मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो) खंड तीन

ख. जाँच-पड़ताल, विश्लेषण और जिज्ञासा

इसके बाद हम दूसरी मद पर आते हैं—जाँच-पड़ताल, विश्लेषण और जिज्ञासा। क्या यह मद समझने में आसान है? जहाँ तक देहधारी परमेश्वर के कार्यकलापों और वचनों के साथ ही उसके प्रत्येक वचन और कार्य में प्रकट होने वाले व्यक्तित्व और स्वभाव या यहाँ तक कि उसकी प्राथमिकताओं का संबंध है, सामान्य लोगों को इनसे सही ढंग से पेश आना चाहिए। जो लोग वास्तव में परमेश्वर और सत्य का अनुसरण करते हैं वे मसीह के इन बाहरी खुलासों को उसकी देह का सामान्य पक्ष मानते हैं। जहाँ तक मसीह के कहे वचनों की बात है, वे उन्हें सत्य मानकर पेश आने के रवैये के साथ सुन और समझ सकते हैं, इन वचनों से परमेश्वर के इरादों को समझ सकते हैं, अभ्यास के सिद्धांतों को समझ सकते हैं और सत्य वास्तविकता में प्रवेश के लिए अभ्यास का मार्ग पा सकते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी अलग तरह से व्यवहार करते हैं। जब वे मसीह को बोलते और कार्य करते हुए देखते हैं तो उनके दिल में स्वीकृति या समर्पण का भाव नहीं होता, बल्कि जाँच-पड़ताल का भाव होता है : “ये वचन कहाँ से आते हैं? ये कैसे बोले जाते हैं? एक के बाद एक वाक्य—क्या ये पहले से सोचे-समझे हैं या पवित्र आत्मा से प्रेरित हैं? क्या ये वचन पहले से सीखे गए या तैयार किए गए हैं? मैं क्यों नहीं जानता? इनमें से कुछ वचन बिल्कुल सामान्य, बस सादी बातें लगती हैं। यह परमेश्वर जैसा नहीं लगता; क्या परमेश्वर वास्तव में इतने सामान्य तरीके से, इतने आम तरीके से बोलता है? मैं जाँच-पड़ताल करके इसका पता नहीं लगा सकता, इसलिए मैं देखूँगा कि वह पृष्ठभूमि में क्या करता है। क्या वह अखबार पढ़ता है? क्या उसने कोई प्रसिद्ध पुस्तक पढ़ी है? क्या वह व्याकरण का अध्ययन करता है? वह आमतौर पर किस तरह के लोगों के साथ उठता-बैठता है?” उनमें सत्य के प्रति समर्पण या इसे स्वीकार करने का रवैया नहीं होता, बल्कि वे वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाले या शैक्षिक विषयों को पढ़ने वाले विद्वान के रवैये के साथ मसीह की जाँच-पड़ताल करते हैं। वे मसीह के वचनों की विषयवस्तु और उसके बोलने के तरीके, मसीह के श्रोता वर्ग के साथ ही मसीह के हर बार बोलते समय के रवैये और उद्देश्य की जाँच-पड़ताल करते हैं। जब भी मसीह बोलता या कार्य करता है तो जो कुछ भी उनके कानों तक पहुँचता है, जो कुछ वह देख सकते हैं और जिस किसी चीज के बारे में सुनते हैं, वह सब उनकी जाँच-पड़ताल का विषय बन जाता है। वे मसीह के बोले हर एक वचन और वाक्य, उसके प्रत्येक कार्य, उसके द्वारा सँभाले गए प्रत्येक व्यक्ति, उसका लोगों के साथ व्यवहार करने का तरीका, उसकी वाणी और आचरण, उसकी नजर और चेहरे के हाव-भाव, यहाँ तक कि उसके रहन-सहन की आदतों और दिनचर्या और दूसरों के साथ बातचीत के तरीके और उनके प्रति रवैये—इन सभी की वे जाँच-पड़ताल करते हैं। इस जाँच-पड़ताल के जरिये मसीह-विरोधी यह निष्कर्ष निकालते हैं : मैं मसीह पर जैसे भी गौर करता हूँ, वह सामान्य मानवता वाला ही लगता है; वह बिल्कुल मामूली है, सत्य व्यक्त करने की क्षमता के अलावा उसके पास कुछ भी ज्यादा खास नहीं है। क्या यह सचमुच देहधारी परमेश्वर हो सकता है? वे चाहे कितनी ही जाँच-पड़ताल कर लें, वे एक निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते; वे चाहे कितनी ही जाँच-पड़ताल कर लें, वे यह सुनिश्चित नहीं कर सकते कि क्या मसीह ही वह परमेश्वर है जिसे वे अपने दिलों में स्वीकार करते हैं। ये वो लोग हैं जो मसीह की जाँच-पड़ताल करते हैं, वो नहीं जो परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं—तो वे परमेश्वर का ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

मसीह की जाँच-पड़ताल करते हुए मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर की शान को देखने में असमर्थ रहते हैं, वे परमेश्वर की धार्मिकता, सर्वशक्तिमत्ता और अधिकारिता को देखने में असमर्थ रहते हैं। वे चाहे कैसे भी जाँच-पड़ताल कर लें, वे इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते कि मसीह के पास परमेश्वर का सार है; वे इसकी असलियत जानने और समझने में असमर्थ हैं। कुछ लोग कहते हैं : “जहाँ तुम असलियत जान नहीं सकते या समझ नहीं सकते, वहाँ खोजने के लिए सत्य होता है।” जिस पर एक मसीह-विरोधी उत्तर देगा : “मुझे यहाँ खोजने योग्य कोई सत्य नहीं दिखता; यहाँ तो बस गहराई से जाँच-पड़ताल किए जाने लायक संदिग्ध ब्योरे हैं।” वे जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करने के बाद निष्कर्ष निकालते हैं : यह मसीह केवल कुछ वचन बोल सकता है और इसके अलावा उसमें आम लोगों से अलग कुछ भी नहीं है। उसके पास विशेष खूबियों का अभाव है, उसमें कोई विलक्षण क्षमताएँ नहीं हैं और उसके पास तो यीशु की तरह संकेत और चमत्कार दिखाने की अलौकिक शक्तियाँ भी नहीं हैं। वह जो कुछ भी कहता है वे एक नश्वर व्यक्ति के शब्द हैं। तो क्या वह सचमुच मसीह है? इस नतीजे को और आगे विश्लेषण और जाँच-पड़ताल का इंतजार है। चाहे वे कैसे भी देखें, वे मसीह में परमेश्वर का सार नहीं देख सकते हैं; वे चाहे जैसे जाँच-पड़ताल करते हों, वे यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि मसीह के पास परमेश्वर की पहचान है। एक मसीह-विरोधी की नजर से देखें तो परमेश्वर जिस देह में देहधारण करता है उसमें असाधारण शक्तियाँ, विशेष खूबियाँ, चमत्कार दिखाने की क्षमता और परमेश्वर के अधिकार को प्रकट करने और अमल में लाने का सार और क्षमता होनी चाहिए। लेकिन उनके सामने उपस्थित इस सामान्य व्यक्ति में इन सभी गुणों का अभाव है, उसकी वाणी में बहुत अधिक वाक्पटुता नहीं है; बहुत-सी चीजें बताते वक्त भी वह आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग करता है जो मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाती और यहाँ तक कि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के स्तर तक भी नहीं पहुँचती है। मसीह-विरोधी लोग मसीह की भाषा की जाँच-पड़ताल चाहे जैसे करते हों, वे मसीह के कार्यकलापों के साथ ही उसके कार्य करने के रवैये और तरीके की चाहे जैसे जाँच-पड़ताल करते हों, वे यह नहीं देख सकते कि मसीह में—इस साधारण व्यक्ति में—परमेश्वर का सार है। इसलिए मसीह-विरोधियों के दिल में जो बात इस साधारण व्यक्ति को अनुसरण के सर्वाधिक योग्य बनाती है, वे कई ऐसी चीजें, शब्द और परिघटनाएँ हैं जिनकी असलियत वे जान नहीं सकते—यही उनकी जाँच-पड़ताल और विश्लेषण के योग्य होता है, यही इस व्यक्ति के अनुसरण के लिए उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा है। कौन-सी विषयवस्तु और कौन-से विषय उनकी जाँच-पड़ताल और विश्लेषण के लायक हैं? वे यही वचन हैं जो मसीह ने जीवन प्रवेश के संबंध में कहे हैं; साधारण लोग सचमुच ऐसी बातें नहीं कह सकते, वास्तव में उनके पास ये होते ही नहीं हैं और वाकई ऐसे शब्द मानवजाति के किसी दूसरे व्यक्ति के पास नहीं पाए जाते हैं—वे कहाँ से आते हैं यह अज्ञात है। मसीह-विरोधी बार-बार जाँच-पड़ताल करते हैं लेकिन इस बारे में कभी भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते हैं। उदाहरण के लिए, जब मैं इस बारे में बोलता हूँ कि कोई व्यक्ति कैसा है, उसका सार और स्वभाव क्या है तो साधारण लोग बहुत ही सावधानीपूर्वक इन विवरणों का मिलान वास्तविक व्यक्ति से कर मामले की पुष्टि करेंगे। जब मसीह-विरोधी इन वचनों को सुनते हैं तो वे मामले से मिलान करने और इसे समझने के लिए स्वीकृति का रवैया नहीं अपनाते, बल्कि विश्लेषण करने का रवैया अपनाते हैं। वे क्या विश्लेषण करते हैं? “तुम इस व्यक्ति की स्थिति के बारे में कैसे जानते हो? तुम कैसे जानते हो कि उसका स्वभाव ऐसा है? इसे निरूपित करने का तुम्हारा आधार क्या है? तुम्हारा उसके साथ खास संपर्क नहीं रहा, इसलिए तुम उसे कैसे समझते हो? हम लंबे समय से उसके संपर्क में रहे हैं तो हम उसकी असलियत क्यों नहीं जान पाते या उसे क्यों नहीं समझ पाते हैं? मुझे तुम्हारे वचनों पर यकीन करने के बजाय खुद निरीक्षण करने की जरूरत है। तुम जो कहते हो, हो सकता है कि वह सटीक या सही न हो।” कुछ लोगों के साथ बातचीत के दौरान मैं उन्हें किसी काम या पेशे में मार्गदर्शन दे सकता हूँ। यदि इस मार्गदर्शन का ढंग और तरीका उनके तकनीकी ज्ञान से मेल खाता है और उन्हें संतुष्ट करता है तो वे अनिच्छा से इस पर अमल करेंगे। लेकिन वे अगर इससे संतुष्ट नहीं होते तो अपने दिल में इसका प्रतिरोध कर सोचेंगे, “तुम इसे इस तरीके से क्यों करते हो? क्या यह इस क्षेत्र के विपरीत नहीं है? मैं तुम्हें क्यों सुनूँ? अगर तुम जो कहते हो वह गलत है तो मैं तुम्हारी बात नहीं सुन सकता; मुझे अपने रास्ते पर चलना है। यदि तुम सही हो, तो मुझे यह समझने की जरूरत है कि तुम कैसे सही हो, तुम्हें यह कैसे पता चला। क्या तुमने इसका अध्ययन किया? यदि तुमने अध्ययन नहीं किया तो तुम इसे जान ही कैसे सकते हो? यदि तुमने इसका अध्ययन नहीं किया, तुम्हें इसकी समझ नहीं होनी चाहिए; यदि तुम इसे समझते हो तो यह असामान्य बात है। तुम इसे कैसे समझते हो? तुम्हें किसने बताया या क्या तुमने इसे गुपचुप तरीके से खुद ही सीख लिया?” वे आंतरिक रूप से विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करते हैं। मैं जो भी वाक्य बोलता हूँ, जो भी मामला सँभालता हूँ, उसे मसीह-विरोधियों की छलनी से गुजरना होगा, उनकी संपरीक्षा से गुजरना होगा। यदि यह उनकी संपरीक्षा में खरा उतरता है तभी वे इसे स्वीकार करेंगे; अगर ऐसा नहीं होता, तो वे आलोचना करेंगे, राय बनाएँगे और प्रतिरोध पैदा करेंगे।

परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है, वह सभी लोगों के लिए सबसे बड़ा रहस्य बनी हुई है। कोई भी यह नहीं समझ-बूझ सकता कि इस संबंध में वास्तव में क्या हो रहा है, न ही कोई यह समझ सकता है कि इस देह में परमेश्वर का सार कैसे साकार होता है—परमेश्वर कैसे एक इंसान बन गया, यह व्यक्ति कैसे परमेश्वर के मुँह से वचन बोल सकता है और कैसे परमेश्वर का कार्य कर सकता है, और वास्तव में कैसे परमेश्वर का आत्मा इस व्यक्ति को मार्गदर्शन और निर्देश देता है। इस सारे कार्य में लोगों ने न तो भव्य दर्शन देखे हैं, न ही इस देह से कोई महत्वपूर्ण हलचल देखी है—ऐसा प्रतीत नहीं होता कि इसमें कुछ भी विशेष हो रहा है; सभी कुछ सामान्य लगता है। नजर में आए बिना ही परमेश्वर इस्राएल में जो महिमा थी, उसे पूरब में ले आया है। इस व्यक्ति के बोलने और कार्य करने से इस तरह एक नया युग शुरू हो गया है और पुराना समाप्त हो गया, बिना किसी को पता चले कि यह कैसे हो गया। लेकिन जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जो सरल और खुले-दिल के हैं, जिनमें मानवता और विवेक है, वे इन मामलों की जाँच-पड़ताल नहीं करते हैं। अगर वे जाँच-पड़ताल नहीं करते हैं तो वे क्या करते हैं? क्या केवल निष्क्रियता से इंतजार करते हैं? नहीं—वे देखते हैं कि ये वचन सत्य हैं, वे विश्वास करते हैं कि इन सभी वचनों का स्रोत परमेश्वर है और इस तरह इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि यह साधारण व्यक्ति मसीह है, बिना कुछ और विचार किए उसे अपना प्रभु और परमेश्वर स्वीकार करते हैं। दूसरी तरफ, मसीह-विरोधी यह नहीं देख सकते कि ये सभी वचन और ये सभी कार्य परमेश्वर से आते हैं, कि इस सारी कथनी और करनी का स्रोत परमेश्वर है, इसलिए वे इस साधारण व्यक्ति को अपने प्रभु और परमेश्वर के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। इसके बजाय, वे अपनी जाँच-पड़ताल तेज कर देते हैं और अपने दिलों में उसका प्रतिरोध करते हैं। वे क्या प्रतिरोध करते हैं? “तुम चाहे कितना ही बोल लो, तुम चाहे कितना ही महान कार्य कर लो, तुम्हारा स्रोत चाहे जो हो, जब तक तुम एक साधारण व्यक्ति हो, जब तक तुम्हारे बोलने का तरीका मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, जब तक तुम्हारी उपस्थिति इतनी भव्य न हो कि मुझे आकर्षक लगे और मेरा सम्मान अर्जित करे, तब तक मैं तुम्हारी जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करूँगा। तुम मेरी जाँच-पड़ताल का विषय हो; मैं तुम्हें अपना प्रभु, अपना परमेश्वर स्वीकार नहीं कर सकता हूँ।” इस जाँच-पड़ताल और विश्लेषण की इस प्रक्रिया में मसीह-विरोधी न केवल अपनी धारणाओं, विद्रोहीपन और भ्रष्ट स्वभावों को हल करने में विफल रहते हैं, बल्कि उनकी धारणाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती हैं और अधिक गंभीर होती जाती हैं। उदाहरण के लिए, जब कलीसिया में बाधा डालते और तबाही लाते हुए कोई अगुआ एक मसीह-विरोधी के रूप में बेनकाब होता है तो ऐसी घटना घटने पर मसीह-विरोधियों की पहली प्रतिक्रिया यह होती है : “क्या मसीह इसके बारे में जानता है? इस कलीसिया के अगुआ को किसने नियुक्त किया? इस बारे में मसीह की क्या प्रतिक्रिया है? वह इसे कैसे सँभाल रहा है? क्या मसीह इस व्यक्ति को जानता है? क्या मसीह ने पहले कभी कहा कि यह व्यक्ति एक मसीह-विरोधी है या इस घटना की भविष्यवाणी की? अब जब इस कलीसिया में इतना बड़ा मुद्दा उठ गया है तो क्या मसीह को सबसे पहले पता चला?” मैं कहता हूँ कि मैं नहीं जानता था, मुझे भी इसके बारे में अभी पता चला है। “यह ठीक नहीं है—तुम परमेश्वर हो, तुम मसीह हो; तुम क्यों नहीं जानते थे? तुम्हें जानना चाहिए था।” इसका बस यही कारण है कि मैं मसीह हूँ, एक साधारण व्यक्ति हूँ, इसलिए मुझे जानने की जरूरत नहीं है। लोगों को सँभालने के लिए कलीसिया के अपने प्रशासनिक आदेश और सिद्धांत हैं। जब मसीह-विरोधी सामने आते हैं तो उन्हें कलीसिया के सिद्धांतों के अनुसार हटाया और निष्कासित किया जा सकता है। यह दर्शाता है कि परमेश्वर में सामर्थ्य है, यह दर्शाता है कि सत्य में सामर्थ्य है। मुझे सब कुछ जानने की जरूरत नहीं है। अगर कलीसिया लोगों को सँभालने के अपने प्रशासनिक आदेशों और सिद्धांतों के अनुसार मामले निपटाने में विफल रहती है, तब मैं दखल दूँगा। अगर भाई-बहन लोगों को हटाने या निष्कासित करने के बारे में परमेश्वर के घर के सिद्धांतों को समझते हैं तो मुझे इसमें शामिल होने की जरूरत नहीं है। जहाँ सत्य की सत्ता चलती हो वहाँ मुझे दखल देने की जरूरत नहीं है। क्या यह बहुत सामान्य नहीं है? (हाँ।) लेकिन मसीह-विरोधी इस मामले में मुद्दा बना सकते हैं और धारणाएँ विकसित कर सकते हैं, यहाँ तक कि इन धारणाओं का इस्तेमाल मसीह को नकारने और इस तथ्य की निंदा करने के लिए कर सकते हैं कि मसीह के पास परमेश्वर का सार है। मसीह-विरोधी बिल्कुल यही करते हैं। चूँकि कोई चीज उनकी धारणाओं, कल्पनाओं या अपेक्षाओं से मेल नहीं खाती, इसलिए वे मसीह के सार को नकार सकते हैं। मसीह के हर एक पहलू की उनकी जाँच-पड़ताल इस निष्कर्ष पर पहुँचती है : वे मसीह में परमेश्वर का सार नहीं देखते हैं; इस प्रकार वे इस व्यक्ति को परमेश्वर के सार और पहचान वाले व्यक्ति के रूप में परिभाषित नहीं कर सकते हैं। यह एक ऐसी स्थिति की ओर ले जाता है जहाँ जब कुछ नहीं होता है तो यह ठीक होता है, लेकिन जैसे ही कुछ होता है तो मसीह-विरोधी सबसे पहले सामने कूदकर मसीह की पहचान को नकारते हैं और मसीह की निंदा करते हैं। तो फिर मसीह-विरोधियों का जाँच-पड़ताल करने का उद्देश्य क्या है? उनकी जाँच-पड़ताल और विश्लेषण का उद्देश्य सत्य को बेहतर ढंग से समझना नहीं, बल्कि सबूत खोजना और फायदा उठाना है, देह में परमेश्वर के देहधारण करने के तथ्य को नकारना है, इस तथ्य को नकारना है कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है वह मसीह है, परमेश्वर है। मसीह-विरोधियों द्वारा मसीह की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करने के पीछे यही उद्देश्य और लक्ष्य है।

मसीह का अनुसरण करते हुए और उसके अनुयायी होने का दिखावा करते हुए मसीह-विरोधियों का जाँच-पड़ताल और विश्लेषण का रवैया होता है और वे अंततः सत्य समझने या इस तथ्य का पता लगाने में असफल होते हैं कि मसीह प्रभु है, परमेश्वर है। लेकिन वे अभी भी इतनी बेदिली से, इतनी अनिच्छा से अनुसरण क्यों करते हैं और क्यों परमेश्वर के घर में रहते हैं? एक बिंदु जिस पर हमने पहले चर्चा की है यह है कि वे आशीष पाने का इरादा पालते हैं; वे महत्वाकांक्षी हैं। दूसरा बिंदु यह है कि मसीह-विरोधियों में एक ऐसी जिज्ञासा होती है जो साधारण लोगों में नहीं पाई जाती। किस तरह की जिज्ञासा? यह अजूबी और असामान्य घटनाओं के प्रति उनका आकर्षण है। मसीह-विरोधी संसार में होने वाली सभी अजूबी और असामान्य घटनाओं, प्रकृति के नियमों से परे होने वाली सभी घटनाओं के बारे में विशेष रूप से उत्सुक रहते हैं। उनमें कई चीजों को गहराई से जानने और उनकी तह तक जाने की चाहत होती है। इस जाँच का सार क्या है? यह सरासर अहंकार है, वे सब चीजों को समझना चाहते हैं, सभी चीजों के पीछे का सत्य जानना चाहते हैं, ताकि वे अक्षम न दिखें। मामला चाहे कोई भी हो, वे सबसे पहले जानना चाहते हैं, सबसे अधिक अवगत रहना चाहते हैं और इस मामले के सभी पहलुओं के बारे में सबसे बड़े जानकार होना चाहते हैं—वे हर लिहाज से “सबसे अव्वल” रहना चाहते हैं। इसलिए वे देह में परमेश्वर के देहधारण के मामले की अनदेखी नहीं करते या इसे चूकते नहीं हैं। वे कहते हैं, “परमेश्वर का देहधारण करना मानव जगत में सबसे बड़ा रहस्य है। इस महानतम रहस्य, इस सर्वाधिक अद्भुत चीज में आखिर चल क्या रहा है? चूँकि यह साधारण अपेक्षाओं से बढ़कर है और यह देह साधारण मनुष्यों से अलग है, तो अंतर कहाँ है? मुझे स्वयं देखना और समझना होगा।” जब वे कहते हैं कि “स्वयं देखेंगे और समझेंगे” तो उनका क्या मतलब होता है? उनका मतलब है, “मैंने दुनिया के विभिन्न देशों की यात्रा की है, प्रसिद्ध पर्वतों और ऐतिहासिक स्थलों पर गया हूँ, मशहूर और बुद्धिमान लोगों का साक्षात्कार लिया है; वे सब बिल्कुल साधारण लोग हैं। एकमात्र ऐसा व्यक्ति जिससे मैं नहीं मिला हूँ या उससे सीखा नहीं है, वह यही मसीह है। इस मसीह का सार वास्तव में क्या है? मुझे स्वयं देखना और समझना होगा।” वे वास्तव में क्या देखना और समझना चाहते हैं? “मैंने सुना है कि परमेश्वर संकेत और चमत्कार दिखा सकता है। कहा जाता है, यीशु प्रभु है, मसीह है; लोगों की जिज्ञासा को संतुष्ट करने के लिए उसने कौन-से संकेत और चमत्कार दिखाए? मुझे एक घटना याद है, जब प्रभु यीशु ने एक अंजीर के पेड़ को श्राप दिया तो वह मुरझा गया था। क्या यह मसीह अब वैसा ही कर सकता है? मुझे अवश्य ही देखना और समझना चाहिए, और अगर मुझे मौका मिले तो मसीह को परखना चाहिए कि क्या वह ऐसे कार्य कर सकता है। कहा जाता है कि देहधारी परमेश्वर के पास परमेश्वर का अधिकार है, जो पंगुओं को चलने में, अंधों को देखने में, बहरों को सुनने में और बीमारों को चंगा करने में सक्षम बनाता है। ये चमत्कारी और अद्भुत घटनाएँ हैं; मानव जगत में इन्हें असाधारण क्षमताएँ माना जाता है जो साधारण लोगों के पास नहीं होती हैं। यह कुछ ऐसा है जिसे मुझे स्वयं देखना होगा।” इसके अलावा एक और, सबसे महत्वपूर्ण मामला है जो उनके दिमाग में चलता रहता है। वे कहते हैं : “अतीत और वर्तमान जीवन और इस मानव संसार में पुनर्जन्म के चक्र में वास्तव में क्या होता है? साधारण लोग इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकते। चूँकि परमेश्वर देहधारी हो गया है और परमेश्वर हर चीज पर शासन करता है, तो क्या मसीह इसके बारे में जानता है? जब भी मौका मिलेगा, मैं उससे इस मामले के बारे में अवश्य पूछूँगा और जाँच करूँगा; मैं उससे अपने रूप की जाँच करवाऊँगा और देखूँगा कि क्या मेरा भाग्य अच्छा है, मैं अपने पिछले जीवन में क्या था, क्या मैं जानवर था या इंसान था। अगर वह ये बातें जानता है, तो मैं प्रभावित हो जाऊँगा; इससे वह असाधारण बन जाएगा, जो साधारण लोगों से परे और संभवतः मसीह होगा। वे यह भी कहते हैं कि स्वर्ग में परमेश्वर का सिंहासन और निवास स्थान है, तो क्या यह देहधारी परमेश्वर जानता है कि परमेश्वर का निवास और स्वर्ग का राज्य कहाँ है? ऐसा कहा जाता है कि स्वर्ग के राज्य की सड़कें सोने से मढ़ी हुई, दीप्तिमान और भव्य हैं; अगर यह देहधारी परमेश्वर हमें वहाँ सैर कराने ले जा सके, तो क्या हमारा पूरा जीवन सार्थक नहीं होगा, हमारा विश्वास व्यर्थ नहीं जाएगा? यही नहीं, हमें खेती करने की जरूरत नहीं होगी; भूख लगने पर मसीह एक वाक्य में पत्थरों को भोजन में बदल सकता है। पाँच रोटियों और दो मछलियों से उसने पाँच हजार लोगों का पेट भरा था; क्या यह हमारे लिए बहुत बड़ा लाभ नहीं होगा? और जब मसीह बोलता है तो उसके बारे में क्या? कहा जाता है कि मसीह जीवंत जल देता है, लेकिन यह जीवंत जल कहाँ है? इसकी आपूर्ति कैसे होती है, यह कैसे बहता है? ये सभी खोजे जाने लायक मामले हैं, हर एक बिल्कुल अद्भुत है। अगर मैं इनमें से एक को भी अपनी आँखों से देख सकूँ तो मैं इस जीवनकाल में सिर्फ एक साधारण व्यक्ति नहीं बनूँगा, बल्कि एक व्यापक ज्ञान और अनुभव वाला व्यक्ति बन जाऊँगा।” क्या यह जिज्ञासा उन पर हावी नहीं हो रही है? (बिल्कुल।)

कुछ लोग सत्य प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि मन में अन्य विचार लेकर परमेश्वर में विश्वास करने, मसीह को स्वीकार करने और मसीह का अनुसरण करने आते हैं। कुछ लोग मुझसे मिलते ही पूछते हैं, “प्रकाशितवाक्य में सात महाविनाशों और सात कटोरों का क्या मतलब है? सफेद घोड़ा क्या दर्शाता है? क्या साढ़े तीन साल वाला विनाश अभी आ गया है?” मैं कहता हूँ, “तुम किस बारे में पूछ रहे हो? प्रकाशितवाक्य क्या है?” वे प्रत्युत्तर देते हैं, “तुम प्रकाशितवाक्य के बारे में भी नहीं जानते? कहते हैं कि तुम परमेश्वर हो, लेकिन मैं उतना निश्चित नहीं हूँ।” अन्य लोग पूछते हैं, “सुसमाचार का प्रचार करने के दौरान हमारा सामना रहस्यमय मामलों के बारे में पूछने वाले लोगों से होता है। हमें क्या करना चाहिए?” मैं उनकी बात खत्म होने का इंतजार न कर कहता हूँ, “जो भी व्यक्ति सत्य खोजने के बजाय हमेशा रहस्यों के बारे में पूछता है, वह सत्य को स्वीकार करने वाला व्यक्ति नहीं होता; ऐसे लोगों को भविष्य में बचाया नहीं जा सकता। जो हमेशा रहस्य खोजते रहते हैं वे अच्छे लोग नहीं होते हैं; ऐसे लोगों में सुसमाचार का प्रचार मत करो।” मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? आखिरकार ये सवाल कौन पूछ रहा है? यह कोई और नहीं है; यह वे स्वयं हैं। वे इन प्रश्नों को पूछना चाहते हैं और उनका उत्तर जानना चाहते हैं, और वे सोचते हैं कि मुझे नहीं पता कि कौन पूछ रहा है, मानो मैं उनकी असलियत ही नहीं जानता! मेरे यह कहने के बाद वे इसे सुनते हैं और सोचते हैं, “परमेश्वर ने कहा है कि मैं किसी काम का नहीं हूँ, इसलिए मैं अब और नहीं पूछूँगा।” मेरा तरीका कैसा रहा? क्या इसने उनकी बोलती बंद नहीं करा दी? अगर मैं उन्हें उत्तर दे देता तो क्या यह उनकी चाल में फँसना नहीं होता? तब वे उँगली पकड़ने की छूट मिलने पर कलाई पकड़ना चाहेंगे और अंतहीन सवाल पूछेंगे। क्या उन्हें ये बातें समझाना मेरा दायित्व है? यह जानकर तुम करोगे भी क्या? अगर मुझे पता भी हो तो भी मैं तुम्हें नहीं बताऊँगा। मुझे तुम्हें यह क्यों बताना चाहिए? क्या मैं धर्मग्रंथों का व्याख्याता हूँ? क्या तुम यहाँ धर्मशास्त्रीय अध्ययन के लिए आए हो? तुम मेरी जाँच-पड़ताल के लिए आते हो, और क्या मुझे जाँच-पड़ताल के लिए अपना दिल खोलकर रख देना चाहिए? क्या यह उचित है? तुम मुझे परखने के लिए आते हो, तो क्या मुझे खुद को परखने देना चाहिए? क्या यह उचित है? तुम यहाँ सत्य स्वीकार करने के लिए नहीं आए हो; तुम शत्रुता, संदेह और पूछताछ का रवैया लेकर प्रश्न पूछने आए हो। मैं तुम्हें उत्तर नहीं दूँगा। कुछ लोग कहते हैं, “क्या किसी प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक नहीं है?” यह उस मामले पर निर्भर करता है। जब सत्य और कलीसिया के कार्य की बात हो तो मुझे भी स्थिति पर विचार करना पड़ता है। अगर मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ और तुम अभी भी न जानने का ढोंग करते हो, विनम्रता से पूछने का दिखावा करते हो, तो मैं तुम्हें उत्तर नहीं दूँगा। मैं तुम्हारी काट-छाँट करूँगा और उसके बाद तुम समझ जाओगे। मसीह-विरोधियों द्वारा मसीह की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करने के तरीके के परिप्रेक्ष्य से और मसीह और परमेश्वर के सार के बारे में उनकी जिज्ञासा के परिप्रेक्ष्य से, मसीह-विरोधी वास्तव में क्या जाँच-पड़ताल कर रहे हैं? वे सत्य की जाँच-पड़ताल कर रहे हैं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसे वे जाँच-पड़ताल और विश्लेषण का विषय मानते हैं और इसे समय बिताने का तरीका बना लेते हैं। वे परमेश्वर का अनुसरण इस तरह करते हैं, मानो वे ज्ञान के एक क्षेत्र या विषय का अध्ययन करने वाले विद्वान हों, ठीक उसी तरह जैसे धर्मशास्त्रीय विद्यालय में पढ़ने वाले छद्म-विश्वासी होते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर से प्रबोधन पा सकते हैं? क्या वे रोशनी पा सकते हैं? क्या वे सत्य को समझ सकते हैं? (नहीं।)

कलीसिया में कुछ ऐसे काम हैं जिनका पहले कभी सामना नहीं किया गया है और इनमें कुछ का संबंध पेशेवर कार्य से है। जब मैं ऐसे कार्य में मार्गदर्शन देता हूँ तो कुछ लोग ईमानदारी और नम्रता से सुनते हैं, उन कर्तव्यों को निभाने में जिन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए उन्हें समझते हैं, और उस सत्य वास्तविकता को समझते हैं जिसका अभ्यास और जिसमें प्रवेश किया जाना चाहिए। लेकिन कुछ लोग मन-ही-मन में जाँच-पड़ताल करते हुए अपने दिमाग मथ डालते हैं; वे सोचते हैं, “तुमने इन विषयों का अध्ययन नहीं किया है। इसके अलावा, क्या तुम वास्तव में इतने अधिक विषय सीख सकते हो? कौन सब कुछ समझ और जान सकता है? तुम किस आधार पर हमारा मार्गदर्शन करते हो? हमें तुम्हारी बात क्यों सुननी चाहिए? भले ही कभी-कभी हमारा मार्गदर्शन करते वक्त तुम जो कहते हो वह वास्तव में समझ में आता है, तुम इसे कैसे जानते हो? अगर मैं किसी चीज का अध्ययन नहीं करता तो मुझे उसके बारे में पता नहीं चलेगा। मुझे चिंतन-मनन करने, अधिक सीखने का प्रयास करने, अधिक देखने, अधिक सुनने और उस मुकाम तक पहुँचने का प्रयास करने की जरूरत होती है जहाँ मुझे तुम्हारे मार्गदर्शन की जरूरत न हो और मैं इसे स्वयं कर सकूँ। लगता है कि तुम भी कार्य करते-करते सीख रहे हो, धीरे-धीरे इसमें महारत हासिल कर रहे हो।” वे केवल बाहरी आकार-प्रकार देखते हैं, वे यह नहीं देखते कि एक लिहाज से यह व्यक्ति चाहे जो कुछ कहता या करता है, उसके पीछे कुछ सिद्धांत हैं—चाहे जिस किसी कार्य में मार्गदर्शन दिया जा रहा हो, यह सिद्धांत के अनुसार दिया जा रहा है, और यह सिद्धांत लोगों की असली जरूरतों और असली कार्य के वांछित नतीजों से संबंधित है। दूसरे लिहाज से, और यह सबसे महत्वपूर्ण बात है, इस व्यक्ति ने कुछ भी नहीं सीखा है; उसका ज्ञान, सीख, अंतर्दृष्टि और अनुभव उल्लेखनीय नहीं हैं। लेकिन लोगों को एक बात नहीं भूलनी चाहिए : भले ही उसकी अंतर्दृष्टि, ज्ञान, अनुभव और विशेषज्ञता समृद्ध या उल्लेखनीय हों या न हों, वर्तमान कार्य करने के लिए जिम्मेदार स्रोत यह बाहरी देह नहीं है, बल्कि इस देह का सार—यानी स्वयं परमेश्वर है। इसलिए अगर तुम इस देह के आकार-प्रकार—उसकी लंबाई और रूप-रंग, उसके लहजे, स्वर और बोलने के तरीके के आधार पर आकलन करते हो—तो तुम यह समझाने और थाह लेने में सक्षम नहीं होगे कि वह इन कार्यों को क्यों कर सकता है और इनमें सक्षम हो सकता है, तुम यह असलियत नहीं समझ पाओगे। क्या इसकी असलियत न समझ पाने का मतलब यह है कि यह एक हल न हो सकने वाला मामला है? नहीं, इसे हल किया जा सकता है। तुम्हें इसकी असलियत समझने की जरूरत नहीं है; तुम्हें बस एक बात जानने, याद रखने और मानने की जरूरत है : मसीह वह देह है जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है। मसीह के प्रति लोगों के जो सिद्धांत, रुख और रवैये होने चाहिए वे जाँच-पड़ताल, विश्लेषण करना या उनकी जिज्ञासा शांत करना नहीं हैं, बल्कि मान लेना, स्वीकार करना, सुनना और समर्पण करना है। अगर तुम जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हो तो क्या उससे अंततः तुम परमेश्वर का सार समझ जाओगे? नहीं समझ पाओगे। परमेश्वर किसी को भी उसका विश्लेषण करने या जाँच-पड़ताल करने की अनुमति नहीं देता है; जितना अधिक तुम जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हो, उतना ही अधिक परमेश्वर तुमसे छिपेगा। जब परमेश्वर छिपता है तो लोग क्या महसूस करते हैं? यही कि उनके दिल में परमेश्वर की अवधारणा अस्पष्ट हो जाती है, सत्य की उनकी अवधारणा अस्पष्ट हो जाती है और जिस मार्ग का उन्हें अनुसरण करना चाहिए उससे जुड़ी हर चीज धुँधला जाती है। यह ऐसी ही बात है जैसे कोई दीवार तुम्हारी दृष्टि को अवरुद्ध कर रही हो; तुम आगे कोई दिशा नहीं देख सकते, सब कुछ धुँधला है। परमेश्वर कहाँ है? परमेश्वर कौन है? क्या परमेश्वर का अस्तित्व वास्तव में है? ये प्रश्न तुम्हारे सामने खड़ी काली दीवार के समान हैं, जिसका मतलब है कि परमेश्वर अपना चेहरा तुमसे छिपा रहा है, ऐसा इसलिए कर रहा है कि तुम उसे देख न सको। ये सभी दर्शन तुम्हारे लिए अस्पष्ट हो जाते हैं, वे गायब हो जाते हैं और अंधियारा तुम्हारे दिल में भर जाता है। जब तुम्हारा दिल अंधकारमय हो जाता है तो क्या अभी भी तुम्हारे पास आगे का रास्ता होता है? क्या तुम अभी भी जानते हो कि क्या करना है? तुम नहीं जानते। तुम्हारी मूल दिशा और लक्ष्य चाहे कितने ही स्पष्ट रहे हों, जब तुम परमेश्वर की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हो, तो वे अस्पष्ट और अंधकारमय हो जाएँगे। जब लोग ऐसी स्थिति में, ऐसी दशा में पड़ते हैं, तो वे खतरे में होते हैं; यह उन लोगों के लिए होता है जो परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। मसीह-विरोधी हमेशा ऐसी स्थिति में होते हैं, जब उनके सामने घुप्प अँधेरा होता है तो वे यह पहचान नहीं पाते कि सकारात्मक चीजें क्या हैं, सत्य क्या है। परमेश्वर चाहे कुछ भी कर ले, वे यह पुष्टि नहीं कर पाते कि यह वास्तव में परमेश्वर है, कि यह स्वयं परमेश्वर है; वे चाहे जैसे भी देख लें, वे देहधारी को केवल एक व्यक्ति की तरह देखते हैं, क्योंकि वे हमेशा जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते रहते हैं, इसलिए परमेश्वर भी उन्हें अंधा करना जारी रखता है। तुम देखते हो कि उनकी आँखें खुली, चमकदार और बड़ी हैं, फिर भी वे अंधे ही हैं। जब परमेश्वर लोगों से अपना चेहरा छिपा लेता है, तो ऐसा लगता है कि उनके दिल निष्ठुर हो गए हैं, पूरी तरह अँधेरे में डूब गए हैं। वे केवल सतही घटनाओं को देखते हैं, भीतर के मार्ग को नहीं देख पाते, अंतर्निहित सत्य को नहीं समझ पाते—यही नहीं, वे परमेश्वर के सार या उसके स्वभाव को नहीं देख पाते हैं।

परमेश्वर के प्रकटन और कार्य को जाँच-पड़ताल और विश्लेषण का विषय बनाने से कोई नतीजा नहीं निकलेगा। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि विश्लेषण और जाँच-पड़ताल की स्थिति में न पड़ें; यह नकारात्मकता का मार्ग है। तो फिर सकारात्मक मार्ग क्या है? वह यही है कि जब एक बार तुम दृढ़ता से विश्वास करते हो कि यह परमेश्वर का कार्य है, कि यह साधारण व्यक्ति ही वह देह है जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है और इसमें परमेश्वर का सार है, तो तुम्हें बिना शर्त स्वीकार और समर्पण कर देना चाहिए। लोगों को लगता है कि इस देह में कई पहलू अप्रिय हैं, कई पहलू मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के विपरीत हैं; यह लोगों की एक समस्या है। परमेश्वर तो इसी तरह कार्य करता है, और जिस चीज को बदलने की जरूरत है वह है लोगों की धारणाएँ, उनके भ्रष्ट स्वभाव और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये, न कि वह देह जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है। लोगों को यहाँ सत्य खोजने, परमेश्वर के इरादे खोजने और अपने उचित परिप्रेक्ष्यों और रुख को अपनाने की जरूरत है, न कि उसे परमेश्वर के रूप में मानकर भी उसकी जाँच-पड़ताल या विश्लेषण और वह जो कुछ करता और कहता है उसकी चर्चा करने की। यह एक बड़ी समस्या हो जाएगी। जब सत्य को स्वीकार करने का तुम्हारा रुख और कोण गलत होता है, तो तुम्हारे हर चीज को देखने के तरीके का परिणाम बदल जाएगा, जिससे तुम्हारे अनुसरण का मार्ग और दिशा प्रभावित हो जाएगी। परमेश्वर जो कुछ भी करता या कहता है, वह मानवीय धारणाओं के साथ उपयुक्त बैठता है या नहीं, यह केवल एक अस्थायी मसला है। परमेश्वर मानवजाति के लिए जो कुछ करता है उस सबका योगदान और मूल्य, इससे मानव जीवन को जो अहमियत मिलती है, वो शाश्वत है। उन्हें कोई भी व्यक्ति, कोई भी शैक्षिक विषय, कोई तर्क या सिद्धांत या कोई प्रवृत्ति नहीं बदल सकती। यही सत्य का मूल्य है। हो सकता है कि वर्तमान में इस साधारण व्यक्ति के वचन और कार्य तुम्हारी जिज्ञासा या तुम्हारे दंभ को संतुष्ट न कर पाएँ, न वे तुम्हें पूरी तरह आश्वस्त कर पाएँ या न हृदय और वाणी से जीत पाएँ; लेकिन वह आज जो भी वचन बोलता है और वह इस युग में और इस अवधि के दौरान जो भी कार्य करता है, उन सबका संपूर्ण मानवजाति, संपूर्ण युग और परमेश्वर की समग्र प्रबंधन योजना के प्रति योगदान सदा के लिए अपरिवर्तनीय है—यह एक तथ्य है। इसलिए एक दिन तुम्हें एहसास होगा : “बीस-तीस साल पहले मैंने इस साधारण व्यक्ति के एक अमुक कथन की जाँच-पड़ताल की, गलत व्याख्या की, इसका विरोध किया और यहाँ तक कि इसका आकलन किया और निंदा भी की। बीस-तीस साल बाद जब मैं उस कथन पर दोबारा गौर करता हूँ तो मेरा हृदय ऋणी होने की भावना और आत्म-ग्लानि से भर गया है।” भ्रष्ट मनुष्य परमेश्वर के सामने तुच्छ और महत्वहीन होते हैं, वे हमेशा के लिए दुधमुँहे शिशु हैं, नाचीज हैं। कोई व्यक्ति चाहे कितना ही काम कर ले, इसकी तुलना अगर किसी भी काल और किसी भी संदर्भ में परमेश्वर के कहे हर वचन का संपूर्ण मानवजाति के लिए योगदान से की जाए तो यह अंतर स्वर्ग और पृथ्वी के समान है! इसलिए तुम्हें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर लोगों के लिए जाँच-पड़ताल, विश्लेषण और संदेह की वस्तु नहीं है। परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है उनका उद्देश्य लोगों की जिज्ञासा को संतुष्ट करना नहीं है। वह यह सब कार्य समय बिताने के लिए या दिन काटने के लिए नहीं करता है—उसका इरादा एक युग के लोगों को बचाना है, संपूर्ण मानवजाति को बचाना है और वह जिस कार्य को पूरा करना चाहता है, उसके नतीजे हमेशा कायम रहेंगे। मसीह-विरोधी जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करने, अपनी जिज्ञासा को संतुष्ट करने के लिए मसीह को एक साधारण व्यक्ति मानते हैं। इसकी प्रकृति क्या है? क्या इसे समझा या माफ किया जा सकता है? वे सभी युगों के लिए पापी हैं, शापित और सदैव अक्षम्य हैं! अगर किसी व्यक्ति में मानवता है, वह सत्य समझता है और उसमें सत्य वास्तविकता है तो उसकी जाँच-पड़ताल करना भी काफी घृणित है। मसीह को एक साधारण व्यक्ति मानकर आंतरिक रूप से उसकी जाँच-पड़ताल करते हुए, वह जो कुछ भी करता है उसके प्रति शत्रुता और बदनामी का व्यवहार करते हुए और वह जो वचन कहता है उनके बारे में केवल अपनी जिज्ञासा पूरी करने की कोशिश करते हुए कुछ लोग तो मुझे देखकर कहते हैं, “थोड़े और अधिक सत्य पर संगति करो, तीसरे स्वर्ग की भाषा के बारे में और अधिक संगति करो, ऐसी और अधिक चीजें बताओ जिन्हें हम नहीं जानते”—वे इस व्यक्ति को क्या समझते हैं? उनकी बोरियत को दूर करने वाला कोई? परमेश्वर इस मामले को कैसे निरूपित करता है? क्या यह परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा नहीं है? अगर यह लोगों को लक्ष्य कर कहा जाए तो यह मजाक उड़ाना या उपहास कहा जाता है; अगर यह परमेश्वर को लक्ष्य कर कहा जाए तो यह ईशनिंदा है।

इस अभिव्यक्ति की विषयवस्तु के भीतर—जाँच-पड़ताल, विश्लेषण और जिज्ञासा—मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार स्वयं को दुष्टता के रूप में, सत्य से विमुख होने के रूप में प्रकट करता है। वे सभी सकारात्मक चीजों की उपेक्षा करते हैं; वे उनका तिरस्कार करते हैं और उनके साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं, यहाँ तक कि उस देह को भी नहीं बख्शते जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है। उन्हें हर मामले में अपनी जिज्ञासा शांत करने की जरूरत पड़ती है, वे हर चीज को अपनी जाँच-पड़ताल के अधीन करते हुए निष्कर्ष निकालना चाहते हैं और हर चीज की तह में जाना चाहते हैं, पता लगाना चाहते हैं कि क्या हो रहा है, ताकि वे जानकार और बुद्धिमान दिखें। यह मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है। हर चीज की जाँच-पड़ताल करने के अभ्यस्त हो जाने के बाद वे अपनी जाँच-पड़ताल की सुई परमेश्वर की ओर मोड़ देते हैं। और इससे उन्हें क्या मिलता है? पूर्णता और उद्धार? नहीं, यह उनके लिए केवल तबाही और विनाश लाता है! मसीह-विरोधियों को इसी तरह से निरूपित किया जाता है। वे शापित और निंदनीय हैं। परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है उसे स्वीकार करने और देखने के लिए वे कभी भी अनुयायियों या सृजित प्राणियों का रुख नहीं अपनाते; बल्कि वे एक विद्वान के, सब कुछ जानने वाले के, जिज्ञासा से भरे व्यक्ति और एक ऐसे अहंकारी व्यक्ति के रुख और दृष्टिकोण से उसे समझते हैं और उसके पास जाते हैं जो सत्य को समझने में अक्षम और सकारात्मक चीजों का तिरस्कार करता है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को बचाया नहीं जा सकता है।

6 जून 2020

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