मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार) खंड एक
II. उस देह का तिरस्कार करना जिसे परमेश्वर ने धारण किया है
हमने पिछली संगति में मसीह-विरोधियों की दसवीं अभिव्यक्ति के इस दूसरे उप-विषय पर संगति की थी—उस देह का तिरस्कार करना जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है। हमने अपनी संगति बीच में कहाँ छोड़ी थी? (मसीह के साथ मसीह-विरोधियों का व्यवहार कैसे उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है।) हम इस मद पर पहुँचे हैं कि “मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है।” चलो पहले दोबारा यह देख लें कि किन पहलुओं पर संगति हुई थी। “अपनी मनःस्थिति पर निर्भर होने” के विषय पर कितनी स्थितियों का गहन-विश्लेषण किया गया? (पाँच स्थितियाँ थीं : काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर उनका व्यवहार, मसीह के प्रति उनका तब का व्यवहार जब उसका पीछा किया जा रहा था, देहधारी परमेश्वर के बारे में धारणाओं को जन्म देने के समय उनका व्यवहार, पदोन्नत या बर्खास्त किए जाते समय उनका व्यवहार और विभिन्न परिवेशों का सामना करते समय उनका व्यवहार।) कमोबेश यही हैं। इन पहलुओं की विषय-वस्तु सुनते समय तुम लोग क्या केवल भीतर की घटनाओं के बारे में सुनते हो या इनसे अपना मेल कर सकते हो, और इनके माध्यम से सत्य को पाते और समझते हो? तुम लोग किस दृष्टिकोण से सुनते हो? (जब परमेश्वर इन स्थितियों और अभिव्यक्तियों को उजागर करता है और इनका गहन-विश्लेषण करता है, तो मैं उनसे अपना मेल कर सकती हूँ। कभी-कभी हो सकता है मेरा व्यवहार पूरी तरह मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों के समान न हो, लेकिन प्रकट होने वाला स्वभाव और प्रकृति सार एक समान होते हैं।) उजागर होने वाली दशाएँ, अभिव्यक्तियाँ और सार हर व्यक्ति में अलग-अलग सीमा तक होते हैं। जब लोग पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं तो अपने भीतर इन भ्रष्ट स्वभावों की अभिव्यक्तियों पर ध्यान देना उनके लिए कठिन होता है, लेकिन जैसे-जैसे उनका परमेश्वर में विश्वास का अनुभव बढ़ता जाता है, वे कुछ स्वभावों और व्यवहारों के प्रति अनजाने में ही जागरूक हो जाते हैं। इसलिए हम जिस विषय-वस्तु पर चर्चा कर रहे हैं, उसमें शामिल विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ चाहे वर्तमान में तुमसे जुड़ी हुई हों या चाहे तुम ऐसे व्यवहार अतीत में करते रहे हो, इसका यह मतलब नहीं होता कि ये मसले तुमसे असंबद्ध हैं; इसका यह मतलब नहीं होता कि तुम भविष्य में ऐसी चीजें नहीं करोगे, न ही इसका यह मतलब है कि तुम्हारे ऐसे स्वभाव और व्यवहार नहीं हैं। हम पिछले एक साल से अधिक समय से मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर संगति कर इन्हें उजागर कर रहे हैं। एक विषय पर संगति करते हुए एक साल से ज्यादा समय बिताने के बाद भी यह खत्म नहीं हुई है, तो क्या तुम लोगों को लगता है कि हमारी संगति की विषय-वस्तु विशिष्ट और संपूर्ण है? (यह संपूर्ण है।) यह अत्यंत विशिष्ट और संपूर्ण है! संगति के इस स्तर तक पहुँचने के बावजूद अनेक लोग अभी भी अपने मूल व्यवहार दिखाते हैं, वे जरा भी नहीं बदले हैं। यानी जो वचन बोले गए और जो दशाएँ, स्वभाव और सार उजागर किए गए, वे उनकी थोड़ी-सी भी मदद नहीं करते हैं। इस दौरान अभी भी कुछ लोग लापरवाह और निर्लज्ज व्यवहार करते रहते हैं, मनमाने और निरंकुश ढंग से कार्य करते हैं और स्वेच्छाचारी और सनकभरा व्यवहार करते हैं। वे पहले जैसे थे वैसे ही रहते हैं और रुतबा पाने के बाद तो और भी अधिक उच्छृंखल हो जाते हैं, खुद का और भी पूरी तरह से खुलासा कर देते हैं। इसके अलावा, हमेशा कुछ लोगों को बर्खास्त किया और हटाया जाता है—यहाँ क्या चल रहा है? (इसका कारण यह है कि इन लोगों ने कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं किया है; उन्होंने धर्मोपदेश तो बहुत सारे सुने लेकिन उन्हें दिल में नहीं उतारा है।) इसका एक कारण यह है कि ये लोग सत्य को कभी स्वीकार नहीं करते हैं; वे सत्य से विमुख हैं और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते हैं। दूसरा कारण यह है कि उनमें जन्मजात मसीह-विरोधियों का सार होता है, वे सत्य या सकारात्मक चीजों को स्वीकार करने में असमर्थ होते हैं। इसलिए मैं भले ही इतनी विशिष्टता के साथ मसीह-विरोधियों के विभिन्न सारों और अभिव्यक्तियों पर संगति कर उन्हें उजागर कर चुका हूँ, फिर भी ये मसीह-विरोधी और बुरे लोग बेलगाम और बेखौफ होकर कार्य करते हैं, वे जो चाहते हैं वही करते हैं। क्या यह उनके सार से तय नहीं होता? इन लोगों के लिए अपनी प्रकृति बदलना सचमुच असंभव है; वे चाहे कितने ही धर्मोपदेश सुन लें, उन पर प्रभाव नहीं पड़ता और उन्हें पश्चात्ताप भी नहीं होता। उनके दैनिक जीवन, अपने कर्तव्य निभाने के प्रति उनके रवैये और तरीके के आधार पर आकलन किया जाए तो वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं और उनके स्वभाव जरा-सा भी नहीं बदले हैं; ये वचन भैंस के आगे बीन बजाने के समान हैं—पूरी तरह बेअसर। ये वचन मसीह-विरोधियों को प्रभावित नहीं करते हैं लेकिन क्या इनका तुम लोगों पर कोई निरोधात्मक प्रभाव पड़ा? क्या इन वचनों ने तुम्हारे कुछ व्यवहारों पर लगाम लगाने और तुम्हारे जमीर और नैतिकता के मानकों को ऊपर उठाने में कोई मदद की है? (कुछ हद तक।) अगर इनका किसी पर यह प्रभाव नहीं पड़ा तो क्या ऐसे लोग अभी भी इंसान हैं? वे इंसान नहीं हैं; वे दानव हैं। निःसंदेह इन वचनों को सुनने के बाद अधिकतर लोगों ने मसीह-विरोधियों के विभिन्न स्वभाव सारों के बारे में कुछ विवेकशीलता प्राप्त कर ली है और मसीह-विरोधियों के स्वभावों के प्रति अपने दिल की गहराई से घृणा पैदा कर ली है, साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभाव सारों के बारे में कुछ समझ और ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। यह अच्छा संकेत है, अच्छी बात है। लेकिन क्या ऐसे लोग भी हैं जो जितना अधिक सुनते हैं, उतना ही अधिक नकारात्मक हो जाते हैं? ये वचन सुनकर वे सोचते हैं, “यह खत्म हो गया। हर बार जब मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ, दशाएँ और स्वभाव उजागर किए जाते हैं, तो वे मुझसे पूरी तरह मेल खाते हैं। वे एक बार भी मेरे लिए असंगत नहीं होते। मैं खुद को मसीह-विरोधियों के स्वभाव से पूरी तरह कब अलग कर पाऊँगा? मैं परमेश्वर के लोगों, परमेश्वर के प्रिय पुत्रों की कुछ अभिव्यक्तियाँ कब दिखा पाऊँगा?” वे जितना अधिक सुनते हैं, उतना ही अधिक नकारात्मक हो जाते हैं, उतना ही अधिक उन्हें लगता है कि उनके पास अनुसरण करने के लिए कोई रास्ता नहीं है। क्या यह प्रतिक्रिया सामान्य है? (नहीं।) क्या तुम लोग निराश महसूस करते हो? (नहीं।) जब भी तुम लोग मुझे मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों और घटनाओं को उजागर करते हुए सुनते हो, तो क्या यह तुम्हें डंक की तरह चुभता है या असहज करता है? क्या तुम शर्मिंदा महसूस करते हो? (यह चुभता है, हम शर्मिंदा महसूस करते हैं।) तुम्हारे मन में चाहे जो भी भावनाएँ आती हों, यह अच्छा है कि मेरे वचनों से तुममें नकारात्मकता नहीं आती है; तुम लोग दृढ़ता से खड़े रहे हो। लेकिन नकारात्मक न होना ही पर्याप्त नहीं है; इससे मकसद हासिल नहीं होता, यह अंतिम उद्देश्य नहीं है। तुम्हें इन वचनों के माध्यम से अपने बारे में ज्ञान तक पहुँचने की जरूरत है। इसका उद्देश्य व्यवहार के एक पहलू को समझना नहीं है बल्कि तुम्हारे अपने स्वभाव और सार को जानना है। इस समझ से तुम्हें जीवन में और अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में अभ्यास करने का रास्ता खोजने में सक्षम बन जाना चाहिए, यह जान लेना चाहिए कि कौन-से कार्य मसीह-विरोधियों के व्यवहार के अनुरूप हैं, कौन-से कार्य किसी मसीह-विरोधी के स्वभाव का खुलासा करते हैं और कौन-से कार्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं। अगर तुम ऐसा कर सकते हो, तो तुमने इन वचनों को व्यर्थ नहीं सुना है; इनका तुम पर प्रभाव पड़ा है। इसके बाद हम इस चौथी अभिव्यक्ति के बारे में संगति जारी रखेंगे कि देहधारी परमेश्वर के साथ मसीह-विरोधी कैसा व्यवहार करते हैं—मसीह जो कहता है उसे केवल सुनना, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करना और न ही उसके प्रति समर्पण करना।
घ. मसीह जो कहता है उसे केवल सुनना, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करना और न ही उसके प्रति समर्पण करना
मसीह-विरोधी मसीह जो कहता है उसे केवल सुनते हैं, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करते हैं और न ही उसके प्रति समर्पण करते हैं; तो फिर वे कैसे सुनते हैं? यह वाक्यांश वास्तव में उनके सुनने वाले रवैये का सारांश पेश करता है : उनमें कोई अनुपालन नहीं होता, कोई वास्तविक समर्पण नहीं होता; वे दिल से स्वीकार नहीं करते, बल्कि केवल अपने कानों से सुनते हैं, वे दिल से सुनते या समझते नहीं हैं। शाब्दिक रूप से देखें तो इस संबंध में मसीह-विरोधियों के व्यवहार और स्वभाव को इन बुनियादी बातों के जरिये संक्षेप में पेश किया जा सकता है। मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार के दृष्टिकोण से देखा जाए तो ये लोग ऐसी किसी चीज का पालन या उसके प्रति समर्पण नहीं करते हैं जो परमेश्वर से आती है या जिसे परमेश्वर या मनुष्यों द्वारा अच्छा और सकारात्मक माना जाता है और जो प्राकृतिक नियमों के अनुरूप होती है; बल्कि वे ऐसी चीजों को हेय दृष्टि से देखते हैं और उनके अपने दृष्टिकोण और विचार होते हैं। क्या उनके दृष्टिकोण सकारात्मक चीजों के नियमों और व्यवस्थाओं के अनुरूप हैं? नहीं। उनके दृष्टिकोण दो पहलुओं तक सीमित होते हैं : एक पहलू शैतान की व्यवस्थाएँ है और दूसरा शैतान के हितों और शैतान के प्रकृति सार के अनुरूप है। इसलिए परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है उसके संबंध में मसीह-विरोधियों के दृष्टिकोण और रवैये वास्तव में दो चीजों तक सीमित हैं : एक है शैतान का तर्क और व्यवस्थाएँ, और दूसरा है शैतान का स्वभाव सार। मसीह पृथ्वी पर कार्य का एक चरण पूरा करते हुए परमेश्वर का प्रवक्ता है, वह पृथ्वी पर कार्य का एक चरण पूरा करते हुए परमेश्वर की अभिव्यक्ति और देहधारण है। ऐसी भूमिका के लिए मसीह-विरोधियों में जिज्ञासा, पड़ताल की चाहत और उसके साथ एक रुतबे वाले व्यक्ति की भाँति खुशामद और चापलूसी भरा व्यवहार करने के अलावा उनके दिलों में कोई वास्तविक विश्वास और अनुसरण नहीं होता है, वास्तविक प्यार और समर्पण तो दूर की बात है। मसीह के संबंध में, एक ऐसी हस्ती जो भ्रष्ट मानवजाति की नजरों में तुच्छ लगती है, उसका स्वरूप साधारण और सामान्य होता है; उसकी वाणी, व्यवहार और आचरण और साथ ही उसकी मानवता के सभी पहलू भी साधारण और सामान्य होते हैं। इससे भी अधिक, उसके कार्यों का स्वरूप, ढंग और तरीका हर किसी की नजरों में अत्यंत साधारण, सामान्य और व्यावहारिक प्रतीत होते हैं। वे अलौकिक नहीं हैं, खोखले नहीं हैं, अस्पष्ट नहीं हैं और वास्तविक जीवन से अलग नहीं हैं। संक्षेप में कहें तो बाहर से मसीह बहुत उच्च नहीं दिखता। उसकी वाणी, कार्य और आचरण गूढ़ या अमूर्त नहीं हैं। इंसानी नजरों से देखने पर न कोई रहस्य दिखाई देता है, न ही कोई अबूझ चीज दिखती है; वह निहायत ही व्यावहारिक है, बहुत सामान्य है। इससे पहले कि हम देहधारी परमेश्वर के किए सभी कार्यों के सार और प्रकृति पर चर्चा करें, आओ हम उन सभी चीजों पर विचार कर लें जो देहधारी परमेश्वर की इस भूमिका के बारे में लोगों को बाहर से दिखाई देती हैं : उसकी वाणी, व्यवहार, आचरण, आम दिनचर्या, व्यक्तित्व, रुचियाँ, शैक्षिक स्तर, वे मसले जिनकी वह परवाह करता है और जिन पर चर्चा करता है, उसका लोगों के साथ व्यवहार करने और बातचीत करने का तरीका, साथ ही जिन चीजों के बारे में वह ज्ञान स्पष्ट ढंग से प्रस्तुत करता है, इत्यादि। मनुष्य की दृष्टि में ये सभी अलौकिक, उच्च या खोखले नहीं हैं, बल्कि विशेष रूप से व्यावहारिक हैं। ये सभी पहलू मसीह का अनुसरण करने वाले हर व्यक्ति के लिए एक परीक्षा हैं; लेकिन जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, जिनके पास जमीर और विवेक है, वे जब कुछ सत्यों को समझ लेते हैं तो मसीह की इन सभी सामान्य और व्यावहारिक अभिव्यक्तियों को बाहरी तौर पर देहधारी परमेश्वर की श्रेणी के तहत संक्षेप में पेश करते हैं ताकि इन्हें समझ, बूझ लें और समर्पण कर सकें। लेकिन अकेले मसीह-विरोधी ही हैं जो ऐसा नहीं करते; वे ऐसा कर नहीं सकते। अपने दिल की गहराई में उन्हें मसीह जैसे अत्यधिक सामान्य व्यक्ति में कुछ कमी महसूस होती है। वास्तव में कमी क्या है? मसीह-विरोधियों को अपने अंतर्मन में अक्सर महसूस होता है कि इतना सामान्य व्यक्ति परमेश्वर जैसा नहीं लगता। वे अक्सर यह माँग भी करते हैं कि ऐसे सामान्य व्यक्ति को इस प्रकार बोलना, कार्य करना और व्यवहार करना चाहिए कि वह उन्हें पूरी तरह सच्चा परमेश्वर लगे, अपनी कल्पना का मसीह लगे। इसलिए मसीह-विरोधियों के दिलों की गहराई में देखें तो वे ऐसे सामान्य व्यक्ति को अपना प्रभु, अपना परमेश्वर स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होते हैं। मसीह का कोई पहलू जितना अधिक सामान्य, व्यावहारिक और साधारण होता है, मसीह-विरोधी उसे उतनी ही अधिक तिरस्कार, हेय और यहाँ तक कि शत्रुता की दृष्टि से देखते हैं। इस प्रकार मसीह के वचनों समेत उसके व्यवहार के किसी भी पहलू को देखें, मसीह-विरोधी इन्हें अंदर से स्वीकार नहीं कर सकते और यहाँ तक कि इनका प्रतिरोध भी करते हैं।
मसीह की वाणी में क्या-क्या शामिल होता है? कभी इसका संबंध कार्य व्यवस्थाओं से होता है तो कभी इसमें किसी की कमियाँ बताना, कभी एक खास तरह के व्यक्ति के भ्रष्ट सार को उजागर करना, कभी किसी मसले से जुड़ी समस्याओं का गहन-विश्लेषण करने के लिए इसके सार और सभी ब्योरों का विश्लेषण करना, कभी किसी मामले में सही-गलत का निर्णय करना, कभी एक खास तरह के व्यक्ति का परिणाम निर्धारित करना, कभी कुछ लोगों को पदोन्नत या बर्खास्त करना, कभी-कभी कुछ लोगों की काट-छाँट करना तो कभी-कभी कुछ लोगों को सांत्वना और प्रोत्साहन देना शामिल है। बेशक, मसीह अपने कार्य के दौरान लोगों के जीवन स्वभाव से संबंधित जिन सत्यों पर बात करता है उनके अलावा भी वह अक्सर तमाम तरह की चीजों के साथ ही मानव ज्ञान और विभिन्न पेशेवर क्षेत्रों से संबंधित कुछ विषयों को भी छू लेता है। मसीह एक सामान्य और व्यावहारिक व्यक्ति है; वह शून्य में नहीं रहता। मानव अस्तित्व और जीवन से संबंधित हर मामले पर उसके अपने विचार और दृष्टिकोण होते हैं, और वह इन मामलों को सिद्धांतों के साथ देखता है। अगर इन सिद्धांतों का संबंध लोगों के अस्तित्व, लोगों के जीवन प्रवेश, परमेश्वर की आराधना के विषयों से है, तो क्या यह कहा जा सकता है कि ये सभी सिद्धांत सत्य हैं? (हाँ।) मसीह मानव ज्ञान, फलसफे और कुछ पेशेवर मामलों से संबंधित जो वचन बोलता है, उन्हें सीधे-सीधे सत्य नहीं कहा जा सकता है बल्कि ये वचन अपने दृष्टिकोण, रवैये और सिद्धांत की दृष्टि से इन विषयों पर मनुष्य के ज्ञान से भिन्न हैं। उदाहरण के लिए, किसी चीज के ज्ञान के प्रति इंसान श्रद्धापूर्ण रवैया अपना सकता है, उसके अनुसार जी सकता है, जबकि मसीह तमाम तरह के ज्ञान का गहन-विश्लेषण कर सकता है और भेद पहचान सकता है और उससे सही ढंग से पेश आ सकता है। उदाहरण के लिए, किसी पेशे में तुम लोग अपनी विशेषज्ञता और अपनी महारत को ले लो। इस ज्ञान के प्रयोग से तुम लोग क्या हासिल कर सकते हो? तुम लोग अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में इस ज्ञान को कैसे लागू करते हो? क्या इसमें कोई सत्य सिद्धांत शामिल होते हैं? अगर तुम सत्य को नहीं समझते तो इसमें कोई सिद्धांत नहीं होते और तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए केवल ज्ञान के भरोसे रहते हो। हालाँकि हो सकता है मैं उस पेशे का विशेषज्ञ नहीं हूँ या उस ज्ञान की गहरी समझ नहीं रखता हूँ, केवल सामान्य विचार को समझता हूँ और कुछ बुनियादी बातें जानता हूँ, लेकिन मैं यह जानता हूँ कि इस ज्ञान को ऐसे किस तरीके से और किन सिद्धांतों के साथ लागू किया जाए कि परमेश्वर के कार्य को प्रभावी ढंग से करने में मदद मिले। अंतर यही है। मसीह-विरोधी सत्य को स्वीकार न करने के कारण इस बारीकी को कभी नहीं पकड़ पाएँगे और न कभी यह समझ पाएँगे कि मसीह का सार वाकई क्या है। मसीह के पास परमेश्वर का सार है—यह कथन वास्तव में कहाँ साकार और अभिव्यक्त हुआ है, लोगों को इसे किस रूप में लेना चाहिए और लोगों को इससे क्या लाभ और फायदे मिलते हैं? मसीह-विरोधी इस पहलू को कभी नहीं देखेंगे। ऐसा क्यों है? इसका एक सबसे महत्वपूर्ण कारण है : जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उस देह को मसीह-विरोधी चाहे जैसे देखें, वे केवल एक व्यक्ति को देखते हैं। वे मानवीय दृष्टिकोण से मापते हैं, देखने के लिए मानवीय ज्ञान, अनुभव, बुद्धि, चालाकी और चालबाजी का उपयोग करते हैं, लेकिन वे चाहे जैसे भी देखें, वे इस व्यक्ति में कुछ भी विशेष नहीं देख सकते हैं, न वे यह भेद पहचान सकते हैं कि उसमें परमेश्वर का सार है। मुझे बताओ, क्या वे इसे नग्न आँखों से देख सकते हैं? (नहीं।) अगर वे एक सूक्ष्मदर्शी या एक्स-रे का उपयोग करें तो क्या होगा? तब तो उनके इसे देखने की संभावना और भी कम होगी। कुछ लोग पूछते हैं : “अगर इसे नग्न आँखों या सूक्ष्मदर्शी से नहीं देखा जा सकता है तो क्या आध्यात्मिक क्षेत्र के संपर्क में रहने वाले लोग इसे देख सकते हैं?” (नहीं।) आध्यात्मिक क्षेत्र के संपर्क में रहने वाले लोग उस क्षेत्र में देख सकते हैं और आत्माओं का आभास पा सकते हैं तो वे देहधारी परमेश्वर का भेद क्यों नहीं पहचान सकते? क्या तुम लोगों को लगता है कि शैतान आध्यात्मिक क्षेत्र में परमेश्वर को देख सकता है? (हाँ।) परमेश्वर की तरह शैतान भी आध्यात्मिक क्षेत्र में मौजूद है लेकिन क्या वह परमेश्वर को परमेश्वर मानता है? (नहीं।) क्या वह परमेश्वर का अनुसरण करता है या उसमें विश्वास रखता है? (नहीं।) शैतान हर दिन परमेश्वर को देख सकता है, फिर भी वह न तो उसमें विश्वास रखता है और न ही उसका अनुसरण करता है। इसलिए आध्यात्मिक क्षेत्र के संपर्क में रहने वाले लोग भले ही परमेश्वर के आत्मा को देख सकते हों, क्या वे इस आत्मा को परमेश्वर मानेंगे? (नहीं।) क्या यह स्पष्टीकरण समस्या के मूल का समाधान करता है? (हाँ।) यहाँ मूल क्या है? (वे परमेश्वर को स्वीकार नहीं करते और उसका भय नहीं मानते हैं।) मसीह-विरोधी अपने अंदर गहराई में परमेश्वर को स्वीकार नहीं करते हैं। उनके पुरखों ने, उनकी जड़ों ने ही, परमेश्वर को स्वीकार नहीं किया। यहाँ तक कि परमेश्वर को अपनी आँखों के ठीक सामने पाकर भी वे न तो उसे स्वीकार करते हैं और न ही उसकी आराधना करते हैं। तो फिर वे देहधारी परमेश्वर की आराधना कैसे कर सकते हैं जो इतना साधारण और तुच्छ प्रतीत होता है? वे बिल्कुल नहीं कर सकते। इसलिए मसीह-विरोधी देखने के लिए चाहे किसी भी साधन का प्रयोग कर लें, सब व्यर्थ है। जब से परमेश्वर ने अपना कार्य आरंभ किया तब से लेकर अब तक, परमेश्वर ने बहुत सारे वचन बोले हैं और इतना महान कार्य किया है। क्या यह मानव संसार में सबसे बड़ा संकेत और चमत्कार नहीं है? अगर मसीह-विरोधी इसे स्वीकार कर पाते, तो उन्होंने बहुत पहले ही विश्वास रख लिया होता; उन्होंने अब तक इंतजार नहीं किया होता। क्या कुछ लोग यह सोचते हैं कि “मसीह-विरोधियों ने परमेश्वर के वास्तविक कर्मों को पर्याप्त रूप से देखा ही नहीं है, इसलिए वे असहमत रहते हैं; अगर परमेश्वर कुछ संकेत और चमत्कार दिखा दे, उन्हें यह दिखा दे कि आध्यात्मिक क्षेत्र वास्तव में कैसा है, और अगर वे परमेश्वर का वास्तविक व्यक्तित्व देख लें और यह भी देख लें कि उसके सभी वचन पूरे हो चुके हैं तो फिर वे परमेश्वर को स्वीकार कर लेंगे और उसका अनुसरण करेंगे”? क्या ऐसा ही है? आध्यात्मिक क्षेत्र में इतने वर्षों तक परमेश्वर से विवाद कर चुकने के बाद बिना कायल हुए क्या मसीह-विरोधी अचानक बस कुछ ही वर्षों में समर्पण कर देंगे? यह असंभव है; उनका प्रकृति सार अपरिवर्तनीय है। देहधारी परमेश्वर ने बहुत सारे कार्य किए हैं और बहुत सारे वचन बोले हैं, फिर भी इनमें से कुछ भी मसीह-विरोधियों को जीत नहीं सकता है, न ही वे परमेश्वर की पहचान और सार को स्वीकार सकते हैं। यह उनकी जन्मजात प्रकृति है। यह प्रकृति क्या बताती है? इसका यह अर्थ है कि मसीह-विरोधियों जैसे लोग परमेश्वर, सत्य और सकारात्मक चीजों के खिलाफ हमेशा युद्ध छेड़ते रहेंगे, कड़वे अंत तक लड़ते रहेंगे और मृत्यु तक कभी नहीं रुकेंगे। क्या वे विनाश के उचित निशाने नहीं हैं? “मृत्यु तक कभी न रुकने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने के बजाय मरना पसंद करेंगे, वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के बजाय मरना पसंद करेंगे। यह मृत्यु के ही योग्य है।
जब इस सामान्य व्यक्ति मसीह की बात आती है, तो मसीह-विरोधी बाहर से ही नहीं, बल्कि भीतर से भी उसकी पड़ताल करते हैं। इस प्रकार जब मसीह बोलता और कार्य करता है, तो मसीह-विरोधी तमाम तरह के व्यवहार दिखाते हैं। चलो हम मसीह की वाणी और क्रियाकलापों के जवाब में मसीह-विरोधियों की ओर से प्रदर्शित होने वाली विभिन्न अभिव्यक्तियों के जरिये उनके प्रकृति सार को उजागर करें। उदाहरण के लिए, जब मसीह कार्य और सत्य सिद्धांतों के बारे में लोगों के साथ संगति करता है तो वह कुछ विशिष्ट अभ्यासों का उल्लेख करता है। इनका संबंध इस बात से है कि लोगों को अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान किसी कार्य को कैसे विशेष रूप से कार्यान्वित और लागू करना चाहिए। आम तौर पर कहें तो कोई भी काम सिद्धांत पर चर्चा कर, नारे लगाकर, सबको उत्साहित कर और फिर सबको शपथ दिलाकर नहीं किया जा सकता; कर्तव्य से संबंधित प्रत्येक काम जटिल होता है और इसमें कुछ विवरण शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए : सही व्यक्ति का चयन कैसे करें; विभिन्न लोगों की विभिन्न दशाओं को कैसे सँभालें और उनके साथ कैसा व्यवहार करें; कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं से सिद्धांतों के अनुसार कैसे निपटें; मनमाने और निरंकुश ढंग से काम किए बिना या हठपूर्वक और स्वेच्छाचारिता से व्यवहार किए बिना लोगों के बीच सामंजस्यपूर्ण सहयोग का लक्ष्य कैसे हासिल किया जाए; और इसी तरह के तमाम विषय इसमें शामिल हैं। जब लोगों को ऐसे किसी विशिष्ट कार्य को क्रियान्वित करने और विशिष्ट परियोजनाओं का कार्यभार लेने की जरूरत होती है जिसके बारे में मसीह ने संगति की है, तो हो सकता है कि उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़े। नारे लगाना और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करना आसान है, लेकिन वास्तविक क्रियान्वयन इतना आसान नहीं है। कम-से-कम इतना तो है ही कि वास्तव में ये कार्य करने के लिए लोगों को प्रयास करने, कीमत चुकाने और समय खपाने की जरूरत होती है। एक लिहाज से इसमें उपयुक्त व्यक्तियों को ढूँढ़ना शामिल है तो दूसरे लिहाज से संबंधित पेशे के बारे में सीखना, विभिन्न पेशेवर पहलुओं से संबंधित सामान्य जानकारी और सिद्धांतों के साथ ही इसे क्रियान्वित करने के विशिष्ट तरीकों और दृष्टिकोणों पर शोध करना शामिल है। इसके अलावा उन्हें कुछ चुनौतीपूर्ण मसलों का सामना करना पड़ सकता है। आम तौर पर सामान्य लोग इन कठिनाइयों के बारे में सुनकर थोड़ा घबरा जाते हैं, थोड़ा दबाव महसूस करते हैं, लेकिन जो लोग परमेश्वर के प्रति वफादार होते हैं और समर्पण करते हैं, वे कठिनाइयों का सामना और दबाव महसूस करने पर अपने दिल में मौन होकर प्रार्थना करेंगे और परमेश्वर से विनती करेंगे कि वह उन्हें मार्गदर्शन दे, उनकी आस्था बढ़ाए, उन्हें प्रबोधन और मदद दे, और वे गलतियाँ करने से बचने के लिए उससे रक्षा करने की विनती भी करेंगे ताकि वे अपनी वफादारी अच्छे से निभा सकें और एक स्वच्छ जमीर प्राप्त करने के लिए पुरजोर कोशिश कर सकें। लेकिन मसीह-विरोधियों जैसे लोग ऐसे नहीं होते हैं। जब वे यह सुनते हैं कि कार्य में मसीह द्वारा कुछ विशिष्ट व्यवस्थाएँ की गई हैं जो उन्हें लागू करनी हैं और कार्य में कुछ कठिनाइयाँ हैं, तो वे मन-ही-मन प्रतिरोध महसूस करने लगते हैं और आगे बढ़ने को तैयार नहीं होते हैं। यह अनिच्छा कैसी दिखती है? वे कहते हैं : “मेरे हिस्से में कभी अच्छी चीजें क्यों नहीं आतीं? मुझे हमेशा समस्याएँ और माँगें क्यों पकड़ा दी जाती हैं? क्या मुझे निठल्ला या हुक्म का गुलाम मान लिया गया है? मुझ पर हुक्म चलाना इतना आसान नहीं है! तुम इसे इतनी आसानी से कह देते हो, तुम इसे खुद करने की कोशिश क्यों नहीं करते!” क्या यह समर्पण है? क्या यह स्वीकृति का रवैया है? वे क्या कर रहे हैं? (प्रतिरोध कर रहे हैं, विरोध कर रहे हैं।) यह प्रतिरोध और विरोध कैसे उत्पन्न होता है? उदाहरण के लिए, अगर उनसे कहा जाए, “जाओ कुछ किलोग्राम मांस खरीद लाओ और सबके लिए धीमी आँच में पकापोर्क बनाओ” तो क्या वे इसका विरोध करेंगे? (नहीं।) लेकिन अगर उनसे यह कहा जाए कि “तुम आज जाकर उस खेत की जुताई करो और जुताई करते समय तुम्हें खेत के सारे पत्थर हटाने होंगे, तभी तुम्हें खाना मिल पाएगा।” तो वे अनिच्छुक हो जाएँगे। काम में जब एक बार शारीरिक कष्ट, कठिनाई या दबाव शामिल हो जाता है तो उनकी नाराजगी सतह पर आ जाती है और वे ऐसा करने को राजी नहीं होते; वे प्रतिरोध और शिकायत करने लगते हैं : “मेरे साथ अच्छी चीजें क्यों नहीं होतीं? जब आसान और हल्के कामों की बारी आती है तो मेरी अनदेखी क्यों कर दी जाती है? मुझे कठिन, थकाऊ या गंदे कामों के लिए क्यों चुना जाता है? क्या इसका यह कारण है कि मैं निष्कपट और आसानी से धौंस में आ जाने वाला लगता हूँ?” यहीं से आंतरिक प्रतिरोध शुरू होता है। वे इतने प्रतिरोधी क्यों होते हैं? कैसा “गंदा और थकाऊ काम”? कैसी “कठिनाइयाँ”? क्या ये सब उनके कर्तव्य का हिस्सा नहीं हैं? जिसे भी यह काम सौंपा जाए उसे ही करना चाहिए; इसमें ठोक-बजाकर चुनने की क्या बात है? क्या यह उनके लिए जानबूझकर कठिनाई खड़ी करने को लेकर है? (नहीं।) लेकिन वे मानते हैं कि उनके लिए जानबूझकर कठिनाई खड़ी की जा रही है, उन्हें मुश्किल में डाला जा रहा है, इसलिए वे इस कर्तव्य को परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते और इसे स्वीकारने के इच्छुक नहीं रहते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? क्या ऐसा है कि जब उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है और वे आराम से नहीं रह सकते, तो वे प्रतिरोधी बन जाते हैं? क्या यह बिना शर्त, शिकायत-रहित समर्पण है? वे जरा-सी कठिनाई में अनिच्छुक हो जाते हैं। कोई भी ऐसी चीज जो वे नहीं करना चाहते, जो उन्हें कठिन, अवांछनीय, अपमानजनक लगती है या ऐसी लगती है कि दूसरे इसे तुच्छ मानते हैं तो वे उसके प्रति जरा-सा भी समर्पण नहीं दिखाते और उसका उग्रता से प्रतिरोध करते हैं, उस पर ऐतराज करते हैं और उसे अस्वीकार कर देते हैं। मसीह अपने जिन वचनों, आज्ञाओं या सिद्धांतों के बारे में संगति करता है—इनके कारण जैसे ही मसीह-विरोधियों के लिए कठिनाइयाँ पैदा होती हैं या उन्हें कष्ट सहने या कीमत चुकाने की जरूरत पड़ती है—तो मसीह-विरोधियों की पहली प्रतिक्रिया प्रतिरोध, इनकार और अपने दिलों में घृणा की भावना के रूप में सामने आती है। लेकिन जब उनकी मनपसंद या फायदेमंद चीजों की बात आती है तो उनका ऐसा ही रवैया नहीं होता। मसीह-विरोधी सुख-सुविधा भोगने और अलग दिखने के इच्छुक होते हैं, लेकिन जब उनका सामना दैहिक कष्ट, कीमत चुकाने की जरूरत या यहाँ तक कि दूसरों की नाराजगी मोल लेने से हो तो क्या वे प्रसन्न होते हैं और खुशी-खुशी इसे स्वीकारने को तैयार होते हैं? क्या तब वे पूर्ण समर्पण कर पाते हैं? रत्तीभर भी नहीं; उनका रवैया पूरी तरह से अवज्ञापूर्ण और अक्खड़ होता है। जब मसीह-विरोधियों जैसे लोगों का सामना ऐसी चीजों से होता है जिन्हें वे करना नहीं चाहते हैं, ऐसी चीजों से जो उनकी पसंदगियों, रुचियों या स्वार्थों से मेल नहीं खाती हैं तो मसीह के वचनों के प्रति उनका रवैया पूर्ण इनकार और प्रतिरोध का हो जाता है, इसमें समर्पण नाम की चीज नहीं होती।
कुछ लोग मसीह को बोलते हुए सुनते समय ख्याल बुनने लगते हैं : “मसीह ऐसा क्यों कहता है? वह इस मामले से इस दृष्टिकोण से कैसे पेश आ सकता है? वह ऐसी राय कैसे रख सकता है, वह किसी चीज को इस तरह से कैसे परिभाषित कर सकता है? क्या यह भी सत्य है? क्या ये भी परमेश्वर के वचन हैं? मुझे तो ऐसा नहीं लगता। परमेश्वर जिस तरह से बात करता है वह बाइबल में तो अलग तरीके से दर्ज किया गया है, वहाँ इन ब्योरेदार और तुच्छ मामलों में उतरे बिना एक तरह की तार्किकता है। मसीह इस तरीके से क्यों बोलता है? इसका संबंध हमेशा ब्योरों से और ब्योरों के गहन-विश्लेषण से होता है; क्या परमेश्वर सचमुच ऐसा बोल सकता है?” जब भी वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो उनके मन में धारणाएँ नहीं होती हैं और वे यही सोचते हैं, “ये परमेश्वर के वचन हैं; मुझे जीवन, उद्धार और आशीष पाने के लिए इन पर भरोसा करना चाहिए।” लेकिन जब वे सचमुच मसीह के साथ बातचीत करते हैं, तब कुल मामलों पर उसके विचारों, टिप्पणियों और रवैयों, और साथ ही कुछ लोगों को सँभालने के उसके तरीकों के बारे में सुनते हैं तो वे राय बनाना शुरू कर देते हैं, और ऐसी राय को मानवीय धारणाएँ माना जा सकता है। जब मसीह-विरोधी अपने दिलों में धारणाएँ पैदा करते हैं तो क्या वे अपनी धारणाओं की काट-छाँट के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे? बिल्कुल नहीं। वे लेशमात्र भी समर्पण भाव के बिना मसीह के वचनों को निरंतर अपनी धारणाओं से मापते हैं। इस प्रकार जब वे मसीह के बारे में धारणाएँ बना लेते हैं, तो वे अपने भीतर प्रतिरोध महसूस करने लगते हैं और धीरे-धीरे मसीह के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख अपना लेते हैं। जब ऐसी शत्रुता उत्पन्न होती है तो क्या तब भी मसीह-विरोधी समर्पण करने की बात सोचते हैं? क्या वे अब भी स्वीकार करने की बात सोचते हैं? वे अपने दिल में यह सोचकर प्रतिरोध करने लगते हैं, “तो अब तुम्हारे खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए मेरे हाथ कुछ लग गया है। क्या तुम्हें परमेश्वर नहीं होना चाहिए? क्या तुम्हारे सभी वचन सत्य नहीं हैं? ऐसा लगता है कि जब तुम कार्य करते हो तो तार्किक रूप से बहस भी करते हो और तुम अपनी आँखों से जो देखते हो उसके आधार पर मामलों का आकलन करते हो। तुम्हारे कार्य परमेश्वर के सार के अनुरूप नहीं हैं!” वे अपने भीतर अवज्ञा महसूस करने लगते हैं। जब यह अवज्ञा बढ़ती है तो यह बाहर प्रकट हो जाती है। वे यह कह सकते हैं, “तुम जो कहते हो वह सही लगता है, लेकिन इस बारे में परमेश्वर क्या कहता है यह देखने के लिए मुझे परमेश्वर के वचनों को परखने की जरूरत है। मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी होगी ताकि यह देखूँ कि वह मेरी अगुआई कैसे करता है। मुझे इंतजार करने और खोजने की जरूरत है ताकि यह देख लूँ कि परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन और प्रबोधन कैसे करता है। जहाँ तक तुम्हारी कही बात का सवाल है, वह अब मेरे सोच-विचार के दायरे में नहीं है और वह मेरे क्रियाकलापों का आधार नहीं हो सकती है।” यह कैसी अभिव्यक्ति है? (मसीह को नकारना।) वे मसीह को नकारते हैं, तो अभी भी “वचन देह में प्रकट होता है” को क्यों पढ़ते हैं? (परमेश्वर, मुझे लगता है कि वे केवल स्वर्ग के अज्ञात परमेश्वर को मानते हैं और पृथ्वी के मसीह को सिरे से नकारते हैं।) मसीह-विरोधी निरंतर खोखले शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के दायरे में रहते हैं, एक उच्च, अज्ञात परमेश्वर का सम्मान करते हैं। इसलिए वे मसीह के वचनों के रूप में दर्ज लिखित शब्दों का अत्यंत आदर और सम्मान तो करते हैं, लेकिन उनके दिल में इस साधारण से भी साधारणतम मसीह के लिए कोई दर्जा नहीं है। क्या यह विरोधाभास नहीं है? जब वे मसीह के बारे में धारणाएँ पालते हैं तो वे कहते हैं, “मुझे प्रार्थना करने और खोजने की जरूरत है ताकि यह देख लूँ कि परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं।” केवल परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने वाले लेकिन मसीह को न स्वीकारने वाले ये लोग कौन हैं? (मसीह-विरोधी।) मसीह के वचनों के बारे में उनकी धारणाएँ कितनी भी गंभीर या गहन क्यों न हों, जब ये वचन छप जाते हैं तो उनकी धारणाएँ गायब हो जाती हैं। जब वचन पाठ बन जाते हैं तो वे परमेश्वर मानकर उनकी आराधना करते हैं। क्या यह वही गलती नहीं है जो फरीसियों और मजहबी हलकों के लोगों ने की थी? सत्य को न समझ पाना इन अभिव्यक्तियों और धारणाओं की उत्पत्ति को आसान बना देता है। धारणाएँ विकसित करने के बाद मसीह-विरोधियों के दिल समर्पण नहीं कर पाते हैं; उनके दिलों में समर्पण नहीं होता, सिर्फ प्रतिरोध होता है।
साधारण लोगों में किन परिस्थितियों में धारणाएँ पनपती हैं या किस प्रकार के लोगों में धारणाएँ पनपने की आशंका होती है? एक प्रकार के लोग वे हैं जो परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते हैं तो दूसरे प्रकार के लोग वो हैं जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं होती और जो सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं; इनमें धारणाएँ पनपने की आशंका होती है। एक बार धारणाएँ पनप जाती हैं तो वे मन ही मन प्रतिरोध करने लगते हैं। उदाहरण के लिए, मैं समय के अनुकूल पृष्ठभूमि, परिवेश और इंसानी जरूरतों के आधार पर लोगों को कोई चीज एक खास तरीके से करने को कह सकता हूँ। समय गुजरने और परिस्थितियाँ बदलने के साथ बाद में उस मामले को सँभालने का ढंग और तरीका भी बदल सकता है। लेकिन इस बदलाव से मसीह-विरोधियों को धारणाएँ उपजाने का मौका मिल जाता है : “तुमने पहले ऐसा कहा था, इसे सत्य बताकर लोगों को इस तरीके से अभ्यास करने को कहा था। हम अंततः इसे समझ गए और इसका अभ्यास और पालन करने में सक्षम रहे, यह सोचकर कि हमारे पास आशीष पाने की आशा है, लेकिन अब तुम हमें इसे अलग ढंग से करने को कह रहे हो—इसका क्या मतलब है? क्या तुम हमें सता नहीं रहे हो? क्या तुम हमें मनुष्य से कमतर नहीं मान रहे हो? इसे करने का सही तरीका वास्तव में क्या है?” किसी भी तरीके, दृष्टिकोण या कथन में बदलाव कुछ लोगों को भड़का सकता है—ये ऐसे लोग होते हैं जो सत्य को बिल्कुल नहीं समझते और इसे बूझ भी नहीं सकते हैं। परमेश्वर जो कुछ करता है उसका आकलन वे पुराने दृष्टिकोणों, पुराने सिद्धांतों, कुछ मानवीय नैतिक मानकों, जमीर के मानकों और यहाँ तक कि किसी तार्किक सोच और मानवीय ज्ञान के आधार पर करते हैं। जब इन सब चीजों से मसीह की कही बातों का खंडन होता है या बीच में विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं तो वे इनसे निपटना नहीं जानते हैं। जब आगे बढ़ने का रास्ता न सूझे तो सामान्य लोगों को पहले शांत रहने और स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए, फिर धीरे-धीरे समझने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधी ऐसे नहीं होते हैं। वे पहले प्रतिरोध करते हैं और फिर अज्ञात परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करते हैं, यों दिखते हुए कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं और परमेश्वर से अत्यधिक प्रेम करते हैं। उनकी प्रार्थना का क्या उद्देश्य होता है? यही कि मसीह के वचनों को नकारने के लिए पर्याप्त सबूत ढूँढ़ लें, मसीह ने जो कहा है उसकी निंदा और आलोचना करें, अपने दिल को सुकून पहुँचाएँ। वे इसी तरह अपनी धारणाओं का समाधान करते हैं। क्या इससे उनकी धारणाओं का समाधान हो सकता है? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि वे सत्य को नहीं स्वीकारते। वे परमेश्वर के वचनों से सत्य को नहीं खोज रहे हैं, बल्कि परमेश्वर को नकारने का प्रयास कर रहे हैं।) बिल्कुल सही कहा, वे सत्य को स्वीकारने के रवैये या तरीके से अपनी धारणाओं का समाधान नहीं कर रहे हैं। उनकी धारणाएँ छूटती नहीं हैं; वे उनके मन में कायम रहती हैं। इसलिए ऐसे रवैये से उनकी धारणाओं का समाधान कभी नहीं होगा, ऐसा रवैया उन्हें अपनी धारणाएँ नहीं त्यागने देगा। बल्कि समय के साथ ये धारणाएँ बढ़ती जाएँगी; जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा और परमेश्वर में उनके विश्वास के वर्ष बढ़ते जाएँगे, वैसे-वैसे उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ भी बढ़ती जाएँगी। लिहाजा मसीह के प्रति, इस साधारण व्यक्ति के प्रति उनका रवैया अनिवार्य रूप से धारणाओं के बोझ से लदता जाता है। साथ ही, मसीह के प्रति उनके दिल में बाधा और नाराजगी भी बढ़ती जाती है। अपने कर्तव्य निभाते समय, सभाओं में भाग लेते समय और परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते समय इन बाधाओं और धारणाओं को उठाए फिरने से आखिरकार उन्हें क्या हासिल हो सकता है? उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता, सिवाय इसके कि उनकी आशीष पाने की इच्छाएँ दिन-ब-दिन बढ़ती जाती हैं।
क्या तुम लोगों के मन में मसीह के प्रति कोई धारणा है? परमेश्वर से लोगों की माँगें मसीह के बारे में उनकी धारणाओं को आकार देती हैं। ये माँगें कहाँ से आती हैं? ये लोगों की महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं, धारणाओं और कल्पनाओं से पनपती हैं। तो फिर लोग अपने मन में किस प्रकार की धारणाएँ उपजाते हैं? वे मानते हैं कि मसीह को ऐसा कहना चाहिए या वैसा कहना चाहिए, कि उसे कुछ खास अंदाज से बोलना और कार्य करना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब कोई निराश और कमजोर महसूस कर रहा हो तो यह सोच सकता है, “क्या परमेश्वर प्रेम नहीं है? परमेश्वर एक ममतामयी माँ के समान है, एक करुणामय पिता के समान है; परमेश्वर को लोगों को सुकून देना चाहिए। स्वर्ग के परमेश्वर के बारे में भूल जाओ; वह पहुँच से बाहर है। अब जबकि परमेश्वर पृथ्वी पर आ चुका है तो लोगों की उस तक पहुँच आसान हो गई है। चूँकि मैं निराश महसूस कर रहा हूँ, इसलिए मुझे परमेश्वर के समक्ष जाकर अपना दिल खोलकर रखने की जरूरत है।” और अपना दिल खोलकर सामने रखते समय वे आँसू बहाते हैं, अपनी परेशानियाँ, कमजोरियाँ बताते हैं और खुलकर अपने भ्रष्ट स्वभाव पर चर्चा करते हैं। लोग अपने दिलों में वास्तव में क्या खोज रहे हैं? वे दिलासा पाना चाहते हैं, वे मीठे बोल सुनना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि परमेश्वर ऐसे वचन कहे जो उनकी उदासी घटा दें, उन्हें प्रसन्न करें, सुकून दें और उन्हें निराश महसूस करने से रोक दें। क्या यही बात नहीं है? खासकर एक विशेष प्रकार के व्यक्ति के लिए वे ऐसी कल्पना पालते हैं : “इंसानों के लिए कमजोरी और नकारात्मकता बस यही होती है, लेकिन परमेश्वर का सिर्फ एक वाक्य किसी व्यक्ति को पूरी तरह ताजगी से भर सकता है, जिससे उसके दिल के सारे कष्ट और संताप तुरंत दूर हो सकते हैं। तब कमजोरी और नकारात्मकता धुएँ की तरह काफूर हो जाएँगी और वह किसी भी परिस्थिति में मजबूत रह सकेगा, वह कभी कमजोर नहीं पड़ेगा या नकारात्मकता से घिरा नहीं रहेगा, अपनी गवाही में अडिग रहेगा। तो फिर ठीक है, मसीह को बोलने दो!” मुझे बताओ, ऐसी कोई स्थिति सामने होने पर मुझे क्या कहना चाहिए? पहली बात, मुझे यह पता लगाना होगा कि यह व्यक्ति क्यों निराश महसूस कर रहा है और क्या कर्तव्य निभा रहा है; दूसरी बात, मुझे यह संगति करनी चाहिए कि किसी व्यक्ति को अपना कर्तव्य करने की प्रक्रिया में कौन-से सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए। क्या यह इसे स्पष्ट रूप से समझाना नहीं है? जो लोग बेवकूफ और जिद्दी हैं और सत्य को स्वीकार नहीं करते, उनके लिए यह जरूरी है कि उन्हें प्रेरित करने और प्रोत्साहन देने के लिए कुछ अनुशासनात्मक बात कही जाए। साथ ही, इस प्रकार के व्यक्ति के प्रकृति सार को उजागर करना भी जरूरी है ताकि वह यह समझ ले कि हमेशा नकारात्मक होने का क्या मतलब है और वह निरंतर नकारात्मक क्यों रहता है। अगर मैं यह कह दूँ कि सदा नकारात्मक रहने वाले लोग ऐसे होते हैं जो सत्य को नहीं स्वीकारते, सत्य से प्रेम नहीं करते, तो क्या यह सुनकर उन्हें दिलासा मिल सकती है? (नहीं।) मान लो मैंने यह कह दिया : “निरंतर नकारात्मक रहना सामान्य है। यह बालसुलभ अभिव्यक्ति है; मानो यह ऐसी बात है कि कोई बच्चा एक वयस्क का बोझ उठाता है, इस भार के कारण निरंतर नकारात्मक हो जाता है। तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, तुम युवा हो और तुम्हें ज्यादा अनुभव नहीं हुए हैं, इसलिए तुम्हें धीरे-धीरे सीखने की जरूरत है। यही नहीं, तुम्हारे माता-पिता की भी जिम्मेदारी है; उन्होंने तुम्हें ठीक से नहीं सिखाया, इसलिए यह तुम्हारी गलती नहीं है।” वे फिर ऐसा पूछ सकते हैं, “तो फिर मेरा यह भ्रष्ट स्वभाव क्या है?” “यह कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है; बात बस यह है कि तुम बहुत युवा हो और एक अच्छे पारिवारिक परिवेश से आते हो; तुम्हें बिगाड़ा और सिर चढ़ाया गया है। कुछ वर्षों में जैसे-जैसे तुम बड़े होगे, चीजें बेहतर होती जाएँगी।” क्या वे यह बात सुनकर सांत्वना महसूस करेंगे? साथ ही अगर मैं उनसे गले मिलकर कुछ सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर दूँ तो क्या वे अंदर से गर्माहट महसूस नहीं करेंगे? इस तरीके से उन्हें लगेगा कि उन्होंने परमेश्वर के प्रेम और गर्माहट का अनुभव कर लिया है। लेकिन मसीह आम तौर पर इस तरह कार्य नहीं करता। हो सकता है कि वह बड़े बच्चों को दिलासा देने के लिए वास्तव में ऐसा करे लेकिन हर वयस्क के लिए वह इस तरह से कार्य नहीं करेगा; इसे किसी को मूर्ख बनाना कहेंगे। इसके बजाय वह पते की बात करेगा, तुम्हें राह दिखाएगा, यह स्पष्ट करेगा कि वास्तव में क्या हो रहा है और तुम्हें मुक्त रूप से विकल्प चुनने देगा। तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो, इसी से यह तय होता है कि तुम किस राह पर चलते हो। मसीह जो कुछ भी करता है उसके सार को देखते हुए कह सकते हैं कि वह लोगों के साथ धोखेबाजी या खिलवाड़ नहीं कर रहा है, लेकिन वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते हैं। वे तथ्यों का सामना नहीं करते, लेकिन मसीह का सार यही है; वह सिर्फ इसी तरह कार्य कर सकता है। अगर लोग इसे स्वीकार नहीं कर सकते तो क्या यह लोगों और परमेश्वर के बीच टकराव पैदा नहीं करता है? अगर वे अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर सकते और सत्य भी स्वीकार नहीं करते तो क्या यह बाधा पैदा नहीं करता है? (बिल्कुल।) यह लोगों के दिलों में बैठ जाता है। लोग मूल रूप से यह सोचते थे कि परमेश्वर एक माँ या नानी-दादी की तरह बहुत ही ममतामय और सौम्य है। लेकिन अब यह देखकर कि चीजें वैसी नहीं हैं और थोड़ी-सी भी गर्माहट महसूस न कर वे निराश हो जाते हैं। “मसीह का सिर्फ एक वाक्य मुझे नकारात्मकता से बाहर निकाल सकता है,” क्या उनकी यह कल्पना साकार हो सकती है? “अगर मसीह मेरी समस्याओं को हल करने आता है तो मेरी गारंटी है कि मैं तुरंत अंदर से गर्माहट महसूस करूँगा और आइंदा कभी नकारात्मक नहीं पड़ूँगा; हर चीज स्पष्ट हो जाएगी और एक रास्ता खुल जाएगा।” क्या यह कल्पना वास्तविकतायुक्त है? क्या यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है? (नहीं।) इसलिए इस मामले में अगर लोग हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के भरोसे रहे तो काम नहीं चलेगा; उन्हें समस्या का समाधान करने के लिए सत्य खोजना होगा।
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