मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग एक) खंड दो

क. परमेश्वर की धार्मिकता का तिरस्कार करना

मसीह-विरोधियों जैसे लोग हमेशा परमेश्वर की धार्मिकता और स्वभाव को लेकर धारणाओं, संदेहों और प्रतिरोध के साथ पेश आते हैं। वे सोचते हैं, “यह केवल एक सिद्धांत है कि परमेश्वर धार्मिक है। क्या वास्तव में इस दुनिया में धार्मिकता जैसी कोई चीज होती है? अपने जीवन के तमाम वर्षों में मैंने उसे एक बार भी न पाया है, न देखा है। दुनिया बहुत अँधेरी और दुष्ट है, यहाँ बुरे लोग और दानव काफी सफल हैं, संतोष से जी रहे हैं। मैंने उन्हें वह मिलते हुए नहीं देखा, जिसके वे हकदार हैं। मैं नहीं देख पाता कि इसमें परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ है; मैं सोचता हूँ, क्या परमेश्वर की धार्मिकता असल में मौजूद भी है? उसे किसने देखा है? उसे किसी ने नहीं देखा और न ही कोई उसे प्रमाणित कर सकता है।” अपने मन में वे यही सोचते हैं। वे परमेश्वर के सारे कार्य, उसके सारे वचन और उसके सारे आयोजन इस विश्वास की नींव पर नहीं स्वीकारते कि वह धार्मिक है, बल्कि हमेशा संदेह और आलोचना करते रहते हैं, हमेशा धारणाओं से भरे रहते हैं, जिनके समाधान के लिए वे कभी सत्य की तलाश नहीं करते। मसीह-विरोधी हमेशा इसी तरह से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। क्या उन्हें परमेश्वर पर सच्ची आस्था होती है? नहीं होती। जब भी परमेश्वर की धार्मिकता की बात आती है, मसीह-विरोधी हमेशा संदेह का रवैया अपनाते हैं। बेशक, परमेश्वर के स्वभाव, उसकी पवित्रता, और जो उसके पास है और जो वह स्वयं है, इन सबके बारे में उनके अपने संदेह होते हैं। वे इनमें विश्वास नहीं करते, बल्कि जो आँख से दिखता है उसी के अनुसार चलते हैं—अगर वे अपनी आँखों से किसी चीज को देख नहीं सकते तो उस पर विश्वास नहीं कर सकते। वे बिल्कुल थोमा की तरह हैं, हमेशा प्रभु यीशु पर संदेह करते हैं, यह विश्वास नहीं करते कि प्रभु यीशु मृत्यु के बाद दुबारा जी उठा था, वे परमेश्वर की महान शक्ति पर विश्वास नहीं करते। क्या उन मसीह-विरोधियों जैसी तलछट जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है या जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, यह विश्वास कर सकते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं? क्या वे उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता पर विश्वास कर सकते हैं? वे इनमें से किसी पर विश्वास नहीं करते; उनके दिल में हमेशा संदेह रहते हैं। मसीह-विरोधियों के सार को देखते हुए, जो उनकी आँख देखती है वे उसी अनुसार चलते हैं, इसीलिए वे भौतिकवादी हैं। वे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता नहीं देख सकते और वे यह विश्वास नहीं करते कि उसके वचन सत्य हैं, कि ये ऐसे तथ्य हैं जिन्हें वह पहले ही साकार कर चुका है। चूँकि उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं होती और उनमें सच्ची आस्था नहीं होती, इसलिए परमेश्वर के कृत्य देखने का उनके पास कोई उपाय नहीं होता है। तथ्य यह है कि परमेश्वर में विश्वास करने के पीछे उनका छिपा हुआ मकसद होता है। वे बेलगाम उपद्रवी हैं—शैतान के सेवक हैं। क्या सत्य के अस्तित्व का कोई ऐसा व्यक्ति पता लगा सकता है जो सत्य को नहीं स्वीकारता या परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता और सभी चीजों को मानवीय नजरों से देखता है? क्या ऐसे लोग मानवजाति पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य का पता लगा सकते हैं? बिल्कुल भी नहीं। वे चीजों को जाँच-पड़ताल की निगाह से देखते हैं, शक की निगाह से और संदेह के रवैये से देखते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर जो भी करता है उसका प्रतिरोध करते हैं, इसलिए परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को लेकर मसीह-विरोधी अविश्वास करते हैं। उन्हें संदेह है और वे इसे स्वीकार नहीं करते। मसीह-विरोधियों के कौन-से व्यवहार दूसरों को यह दिखाते हैं कि वे सत्य को स्वीकार नहीं करते या परमेश्वर के सार को नहीं मानते? ऐसे कई खास व्यवहार हैं। उदाहरण के लिए : जब कलीसिया के कार्य में कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो चाहे दोष कितना भी गंभीर हो और उसके कुछ भी दुष्परिणाम हों, एक मसीह-विरोधी की पहली प्रतिक्रिया खुद को दोषमुक्त करने और किसी और पर दोष मढ़ने की होती है। जिम्मेदार न ठहराए जाने के लिए, वह मामले की सच्चाई छिपाने के लिए खुद से ध्यान भी हटा सकता है, कुछ सही, अच्छी-अच्छी बातें कहते हुए सतही भाग-दौड़ भी कर सकता है। सामान्य समय में लोग इसे नहीं देख पाते, लेकिन जब उनके साथ कुछ घटित होता है, तो मसीह-विरोधी की कुरूपता उजागर होती है। अपने सारे काँटे खड़े किए किसी साही की तरह, वह कोई भी जिम्मेदारी न लेने की इच्छा रखते हुए, अपनी पूरी ताकत से अपनी रक्षा करता है। यह कैसा रवैया है? क्या यह इस बात पर विश्वास न करने वाला रवैया नहीं है कि परमेश्वर धार्मिक है? मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है या कि वह धार्मिक है; वे खुद को बचाने के लिए अपने तरीके इस्तेमाल करना चाहते हैं। उनका मानना है, “अगर मैं अपनी रक्षा नहीं करूँगा, तो कोई नहीं करेगा। परमेश्वर भी मेरी रक्षा नहीं कर सकता। लोग कहते हैं कि वह धार्मिक है, लेकिन जब लोग मुसीबत में पड़ते हैं, तो क्या वह वास्तव में उनके साथ उचित व्यवहार करता है? बिल्कुल नहीं—परमेश्वर ऐसा नहीं करता।” मुसीबत या उत्पीड़न का सामना करने पर वे असहाय महसूस करते हैं और सोचते हैं, “तो, परमेश्वर कहाँ है? लोग उसे देख या छू नहीं सकते। कोई मेरी मदद नहीं कर सकता; कोई मुझे न्याय नहीं दे सकता और मेरे लिए निष्पक्षता कायम नहीं रख सकता।” उन्हें लगता है कि अपनी रक्षा करने का एकमात्र उपाय अपने तरीकों से अपनी रक्षा करना है, वरना उन्हें नुकसान उठाना पड़ेगा, उन्हें धमकाया और सताया जाएगा—परमेश्वर का घर भी इसका अपवाद नहीं है। अपने ऊपर कुछ आ पड़ने से पहले ही मसीह-विरोधी अपने लिए हर चीज की योजना बना चुके होते हैं। एक हिस्से में, वे जो करते हैं वह यह है कि अपने इतने शक्तिशाली व्यक्ति होने का स्वाँग रचने का भरसक प्रयास करते हैं कि कोई उन्हें परेशान करने या उनके साथ पंगा लेने या उन्हें धौंस देने की हिम्मत नहीं करेगा। दूसरा हिस्सा उनका हर मोड़ पर शैतान के फलसफों और उसके अस्तित्व के नियमों का पालन करना है। वे मुख्य रूप से क्या हैं? “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “चीजों को वैसे ही चलने दो अगर वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों,” “समझदार लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं, वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं,” परिस्थितियों के अनुसार कार्य करना, मधुरभाषी और चालाक बनना, “मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता,” “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” “दूसरों की भावनाओं और सूझ-बूझ का ध्यान रखते हुए अच्छी बातें कहो, क्योंकि निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है,” “बुद्धिमान इंसान हालात के अनुसार अपना रुख बदलता है,” और ऐसे दूसरे शैतानी फलसफे। वे सत्य से प्रेम नहीं करते, लेकिन शैतान के फलसफों को ऐसे स्वीकारते हैं मानो ये सकारात्मक चीजें हों, और यह मानते हैं कि ये उनकी रक्षा करने में सक्षम होंगे। वे इन चीजों के अनुसार जीते हैं; वे किसी से सच नहीं बोलते, लेकिन हमेशा मनभाती, चिकनी-चुपड़ी, चापलूसी भरी बातें कहते हैं, किसी को ठेस नहीं पहुँचाते, खुद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने के तरीकों के बारे में सोचते रहते हैं ताकि दूसरे उनका सम्मान करें। वे सिर्फ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के अपने अनुसरण की परवाह करते हैं, और कलीसिया के काम को बनाए रखने के लिए कुछ नहीं करते। जो भी कोई कुछ बुरा करता है और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाता है, वे उसे उजागर या उसकी रिपोर्ट नहीं करते, बल्कि ऐसे व्यवहार करते हैं मानो उन्होंने उसे देखा ही न हो। चीजें सँभालने के उनके सिद्धांतों और उनके आस-पास जो होता है उसके प्रति उनके व्यवहार को देखते हुए, क्या उन्हें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कोई ज्ञान है? क्या उन्हें उसमें कोई आस्था है? बिल्कुल नहीं। यहाँ “बिल्कुल नहीं” का यह मतलब नहीं कि उन्हें इसके बारे में कोई जागरूकता नहीं है, बल्कि यह है कि उनके दिल में परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को लेकर संदेह हैं। वे न तो स्वीकारते हैं और न ही मानते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है। जब वे बहुत-से लोगों को यह गवाही देते हुए देखते हैं कि परमेश्वर के घर में सत्य और धार्मिकता का शासन है तो वे इसका प्रतिरोध करते हैं और अपने दिल में इसकी आलोचना करते हुए कहते हैं, “तो फिर ऐसा क्यों है कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों का उत्पीड़न करने के लिए बड़े लाल अजगर को कोई दंड नहीं मिला है? अविश्वासियों में से बुरे लोग परमेश्वर के चुने हुए लोगों को धौंस देते हैं, उनकी निंदा करते हैं, उनकी आलोचना करते हैं, और उन्होंने भी कोई दंड नहीं भुगता है। वे सभी भले-चंगे बैठे हैं—ऐसा क्यों होता है कि परमेश्वर के विश्वासियों को ही धौंस सहनी पड़ती है?” दिल से वे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव में विश्वास नहीं करते। वे नहीं मानते कि परमेश्वर हर व्यक्ति से धार्मिकता के साथ पेश आता है, न वे इन विचारों पर विश्वास करते हैं कि परमेश्वर हर व्यक्ति को उसके कार्यों के हिसाब से उसके हिस्से का प्रतिफल देगा और सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ही परमेश्वर से आशीष और सुंदर मंजिल पाएँगे। मसीह-विरोधी इन चीजों में विश्वास नहीं करते। वे अपने आप से कहते हैं, “अगर ये तथ्य हैं तो फिर ऐसा कैसे है कि मैंने इन्हें नहीं देखा है? तुम कहते हो कि जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, सिर्फ उन्हें ही परमेश्वर आशीष देगा। ठीक है, हमारी कलीसिया में अमुक व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है, खुद को परमेश्वर के लिए खपाता है और काफी वफादारी से अपना कर्तव्य निभाता है। इसका उसे क्या सिला मिलता है? बड़ा लाल अजगर उसका इस कदर पीछा करता है कि वह बमुश्किल अपने घर जा पाता है; उसका परिवार बिखर जाता है—वह अपने बच्चों का मुँह तक नहीं देख पाता है। क्या यही परमेश्वर की धार्मिकता है? एक और व्यक्ति है जिसे परमेश्वर में विश्वास करने के कारण जेल में डाल दिया गया जहाँ उसे यातनाएँ देकर अधमरा कर दिया गया। तब परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ मर गई थी? वह अपनी गवाही में दृढ़ता से खड़ा रहा; वह कोई यहूदा नहीं था। परमेश्वर ने क्यों नहीं उसे आशीष और सुरक्षा दी? और परमेश्वर ने क्यों बड़े लाल अजगर को उसे पीट-पीटकर अधमरा करने दिया? हमारी कलीसिया में एक अगुआ भी था जिसने कलीसिया के कार्य के लिए अपने परिवार और पेशे को त्याग दिया। उसने बरसों अपना कर्तव्य निभाया और काफी कठिनाइयाँ सहीं और अंत में थोड़ी-सी बुराई करने और कलीसिया के कार्य को बाधित करने पर उसकी निंदा कर उसे हटा दिया गया था। तब परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव कहाँ था? और ऐसे भी भाई-बहन हैं जो काफी कम उम्र से परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभा रहे हैं, कष्ट उठा रहे हैं और मेहनत कर रहे हैं, फिर भी जैसे ही वे कोई गलती और सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, उनकी काट-छाँट कर दी जाती है। उनमें से कुछ काफी दुःखी होकर इस भय से रोते हैं कि उन्हें हटाकर निकाल दिया जाएगा और उन्हें दिलासा देने वाला भी कोई नहीं होता है। इसमें मुझे परमेश्वर की धार्मिकता क्यों नहीं दिखाई देती? इन चीजों में परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव वास्तव में किस तरीके से अभिव्यक्त होता है? मैं इसे क्यों नहीं देख पाता? और खुद मेरा ही मामला देख लो—हो सकता है मैं अपना कर्तव्य निभाने में थोड़ा-सा लापरवाह होऊँ और हो सकता है मैं कभी-कभी थोड़ा-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर देता हूँ, फिर भी मुझमें प्रतिभा है। परमेश्वर का घर मुझे तरक्की क्यों नहीं देता?” इन सभी मामलों के चलते मसीह-विरोधी स्पष्ट रूप से यह नहीं देख पाते कि चल क्या रहा है। वे सिर्फ बाहरी परिघटनाओं को देखते हैं, लेकिन यह नहीं देख पाते कि चीजों के पीछे परमेश्वर के इरादे क्या हैं। उनके दिलों में कूट-कूटकर आशंकाएँ और संदेह, ख्याल और धारणाएँ भरी पड़ी हैं—और उनके दिलों में अनेकानेक गाँठें हैं जिन्हें वे सुलझा नहीं सकते। जब भी वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं तो वे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के प्रति शिकायत से, निंदा और ईशनिन्दा से भर जाते हैं। खिन्न होकर वे अपने आप से कहते हैं : “अगर परमेश्वर धार्मिक है तो फिर निष्कपट लोगों की काट-छाँट क्यों होती है? अगर वह धार्मिक है तो वह थोड़ी-सी भ्रष्टता प्रकट करने पर लोगों को माफ क्यों नहीं करता? अगर वह धार्मिक है तो फिर अपना कर्तव्य निभा चुके और बहुत अधिक कष्ट भोग चुके कुछ लोगों को वास्तविक कार्य न कर पाने पर बर्खास्त क्यों कर दिया जाता है? अगर वह धार्मिक है तो फिर क्यों अटूट भक्ति के साथ उसका अनुसरण करने वाले हम लोग उत्पीड़न और यातनाएँ सहें और संभवतः जेल भेज दिए जाएँ और कुछ मामलों में तो पीट-पीटकर मार भी दिए जाएँ?” इनमें से किसी भी परिघटना के लिए मसीह-विरोधियों के पास कोई स्पष्टीकरण नहीं होता है। वे नहीं जानते कि उनके साथ क्या हो रहा है; वे इसे स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते हैं। अक्सर वे खुद से पूछते हैं : “मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूँ क्या वह धार्मिक है, या नहीं है? जो परमेश्वर धार्मिक है उसका अस्तित्व है कि नहीं? वह कहाँ है? जब हम कठिनाइयों का सामना करते हैं, जब हमें सताया जाता है—तब वह क्या कर रहा होता है? क्या वह हमें बचा सकता है, या नहीं बचा सकता? अगर परमेश्वर धार्मिक है तो वह शैतान को नष्ट क्यों नहीं कर देता? वह बड़े लाल अजगर को नष्ट क्यों नहीं कर देता? वह इस दुष्ट मानवजाति को दंडित क्यों नहीं करता? जब हम उसमें विश्वास करते हैं और अत्यंत कष्ट सह चुके हैं तो वह हमें न्याय क्यों नहीं देता और हमारे लिए निष्पक्षता क्यों नहीं कायम रखता? वह हमारा साथ क्यों नहीं देता? हम दानवों और शैतान से नफरत करते हैं, हम बुरे लोगों से नफरत करते हैं—परमेश्वर हमारी शिकायतों का बदला क्यों नहीं लेता?” एक मसीह-विरोधी के दिल से किसी मशीनगन की गोलियों की तरह एक के बाद एक “क्यों” निकलते जाते हैं जिन्हें किसी भी तरह रोका नहीं जा सकता है। जब वे इन चीजों को नियंत्रित नहीं कर पाते तो प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के समक्ष क्यों नहीं आते या उसके वचन पढ़कर संगति के लिए भाई-बहनों को क्यों नहीं खोजते? तब क्या वे एक-एक करके ऐसी समस्याएँ हल नहीं कर लेंगे? क्या इन समस्याओं को हल करना वाकई मुश्किल काम है? अगर तुम परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण का रवैया अपनाते हो, एक ऐसा रवैया जो सत्य को स्वीकारे, तो ये समस्याएँ फिर समस्याएँ नहीं रहेंगी—ये सभी हल की जा सकती हैं। मसीह-विरोधी ऐसा क्यों नहीं कर पाते हैं? क्योंकि वे सत्य को नहीं स्वीकारते या विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, या सत्य को नहीं मानते। वे परमेश्वर की समस्त संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, जो भी होता है वह सब परमेश्वर से स्वीकार करना तो दूर की बात है। यही कारण है कि मसीह-विरोधियों के दिल में परमेश्वर की धार्मिकता को लेकर संदेह भरे होते हैं। जब उनका सामना परीक्षाओं से होगा तो उनके दिल में भरे संदेह बाहर निकल पड़ेंगे और मन ही मन वे परमेश्वर से सवाल करेंगे : “अगर परमेश्वर धार्मिक है तो वह हमें इतना ज्यादा कष्ट क्यों सहने देता है? अगर परमेश्वर धार्मिक है तो वह हममें से उन लोगों पर दया क्यों नहीं करता जिन्होंने मसीह का अनुसरण करते हुए पर्याप्त दुख भोग लिए हैं? अगर परमेश्वर धार्मिक है तो वह हममें से उन लोगों की रक्षा क्यों नहीं करता जो उसके लिए खुद को खपाते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हैं, या हमारे परिवारों की रक्षा क्यों नहीं करता? अगर परमेश्वर धार्मिक है तो वह अपने में निष्ठापूर्वक विश्वास करने वाले कुछ लोगों को जेल में बड़े लाल अजगर के हाथों क्यों मरने देता है?” वे फिर परमेश्वर के विरुद्ध शोर मचाने लगते हैं : “अगर परमेश्वर धार्मिक है तो उसे हमें इतने कष्ट नहीं सहने देने चाहिए; अगर परमेश्वर धार्मिक है तो उसे हमें अकारण अनुशासित या बेनकाब नहीं करना चाहिए; अगर परमेश्वर धार्मिक है तो उसे हमारे सारे बुरे कर्मों के प्रति सहनशील होना चाहिए, हमारी सारी नकारात्मकता और कमजोरी को माफ कर देना चाहिए और हमारे सारे अपराधों के लिए छूट देनी चाहिए। अगर तुम ये चीजें भी नहीं कर सकते तो फिर तुम धार्मिक परमेश्वर नहीं हो!” ये सारी चीजें मसीह-विरोधियों के दिमाग में रहती हैं। उनके मन में परमेश्वर के प्रति धारणाएँ भरी होती हैं और वे इन्हें हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते हैं। जब उन्हें बेनकाब करने का दिन आता है तो उन धारणाओं का फूटकर निकलना तय है। मसीह-विरोधियों की कुरूप मानसिकता और असली चेहरा ऐसा ही है।

मसीह-विरोधी सत्य को मानते या स्वीकारते नहीं हैं, इस तथ्य को तो बिल्कुल भी नहीं मानते कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, इसलिए उनके लिए परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव एक बड़ा और अनुत्तरित प्रश्न बना रहता है। और समय के साथ-साथ, जैसे-जैसे घटनाएँ घटती हैं और विभिन्न समस्याएँ उठती हैं, उनका यह प्रश्न चिह्न और बड़ा होता चला जाता है—और धीरे-धीरे यह एक गलत के निशान में बदल जाता है। इस गलत के निशान का क्या अर्थ है? इसका यह अर्थ है कि वे परमेश्वर के धार्मिक होने के तथ्य को सिरे से नकार देते हैं। और जब यह गलत का निशान बना दिया जाता है—जब एक मसीह-विरोधी परमेश्वर के धार्मिक होने को नकार देता है—तो उसकी सारी फंतासियाँ और इच्छाएँ हवा में काफूर बनकर उड़ जाती हैं। ध्यान से सोचो : वह प्रारंभिक बिंदु क्या है जो ऐसे दुष्परिणाम की ओर लेकर जाता है? (मसीह-विरोधी सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने से उन्हें आशीष मिलना चाहिए और उसकी सुरक्षा मिलनी चाहिए। इसलिए जब परमेश्वर ऐसा कार्य करता है जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाता तो उन्हें परमेश्वर धार्मिक नहीं लगता और वे इस कार्य को उससे स्वीकार नहीं सकते। साथ ही, जब परमेश्वर के बारे में उनके मन में धारणाएँ उत्पन्न होती हैं तो वे परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य नहीं खोजते और इन्हें तुरंत हल नहीं कर पाते। इस तरीके से उनकी धारणाएँ जमा होती जाती हैं—इसी कारण अंत में ऐसा दुष्परिणाम सामने आता है।) तुम लोग अभी सतही-स्तर की परिघटनाओं के बारे में बात कर रहे हो; तुम जड़ तक नहीं पहुँच रहे हो। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि इस तरह व्यवहार करने और ऐसे विचार रखने, परमेश्वर के बारे में संदेह करने और उसे नकारने की मसीह-विरोधियों की क्षमता के मूल में कुछ है। बेशक, यह मसीह-विरोधी के प्रकृति सार से तय होता है। यही जड़ है—हम इसे यहीं छोड़ते हैं। तो फिर मुख्य मूल कारण यह है कि आरम्भ से ही मसीह-विरोधियों में सत्य के प्रति प्रेम की या इसे स्वीकार करने की कमी रही है। वे सत्य को क्यों नहीं स्वीकारते? इसकी भी अपनी जड़ है : वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य है, कि उसके वचन सत्य हैं—और चूँकि वे ऐसा नहीं मानते, इसलिए इसे स्वीकार नहीं कर सकते। यह देखते हुए कि वे सत्य को नहीं स्वीकारते, क्या वे किसी भी समस्या को सत्य की निगाह से देख सकते हैं? (नहीं।) वे ऐसा नहीं कर सकते—तो, दुष्परिणाम क्या होते हैं? उनके साथ जो भी चीजें घटती हैं, वे उनकी असलियत नहीं जान पाते, फिर वे चाहे कुछ भी हों—उनके इर्द-गिर्द घटने वाली छोटी या बड़ी चीजें हों, और चाहे दूसरों की बातें हों। वे लोगों या घटनाओं की असलियत नहीं जान पाते—वे किसी भी चीज की असलियत नहीं जान पाते। बाहरी तौर पर कुछ चीजें वैसी ही लगती हैं जैसा वे कहते हैं, लेकिन सार रूप में वे वैसी होती नहीं हैं। इसका वास्ता सत्य से है। अगर तुम सत्य को नहीं समझते या नहीं स्वीकारते तो क्या इन चीजों से जुड़े सत्य को समझ सकते हो? तुम नहीं समझते, इसलिए तुम सिर्फ यही कर सकते हो कि चीजों का विश्लेषण और अध्ययन इंसानी निगाह से करो, इंसानी ज्ञान और दिमाग से करो। ऐसे अध्ययन के क्या नतीजे मिलेंगे? क्या ये सत्य के अनुरूप होंगे? क्या ये परमेश्वर की अपेक्षाओं और इरादों के अनुरूप होंगे? नहीं, कभी नहीं। यह वैसी ही बात है जैसी अय्यूब की कहानी जिसे परमेश्वर में विश्वास करने वाले सारे लोग जानते हैं। जो भी व्यक्ति सत्य को मानता और स्वीकारता है और परमेश्वर में विश्वास करने और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम है, वह दिल से अय्यूब की प्रशंसा और सराहना करता है; ऐसे सभी लोग दिल से अय्यूब जैसा इंसान बनना चाहते हैं। वे इस बात की भी प्रशंसा और सराहना करते हैं कि अय्यूब ने परीक्षणों के बीच परमेश्वर की प्रशंसा की और उसे उसका ज्ञान था। लोग अपने दिलों में समझ सकते हैं कि अय्यूब को जो तमाम क्लेश और संताप मिले वे परमेश्वर के कार्य थे। कुल मिलाकर एक व्यक्ति के रूप में अय्यूब उन सब लोगों के लिए एक आकांक्षा के रूप में खड़ा है जो सत्य का अनुसरण करते हैं। वे सभी उसका अनुकरण करना चाहते हैं और ऐसा ही इंसान बनना चाहते हैं। तो ऐसा सकारात्मक परिणाम कैसे प्राप्त किया जाता है? इसकी बुनियाद क्या है? हार्दिक विश्वास और यह मानना कि यही सत्य है, कि यह सारा परमेश्वर का कार्य है—यही वह बुनियाद है जिस पर कोई अय्यूब जैसा इंसान बनने की इच्छा की ओर कदम-दर-कदम बढ़ता है, ऐसा व्यक्ति बनने की ओर अग्रसर होता है जो परमेश्वर का भय माने और बुराई से दूर रहे। वह इस सब पर विश्वास करता है और इसे दिल से मानता है और अंततः वह इसके प्रति आकांक्षा हासिल कर लेता है, और फिर वह उसका अपने जीवन में अनुसरण करता है। ऐसा नतीजा हासिल करने के लिए सबसे बुनियादी बात यह है कि व्यक्ति दिल से इसे माने और इस पर विश्वास करे। तो क्या मसीह-विरोधियों में ऐसी मान्यता और विश्वास है? नहीं है। अय्यूब जिन सारी चीजों से होकर गुजरा, मसीह-विरोधी उसे कैसे देखते हैं? क्या वे ऐसा सोचते हैं कि परमेश्वर ने जो कुछ भी किया उस सबका महत्व है? क्या वे यह देख सकते हैं कि यह सब परमेश्वर द्वारा शासित था? वे ऐसा नहीं देख सकते, न ही वे यह देख सकते हैं कि परमेश्वर ने जो कुछ किया उस सबका महत्व है। वे इसमें क्या देखते हैं? अय्यूब के पास ढेर सारी संपत्ति थी, बेशुमार भेड़ें और बैल थे, धरती पर सबसे सुंदर बेटे-बेटियाँ थीं। वे यह देखते हैं। और फिर सारी पीड़ा भोगने के बाद परमेश्वर ने उसे एक बार फिर आशीष दिया। वे इसमें क्या देखते हैं? वे कहेंगे, “उसने उन आशीषों के बदले में कुछ दिया—उसने इन्हें कमाया। यह उचित ही है कि परमेश्वर ने ये उसे प्रदान किए।” उनकी समग्र समझ देखें तो क्या मसीह-विरोधियों का नजरिया सत्य को स्वीकारने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला है? (नहीं।) तो फिर इस बारे में वे कैसा नजरिया अपनाते हैं? केवल एक ही नजरिया है जिससे मसीह-विरोधी पूरे मामले को देखते हैं और वह नजरिया एक छद्म-विश्वासी का है। एक छद्म-विश्वासी यह देखता है कि क्या कोई लाभ हुआ है या कोई फायदा हुआ है या नुकसान हुआ है; फायदा कैसे उठाया जाए और कैसे नहीं; कौन-सी चीज नुकसान और कष्ट का कारण बनेगी; और कौन-सी चीज करने लायक है और कौन-सी नहीं। छद्म-विश्वासियों का नजरिया यही होता है। छद्म-विश्वासी लोग इसी तरीके से, इसी तरह के सार के साथ हर चीज को देखते हैं, उससे पेश आते हैं और उसे करते हैं। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया होता है।

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