति हो, है न? तुम स्वीकारते हो कि तुम एक व्यक्ति हो, इसलिए मेरे द्वारा तुम्हारी आलोचना, मूल्यांकन या निंदा करने में क्या गलत है? मेरे द्वारा तुम्हारी निगरानी करने या तुम्हारा अध्ययन करने में क्या गलत है? ये चीजें करना मेरी स्वतंत्रता है!” वे इसे परमेश्वर का प्रतिरोध या विरोध करना नहीं मानते, जो एक बहुत ही खतरनाक दृष्टिकोण है। लिहाजा कई मसीह-विरोधियों ने 20-30 वर्षों से इस तरह मसीह का विरोध किया है और हमेशा अपने दिलों में उसके साथ प्रतिस्पर्धा की है। मैं तुम लोगों को सच बताता हूँ—तुम जो करते हो वह तुम्हारी स्वतंत्रता है, लेकिन अगर परमेश्वर के अनुयायी के रूप में तुम देहधारी परमेश्वर के देह के साथ इतनी निर्लज्जता से पेश आते हो, तो एक बात निश्चित है : तुम किसी व्यक्ति के लिए मुश्किलें खड़ी नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम खुले तौर पर परमेश्वर के खिलाफ आवाज उठा रहे हो और खुद को उसके खिलाफ खड़ा कर रहे हो—तुम परमेश्वर के खिलाफ खड़े हो रहे हो। जो भी चीज परमेश्वर के सार, स्वभाव, क्रियाकलापों और खास तौर से देहधारी परमेश्वर के देह को छूती है, वह प्रशासनिक आदेशों से संबंधित होती है। अगर तुम मसीह के साथ इतनी बेईमानी से पेश आते हो और इतनी निर्लज्जता से उसकी आलोचना और निंदा करते हो, तो मैं तुम्हें बता दूँ, तुम्हारा परिणाम पहले ही तय हो चुका है। यह उम्मीद मत करना कि परमेश्वर तुम्हें बचाएगा। परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को नहीं बचा सकता, जो खुले-आम उसके खिलाफ आवाज उठाता है और निर्ल्लजता से उसके खिलाफ खड़ा होता है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का दुश्मन है, वह एक शैतान और एक दानव है, और परमेश्वर उसे नहीं बचाएगा। जल्दी से उसके पास चले जाओ, जो तुम्हें लगता है कि तुम्हें बचा सकता है। परमेश्वर का घर तुम्हें नहीं रोकेगा, उसके दरवाजे खुले हैं। अगर तुम्हें लगता है कि पौलुस तुम्हें बचा सकता है, तो उसके पास चले जाओ; अगर तुम्हें लगता है कि पादरी तुम्हें बचा सकता है, तो उसके पास चले जाओ। लेकिन एक बात पक्की है : परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा। तुम जो करते हो वह तुम्हारी स्वतंत्रता है, लेकिन परमेश्वर तुम्हें बचाता है या नहीं, यह उसकी स्वतंत्रता है, और अंतिम निर्णय उसी का है। क्या परमेश्वर के पास यह शक्ति है? क्या उसके पास यह गरिमा है? (बिल्कुल है।) देहधारी परमेश्वर मनुष्यों के बीच रहता है, वह गवाही देता है कि वह मसीह है, अंत के दिनों का कार्य करने के लिए आता है। कुछ लोग परमेश्वर के सार को पहचानते हैं और पूरे दिल से उसका अनुसरण करते हैं, और वे उसे परमेश्वर समझते हैं और उसे परमेश्वर मानकर उसके प्रति समर्पण करते हैं। दूसरे लोग अंत तक उसका हठपूर्वक विरोध करना चाहते हैं : “चाहे जितने भी लोग विश्वास करें कि तुम मसीह हो, मैं इस पर विश्वास नहीं करूँगा। तुम चाहे कुछ भी कहो, मैं पूरे दिल से तुम्हें परमेश्वर नहीं मानूँगा। जब मैं परमेश्वर को वास्तव में तुमसे बात करते और तुम्हारी गवाही देते हुए देखूँगा, जब स्वर्गिक परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से गरजती हुई आवाज में मुझसे कहेगा, ‘यह मेरा देहधारी देह, मेरा लाड़ला, मेरा प्रिय पुत्र है,’ सिर्फ तभी मैं तुम्हें परमेश्वर मानूँगा और स्वीकारूँगा। जब मैं व्यक्तिगत रूप से स्वर्गिक परमेश्वर को मुझसे बात करते और तुम्हारी गवाही देते हुए सुनूँगा और देखूँगा, सिर्फ तभी मैं तुम्हें स्वीकारूँगा, वरना यह असंभव है!” क्या ऐसे लोग मसीह-विरोधी नहीं हैं? जब वह दिन वास्तव में आएगा, तो भले ही वे मसीह को परमेश्वर के रूप में स्वीकार लें, यह उनके लिए सजा का दिन होगा। उन्होंने परमेश्वर का विरोध किया, उसके खिलाफ आवाज उठाई और हर मोड़ पर उसके प्रति शत्रुतापूर्ण रहे—क्या ये क्रियाकलाप एक ही झटके में खारिज किए जा सकते हैं? (नहीं।) तो, यहाँ एक सत्य कथन है, जो यह है कि परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार प्रतिफल देगा। ये लोग न सिर्फ प्रतिदंड का सामना करेंगे, बल्कि वे कभी परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से अपने से बात करते हुए भी नहीं सुनेंगे। क्या वे इसी लायक हैं? परमेश्वर मनुष्यों के लिए अपनी गवाही देना चाहता है, मनुष्यों और सच्चे सृजित प्राणियों के सामने प्रकट होना चाहता है, अपना वास्तविक व्यक्तित्व प्रकट करना चाहता है, और उनसे बोलना और वचन कहना चाहता है। वह शैतानों के सामने न तो प्रकट होता है, और न ही उनसे बोलता और वचन कहता है। इसलिए, मसीह-विरोधियों को परमेश्वर का वास्तविक व्यक्तित्व देखने या उसके वचन और कथन अपने कानों से सुनने का अवसर कभी नहीं मिलेगा। उन्हें यह मौका कभी नहीं मिलेगा। तो क्या भविष्य में उनके लिए मुश्किल समय होगा? (बिल्कुल।) क्यों? मसीह-विरोधी, ये बेशर्म प्राणी, परमेश्वर का विरोध करते हैं और हर मोड़ पर उसके खिलाफ आवाज उठाते हैं, और जो कुछ भी वह करता है, उसे तुच्छ समझते हैं, उसकी निंदा करते हैं और उसका मजाक तक उड़ाते हैं। तो, परमेश्वर उनके साथ कैसे पेश आएगा? क्या वह उनके साथ दयालुता से पेश आएगा और उन्हें माफ कर देगा? क्या वह उन्हें आशीष देगा? क्या वह उन्हें अपना वादा देगा? क्या वह उन्हें बचाएगा? व्यावहारिक रूप से कहें तो, क्या ऐसे लोग परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं? इस जीवन में वे परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी, या उसकी ताड़ना और अनुशासन, या अपने जीवन के लिए उसका पोषण प्राप्त नहीं करेंगे। वे बचाए नहीं जाएँगे, और आने वाले संसार में वे अपने बुरे कर्मों की भारी कीमत हमेशा-हमेशा चुकाते रहेंगे। यही उनका परिणाम है। मसीह-विरोधियों का परिणाम पौलुस जैसा ही होगा।
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