मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ विश्वासघात तक कर देते हैं (भाग छह) खंड दो
परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया अध्ययन करने का होता है। वे परमेश्वर के वचन को कभी परमेश्वर का वचन नहीं मानते; तो वे इसे क्या मानते हैं? रहस्यों का संग्रह? एक काल्पनिक कहानी? अस्पष्ट और समझ में न आने वाले पाठ? जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो वे उसके इरादों की खोज नहीं कर रहे होते, ना ही वे उसके इरादों या स्वभाव को समझने की कोशिश कर रहे होते हैं। वे परमेश्वर को जानना ही नहीं चाहते, उसके इरादों के प्रति विचारशील होना तो दूर की बात है। जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, “वर्तमान में मेरी तात्कालिक आकांक्षा उन लोगों के एक समूह की तलाश करना है, जो मेरे इरादों के प्रति पूरी तरह विचारशील हो सकें,” तो क्या वे प्रेरित होते हैं? वे कहते हैं : “परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील लोगों की खोज करने का क्या मतलब है? तुम्हारे इरादों के प्रति विचारशील होने का क्या फायदा है? क्या ऐसा करने से मुझे खाना मिलेगा या मैं पैसे कमा पाऊँगा? क्या परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना किसी अच्छी मंजिल की ओर ले जाता है? क्या यह मुझे महान आशीष दिला सकता है? अगर यह ऐसा नहीं कर सकता तो इसे भूल जाओ; मुझे विचारशील होने की जरूरत नहीं है। मैं नरक में डाले जाने से बचने और एक अच्छी मंजिल सुरक्षित करने के लिए कोई रास्ता खोज रहा हूँ। अगर तुम्हारे इरादों के प्रति विचारशील होना मुझे आशीष दे सकता है तो मैं विचारशील हो जाऊँगा। बस मुझे बताओ कि कैसे।” क्या तुम लोगों को लगता है कि वे परमेश्वर द्वारा निर्धारित अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं? (नहीं।) परमेश्वर केवल एक चीज का प्रस्ताव करता है : परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलना, परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। ऐसा करने से, तुम उसके इरादों के प्रति विचारशील होते हो और महान आशीष प्राप्त कर सकते हो। जब मसीह-विरोधी यह सुनते हैं तो वे सोचते हैं, “मैंने बिना सोचे-समझे हामी भर दी, मुझे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए था। मैं परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहने में सक्षम नहीं हूँ, इसे भूल जाओ। यह तरीका काम नहीं करेगा; मैं दूसरा तरीका ढूँढ़ लूँगा।” फिर वे परमेश्वर के वचन के अन्य पहलुओं में प्रयास करना शुरू करते हैं। वे अन्य पहलुओं पर शोध और विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं, लेकिन सभी विश्लेषणों के बाद उन्हें इससे केवल कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत ही मिलते हैं। क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और वे अपने हितों, संभावनाओं और नियति को ही अपने जीवन भर के अनुसरण का विषय मानते हैं; इसलिए, परमेश्वर के वचन उनके लिए महज जुमले बन गए हैं। उन्हें कभी भी परमेश्वर के कार्य से आनंद या पवित्र आत्मा से मार्गदर्शन का अनुभव नहीं हुआ है। जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो उन्हें कोई प्रकाश नहीं दिखता और उन्हें कोई प्रबोधन या पोषण नहीं मिलता। उन्हें बस कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत मिलते हैं, रहस्यों और मंजिलों के बारे में कुछ खुलासे और कहावतें मिलती हैं। जब वे इन कहावतों और धर्म-सिद्धांतों को पूँजी मान लेते हैं तो उन्हें लगता है कि उन्होंने अपनी मंजिलों पर नियंत्रण पा लिया है, उन्होंने अपनी मंजिलों को सुरक्षित कर लिया है। हालाँकि, परमेश्वर के वचनों के निरंतर प्रकाशन, न्याय और ताड़ना के बीच या विभिन्न चरणों में मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के बीच उन्हें लगता है मानो उन्होंने अपनी मंजिलें खो दी हैं और उन्हें बचाया नहीं जा सकता। इस अवधि के दौरान, वे हमेशा अंदर से असहज महसूस करते हैं; एक अच्छी मंजिल सुरक्षित करने की खातिर उनके अपने अंतरतम में लगातार मानसिक संघर्ष चलता रहता है। वे परमेश्वर के एक वाक्य के कारण संघर्ष करेंगे, तो परमेश्वर के दूसरे वाक्य के कारण नकारात्मक हो जाएँगे, फिर एक और वाक्य के कारण खुशी महसूस करेंगे। हालाँकि, चाहे वे खुश हों या जीवन-रक्षक तिनके को पकड़ रहे हों, ऐसे लोगों के लिए यह केवल क्षणभंगुर है। इसलिए, अंत में कुछ मसीह-विरोधी महसूस करते हैं मानो उनके जैसे लोगों को बचाया ही नहीं जा सकता; परमेश्वर के वचनों में वे देखते हैं कि वह उनके जैसे लोगों को पसंद नहीं करता है—वे आशीष प्राप्त कर सकते हैं या नहीं? उनकी संभावनाएँ और नियति क्या हैं? उन्हें लगता है कि ये अज्ञात हैं, वे इनके बारे में निश्चित नहीं हैं। इस मुकाम पर वे क्या करेंगे? क्या वे पश्चात्ताप कर सकते हैं? क्या वे नीनवे के लोगों की तरह अपनी बुराई त्याग सकते हैं, परमेश्वर के सामने पाप कबूलने और पश्चात्ताप करने के लिए वापस आ सकते हैं, परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार सकते हैं और परमेश्वर के वचनों को अपने अस्तित्व की नींव मानकर स्वीकार सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। इसलिए, कई वर्षों के अनुसरण, कई वर्षों की आशा और कई वर्षों तक परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करने के बाद अगर वे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि उनके जैसे लोग आशीष प्राप्त नहीं कर सकते, उनके पास कोई आशा नहीं है, वे बिल्कुल भी वे लोग नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा और वे वह सब नहीं प्राप्त कर सकते जो वे चाहते हैं तो वे क्या करेंगे? (वे परमेश्वर को छोड़ देंगे।)
एक आध्यात्मिक कहावत है, “मैं परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहराता हूँ : मैं अपना शरीर और हृदय उसे समर्पित करता हूँ।” यह कहावत बहुत “भव्य” है। जब मैंने पहली बार ये शब्द सुने तो मैंने अपने हृदय में मानवीय भाषा की “भव्यता” को गहराई से महसूस किया। लोग अपनी शपथों को बहुत कीमती, बहुत शुद्ध और दोषरहित मानते हैं; वे अपने प्रेम के समर्पण को बहुत शुद्ध और पवित्र मानते हैं। क्या मसीह-विरोधी परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहरा सकते हैं और अपना शरीर और हृदय उसे समर्पित कर सकते हैं? (वे ऐसा नहीं कर सकते।) क्यों नहीं? कुछ लोग कहते हैं : “परमेश्वर के इतने सारे वचन पढ़ने के बाद, जब मैं देखता हूँ कि मेरे सोचने का तरीका काम नहीं कर रहा है या नतीजे प्राप्त नहीं कर रहा है तो मैं बस परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहराता हूँ, और उस शपथ को दोहराता हूँ जो मैंने मूल रूप से उसके सामने ली थी। क्या यह पीछे मुड़ना नहीं है? यह मुश्किल नहीं है।” क्या मसीह-विरोधी ऐसा कुछ कर सकते हैं? (वे ऐसा नहीं कर सकते।) क्यों नहीं कर सकते? क्या “मैं परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहराता हूँ” मनुष्य का सबसे बुद्धिमत्तापूर्ण कथन नहीं है? क्या यह मनुष्य का सबसे महान और शुद्धतम प्रेम नहीं है? तो फिर मसीह-विरोधी ऐसा क्यों नहीं कर पाते? (मसीह-विरोधियों को परमेश्वर की कोई समझ नहीं होती है, सच्चे प्रेम की तो बात ही छोड़ो। उनका प्रेम पूरी तरह से झूठा और उनके हितों पर आधारित है। जब उन्हें कोई लाभ नहीं मिलने वाला होता है तो वे मुँह फेरकर चले जाते हैं।) जब मसीह-विरोधी इस मुकाम पर पहुँचते हैं तो उन्हें लगता है कि कुछ गलत हो गया है और उन्होंने गलत दाँव लगाया है। अपने मनोबल को ऊपर उठाने के लिए, उन्हें किसी नारे या सिद्धांत का उपयोग करने की जरूरत पड़ती है जो उनके आध्यात्मिक संसारों का समर्थन करे—किस तरह का नारा? “मैं परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहराता हूँ : मैं अपना शरीर और हृदय उसे समर्पित करता हूँ।” इसका मतलब है कि वे फिर से शुरू करने जा रहे हैं। वरना वे जीवित नहीं रह पाएँगे और परमेश्वर में उनका विश्वास खत्म हो जाएगा। परमेश्वर अपने कार्य के दौरान हर दिन बोलता है, और हर बार जब वह बोलता है तो उसके वचन सत्य के बारे में होते हैं—वे सभी ऐसे वचन हैं जो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करते हैं, जो यह माँग करते हैं कि लोगों को कैसे सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करना चाहिए और कैसे सत्य सिद्धांत समझने चाहिए—वे सभी ये वचन हैं। और इसलिए, मसीह-विरोधी सोचते हैं : “इनमें से कोई भी वचन मंजिलों के बारे में बात क्यों नहीं करता या आशीष प्राप्त करने से जुड़ी बातों का जिक्र क्यों नहीं करता? क्या इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर के हाथों में हमारी संभावनाएँ और नियति शून्य हो गई हैं? क्या परमेश्वर का हमसे किया गया वादा अब नहीं रहा? अगर परमेश्वर इन बातों का कभी जिक्र नहीं करता है, तो शायद हमारी उम्मीदें धराशायी हो जाएँगी। अगर हमारी उम्मीदें धराशायी हो जाती हैं तो हमें क्या करना चाहिए? यह आसान है। अगर परमेश्वर के वचन इन बातों के बारे में कुछ नहीं कहते तो चलो हम एक मानवीय तरीका अपनाएँ : आओ हम परमेश्वर से प्रेम करने की अपनी शपथ को दोहराएँ!” जब लोगों ने पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था तो उनमें इतना उत्साह, इतना प्रेम और ऐसी आस्था कैसे थी? जब ये चीजें अपने चरम पर पहुँचीं तो लोगों ने परमेश्वर के सामने संकल्प और शपथ लेते हुए कहा : “इस जीवन में मैं जब भी और जहाँ भी रहूँ, मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाऊँगा और बिना किसी शिकायत या पछतावे के खुद को उसके प्रति समर्पित करूँगा। चाहे बारिश हो या धूप, चाहे कैसा भी उतार-चढ़ाव हो, चाहे मैं बीमार रहूँ, चाहे कितनी भी मुसीबतें क्यों न हों, मैं अंत तक उसका अनुसरण करूँगा, जब तक समुद्र सूख नहीं जाता और चट्टानें धूल में नहीं बदल जातीं। अगर मैं इस शपथ का उल्लंघन करूँ तो मैं स्वर्ग के वज्रपात से मारा जाऊँ और मुझे कोई अच्छी मंजिल ना मिले।” अब उनकी सारी शपथ खत्म क्यों हो गई हैं? उन्हें लगता है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि बहुत समय बीत चुका है और इससे उनकी आस्था और प्रेम खत्म हो गया है। अपने दिलों में वे सोचते हैं : “नहीं, मुझे अपने मनोबल को ऊपर उठाना है। मुझे उतना ही तरोताजा और जीवंत होना है और उतनी ही आस्था और उत्साह रखना है जितना पहले था। मुझे अपनी आकाँक्षाओं को, अपनी मंजिल को फिर से प्राप्त करना है और आशीष प्राप्त करने की अपनी इच्छा को फिर से जीवंत करना है। इस तरह, क्या परमेश्वर में मेरी आस्था और उसके प्रति मेरा प्रेम पहले जैसा महान नहीं हो जाएगा? क्या उसके प्रति मेरा सच्चा समर्पण पहले जैसा नहीं हो जाएगा?” लेकिन, सत्य का अनुसरण नहीं करने वाला कोई भी व्यक्ति अपने दिल की गहराई में चाहे कितना भी संघर्ष करे या वह परमेश्वर के प्रति अपनी मूल आस्था और उत्साह को कितना भी याद करे, यह उसकी वर्तमान स्थिति को नहीं बदल सकता। यह स्थिति क्या है? जब उसकी संभावनाएँ और नियति व्यर्थ हो जाती हैं, जब उसकी संभावनाएँ और नियति उससे दूर होती चली जाती हैं, जब आशीष प्राप्त करने की उसकी इच्छा लगभग बिखर जाती है और जब उसके सभी आशावादी विचार और उसकी सभी इच्छाएँ पूरी नहीं हो पाती हैं तो उसके लिए डटे रहना बहुत मुश्किल हो जाता है—उसके दिल की गहराइयों में इस तरह से दृढ़ रहना उसके लिए बहुत पीड़ादायक होता है। वह अक्सर ऐसी स्थिति और मनोदशा का अनुभव करता है जहाँ ऐसा लगता है कि वह अब और नहीं टिक सकता। वह अक्सर इस बात का इंतजार करता है कि कब परमेश्वर का कार्य पूरा होगा, ताकि वह स्वर्ग के राज्य के आशीषों का आनंद ले सके। कुछ लोग तो यह भी उम्मीद करते हैं, “परमेश्वर का कार्य जल्दी खत्म हो जाए, महाविनाश जल्दी से उतर जाएँ—अगर आसमान गिर जाए तो हर कोई मर जाएगा, किसी को भी अच्छे नतीजों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। अगर मुझे आशीष नहीं मिल सकते तो किसी को भी नहीं मिलने चाहिए!” अपने दिलों की गहराई में, वे परमेश्वर के राज्य के आने की आशा नहीं करते हैं, वे परमेश्वर के महान उद्यम के पूरा होने की आशा नहीं करते हैं और वे आखिर में परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना के महिमा पाने की आशा नहीं करते हैं या वे परमेश्वर द्वारा मानवजाति के बीच विजेताओं को प्राप्त करने और मानवजाति को एक सुंदर मंजिल तक ले जाने की आशा नहीं करते हैं—वे इन चीजों की आशा नहीं करते हैं। इसके उलट, जब आशीष पाने की उनकी सभी इच्छाएँ खत्म होने को होती हैं तो अपने दिलों की गहराई में, वे परमेश्वर के कार्य को कोसते हैं, वे परमेश्वर के कार्य से विमुख हो जाते हैं और इससे भी ज्यादा वे उसके वचनों से विमुख हो जाते हैं।
इतने सालों से धर्मोपदेश सुनने के बाद अब कुछ लोग जितने ज्यादा धर्मोपदेश सुनते हैं उतना ही ज्यादा समझते हैं, उनके दिल उतने ही स्पष्ट होते हैं और वे उतना ही अधिक उन्हें सुनना चाहते हैं। इसके उलट, दूसरे लोग जितने अधिक धर्मोपदेश सुनते हैं, उतना ही अधिक प्रतिरोध महसूस करते हैं। जैसे ही वे परमेश्वर के वचन सुनते हैं, उनका राक्षसी पक्ष प्रकट हो जाता है। जैसे ही वे सत्य पर परमेश्वर की संगति सुनते हैं और इसमें मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों की बात होती है, उनकी विद्रोही मानसिकता सामने आ जाती है, और उनका संपूर्ण प्रतिरोध बाहर आ जाता है—वे इसे किस हद तक ले जाते हैं? कुछ लोग अपने दिलों में कोसते हैं : वे परमेश्वर को कोसते हैं, सत्य को कोसते हैं, कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कोसते हैं, और उन लोगों को कोसते हैं जो सत्य का अधिक अनुसरण करते हैं। जब वे ऐसे लोगों को देखते हैं तो वे उन्हें नापसंद करते हैं और उन पर हमला करना चाहते हैं। जब वे ऐसे लोगों को परमेश्वर के वचनों का प्रचार करते, परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करते और परमेश्वर के वचनों पर संगति करते देखते हैं तो वे अपने दिलों में तब तक कोसते हैं जब तक वे थक नहीं जाते और उन्हें नींद नहीं आ जाती। इसलिए, कुछ लोगों की आँखें परमेश्वर के वचनों पर संगति सुनते ही चमक उठती हैं, जबकि दूसरे लोग परमेश्वर के वचनों पर संगति सुनते हैं या किसी को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें परमेश्वर के वचनों से किसी तरह की रोशनी मिली है तो उनके मन भ्रमित हो जाते हैं, उनके विचार अस्पष्ट हो जाते हैं और उनका मनोबल डूब जाता है। उनके दिल इस कदर घुटन से भरे होते हैं कि वे साँस तक नहीं ले पाते, और वे हमेशा ताजी हवा में साँस लेने के लिए बाहर जाने को तरसते हैं। लेकिन जब तुम संभावनाओं और नियति, परमेश्वर के आशीषों, परमेश्वर का कार्य समाप्त होने के समय और रहस्य जैसी चीजों के बारे में संगति करते हो, तो चाहे कमरा कितना भी छोटा हो या हवा कितनी भी खराब हो, वे हवा लेने के लिए बाहर नहीं जाते या झपकी नहीं लेते, वे अपने कान खड़े करके सुनते रहते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितनी देर तक बात करते हो, भले ही उन्हें नींद या भोजन के बिना रहना पड़े। जब कुछ नए विश्वासी मेरे संपर्क में आए तो मैंने लोगों की स्थितियों और सत्य का अनुसरण करने के तरीकों के बारे में उनके साथ संगति की, लेकिन वे समझ नहीं पाए और उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं कुछ रहस्यों के बारे में बात कर सकता हूँ। मैंने कहा : “क्या तुम रहस्यों के बारे में सुनना चाहते हो? तो पहले मैं तुम्हें एक तथ्य बता दूँ। जो लोग लगातार रहस्यों के बारे में पूछताछ करते हैं और हमेशा परमेश्वर के वचनों में इन चीजों पर शोध करने पर ध्यान देते हैं, वे अच्छे लोग नहीं हैं। वे सभी छद्म-विश्वासी और फरीसी हैं।” नए विश्वासी मेरे जवाब से अचंभित रह गए और शर्म के मारे आगे पूछताछ करने की हिम्मत नहीं की, लेकिन बाद में उन्हें फिर से पूछने का अवसर मिल गया और मैंने उन्हें उसी तरह से जवाब दिया। तुम लोग मेरे जवाब के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा था। इससे उन्हें आत्म-चिंतन करने में मदद मिल सकती है।) क्या वे आत्म-चिंतन करेंगे? वे नहीं करेंगे। फिर तुम उनकी मदद कैसे कर सकते हो? बस उन्हें बताओ : “रहस्य जीवन या सत्य नहीं हैं। चाहे तुम कितने भी रहस्य समझ लो, यह तुम्हारे सत्य समझने के बराबर नहीं होगा। यहाँ तक कि हर एक रहस्य समझ लेना भी तुम्हारे स्वर्ग में जाने या अच्छी मंजिल पाने के बराबर नहीं होगा।” इन वचनों से उनकी मदद करने के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह मामले को पूरी तरह से स्पष्ट नहीं करता है? जब आध्यात्मिक समझ रखने वाले, सत्य से प्रेम करने वाले और सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ये वचन सुनते हैं तो वे कहते हैं, “मैंने सोचा था कि रहस्य ही जीवन है, लेकिन अब जबकि मुझे पता चला है कि वे जीवन नहीं हैं तो मैं उन पर और शोध नहीं करूँगा। तो फिर जीवन क्या है?” इससे पता चलता है कि उन्होंने थोड़ा-बहुत समझ लिया है। तो क्या इन वचनों को सुनने के बाद मसीह-विरोधियों को मदद मिलती है? क्या वे बदल जाते हैं? वे बदलने में सक्षम नहीं हैं। उन्हें इन वचनों में कोई लाभ नहीं दिखता है, वे मानते हैं कि इन वचनों में कोई आशीष नहीं हैं, इनमें उनकी संभावनाएँ और नियति शामिल नहीं हैं, इनका उनकी संभावनाओं और नियति से कोई संबंध नहीं है और वे उनसे जुड़े नहीं हैं और वे बेकार हैं; इसलिए, वे उन्हें स्वीकार नहीं कर सकते। तो फिर, कौन-सी संगति उनकी संभावनाओं और नियति से जुड़ी हुई है? उदाहरण के लिए तुम कह सकते हो : “आजकल, दुनिया में कई अजीबोगरीब घटनाएँ घटती दिख रही हैं। कुछ जगहों पर चार चाँद देखे गए हैं और कई बार रक्तिम चाँद देखा गया है। अजीबोगरीब खगोलीय घटनाएँ अक्सर घट रही हैं। मानव संसार में कई तरह की महामारियाँ और आपदाएँ भी आई हैं और कुछ जगहों पर लोग नरभक्षी हो रहे हैं। इस स्थिति को देखते हुए, हम पहले ही प्रकोप के उन कटोरों और विपत्तियों के समय में पहुँच चुके हैं जिनकी भविष्यवाणी प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में की गई थी।” जब मसीह-विरोधी ये शब्द सुनते हैं तो उनकी आँखें चमक उठती हैं और उनके कान खड़े हो जाते हैं। वे आनंदित होते हैं, “यह अच्छा है कि मैं इस युग में पैदा हुआ। मैं महान आशीष प्राप्त कर सकता हूँ। मैं वाकई होशियार हूँ! मैंने सांसारिक चीजों के पीछे भागने का विकल्प नहीं चुना। मैंने परमेश्वर के कार्य के इस चरण का अनुसरण करने के लिए अपनी सांसारिक संभावनाओं और अपने परिवार को त्याग दिया—मुझे बहुत खुशी है कि मैं अब तक अनुसरण करने में सक्षम रहा। परमेश्वर का दिन निकट है। स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मैं मरने से पहले उस दिन तक पहुँचने में सक्षम हो जाऊँगा जब परमेश्वर का कार्य पूरा होगा। उस दिन, मैं निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा बचाए गए लोगों में से एक होऊँगा। कितनी बढ़िया बात है!” अपने दिलों में, वे यह सोचकर आनंदित होते हैं कि उन्होंने सही रास्ता चुना है, उन्हें सही द्वार मिला है और उन्होंने कुछ कीमतें चुकाई हैं। वे इस बात से भी आनंदित होते हैं कि उन्होंने बिना हार माने इस मुकाम तक अनुसरण किया है, वे अभी भी परमेश्वर के घर में हैं, और उन्होंने कोई समस्या नहीं पैदा की है, उन्हें बाहर निकाला या निष्कासित नहीं किया गया है। तो क्या अब वे सत्य का अभ्यास करेंगे या उन्हीं उम्मीदों के साथ जारी रखेंगे? उनका अंतरतम रवैया नहीं बदलेगा। इसलिए, जब उन्हें परमेश्वर के वचनों का कोई ऐसा अंश मिलता है जिसके बारे में वे सोचते हैं कि वह पूरा हो गया है, तो उन्हें ऐसा लगता है जैसे उन्हें कोई खजाना मिल गया हो। उन्हें तुरंत लगता है कि वे भाग्यशाली हैं, उन्होंने सही रास्ता चुना है, सही द्वार में प्रवेश किया है, सही परमेश्वर को चुना है और वे बुद्धिमान लोग और बुद्धिमान कुँवारियाँ हैं। “शुक्र है कि मैंने तब अपनी नौकरी छोड़ दी। मैंने सही फैसला किया। मैं इतना होशियार कैसे हूँ? अगर मैं तब इतना सावधान नहीं होता तो शायद मैं अब आशीष पाने से चूक जाता। मुझे भविष्य में भी सावधान रहना होगा और अपनी संभावनाओं और नियति के लिए संघर्ष करने में अपने जीवन को समर्पित करना होगा।” इस मामले में तुम लोग मसीह-विरोधियों का कौन-सा सार देखते हो? क्या ये लोग अवसरवादी नहीं हैं? उन्हें परमेश्वर, उसके वचनों या उसके कार्य में कोई वास्तविक विश्वास नहीं है। वे अवसरवादी हैं, ऐसे लोग जो परमेश्वर के घर में घुस आए हैं। इसलिए, परमेश्वर के घर में, ये लोग हमेशा बस खाली जगह भरने वाले लोग होते हैं, जो दिन भर इधर-उधर भटकते रहते हैं। वे अपनी उँगलियों पर गिनते हैं कि उन्होंने कितने सालों से परमेश्वर का अनुसरण किया है, कितनी कीमतें चुकाई हैं, कितने महान कार्य किए हैं, परमेश्वर के कौन-से कार्य को उन्होंने व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है और परमेश्वर के कार्य के कौन-से चरणों की उन्हें थोड़ी समझ है। वे दिन भर बार-बार अपने दिलों में इन बातों का हिसाब लगाते रहते हैं और सबसे महत्वपूर्ण बातों को पीछे छोड़ देते हैं जो सत्य और जीवन से संबंधित हैं। वे केवल आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं—यह तो अवसरवाद है। परमेश्वर का कोई भी वचन या किसी का अनुभवजन्य ज्ञान, कभी भी उनके अवसरवादी रवैये को नहीं बदल सकता। मसीह-विरोधी ऐसे ही होते हैं। जब उनके हितों की बात आती है तो वे इस मामले में कभी कोई रियायत नहीं देंगे; वे कभी भी अपने दृष्टिकोण नहीं बदलेंगे, जिस मार्ग पर वे चल रहे हैं उसकी दिशा और लक्ष्य नहीं बदलेंगे, या अपनी संभावनाओं और नियति की खातिर स्व-आचरण के अपने सिद्धांतों को नहीं बदलेंगे। वे अपनी संभावनाओं और नियति के लिए परमेश्वर के वचनों को अमल में नहीं लाएँगे, एक वचन को भी नहीं। कुछ लोग कहते हैं : “वे कभी-कभी कुछ वचनों को अमल में लाते हैं, जैसे कि चीजों को त्यागना या खुद को खपाना।” चाहे वे किसी भी चीज पर अमल करें, वे ऐसा इस आधार पर करते हैं कि उनके पास संभावनाएँ और नियति हों और वे आशीष प्राप्त कर सकें। चाहे वे किसी भी सत्य पर अमल करें, यह मिलावटी है और ऐसे इरादे और लक्ष्य के साथ किया जाता है। यह उस अभ्यास से पूरी तरह अलग है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है।
जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो वे मुख्य रूप से अपनी मंजिल और रहस्यों की खोज करने के लिए उनके वचनों का उपयोग करते हैं; साथ ही, वे परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन योजना के समाप्त होने और विनाश कब आएँगे, वगैरह से संबंधित सामग्री को भी खोजते हैं। अपनी मंजिल की खातिर, वे बहुत अधिक मेहनत कर सकते हैं और कई चीजें कर सकते हैं। इसलिए, जब परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा और महाविनाश आएँगे, तो उन्होंने जो चीजें की हैं, जो कीमत चुकाई है, और जिन चीजों का त्याग किया है, क्या उनके बदले उन्हें इच्छित आशीष मिल सकते हैं और क्या वे विनाशों के कष्ट से बच सकते हैं—यही वे जानना चाहते हैं और केवल इन्हीं बातों की परवाह करते हैं। परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करने की पूरी प्रक्रिया के दौरान, चाहे इसमें कितने भी साल लग जाएँ, वे केवल अपनी संभावनाओं और नियति की परवाह करते हैं। इसलिए, परमेश्वर के वचन पढ़ते समय उनका ध्यान जिस बात पर रहता है और परमेश्वर के वचनों में वे जो सामग्री खोजते हैं, उन सभी में कुछ विशेष संकेत और विशेषताएँ होती हैं। आम तौर पर, नए विश्वासी अपने पहले छह महीनों या एक साल में, परमेश्वर के वचनों में ऐसे विषयों की खोज करते हैं। लेकिन छह महीने या एक साल बीत जाने के बाद, कुछ लोग देखते हैं कि उन्होंने इन सभी भागों को पहले ही पढ़ लिया है और उन्हें लगता है कि इन पर और शोध करना निरर्थक है; वे लोगों को सत्य में प्रवेश करने में सक्षम नहीं बना सकते हैं और वे उनके सत्य में प्रवेश करने को प्रभावित और बाधित भी कर सकते हैं, इसलिए वे अब इन भागों को और नहीं पढ़ते हैं। उनके लिए, इन्हें कभी-कभार देख लेना और समझ लेना ही काफी है। बाकी समय में वे सोचते हैं, “मैं सत्य में कैसे प्रवेश कर सकता हूँ? परमेश्वर के बहुत-से वचन हैं जो मानवजाति को उजागर करते हैं। वे लोगों की धोखेबाजी, उनके विद्रोहीपन और अहंकारी स्वभावों को उजागर करते हैं; वे परमेश्वर के प्रति लोगों की विभिन्न धार्मिक धारणाओं और रवैयों को उजागर करते हैं। यही नहीं, वे लोगों की असामान्य मानवता की विभिन्न अभिव्यक्तियों को भी उजागर करते हैं। तो, मैं कैसे जान सकता हूँ कि लोगों को परमेश्वर के वचनों में से किस चीज का अभ्यास करना चाहिए?” जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं, वे इन चीजों के लिए अपना प्रयास समर्पित करते हैं। वे अक्सर उन वास्तविक समस्याओं के बारे में पूछते हैं जिन्हें उन्हें समझने और अपने वास्तविक जीवन में जिनमें प्रवेश करने की आवश्यकता होती है, जैसे कि “हमें आगे क्या करना चाहिए और हमें कैसे अभ्यास करना चाहिए? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, हम निश्चित रूप से अविश्वासियों और धार्मिक विश्वास वाले लोगों से अलग होंगे तो हमारे जीवन में कौन-से गुणात्मक बदलाव होने चाहिए? अपने आचरण और संसार के साथ पेश आने के मामले में, हमें कैसे बोलना और कार्य करना चाहिए, दूसरों के साथ कैसे बातचीत करनी चाहिए और सत्य का कैसे अभ्यास करना चाहिए?” लेकिन, मसीह-विरोधी कभी भी ये सवाल नहीं पूछेंगे, भले ही वे 10, 20 या 30 साल तक विश्वास करें। वे परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करते हैं और परमेश्वर के वचनों में आशीष और अपनी मंजिल प्राप्त करने की उम्मीद खोजते हैं; भले ही वे 20 या 30 साल तक खोज करें, वे ऐसा करने में नहीं ऊबेंगे। जैसे ही मुसीबत का थोड़ा-सा भी संकेत मिलता है, वे फौरन परमेश्वर के वचनों में अपनी मंजिल से संबंधित सामग्री खोजते हैं, फिर मूल्यांकन करते हैं कि उनके मौजूदा विश्वास के आधार पर उनके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या हो सकता है। वे घटनाचक्रों और अवधियों के संदर्भ में अपनी मंजिल का आकलन करते प्रतीत होते हैं। परमेश्वर के कार्य करने के तरीके में बदलाव या मानवजाति के प्रति उसके तात्कालिक इरादे की अभिव्यक्ति के कारण वे कभी भी अपने विचार और रवैये नहीं बदलेंगे और सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे। वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। इसलिए, कुछ लोग जो 20 या 30 सालों से विश्वास कर रहे हैं, वे अभी भी उन रहस्यों और परमेश्वर द्वारा बताए गए उन विषयों पर अपने प्रयासों को समर्पित कर रहे हैं जिनमें मानवजाति की नियति और मंजिल शामिल हैं। कुछ लोग किस हद तक अपने प्रयासों को समर्पित कर रहे हैं? वे कहते हैं : “जब मैंने परमेश्वर के वचनों के प्रत्येक भाग की तुलना की, तो मुझे सबसे बड़े रहस्य का पता चला। जब मसीह पृथ्वी को छोड़ेगा, तो यह वसंत ऋतु में होगा।” तुम लोगों को क्या लगता है कि यह सुनने के बाद मुझे कैसा महसूस होता होगा? क्या मुझे खुशी या दुख महसूस होता है? मुझे न तो खुशी होती है और न ही दुख। मुझे लगता है कि यह हास्यास्पद है। वास्तव में ऐसे लोग हैं जो इस हद तक अपने प्रयास समर्पित करते हैं कि वे विशिष्ट मौसम तक को जानते हैं। अगर वे आगे बढ़कर इस हद तक विशिष्ट समय की खोज कर सकें कि मिनट और सेकंड तक सटीक हों, तो वे वाकई “विलक्षण बुद्धि वाले” होंगे! ऐसे “विलक्षण बुद्धि वाले” लोग कुछ ऐसी खोज कर सकते हैं जो मैं स्वयं भी नहीं जानता, यह वास्तव में हास्यास्पद और अत्यधिक खिझाने वाला दोनों है। यह हास्यास्पद क्यों है? कोई भी व्यक्ति वह सटीक समय नहीं जानता जब परमेश्वर देहधारी हुआ, यहाँ तक कि शैतान भी इसे नहीं जानता। क्या परमेश्वर किसी व्यक्ति को कुछ ऐसा जानने देगा जो शैतान को भी नहीं पता? बेशक नहीं। इसी तरह, जब उस समय की बात आती है जब परमेश्वर अपना महान उद्यम पूरा कर लेगा और जब उसका देह पृथ्वी पर अपना काम खत्म करके चला जाएगा—क्या यह ऐसी बात है जो परमेश्वर किसी को बताएगा? क्या हर किसी को यह जानने का कोई कारण है? (नहीं है।) क्या बोलते समय परमेश्वर के मुँह से कुछ ऐसा निकल जाएगा जो वह नहीं चाहता कि लोग जानें? बिल्कुल नहीं। फिर भी कुछ लोग वास्तव में कहते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के वचनों से उस समय का पता लगा लिया है जब वह पृथ्वी छोड़ देगा। वे यहाँ तक कहते हैं कि यह वसंत ऋतु में होगा। क्या यह अजीब नहीं है? क्या यह हास्यास्पद नहीं है? ये लोग परमेश्वर के किन वचनों के आधार पर ऐसा कहते हैं? जब परमेश्वर ने वसंत ऋतु में कुछ करने के बारे में कहा था तो शायद वह किसी और चीज का जिक्र कर रहा होगा। क्या वह इस बात का जिक्र कर रहा था? वे इस बारे में अनुमान कैसे लगा सकते हैं? परमेश्वर लोगों को साफ तौर पर और स्पष्ट रूप से बताएगा कि वह उन्हें क्या जानने देना चाहता है। लोग वह नहीं समझ पाएँगे जो वह नहीं चाहता कि वे जानें, चाहे वे कितना भी शोध कर लें; ऐसी बातें मनुष्य के लिए जानना नामुमकिन है। ये लोग कहते हैं कि उन्हें पता है और उनके शोध से नतीजे मिले हैं। वे एक विशिष्ट समय भी देते हैं। क्या यह बकवास नहीं है? यह लोगों को गुमराह करना, उनके मन को भटकाना और उनकी दृष्टि को बाधित करना है। यह शैतान से आता है और यह परमेश्वर का प्रबोधन बिल्कुल नहीं है। वह लोगों को इस बारे में प्रबुद्ध नहीं करेगा। उनके लिए यह जानना बेकार है। परमेश्वर कभी भी गलती से ऐसी कोई बात नहीं बताएगा जो वह नहीं चाहता कि लोग जानें। इसलिए मैं कहता हूँ कि यह हास्यास्पद है। तो फिर यह अत्यधिक खिझाने वाला क्यों है? (परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है ताकि लोग इन वचनों के माध्यम से अपने भ्रष्ट स्वभावों को बदल सकें और वे सत्य का अनुसरण करने और उसे प्राप्त करने में सक्षम बन सकें, लेकिन मसीह-विरोधी उसके वचनों का उपयोग मंजिलों और रहस्यों पर शोध करने के लिए करते हैं।) यह भी थोड़ा खिझाने वाला है, लेकिन मेरे अत्यधिक खीझने का असली कारण क्या है? उदाहरण के लिए, अगर कोई अमीर माता-पिता अपने बच्चों के लिए बहुत सारा पैसा कमाते हैं और उनके बच्चे अभी भी छोटे हैं और उनका पालन-पोषण उनके माता-पिता पर निर्भर है और उनकी आजीविका पूरी तरह से माता-पिता पर निर्भर करती है तो क्या वे बच्चे अपने माता-पिता के जल्दी मर जाने की उम्मीद करेंगे? क्या वे कोई ज्योतिषी ढूँढ़ेंगे जो जल्दी से हिसाब लगाकर बताए कि उनके माता-पिता कब मरेंगे? क्या कोई ऐसा करता है? (नहीं।) अगर वे ऐसा करते हैं तो क्या यह अत्यधिक खिझाने वाली बात नहीं होगी? यह अत्यधिक खिझाने वाली बात ही होगी! ऐसे लोग घृणित हैं! अब जबकि परमेश्वर पृथ्वी पर आ गया है, भले ही उसका देह सौ साल से अधिक जीवित रह सके और सौ साल तक काम कर सके, लेकिन लोग जो सत्य समझ सकते हैं वे सीमित हैं। जरा सोचो, प्रभु यीशु के देहधारण से लेकर परमेश्वर के कार्य के वर्तमान चरण तक, इन दो हजार सालों में मानवजाति ने कितने सत्य प्राप्त किए हैं? मानवजाति मूल रूप से सत्य नहीं समझती है। इस चरण में, परमेश्वर 30 सालों से कार्य कर रहा है और वह करीब 30 सालों से बोल रहा है। जिन लोगों ने परमेश्वर के वचनों को सबसे अधिक पढ़ा है, वे उन्हें 30 सालों से पढ़ रहे हैं। लोगों को कितने सत्य समझ में आए हैं? उनकी समझ बहुत सीमित है। मनुष्य के सत्य में प्रवेश करने की गति धीमी है। अर्थात्, लोगों तक सत्य को पहुँचाना और उसे उनके जीवन में बदलना बहुत कठिन और बहुत धीमा काम है। यह चाहे कितना भी धीमा हो, कुछ लोग अभी भी आशा करते हैं, “परमेश्वर पृथ्वी को कब छोड़ेगा? परमेश्वर का कार्य कब समाप्त होगा?” क्या परमेश्वर के पृथ्वी को छोड़ने और उसका कार्य समाप्त होने से उन्हें लाभ मिलेगा? जिस दिन परमेश्वर पृथ्वी को छोड़ेगा, वे मर जाएँगे। उन्हें मृत्युदंड दिया जाएगा। इसमें उनके खुश होने वाली क्या बात है? यह किस प्रकार का व्यक्ति है? क्या ऐसे लोगों में नैतिकता की कमी नहीं है? उन्हें सांसारिक लोगों के बीच संतानोचित जिम्मेदारी नहीं निभाने वाले पुत्र कहा जाता है। हम उन्हें छद्म-विश्वासी और मसीह-विरोधी कहते हैं और वे बिल्कुल भी अच्छे लोग नहीं हैं।
जब “वचन देह में प्रकट होता है” की विषय-वस्तु व्यक्त की जा रही थी, तो बहुत-से लोगों का मानना था कि “देहधारी परमेश्वर बस कार्य कर रहा है। वह कार्य के कुछ चरण पूरे कर रहा है, उसके पास कार्य करने के कई तरीके हैं और बोलने के कई तरीके हैं, बस इतना ही, उसके बाद उसका कार्य पूरा हो जाएगा। उसका कार्य पूरा हो जाने के बाद देह का कोई उपयोग नहीं रह जाएगा और उसे अब बोलने की कोई जरूरत नहीं होगी। हमने कुछ प्राप्त कर लिया होगा और हमें बस उस दिन का इंतजार होगा जब परमेश्वर का कार्य पूरा हो जाएगा। जब हम परमेश्वर के इन वचनों के बारे में बात कर सकेंगे और उनका प्रचार कर सकेंगे तो हमारे पास एक मंजिल होगी और हमें महान आशीष प्राप्त होंगे।” कुछ लोगों ने यह रवैया अपनाया। फिर, मैंने कई और वचनों पर संगति की, जैसे परमेश्वर को जानने के बारे में वचन, साथ ही वे वचन जिन पर मैं इस समयावधि के दौरान संगति कर रहा हूँ। यह देखकर कुछ लोगों ने सोचा, “क्या परमेश्वर के सभी वचन, ‘वचन देह में प्रकट होता है’ में सम्मिलित नहीं हैं? उसने अब परमेश्वर को जानने के बारे में खंड क्यों व्यक्त किया है? परमेश्वर अधिक से अधिक वचन क्यों व्यक्त करता रहता है? अब से, उसे कुछ रहस्यों, स्वर्ग के कुछ मामलों और भविष्य में लोग स्वर्ग में परमेश्वर के साथ कैसे चलेंगे, इस बारे में बात करनी चाहिए। इन चीजों के बारे में बात करना वाकई हमें उत्साहित करता है!” किस तरह के लोगों के मन में ये विचार थे? (मसीह-विरोधियों के मन में।) उनके मन में ये विचार क्यों आए? क्योंकि उन्हें सत्य में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं है। उन्होंने सोचा, “हम कई सालों से परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं। हम जानते हैं कि शुरुआत में परमेश्वर ने कैसे काम किया था। हमने परमेश्वर के कार्य के कई चरणों का व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है। हमने व्यक्तिगत रूप से यह भी अनुभव किया है कि परमेश्वर किस तरह से बोलता है और इसे अपनी आँखों से देखा है। हम परमेश्वर के गवाह हैं और आशीष प्राप्त करने के लिए सबसे योग्य पीढ़ी हैं।” उन्होंने परमेश्वर का अनुसरण इसलिए नहीं किया क्योंकि उसने सत्य बोला और सत्य व्यक्त किया, बल्कि परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण के कारण ऐसा हुआ। परमेश्वर ने अपने कार्य के कई चरणों का अनुभव करने के लिए उनकी अगुआई की और उन्होंने निष्क्रिय रूप से परमेश्वर का अनुसरण किया। बाद में, जब परमेश्वर का कार्य आगे बढ़ता गया तो उसने और लोगों को चुना जो उसके कार्य के वर्तमान चरण के साथ तालमेल बना सकते थे। परमेश्वर के कार्य के मुख्य प्राप्तकर्ता लगातार बढ़ते और बदलते रहे। कुछ लोग जो शुरुआत में परमेश्वर का अनुसरण करते थे, धीरे-धीरे हटा दिए गए क्योंकि उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, क्योंकि वे परमेश्वर के बारे में विभिन्न धारणाएँ और गलतफहमियाँ पालने लगे थे और क्योंकि परमेश्वर के बारे में उनके अंदर विभिन्न प्रकार की अवज्ञा और असंतोष पैदा हो गया था। इन लोगों को हटाने के व्यक्तिपरक और वस्तुनिष्ठ, दोनों ही कारण थे। व्यक्तिपरक इसलिए क्योंकि उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया और फरीसियों की तरह, परमेश्वर के वचनों को धर्म-सिद्धांत मानकर दूर-दूर तक उनका प्रचार-प्रसार किया। हालाँकि, कुछ लोग अभी भी नहीं समझते हैं कि सत्य वास्तविकताएँ क्या हैं—वे मृत लोगों जैसे हैं। वस्तुनिष्ठ इसलिए, क्योंकि हटाए गए लोग वे थे जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर के नए कार्य की शुरुआत का अनुभव किया था, लेकिन उनके चरित्र, अनुसरण और काबिलियत के कारण, वे परमेश्वर के बाद में किए जाने वाले नए कार्य के लिए योग्य नहीं थे। इस तरह, इन लोगों को परमेश्वर के कार्य के चरणों द्वारा तुरंत हटा दिया गया और निकाल बाहर किया गया। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर को जानने के बारे में के वचन व्यक्त किए जाने से पहले कुछ समय के लिए, कई लोग अपने दिलों की गहराई में चोरी-छिपे खुशी मनाते हुए कहते थे : “जिस व्यक्ति का मैंने विरोध किया और जिसकी मैंने निंदा की, उसके पास आखिरकार कहने के लिए कुछ भी नहीं है। उसके कार्य के चरण अंततः पूरे हो गए हैं। अतीत में, मेरे मन में उसके बारे में धारणाएँ थीं। मैंने उसकी अवज्ञा की और उससे असंतुष्ट महसूस किया और मैंने उसकी निंदा और विरोध भी किया। बेशक, मैं ही सही था। वह परमेश्वर नहीं है; वह मसीह नहीं है। चूँकि वह परमेश्वर नहीं है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं उसके साथ कैसा व्यवहार करता हूँ। वह केवल परमेश्वर की अभिव्यक्ति का माध्यम है, परमेश्वर का प्रवक्ता है।” यही नहीं, कुछ लोगों ने यहाँ तक कहा : “यह देह हमसे अलग नहीं है। यह उसके भीतर का आत्मा है जो बोलता और कार्य करता है; इसका इस देह से कोई लेना-देना नहीं है।” कुछ लोगों ने चोरी-छिपे इस दुस्साहसी तरीके से मसीह की निंदा और ईशनिंदा की। जब “वचन देह में प्रकट होता है” खंड 2 : परमेश्वर को जानने के बारे में के सत्य व्यक्त किए गए, मसीह की निंदा और ईशनिंदा करने वाले इन लोगों ने अपने दिलों में बेचैनी महसूस की। इस बेचैनी का कारण क्या था? एक तरह से, उनके दिलों में काफी समय से धारणाएँ थीं, उन्होंने खुद को उस व्यक्ति के खिलाफ खड़ा कर लिया था जिसने सत्य व्यक्त किया था। उन्होंने इस व्यक्ति की अवज्ञा की और उससे असंतुष्ट महसूस किया, यहाँ तक कि उसकी निंदा और ईशनिंदा की। दूसरी ओर, 2013 के बाद परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए वचनों ने ऐसे बहुत-से रहस्यों का खुलासा किया जो मानवजाति के लिए अब तक अज्ञात थे। इन रहस्यों का उन नए विश्वासियों की आस्था मजबूत करने में एक निश्चित प्रभाव पड़ा जिन्होंने अभी तक ठोस नींव नहीं रखी थी और इनसे उनके शक्की दिलों में तत्काल एक निश्चितता आ गई। वहीं जो लोग कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे थे, लेकिन जो पहले मसीह का विरोध करते थे, उसकी निंदा और ईशनिंदा करते थे, उन्हें इन रहस्यों ने एक बड़ा झटका दिया, जिससे वे और ज्यादा असहज महसूस करने लगे। उन्होंने सोचा, “अब हम पूरी तरह से समाप्त हो चुके हैं। हमें परमेश्वर ने हटा दिया है। वह हमें नहीं चाहता। परमेश्वर ने पहले बहुत सारे वचन व्यक्त किए, लेकिन हमने हमेशा उसे एक इंसान माना। हमने सोचा कि उसके कार्य के चरण पूरे होने के बाद, बाकी का उससे कोई लेना-देना नहीं होगा, यह व्यक्ति अपना काम पूरा कर चुका होगा, और उसके बाद, हम स्वर्ग के परमेश्वर से बातचीत करेंगे और स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास रखेंगे। धरती पर परमेश्वर के बारे में हमारी धारणाएँ थीं। हमने उसकी अवज्ञा और ईशनिंदा की।” 2013 की अवधि के दौरान व्यक्त किए गए वचनों के माध्यम से, इनमें से बहुत-से लोगों का दुस्साहस खत्म हो गया। इससे पहले, कुछ लोगों के मन में परमेश्वर के कार्य के बारे में संदेह पैदा हो गए थे। उन्होंने परमेश्वर के देहधारी शरीर का प्रतिरोध किया और ईशनिंदा की और कुछ लोगों ने तो अपना विश्वास भी त्याग दिया। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि उनके मन में धारणाएँ विकसित हो गईं। उन्होंने ना केवल देहधारी परमेश्वर और उसके कार्य को नकारा, बल्कि परमेश्वर के अस्तित्व को भी नकार दिया। परमेश्वर के प्रति इन लोगों के रवैये के आधार पर, उनका क्या परिणाम होना चाहिए? परमेश्वर के प्रति उनके रवैये और दृष्टिकोण के आधार पर, उनका सार क्या है? (एक छद्म-विश्वासी का।) छद्म-विश्वासियों की पहली मुख्य विशेषता अवसरवादिता है। एक बार जब उन्हें परमेश्वर के वचन में अपना हित मिल जाता है, तो वे उस पर पकड़ बना लेते हैं, उसे छोड़ने से इनकार कर देते हैं और उसके वचनों से लाभ उठाने की कोशिश करते हैं। दूसरी मुख्य विशेषता है कि वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर की ईशनिंदा करने में सक्षम हैं, वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित करने में सक्षम हैं और जब कोई छोटी-सी बात उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती है तो वे परमेश्वर की आलोचना करने, उसकी निंदा करने और उसका विरोध करने में सक्षम होते हैं। वे परमेश्वर का भय बिल्कुल नहीं मानते। इन सभी लोगों में मसीह-विरोधियों का सार है; वे सभी मसीह-विरोधी हैं। उनकी अन्य विशेषताएँ क्या हैं? इन लोगों में सत्य के प्रति प्रेम बिल्कुल भी नहीं है। वे परमेश्वर के वचन प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति थे, वे परमेश्वर के वचन सुनने वाले पहले व्यक्ति थे और वे परमेश्वर के कार्य के चरणों और तरीकों का व्यक्तिगत रूप से अनुभव करने वाले लोग भी थे। ये लोग अब 30 वर्षों से विश्वास कर रहे हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश लोग परमेश्वर के घर में कोई कर्तव्य नहीं निभा सकते हैं और उनके पास बात करने के लिए कोई अनुभव नहीं है। वे जहाँ भी जाते हैं, वे बस उन मृत शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करते हैं। उनकी सबसे स्पष्ट विशेषता क्या है? वे 30 वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, लेकिन उनके स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदले हैं और उनमें परमेश्वर का कोई भय या उसकी कोई समझ नहीं है। वे चोरी-छिपे परमेश्वर के देहधारी शरीर की अनायास ही आलोचना करने में सक्षम हैं, यहाँ तक कि बिना किसी भय या डर के बखेड़ा खड़ा करने और परमेश्वर की निंदा करने में भी सक्षम हैं। वे सत्य से प्रेम नहीं करते, वे सत्य से विमुख हैं और सत्य का विरोध करते हैं। जब देहधारी परमेश्वर की बात आती है तो वे कुछ भी कहने का दुस्साहस करते हैं; वे हर चीज का मूल्यांकन और हर चीज के बारे में राय बनाने का दुस्साहस करते हैं और जब भी वे धारणाएँ विकसित करते हैं तो उनका प्रचार-प्रसार करने का दुस्साहस करते हैं। क्या ये अत्यंत घृणित लोग नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) क्या वे परमेश्वर द्वारा चुने हुए लोग हैं? वे 30 वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, लेकिन उनमें कोई वास्तविकता नहीं है और उनके स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदले हैं—क्या ये मृत लोग नहीं हैं? जो वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं और जिनमें वाकई सामान्य मानवता है, क्या वे लोग केवल तीन वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद कुछ सत्य समझ नहीं सकते और उनमें प्रवेश नहीं कर सकते? (वे ऐसा कर सकते हैं।) लेकिन ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने 30 वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करके भी कोई अनुभव नहीं पाया है। अगर तुम उनसे उनके अनुभवों के बारे में बात करने के लिए कहो तो वे केवल धर्म-सिद्धांतों, नारों और उपदेश वाले शब्दों के बारे में बात करेंगे। तो, पिछले 30 वर्षों में उन्होंने परमेश्वर के वचनों में क्या प्रयास किया है? उन्हें क्या हासिल हुआ है? कहने की जरूरत नहीं है कि वे परमेश्वर के वचन नहीं स्वीकारते। वे परमेश्वर के वे वचन स्वीकारते हैं जो मानवजाति को आशीष और वादे देने के बारे में हैं; वे परमेश्वर के अच्छे लगने वाले वचन, उसके सांत्वना देने और प्रोत्साहन देने वाले वचन और कानों को भाने वाले वचन स्वीकारते हैं, लेकिन वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए किसी भी सत्य या मानवजाति से उसकी किसी भी अपेक्षा को स्वीकार नहीं करते। वे एक भी सत्य स्वीकार नहीं करते। क्या इन लोगों को हटा नहीं दिया जाना चाहिए? (उन्हें हटा दिया जाना चाहिए।) क्या ऐसे लोगों को हटा देना अन्याय है? (नहीं।) ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य को स्पष्ट रूप से जानने के बाद भी जानबूझकर पाप करते हैं।
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