मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग पाँच) खंड एक

III. परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करना

आज हम अपनी पिछली संगति को आगे बढ़ाएँगे जिसमें मसीह-विरोधियों की इस दसवीं अभिव्यक्ति पर चर्चा की गई थी—वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं। यह मद तीन भागों में बाँटी गई है। पहले दो पर संगति हो चुकी है और आज हम तीसरे पर संगति करेंगे : मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करते हैं। इस पहलू से जुड़ी कुछ अभिव्यक्तियों और कहावतों पर पहले संगति की जा चुकी है, जैसे, मसीह-विरोधी कैसे परमेश्वर के वचनों पर संदेह करते हैं, उन पर विश्वास नहीं करते, उनके प्रति कौतूहल से भरे रहते हैं, उनमें विश्वास का कोई तत्व नहीं होता बल्कि उनके मन में सिर्फ संदेह, परीक्षा और अटकलें होती हैं। संक्षेप में कहें तो मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते, न वे इनका अभ्यास ही करते हैं। जब मसले सामने आते हैं तो वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास के सिद्धांत नहीं खोजते। वे मन-ही-मन परमेश्वर के वचनों के प्रति अक्सर संदेह, प्रतिरोध और इनकार पाले रहते हैं। इन सभी चीजों को मसीह-विरोधियों की परमेश्वर के वचनों के तिरस्कार की अभिव्यक्तियाँ कहा जा सकता है। आज हम परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के और भी अधिक गहरे और विशिष्ट रवैयों और कार्य-कलापों पर संगति को आगे बढ़ाएँगे, इस बात का गहन विश्लेषण करेंगे कि वास्तव में वे कैसे परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करते हैं। जहाँ तक यह सवाल है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार कैसे करते हैं, इस पर हम मद-दर-मद संगति करना जारी रखेंगे। क्या यह तरीका ज्यादा स्पष्ट नहीं रहेगा? (हाँ।) अब अगर मैं आम तरीके से संगति करता और तुम लोगों में कुछ समझने की क्षमता, पर्याप्त काबिलियत और आध्यात्मिक समझ होती और तुम अक्सर परमेश्वर के वचनों से रोशनी प्राप्त करते तो फिर मैं जो संगति पहले कर चुका हूँ वही तुम्हारे लिए वास्तव में पर्याप्त होती। लेकिन ज्यादातर लोगों में परमेश्वर के वचनों को समझने की काबिलियत नहीं होती है; वे उस स्तर पर नहीं पहुँचते जहाँ वे परमेश्वर के वचनों को ऐसा सत्य मान सकें जिसे समझा जाना चाहिए। इसलिए हमें हर मद पर सिलसिलेवार ढंग से संगति करने की जरूरत है। इस विषय को खासकर अनेक छोटे खंडों में बाँटा गया है।

क. मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं

पहली मद यह है कि मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं। पहले हम इस पहलू पर कुछ खास उदाहरणों के जरिए संगति कर चुके हैं लेकिन हमने एक लक्ष्य-केंद्रित, विस्तृत गहन विश्लेषण नहीं किया, सिर्फ सरसरी तौर पर संगति की। मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं, इसकी क्या अभिव्यक्तियाँ हैं? इस मद के लिहाज से मसीह-विरोधी किस प्रकार व्यवहार करते हैं? जहाँ तक बात यह है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों के प्रति ऐसा व्यवहार दिखा सकते हैं और ऐसे कार्य-कलाप कर सकते हैं, इससे पता चलता है कि अपनी प्रकृति के दृष्टिकोण से वे दिल से यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, पवित्र हैं और उनका अपमान नहीं किया जा सकता। परमेश्वर चाहे सत्य के वचनों के जिस किसी पहलू को व्यक्त करे, लोगों को यह चाहे साधारण लगे या गहन, फिर भी ये परमेश्वर के ही वचन हैं, यही सत्य हैं और ये व्यक्ति के जीवन प्रवेश, स्वभावगत परिवर्तन और उद्धार से अटूट रूप से जुड़े हैं। लेकिन मसीह-विरोधी इसे इस तरह नहीं देखते; वे दिल से इसके प्रति सचेत नहीं होते, न ही उनमें ऐसी सजगता या समझ होती है। वे नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न ही वे यह मानते हैं कि व्यक्ति के जीवन प्रवेश के लिए परमेश्वर के वचनों का अत्यंत महत्व है। इसके विपरीत, वे मानते हैं कि परमेश्वर के वचन ऊपरी तौर पर महज इंसानी शब्द लगते हैं, अत्यंत साधारण लगते हैं। वे इतने महत्वपूर्ण सिर्फ इसलिए लगते हैं कि जो भी लोग परमेश्वर, परमेश्वर के घर और कलीसिया का अनुसरण करते हैं, वे सब इन्हें “परमेश्वर के वचन” के नाम से जानते हैं। लेकिन हकीकत में, ऊपरी तौर पर देखने पर परमेश्वर के वचन लोगों द्वारा अक्सर बोले जाने वाले सामान्य वाक्यांश जैसे लगते हैं। शाब्दिक रूप से देखें तो इन वचनों में इंसानी भाषा के तत्व मौजूद होते हैं, इनमें इंसानी भाषा का तर्क, विचार और शब्द-चयन होता है, जिसमें कुछ-कुछ बोलचाल की शैली, मुहावरे, लोकोक्तियाँ और यहाँ तक कि द्विअर्थी कहावतें शामिल होती हैं। परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी ऐसा भव्य, गूढ़ और गहन नहीं मानते जैसा कि कोई व्यक्ति कल्पना करता होगा, न ही वे इन्हें स्वर्ग से उतरे पौराणिक धर्मग्रंथ मानते हैं। उनके लिए तो ये बस सपाट और साधारण होते हैं। इस प्रकार काफी जाँच-पड़ताल के बाद आखिरकार वे अपने मन में एक परिभाषा गढ़ लेते हैं : ये शब्द सिर्फ सपाट भाषा होते हैं, बिल्कुल व्यावहारिक होते हैं, ऐसी चीजें जिन्हें विश्वासियों को पढ़ना चाहिए, ऐसे शब्द जो व्यक्ति को अपने व्यवहार और आस्था में मदद कर सकते हैं। काफी पढ़ने के बाद वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। कुछ मसीह-विरोधी और अहंवादी लोग तो परमेश्वर के वचन उठाते हैं और एक झटके में बहुत सारे अध्याय और पन्ने पढ़ डालते हैं। कुछ लोग तो “वचन देह में प्रकट होता है” पुस्तक को शुरू से अंत तक एक महीने में ही पढ़ डालते हैं और इससे उनके मन और विचारों पर कुछ गहरी छाप छूट जाती है। वे कुछ आध्यात्मिक शब्दावली, परमेश्वर के कहने के लहजे और ढंग की और यहाँ तक कि अलग-अलग चरणों में परमेश्वर के वचनों की विषयवस्तु की आम समझ हासिल कर लेते हैं। पढ़ने के बाद वे कहते हैं, “परमेश्वर के वचन बस ऐसे ही हैं। मैं इन्हें एक ही बार में पढ़ चुका हूँ और परमेश्वर की छह हजार साल की प्रबंधन योजना की सामान्य विषयवस्तु को समझता हूँ। लिहाजा परमेश्वर के वचनों में उतनी गहनता नहीं है। परमेश्वर के वचनों को सत्य के स्तर पर पहुँचा देना, ऐसी चीज मान लेना जो लोगों के जीवन प्रवेश के लिए अनिवार्य है, थोड़ी-सी अति लगती है।” इसलिए वे इन वचनों को चाहे जिस दृष्टि से देखें, उनके दिल में परमेश्वर के वचनों की अंतिम परिभाषा यही होती है कि ये समझने में उतने गहन या कठिन नहीं हैं जितना लोग सोचते हैं। कोई भी पढ़ा-लिखा जिसके पास देखने वाली नजर है, इन्हें समझ सकता है। इन्हें एक सिरे से दूसरे सिरे तक पढ़ लेने के बाद भी वे न केवल जीवन प्रवेश से संबंधित उन तमाम सत्यों को पहचान या समझ नहीं पाते जिन्हें परमेश्वर के वचनों के जरिए समझकर लोगों को प्रबोधन, पोषण और सहारा हासिल करना चाहिए, बल्कि उन्हें यह भी लगता है कि परमेश्वर के वचन सत्य और स्वर्ग के पवित्र ग्रंथों से बहुत दूर हैं। ऐसे निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों का और भी अधिक तिरस्कार करने लगते हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन बस इतने ही हैं, कि परमेश्वर सिर्फ यही है और सत्य सिर्फ यही है। ऐसे रवैये और समझ के साथ परमेश्वर के वचनों और “वचन देह में प्रकट होता है” के प्रति मसीह-विरोधियों का आंतरिक रुख उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य से और भी अधिक तिरस्कार करने की ओर ले जाता है। वे अपने ज्ञान और अपनी मेधा का उपयोग करते हैं, अपनी याददाश्त और चालाकियों के भरोसे रहते हैं ताकि इन वचनों की विषयवस्तु और इन वचनों के तथाकथित सिद्धांतों को तेजी से समझने के साथ ही इनमें प्रयुक्त कुछ-कुछ लहजे, शैली और शब्द-चयन को समझा जाए, जिसके शब्द-चयन में प्रचलित और मुहावरेदार जुमले शामिल होते हैं। इसके बाद उन्हें लगता है कि वे सब कुछ हासिल कर चुके हैं और उनके पास सब कुछ है। ऐसी समझ और रवैया मन-ही-मन उन्हें परमेश्वर के वचनों से और भी अंधाधुंध ढंग से तिरस्कार करने और उन पर सवाल खड़े करने और आगे परमेश्वर की पहचान और सार पर और ज्यादा संदेह करने के लिए प्रेरित करता है।

मसीह-विरोधियों की प्रकृति से इस पर नजर डालें, तो कोई भी देख सकता है कि वे सत्य से विमुख होते हैं, सकारात्मक चीजों से तिरस्कार करते हैं, परमेश्वर की दीनता और अदृश्यता से तिरस्कार करते हैं और उसकी वफादारी, वास्तविकता और मनोहरता से तिरस्कार करते हैं। तिरस्कार की इस लंबी कड़ी के कारण मसीह-विरोधी अनजाने में ही और स्वाभाविक रूप से कुछ ऐसे वमनकारी कार्य-कलाप कर बैठते हैं जिनसे परमेश्वर घृणा करता है और जिनकी निंदा करता है। इन कार्यों में मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करना शामिल है। छेड़छाड़ करने से क्या आशय है? मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचनों में सत्य है, यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन लोगों को जीवन प्रदान कर सकते हैं और वे इस बात को तो और भी नहीं मानते कि ये वचन मनुष्य के अस्तित्व की नींव हैं और मनुष्य की प्रगति की दिशा और राह हैं। इसलिए वे यह नहीं समझते कि परमेश्वर इन तरीकों से क्यों बोलता है, न वे यह जानते हैं कि परमेश्वर किसी खास संदर्भ में ऐसे वचन क्यों कहता है, और वे इस बारे में तो और भी बेखबर होते हैं कि परमेश्वर यही विशिष्ट विषयवस्तु क्यों सुनाता है। जहाँ तक ये सवाल हैं कि यह विषयवस्तु कैसे आई, परमेश्वर क्या सोचता है और परमेश्वर ये वचन सुनाते समय लोगों में क्या देखना, हासिल करना और प्रभाव पैदा करना चाहता है, साथ ही—इन वचनों के भीतर—परमेश्वर जो कुछ पाने का इरादा लक्षित करता है, उसके इरादे और सत्य, इस सबको लेकर मसीह-विरोधी पूरी तरह बेखबर और निपट अज्ञानी होते हैं—जब यह बात आती है तो वे सामान्य लोग होते हैं। इसलिए उन्हें मन-ही-मन अक्सर यह लगता है कि परमेश्वर को यह वाक्यांश इस तरह नहीं कहना चाहिए था, इस वाक्य के बाद वह वाक्य आना चाहिए था, इस वाक्य को इस तरह गढ़ना चाहिए था, उस पाठ्यांश का ऐसा लहजा या वैसी स्वरशैली होनी चाहिए थी, यह शब्द-चयन गलत है और वह शब्द विचारहीन है और परमेश्वर की पहचान के अनुकूल नहीं है, इस प्रकार वे अपनी राय बनाते रहते हैं। उनकी नजरों में परमेश्वर के वचन दुनिया में किसी भी मशहूर या महान व्यक्ति के लेखनकार्य जितने अच्छे नहीं हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर की वाणी उतनी सटीक नहीं है, इसमें बहुत अधिक शब्द हैं और इनमें से कुछ वचनों की अगर बारीकी से जाँच-पड़ताल की जाए तो वे कड़ाई से मानव व्याकरण और शब्दकोशीय नियमों के अनुरूप नहीं हैं। “इन वचनों में सत्य कैसे हो सकता है? ये परमेश्वर के वचन कैसे हो सकते हैं? ये सत्य कैसे हो सकते हैं?” मसीह-विरोधी संदेह और निंदा करने के साथ ही मन-ही-मन में हिसाब लगाते और चिंतन करते रहते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति ऐसे रवैये, ऐसे विचारों और ऐसे दृष्टिकोण के साथ मसीह-विरोधी अपने दानवी पंजे पैने करते हैं।

मुझे याद आता है कि कुछ साल पहले भजन मंडली में एक घटना घटी थी। वे कलीसिया में गाने के लिए परमेश्वर के वचनों के एक अनिवार्य अंश के लिए संगीत रचना चाहते थे। संगीत रचना के दौरान उन्हें पता चला कि परमेश्वर की वाणी के पाठ की अवधि और शब्द संख्या धुन से मेल नहीं खा रही है; गीत की हर पँक्ति में बहुत ज्यादा शब्द थे। इसके अलावा, पूरे भजन की धुन अगर परमेश्वर के वचनों से मिलाई जाती थी तो इससे शब्द बहुत ज्यादा और बहुत लंबे प्रतीत हो रहे थे। ऐसे में उनके पास क्या समाधान था? उन्हें एक उपाय सूझा : उन्होंने परमेश्वर के वचनों का प्रत्यक्ष अर्थ बदले बिना कुछ वाक्यांशों और शब्द चयन को थोड़ा-सा बदल दिया—जैसे, चार अक्षरों वाले मुहावरे को दो अक्षरों वाले अक्षर में बदल दिया या उन वाक्यों को हटा दिया जो बहुत लंबे, अनावश्यक और अर्थहीन नजर आ रहे थे। इस सिद्धांत पर चलकर उन्होंने परमेश्वर के वचनों के संपादित रूप को संगीतबद्ध किया और गायन के लिए कलीसिया में भेज दिया। ज्यादातर लोग चूँकि भ्रमित थे, इसलिए उन्होंने इसे परमेश्वर के वचनों का भजन समझा, लेकिन कौन जानता था कि ऐसा अंश परमेश्वर के वचनों का बिल्कुल भी नहीं है? यह ऐसा अंश था जिसे मसीह-विरोधियों ने मनमाने ढंग से संशोधित कर छोटा कर दिया था, गड़बड़ी कर बदल दिया था। बाद में जब इस भजन को एक कार्यक्रम के लिए तैयार किया जा रहा था तो मैंने पूछा कि यह भजन परमेश्वर के वचनों के किस अध्याय से चुना गया है। उन्होंने मुझे बताया कि यह अमुक अध्याय का पहला अंश है। मैंने उस अंश को खोजकर इसका मिलान भजन-पुस्तिका वाले अंश से किया तो मुझे झटका-सा लगा। भजन-पुस्तिका का अंश परमेश्वर के वचनों के अध्याय का चयनित हिस्सा बस नाममात्र के लिए था और इसे इस कदर बदल दिया गया था कि यह पहचान में ही नहीं आ रहा था। वाणी का लहजा गायब हो चुका था, बहुत-से महत्वपूर्ण शब्द हटा दिए गए थे, वाणी की विषयवस्तु उलट-पुलट दी गई थी, यहाँ तक कि शब्द-क्रम भी उलट दिया गया था। अगर किसी ने मुझे यह न बताया होता कि इस अंश को परमेश्वर के वचनों के किस अमुक अध्याय से लिया गया है तो मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति यह जान पाता कि यह किस अध्याय का अंश है; यह मूलपाठ से बिल्कुल भी मेल नहीं खा रहा था। ऊपरी तौर पर देखें तो ये लोग अपना कर्तव्य निभा रहे थे : परमेश्वर के वचनों को सबके गाने और आत्मसात करने के लिए संगीतबद्ध करके ये वचन लोगों की अनवरत अगुआई और मार्गदर्शन कर सकते थे, और उन्हें परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करने में मदद कर सकते थे। यह कैसा अद्भुत कर्म था! लेकिन मसीह-विरोधियों में परमेश्वर का भय मानने वाले दिल का नितांत अभाव होने के कारण उन्होंने परमेश्वर के वचनों को साधारण लोगों की बातचीत के शब्द जैसा मान लिया और मनमाने ढंग से उन्हें हटा दिया और उनके साथ छेड़छाड़ की। एक भी सवाल पूछे बिना और किसी से अनुमति या सहमति लिए बिना—या किसी से अनुज्ञा लेना तो दूर की बात है—उन्होंने परमेश्वर के वचनों को पूरी तरह बदल दिया, फिर भी उन्होंने लोगों को यह यकीन दिलाया कि वे अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, कि उन्होंने परमेश्वर के वचनों को संगीतबद्ध कर दिया है। यह किस प्रकार का व्यवहार और तरीका है? ऐसा व्यवहार करने वाले और ऐसा तरीका अपनाने वाले लोगों का स्वभाव कैसा होता है? जो ऐसा तरीका अपनाते हैं, जो परमेश्वर के वचनों से इस रवैये के साथ पेश आते हैं, क्या परमेश्वर के वचनों से ऐसा पेश आते समय उनके दिल में परमेश्वर के प्रति असल में कोई भय होता है? क्या वे परमेश्वर के वचनों को सँजोते हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों को सत्य की तरह लेते हैं? परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके श्रद्धाविहीन और लापरवाह रवैये के आधार पर देखा जाए तो वे परमेश्वर के वचनों को सँजोना तो दूर, इन्हें खिलवाड़ की चीज समझते हैं और जैसा जी में आए वैसा इनमें लापरवाही से बदलाव करते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया क्या स्वयं परमेश्वर के प्रति उनके रवैये का सूचक नहीं है? (हाँ, है।) यह बिल्कुल एक जैसी बात है। परमेश्वर के वचन स्वयं परमेश्वर के परिचायक होते हैं; वे परमेश्वर की अभिव्यक्ति होते हैं, उसके स्वभाव की अभिव्यक्ति होते हैं और उसके सार का प्रकाशन हैं। अगर लोग परमेश्वर के वचनों के प्रति इतने श्रद्धारहित और लापरवाह हैं तो यह बताने की जरूरत नहीं है कि वे स्वयं परमेश्वर से कैसे व्यवहार करते हैं। यही बहुत कुछ बता देता है।

लोग ऊपरी तौर पर परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उसके लिए परित्याग करते हैं, खपते हैं और कष्ट सहते हैं लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया बहुत ही श्रद्धाविहीन और लापरवाह होता है। यह भी हो सकता है कि मसीह-विरोधी “वचन देह में प्रकट होता है” पुस्तक को खूब सजा-धजा कर और कपड़े में लपेटकर सबसे सुरक्षित जगह पर रखते हों। लेकिन इससे क्या साबित हो सकता है? क्या इससे यह दिखता है कि वे परमेश्वर के वचनों को सँजोकर रखते हैं, कि उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? क्या ये सतही क्रिया-कलाप परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके श्रद्धाविहीन रवैये को ढक सकते हैं? नहीं ढक सकते। वे जब भी परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो हमेशा कुछ शब्दों, अभिव्यक्तियों और लहजे को बदलने की सोचते हैं। और कुछ मसीह-विरोधी किस हद तक दुस्साहसी होते हैं? जब उन्हें परमेश्वर के वचनों में कुछ ऐसा नजर आता है जो उनकी धारणाओं से मेल नहीं खाता या उन्हें लगता है कि शब्द-योजना अनुचित या व्याकरण के अनुसार गलत है या उन्हें लगता है कि कोई विराम-चिह्न भी गलत है तो वे जोर-शोर से ऐलान कर मामले को बढ़ा-चढ़ाकर बताएँगे, वे चाहते हैं कि परमेश्वर के वचनों में किसी गलत विराम-चिह्न, किसी अनुचित शब्द के चयन या किसी अनुचित लगते कथन के बारे में सारी दुनिया जान जाए। वे उपहासपूर्ण और तिरस्कारपूर्ण लहजे में इसका ढोल पीटते हैं। लगता है कि ऐसे क्षणों में आखिर उनके हाथ वो चीज लग ही गई है जिसे वे परमेश्वर के वचनों में गलतियों का सबूत मानते हैं, लाभ लेने का हथकंडा, एक त्रुटि मानते हैं और इस तरह वे अंततः अपने दिल को तसल्ली दे सकते हैं कि परमेश्वर के वचनों में भी गलतियाँ होती हैं और परमेश्वर पूर्ण नहीं है। क्या यह एक मसीह-विरोधी स्वभाव नहीं है? मसीह-विरोधियों का लक्ष्य परमेश्वर के वचनों में गलतियाँ और चूक खोजना होता है; यह शत्रुता का रवैया है, समर्पण और स्वीकृति का नहीं। जब यह बात होती है कि मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं, तो भजन मंडली में हुई जिस घटना का हमने अभी-अभी उल्लेख किया, क्या उसे परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ माना जा सकता है? (हाँ।) मुझे बताओ, कैसा इंसान परमेश्वर के वचनों को इस कदर मनमाने ढंग से बदलेगा? क्या उसमें परमेश्वर का कोई भय होगा? (नहीं।) यह कैसा स्वभाव है? पहली बात, क्या वह परमेश्वर के वचनों को परमेश्वर के वचन मानता है? (नहीं।) तो फिर वह परमेश्वर के वचनों को क्या मानता है? वह इन्हें इंसानी शब्द मानता है। लोगों की अनुभवजन्य गवाहियों के आलेखों में अगर शब्द असंगत या अपूर्ण हैं तो शायद इन्हें बदलना स्वीकार्य हो सकता है, मगर परमेश्वर के वचनों के साथ भी ठीक यही व्यवहार करने का दुस्साहस करना, यह कैसी प्रकृति है? क्या यह मनमाने ढंग से और अंधाधुंध कार्य करना और परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय न होना नहीं है? परमेश्वर के वचनों पर मनमाने ढंग से टिप्पणी करने और इन्हें बदलने का दुस्साहस करना, व्यक्ति के अपने विचारों या दृष्टिकोण के अनुसार न होने पर इन्हें जब-तब बदल देना—क्या यह प्रकृति गंभीर है? (हाँ।)

परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने में और कौन शामिल होता है? सुसमाचार प्रचार करने की प्रक्रिया के दौरान कुछ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आते हैं और उनके मन में परमेश्वर के लहजे, शैली, उसके बोलने के परिप्रेक्ष्य और यहाँ तक कि शब्द-योजना और सर्वनामों के प्रयोग समेत कई अन्य पहलुओं को लेकर धारणाएँ होती हैं। सभी अलग-अलग लोगों की अलग-अलग धारणाएँ होती हैं; अलग-अलग संप्रदायों से आए लोगों की अलग-अलग रुचियाँ और माँग होती हैं। सुसमाचार टीम के कुछ सदस्य कहते हैं, “इस तरीके से सुसमाचार प्रचार करना कठिन है! परमेश्वर के कुछ वचन बहुत कठोर हैं; कुछ वचन तो ऐसे लगते हैं मानो परमेश्वर लोगों को शाप दे रहा है। वे बिल्कुल भी सौम्य नहीं हैं, उनमें प्रेम का अभाव है और वे सब रोजमर्रा की बोली में हैं। कुछ वचन तो खास तौर पर कुछ जाति समूहों को निशाने पर लेते हैं तो कुछ दूसरे वचन रहस्यों को खोलते हैं—लोगों को इनमें से कोई भी स्वीकार्य नहीं लगता! ये वचन परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करने वाले संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की राह में बाधाएँ बन गए हैं। हमें क्या करना चाहिए?” कोई कहता है, “मेरे पास एक समाधान है। चूँकि संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता इन वचनों के कारण परमेश्वर का नया कार्य नहीं स्वीकार पाते, इसलिए क्यों न इन वचनों को ही हटा दिया जाए? लोग जिन वचनों और सामग्रियों को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं हैं उन सब पर निशान लगा लिया जाए, फिर चाहे यह कोई अकेला वाक्य ही हो और इन्हें छापने से पहले हटा दिया जाए। इस तरह जब संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता इन्हें पढ़ेंगे तब ऐसा कोई वचन नहीं होगा जो उनके अभिमान या भावनाओं को आहत करेगा, न ही ऐसा कोई वचन रहेगा जो उनकी धारणाओं का खंडन करेगा। परमेश्वर के सारे वचन उचित रहेंगे, प्राप्तकर्ताओं के मन में कोई धारणा नहीं होगी और वे परमेश्वर का नया कार्य आसानी से स्वीकार कर पाएँगे।” सुसमाचार टीम में कुछ सदस्यों ने वास्तव में ऐसा किया है और ऊपरवाले से पूछे बिना या उसकी सहमति लिए बिना ही उन्होंने परमेश्वर के इन संक्षिप्त और छेड़छाड़ युक्त वचनों की पुस्तिकाएँ छापकर बड़े पैमाने पर बाँट दीं। कार्य में अपनी सुविधा की खातिर उन्होंने अधिकाधिक लोगों को हासिल करने के लिए, अपनी कार्य क्षमता दिखाने के लिए और अपने कर्तव्य में वफादार दिखने के लिए यह तरीका रचा और यहाँ तक कि इसे पुस्तक के रूप में छापकर वास्तविकता में भी बदल दिया। लेकिन यह पुस्तक “वचन देह में प्रकट होता है” से पूरी तरह अलग है। क्या यह तरीका परमेश्वर के वचनों से छेड़छाड़ करना नहीं है? (हाँ, है।) क्या अधिकतर लोगों को यह एहसास है कि परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करना परमेश्वर के प्रतिरोध का ही एक तरीका है? (हाँ, है।) क्या ज्यादातर लोगों में यह जागरूकता है? आज इतनी अधिक संगति के बाद तुम लोग आसानी से हाँ कह सकते हो। लेकिन अगर तुम तीन या पाँच साल पहले सुसमाचार का प्रचार कर रहे होते तो क्या तुम लोगों को यह पता होता कि परमेश्वर के एक भी वचन या वाक्य को नहीं बदला जाना चाहिए? क्या तुम लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला ऐसा दिल होता? (नहीं।) तो फिर तुम लोगों में किस संदर्भ में इस जागरूकता की कमी होती? क्या यह परमेश्वर के प्रति भय मानने वाले हृदय का नितांत अभाव होता जिसके संदर्भ से तुमने परमेश्वर के वचनों के साथ मनमाने ढंग से छेड़छाड़ करने की हिम्मत की होती? अगर किसी के पास परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय का नितांत अभाव है तो वह परमेश्वर के वचनों के साथ मनमाने ढंग से छेड़छाड़ करने का दुस्साहस करेगा, उनका मूल अर्थ बदल देगा, परमेश्वर की वाणी का तरीका और परमेश्वर के वचनों के कुछ अंशों का वांछित प्रभाव बदल देगा और इस अंश में व्यक्त इरादों, मर्म और जोर को निकाल देगा—यह सब छेड़छाड़ की श्रेणी में आता है।

कुछ साल पहले संयोग से एक मुलाकात के दौरान सुसमाचार टीम के एक सदस्य ने सवाल पूछा : “एक विशेष जातीय समूह के सामने परमेश्वर के नए कार्य की गवाही देते समय लोगों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों के अंश उनके मन में जुगुप्सा जगाते हैं और वे उन्हें सुनने के इच्छुक नहीं होते और इनके बारे में धारणाएँ अपना लेते हैं। इसलिए ये वचन परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारने की उनकी राह में बाधा बन जाते हैं। हम इन वचनों को बदलने के बारे में सोच रहे हैं। एक बार इन्हें बदल दिया जाए तो वे इन्हें स्वीकार करने में सक्षम हो जाएँगे और उनके मन में परमेश्वर के नए कार्य या परमेश्वर के इस देहधारण को लेकर धारणाएँ नहीं रहेंगी।” इस प्रश्न के बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? अगर सुसमाचार कार्य के बारे में यह मुलाकात करने और उस पर चर्चा करने का अवसर न मिला होता तो उन्होंने इन वचनों को बदलने का बीड़ा खुद ही उठा लिया होता। शायद उनकी अपनी कल्पना के अनुसार, उस जातीय समूह के तीन, पाँच, दस या कुछ और लोग तब परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार कर सकते थे। लेकिन इसे अभी एक तरफ रख दें तो सुसमाचार प्रचार करने वाले हमेशा परमेश्वर के वचनों को बदलकर उन्हें इंसानी धारणाओं के अनुरूप ढालना चाहते हैं। वे हमेशा उन वचनों को हटा देना चाहते हैं जिनसे परमेश्वर भ्रष्ट मानव जाति को उजागर और उसका न्याय करता है, जिनसे वह भ्रष्ट मानव जाति के सार को उजागर करता है। ऐसे व्यवहार की प्रकृति क्या होती है? क्या इस प्रकार की हरकत परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय दिखाती है? (नहीं।) मेरी दृष्टि में ऐसा नहीं है कि किसी जाति या संप्रदाय के लोगों में परमेश्वर के वचनों को लेकर धारणाएँ होती हैं; वास्तव में सुसमाचार प्रचार करने वाले लोगों के ही मन में धारणाएँ होती हैं। परमेश्वर के वचन उन्हें स्वीकार नहीं होते हैं; वे अपने दिलों की गहराई में उसके प्रति प्रतिरोधी होते हैं और उससे विमुख होते हैं, वे परमेश्वर के इन वचनों को सुनना नहीं चाहते और इन्हें पसंद नहीं करते। उन्हें लगता है कि अगर ये सचमुच परमेश्वर के वचन हैं तो इन्हें स्नेहमय होना चाहिए और लोगों को इतनी नग्नता और बेबाकी से उजागर नहीं करना चाहिए, मानो उनके चेहरे पर चपत मारी जा रही हो। इसलिए वे यह पुरजोर माँग करते हैं कि अगर उनसे सुसमाचार प्रचार कराना है तो क्या इन वचनों को हटाया जा सकता है? सुसमाचार प्रचार करने और लोगों को हासिल करने के लिए क्या परमेश्वर बस एक बार छूट दे सकता है, ज्यादा चतुराई और मनमोहक ढंग से बोल सकता है? अधिकाधिक लोगों को परमेश्वर का कार्य स्वीकार कराने के लिए, परमेश्वर के समक्ष अधिकाधिक लोगों को लाने के लिए, क्या परमेश्वर अपनी रणनीति और बोलने की शैली बदल सकता है, भ्रष्ट मानव जाति के साथ समझौता कर अधीन हो सकता है, झुक सकता है, माफी और क्षमा की भीख माँग सकता है? इस प्रकार समस्या मूल रूप से सुसमाचार कार्यकर्ताओं में है, न कि किसी खास संप्रदाय के लोगों में। परमेश्वर के वचनों का एक भी शब्द या वाक्य बदले बिना और इसके बावजूद कि परमेश्वर के वचन सारे ही लोगों के मन में धारणाएँ उत्पन्न कर सकते हैं, फिर भी बहुत-से ऐसे लोग हैं जो धीरे-धीरे परमेश्वर के समक्ष आते हैं और उसके नए कार्य को स्वीकारते हैं। क्या उनकी धारणाओं ने उन्हें परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकारने से रोक दिया है? बिल्कुल नहीं। अगर मनुष्य को परमेश्वर के कहे इन वचनों की जरूरत न हो और ये मनुष्य की असली स्थिति न दिखाते हों तो फिर परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करना समझ में आता है और परमेश्वर अपने बोलने के अंदाज और अपनी वाणी की विषयवस्तु बदलने की सोच सकता है। लेकिन परमेश्वर का कहा हर शब्द और वाक्य मनुष्य की असली स्थिति दिखाता है और इसका संबंध मनुष्य के जीवन प्रवेश और उद्धार से होता है। अगर लोगों में धारणाएँ हैं और वे इन वचनों को स्वीकार नहीं कर सकते तो इससे साबित होता है कि मनुष्य दुष्ट, गंदे और बहुत ज्यादा भ्रष्ट हैं और वे परमेश्वर के समक्ष आने योग्य नहीं हैं। इससे यह साबित नहीं होता कि परमेश्वर के वचन गलत हैं या सत्य नहीं हैं।

परमेश्वर के वचनों और कार्यों के बारे में पाली जाने वाली भ्रष्ट मानव जाति की धारणाओं को लेकर क्या किया जाना चाहिए? सुसमाचार प्रचार करने वाले लोग परमेश्वर के वचनों से सिंचित हो चुके हैं और उन्होंने इतने साल इन्हें सुना है। इस बात को अगर छोड़ भी दें कि तुम लोग कितना सत्य समझते हो, सिर्फ सैद्धांतिक रूप से ही कहें तो परमेश्वर के कार्य के दर्शन, परमेश्वर के इरादे, परमेश्वर की छह हजार वर्षों की प्रबंधन योजना का उद्देश्य, मनुष्य के उद्धार के परमेश्वर के कार्य—क्या तुमने सत्य के इन सभी पहलुओं को समझा नहीं है, याद नहीं रखा है और ग्रहण नहीं किया है? अगर तुम इन सबसे सुसज्जित होते तो क्या तुम तब भी लोगों के धारणाएँ धरने से भयभीत होते? अगर तुम भयभीत हो तो तुम्हें खुद आगे आकर संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को स्पष्टीकरण देना चाहिए; उनके सामने परमेश्वर के इरादों की गवाही देनी चाहिए, सत्य को स्पष्ट रूप से समझा देना चाहिए! अगर इतने साल तक परमेश्वर के वचन सुनकर भी तुम इन्हें समझा नहीं सकते या स्पष्ट नहीं कर सकते तो फिर तुम बिल्कुल बेकार हो! तुम यह कर्तव्य निभा रहे हो, हर दिन तुम इन विषयों, इस विषयवस्तु और इन मामलों में संलग्न रहते हो—तो फिर अब भी तुम सुसमाचार प्रचार करने और लोगों को हासिल करने के लिए परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने जैसा घिनौना तरीका अपनाने की क्यों सोचोगे? ऊपरी तौर पर भले ही यह सिर्फ एक गलत कार्य-कलाप, एक घिनौना साधन, अक्षमता का प्रदर्शन नजर आए, लेकिन वास्तव में यह एक मसीह-विरोधी के सार की अकाट्य अभिव्यक्ति है—इससे जरा भी कम नहीं। परमेश्वर के लोग ही परमेश्वर के वचनों को बहुमूल्य मानकर रखते हैं, परमेश्वर के वचनों को सँजोकर रखते हैं, परमेश्वर के वचनों का भय मानते हैं, परमेश्वर के कहे प्रत्येक वचन और वाक्य का, साथ ही उस परिप्रेक्ष्य का जिससे वह बोलता है और प्रत्येक अंश में वह जो कहता है, उसका सम्मान करते हैं। केवल परमेश्वर के शत्रु ही अक्सर उसके वचनों का उपहास और तिरस्कार करते हैं। उनकी उपेक्षा करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों से सत्य की तरह व्यवहार नहीं करते, सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए वचन नहीं मानते। इस तरह, अक्सर मन-ही-मन उनकी इच्छा होती है कि वे परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करें और मनमाने ढंग से उनकी व्याख्या करें। वे परमेश्वर के वचनों को बदलने के लिए अपने तरीकों, अपने विचारों की रीति और अपनी सोच के तर्क का उपयोग करने का प्रयास करते हैं, ताकि उसके वचन भ्रष्ट मानवीय रुचि, भ्रष्ट मानवीय दृष्टिकोण और भ्रष्ट मानवीय विचार पद्धति और फलसफे के अनुरूप हों, जिससे कि अंततः वे अधिक से अधिक लोगों की प्रशंसा पा सकें। परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन ही हैं, चाहे वे परमेश्वर के वचनों के किसी भी हिस्से से हों, चाहे ये किसी भी तरह कहे गए हों, और चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य से बोले गए हों। यह देखते हुए कि भ्रष्ट मानव परमेश्वर के वचनों को ज्यादा तत्परता से समझ सके, उन्हें अच्छे से सराह सके, उन्हें आसानी से प्राप्त कर सके, जिससे कि वह उसके वचनों में सत्य को समझ सके, परमेश्वर अक्सर मानवीय भाषाओं, मानवीय पद्धतियों, तरीकों और बोलने के लहजे का और ऐसे मौखिक तर्कों का उपयोग करता है जिन्हें इंसान के लिए समझना सरल हो सके। परमेश्वर यह सब अपने इरादों को समझाने के लिए और इंसान को उस बारे में बताने के लिए करता है जिसमें उसे प्रवेश करना चाहिए। फिर भी यही वे अप्रत्यक्ष तरीके और अप्रत्यक्ष लहजा और कई विभिन्न अप्रत्यक्ष शब्द हैं जिनका इस्तेमाल मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर की निंदा करने और इस तथ्य को नकारने के लिए करते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। क्या यही मामला नहीं है? (हाँ।) ये मसीह-विरोधी अक्सर मशहूर लोगों के ज्ञान और लेखन, यहाँ तक कि उनके भाषणों, शब्द चयन और चाल-ढाल का इस्तेमाल परमेश्वर के वचनों की तुलना करने के लिए करते हैं। वे जितनी ज्यादा तुलना करते हैं, उतना ही ज्यादा उन्हें महसूस होता है कि परमेश्वर के वचन बहुत ही छिछले, बहुत ही स्पष्टवादी और बहुत ही आम बोलचाल के हैं। इसलिए वे अधिकाधिक ढंग से परमेश्वर के वचनों को बदलना चाहते हैं, उन्हें “सुधारना” चाहते हैं और साथ ही परमेश्वर के कहने के लहजे, शैली और परिप्रेक्ष्य को “सुधारना” चाहते हैं। परमेश्वर चाहे जैसे भी बोले या उसके वचन मनुष्य के लिए जितने भी लाभकारी हों, मसीह-विरोधी अपने मन में परमेश्वर के वचनों को कभी सत्य नहीं मानते। वे परमेश्वर के वचनों में सत्य, अभ्यास के सिद्धांत या जीवन प्रवेश का मार्ग नहीं खोजते। बल्कि वे परमेश्वर के वचनों को लगातार जाँच-पड़ताल के दृष्टिकोण, अध्ययन के रवैये और पूरी तरह जाँच-पड़ताल के रवैये के साथ देखते हैं। सारी जाँच-पड़ताल और खोजबीन करने के बाद भी उन्हें लगता है कि परमेश्वर के बहुत-से वचनों को बदलने या सुधारने की जरूरत है। इस प्रकार मसीह-विरोधियों की बात करें तो परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आने के पहले दिन से लेकर आज तक—10, 20 या 30 साल तक विश्वास रखने के बाद भी वे दिल से यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर के वचनों में जीवन, सत्य, राज्य का प्रवेश द्वार या उस स्वर्ग का मार्ग है जिसकी लोग चर्चा करते हैं। वे इसे देख नहीं पाते, न ही खोज पाते हैं। तो फिर वे क्या महसूस करते हैं? उन्हें यह ताज्जुब होता है कि वे जितना अधिक विश्वास करते हैं, परमेश्वर के वचन उन्हें उतने ही अधिक आम बोलचाल वाले क्यों लगते हैं। उन्हें यह ताज्जुब होता है कि वे जितना अधिक विश्वास करते हैं, परमेश्वर के वचनों में उनकी रुचि उतनी ही क्यों घट जाती है। वे संदेह करने लगते हैं कि क्या परमेश्वर के वचन वास्तव में सत्य हैं। यह किस प्रकार का संकेत है? अच्छा संकेत है या बुरा? (बुरा संकेत।) यह भी बिल्कुल चमत्कार ही है कि परमेश्वर में उनका विश्वास यहाँ तक आ गया है! परमेश्वर में उनका विश्वास बंद गली के अंतिम छोर तक पहुँच चुका है, उनकी निगाहों से सत्य पूरी तरह ओझल हो चुका है। क्या यह उनकी आस्था का अंत नहीं है?

क्या तुम लोगों ने इस तथ्य पर गौर किया है? जिस दिन से हर किसी ने परमेश्वर में विश्वास करना, उसके वचन पढ़ना, अपने परिवार, करियर, शिक्षा और सांसारिक संभावनाओं का त्याग शुरू किया था, हर कोई एक ही शुरुआती रेखा पर खड़ा था। लेकिन अनजाने ही, दौड़ के दौरान कुछ लोग पीछे छूट गए और वे अब और अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते थे। वे कहाँ चले गए? कुछ लोगों को ब समूहों के लिए रवाना कर दिया गया था, अन्य लोग साधारण कलीसियाओं में चले गए और कुछ बस किसी तरह अंशकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया में टिके रह पाए। जो लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते और हटाए जाने का लक्ष्य बन जाते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं रहते—आज वे जहाँ हैं, वहाँ वे क्यों पहुँचे? अगर तुम मानवीय नजरों से परमेश्वर के प्रति उनका रवैया देखने की कोशिश करोगे तो तुम यह नहीं देख सकते क्योंकि तुम नहीं जानते कि उनके दिल में क्या है। तुम यह नहीं बता सकते कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं या घृणा करते हैं, वे उसका प्रतिरोध करते हैं या उसके प्रति समर्पण करते हैं। तो तुम कैसे तय करते हो कि किसी व्यक्ति का स्वभाव सार क्या है? यह आसान है : परमेश्वर के वचनों के प्रति बस उसका रवैया देख लो। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया इस समूह वाले लोगों में एक आम विशेषता होती है : स्थिति चाहे कोई भी हो, उन्हें पोषण के लिए परमेश्वर के वचनों की जरूरत महसूस नहीं होती। वे चाहे कैसी भी कठिनाइयों का सामना करें, वे परमेश्वर के वचनों में सिद्धांत तलाश नहीं करते या सत्य नहीं खोजते। ये लोग कभी-कभार ही परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और जब कोई परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करता है या इनके बारे में अपनी समझ पर संगति करता है तो वे अपने अंदर विकर्षण तक महसूस करते हैं। वे यह विकर्षण कैसे दिखाते हैं? उन्हें लगता है, “तुम जो कह रहे हो वह मैं पहले से जानता हूँ; तुम्हें यह बताने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर के ये वचन मैं पहले पढ़ चुका हूँ; मैं सब कुछ समझता हूँ।” अगर वे सब कुछ समझते हैं तो उन्हें निकाला क्यों गया था? उन्हें ब समूहों में क्यों भेजा गया था? माजरा क्या है? इसकी जड़ में यह है कि ये लोग बुनियादी तौर पर परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करते; वे इनका तिरस्कार करते हैं और इनके प्रति बैर भाव रखते हैं। क्या परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार करने वाला और बैर रखने वाला व्यक्ति इनका अभ्यास कर सकता है? जब तुम उनसे कहते हो, “अगर तुम किसी स्थिति का सामना करते हो तो तुम्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने चाहिए!” तो उनका रवैया क्या होता है? उनकी विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ कैसी होती हैं? (वे कहते हैं कि व्यावहारिक समस्याओं के लिए व्यावहारिक समाधानों की जरूरत होती है; परमेश्वर के वचन पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है।) उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन पढ़ना एक अस्पष्ट दृष्टिकोण है और व्यावहारिक समस्याओं के लिए व्यावहारिक समाधानों की दरकार होती है। यह एक मसीह-विरोधी का लहजा है। उनका आशय क्या होता है? “इंसानों के अपने तरीके होते हैं; परमेश्वर के वचन पढ़ने की क्या जरूरत है? क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन हर चीज का समाधान कर सकते हैं?” वे यह मान लेते हैं कि अगर कोई व्यक्ति किसी कठिनाई का सामना करता है तो यह महज एक कठिनाई है, यह उस व्यक्ति की आंतरिक दशा या स्वभाव का प्रतिबिंब बिल्कुल भी नहीं है। वे इसे नहीं देखते, न ही वे इसे एक तथ्य के रूप में मानते हैं। उन्हें लगता है, “मनुष्य की कठिनाइयाँ ऐसी ही होती हैं जैसे किसी मशीन का पुर्जा निकल जाना; मशीन का पुर्जा लगा दो और समस्या हल हो जाती है। परमेश्वर के वचन क्यों खोजे जाएँ? यह सब झूठी आध्यात्मिकता है। मैं ऐसा कभी नहीं करूँगा; यह तो बेवकूफी है! क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन हर चीज का समाधान कर सकते हैं? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।” यह स्पष्ट रूप से ऐसा व्यक्ति होता है जो सत्य को स्वीकार नहीं करता। यही नहीं, जब कुछ लोग समस्याओं का सामना करते हैं और तुम उनकी मदद करने के लिए संगति करते हो, उन्हें परमेश्वर के वचनों का अंश पढ़कर सुनाते हो तो यह सुनने के बाद उनकी प्रतिक्रिया होती है : “मैं इस अंश को पहले ही रट चुका हूँ, मैं कई बार इसका पाठ कर चुका हूँ। तुम मुझे यह क्यों बता रहे हो? मैं इसे तुमसे बेहतर समझता हूँ और यह व्यर्थ है, इससे मेरी समस्या हल नहीं होगी!” यहाँ क्या समस्या है? (वे सत्य को स्वीकार नहीं करते।) वे सत्य को स्वीकार नहीं करते और अपनी भ्रष्टता को मानने से इनकार करते हैं जो एक समस्या है। वे अपनी भ्रष्टता स्वीकार नहीं करते, इसलिए उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन पढ़ना सिर्फ खानापूर्ति है, व्यर्थ है। वे अपनी समस्याएँ हल करने के लिए त्वरित समाधान चाहते हैं, एक चमत्कारी उपाय चाहते हैं, और सत्य को स्वीकार करने से इनकार करना ही इस समस्या का सार है।

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