मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग एक) खंड चार

ग. परमेश्वर की पवित्रता और विशिष्टता का तिरस्कार करना

मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के स्वभाव सार में धार्मिकता और सर्वशक्तिमत्ता को लेशमात्र भी नहीं मानते हैं और न ही इसमें विश्वास करते हैं, इनके बारे में कोई ज्ञान तो उन्हें बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर की पवित्रता और विशिष्टता में विश्वास करना, इसे मानना और जानना तो उनके लिए यकीनन और भी कठिन है। इसलिए परमेश्वर जब यह चाहने की बात कहता है कि लोग ईमानदार हों, कि वे ऐसे व्यावहारिक सृजित प्राणी हों जो अपने स्थान पर कायम रहें तो मसीह-विरोधियों के मन में ख्याल उठने लगते हैं और उनमें एक मनोवृत्ति और भावना आ जाती है। वे कहते हैं : “क्या परमेश्वर उच्च नहीं है? क्या वह सर्वोच्च नहीं है? अगर ऐसा है तो वह मनुष्य से जो अपेक्षाएँ करता है वे भी भव्य और उच्च होनी चाहिए। मुझे लगता था कि परमेश्वर बहुत रहस्यमय है; मैंने नहीं सोचा था कि वह इंसान से ऐसी तुच्छ माँगें करेगा। क्या इन्हें सत्य माना जा सकता है? ये तो बहुत ही साधारण हैं! परमेश्वर की अपेक्षाएँ ऊँची होनी चाहिए : व्यक्ति को अलौकिक होना चाहिए, महान होना चाहिए, सक्षम होना चाहिए—परमेश्वर को इंसान से यही करने की अपेक्षा रखनी चाहिए। वह चाहता है कि व्यक्ति ईमानदार हो—क्या यह वाकई परमेश्वर का कार्य है? क्या यह नकली नहीं है?” अपने दिलों की गहराइयों में मसीह-विरोधी न सिर्फ सत्य का प्रतिरोध करते हैं—जैसा कि वे करते ही हैं, वे ईशनिंदा भी करते हैं। क्या यह उनका सत्य का तिरस्कार करना नहीं है? वे परमेश्वर की माँगों के प्रति अवमानना और तिरस्कार से भरे हुए हैं; वे इन माँगों को तिरस्कार, उपेक्षा, व्यंग्य और उपहास के रवैये के साथ परिभाषित करते हैं और इसी रवैये के साथ इनसे पेश आते हैं। स्पष्ट है कि मसीह-विरोधी अपने स्वभाव सार में नीच होते हैं; वे उन चीजों या शब्दों को स्वीकार नहीं पाते जो सच्ची, सुंदर और व्यावहारिक हैं। परमेश्वर का सार सच्चा और व्यावहारिक है और लोगों से उसकी अपेक्षाएँ लोगों की जरूरतों के अनुरूप हैं। जैसा कि मसीह-विरोधी लोग कहते हैं “भव्य और उदात्त”—वह क्या है? यह झूठा, आडंबरपूर्ण और खोखला है; यह लोगों को भ्रष्ट और गुमराह करता है; यह उन्हें गिराता है और परमेश्वर से बहुत दूर ले जाता है। दूसरी ओर परमेश्वर का जीवन और उसके द्वारा व्यक्त सत्य विश्वसनीय, प्यारे और व्यावहारिक हैं। एक बार व्यक्ति जब कुछ देर के लिए परमेश्वर के वचनों का अनुभव कर लेता है तो वह जान लेगा कि अकेला परमेश्वर का जीवन ही सबसे प्यारा है, कि अकेले उसके वचन ही लोगों को बदल सकते हैं और उनका जीवन बन सकते हैं और यही लोगों की जरूरत हैं—जबकि शैतान और मसीह-विरोधी लोग जो भव्य और उदात्त विचार और कहावतें पेश करते हैं वे परमेश्वर की मनुष्य से अपेक्षाओं की सच्चाई और व्यावहारिकता के बिल्कुल उलट हैं। इसलिए मसीह-विरोधी लोग अपने ऐसे सार के आधार पर परमेश्वर की पवित्रता और विशिष्टता को स्वीकार करने में पूरी तरह असमर्थ रहते हैं। वे कतई किसी सूरत में इन चीजों को नहीं मानेंगे। जहाँ तक परमेश्वर द्वारा लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार के विभिन्न पहलू—उनकी हठधर्मिता और अहंकार, उनके कपटीपन, दुष्टता, सत्य के प्रति विमुख होने और क्रूरता के स्वभाव—उजागर करने की बात है, मसीह-विरोधी लोग इन्हें भी बिल्कुल नहीं स्वीकारते। और, जहाँ तक परमेश्वर द्वारा लोगों का न्याय करने और उन्हें कठोर फटकार लगाने की बात है, मसीह-विरोधी लोग इनमें न सिर्फ परमेश्वर की पवित्रता और मनोहरता नहीं जान पाते—बल्कि, वे दिल से उन वचनों से विमुख रहते हैं जो परमेश्वर सुनाता है और उनका प्रतिरोध करते हैं। जब भी वे ताड़ना, न्याय और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो उनसे घृणा करते हैं और इन्हें कोसना चाहते हैं। अगर कोई यह कहता है कि वे अहंकारी, हठधर्मी, दुष्ट और सत्य से विमुख इंसान हैं तो वे उस व्यक्ति से बहस कर उसके पुरखों को गालियाँ देंगे; और अगर कोई उनके भ्रष्ट सार का खुलासा कर उनकी निंदा करता है तो उन्हें लगता है कि मानो वह व्यक्ति उनकी जान लेना चाहता था—वे इसे कतई स्वीकार नहीं करते। इसका कारण यह है कि मसीह-विरोधियों का ऐसा सार होता है और वे ऐसी चीजें प्रकट करते हैं जिससे वे अनजाने में ही पहचान लिए जाते हैं, और परमेश्वर के घर और कलीसिया में अनजाने में ही वे अलग-थलग और बेनकाब कर दिए जाते हैं। उनकी महत्वाकांक्षा और इच्छा अक्सर पूरी नहीं होती, इसलिए उनके मन में परमेश्वर के वचनों के प्रति, उसके अस्तित्व के प्रति और इस वाक्यांश के प्रति घृणा बढ़ जाती है कि “परमेश्वर के घर में सत्य का शासन होता है।” अगर तुम यह वाक्यांश उन्हें सुनाओगे तो वे तुम्हारे साथ मरने-मारने पर उतर आएँगे और तुम्हें सताकर मार डालना चाहेंगे। क्या यह अपने आप में यह नहीं दिखाता कि मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के प्रति शत्रुवत हैं? वास्तव में, यह दिखाता है! अगर किसी व्यक्ति ने यह कह दिया कि “परमेश्वर विशिष्ट है; मनुष्य उसके अलावा न किसी व्यक्ति की आराधना कर सकता है, न ही किसी मूर्ति की” तो क्या कोई मसीह-विरोधी यह सुनने के लिए तैयार होगा? (नहीं।) क्यों नहीं? ये शब्द मसीह-विरोधियों की निंदा करते हैं, है ना? क्या ये शब्द उन्हें परमेश्वर होने के अधिकार से वंचित नहीं कर देते? यह उम्मीद मिट जाने पर क्या वे परमेश्वर होने के अधिकार के बिना खुश होंगे? (नहीं।) इसीलिए अगर तुमने उन्हें उजागर कर दिया, उनकी पद-प्रतिष्ठा को इस तरह मिट्टी में मिला दिया कि कोई उनकी आराधना करने वाला न हो, उन्हें इस लायक नहीं छोड़ा कि वे लोगों को अपना बना सकें, उनके पास रुतबा न रहे तो वे तुम्हें सताने के लिए अपने विद्वेषपूर्ण, राक्षसी पंजों के साथ तुम तक पहुँच जाएँगे। जब कलीसिया में चीजें घटित होती हैं और कोई व्यक्ति उनके बारे में ऊपरवाले को सूचित करना चाहता है, तब अगर कलीसिया का अगुआ मसीह-विरोधी हुआ तो क्या वह सूचित करने देगा? वह ऐसा नहीं करने देगा। वह कहेगा, “अगर तुम यह सूचना देना चाहते हो तो इसके नतीजे खुद झेलना! अगर ऊपरवाला हमारी काट-छाँट करता है और हमारी कलीसिया से लोगों को बाहर निकाल देता है, मैं यह सुनिश्चित करूँगा कि तुम्हें पछताना पड़े—मैं हर किसी को तुम्हारा साथ छोड़ने को कहूँगा। तब तुम महसूस करोगे कि बाहर निकाले जाने पर कैसा लगता है!” क्या यह बात सूचना देने जा रहे व्यक्ति को डराती-धमकाती नहीं है? मसीह-विरोधी कहता है, “परमेश्वर विशिष्ट है, है ना? ठीक है; मैं भी विशिष्ट हूँ। मैं जो कहता हूँ, वही हमारी कलीसिया में होता है। तुम जो कुछ भी करना चाहते हो, वह मेरी नजरों से होकर गुजरना चाहिए—और तुम मुझे लाँघकर नहीं जा सकते। क्या तुम मुझे लाँघकर जाना चाहते हो? ऐसा तुम्हें मेरी लाश के ऊपर से करना होगा! हमारी कलीसिया में मेरा शासन है; मैं जो कहता हूँ, यहाँ वही होता है। मैं ही सत्य हूँ—मैं ही विशिष्ट हूँ!” क्या यह एक दानव प्रकट नहीं हो गया? बिल्कुल—यह दानवी चेहरा बेनकाब हुआ है, ये दानवी शब्द बोले गए हैं।

जहाँ तक यह बात है कि मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के सार से कैसे पेश आते हैं, तो वे अविश्वास और संदेहों से शुरू कर सही समय आने का इंतजार और परीक्षण करते हैं, और आखिर में आलोचना और ईशनिंदा करने लगते हैं। यह उन्हें कदम-दर-कदम एक दलदल में, एक अगाध गर्त में ले जाता है, यह उन्हें परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसका दुश्मन बनने की राह की ओर ले जाता है, उसके साथ पूरी तरह अनबन और उसके खिलाफ अंत तक शोर मचाने की राह पर ले जाता है, जहाँ से कोई वापसी नहीं है। वे परमेश्वर के सार के अस्तित्व को मानने में ही नाकाम नहीं होते—बल्कि, उनके मन में परमेश्वर के सार के हर पहलू को लेकर तमाम तरह की धारणाएँ उत्पन्न होने लगती हैं, जिनसे वे अपने आसपास के लोगों और अपने संपर्क में आने वाले लोगों को गुमराह करते हैं। उनका लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने जैसा बनाना है जो परमेश्वर के अस्तित्व और उसके सार के अस्तित्व पर संदेह करें। जब वे मरते हैं तो वे दूसरों को भी अपने साथ नीचे ले जाते हैं। अपने आप बुरी चीजें कर लेना उनके लिए काफी नहीं होता—वे अपना साथ देने के लिए दूसरों को खोजना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि ये लोग उनके साथ-साथ बुरी चीजें करें, उनके साथ परमेश्वर का प्रतिरोध और परमेश्वर के घर का कार्य बाधित करें और उनके साथ परमेश्वर पर संदेह करें और उसे नकारें। परमेश्वर के सार के हर पहलू को लेकर मसीह-विरोधी लोग धारणाओं और कल्पनाओं से भरे रहते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं है कि परमेश्वर जो कुछ करता है उससे वे परमेश्वर के सार को नहीं जान पाते—बल्कि वे परमेश्वर के सार का कड़ाई से विश्लेषण, अध्ययन, परीक्षण करते हैं और इसके बारे में अपने फैसले सुनाते हैं, और तो और गुपचुप ढंग से परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करते हुए कहते हैं : “क्या तुम विशिष्ट नहीं हो? क्या तुम वो परमेश्वर नहीं हो जो मानवजाति की नियति का संप्रभु है? जो लोग तुममें विश्वास करते हैं उनके साथ तुम ऐसी चीजें कैसे होने दे सकते हो? अगर तुम विशिष्ट परमेश्वर हो तो तुम्हें किसी भी दुश्मन ताकत को अपने कार्यस्थान में नहीं घुसने देना चाहिए।” ये कैसी बातें हैं? कलीसिया में जब कभी कोई चीज होती है तो एक मसीह-विरोधी ही ऐसा पहला व्यक्ति होगा जो खड़े होकर कमजोर करने वाली चीजें, नकारात्मक और आलोचनापरक शब्द बोलेगा। वह पहला व्यक्ति होगा जो परमेश्वर से बहस करेगा, उसका विरोध करेगा और यह माँग करेगा कि परमेश्वर यह करे या वो करे। खासकर यही वह दौर होता है जब परमेश्वर का घर ऐसी कठिनाइयों या मुश्किल समस्याओं का सामना करता है जिनसे मसीह-विरोधी लोग खुश होते हैं। यही वह दौर होता है जब ऐसे लोग सबसे खुश और सबसे मुदित होते हैं, जब वे खुशी के मारे फूले नहीं समाते। वे न सिर्फ परमेश्वर के घर के हितों को कायम नहीं रख पाते—बल्कि, वे तमाशबीन बनकर देखते रहते हैं, और हँसते रहते हैं, उत्सुक होकर यह इंतजार करते हैं कि परमेश्वर के घर में विद्रोह सिर उठाए, कि उसके चुने हुए लोगों को पकड़ लिया जाए और तितर-बितर कर दिया जाए, और उसके घर का कार्य आगे तरक्की न कर पाए। वे उतने ही खुश होते हैं जितने नए साल की संध्या के जश्न पर होते हैं। और हर बार जब परमेश्वर के घर में होने वाली चीज का निपटारा और समाधान हो जाता है, जब भाई-बहन इससे सबक सीख चुके होते हैं तो तब मसीह-विरोधियों को “सजा का आदेश” सुनाया जाएगा। यही वह समय भी होता है जब मसीह-विरोधी सबसे मायूस, दुखी और निराश होते हैं। वे भाई-बहनों को अच्छा करते हुए या परमेश्वर के अनुयायियों को आस्था रखते हुए और उसका अनुसरण करते समय उन्हें आत्मविश्वास से ओतप्रोत होते देखना सह नहीं सकते; वे यह देखना भी सहन नहीं कर पाते कि भाई-बहन परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में अपने स्वभाव बदल रहे हैं और निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य निभा रहे हैं और परमेश्वर का कार्य उत्तरोत्तर बेहतर होता जा रहा है। वे यह देखना सहन नहीं करते कि कलीसिया फल-फूल रही है या परमेश्वर की प्रबंधन योजना एक अच्छी दिशा में धीरे-धीरे विकसित हो रही है—और वे इससे तो और भी ज्यादा घृणा करते हैं कि लोग हमेशा परमेश्वर के वचनों का प्रचार कर रहे हैं, उसके लिए गवाही दे रहे हैं, और उसकी मनोहरता और उसके धार्मिक स्वभाव की प्रशंसा कर रहे हैं। और उससे भी ज्यादा घृणा उन्हें तब होती है जब लोग अपने साथ कुछ भी होने पर परमेश्वर को खोजते हैं, उससे प्रार्थना करते हैं और उसके वचन खोजते हैं और उसके प्रति समर्पण कर उसके आयोजन का अनुपालन करते हैं। हालाँकि मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के घर में खाते हैं, परमेश्वर के वचनों का आनंद लेते हैं और उसके घर के सभी फायदे उठाते हैं, फिर भी वे अक्सर चाहते हैं कि उन्हें परमेश्वर के घर का मखौल उड़ाने का मौका मिले। वे बेसब्री से इस ताक में बैठे हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले सभी लोग बिखर जाएँ और परमेश्वर का कार्य आगे तरक्की करने लायक न रहे। इसलिए जब परमेश्वर के घर में कुछ होता है तो इसकी रक्षा करने की बजाय या समस्या हल करने के तरीके सोचने या अपनी पूरी ताकत से भाई-बहनों की रक्षा करने या उनके साथ मिल-जुलकर समस्या का हल करने या एक साथ मिलकर परमेश्वर के समक्ष आने और उसकी संप्रभुता के प्रति समर्पण करने की बजाय मसीह-विरोधी लोग तमाशबीन बने रहेंगे, हँसते रहेंगे, खराब सलाह देंगे, विध्वंस करेंगे और बाधा डालते रहेंगे। किसी महत्वपूर्ण क्षण में तो वे परमेश्वर के घर की कीमत पर बाहरी लोगों को मदद की पेशकश भी कर देंगे, इस प्रकार वे शैतान के सेवकों के रूप में पेश आते हैं और जानबूझकर बाधा डालकर चीजों का विध्वंश करते हैं। क्या ऐसा इंसान परमेश्वर का दुश्मन नहीं होता है? जितना ज्यादा महत्वपूर्ण क्षण होगा, उतने ही ज्यादा स्पष्ट रूप से उनका दानवी स्वरूप उजागर होता है; जितना अधिक महत्वपूर्ण क्षण होगा, उतना ही अधिक यह घटनापूर्ण होगा, और उतनी ही ज्यादा उनकी दानवी समानता अपनी पूरी गहराई और सीमा तक उजागर होगी; जितना अधिक महत्वपूर्ण क्षण होगा, वे परमेश्वर के घर की कीमत पर बाहरी लोगों की उतनी ही अधिक मदद करेंगे। ये लोग किस तरह की चीज हैं? क्या ऐसे लोग भाई-बहन हैं? ये विनाशकारी, घृणित कार्य करने वाले लोग हैं; ये परमेश्वर के दुश्मन हैं; ये दानव हैं, शैतान हैं; ये बुरे लोग हैं, मसीह-विरोधी हैं। ये भाई-बहन नहीं हैं और ये उद्धार के पात्र नहीं हैं। अगर ये वास्तव में भाई-बहन होते, परमेश्वर के घर के लोग होते तो उसके घर में कोई भी समस्या आने पर ये अपने भाई-बहनों के साथ दिल और दिमाग से एक होकर उसका सामना करते और एक साथ मिलकर इसे सँभालते। वे तमाशबीन बनकर खड़े नहीं रहते और न ही वे इसे देखकर हँसते रहते। ऐसी स्थिति में केवल मसीह-विरोधी जैसे लोग ही होंगे जो तमाशबीन बनकर हँसते रहेंगे और परमेश्वर के घर में बुरी चीजें घटने का बेसब्री से इंतजार करेंगे।

मसीह-विरोधियों का सार हर किसी मामले में उजागर हो सकता है। यह कतई नहीं छिपाया जा सकता है। मसीह-विरोधी कुछ भी कर रहे हों, मसला कोई भी हो, वे जो सारे विचार और स्वभाव प्रकट करते हैं वे मनुष्य और परमेश्वर के प्रति अत्यंत घृणित होते हैं। वे न केवल उन तमाम तरह की चीजों में जो सामने आती हैं, विनाश, गड़बड़ी और बाधा पैदा करते हैं और तमाशबीन बनकर हँसते रहते हैं—बल्कि वे अक्सर परमेश्वर से टकराव भी लेते हैं और उसकी परीक्षा भी लेते हैं। परमेश्वर की परीक्षा लेना, इसका क्या अर्थ है? (वे दिल से परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और वे उसके विचार परखने के लिए कुछ बातें कहते हैं या कुछ तरकीबें अपनाते हैं, यह समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर यह क्या है।) तुम देखते हो कि ऐसा बहुत होता है। अय्यूब के मामले में शैतान ने परमेश्वर की परीक्षा कैसे ली? (शैतान जब पहली बार बोला तो उसने कहा कि अगर परमेश्वर ने अय्यूब के घर और उसकी संपत्ति को छीन लिया तो वह अब और परमेश्वर की आराधना नहीं करेगा; दूसरी बार में उसने कहा कि अगर परमेश्वर ने अय्यूब के हाड़-मांस को नुकसान पहुँचाया तो वह परमेश्वर को नकार देगा। शैतान चाहता था कि अय्यूब पर आपदाएँ लाकर परमेश्वर की परीक्षा ली जाए।) क्या यह परीक्षा है? क्या यह इस शब्द की सटीक परिभाषा है? (नहीं।) सख्ती से कहें तो इन परिच्छेदों का आशय एक लांछन से है। ये बातें कहने के पीछे शैतान का मतलब यह था, “क्या तुम्हीं ने नहीं कहा कि अय्यूब एक पूर्ण व्यक्ति है? तुमने उसे जो तमाम अच्छी चीजें दी हैं, उनके कारण यह कैसे हो सकता है कि वह तुम्हारी आराधना न करे? अगर तुम उससे वे अच्छी चीजें छीन लो तो क्या तुम्हें लगता है कि तब भी वह तुम्हारी आराधना करेगा?” यह एक लांछन है। तो फिर परीक्षा किस तरह की चीज को कहते हैं? शैतान ने लुटेरों से अय्यूब की संपत्ति लूटने-खसोटने को कहा। यह अय्यूब के लिए एक परीक्षा थी। यह परीक्षा कैसे है? इस तरह से : “क्या तुम्हें परमेश्वर में विश्वास नहीं है? अगर मैं तुमसे ये चीजें छीन लूँगा, तो देखते हैं कि तब भी तुम उसमें विश्वास रखते हो या नहीं!” लेकिन अय्यूब ने इसे किस रूप में समझा? इसे परमेश्वर से आई एक परीक्षा मानते हुए वह न तो लड़ा-भिड़ा, न ही उसने कुछ कहा—उसने समर्पण किया और इसे परमेश्वर से स्वीकार किया। प्रभु यीशु के साथ भी कुछ चीजें घटीं : शैतान का उसे पत्थरों को रोटी में बदलवाना, उसे संसार का सारा यश और वैभव दिखाना और उससे सिर झुकाकर अपनी आराधना करवाना। वे प्रलोभन थे। अब परमेश्वर की परीक्षा के रूप में मसीह-विरोधी लोग कौन-सी चीजें करते हैं? (मसीह-विरोधियों के पास परमेश्वर का भय मानने वाले दिल नहीं होते। वे जानते हुए भी बुराई करते हैं; वे यह देखने के लिए परमेश्वर की परीक्षा लेना चाहते हैं कि क्या वह उन्हें दंड देगा कि नहीं। चूँकि वे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव में विश्वास नहीं करते, इसलिए जब वे बुराई करते हैं तो उनमें जमीर की जागरूकता नहीं होती है।) यह एक परीक्षा है। वे इस मानसिकता के साथ इसमें उतरते हैं कि चलो इसे आजमाकर देख लेते हैं; वे यह देखना चाहते हैं कि आखिर परमेश्वर क्या करेगा : “क्या परमेश्वर प्रतापी और क्रोधी नहीं है? मैं कलीसिया पर अत्याचार कर रहा हूँ। मैंने परमेश्वर और इंसान के पीठ पीछे इतनी सारी बुरी चीजें की हैं—क्या परमेश्वर इस बारे में जानता है या नहीं? अगर मेरे मन में कोई दुख नहीं है और मैं कोई दैहिक दंड नहीं भोगता तो इसका मतलब है कि परमेश्वर नहीं जानता है।” वे छोटी-छोटी कोशिशें करके यह परखते रहते हैं कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है या नहीं, वह लोगों के अंतस्थल को गौर से देखता है या नहीं। इन्हें ही परीक्षाएँ कहते हैं। वे मामले की सत्यता की पुष्टि करना चाहते हैं, यह परखना चाहते हैं कि क्या परमेश्वर वास्तव में कार्रवाई करेगा और क्या वास्तव में उसका अस्तित्व है। यही परीक्षाएँ हैं।

एक बार चीन की मुख्य भूमि पर एक मसीह-विरोधी ने लोगों के एक समूह को गुमराह कर दिया। उसने परमेश्वर के घर को विदेशों में भजन-मंडली बनाकर भजन गाते देखा तो सोचा, “अगर तुम लोग विदेशों में भजन-मंडली बना सकते हो तो हम यहाँ भी बना सकते हैं।” इसलिए वह विभिन्न स्थानों से लोगों को जुटाकर भजन-मंडली में गाने के लिए ले आया। उन्हें सुनने के लिए उसने बड़ी संख्या में श्रोता भी जुटाए; यह खूब मंजर था। उसने ऐसा क्यों किया? एक लिहाज से वह एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर रहा था, जिसे विस्तार से समझाने की जरूरत नहीं है। दूसरे लिहाज से उसका आशय यह था, “हम जिस परमेश्वर में विश्वास करते हैं वह सच्चा परमेश्वर है, और हमारे पास पवित्र आत्मा का कार्य है। भले ही हम एक प्रतिकूल परिवेश में हों जहाँ बड़ा लाल अजगर हमारा उत्पीड़न कर रहा है और हमें बारीक और कड़ी निगरानी में रख रहा है, फिर भी चलो हम लोगों को दिखाएँ कि परमेश्वर हमारी सुरक्षा करता है या नहीं। चलो हम यह देखें कि क्या हमारे साथ कुछ हो सकता है; चलो हम यह देखें कि क्या हम गिरफ्तार होते हैं।” यह कैसी मानसिकता है? (परीक्षा लेने वाली मानसिकता।) यह परीक्षा लेना है—यह ऐसे विश्वास के झंडे फहराना और ऐसे जुमले इस्तेमाल करना है जैसे कि यह विश्वास करना कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है जिससे यह परखा जा सके कि परमेश्वर वास्तव में क्या करेगा, उसके साथ शर्त लगाई जा सके और उससे प्रतिस्पर्धा की जा सके। इसे “परीक्षा लेना” कहा जाता है। जैसे कुछ लोगों से जब दूसरे लोग कहते हैं कि “तुम यह मत खाओ; इससे पेट खराब हो जाएगा” तो वे कहते हैं, “मुझे तुम्हारी बात पर यकीन नहीं है, मैं इसे खाऊँगा! देखते हैं कि परमेश्वर मेरा पेट खराब करता है कि नहीं।” इसलिए वे इसे खाते हैं और वास्तव में इससे उनका पेट खराब हो जाता है। वे मन-ही-मन सोचते हैं, “परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की? इसने दूसरे लोगों का पेट खराब किया लेकिन इसका कारण यह है कि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं। मैं तो परमेश्वर में विश्वास करता हूँ; इसने बाकी सबकी तरह मेरा पेट क्यों खराब कर दिया?” यह कैसा व्यवहार है? (परीक्षा लेने वाला व्यवहार।) यह उनके परमेश्वर को नहीं जानने का नतीजा है। लेकिन मसीह-विरोधियों के साथ कुछ और भी बात है : वे परमेश्वर के सार के अस्तित्व को बिल्कुल नहीं मानते, इसलिए वे चीजें अपने प्रयासों और अपनी कल्पनाओं के आधार पर करते हैं, अपनी आस्था के आधार पर नहीं। इसके बजाय वे परमेश्वर को परखते हैं। वे अपने व्यवहार और अपने क्षणिक विचारों और आवेगों का उपयोग यह जाँचने के लिए करते हैं कि क्या परमेश्वर है, क्या उसकी सर्वशक्तिमत्ता वास्तविक है और क्या वह सचमुच उनकी रक्षा कर सकता है। अगर उनका प्रयोग सफल रहता है तो फिर उसी आधार पर उनकी आस्था कायम रहेगी; अगर प्रयोग विफल हो जाता है, अगर परमेश्वर उन्हें निराश कर देता है तो वे क्या करेंगे? वे कहेंगे, “मैं अब और परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगा। ऐसा नहीं लगता कि वह लोगों की परवाह करता है। हर कोई कहता है कि परमेश्वर मनुष्य का आसरा है—जैसा मैंने देखा, जरूरी नहीं कि ऐसा ही है। इन शब्दों के संबंध में लोगों को भविष्य में अपने लिए कोई दूसरा सहारा भी तैयार करने की जरूरत है; उन्हें इतना मूर्ख नहीं होना चाहिए। लोगों को अपने मामले खुद ही हल करने की जरूरत है—वे हर चीज के लिए परमेश्वर के सहारे नहीं रह सकते।” इन परीक्षाओं से उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला है। इस निष्कर्ष के बारे में तुम्हारी क्या राय है? अगर लोग सत्य का अनुसरण करते हैं तो क्या उनके लिए भी यही नतीजा निकलेगा? (नहीं।) क्यों नहीं? अगर लोग सत्य का अनुसरण करेंगे तो अंततः उन्हें एक अच्छी, सकारात्मक उपलब्धि और पुरस्कार मिलेगा। यानी लोग चाहे जो भी कार्य करें, इनके जवाब में कार्य करने और इन चीजों से पेश आने के लिए परमेश्वर के अपने तरीके और सिद्धांत हैं और लोगों के पास निभाने के लिए अपने दायित्व हैं और उनकी अपनी सहज प्रवृत्तियाँ होती हैं। परमेश्वर उन्हें ये सहज प्रवृत्तियाँ प्रदान करता है; वह उन्हें पहले ही सिद्धांत दे चुका है, इसलिए लोगों को परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में इन्हीं सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। कुछ मामलों में ऊपरी तौर पर लगता है कि परमेश्वर को मनुष्य की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन क्या यह “चाहिए” मनुष्य से आता है या परमेश्वर से? (मनुष्य से।) यह मनुष्य के मन की कल्पना है। यह “चाहिए” सत्य नहीं है; यह परमेश्वर की जिम्मेदारी नहीं है। तो फिर परमेश्वर वास्तव में क्या करता है? परमेश्वर के कार्य करने के अपने तरीके और अपने सिद्धांत हैं। कभी-कभी तुम्हारी रक्षा न करके वह तुम्हारा खुलासा कर रहा होता है, वह यह देखता है कि तुम कौन-सा मार्ग चुनते हो। कभी-कभी प्रतिकूल परिवेश के जरिये वह किसी क्षेत्र में तुम्हारे ज्ञान को पूर्ण कर रहा होता है, वह तुम्हें सत्य का कोई पहलू जानने और किसी मामले में बदलाव लाने देता है। वह तुम्हें मजबूत और विकसित कर रहा है। संक्षेप में कहें तो परमेश्वर चाहे जैसे भी कार्य करे, उसके पीछे उसके अपने सिद्धांत और कारण हैं, साथ ही उसके अपने लक्ष्य और उद्देश्य भी हैं। अगर तुम इस विचार को सत्य मानते हो कि “परमेश्वर को मेरी रक्षा करनी चाहिए और उसे अमुक तरीके से कार्य करना चाहिए” और इस पर कायम रहकर इसी अनुसार परमेश्वर के सामने माँगें रखते हो तो जब परमेश्वर उस तरीके से कार्य नहीं करेगा तो तुम्हारे और परमेश्वर के बीच टकराव पैदा होगा। जब यह टकराव होगा तो दोष परमेश्वर का नहीं होगा। दोष किसका होगा? (मनुष्य का।) इसकी शुरुआत लोगों के विचारों में समस्या से होती है, उनके गलत रुख अपनाने और खुद को गलत स्थान पर रखने से होती है। जब तुम परमेश्वर से एक खास तरीके से कार्य करने के लिए कहते हो तो तुम्हें अपनी बात काफी उचित लगेगी। लेकिन एक कदम पीछे हटकर जब तुम समर्पण कर सकते हो और स्वीकार कर सकते हो तो तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे औचित्यों में दम नहीं है और ये तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव और अनुचित माँगें हैं। जब तुम स्वीकार कर सकते हो तो परमेश्वर तुम्हें उस सत्य और ज्ञान का पैमाना प्रदान करेगा जो तुम्हें प्राप्त करना चाहिए। परमेश्वर के दृष्टिकोण से, यही सत्य का वो तत्व है जो तुम्हें सर्वाधिक हासिल करना चाहिए, न कि कोई तुच्छ अनुग्रह या आशीष। अकेला परमेश्वर ही जानता है कि तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है और वह इसे सही समय पर और छोटी-छोटी खुराक में तुम्हें प्रदान करता है। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी लोग सत्य को या पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं मानते। चाहे कोई भी सत्य के बारे में संगति कर ले और परमेश्वर के प्रेम और उद्धार की गवाही दे दे, एक मसीह-विरोधी न केवल इसे स्वीकारने से मना कर देगा, बल्कि वह इससे प्रतिकर्षित होगा और इसका प्रतिरोधी भी होगा। मसीह-विरोधियों और सामान्य भ्रष्ट लोगों में यही फर्क है।

परमेश्वर की पहचान और उसकी विशिष्टता के सार को नकारने के मसीह-विरोधियों के लक्षण पर हम अपनी संगति यहीं समाप्त करेंगे। क्या तुम लोगों के पास कोई और भी सवाल हैं? (परमेश्वर, मेरा एक सवाल है। सुसमाचार का प्रचार करते समय मैं प्रभु में विश्वास रखने वाले कई लोगों का सामना करता हूँ और वे सभी पौलुस के इस विचार का पालन करने पर तुले रहते हैं, “मेरे लिए जीवित रहना मसीह है।” उन्हें लगता है कि अगर वे पौलुस के शब्दों के मानक पूरे कर सकें तो वे परमेश्वर बन सकते हैं। क्या यह भी मसीह-विरोधियों की एक और अभिव्यक्ति है और परमेश्वर की विशिष्टता के सार को नकारना भी है?) बिल्कुल, कमोबेश। मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर की विशिष्टता को मुख्यतः इसलिए नकारते हैं क्योंकि वे परमेश्वर बनना चाहते हैं। पौलुस के शब्द उनके विशेष रूप से पसंदीदा शब्द हैं : “मेरे लिए जीवित रहना मसीह है, जीवित रहना परमेश्वर है, परमेश्वर के जीवन के साथ मैं परमेश्वर हूँ।” उनका मानना है कि अगर यह दृष्टिकोण सत्य है, तो उनके परमेश्वर बनने, राजा की तरह राज करने और लोगों पर नियंत्रण रखने की आशा है; अगर यह सत्य नहीं है, तो राजा की तरह राज करने और परमेश्वर बनने की उनकी आशा चूर-चूर हो जाएगी। संक्षेप में, शैतान हमेशा परमेश्वर के साथ बराबरी वाले स्तर पर रहना चाहता है—और मसीह-विरोधी भी ऐसा ही चाहते हैं : उनमें भी यही सार होता है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर का अनुसरण करने वालों में ऐसे लोग हैं जो लगातार परमेश्वर की बड़ाई करते हैं और उसकी गवाही देते हैं, उसके कार्य की और उसके वचनों के न्याय और ताड़ना के मनुष्य पर पड़ने वाले प्रभाव की गवाही देते हैं। वे उस समस्त कार्य की प्रशंसा करते हैं जो परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए करता है, और वे परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत की भी प्रशंसा करते हैं। क्या मसीह-विरोधी भी इस सबका आनंद लेना चाहते हैं या वे ऐसा नहीं चाहते? वे लोगों के समर्थन, चापलूसी, बड़ाई—यहाँ तक कि प्रशंसा का भी आनंद लेना चाहते हैं। और उनके अन्य कौन-से शर्मनाक विचार होते हैं? वे चाहते हैं कि लोग उन पर विश्वास करें, सभी बातों में उन पर निर्भर रहें; लोगों का परमेश्वर पर भरोसा करना ठीक है—लेकिन परमेश्वर पर निर्भर रहने के दौरान ही अगर उनके लिए मसीह-विरोधियों पर निर्भर रहना और भी वास्तविक और सच्चा हो तो मसीह-विरोधी अत्यधिक प्रसन्न होंगे। जिस समय तुम परमेश्वर की स्तुति करते हो और परमेश्वर द्वारा दिए गए अनुग्रह गिनते हो, अगर उसी समय तुम मसीह-विरोधियों की सभी सराहनीय उपलब्धियों को भी उसमें जोड़ लेते हो, और उनके हर कृत्य का व्यापक प्रचार करते हुए अपने भाई-बहनों के बीच उनकी स्तुति गाते हो, तो वे अपने दिलों में अत्यधिक प्रसन्न होंगे और संतुष्ट अनुभव करेंगे। इस प्रकार मसीह-विरोधी के प्रकृति सार के दृष्टिकोण से बोलते हुए जब तुम कहते हो कि परमेश्वर के पास अधिकार है, कि वह धार्मिक है, और वह लोगों को बचाने में सक्षम है, जब तुम कहते हो कि केवल परमेश्वर के पास ही ऐसा सार है, कि केवल परमेश्वर ही इस प्रकार का कार्य कर सकता है, और इन चीजों को करने में कोई भी उसका स्थान नहीं ले सकता, न उसका प्रतिनिधित्व ही कर सकता है, न ही किसी में यह सार हो सकता है और न ही वह इन चीजों को कर सकता है : जब तुम यह कहते हो, तो मसीह-विरोधी अपने दिलों में इन शब्दों को स्वीकार नहीं करते, और उन्हें मानने से इनकार कर देते हैं। वे उन्हें स्वीकार क्यों नहीं करते? क्योंकि उनमें महत्वाकांक्षाएँ होती हैं—यह मुद्दे का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष यह है कि वे देहधारी देह को परमेश्वर नहीं मानते और न ही उसे स्वीकार करते हैं। जब भी कोई कहता है कि परमेश्वर विशिष्ट है, केवल परमेश्वर ही धार्मिक है, तो वे अपने हृदय में इससे असहमत होते हैं और यह कहते हुए आंतरिक रूप से इसका विरोध करते हैं : “गलत—मैं भी धार्मिक हूँ!” जब तुम कहते हो कि केवल परमेश्वर ही पवित्र है, तो वे कहेंगे : “गलत—मैं भी पवित्र हूँ!” पौलुस इसका एक उदाहरण है : जब लोगों ने प्रभु यीशु मसीह के वचन का प्रसार किया, कहा कि प्रभु यीशु मसीह ने मानव जाति के लिए अपना बहुमूल्य रक्त दिया, कि वह पापबलि बना, और उसने समस्त मानव जाति को बचाया, और समस्त मानव जाति को पाप से छुटकारा दिलाया—तो यह सुनकर पौलुस को कैसा लगा? क्या उसने स्वीकार किया कि यह सब परमेश्वर का कार्य था? क्या उसने स्वीकार किया कि वह, जो यह सब करने में सक्षम था, मसीह था, और केवल मसीह ही यह सब कर सकता था? और क्या उसने स्वीकार किया कि केवल वही, जो यह सब करने में सक्षम था, परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता था? उसने ऐसा नहीं किया। उसने कहा : “अगर यीशु सूली पर चढ़ाया जा सकता है, तो लोग भी सूली पर चढ़ाए जा सकते हैं! अगर वह अपना कीमती लहू दे सकता है, तो लोग भी दे सकते हैं! इसके अतिरिक्त, मैं भी प्रचार कर सकता हूँ, और मैं उससे अधिक ज्ञानी हूँ, और मैं कष्ट सह सकता हूँ! अगर तुम कहते हो कि वह मसीह है, तो क्या मुझे भी मसीह नहीं कहा जाना चाहिए? अगर तुम उसके पवित्र नाम का गुणगान करते हो तो क्या तुम्हें मेरे नाम का भी गुणगान नहीं करना चाहिए? अगर वह मसीह कहलाने के योग्य है, अगर वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है, और अगर वह परमेश्वर का पुत्र है, तो क्या हम भी नहीं हैं? हम जो कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हैं, और परमेश्वर के लिए कड़ी मेहनत और कार्य कर सकते हैं—क्या हम भी मसीह नहीं कहलाए जा सकते? परमेश्वर से अनुमोदन पाना और मसीह कहलाना मसीह से कैसे भिन्न है?” संक्षेप में कहें तो मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के सार के विशिष्टता वाले पहलू को समझने में विफल रहे हैं, और वे नहीं समझते कि वास्तव में परमेश्वर की विशिष्टता क्या है। वे मानते हैं, “मसीह या परमेश्वर होना कोई ऐसी चीज है, जो व्यक्ति अपने कौशल और क्षमता के बल पर बनता है, जैसे कोई व्यक्ति लड़-भिड़कर शक्ति हासिल करता है। तुम परमेश्वर का सार होने से मसीह नहीं कहलाते। मसीह होना व्यक्ति के अपने कौशल के दम पर की गई कड़ी मेहनत का नतीजा है। यह बिल्कुल दुनिया की चीजों की तरह है—जो भी ज्यादा कुशल और सक्षम है, वही एक बड़ा अधिकारी बन सकता है और उसी का कहा अंतिम हो सकता है।” यह उनका तर्क है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन को सत्य नहीं मानते। परमेश्वर का सार और स्वभाव, जिनके बारे में परमेश्वर के वचनों में कहा गया है, उनकी समझ से बाहर होते हैं; वे आम आदमी और बाहरी लोग हैं, और उन्हें कुछ भी पता नहीं है, इसलिए उनकी बातों में पूरी तरह से बाहरी लोगों के शब्द, आध्यात्मिक समझ से रहित शब्द भरे होते हैं। अगर उन्होंने कुछ वर्षों तक काम किया होता है और वे सोचते हैं कि वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हैं, कि वे धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते समय हवा-हवाई बातें कर सकते हैं, उन्होंने बगुलाभगत बनना सीख लिया है, और वे दूसरों को गुमराह कर सकते हैं और उन्होंने कुछ लोगों का अनुमोदन प्राप्त कर लिया है तो वे स्वाभाविक रूप से विश्वास करते हैं कि वे मसीह बनने में सक्षम हैं, परमेश्वर बनने में सक्षम हैं।

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