मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग सात) खंड एक

III. परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करना

आज हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की दसवीं मद पर संगति करना जारी रखेंगे—वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं। पिछली बार हमने इस प्रमुख विषय के तीसरे भाग तक संगति की थी कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करते हैं। इस भाग पर हमारी संगति और गहन-विश्लेषण तीन उप-विषयों में बाँटा गया था। ये तीन उप-विषय क्या हैं? (पहला है मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं; दूसरा है, अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी अस्वीकार कर देते हैं; तीसरा है, मसीह-विरोधी यह टोह लेते हैं कि परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं या नहीं।) मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करने की बात क्या इन तीनों में समग्र रूप से आ जाती है? (कुछ और भी होना चाहिए।) और कौन-से दूसरे कथन और अभिव्यक्तियाँ हैं? (मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों को अनादर भाव से लेते हैं।) क्या परमेश्वर के वचनों को अनादर भाव से लेना उनके परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करने की ही एक अभिव्यक्ति है? क्या परमेश्वर के वचनों को अनादर भाव से लेना परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करने का स्पष्टीकरण नहीं है? यहाँ हमें स्पष्टीकरणों की जरूरत नहीं है, बल्कि मसीह-विरोधियों के परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करने की विभिन्न अभिव्यक्तियों और अभ्यासों की जरूरत है जिन्हें तुम देख और छू सकते हो और जिनके बारे में तुमने सुना है। ऐसा लगता है कि तुम लोगों को मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करने की विभिन्न अभिव्यक्तियों की ज्यादा समझ नहीं है। हो सकता है कि तुम लोगों को उन तीन मदों की कुछ शाब्दिक समझ हो जिन पर मैं पहले संगति कर चुका हूँ लेकिन तुम लोग यह नहीं सोच पा रहे हो कि मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करने की दूसरी अभिव्यक्तियाँ क्या हो सकती हैं, है ना? तुम लोगों को उन तीनों अभिव्यक्तियों को याद रखना चाहिए था जिन पर हम पहले संगति कर चुके हैं। क्या परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करने में मसीह-विरोधियों के व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ साफ और सच्ची होती हैं? क्या ईमानदार लोगों को ऐसा ही करना चाहिए? (नहीं।) ये ऐसी अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए; ये सकारात्मक नहीं, बल्कि नकारात्मक हैं। इन कुछ व्यवहारों में निहित सार शैतान, दानवों और परमेश्वर के दुश्मनों की ओर इशारा करता है। परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के व्यवहार में कोई समर्पण नहीं होता, इसमें कोई स्वीकृति नहीं होती, कोई अनुभव नहीं होता, अपनी धारणाओं को दरकिनार करना और परमेश्वर के वचनों को सरलता और खुलेपन से स्वीकार करना नहीं होता—इसके बजाय वे परमेश्वर के वचनों के प्रति विभिन्न शैतानी रवैये उत्पन्न करते हैं। मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों और व्यवहारों के जरिए प्रकट हुआ स्वभाव बिल्कुल वही होता है जो शैतान आध्यात्मिक जगत में प्रकट करता है। ये व्यवहार किसी भी स्थिति में, किसी भी युग में और किसी भी जनसमूह में सकारात्मक नहीं होते हैं। ये दुष्ट और नकारात्मक होते हैं, और ये ऐसी अभिव्यक्तियाँ या व्यवहार नहीं हैं जो एक सृजित प्राणी या एक सामान्य व्यक्ति में होने चाहिए। इस प्रकार हम इन्हें मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों के रूप में चिह्नित करते हैं। इन तीन मदों पर संगति करने के बाद हो सकता है कि अधिकतर लोग यह सोचें कि ये तीनों अभिव्यक्तियाँ शायद परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के सारे बुनियादी रवैयों को अपने में समेटे हैं। लेकिन एक ऐसा बिंदु है जिसकी तुम लोगों ने अनदेखी कर दी है : परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों का व्यवहार इन तीन दृष्टिकोणों तक ही सीमित नहीं है। एक और अभिव्यक्ति और व्यवहार ऐसा है जिससे यह स्पष्ट होता है कि मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करते हैं। यह कौन-सी अभिव्यक्ति है? यह है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं। अगर हम इसके शाब्दिक अर्थ को देखें तो कुछ लोगों के मन में कुछ लोगों की ओर इशारा करने वाली छवियाँ आ सकती हैं लेकिन इसकी विशिष्ट और सच्ची अभिव्यक्तियाँ अभी बहुत स्पष्ट नहीं हैं; वे अभी भी बहुत अस्पष्ट और सामान्य हैं। तो फिर आज हम इस बारे में संगति करेंगे कि मसीह-विरोधी कैसे परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं।

घ. मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं

मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं; यह भी कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी स्वयं सत्य को ही एक वस्तु मानते हैं। इन्हें वस्तुएँ मानने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि बस कुछ मौखिक दावे करना, दिखावा करना और फिर धोखे से लोगों का भरोसा, समर्थन और अनुमोदन हासिल करना ताकि वे प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा प्राप्त कर सकें। इस प्रकार परमेश्वर के वचन और सत्य उनके लिए सीढ़ी बन जाते हैं। सत्य के प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया होता है। वे सत्य का दोहन करते हैं, इससे खिलवाड़ करते हैं और इसे रौंद डालते हैं जो मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार से तय होता है। तो फिर परमेश्वर के वचन और सत्य वास्तव में क्या हैं? सत्य को हमें किस प्रकार सटीक ढंग से परिभाषित करना चाहिए? मुझे बताओ, सत्य क्या है? (सत्य इंसान के स्व-आचरण, क्रियाकलापों और परमेश्वर की आराधना की कसौटी है।) यह सत्य की एक सटीक और विशिष्ट परिभाषा है। तुम सब लोग इस कथन को कैसे समझते हो? तुम्हें इस कथन को अपने दैनिक जीवन में और अपने पूरे जीवन में किस प्रकार लागू करना चाहिए? तुम्हें इस कथन का अनुभव कैसे करना चाहिए? तुम जो भी सोच और समझ पा रहे हो उसे तुरंत बिना लाग-लपेट के बता दो। तुम लोगों के अनुभव की भाषा में सत्य क्या है? परमेश्वर के वचन क्या हैं? (सत्य किसी व्यक्ति के जीवन संबंधी दृष्टिकोण और मूल्यों को बदलकर उसे एक सामान्य मानव के समान जीवन जीने में सक्षम बना सकता है।) भले ही यह समग्र नहीं है, फिर भी तुमने जो कुछ कहा वह सब सत्य की एक अनुभवजन्य समझ को व्यक्त करता है; ये ऐसी अंतर्दृष्टियाँ और समझ हैं जिनका अनुभव तुमने अपने दैनिक जीवन से लिया है और जिसका सारांश तुमने अपने जीवन से तैयार किया है। और कौन साझा करना चाहेगा? (सत्य हमारे भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध कर हमें सिद्धांतों के अनुसार और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कार्य करने में सक्षम बना सकता है।) यह कथन काफी अच्छा और असरदार है। कृपया बोलते जाओ। (सत्य जीवन है, अनंत जीवन का मार्ग है। केवल सत्य का अनुसरण करके और इसके अनुसार जीकर ही व्यक्ति जीवन प्राप्त कर सकता है।) (सत्य लोगों को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम बनाता है, सच्चा इंसान बनने में सक्षम बनाता है।) इन दोनों ही बिंदुओं का संबंध लोगों के दैनिक जीवन में अभ्यास के सिद्धांतों से है। भले ही ये व्याख्याएँ अपेक्षाकृत गहरी और उच्च हैं, फिर भी वे बहुत व्यावहारिक हैं। (सत्य हमारे भीतर के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर कर तमाम मामलों पर हमारे गलत दृष्टिकोणों को बदल सकता है और हमें एक सच्चे इंसान के समान जीने में सक्षम बना सकता है।) ये कथन व्यावहारिक हैं और इनका संबंध लोगों के लिए सत्य के मूल्य और महत्व से होने के साथ ही इस बात से भी है कि सत्य लोगों पर क्या प्रभाव छोड़ सकता है। तुम सब लोगों ने जो भी कहा है उसके बारे में हमने पहले भी अक्सर चर्चा की है। भले ही हर व्यक्ति का जोर अलग-अलग बातों पर है, फिर भी इन सबका संबंध सत्य के बारे में पहले समझाए और परिभाषित किए जा चुके कथन से है—सत्य सभी चीजों को मापने की कसौटी है। क्या सत्य की बराबरी परमेश्वर के वचनों से की जा सकती है? (हाँ।) परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। तुम लोगों ने अपनी संगति में जो अनुभवजन्य समझ साझा की हैं, क्या हम उसके आधार पर यह कह सकते हैं कि सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है? (हाँ।) सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। यह व्यक्ति का जीवन और उसके चलने की दिशा हो सकता है; यह व्यक्ति को अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ने, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला इंसान बनने और एक मानक स्तर का सृजित प्राणी बनने और एक ऐसा इंसान बनने दे सकता है जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और जिसे स्वीकार्य पाता है। सत्य की बहुमूल्यता को देखते हुए परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति किसी व्यक्ति का क्या दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य होना चाहिए? यह बिल्कुल स्पष्ट है : उसके वचन उन लोगों के लिए जीवनशक्ति होते हैं जो सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखते हैं। लोगों को परमेश्वर के वचन सँजोकर रखने चाहिए, उन्हें खाना और पीना चाहिए, उनका आनंद लेना चाहिए और उन्हें अपने जीवन के रूप में, उस दिशा के रूप में जिसमें वे चलते हैं और उसके लिए सहज रूप से उपलब्ध सहायता और पोषण के रूप में स्वीकार करना चाहिए; इंसान को सत्य के कथनों और अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास और अनुभव करना चाहिए, और सत्य प्रदत्त प्रत्येक अपेक्षा और सिद्धांत के प्रति समर्पण करना चाहिए। केवल इसी प्रकार व्यक्ति जीवन हासिल कर सकता है। सत्य का अनुसरण मुख्य रूप से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव है, बजाय इसके कि उसकी जाँच-पड़ताल, विश्लेषण, उस पर अटकलबाजी और संदेह किया जाए। चूँकि सत्य लोगों के लिए सहज उपलब्ध सहायता और पोषण है, और यह उनका जीवन हो सकता है, इसलिए उन्हें सत्य को सबसे अनमोल मानना चाहिए। इसका यह कारण है कि उन्हें जीने के लिए, परमेश्वर की माँगों को पूरा करने के लिए, उसका भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए और अपने दैनिक जीवन के भीतर अभ्यास के मार्ग को खोजने और अभ्यास के सिद्धांत हृदयंगम करने के लिए सत्य पर भरोसा कर परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल करना चाहिए। लोगों को इसलिए भी सत्य पर भरोसा करना चाहिए ताकि वे अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकें, ऐसे व्यक्ति बन सकें जिन्हें बचाया गया हो और जो मानक स्तर के सृजित प्राणी हों। इसे चाहे जिस किसी परिप्रेक्ष्य या तरीके से व्यक्त कर लिया जाए, सत्य के प्रति लोगों में जो रवैया सबसे कम होना चाहिए वह है परमेश्वर के वचनों और सत्य को एक उत्पाद मानना या लापरवाही से लेन-देन की वस्तु मानना। यही वह चीज है जिसे परमेश्वर सबसे कम देखना चाहता है और यही वह व्यवहार और अभिव्यक्ति भी है जो किसी सच्चे सृजित प्राणी में नहीं होनी चाहिए।

मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानने का उद्देश्य और इरादा क्या होता है? वास्तव में उनका लक्ष्य क्या करने का होता है और उनका मंसूबा क्या होता है? जब कोई व्यापारी एक वस्तु खरीदता है तो उसे उस वस्तु से यह उम्मीद होती है कि इससे फायदा होगा और अच्छी-खासी मनचाही रकम मिलेगी। इसलिए जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं तो वे निस्संदेह परमेश्वर के वचनों को एक भौतिक वस्तु मानते हैं जिसका लेन-देन फायदों और पैसे के लिए किया जा सकता है। वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानकर सँजोते, स्वीकारते नहीं, इनका अभ्यास या अनुभव नहीं करते, न ही वे परमेश्वर के वचनों को जीवन का ऐसा मार्ग मानते हैं जिस पर उन्हें चलना चाहिए, न ही वे इन्हें ऐसा सत्य मानते हैं जिसका अभ्यास उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ने के लिए करना चाहिए। बल्कि, वे परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं। एक व्यापारी के लिए किसी वस्तु का सबसे बड़ा मूल्य यह होता है कि उसका पैसे के लिए, वांछित मुनाफे के लिए लेन-देन किया जाए। इस प्रकार जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं तो उनका इरादा और मंसूबा वास्तव में एक ही होता है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं, अर्थात वे इनका उपयोग खाने, पीने और आनंद के लिए नहीं कर रहे हैं, न ही अपने अनुभव या अभ्यास के लिए कर रहे हैं, बल्कि अपने पास उपलब्ध ऐसे सामान के रूप में करते हैं जिसका कभी भी और कहीं भी लेनदेन किया जा सके या जिसे बेचा जा सके, ऐसे लोगों को पेश किया जाए जिनसे उन्हें मुनाफा हो सके। जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानते हैं, तो अगर इसे शाब्दिक तौर पर लिया जाए तो इसका अर्थ है परमेश्वर के वचनों को व्यापार की वस्तु मानना, पैसों की खातिर इन्हें लेन-देन के रूप में इस्तेमाल करना; वे परमेश्वर के वचनों की खरीद-फरोख्त को अपना पेशा बना लेते हैं। शाब्दिक परिप्रेक्ष्य से यह तुरंत स्पष्ट हो जाता है। मसीह-विरोधियों के ऐसे क्रिया-कलाप और व्यवहार शर्मनाक होते हैं, जो लोगों में अरुचि और घृणा पैदा करते हैं। तो फिर परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानने की मसीह-विरोधियों की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? यही वह महत्वपूर्ण बिंदु है जिस पर हम संगति करेंगे। परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानने को लेकर मसीह-विरोधियों की कुछ बहुत स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ होती हैं। तुम लोगों के लिए इसे और स्पष्ट और समझने लायक बनाने के लिए हम अभी इन पर एक-एक करके चर्चा करेंगे। मैं यह दृष्टिकोण क्यों अपना रहा हूँ? अपने अनेक वर्षों के कार्य और बोलने के अनुभव के आधार पर बताऊँ तो अधिकतर लोगों में भ्रमित विचार होते हैं और उनमें स्वतंत्र रूप से सोचने की योग्यता नहीं होती। इसके आधार पर मैंने सबसे सरल और कारगर तरीका सोचा, जो यही है कि किसी भी मसले या विषय को—वो चाहे कोई भी हो—मद-दर-मद समझाया और स्पष्ट किया जाए ताकि तुम लोगों को इसके हर पहलू को जानने और इस पर विचार करने में मदद मिले। क्या यह उचित है? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “यह बिल्कुल सटीक है, इससे हम अपने दिमाग को दौड़ाने और भारी सोच-विचार करने से बच जाते हैं। हम बहुत व्यस्त हैं और हमारे पास इसके लिए फुरसत नहीं है! हम अपनी ताकत और विचार बड़े मामलों में खपाते हैं, ऐसे तुच्छ और छोटे मसलों पर नहीं। इन छोटे मामलों में हमसे विचार करवाकर कुछ-कुछ ऐसा लगता है कि तुम हमें कमतर आँक रहे हो और हमारी महान प्रतिभा का कमतर उपयोग कर रहे हो।” क्या यही मामला है? (नहीं।) तो फिर क्या है? (हमारी काबिलियत इतनी कम है कि कभी-कभी हम सत्य को समझ नहीं पाते और हमें विस्तार से, शब्द-दर-शब्द और वाक्य-दर-वाक्य संगति करने के लिए परमेश्वर की जरूरत पड़ती है ताकि हम इसे कुछ-कुछ समझ सकें।) तुमने देखा कि मैंने अनजाने में ही असली वस्तुस्थिति बता दी, यह खुलासा कर दिया कि तुम सब लोगों के साथ वास्तव में क्या चल रहा है, लेकिन यही बस तथ्य हैं। अगर मैं इसे उजागर न करता तो तब भी यही बात होती। ऐसा करने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। अगर मैं सिर्फ बड़े विषयों पर सरल और आम ढंग से बोलूँगा तो फिर मैं व्यर्थ ही बोलता रहूँगा और अपनी कोशिश ज़ाया करता रहूँगा। यह तो सिर्फ समय गँवाना होगा, है न? चलो मुख्य विषय पर लौटते हैं। जहाँ तक मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु मानने का विषय है, हम इसे अनेक उप-विषयों में बाँट देंगे ताकि कदम-दर-कदम इसे समझाया और स्पष्ट किया जा सके कि मसीह-विरोधी ऐसा कैसे करते हैं, ऐसे कौन-से विशिष्ट उदाहरण और अभिव्यक्तियाँ हैं जो पर्याप्त रूप से यह साबित कर सकते हैं कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करते हैं और यह भी पुष्टि कर सकते हैं कि मसीह-विरोधियों में वास्तव में ऐसा सार होता है। हम यह संगति दो मुख्य भागों में करेंगे।

1. परमेश्वर के वचनों को रुतबा, प्रतिष्ठा और गरिमा प्राप्त करने का एक साधन मानना

पहला प्रमुख पहलू यह है कि परमेश्वर के वचनों को व्यापार की वस्तु मानने की मसीह-विरोधियों की सबसे आम अभिव्यक्ति इन्हें अपना रुतबा, प्रतिष्ठा और गरिमा प्राप्त करने के एक साधन के रूप में इस्तेमाल करना है, और इससे भी ज्यादा इन्हें भौतिक मौज-मस्ती और उससे भी आगे इसे पैसों के लिए इस्तेमाल करना है। मसीह-विरोधी जब परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आते हैं तो उन्हें लगता है, “परमेश्वर के वचन महान हैं। हर वाक्य तर्कसंगत और सही है; ये वचन लोग नहीं कह सकते और ये बाइबल में नहीं मिल सकते।” पिछले दो युगों में परमेश्वर ने ये वचन नहीं कहे। न तो पुराने नियम में, न ही नए नियम में ऐसे स्पष्ट और सीधे-सादे ढंग से कहे हुए वचन हैं। बाइबल में परमेश्वर के वचनों का सिर्फ बहुत ही सीमित हिस्सा दर्ज है। परमेश्वर इस समय जो कह रहा है, उसे देखें तो विषयवस्तु बहुत समृद्ध है। मसीह-विरोधी तब मन-ही-मन में ईर्ष्या और जलन महसूस करते हैं और वे भीतर-ही-भीतर कुचक्र रचने लगते हैं : “यह साधारण व्यक्ति इतना अधिक बोल सकता है; मैं भी ये वचन कब बोल सकता हूँ? इस व्यक्ति की तरह मैं भी परमेश्वर के वचन कब अनवरत बोलता जा सकता हूँ?” उनके मन में ऐसा ही आवेग और कामना उठती है। इस आवेग और कामना के आधार पर देखें तो अपने हृदय में मसीह-विरोधी परमेश्वर के कहे इन वचनों के प्रति ईर्ष्या महसूस करते हैं और इन पर श्रद्धा रखते हैं। मैं यहाँ “ईर्ष्या” और “श्रद्धा” शब्दों का उपयोग करता हूँ; इन दो शब्दों के शब्द संयोजन के मद्देनजर मैं जो कहना चाहता हूँ वह यह है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और उनके मन में इन्हें स्वीकार करने का इरादा नहीं होता, बल्कि उन्हें इन वचनों की समृद्ध विषयवस्तु, विस्तृत अंशों और इन वचनों की गहनता से भी ईर्ष्या होती है जो एक ऐसी गहराई को दिखाते हैं जहाँ मनुष्य नहीं पहुँच सकते—और यही नहीं, उन्हें इस बात से भी ईर्ष्या होती है कि ये ऐसे वचन हैं जो वे स्वयं नहीं बोल सकते। “ईर्ष्या” के इन पहलुओं से यह स्पष्ट है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के इन वचनों को दिव्यता की अभिव्यक्तियाँ, सत्य या ऐसा जीवन या सत्य नहीं मानते जिनके जरिए परमेश्वर मानवता को बचाना चाहता है या जिन्हें मानवता को प्रदान करना चाहता है। यह देखते हुए कि मसीह-विरोधी इन वचनों से ईर्ष्या कर सकते हैं, यह स्पष्ट है कि वे मन-ही-मन ऐसे वचन व्यक्त करने वाले व्यक्ति भी बनना चाहते हैं। इसी आधार पर बहुत-से मसीह-विरोधियों ने गुपचुप रूप से प्रचंड प्रयास किए हैं, वे रोज प्रार्थना करते हैं, इन वचनों को रोज पढ़ते हैं, नोट लेते हैं, रटते हैं, सारांश तैयार करते हैं और इन्हें व्यवस्थित करते हैं। परमेश्वर के कहे इन वचनों पर उन्होंने बहुत ज्यादा कार्य किया है, अनगिनत नोट्स तैयार किए हैं और अपनी आध्यात्मिक भक्ति के दौरान अनेक अंतर्दृष्टियों को कागज पर उतारा है और साथ ही इन वचनों को याद रखने के लिए अनगिनत बार प्रार्थना की है। यह सब करने के पीछे उनका उद्देश्य क्या है? यही कि एक दिन शायद उनके अंदर किसी प्रेरणा का सोता फूट जाए और वे परमेश्वर के संभावित वचनों को इस तरह अंतहीन रूप से कह सकें, जैसे किसी बाँध का मुहाना खुलता है; वे यह उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर के वचनों की तरह उनके वचन भी वह प्रदान कर सकें जिसकी लोगों को जरूरत है, लोगों को जीवन प्रदान कर सकें, वह प्रदान कर सकें जो लोगों को प्राप्त करना चाहिए और वे लोगों के सामने अपनी माँगें रख सकें। इसका उद्देश्य यह है कि परमेश्वर की देहधारी देह के समान वे परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य और रुतबे के साथ खड़े हो सकें और परमेश्वर के उसी लहजे और कहने के तरीके में वही बातें कह सकें जो वह कहता है, ठीक उसी तरह जैसा वे चाहते हैं। मसीह-विरोधियों ने इसमें बहुत सारे प्रयास झोंक दिए हैं और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि उनमें से कुछ तो अक्सर चुपचाप नोटबुक्स निकाल लेते हैं ताकि वे उन वचनों को दर्ज कर सकें जो वे कहना चाहते हैं, वे वचन जिन्हें परमेश्वर से प्राप्त करने का वे इंतजार कर रहे हैं। लेकिन वे चाहे कुछ भी करें, मसीह-विरोधियों की कामनाएँ हमेशा अधूरी रह जाती हैं, उनकी इच्छाएँ कभी साकार नहीं होतीं। वे चाहे कितने ही प्रयास झोंक दें, वे चाहे कितनी ही प्रार्थना कर लें, वे परमेश्वर के वचनों को चाहे कितना ही दर्ज कर लें या इन्हें कितना ही रट और व्यवस्थित कर लें, यह सब व्यर्थ रहता है। परमेश्वर उनके माध्यम से एक भी वाक्य नहीं कहता, न ही परमेश्वर उन्हें एक बार भी अपनी आवाज सुनने देता है। वे चाहे कितने ही लालायित रहते हों या कितने ही व्यग्र हो जाएँ, वे परमेश्वर के वचनों का एक भी वाक्य नहीं बोल पाते। वे जितने ही ज्यादा व्यग्र या ईर्ष्यालु होते हैं, और अपने लक्ष्य को हासिल करने में जितने ही ज्यादा विफल रहते हैं, वे आंतरिक रूप से उतने ही ज्यादा चिढ़ जाते हैं। वे किस बारे में चिढ़े हुए हैं और वे इतने व्यग्र क्यों हैं? वे यह देखते हैं कि परमेश्वर के वचनों के कारण अधिक से अधिक लोग परमेश्वर के सामने आ रहे हैं ताकि वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर सकें, उसके वचनों को जीवन के रूप में स्वीकार कर सकें, लेकिन एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो उनके चरणों में, उनकी उपस्थिति में उनकी आराधना या प्रशंसा करे। वे इसी बात से व्यग्र और चिढ़े रहते हैं। इस चिढ़ और व्यग्रता के रहते अभी भी मसीह-विरोधी यही सोच और चिंतन कर पाते हैं : “ये लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य क्यों निभाते हैं? जब वे परमेश्वर के घर में आते हैं तो यह अविश्वासी दुनिया से अलग क्यों होता है? ऐसा क्यों होता है कि परमेश्वर के घर में आने के बाद अधिकतर लोग उचित व्यवहार करने लगते हैं और धीरे-धीरे बेहतर होते जाते हैं? ऐसा क्यों है कि अधिकतर लोग परमेश्वर के घर में बिना किसी भरपाई के खुद को खपाते हैं और कीमत चुकाते हैं, और यहाँ तक कि जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे छोड़कर नहीं जाते और कुछ तो बहिष्कृत या निष्कासित होने पर भी छोड़कर नहीं जाते? मूल रूप से इसका एकमात्र कारण परमेश्वर के वचन ही हैं, यह ‘वचन देह में प्रकट होता है’ का प्रभाव और उसकी भूमिका है।” मसीह-विरोधियों को जब यह बात समझ में आती है तो वे परमेश्वर के वचनों से और भी अधिक ईर्ष्या करने लगते हैं। इसलिए इतनी सारी कोशिश करने के बावजूद परमेश्वर के वचन बोलने या परमेश्वर का प्रवक्ता बनने में असमर्थ रहने पर मसीह-विरोधी अपना ध्यान परमेश्वर के वचनों पर केंद्रित करते हैं : “वैसे तो मैं परमेश्वर के कहे वचनों के अलावा और कोई वचन नहीं बोल सकता, फिर भी अगर मैं ऐसे वचन बोल सकूँ जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप हों—भले ही ये सिर्फ धर्म-सिद्धांत या खोखले हों—अगर ये लोगों को सुनने में सही लगें, अगर ये परमेश्वर के इन वचनों के अनुरूप हों तो फिर क्या मैं लोगों के बीच अपनी जगह नहीं बना लूँगा? क्या मैं उनके बीच दृढ़ता से खड़ा नहीं रह सकता? या अगर मैं ‘वचन देह में प्रकट होता है’ के वचनों का अक्सर प्रचार कर इन्हें समझाऊँ, लोगों की मदद करने के लिए अक्सर इन वचनों का इस्तेमाल करूँ और अगर मैं जो कुछ भी कहूँ और प्रचार करूँ वह सुनने में ऐसा लगे कि मानो यह परमेश्वर के वचनों से आता है और सही है, तो क्या तब लोगों के बीच मेरा रुतबा अधिकाधिक स्थायी नहीं हो जाएगा? क्या उनके बीच मेरी इज्जत नहीं बढ़ जाएगी?” यह सोचकर मसीह-विरोधियों को लगता है कि उन्हें रुतबा, अधिकाधिक प्रतिष्ठा और ख्याति प्राप्त करने की अपनी इच्छाएँ साकार करने का रास्ता मिल गया है और उन्हें इसे हासिल करने की उम्मीद दिखती है। उम्मीद देखकर मसीह-विरोधी मन-ही-मन चुपचाप खुश होते हैं : “मैं कितना चतुर हूँ? किसी और को इसका बोध नहीं है; दूसरों को यह रास्ता क्यों नहीं सूझता? मैं बेहद होशियार हूँ! लेकिन चतुर होने के बावजूद मैं इस बारे में किसी को नहीं बता सकता; इतना ही काफी है कि मैं इसे अपने दिल में जानता हूँ।” मन में ऐसे उद्देश्य और योजना के साथ मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों में गंभीर प्रयास करना शुरू करते हैं। उन्हें लगता है, “पहले मैं परमेश्वर के वचनों पर बस सरसरी निगाह फेरता था, इन्हें हल्के-फुल्के ढंग से सुनता था और मन में जो कुछ आता था वह कह देता था। अब मुझे अपनी रणनीति बदलनी पड़ेगी; अब मैं ऐसा नहीं करते रह सकता, यह समय की बर्बादी है। पहले इसे इस तरह करने से कोई नतीजा नहीं मिला; इस तरह जारी रखना वास्तव में बेवकूफी होगी!” इसलिए वे अपनी कमर कसते हैं और परमेश्वर के वचनों के प्रति प्रयास करने और अपनी क्षमताओं का शानदार नजारा पेश करने का निश्चय करते हैं। अपनी क्षमताओं का शानदार नजारा पेश करने के लिए मसीह-विरोधी कौन-से क्रिया-कलाप करते हैं? वे परमेश्वर के बोलने के तरीके और उसके लहजे की जाँच-पड़ताल करते हैं और हर चरण और दौर में परमेश्वर के वचनों की विशिष्ट विषयवस्तु की भी जाँच-पड़ताल करते हैं। साथ ही वे यह तैयारी भी करते हैं कि परमेश्वर के इन वचनों को कैसे समझाया जाए और जब वे परमेश्वर के वचनों का उपदेश दें तो इन्हें किस प्रकार कहें और समझाएँ ताकि लोग उनकी सराहना करें और उन्हें आराध्य मानें। इस तरह धीरे-धीरे करके मसीह-विरोधियों ने परमेश्वर के वचनों में वाकई बहुत सारा प्रयास झोंका है। लेकिन एक बात तय है : चूँकि इस प्रयास के पीछे उनके मंसूबे गलत होते हैं और उनके इरादे बुरे होते हैं, इसलिए उनके कहे वचनों को दूसरे लोग चाहे कैसे भी सुनें, वे सिर्फ धर्म-सिद्धांत होते हैं, वे परमेश्वर की वाणी के सिर्फ नकल किए हुए शब्द और वाक्यांश होते हैं। इसलिए मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों में चाहे कितना ही अधिक प्रयास झोंक दें, खुद उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं होता। कोई लाभ न होने का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ यह है कि वे परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते। वे अभ्यास नहीं करते, बल्कि सिर्फ उपदेश देते हैं, इसलिए किसी को भी उनमें कोई बदलाव नजर नहीं आता है। उनके त्रुटिपूर्ण विचार और दृष्टिकोण नहीं बदलते, जीवन को लेकर उनका गलत नजरिया नहीं बदलता, उन्हें अपने ही भ्रष्ट स्वभावों की कतई कोई समझ नहीं होती और परमेश्वर ने मनुष्य की जो विभिन्न दशाएँ बताई हैं उनकी कसौटी पर खुद को कसने में वे पूरी तरह विफल रहते हैं। इसलिए मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों की चाहे कितनी भी जाँच-पड़ताल कर लें, उनमें केवल दो परिणाम दिखाई देते हैं : पहला, भले ही वे परमेश्वर के जो वचन कहते हैं वे सही हों और भले ही इन वचनों की उनकी व्याख्या भी गलत न हो, लेकिन तुम उनमें कोई बदलाव नहीं देख पाते। दूसरा, वे परमेश्वर के वचनों को चाहे कितने ही जोर-शोर से बढ़ावा दें या इनका उपदेश दें, उन्हें किंचित भी आत्मज्ञान नहीं होता। यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। मसीह-विरोधियों के ऐसा व्यवहार दिखाने के पीछे कारण यह होता है कि भले ही वे अक्सर परमेश्वर के वचनों को बढ़ावा देकर इनका उपदेश दें, लेकिन वे खुद यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। उन्होंने खुद इन वचनों को स्वीकार नहीं किया है; वे सिर्फ अपने गुप्त मंसूबों को पूरा करने के लिए इनका इस्तेमाल करना चाहते हैं। परमेश्वर के वचनों का उपदेश देकर वे मनचाहा रुतबा और फायदा पाना चाहते हैं और अगर लोग परमेश्वर मानकर उनसे व्यवहार करें और उनकी आराधना करें तो यह उनके लिए सबसे अच्छी बात होगी। वैसे तो वे अब भी इस उद्देश्य या नतीजे को हासिल नहीं कर सकते, लेकिन हर मसीह-विरोधी का यही अंतिम लक्ष्य होता है।

मसीह-विरोधियों ने परमेश्वर के वचनों में बहुत सारा प्रयास झोंक दिया है; यह सुनकर कुछ लोग गलतफहमी में आकर पूछ सकते हैं : “क्या इसका यह मतलब है कि जो भी व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के प्रति प्रयास करता है वह एक मसीह-विरोधी है?” अगर तुम इसे इस ढंग से समझते हो तो तुममें आध्यात्मिक समझ नहीं है। मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों में लगाए गए प्रयास और सत्य का अनुसरण करने वालों के प्रयास में क्या अंतर है? (इरादा और उद्देश्य अलग हैं। मसीह-विरोधी अपने निजी लाभ और रुतबे के लिए, अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाएँ पूरी करने के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रति प्रयास करते हैं।) मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों में कौन-से प्रयास लगाते हैं? वे अपनी धारणाओं से मेल खाने वाले परमेश्वर के वचनों के हिस्से रटते हैं, मानवीय भाषा का इस्तेमाल कर परमेश्वर के वचनों को समझाना सीखते हैं और कुछ आध्यात्मिक नोट्स और अंतर्दृष्टियों को लिख लेते हैं। वे परमेश्वर के विभिन्न कथनों को छानते भी हैं, इनका निचोड़ तैयार करते हैं और इन्हें व्यवस्थित करते हैं, जैसे वे कथन जिन्हें लोग अपेक्षाकृत मानवीय धारणाओं के अनुरूप मानते हैं, जिनमें परमेश्वर के कहने का लहजा आसानी से दिखता है, रहस्य संबंधी कुछ वचन और परमेश्वर के कुछ ऐसे लोकप्रिय वचन जिनका कुछ समय से कलीसिया में अक्सर उपदेश दिया जाता है। रटने, व्यवस्थित करने, सारांश तैयार करने और अंतर्दृष्टियों को लिखने के अलावा बेशक कुछ विचित्र गतिविधियों समेत और भी अधिक गतिविधियाँ होती हैं। मसीह-विरोधी अपना रुतबा पाने, अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने और कलीसिया को नियंत्रित करने और परमेश्वर बनने का अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए हर कीमत चुकाएँगे। वे अक्सर देर रात तक काम करते हैं और पौ फटते ही जाग जाते हैं, वे रतजगा करते हैं और सवेरे-सवेरे अपने उपदेशों का पूर्वाभ्यास करते हैं, वे दूसरों की कही शानदार बातों को नोट भी करते हैं, ताकि खुद को उस सिद्धांत से लैस कर सकें जिसके बारे में उन्हें भारी-भरकम उपदेश देने हैं। वे हर दिन यही सोचते हैं कि भारी-भरकम उपदेश किस तरह देने हैं, परमेश्वर के कौन-से वचनों का चयन सबसे उपयोगी रहेगा, किन वचनों से परमेश्वर के चुने हुए लोगों से सराहना और प्रशंसा मिलेगी, और फिर वे उन वचनों को रट लेते हैं। फिर वे यह विचार करते हैं कि उन वचनों की व्याख्या इस तरह कैसे की जाए कि उनकी दूरदर्शिता और बुद्धिमानी झलके। परमेश्वर के वचनों को वास्तव में अपने हृदय पर अंकित करने के लिए वे उन्हें कई बार और सुनने का प्रयास करते हैं। यह सब करने के लिए वे वैसे ही प्रयास करते हैं, जैसे प्रयास छात्र कॉलेज में दाखिला प्राप्त करने की होड़ में करते हैं। जब कोई अच्छा धर्मोपदेश देता है या कुछ रोशनी प्रदान करने वाला या कुछ सिद्धांत प्रदान करने वाला धर्मोपदेश देता है तो मसीह-विरोधी उसे एकत्रित और संकलित कर लेगा और उसे अपना धर्मोपदेश बना देगा। मसीह-विरोधी के लिए कोई भी प्रयास बहुत बड़ा नहीं होता। तो उनकी इस कोशिश के पीछे क्या मंसूबा और इरादा होता है? वह है—परमेश्वर के वचनों का उपदेश देने, इन्हें सहज और स्पष्ट रूप से कहने और उन पर धाराप्रवाह पकड़ रखने में सक्षम होना, ताकि दूसरे लोग देख सकें कि मसीह-विरोधी उनसे अधिक आध्यात्मिक है, परमेश्वर के वचनों को अधिक सँजोने वाला है, परमेश्वर से अधिक प्रेम करने वाला है। इस तरह से मसीह-विरोधी अपने आस-पास के कुछ लोगों से सराहना बटोर कर अपनी आराधना करवा सकता है। मसीह-विरोधी को लगता है कि यह करने योग्य चीज है और किसी भी प्रयास, कीमत या कठिनाई के लायक है। दो, तीन, पाँच साल से भी ज्यादा समय तक ये प्रयास करने के बाद मसीह-विरोधी धीरे-धीरे परमेश्वर के बोलने के तरीके और उसके वचनों की विषयवस्तु और लहजे से अधिकाधिक परिचित हो जाते हैं; कुछ मसीह-विरोधी तो परमेश्वर के वचनों की नकल भी उतार सकते हैं या अपना मुँह खोलते ही इनके कुछ वाक्य सुना सकते हैं। निस्संदेह उनके लिए यह सबसे महत्वपूर्ण चीज नहीं होती। सबसे महत्वपूर्ण क्या होता है? चूँकि वे जब जी में आए तब परमेश्वर के वचनों की नकल उतारने और इन्हें सुनाने में सक्षम होते हैं, इसलिए उनके बोलने का तरीका, लहजा और यहाँ तक कि स्वरशैली भी अधिकाधिक परमेश्वर के समान होने लगती है, अधिकाधिक मसीह की तरह होने लगती है। मसीह-विरोधी मन-ही-मन इस बारे में खुशी मनाते हैं। वे किस बात की खुशी मनाते हैं? वे अधिकाधिक महसूस करते हैं कि परमेश्वर होना कितना अद्भुत होगा, जब इतने सारे लोग उन्हें अपना आदर्श मानकर घेरे होंगे—यह कितने गौरव की बात होगी! वे इन सारी उपलब्धियों का श्रेय परमेश्वर के वचनों को देते हैं। वे मानते हैं कि ये परमेश्वर के वचन ही हैं जिन्होंने उन्हें अवसर दिया है, उन्हें प्रेरित किया है और इससे भी अधिक परमेश्वर के वचनों के कारण ही उन्होंने परमेश्वर के बोलने के तरीके और परमेश्वर के लहजे को सीखा है। इसके कारण वे अंततः खुद को अधिकाधिक परमेश्वर जैसा महसूस करने लगते हैं, वे परमेश्वर की पहचान और दरजे की ओर बढ़ते जाते हैं। यही नहीं, इससे उन्हें लगता है कि परमेश्वर के बोलने के तरीके और लहजे की नकल कर पाना, परमेश्वर के बोलने के तरीके और स्वरशैली के साथ बोलना और जीना अत्यंत सुखदायी है, यह उनके लिए सर्वाधिक सुखद क्षण है। मसीह-विरोधी इस बिंदु तक पहुँच चुके हैं—क्या तुम लोग कहोगे कि यह खतरनाक है? (हाँ।) खतरा कहाँ है? (वे परमेश्वर बनना चाहते हैं।) परमेश्वर बनने की चाह खतरनाक है, ठीक पौलुस की तरह, जिसने कहा था कि उसके लिए जीना मसीह है। ऐसे शब्द कहते ही व्यक्ति उद्धार के परे हो जाता है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को परमेश्वर बनने का रास्ता मानते हैं। इस प्रक्रिया में मसीह-विरोधियों ने क्या किया है? उन्होंने परमेश्वर के वचनों में बहुत सारा प्रयास किया है, बहुत सारी ऊर्जा और समय लगाया है। इस दौरान उन्होंने परमेश्वर के वचनों की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण कर उन्हें बारम्बार पढ़ा, रटा और व्यवस्थित किया। उन्होंने तो परमेश्वर के वचन पढ़ते समय उसके बोलने के तरीके और लहजे की भी नकल की, खासकर परमेश्वर की वाणी के आम प्रचलित वाक्यांशों की नकल की। इन सब क्रिया-कलापों का सार क्या है? यहाँ मैं इसे एक ऐसे व्यापारी के सार रूप में बताऊँगा जो थोक भाव में सामान खरीदता है; यानी मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को अपने स्वामित्व वाली भौतिक चीज में बदलने के लिए सबसे सस्ता तरीका अपनाते हैं। जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो इन्हें सत्य के रूप में नहीं स्वीकारते, न ही वे इसे एक ऐसा मार्ग मानते हैं जिसमें लोगों को प्रवेश करना चाहिए और जिसे ऐसा मानना चाहिए। बल्कि वे इन वचनों को, इन्हें बोलने के तरीके और लहजे को याद करने के लिए हर तरीके से कोशिश करते हैं, उनकी कोशिश यही रहती है कि वे खुद को ऐसे वचन व्यक्त करने वाले व्यक्तियों में बदल दें। मसीह-विरोधी जब परमेश्वर के बोलने के लहजे और तरीके की नकल करने में सक्षम हो जाते हैं, बोलने के इस तरीके और लहजे का अपनी कथनी-करनी में पूरी तरह से उपयोग करने में सक्षम हो जाते हैं तो लोगों के बीच रहते हुए उनका लक्ष्य यह हासिल करना नहीं होता कि अपना कर्तव्य वफादारी से निभाएँ, सिद्धांतों के साथ कार्य करें या परमेश्वर के प्रति वफादार हों। बल्कि परमेश्वर के बोलने के लहजे और तरीके की नकल करके और परमेश्वर के इन वचनों का प्रचार करके वे लोगों के दिल में गहरे उतरकर उनके लिए आराधना की वस्तु बनना चाहते हैं। वे लोगों के दिलों में सिंहासन पर बैठकर वहाँ राजाओं की तरह राज करने की आकांक्षा रखते हैं और लोगों के विचारों और व्यवहारों को तोड़-मरोड़कर उनके जरिए लोगों को नियंत्रित करने का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं।

अगर हम परमेश्वर के वचनों में प्रयास करने वाले मसीह-विरोधियों का वर्णन ऐसे व्यापारियों के रूप में करें जो परमेश्वर के वचनों को वस्तुएँ मानकर सस्ते में खरीदते हैं तो क्या परमेश्वर के वचनों का उपदेश देने के लिए मसीह-विरोधियों का उसकी वाणी की नकल करना, उसके बोलने का तरीका और लहजा अपनाना परमेश्वर के वचनों को एक वस्तु के रूप में बेचने के समान नहीं है? (हाँ, है।) हर व्यापारी बेचने के लिए ही सामान खरीदता है। ये चीजें जुटाकर अपने पास रखने का उसका उद्देश्य इनसे ऊँचा मुनाफा कमाना और ज्यादा पैसे के बदले लेन-देन करना है। इस तरह परमेश्वर के वचनों में मसीह-विरोधियों का विस्तृत प्रयास और उनके प्रति उनका रवैया उन मसीह-विरोधियों से अलग नहीं है जो व्यापारी के रूप में सबसे सस्ते, सबसे किफायती और सबसे फायदेमंद साधनों का उपयोग कर उन्हें हासिल करते हैं, उन्हें अपनी संपत्ति बनाते हैं और फिर मनचाहे फायदे लेने के लिए उन्हें ऊँची कीमत पर बेच देते हैं। और ये फायदे क्या होते हैं? यही कि लोग उन्हें उच्च सम्मान दें, उन्हें अपना आराध्य मानें, उनकी स्तुति करें और खासकर उनका अनुसरण करें। इसलिए कलीसिया में ऐसा दृश्य आम होता है जहाँ मूल रूप से परमेश्वर के वचनों का अभ्यास न करने वाले और खुद को न जानने वाले व्यक्ति के बहुत से अनुयायी होते हैं, कई लोग उस पर भरोसा करते हैं और उसे अपना आराध्य मानते हैं। इसका क्या कारण है? यही कि यह व्यक्ति चिकनी-चुपड़ी बातें करता है, मुखर होता है और लोगों को आसानी से गुमराह कर देता है। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करते, न ही कार्यों को सिद्धांतों के अनुसार सँभालते हैं और वे कलीसिया के कार्य और ऊपरवाले की ओर से व्यवस्थाओं को क्रियान्वित करने में भी नाकाम रहते हैं। तो फिर भी वे कुछ लोगों पर अच्छा प्रभाव क्यों जमा पाते हैं? जब उन पर वाकई कुछ आफत आती है तो उन्हें बचाने के लिए क्यों बहुत-से लोग उनकी ढाल बन जाते हैं? उनके अगुआ होने पर बहुत-से लोग उनका बचाव क्यों करते हैं? कुछ लोग अड़चन डालते हुए उनकी बर्खास्तगी का विरोध क्यों करते हैं? एक ऐसा व्यक्ति जो दोषों से भरा है, शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से भरा है और जो कभी सत्य का अभ्यास नहीं करता, फिर भी वह कलीसिया में ऐसा सम्मान क्यों पा लेता है, इसका कारण केवल यही है कि वह बोलने में बेहद कुशल है, दिखावा करने में बहुत अच्छा है और लोगों को गुमराह करने में पारंगत है—मसीह-विरोधी ठीक ऐसे ही लोग होते हैं। तो क्या हम कह सकते हैं कि ऐसे लोग मसीह-विरोधी हैं? हाँ, ऐसे लोग निश्चित रूप से मसीह-विरोधी हैं। वे अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, अक्सर इन्हें रटते और प्रचारित करते हैं, अक्सर दूसरों को उपदेश देते और उनकी काट-छाँट करने के लिए परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल करते हैं, लोगों को उपदेश देने के लिए परमेश्वर का परिप्रेक्ष्य और रुख अपनाते हैं, लोगों को पूरी तरह से अपने प्रति आज्ञाकारी और समर्पित बनाते हैं और भारी-भरकम धर्म-सिद्धांत सुनाकर उन्हें अवाक कर देते हैं। फिर भी ऐसे लोग कभी भी खुद को नहीं जानते और कभी भी सिद्धांतों के अनुसार चीजों को नहीं सँभालते। अगर वे एक अगुआ हैं तो उनके वरिष्ठ अगुआ अप्रभावी हो जाते हैं। उनकी अगुआई में कलीसिया की स्थिति को समझना असंभव हो जाता है। उनके मौजूद रहते परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाएँ, परमेश्वर के घर के निर्धारित सिद्धांत और अपेक्षाएँ लागू नहीं की जा सकती हैं। क्या ऐसे लोग मसीह-विरोधी नहीं हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानते हैं? (नहीं, वे ऐसा नहीं मानते।) उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़ने में अपने प्रयास झोंके हैं और इनमें से कुछ को सुना भी सकते हैं। सभाओं में संगति के दौरान वे अक्सर परमेश्वर के वचनों का उल्लेख करते हैं और फुर्सत मिलने पर परमेश्वर के वचनों की सस्वर रिकॉर्डिंग सुनते हैं। दूसरों से बात करते समय वे परमेश्वर के वचनों की मात्र नकल करते हैं और कुछ नहीं कहते। वे जो कुछ भी उपदेश देते हैं और कहते हैं वह बेदाग होता है। ऊपरी तौर पर ऐसे बहुत ही पूर्ण दिखने वाले, तथाकथित “सही व्यक्ति” के पास जब परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं, अपेक्षाओं और सिद्धांतों के मामले पहुँचते हैं तो उसके कारण ये रुक जाते हैं। उसके मातहत लोग उसके अलावा किसी को नहीं मानते। उसके मातहत लोग उस पर और स्वर्ग में अज्ञात परमेश्वर पर श्रद्धा रखने के सिवाय किसी और की नहीं सुनते और हरेक की अनदेखी करते हैं। क्या यह एक मसीह-विरोधी नहीं है? उसने यह सब हासिल करने के लिए कौन-से साधनों का इस्तेमाल किया है? उसने परमेश्वर के वचनों का दोहन किया है। जो लोग अपनी आस्था में भ्रमित हैं, जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है, जो अज्ञानी हैं, जिनके विचार उलझे हुए हैं, साथ ही जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, छद्म-विश्वासी हैं और जो हवा से डोलने वाले सरकंडों जैसे हैं, वे मसीह-विरोधी को आध्यात्मिक व्यक्ति मानते हैं। वे मसीह-विरोधी द्वारा प्रचारित शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को सत्य वास्तविकता मानते हैं और मसीह-विरोधी को अपने अनुसरण का लक्ष्य मानते हैं। मसीह-विरोधी का अनुसरण करते हुए वे यह विश्वास करते हैं कि वे परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं। वे परमेश्वर के अनुसरण की जगह मसीह-विरोधी का अनुसरण करते हैं। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं, “हमारे अगुआ ने अभी तक कुछ नहीं कहा या संगति नहीं की; भले ही हम परमेश्वर के वचनों को पढ़ें, हम इन्हें खुद नहीं समझ सकते।” “हमारा अगुआ यहाँ नहीं है—हम किसी चीज को लेकर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं लेकिन हमें रोशनी नहीं मिल पाती; हम परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं लेकिन मार्ग को नहीं समझ पाते। हमें अपने अगुआ के लौटने का इंतजार करना होगा।” “हमारा अगुआ इन दिनों व्यस्त चल रहा है और उसके पास हमारे मसले हल करने के लिए समय नहीं है।” अपने स्वामी के बिना ये लोग नहीं जानते कि प्रार्थना कैसे करें या परमेश्वर के वचन कैसे खाएँ और पिएँ, वे परमेश्वर को खोजना और उस पर भरोसा करना नहीं सीखते या अपने बलबूते परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग खोजना नहीं सीखते। अपने स्वामी के बिना वे अंधे लोगों के समान होते हैं, मानो उनके दिल खोदकर निकाल दिए गए हों। उनका स्वामी ही उनकी आँखें होता है, साथ ही उनका दिल और फेफड़े भी होता है। उन्हें यह विश्वास है कि उनका स्वामी परमेश्वर के वचन खाने-पीने में सबसे अच्छा है; अगर उनका स्वामी उनके पास नहीं है तो परमेश्वर के वचन खुद खाने-पीने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं होती और इनका प्रार्थना-पाठ करने और व्याख्या करने के लिए वे अपने स्वामी के लौटने का इंतजार करेंगे जिससे वे इन वचनों को समझ सकें। वे दिल की गहराई से मानते हैं कि उनका स्वामी उनका दूत है जो उन्हें परमेश्वर के समक्ष आने में मदद कर सकता है। ऐसी “धाक” जम जाए तो मसीह-विरोधी अपने दिल की गहराई में फूले नहीं समाते : “मेरी इतने बरसों की कोशिश आखिर कामयाब रही; आखिरकार मैंने जो समय बिताया वह बेकार नहीं गया। जो लोग मजबूती से जुटे रहते हैं उन्हें वास्तव में कोशिश का सिला मिलता है—लोहे की छड़ को भी लगातार पीट-पीटकर सुई में बदला जा सकता है। यह कोशिश उपयोगी रही!” यह सुनकर कि उनके अनुयायी उनके बिना नहीं जी सकते, मसीह-विरोधी अपने अंदर कोई अपराध-बोध महसूस नहीं करते। बल्कि वे मन-ही-मन खुश होकर यह सोचते हैं, “परमेश्वर के वचन निश्चित रूप से महान हैं। तब मेरा निर्णय सही था; इन वर्षों में मैंने जो कोशिश की वह सही थी और मेरे इन वर्षों के दृष्टिकोण की पुष्टि हो गई और यह फलीभूत हो गया है।” उनके मन में लड्डू फूटने लगते हैं। उन्हें अपने बुरे कार्यों के लिए कोई अपराध-बोध, पछतावा या घृणा महसूस होना तो दूर रहा, वे इस बात से और भी अधिक आश्वस्त और निश्चिंत हो जाते हैं कि उनका दृष्टिकोण सही है। इसलिए आने वाले समय में, अपने भावी जीवन में वे पहले की तरह ही परमेश्वर के बोलने के तरीके और लहजे का अध्ययन करने की योजना बनाते हैं, पहले की तुलना में ऐसा और ज्यादा मेहनत-लगन से करना चाहते हैं और परमेश्वर के बोलने के ढंग और शब्द-चयन की और भी अधिक विस्तृत ढंग से और गहराई से नकल करना चाहते हैं।

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