मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार) खंड चार

कुछ लोग परमेश्वर में अपनी आस्था का निरंतर ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन अपने ऊपर मुसीबत आने पर वे हर भाई-बहन की राय तो लेते हैं किंतु मसीह की राय कभी नहीं लेते। वे यह पूछताछ नहीं करते कि मसीह क्या कहता है, उसका निष्कर्ष क्या है, वह यह कार्य क्यों करना चाहता है या लोगों को समर्पण कैसे करना चाहिए। उन्होंने हर भाई-बहन की राय माँगी है और वे उनकी हर राय और विचार का सम्मान करने में सक्षम हैं, लेकिन वे मसीह के कहे गए एक भी वाक्य को स्वीकार नहीं करते हैं, वे समर्पण करने का कोई इरादा नहीं दिखाते हैं। इसकी प्रकृति क्या है? क्या वे मसीह-विरोधी नहीं हैं? (हैं।) इस स्थिति में क्या चल रहा है? वे इस मामले को क्रियान्वित क्यों नहीं करते? इसे क्रियान्वित करना उनके लिए इतना कठिन क्यों है? इसका एक कारण है। उन्हें लगता है, “मसीह के पास सत्य और परमेश्वर का सार है, लेकिन ये सब आधिकारिक बातें हैं, केवल धर्म-सिद्धांत और नारे हैं। जब वास्तविक मामलों की बात आती है तो तुम किसी की भी असलियत नहीं जान सकते। तुम्हारे वचन केवल हमारे सुनने के लिए कहे गए हैं, किताबों में छपे हैं और इनका तुम्हारी वास्तविक क्षमताओं से बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। इसलिए अगर तुम किसी को कुकर्मी या मसीह-विरोधी के रूप में निरूपित करते हो तो हो सकता है यह सही न हो। मैंने इस बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया कि वह बुरा या मसीह-विरोधी है? मैं इस मामले को क्यों नहीं समझता?” क्या वे इस तरह नहीं सोचते? उन्हें लगता है, “तुम इस व्यक्ति से सिर्फ दो बार मिले हो, तुमने उसे चंद बातें कहते और एक काम करते देखा है और तुम कहते हो कि वह बुरा है। भाई-बहनों को नहीं लगता कि वह ऐसा है; तुम ऐसा कैसे सोच सकते हो? तुम्हारे वचनों का इतना महत्व क्यों होना चाहिए? मैंने इस व्यक्ति का न कोई बुरा कृत्य देखा है, न मुझे यह पता है कि उसने कौन-से बुरे काम किए हैं, इसलिए तुम जो कहते हो उसका समर्थन कर मैं ‘आमीन’ नहीं कह सकता। तुम जो कर रहे हो उसे लेकर मेरी अपनी धारणाएँ और आपत्तियाँ हैं। लेकिन धारणाएँ होने के बावजूद मैं उन्हें सीधे व्यक्त नहीं कर सकता, इसलिए मुझे परोक्ष तरीकों का सहारा लेना होगा : मैं भाई-बहनों को मतदान के जरिये यह मामला तय करने दूँगा। अगर वे असहमत हुए तो कुछ भी नहीं करना होगा—क्या तुम वाकई उन सबकी भी काट-छाँट कर सकते हो? इसके अलावा तुमने इस व्यक्ति से सिर्फ कुछ ही बार बातचीत की है और फिर तुम उसे बुरे के रूप में निरूपित कर देते हो। तुम उसे थोड़ा-सा मौका क्यों नहीं देते? देखो भाई-बहन कितने सहनशील और स्नेही हैं। मैं बुरा व्यक्ति नहीं बन सकता; मुझे भी स्नेही होना चाहिए और लोगों को मौका देना चाहिए—तुम्हारी तरह नहीं, जो लोगों के बारे में जल्दी से फैसले सुना देता है। किसी को बाहर निकाल देना सरल नहीं है—अगर वह इंसान बाद में कमजोर पड़ जाए तो क्या होगा? मसलों का सामना करते समय मसीह को भाई-बहनों की रक्षा करनी चाहिए। उसे भाई-बहनों की हर मूर्खता, विद्रोह या अज्ञानता को बर्दाश्त करना चाहिए और इतना निर्णायक और निर्मम नहीं होना चाहिए। क्या परमेश्वर को पर्याप्त दयालु नहीं होना चाहिए? वह दया कहाँ गई? जिस किसी को तुम पसंद नहीं करते उसे बुरे के रूप में निरूपित कर देना और बाहर निकाल देने की इच्छा करना बिल्कुल भी नियमों के अनुरूप नहीं है!” ये धारणाएँ हैं, है ना? (हाँ।) जब मसीह कुछ करता है या कोई निर्णय लेता है और अगर लोग इससे सहमत नहीं हैं तो इसे क्रियान्वित करना मुश्किल हो जाता है। वे लेट-लतीफी करते हैं, विरोध करने के लिए तरह-तरह के बहानों और तरीकों का उपयोग करते हैं; वे इसे लागू करने या आज्ञा पालन करने से इनकार कर देते हैं। उनका इरादा यह होता है : “अगर मैं इसे क्रियान्वित न करूँ तो तुम्हारा कार्य पूरा नहीं होगा!” मैं तुम्हें बताता हूँ, अगर तुम इसे क्रियान्वित नहीं करते तो मैं अगुआ बनाने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को खोज लूँगा जो इसे क्रियान्वित कर सके और तुम जहाँ से आए हो वहीं वापस जा सकते हो! क्या इस मामले को इस तरह नहीं सँभालना चाहिए? (हाँ।) मैंने उसे इसी तरह रुखसत कर दिया, सीधे और कुशल तरीके से—किसी से राय-मशविरा लेने की जरूरत नहीं थी।

कुछ लोग सत्य को कभी नहीं समझ पाते और उनके मन में परमेश्वर के वचनों के प्रति हमेशा संदेह रहता है। वे कहते हैं, “क्या सत्य का प्रभुत्व होना मसीह का प्रभुत्व होने के ठीक समान है? जरूरी नहीं कि मसीह के वचन हमेशा सही हों क्योंकि उसका एक मानवीय पहलू है।” वे मसीह का प्रभुत्व होने को स्वीकार नहीं सकते। अगर प्रभुत्व परमेश्वर के आत्मा का होता तो उनके मन में कोई धारणा नहीं होती। यहाँ समस्या क्या है? ऐसे लोगों के मन में स्वर्ग के परमेश्वर के बारे में रत्ती भर भी संदेह नहीं होता लेकिन वे देहधारी परमेश्वर को लेकर हमेशा संदेह करते हैं। मसीह ने इतना अधिक सत्य व्यक्त किया है, फिर भी वे उसे देहधारी परमेश्वर नहीं मानते। तो क्या वे यह मान सकते हैं कि मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है? यह कहना कठिन है। अगर ऐसे लोग मसीह का अनुसरण कर भी लें तो क्या वे उसकी गवाही दे सकते हैं? क्या वे मसीह के अनुरूप हैं? इन सवालों का कोई सुनिश्चित जवाब नहीं है। यह भी अनिश्चित है कि क्या ऐसे लोग राह के अंत तक अनुसरण कर सकते हैं। कुछ लोग अपने दिलों में पूरी तरह मानते हैं कि परमेश्वर के घर में सत्य का प्रभुत्व होता है। लेकिन वे सत्य का प्रभुत्व होने को किस तरह से समझते हैं? उन्हें लगता है कि जो भी कार्य किया जाए, अगर वह परमेश्वर के घर से जुड़ा है तो सबको विचार विमर्श कर मिल-जुलकर निर्णय लेना चाहिए। परिणाम चाहे जो भी हो, अगर आम सहमति बन जाए तो इसे क्रियान्वित किया जाना चाहिए। वे मानते हैं कि सत्य का प्रभुत्व होने का यही मतलब है। क्या यह दृष्टिकोण सही है? यह एक गंभीर भ्रांति है; यह सबसे बेतुका और ऊटपटाँग बयान है। सत्य का स्रोत क्या है? इसे मसीह ने व्यक्त किया है। सिर्फ मसीह सत्य है जबकि भ्रष्ट मानवजाति के पास बिल्कुल भी सत्य नहीं है, तो फिर विचार-विमर्श के जरिये लोग सत्य को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं? अगर लोग विचार-विमर्श के जरिये सत्य को उत्पन्न कर लेते, तो इसका यह आशय होगा कि भ्रष्ट मानवजाति के पास सत्य है। क्या यह सबसे बेतुकी बात नहीं है? इसलिए सत्य का प्रभुत्व होने का अर्थ है मसीह का प्रभुत्व होना, इसका अर्थ है परमेश्वर के वचनों का प्रभुत्व होना, न कि हर किसी के पास शक्ति होना या निर्णय लेने की शक्ति होना। सत्य और परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करने के लिए एकत्रित होना सही है; यह कलीसियाई जीवन है। लेकिन इस प्रकार अभ्यास करने का क्या प्रभाव होना चाहिए? यही कि हर कोई सत्य को समझ ले, परमेश्वर के वचनों को जान ले, और हर कोई परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करने और उनके अनुसार कार्य करने में सक्षम हो सके। लोग सत्य के बारे में संगति करने के लिए ठीक इसीलिए एकत्र होते हैं कि वे इसे समझते नहीं हैं। अगर वे सत्य को समझते तो वे सीधे मसीह के प्रति और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण कर सकते थे; यह वास्तविक समर्पण होता। अगर परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग एक दिन सत्य को समझ जाएँ, सब सीधे मसीह के प्रति समर्पण कर सकें, उसकी बड़ाई कर सकें और उसकी गवाही दे सकें, तो इससे यह संकेत मिलेगा कि परमेश्वर के चुने हुए लोग पूर्ण बनाए जा चुके हैं। इससे भी बढ़कर, इससे यह गवाही मिलेगी कि परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, मसीह का शासन चलता है। केवल ऐसे तथ्यों और गवाहियों से ही यह साबित होगा कि परमेश्वर ने पृथ्वी पर राजा के रूप में शासन किया है और मसीह का राज्य प्रकट हो चुका है। लेकिन कुछ मसीह-विरोधी और नकली अगुआ सत्य का प्रभुत्व होने को किस रूप में समझते हैं? उनके अपने क्रियान्वयन में, सत्य का प्रभुत्व होने का मतलब है कि भाई-बहनों का प्रभुत्व होना। वे चाहे कोई भी कार्य करें, अगर वे इसे पूरी तरह समझ लेते हैं तो वे इसे अपनी इच्छा के अनुसार करते हैं; अगर वे इसे पूरी तरह समझ नहीं पाते तो वे कुछ लोगों के साथ संगति करते हैं और समूह को तय करने देते हैं। क्या इससे यह साबित हो जाएगा कि सत्य का अभ्यास किया जा रहा है? क्या समूह का निर्णय आवश्यक रूप से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होता है? क्या ऐसा अभ्यास सत्य का प्रभुत्व ला सकता है? क्या इससे यह गवाही दी जा सकती है कि परमेश्वर के घर में मसीह का प्रभुत्व होता है? वे मानते हैं कि भाई-बहनों को अपनी राय व्यक्त करने देना, अपने विचार-विमर्श कर आखिरकार आम सहमति पर पहुँचने देना और निर्णय लेने की अनुमति देना ही सत्य का प्रभुत्व होना कहलाता है, जिसका निहितार्थ है कि भाई-बहन सत्य के प्रवक्ता हैं, स्वयं सत्य के पर्याय हैं। क्या इसे इस ढंग से समझना सही है? स्पष्ट रूप से ऐसा समझना सही नहीं है, लेकिन कुछ मसीह-विरोधी और नकली अगुआ वास्तव में इसी तरह से कार्य करते हैं और इसे इसी तरह क्रियान्वित करते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करके वे लोकतंत्र का अभ्यास कर रहे हैं, कि वे एक लोकतांत्रिक निर्णय ले रहे हैं और यह चाहे सत्य के अनुरूप हो या न हो, इसे इसी तरह किया जाना चाहिए। इस तरह से कार्य करने का सार क्या है? क्या लोकतांत्रिक तरीके से तय किए गए मामले स्वतः ही सत्य के अनुरूप हो जाते हैं? क्या वे स्वतः ही परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करते हैं? अगर लोकतंत्र ही सत्य होता, तो परमेश्वर को सत्य व्यक्त करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती; क्या लोकतंत्र का शासन चलने देना ही काफी नहीं होता? भ्रष्ट मानवजाति लोकतंत्र का अभ्यास चाहे कैसे भी करे, वह लोकतंत्र का अभ्यास करके सत्य को उत्पन्न नहीं कर सकती है। सत्य परमेश्वर से आता है, मसीह की अभिव्यक्तियों से आता है। कोई भी इंसानी तरीका इंसान के विचारों या रुचियों के चाहे कितना भी अनुरूप हो, वह सत्य का परिचायक नहीं हो सकता। यह एक तथ्य है। नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों के तरीकों का सार यह है कि सत्य का प्रभुत्व होने की आड़ में क्यों न मसीह को पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिया जाए, मसीह को लोकतंत्र से बदल दिया जाए और मसीह के शासन को सामुदायिक संगति और लोकतांत्रिक शासन पद्धति से बदल दिया जाए। क्या इसकी प्रकृति और दुष्परिणामों का भेद आसानी से पहचाना जा सकता है? समझ-बूझ वाले लोगों को इन्हें समझने में सक्षम होना चाहिए। नकली अगुआ और मसीह-विरोधी वे नहीं हैं जो मसीह के प्रति समर्पण करते हैं, बल्कि वे हैं जो उसे नकारते हैं और उसकी अवहेलना करते हैं। कलीसिया में मसीह चाहे जो भी संगति करे, भले ही लोग उसे सुनते और समझते भी हों तो भी वे इसे एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देते हैं और इसे क्रियान्वित करने के इच्छुक नहीं होते हैं। बल्कि उनका ध्यान इस बात पर रहता है कि नकली अगुआ और मसीह-विरोधी क्या कहते हैं; उनके लिए अंत में इन्हीं की बातें निर्णायक राय मानी जाती हैं। लोग मसीह के वचनों के अनुसार अभ्यास कर सकते हैं या नहीं, यह इन नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों के फैसलों पर निर्भर करता है, और अधिकतर लोगों में उनका अनुसरण करने का रुझान होता है। मसीह-विरोधी कलीसिया के कार्य पर कड़ी निगरानी रखते हैं, वे केवल खुद को निर्णय लेने देते हैं, न कि परमेश्वर को अंतिम निर्णय या नियंत्रण लेने देते हैं। उन्हें लगता है, “मसीह यहाँ केवल कार्य का निरीक्षण करने के लिए है। तुम अपनी बात कह सकते हो और कार्य की व्यवस्था कर सकते हो, पर इसे क्रियान्वित कैसे करना है यह हम पर निर्भर करता है। हमारे काम में हस्तक्षेप मत करो।” क्या मसीह-विरोधी यही सब नहीं करते? मसीह-विरोधी हमेशा यही कहते हैं कि “सभी भाई-बहनों ने संगति कर ली है” या “सभी भाई-बहन आम सहमति पर पहुँच गए हैं”—क्या ऐसी बातें करने वाले लोग वास्तव में सत्य को समझते हैं? भाई-बहन कौन हैं? क्या वे बस शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किए गए लोगों का एक समूह नहीं हैं? आखिर वे कितना सत्य समझते हैं, उनके पास कितनी सत्य वास्तविकता है? क्या वे मसीह का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं? क्या वे सत्य का प्रतिरूप हैं? क्या वे सत्य के प्रवक्ता हो सकते हैं? क्या सत्य से उनका कोई नाता है? (नहीं।) चूँकि इनका सत्य से कोई नाता नहीं है, तो फिर ऐसी बातें कहने वाले लोग क्यों हमेशा भाई-बहनों को सर्वोच्च मानते हैं? क्यों नहीं वे परमेश्वर की बड़ाई करते और उसकी गवाही देते हैं? क्यों नहीं वे सत्य के अनुसार बोलते और कार्य करते हैं? क्या इस प्रकार बोलने वाले लोग बेतुके लोग नहीं हैं? इतने ज्यादा वर्षों तक परमेश्वर के वचन पढ़ने और धर्मोपदेश सुनने के बाद भी वे कोई सत्य नहीं समझते और यह असलियत भी नहीं जान पाते कि सच्चे भाई-बहन क्या होते हैं। क्या वे अंधे नहीं हैं? अब सबको अपनी किस्म के अनुसार छाँटा जा चुका है; कई लोग अपना असली चरित्र प्रकट कर चुके हैं, वे सभी शैतान की बिरादरी के हैं—वे पूरी तरह से जानवर हैं। क्या तुम लोग इसे स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते? तुम्हारे पास बिल्कुल भी सत्य नहीं है! कुछ लोग मुझे मसीह-विरोधियों का गहन-विश्लेषण करते हुए सुनने के इच्छुक नहीं रहते। वे कहते हैं, “ओह, हमेशा मसीह-विरोधियों जैसी तुच्छ चीज के बारे में बात मत करो; यह शर्मिंदा करने वाली बात है। तुम क्यों हमेशा मसीह-विरोधियों का गहन-विश्लेषण करते रहते हो?” क्या उनका गहन-विश्लेषण न करना ठीक होगा? उनका इसी तरह गहन-विश्लेषण करना होगा ताकि लोगों को भेद पहचानना सिखाया जा सके। वरना जब मसीह-विरोधी सामने आएँगे तो वे बहुत-से पाखंड और भ्रांतियाँ फैला देंगे, बहुत-से लोगों को गुमराह कर देंगे, यहाँ तक कि कलीसिया को नियंत्रित कर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लेंगे। क्या तुम लोग स्पष्ट रूप से समझ रहे हो कि इस मसले के कितने गंभीर दुष्परिणाम हैं? अभी-अभी हमने इस बारे में संगति की कि सत्य का प्रभुत्व होना क्या होता है। संगति के जरिये लोगों ने मसीह-विरोधियों के बेतुके तरीकों और ऊटपटाँग विचारों को देख लिया है। मसीह-विरोधी हमेशा अपना ही प्रभुत्व चाहते हैं और वे नहीं चाहते कि मसीह का प्रभुत्व हो, लिहाजा वे सत्य के शासन को एक लोकतांत्रिक रूप में बदल देते हैं, वे इस बात के हिमायती हैं कि मामलों पर सबके साथ विचार-विमर्श करना ही सत्य का प्रभुत्व होना है। क्या इसमें शैतान की चालबाजी नहीं छिपी है? क्या सत्य ऐसी कोई चीज है कि हर व्यक्ति विचार-विमर्श के माध्यम से इस तक पहुँच सके? सत्य को परमेश्वर व्यक्त करता है और यह परमेश्वर से ही उत्पन्न होता है। तुम लोग सीधे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास क्यों नहीं कर सकते हो, सीधे परमेश्वर के प्रति समर्पण क्यों नहीं कर सकते हो और सीधे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण क्यों नहीं कर सकते हो? मसीह की आज्ञाओं को सबके विचार-विमर्श के माध्यम से क्यों तय किया जाना चाहिए? क्या यह शैतान का षड्यंत्र नहीं है? मसीह-विरोधी अक्सर लोगों को गुमराह करने के लिए सिद्धांतों का समूह फैला देते हैं, और वे चाहे कोई भी कार्य क्रियान्वित करें, अंतिम निर्णय उन्हीं का होता है, वे पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों के आधार पर देखें तो वास्तव में उनका स्वभाव क्या है? क्या वे सकारात्मक चीजों और सत्य से प्यार करने वाले लोग हैं? क्या उनमें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है? (नहीं।) उनका सार सत्य से विमुख होने और नफरत करने का है। यही नहीं, वे इतने अहंकारी होते हैं कि अपनी सारी तार्किकता खो बैठते हैं, उनमें वह बुनियादी जमीर और विवेक भी नहीं होता जो लोगों में होना चाहिए। ऐसे लोग इंसान कहलाने लायक नहीं हैं। उन्हें केवल शैतान की जमात का कहा जा सकता है; वे दानव हैं। जो सत्य को रत्ती भर भी नहीं स्वीकारता वह दानव है—इसमें कोई संदेह नहीं है।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मसीह के वचनों के प्रति न तो विनम्र रवैया अपनाते हैं न ही अहंकारी। वे न तो पूर्ण स्वीकृति व्यक्त करते हैं न ही विरोध जताते हैं। जब मसीह बोलता है, सत्य पर संगति करता है, किसी व्यक्ति के भेद की पहचान करता है या कोई कार्य सौंपता है तो ऊपरी तौर पर देखने में लगता है कि ये लोग सुन रहे हैं और महत्वपूर्ण बिंदु दर्ज कर रहे हैं, गंभीरता और सहयोग दिखा रहे हैं। वे हर चीज के बारे में बारीक-से-बारीक बात नोट करते हैं, तमाम निशान लगाते जाते हैं, लगता है कि उनकी सत्य में अत्यधिक रुचि है और वे मसीह की कही बातों को बहुत महत्व दे रहे हैं, मानो वे सत्य से खास तौर पर प्रेम करते हैं और मसीह में अटूट निष्ठा रखते हैं। लेकिन क्या सत्य के प्रति ऐसे लोगों का रवैया, उनका स्वभाव और उनका सार ऐसी सतही परिघटनाओं से देखा जा सकता है? नहीं देखा जा सकता। ऐसे लोग ऊपरी तौर पर नोट्स लेते और सुनते प्रतीत होते हैं, लेकिन वे वास्तव में अपने मन में क्या सोच रहे होते हैं? अपने नोट्स देखकर वे विचार करते हैं, “यह सब क्या है? एक भी उपयोगी पंक्ति नहीं है, ऐसा कुछ भी नहीं है जो उत्कृष्ट या सत्य के अनुरूप दिखता हो, न ही ऐसा कुछ है जो मुझे तर्कसंगत लगता हो। मैं इसे फाड़ भी सकता हूँ!” क्या यह एक प्रकार का रवैया नहीं है? मैंने बहुत-से लोगों को धर्मोपदेश सुनते समय सिर हिलाते और चेहरे पर विभिन्न हाव-भाव लाते देखा है, साथ ही उन्हें नोट्स लेते भी देखा है, लेकिन वे बाद में इसे बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते हैं। उन्हें याद नहीं रहता कि उन्हें कौन-सी चीजें क्रियान्वित करनी चाहिए, न ही वे इसे अपने दिल में सहेजते हैं या उस पर कार्य करते हैं। जहाँ तक यह सवाल है कि उन्हें किन चीजों का अभ्यास करना चाहिए तो ऐसा होने की संभावना और भी कम है। उन्हें जिस चीज को क्रियान्वित करना चाहिए उसका संबंध परमेश्वर के घर के कार्य और उनके कर्तव्य से है, और उन्हें जिसमें प्रवेश करना चाहिए वह उनके व्यक्तिगत प्रवेश से संबंधित है। वे उसे क्रियान्वित नहीं करते जिसे उन्हें करना चाहिए और अपने व्यक्तिगत प्रवेश को तो वे इससे भी कम गंभीरता से लेते हैं। वे कहते हैं, “ऐसा कहा गया है कि मसीह का बोला और व्यक्त किया गया हर वाक्य सत्य है, कि इसी में लोगों को प्रवेश करना चाहिए, कि यही सब सत्य, मार्ग और जीवन है—लेकिन मैं हर बार जो नोट्स लेता हूँ उसमें मुझे कोई सत्य या मार्ग नहीं दिखता है, न ही मुझे ऐसा लगता है कि यह जीवन है। तो फिर यह कथन कैसे पूरा हो सकता है कि मसीह में परमेश्वर का सार है? यह कैसे साकार हो सकता है? मैं जो देख रहा हूँ उससे यह कैसे मेल खा सकता है? यह आसानी से मेल नहीं खाता है।” कुछ लोग कहते हैं, “अगर सुनने के बाद उनका यह रवैया है, तो फिर उन्होंने नोट्स ही क्यों लिए? उनका तो एक उचित, गंभीर और जिम्मेदार रवैया लग रहा था; चल क्या रहा है?” इसका केवल एक ही कारण है। अगर सत्य से प्रेम न करने वाला और इससे बेहद विमुख व्यक्ति मसीह के बोलते समय खास तौर पर गंभीर और सजग दिखाई दे सकता है, तो उसका एकमात्र इरादा आधे-अधूरे मन से लापरवाही से ज्यादा कुछ नहीं है, उसका इरादा वास्तविक स्वीकृति वाला नहीं है। हर बार जब भी वह परमेश्वर के वचन पढ़ता है या मसीह के संपर्क में आकर उससे बातचीत करता है तो वह जो देखता है वह परमेश्वर का तथाकथित बड़प्पन, अज्ञेयता या अद्भुतता नहीं है, बल्कि उसकी व्यावहारिकता, सामान्यता और तुच्छता है। इसलिए अपने दृष्टिकोण और रुख के हिसाब से उनके लिए इस साधारण व्यक्ति के शब्दों को सत्य, मार्ग या जीवन से जोड़ना असंभव होता है। वे इस व्यक्ति को चाहे जैसे देखें, उन्हें बस एक इंसान दिखाई देता है; वे उसे परमेश्वर या मसीह नहीं मान सकते। इसलिए वे इन निहायत सामान्य शब्दों को संभवतया ऐसा सत्य नहीं मान सकते जिसका पालन और अभ्यास किया जाए, जिसका उपयोग अपने जीवन यापन के मार्गदर्शक, अपने अस्तित्व के लक्ष्य, आदि के रूप में किया जाए—उन्हें यह असहजकारी लगता है। वे कहते हैं, “मुझे इन सामान्य वचनों में कोई सत्य क्यों नहीं दिखता? तुम सब इसे कैसे देख लेते हो? क्या ये महज साधारण वचन नहीं हैं? ये वचन इंसानी भाषा हैं, इंसानी इबारत हैं, इंसानी व्याकरण हैं, यहाँ तक कि कुछ इंसानी मुहावरों और शब्दावली का उपयोग और कुछ इंसानी कहावतों और संस्कृति के पहलुओं का गहन-विश्लेषण हैं। इन वचनों में सत्य कैसे हो सकता है? मैं उसे क्यों नहीं देख सकता? चूँकि तुम सब कहते हो कि यह सत्य है, तो मैं भी बस अनुसरण करूँगा और तोते की तरह बाकी सबकी बातें दोहराऊँगा; हर कोई नोट्स ले रहा है इसलिए मैं भी नोट्स तो बनाऊँगा, लेकिन जबकि तुम सभी उसे सत्य मानते हो, मैं निश्चित रूप से ऐसा नहीं मानता। ‘सत्य’ कितना पवित्र शब्द है, अवश्य ही यह अत्यंत उत्कृष्ट होगा! जब सत्य की बात आती है तो इसका संबंध परमेश्वर से होता है, और जब संबंध परमेश्वर से हो तो यह इतना साधारण, इतना तुच्छ, इतना सामान्य नहीं हो सकता। इसलिए मैं चाहे कैसे भी पड़ताल और विश्लेषण कर लूँ, मैं उसमें परमेश्वर का कोई संकेत नहीं खोज पाता हूँ। अगर उसमें परमेश्वर का कोई संकेत ही नहीं है तो वह हमें कैसे बचा सकता है? यह असंभव है। अगर उसके वचन हमें बचा नहीं सकते या हमें लाभ नहीं पहुँचा सकते तो हमें उसका अनुसरण क्यों करना चाहिए? हमें उसके वचनों को क्रियान्वित क्यों करना चाहिए? हमें उसके शब्दों के अनुसार क्यों जीना चाहिए?” अब उन्होंने मसीह-विरोधियों के रूप में अपना असली रंग दिखा दिया है, है कि नहीं? जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है, उसके प्रति उनका रवैया शुरू से अंत तक पड़ताल वाला है। वे परमेश्वर के वचनों के साथ जिस तरह से पेश आते हैं, उसमें न तो कोई स्वीकृति होती है और न ही समर्पण, वे उनका अभ्यास या अनुभव तो और भी नहीं करते हैं। इसके बजाय वे परमेश्वर के वचनों के साथ प्रतिरोध, विरोध और अस्वीकृति के रवैये से पेश आते हैं। जब मसीह लोगों से बातचीत कर रहा होता है तो वे अनिच्छा से कुछ नोट्स ले लेते हैं लेकिन अंतर्मन में इसका रत्तीभर अंश भी स्वीकार नहीं करते हैं। मसीह से बातचीत के बाद कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर से रूबरू होकर बात और संगति करना सचमुच आनंददायक है।” मसीह-विरोधी कहता है, “मैं भी इसे आजमाऊँगा। मैं मसीह से रूबरू होकर बात करूँगा और जब वह लोगों से बात करता है तो यह देखूँगा कि उसके चेहरे की भाव-भंगिमाएँ, कार्य और वाणी वास्तव में कैसी हैं। मैं देखूँगा कि कोई इससे क्या हासिल या पता कर सकता है, क्या उसे सच्चा परमेश्वर मानकर उसमें विश्वास की नींव रखना और विश्वास की पुष्टि करना लोगों के लिए फायदेमंद है।” मसीह और उसके वचनों के प्रति ऐसे रवैये के साथ क्या वे कोई वास्तविक अभ्यास या क्रियान्वयन कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते। वे रोमाँच देखने आए तमाशबीनों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, वे यहाँ सत्य खोजने बिल्कुल भी नहीं आए हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि ये लोग मसीह के साथ जिस रवैये से पेश आते और बातचीत करते हैं वह कुछ हद तक बरामदे में बैठी आसपड़ोस की महिला मंडली की गपशप की तरह है जिसमें आपस में बात करने के लिए किसी में गंभीरता की जरूरत नहीं होती और हर कोई बस जो जी में आए वही कहता है? ये लोग मसीह के साथ उसी तरह से पेश आते हैं : “तुम अपने विचार व्यक्त करो, मैं अपने विचारों पर टिका रहूँगा। चलो हम अपने-अपने काम से मतलब रखें; तुम मुझे मनाने की उम्मीद मत रखना और तुम जो कहते हो उसे मैं भी निश्चित रूप से नहीं स्वीकारूँगा।” क्या यह उसी तरह का रवैया नहीं है? यह कैसा रवैया है? (तिरस्कारपूर्ण और अपमानजनक।) ये अजीब लोग हैं। चूँकि तुम मसीह को वह देह नहीं मानते जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, तो फिर तुम उसमें विश्वास क्यों रखते हो, उसका अनुसरण क्यों करते हो? अगर तुम विश्वास नहीं रखते हो तो फिर क्यों नहीं सीधे दफा होकर बात यहीं खत्म कर लेते? तुम्हें विश्वास रखने के लिए कौन मजबूर कर रहा है? परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए तुम्हें कोई बाध्य नहीं कर रहा है; यह तुम्हारी अपनी पसंद है।

कुछ लोग किसी मामले पर मेरी संगति सुनते ही फौरन अलग-अलग राय बना लेते हैं : “तुम इस बारे में उस तरह सोचते हो मगर मैं इस तरह सोचता हूँ। हर मामले में तुम्हारे अपने विचार हैं तो मेरे भी अपने हैं; सबके अपने-अपने विचार होते हैं।” किस तरह का प्राणी ऐसा कहेगा? जब परमेश्वर लोगों को सत्य प्रदान करता है तो क्या यह किसी प्रकार का तर्क-वितर्क होता है? क्या परमेश्वर के वचन अकादमिक सिद्धांत होते हैं? (नहीं।) तो फिर वे क्या हैं? (वे सत्य हैं।) जरा ठीक-ठीक समझाओ। (वे मानव आचरण के सिद्धांत और दिशा हैं, लोगों के जीवन की जरूरतें हैं।) हम ऐसा क्यों कहते हैं कि परमेश्वर लोगों को सत्य प्रदान करता है? क्या कभी ऐसा कहा गया है कि वह ज्ञान प्रदान करता है? (नहीं।) हम ऐसा क्यों कहते हैं कि परमेश्वर के वचन लोगों के खाने-पीने के लिए हैं? परमेश्वर के वचन लोगों के भोजन के समान हैं; वे तुम्हारे भौतिक शरीर को कायम रख सकते हैं और तुम्हें जीने दे सकते हैं, और यही नहीं वे तुम्हें अच्छी तरह जीने देते हैं, वे तुम्हें एक मनुष्य की तरह जीवन यापन करने देते हैं। वे एक व्यक्ति के लिए जीवन हैं! परमेश्वर के वचन ज्ञान, तर्क-वितर्क या कहावत के रूप नहीं हैं। ज्ञान, तर्क-वितर्क और पारंपरिक मानव संस्कृति लोगों को केवल भ्रष्ट कर सकती है। लोग इनके साथ या इनके बिना जी सकते हैं, लेकिन यदि कोई व्यक्ति ऐसे जीना चाहता है और ऐसा सृजित प्राणी बनना चाहता है जो कसौटी पर खरा उतरता हो और मानक स्तर का हो तो वह सत्य के बिना ऐसा नहीं कर सकता। तो वास्तव में सत्य क्या है? (यह आचरण करने, कार्य करने और परमेश्वर की आराधना करने की कसौटी है।) सही कहा, यह अधिक विशिष्ट है। क्या मसीह-विरोधी इसे इस तरह से देखते हैं? वे इस तथ्य को नहीं स्वीकारते। वे इस तथ्य पर आपत्ति जताते हैं, इसका प्रतिरोध और निंदा करते हैं, इसलिए वे सत्य हासिल नहीं कर सकते। उन्हें अपने विचारों और दृष्टिकोण के अनुसार लगता है, “तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो। तुम एक बात कहते हो और दूसरे लोग तुम्हारे शब्दों के अनुसार अभ्यास करने चल पड़ते हैं, तो फिर मैं भी कुछ सही बात कहकर लोगों से इसका अभ्यास क्यों नहीं करा सकता हूँ? ऐसा क्यों है कि तुम जो कहते हो वही हमेशा सही है और मैं जो कहता हूँ वह हमेशा गलत है? तुम्हारे वचनों को सत्य क्यों माना जाता है जबकि मेरे शब्दों को ज्ञान और धर्म-सिद्धांत माना जाता है?” यह किसी चीज पर आधारित नहीं है—यह एक तथ्य है, और यह सार से निर्धारित होता है। मसीह वह देह है जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है और उसका सार परमेश्वर है। इसे कोई नकार नहीं सकता; भले ही मसीह-विरोधी इसे मानने या स्वीकारने से इनकार कर दें, पर वे इसे नकार नहीं सकते। इंसान जिस पल मसीह से मुँह मोड़कर उसे खारिज कर देता है, वह इंसान के विनाश का क्षण होता है। मसीह और उसके वचन न हों तो किसी को भी बचाया नहीं जा सकता। क्या यह तथ्य नहीं है? (हाँ, है।) मसीह-विरोधियों के वे शब्द और सिद्धांत लोगों को किस प्रकार लाभान्वित कर सकते हैं? अगर लोग उन्हें स्वीकार न करें तो क्या उन्हें कोई नुकसान होगा? नहीं, कोई नुकसान नहीं होगा। मसीह-विरोधियों के शब्दों का किसी पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि कई नकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ जाते हैं। अगर मसीह एक भी वाक्य न कहे और जाने से पहले बरसों सामान्य जीवन जीता रहे तो मानवजाति को क्या हासिल होगा? क्रूस उठाने के सिवाय मानवजाति को और क्या हासिल हो सका? वे अभी भी पापों के साथ जिएँगे, अपने पाप कुबूलते रहेंगे और पश्चात्ताप करते रहेंगे, पापों में बुरी तरह फँसे रहेंगे, अधिकाधिक पतित होते जाएँगे और अंततः जब परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा तो वे सब नष्ट हो जाएँगे। मानवजाति का यही हश्र होगा। लेकिन मसीह आया, उसने वे सारे वचन व्यक्त किए जो परमेश्वर मनुष्य से कहना चाहता था, उसने वह सारा सत्य प्रदान किया जिसकी मनुष्य को जरूरत है और मनुष्य के सामने वह प्रकट किया जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है। क्या इससे मनुष्य के लिए एक निर्णायक मोड़ नहीं आया है? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या मसीह के वचनों ने मनुष्य के लिए एक निर्णायक मोड़ नहीं बनाया? (हाँ, बनाया।) यह कौन-सा निर्णायक मोड़ है? मुख्य रूप से देखें तो यह मनुष्य को निंदा और विनाश का सामना करने के रास्ते से हटाकर बचाए जाने के अवसर और उम्मीद की ओर ले जाने का बदलाव है। क्या यह एक निर्णायक मोड़ नहीं है? लोगों में आशा का संचार हो चुका है; वे भोर होते देख रहे हैं और उन्हें बचाए जाने और जीवित रहने की आशा है। जब परमेश्वर मानवजाति को नष्ट और दंडित करता है, तो ये लोग विनाश और दंड से बच सकते हैं। तो फिर जो मानवजाति जीवित रह सकती है, उसके लिए मसीह और उसके वचन अच्छे हैं या बुरे? (अच्छे।) वे अच्छी चीज हैं। एक ऐसे मसीह, एक ऐसे साधारण व्यक्ति के प्रति मसीह-विरोधियों का इतना बैर और इतना अधिक तिरस्कार उनके सार से तय होता है।

देहधारी परमेश्वर के प्रति व्यवहार में मसीह-विरोधियों की एक और अभिव्यक्ति है : वे कहते हैं, “जैसे ही मैंने यह देखा कि मसीह एक साधारण व्यक्ति है, वैसे ही मेरे मन में धारणाएँ बन गईं। ‘वचन देह में प्रकट होता है,’ यह परमेश्वर की एक अभिव्यक्ति है; यह सत्य है और मैं इसे मानता हूँ। ‘वचन देह में प्रकट होता है’ की एक प्रति मेरे पास है और यही काफी है। मुझे मसीह के साथ संपर्क रखने की जरूरत नहीं है। अगर मुझमें धारणाएँ, नकारात्मकता या कमजोरी है तो मैं इन्हें सिर्फ परमेश्वर के वचन पढ़कर हल कर सकता हूँ। अगर मैं देहधारी परमेश्वर के साथ संपर्क रखता हूँ तो धारणाएँ बना लेना आसान होगा और इससे दिख जाएगा कि मैं बहुत गहराई तक भ्रष्ट हूँ। अगर परमेश्वर मेरी निंदा कर दे, तो मेरे पास उद्धार की कोई आशा नहीं रहेगी। इसलिए बेहतर यही रहेगा कि बस परमेश्वर के वचन मैं स्वयं पढ़ूँ। स्वर्ग का परमेश्वर ही लोगों को बचा सकता है।” परमेश्वर के वर्तमान वचन और संगति, खासकर मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार को उजागर करने वाले वचन उनके दिल में सबसे अधिक चुभते हैं और उन्हें सबसे अधिक पीड़ा पहुँचाते हैं। इन्हीं वचनों को पढ़ने के लिए मसीह-विरोधी सबसे कम तैयार रहते हैं। इसलिए मसीह-विरोधी मन-ही-मन मन्नत माँगते हैं कि परमेश्वर जल्द ही पृथ्वी को छोड़ दे, ताकि वे पृथ्वी पर अपनी शक्ति के बल पर शासन कर सकें। उन्हें लगता है कि परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है, यानी यह साधारण व्यक्ति, उनके लिए अनावश्यक है। वे हमेशा यही विचार करते हैं, “मसीह के धर्मोपदेश सुनने से पहले मुझे लगता था कि मैं सब कुछ समझता हूँ और हर लिहाज से ठीक हूँ, लेकिन मसीह के धर्मोपदेश सुनने के बाद वह बात नहीं रही। अब लगता है मानो मेरे पास कुछ भी नहीं है, मानो मैं बहुत तुच्छ और दयनीय हूँ।” इसलिए वे यह तय मान लेते हैं कि मसीह के वचन उन्हें नहीं बल्कि दूसरों को उजागर करने वाले होते हैं, और उन्हें लगता है कि मसीह के धर्मोपदेश सुनने की कोई जरूरत नहीं है, कि “वचन देह में प्रकट होता है” को पढ़ लेना ही काफी है। मसीह-विरोधियों के दिलों में उनका मुख्य इरादा परमेश्वर के देहधारण के तथ्य को नकारना है, इस तथ्य को नकारना है कि मसीह सत्य को व्यक्त करता है, वे यह सोचते हैं कि परमेश्वर में इस तरह विश्वास रखकर उनके बचाए जाने की आशा है और वे कलीसिया में राजाओं की तरह राज कर सकेंगे, और इस प्रकार परमेश्वर में विश्वास रखने के अपने मूल इरादे को पूरा कर सकेंगे। मसीह-विरोधियों की जन्मजात प्रकृति परमेश्वर का प्रतिरोध करने की होती है; देहधारी परमेश्वर के साथ उनका मेल वैसे ही नहीं बैठता, जैसा आग और पानी का सदा-सदा का बैर है। उन्हें लगता है कि मसीह के अस्तित्व का प्रत्येक दिन ऐसा दिन होगा कि उनके लिए चमकना कठिन होगा, और उनके सामने निंदा झेलने, हटाए जाने, नष्ट होने और दंड पाने का खतरा रहेगा। अगर मसीह बोलता नहीं है और कार्य नहीं करता है, अगर परमेश्वर के चुने हुए लोग मसीह को आदर से नहीं देखते हैं, तो मसीह-विरोधियों के पास अवसर रहता है। उनके पास अपनी क्षमताएँ दिखाने का मौका होता है। उनके हाथ हिलाने भर से उनके पक्ष में लोगों की भीड़ उमड़ आएगी और मसीह-विरोधी लोग राजाओं की तरह शासन कर सकेंगे। मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य-विमुख रहना और मसीह के प्रति नफरत से भरे रहना है। वे मसीह से इस बात की होड़ करते हैं कि कौन ज्यादा प्रतिभाशाली है या कौन अधिक सक्षम है; वे मसीह से इस बात की होड़ करते हैं कि किसके शब्दों में अधिक शक्ति है और किसकी योग्यताएँ अधिक हैं। चूँकि वे मसीह के समान ही कार्य कर रहे हैं, इसलिए वे दूसरों को यह दिखाने पर तुले रहते हैं कि भले ही वे और मसीह दोनों मानव हैं, फिर भी मसीह की योग्यताएँ और विद्वता किसी साधारण इंसान से बेहतर नहीं हैं। मसीह-विरोधी हर तरह से मसीह से होड़ लगाते हैं, इस बात पर स्पर्धा करते हैं कि कौन बेहतर है, और हर कोण से इस तथ्य को नकारने की कोशिश करते हैं कि मसीह परमेश्वर है, कि वह परमेश्वर के आत्मा का प्रतिरूप है, कि वह सत्य का प्रतिरूप है। वे हर क्षेत्र में तमाम ऐसे तरीके और उपाय सोचते रहते हैं जिनसे मसीह को परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच प्रभुत्व रखने से रोका जाए, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच मसीह के वचनों का प्रसार किया जाना या इनका क्रियान्वयन रोका जाए, और यहाँ तक कि मसीह जो चीजें करता है उन्हें रोका जाए और लोगों से उसकी माँगों और लोगों के लिए उसकी आशाओं को परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच साकार होने से रोका जाए। यह ऐसा है मानो मसीह की मौजूदगी में उनका तिरस्कार होता हो, कलीसिया उनकी निंदा करती हो और उन्हें खारिज कर देती हो—लोगों के एक समूह को एक अंधेरे कोने में डाल दिया जाता हो। हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों में देख सकते हैं कि सार और स्वभाव से वे मसीह के साथ मेल नहीं खाते हैं—वे उसके साथ एक ही छतरी तले नहीं रह सकते! मसीह-विरोधी जन्म से ही परमेश्वर के प्रति शत्रुवत रहे हैं; वे मसीह का खास तौर पर प्रतिरोध करने पर तुले रहते हैं, और वे मसीह को हराकर धूल चटा देना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि मसीह जो भी कार्य करता है वह बेकार और बेनतीजा हो जाए, ताकि अंत में मसीह ज्यादा लोगों को हासिल न कर सके, ताकि वह चाहे कहीं भी कार्य करे उसे कोई नतीजा न मिले। तभी मसीह-विरोधी खुश होंगे। अगर मसीह सत्य व्यक्त करता है और लोग इनके लिए प्यासे रहते हैं, इन्हें खोजते हैं, इन्हें खुशी-खुशी अपनाते हैं, मसीह की खातिर खुद को खपाने के लिए तैयार रहते हैं, सब कुछ त्याग देने और मसीह के सुसमाचार का प्रसार करने के लिए तैयार रहते हैं तो मसीह-विरोधी निराश हो जाते हैं और उन्हें लगता है कि भविष्य के लिए कोई आशा नहीं बची है, कि उन्हें कभी चमकने का मौका नहीं मिलेगा, मानो उन्हें नरक में झोंक दिया गया हो। मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों को देखने से क्या परमेश्वर से लड़ने और उसे शत्रुवत मानने का उनका सार किसी दूसरे ने उनके अंदर बैठाया है? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है; वे इसके साथ पैदा हुए हैं। इसीलिए मसीह-विरोधी ऐसे लोग हैं जो जन्मे ही दानव के अवतार में हैं, वे पृथ्वी पर उतरे दानव हैं। वे शायद कभी सत्य स्वीकार नहीं कर सकते और मसीह को कभी स्वीकार नहीं करेंगे, मसीह की बड़ाई नहीं करेंगे या मसीह की गवाही नहीं देंगे। हालाँकि उनके हाव-भावों से तुम उन्हें खुलेआम मसीह की आलोचना या निंदा करते नहीं देखोगे, और भले ही वे आज्ञाकारी होकर कुछ प्रयास कर लें और कीमत चुका लें, फिर भी जैसे ही उन्हें मौका मिलेगा, जब सही समय आएगा तो परमेश्वर के साथ मसीह-विरोधियों का बेमेलपन खुद-ब-खुद दिखने लगेगा। यह तथ्य सार्वजनिक हो जाएगा कि मसीह-विरोधी परमेश्वर से लड़ते हैं और एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करते हैं। जिन स्थानों पर मसीह-विरोधी रहते हैं वहाँ ये सारी चीजें पहले घटित हो चुकी हैं और ये इन वर्षों में खास तौर पर आम हो चुकी हैं जब परमेश्वर अंत के दिनों के न्याय का कार्य कर रहा है; कई लोग इनका अनुभव और अवलोकन कर चुके हैं।

27 जून 2020

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