मद छह : वे कुटिल तरीकों से व्यवहार करते हैं, वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं (खंड चार)
कुछ लोग इतने भाग्यशाली होते हैं कि उन्हें कलीसिया में अगुआ के रूप में चुन लिया जाता है, लेकिन वास्तव में उनकी काबिलियत और आध्यात्मिक कद मानक के अनुरूप नहीं होते। अगुआ होना परमेश्वर की महिमा है, लेकिन वे इसे इस तरह से नहीं समझते। इसके बजाय वे सोचते हैं, “एक अगुआ के रूप में, मैं दूसरों की तुलना में बेहतर और अधिक ऊँचा हूँ; मैं अब कोई साधारण व्यक्ति नहीं हूँ। तुम सभी लोगों को परमेश्वर के सामने आज्ञाकारिता से झुकना और उसकी आराधना करनी चाहिए, पर मुझे ऐसा करने की जरूरत नहीं है क्योंकि मैं तुम लोगों से अलग हूँ; तुम लोग सृजित प्राणी हो, लेकिन मैं नहीं हूँ।” तो तुम क्या हो? क्या तुम भी देह और रक्त नहीं हो? तुम दूसरों से अलग कैसे हो? अंतर तुम्हारी बेशर्मी में छिपा है; तुम में सम्मान और तार्किकता की भावना का अभाव है, तुम्हारी एक कुत्ते से भी तुलना नहीं की जा सकती। तुम दूसरों की किसी भी सलाह को अनदेखा करते हुए स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से काम करते हो—यही अंतर है। चाहे उनकी अपनी काबिलियत कितनी भी कम क्यों न हो या काम करने में उनकी दक्षता कितनी भी कम क्यों न हो, तब भी वे खुद को औसत व्यक्ति से ऊपर समझते हैं, उन्हें लगता है कि उनमें योग्यता और प्रतिभा है। इसलिए वे चाहे जो करें, आम सहमति तक पहुँचने के लिए दूसरों से सलाह-मशविरा नहीं करते, वे सोचते हैं कि वे योग्य हैं या उनके पास सब कुछ नियंत्रित करने की पूर्ण क्षमता है। क्या यह अहंकार समझ-बूझ की हानि की ओर नहीं ले जाता? क्या यह खुलेआम बेशर्मी नहीं है? (हाँ।) अगुआ बनने से पहले वे अपनी दुम को पैरों के बीच दबाकर पेश आते थे; उन्हें लगता था कि उनमें प्रतिभा और क्षमता है, और वे अपने कार्यकलापों में कुछ महत्वाकांक्षाएँ पाले थे, लेकिन उनके पास बस अवसर नहीं था। जैसे ही वे अगुआ बने, तो उन्होंने खुद को भाई-बहनों से अलग कर लिया, खुद को श्रेष्ठ मान लिया। वे श्रेष्ठता का व्यवहार करने लगे, अपना असली रूप दिखाने लगे; वे सोचने लगे कि वे बड़ी चीजें हासिल कर सकते हैं, यह मानने लगे कि, “परमेश्वर के घर ने सही व्यक्ति को चुना है; मैं वास्तव में प्रतिभाशाली हूँ—सच्चा सोना अंततः चमकता ही है। अब मेरी ओर देखो : परमेश्वर ने मुझे पहचान लिया है, है न?” क्या यह घृणित नहीं है? (हाँ, है।) तुम साधारण सृजित प्राणियों में से बस एक हो; चाहे तुम्हारी प्रतिभा या गुण कितने भी महान क्यों न हों, तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बाकी सभी के समान ही है। यदि तुम सोचते हो कि तुम अद्वितीय रूप से असाधारण हो और खुद को श्रेष्ठ मानते हो, दूसरे सभी लोगों से ऊपर उठना चाहते हो, हर चीज से श्रेष्ठ होना चाहते हो, तो तुम गलत हो। इस गलतफहमी के कारण तुम दूसरों के साथ संगति या परामर्श किए बिना स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से कार्य करते हो, और तुम दूसरों के द्वारा अपनी आज्ञाकारिता और अनुपालन का भी आनंद लेना चाहते हो, जो गलत है। गलती कहाँ है? (गलत स्थिति अपनाने में।) मसीह-विरोधी हमेशा गलत स्थिति में क्यों होते हैं? एक बात तो तय है, जिसे शायद तुम लोगों ने महसूस न किया हो : दूसरों की तुलना में उनकी मानवता में कुछ अतिरिक्त होता है; उनके पास हमेशा एक तरह की गलतफहमी होती है। यह गलतफहमी आती कैसे है? यह परमेश्वर द्वारा नहीं बल्कि शैतान द्वारा दी जाती है। वे जो कुछ भी करते हैं, जो कुछ भी वे प्रकट करते हैं और व्यक्त करते हैं, वह मानवता की सामान्य सीमाओं के भीतर सहज प्रवृत्ति नहीं होती, बल्कि एक बाहरी शक्ति से संचालित होती है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि उनके कार्य कुटिल हैं, और उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ बेकाबू हैं? लोगों को नियंत्रित करने की उनकी इच्छा सीमाओं को पार कर गई है। सीमाओं को पार करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है किसी भी साधन का सहारा लेना, तर्क-शक्ति और शर्म की भावना को पार कर जाना; यह अदम्य होती है, एक स्प्रिंग की तरह—जब तुम इसे दबाते हो तो यह अस्थायी रूप से नीचे रह सकती है, लेकिन एक बार जब इसे छोड़ देते हो, तो यह वापस ऊपर आ जाती है। क्या यह इच्छा से ग्रसित होना और जुनून की ओर प्रेरित होना नहीं है? यह बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं है।
जहाँ कहीं भी किसी कलीसिया में मसीह-विरोधी के हाथ में सत्ता होती है, उस कलीसिया को अब कलीसिया नहीं कहा जा सकता। जिन लोगों ने इसका अनुभव किया है, उन्हें इसका एहसास होगा। वह शांति, आनंद और सामूहिक उत्थान का माहौल नहीं होता, बल्कि एक अशांत असामंजस्य का माहौल होता है। हर कोई विशेष रूप से बेचैन और व्याकुल महसूस करता है, अपने दिल में शांति महसूस करने में असमर्थ होता है, मानो कोई बड़ी आपदा आने वाली है। मसीह-विरोधी के शब्द और कार्यकलाप ऐसा माहौल पैदा करते हैं जिसमें लोगों के दिल भ्रमित हो जाते हैं, जिससे उनकी सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को पहचानने की क्षमता खो जाती है। इसके अलावा, लंबे समय तक मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किए जाने से लोगों के दिल परमेश्वर से दूर हो जाते हैं, जिससे परमेश्वर के साथ असामान्य संबंध बन जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे धर्म में लोग नाममात्र के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, पर उनके दिलों में उसके लिए कोई जगह नहीं होती। एक वास्तविक मुद्दा यह भी है कि जब मसीह-विरोधी सत्ता में होते हैं, तो वे कलीसिया के भीतर विभाजन और अराजकता का कारण बनते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, उन्हें सभाओं में कोई आनंद या मुक्ति महसूस नहीं होती और इसलिए वे कलीसिया छोड़कर घर पर रहते हुए परमेश्वर पर विश्वास करना चाहते हैं। जब पवित्र आत्मा किसी कलीसिया में काम करता है, तो चाहे लोग सत्य को समझें या नहीं, हर कोई दिल से और प्रयास में एकजुट होता है, जिससे एक अधिक शांतिपूर्ण और स्थिर वातावरण बनता है, जिसमें व्याकुलता नहीं होती। हालाँकि, जब भी मसीह-विरोधी कार्य करते हैं, तो वे बेचैनी से भरा और अजीब माहौल बना देते हैं। उनके हस्तक्षेप से गुटबाजी पैदा होती है, लोग एक-दूसरे के प्रति रक्षात्मक हो जाते हैं, एक-दूसरे की आलोचना करते हैं, और एक-दूसरे पर हमला करते हैं, पीठ पीछे एक-दूसरे को कमजोर करते हैं। स्पष्ट रूप से मसीह-विरोधी क्या भूमिका निभाते हैं? वे शैतान के सेवक होते हैं। मसीह-विरोधी के कार्यकलापों के परिणाम होते हैं : सबसे पहले, भाई-बहनों के बीच आपसी आलोचना, संदेह और सतर्कता; दूसरा, पुरुषों-महिलाओं के बीच की सीमाएँ खत्म होना, धीरे-धीरे अनुचित बातचीत की ओर ले जाना; और तीसरा, अपने दिलों में लोग दर्शन के बारे में अस्पष्ट हो जाते हैं, और वे सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित करना बंद कर देते हैं। वे अब नहीं जानते कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार कैसे कार्य करना है। धर्म-सिद्धांतों की जो थोड़ी-बहुत समझ उनमें थी, वह खो जाती है, उनके मन भ्रमित हो जाते हैं, और वे आँख मूँदकर मसीह-विरोधियों का अनुसरण करते हैं, केवल सतही काम करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। कुछ लोगों को लग सकता है कि मसीह-विरोधियों का अनुसरण करने से कुछ हासिल नहीं होता; अगर केवल सत्य का अनुसरण करने वाले लोग इकट्ठे होकर अपने कर्तव्यों को एक साथ निभा सकें, तो इससे कितनी खुशी मिलेगी! एक बार जब मसीह-विरोधियों के पास कलीसिया में सत्ता आ जाती है, तो पवित्र आत्मा काम करना बंद कर देता है, और भाई-बहनों पर अँधकार छा जाता है। परमेश्वर पर विश्वास करना और कर्तव्य निभाना नीरस हो जाता है। अगर यह लंबे समय तक जारी रहता है, तो क्या अधिकांश भाई-बहन परमेश्वर द्वारा हटा नहीं दिए जाएँगे?
आज एक पहलू में, हमने मसीह-विरोधियों के स्वेच्छाचारी और तानाशाह व्यवहार की अभिव्यक्तियों का गहन विश्लेषण किया। दूसरे पहलू में, इन अभिव्यक्तियों का गहन विश्लेषण करके सभी को इससे अवगत कराया जाता है कि भले ही तुम मसीह-विरोधी नहीं हो, लेकिन ऐसी अभिव्यक्तियों का होना तुम्हें मसीह-विरोधियों के गुणों से जोड़ता है। क्या स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से काम करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति होती है? बिल्कुल नहीं; स्पष्ट रूप से, यह एक भ्रष्ट स्वभाव का प्रदर्शन है। चाहे तुम्हारा रुतबा कितना भी ऊँचा हो या तुम कितने भी कर्तव्य निभा सकते हो, अगर तुम दूसरों के साथ संगति करना सीख सकते हो, तो तुम सत्य के सिद्धांतों को कायम रख रहे हो, जो एक न्यूनतम आवश्यकता है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि दूसरों के साथ संगति करना सीखना सिद्धांतों को कायम रखने के बराबर होता है? अगर तुम संगति करना सीख सकते हो, तो यह साबित होता है कि तुम अपने रुतबे को कमाई की चीज नहीं मानते या इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेते। चाहे तुम्हारा रुतबा कितना भी ऊँचा क्यों न हो, तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो। तुम्हारे कार्यकलाप तुम्हारे कर्तव्य के पालन के लिए किए जाते हैं, रुतबे के लिए नहीं। साथ ही, समस्याओं का सामना करते समय यदि तुम संगति करना सीख पाते हो और, चाहे वह साधारण भाई-बहनों के साथ हो या वे लोग हों जिनके साथ तुम सहयोग करते हो, तुम उनके साथ खोज करने और संगति करने में सक्षम होते हो, तो इससे क्या साबित होता है? यह दर्शाता है कि तुममें सत्य की खोज करने और उसके प्रति समर्पित होने का रवैया है, जो सबसे पहले परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये को प्रतिबिंबित करता है। इसके अलावा, अपना कर्तव्य निभाना तुम्हारी जिम्मेदारी होती है, और अपने काम में सत्य की तलाश करना वह मार्ग है जिसका तुम्हें अनुसरण करना चाहिए। जहाँ तक दूसरों की तुम्हारे निर्णयों पर प्रतिक्रिया का सवाल है, वे समर्पित हो पाते हैं या नहीं या कैसे समर्पित होते हैं, यह उनका मामला है; लेकिन तुम अपना कर्तव्य उचित ढंग से निभा सकते हो या नहीं और मानक स्तर के हो सकते हो या नहीं, यह तुम्हारा मामला है। तुम्हें कर्तव्य निभाने के सिद्धांतों को समझना होगा; यह किसी व्यक्ति के प्रति समर्पित होने के बारे में नहीं है बल्कि सत्य सिद्धांतों के प्रति समर्पित होने की बात है। अगर तुम्हें लगता है कि तुम सत्य सिद्धांतों को समझते हो और सभी के साथ संगति करने के माध्यम से एक आम सहमति पर पहुँच जाते हो जो सभी के लिए उपयुक्त होती है, लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जो अड़ियल हैं और परेशानी खड़ी करना चाहते हैं, तो ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए? इस मामले में अल्पसंख्यकों को बहुमत का अनुसरण करना चाहिए। चूँकि अधिकांश लोग आम सहमति पर पहुँच चुके होते हैं, तो वे परेशानी खड़ी करने क्यों सामने आते हैं? क्या वे जानबूझकर विनाश करने की कोशिश कर रहे हैं? वे अपनी राय व्यक्त कर सकते हैं ताकि हर कोई उनका भेद पहचान सके, और अगर हर व्यक्ति कहता है कि उनकी राय सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है और टिकाऊ नहीं है, तो उन्हें अपने दृष्टिकोण को त्याग देना चाहिए और उन पर अड़े रहना छोड़ देना चाहिए। इस मामले से निपटने का सिद्धांत क्या है? व्यक्ति को सही का समर्थन करना चाहिए और दूसरों को गलत का पालन करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। समझे? वास्तव में, मसीह-विरोधियों द्वारा स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का व्यवहार और अभ्यास प्रदर्शित करने से पहले उनके मन में पहले से ही अपनी योजनाएँ होती हैं। स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना निश्चित रूप से सही काम करने या सत्य का अभ्यास करने के बारे में नहीं बताता। यह निश्चित रूप से गलत काम करने और सत्य का उल्लंघन करने, गलत मार्ग पर चलने और गलत निर्णय लेने के साथ-साथ दूसरों से अपनी बात मनवाने के बारे में बताता है। इसे ही स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना कहा जाता है। अगर कोई चीज सही है और सत्य के अनुरूप है, तो उसका पालन किया जाना चाहिए। यह स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना नहीं होता; यह सिद्धांतों का पालन करना होता है। इन दोनों में अंतर किया जाना चाहिए। मुख्य रूप से मसीह-विरोधियों द्वारा स्वेच्छाचारी और तानाशाह होने का क्या मतलब होता है? (ऐसी चीजें करना जो सिद्धांतों या सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और फिर भी दूसरों से उनका पालन करवाना।) सही कहा, चाहे कोई भी स्थिति उत्पन्न हो या किसी भी समस्या से निपटा जा रहा हो, वे सत्य सिद्धांतों की तलाश नहीं करते बल्कि अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर निर्णय लेते हैं। वे अपने दिलों में जानते हैं कि ऐसा करना सिद्धांतों के खिलाफ है लेकिन फिर भी वे चाहते हैं कि दूसरे सुनें और समर्पण करें। यह मसीह-विरोधियों का एक निरंतर दृष्टिकोण होता है।
जब सुसमाचार फैलाने का कार्य पहली बार शुरू हुआ, तो कुछ लोग सुसमाचार का प्रचार करने के लिए धार्मिक मंडलियों में “वचन देह में प्रकट होता है” लेकर गए। सभी धार्मिक लोगों ने रहस्य उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों को पढ़ने, दर्शनों की संगति करने और जीवन प्रवेश पर चर्चा करने के बाद कहा कि वे काफी अच्छे थे। हालाँकि, उन्हें न्याय और लोगों को उजागर करने वाले कुछ वचनों में शब्दों के चुनाव बहुत कठोर लगे। उन्हें लगा कि उन्हें डाँटा जा रहा है और वे इसे स्वीकार नहीं कर सके, उन्होंने कहा, “क्या परमेश्वर लोगों को डाँटने वाले ढंग से बोल सकता है? ये वचन ज्यादा से ज्यादा एक बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा लिखे गए प्रतीत होते हैं।” सुसमाचार प्रचार के लिए जिम्मेदार व्यक्ति ने कहा कि उसके पास एक समाधान है। बाद में, उसने परमेश्वर के वचनों के उन सभी हिस्सों को बदल दिया जो लोगों की धारणाओं, कल्पनाओं और अभिरुचियों के साथ मेल नहीं खाते थे, साथ ही उन वचनों को भी बदल दिया जिनके बारे में उसे डर था कि उन्हें पढ़ने के बाद लोगों में धारणाएँ विकसित हो जाएँगी। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने मानव प्रकृति को उजागर करने के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया था, जैसे “पतिता,” “वेश्या,” “बदमाश,” और “नरक में फेंका जाना” और “आग और गंधक की झील में फेंका जाना” जैसे वाक्यांश, सभी हटा दिए गए। संक्षेप में, कोई भी शब्द जो आसानी से धारणाओं या गलतफहमियों को जन्म दे सकता था, उसे पूरी तरह से हटा दिया गया। मुझे बताओ, परमेश्वर के वचनों से न्याय, निंदा और शाप के इन वचनों को हटाने के बाद क्या वे परमेश्वर के मूल वचन रहे? (नहीं।) क्या वे अभी भी परमेश्वर द्वारा अपने न्याय के कार्य में व्यक्त किए गए वचन हैं? इस “बूढ़े सज्जन” ने किसी से परामर्श नहीं किया और परमेश्वर के कई वचन हटा दिए जो विशेष रूप से शोधन और लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करने के बारे में कठोर थे, विशेष रूप से सेवाकर्मियों के परीक्षण के समय से संबंधित वचन। बाद में, जब धार्मिक लोगों ने संशोधित संस्करण पढ़ा, तो उन्होंने कहा, “बुरा नहीं है, हम ऐसे परमेश्वर में विश्वास कर सकते हैं,” और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। इस बूढ़े सज्जन ने सोचा, “देखो मैं कितना चतुर हूँ! परमेश्वर के वचनों के बहुत कठोर होने में बुद्धिमानी नहीं है। उन लोगों के लिए मुख्य है उनकी खुशामद करना—तुम ऐसी बातें कैसे कह सकते हो जिन्हें डाँट समझ लिया जाए? यह बुद्धिमानी नहीं है! मैंने कुछ बदलाव किए, और देखो क्या हुआ : यहाँ तक कि धार्मिक पादरी भी विश्वास करने को तैयार हैं, और अधिक से अधिक लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं। कैसा रहा? क्या मैं बुद्धिमान नहीं हूँ? क्या मैं होशियार नहीं हूँ? क्या यह काफी प्रभावशाली नहीं है?” अपने बदलावों के नतीजों से उसे खुद पर बहुत गर्व होने लगा। हालाँकि, कलीसिया में प्रवेश करने वाले कुछ धार्मिक लोगों ने पाया कि उन्होंने परमेश्वर के जो वचन पढ़े थे वे बदले गए थे और कलीसिया में मूल ग्रंथों से अलग थे, और यह मुद्दा उठाया गया। बाद में पता चला कि इस बूढ़े सज्जन ने परमेश्वर के वचनों की सामग्री बदल दी थी। इस बूढ़े सज्जन ने जो किया उसके बारे में तुम लोगों का क्या खयाल है? चलो कुछ और उल्लेख नहीं करते और बस इतना कहते हैं : वे वचन तुम्हारे नहीं थे, तुम्हें उनको बदलने का कोई अधिकार नहीं था। भले ही यह किसी इंसान द्वारा लिखा गया लेख या किताब हो, अगर तुम बदलाव करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले मूल लेखक की सहमति लेनी होगी। यदि वह सहमत है, तो तुम परिवर्तन कर सकते हो। यदि वह सहमत नहीं है, तो तुम एक भी शब्द नहीं बदल सकते। इसे लेखक और पाठकों का सम्मान करना कहते हैं। यदि लेखक में संशोधन करने की ऊर्जा नहीं है और वह तुम्हें अधिकृत करता है, कहता है कि जब तक मूल अर्थ बचा रहता है और वह वांछित प्रभाव हासिल कर लेता है, तब तक तुम कुछ भी बदल सकते हो, तो क्या तुम परिवर्तन कर सकते हो? (हाँ।) यदि लेखक ने अपनी सहमति दी है या अधिकृत कर दिया है, तो परिवर्तन किए जा सकते हैं। इस तरह के व्यवहार को क्या कहा जाता है? यह न्यायोचित, वैध और उचित होता है, है ना? लेकिन यदि लेखक सहमत नहीं है और तुम बिना उनके अधिकृत किए इसे बदल देते हो? इसे क्या कहा जाता है? (लापरवाह और दुराग्रही होना।) इसे लापरवाह और दुराग्रही, स्वेच्छाचारी और तानाशाह होना कहा जाता है। अब, इस बूढ़े सज्जन ने क्या बदला था? (परमेश्वर के वचन।) परमेश्वर के मूल वचन, जो मानवजाति के प्रति परमेश्वर की मनोदशा, स्वभाव और इरादों को शामिल किए हुए हैं। परमेश्वर के वचन जिस तरह से कहे जाते हैं, वे अर्थपूर्ण होते हैं। क्या तुम परमेश्वर द्वारा बोले गए प्रत्येक वचन के पीछे की मनोदशा, उद्देश्य और वांछित प्रभाव को जानते हो? यदि तुम इसकी थाह नहीं पा सकते, तो आँख मूँदकर परिवर्तन क्यों करते हो? परमेश्वर द्वारा बोला गया प्रत्येक वाक्य, शब्दों का चयन, लहजा, और वातावरण, मनोदशा और भावनाएँ जो वे लोगों को महसूस कराती हैं, सभी को सावधानीपूर्वक निरूपित किया गया है और उन पर विचार किया गया है। परमेश्वर के पास विचार-विमर्श और बुद्धि है। इस वृद्ध सज्जन ने क्या सोचा था? उसने परमेश्वर के बोलने के तरीके को अविवेकपूर्ण माना था। वह परमेश्वर के कार्य को इसी तरह देखता था। उसका मानना था, “धर्म में जो लोग केवल पेट भरकर खाना चाहते हैं, उन्हें मनाना चाहिए और उनसे प्यार और दया से पेश आना चाहिए। शब्द इतने कठोर नहीं हो सकते। अगर वे बहुत कठोर हैं, तो हम सुसमाचार का प्रचार कैसे कर सकते हैं? क्या तब भी सुसमाचार फैलाया जा सकता है?” क्या परमेश्वर इस बारे में नहीं जानता? (हाँ।) परमेश्वर बहुत अच्छी तरह जानता है। फिर भी वह इस तरह से क्यों बोलता है? यह परमेश्वर का स्वभाव है। परमेश्वर का स्वभाव क्या होता है? यह है अपने तरीके से बोलना, चाहे तुम विश्वास करो या न करो। अगर तुम विश्वास करते हो, तो तुम परमेश्वर की भेड़ों में से एक हो; अगर तुम विश्वास नहीं करते, तो तुम भेड़िए हो। परमेश्वर के वचन तुम्हें उजागर करते हैं और तुम्हें थोड़ा डाँटते हैं, और फिर तुम यह मानने से इनकार कर देते हो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने वाले हो? क्या, क्या तुम अब परमेश्वर के सृजित प्राणी नहीं रहे? क्या परमेश्वर परमेश्वर नहीं रह गया है? यदि तुम इस कारण से परमेश्वर को अस्वीकार कर सकते हो, तो तुम एक बुरे व्यक्ति हो, एक शैतान हो। परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता, इसलिए कलीसिया को उन्हें जबरन या बहला-फुसलाकर स्वीकार नहीं करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “भले ही परमेश्वर मुझे डाँटे, मैं खुशी-खुशी तैयार हूँ। यदि वह परमेश्वर है, तो वह मुझे बचा सकता है। यदि वह मुझे मारता है, तो यह उचित है। यदि वह मुझे भ्रमित व्यक्ति कहता है, तो मैं भ्रमित व्यक्ति हूँ, और उससे भी अधिक भ्रमित व्यक्ति हूँ; यदि वह मुझे पतिता कहता है, हालाँकि ऐसा नहीं लगता कि मैंने वह किया है जो एक पतिता करती है, चूँकि परमेश्वर ने ऐसा कहा है, मैं इसे मानती हूँ और स्वीकार करती हूँ।” उनके पास सबसे सरल विश्वास होता है, उनके पास अभिस्वीकृति और स्वीकृति होती है, और सबसे सरल परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है। परमेश्वर ऐसे लोगों को प्राप्त करना चाहता है। कुछ लोगों को परमेश्वर के वचन बहुत कठोर और चुभने वाले लगते हैं, उन्हें लगता है कि उन्हें आशीष नहीं मिलेगा, और इसलिए वे अब और विश्वास नहीं करना चाहते। वे सोचते हैं, “भले ही तुम परमेश्वर हो, मैं तुम पर विश्वास नहीं करूँगा। यदि तुम इस तरह बोलते हो, तो मैं तुम्हारा अनुसरण नहीं करूँगा।” तो भागो! यदि तुम परमेश्वर को स्वीकार ही नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें अपना सृजित किया हुआ प्राणी कैसे मान सकता है? यह असंभव है! परमेश्वर के वचन यहाँ रखे हैं; उन पर विश्वास करो या नहीं, यह तुम्हारा निर्णय है। यदि तुम विश्वास नहीं करते, तो जाओ, भागो। तुम चूक जाओगे। यदि तुम विश्वास करते हो, तो तुम्हारे पास उद्धार की आशा की किरण होगी। क्या यह उचित नहीं है? (हाँ।) लेकिन क्या इस बूढ़े सज्जन ने इस तरह सोचा था? क्या वह परमेश्वर के विचारों की असलियत जान पाया था? (नहीं।) क्या वह मूर्ख नहीं था? जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती, वे ऐसे मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं। उसने परमेश्वर को बहुत तुच्छ और सरल समझा, यह सोचते हुए कि परमेश्वर के विचार मानवीय सोच से अधिक ऊँचे नहीं हैं। वह अक्सर परमेश्वर के विचारों को मनुष्य के विचारों से ऊँचा होने की बात करता था, साधारण समय में इन बड़े धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करता था, लेकिन जब वास्तव में स्थिति से सामना हुआ, तो उसने इन वचनों के बारे में सोचा तक नहीं था, उसे महसूस हुआ कि परमेश्वर के ये वचन कुछ ऐसे नहीं लगते जिन्हें परमेश्वर कह सकता है। अपने दिल में उसने परमेश्वर के इन वचनों को मंजूर नहीं किया, इसलिए वह उन्हें स्वीकार नहीं कर सका। जैसे ही सुसमाचार प्रचार किया जा रहा था, उसने तेजी से परमेश्वर के वचनों को बदलने का अवसर हथिया लिया, यहाँ तक कि “प्रभावी ढंग से सुसमाचार प्रचार करने और अधिक लोगों को प्राप्त करने” की आड़ में। मैंने आखिरकार उसके व्यवहार को कैसे निरूपित किया? परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ के रूप में। छेड़छाड़ का क्या मतलब है? इसका मतलब है स्वेच्छाचारी ढंग से मूल अर्थ को जोड़ना, घटाना या बदलना, लेखक के इच्छित अर्थ को बदल देना, बोलने में लेखक के शुरुआती इरादों और उद्देश्य की अनदेखी करना और फिर उन्हें बेतरतीब ढंग से बदल देना। इसे ही छेड़छाड़ कहा जाता है। क्या उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल था? (नहीं।) ऐसी दुस्साहस! क्या ऐसा कुछ कोई इंसान करेगा? (नहीं।) यह किसी इंसान का नहीं, दानव का काम है। तुम किसी आम इंसान के शब्दों में भी यूँ ही बदलाव नहीं कर सकते; तुम्हें लेखक की राय का सम्मान करना होगा। अगर तुम बदलाव करना चाहते हो, तो तुम्हें उसे पहले से सूचित करना होगा और उसकी सहमति लेनी होगी, और केवल उसकी अनुमति मिलने के बाद ही तुम उसकी राय के अनुसार संशोधन कर सकते हो। इसे सम्मान करना कहते हैं। जब बात परमेश्वर की आती है, तो सम्मान से कहीं ज्यादा की अपेक्षा होती है! अगर परमेश्वर के वचनों में एक भी वाक्य गलत छपा है, अगर उसमें एक भी व्याकरणिक चूक है, तो तुम्हें पूछना होगा कि क्या यह स्वीकार्य है; अगर नहीं, तो तुम्हें उस पृष्ठ को फिर से छापना होगा। इसके लिए इतना गंभीर और जिम्मेदाराना रवैया चाहिए; इसे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना कहते हैं। क्या इस बूढ़े सज्जन के पास ऐसा हृदय था? (नहीं।) उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं था। वह परमेश्वर को अपने से नीचे समझता था; वह बहुत ही दुस्साहसी था। ऐसे व्यक्ति को निष्कासित कर देना चाहिए।
हाल ही में ऐसी ही एक घटना घटी। कुछ लोगों ने एक बार फिर सुसमाचार प्रचार करने और अधिक लोगों को प्राप्त करने के बहाने का इस्तेमाल लापरवाही से परमेश्वर के वचनों को बदलने के लिए किया। इस बार यह पिछली बार से थोड़ा बेहतर था; पिछली बार यह स्वेच्छाचारी और तानाशाह ढंग से किया गया था, दूसरों के साथ संगति किए बिना, परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने के लिए बेतरतीब और लापरवाही से काम किया गया था। इस बार उन्होंने पहले ऊपर वाले से पूछा, “एक निश्चित जातीय समूह के लोग परमेश्वर के वचनों में कुछ शब्द स्वीकार नहीं कर सकते। हमने उन शब्दों को परमेश्वर के वचनों में कथनों या अंशों के उन हिस्सों को जिन्हें वे स्वीकार नहीं कर सकते, हटाने या बदलने की रणनीति बनाई है, और फिर उन्हें परमेश्वर के वचनों के विशेष रूप से तैयार संस्करण के साथ उपदेश दिया जाए। क्या वे तब विश्वास नहीं करेंगे?” इसे देखो; वे वास्तव में दुस्साहसी हैं। यह किस तरह का व्यवहार है? यदि नरमी से व्यवहार करें, तो ऐसे लोगों को बस मूर्ख और अज्ञानी और बहुत छोटा माना जा सकता है; उन्हें बस इतना कहा जा सकता है कि वे ऐसा दोबारा न करें। लेकिन अगर हम उनकी करनी की प्रकृति को निरूपित करें तो वे शैतान को खुश करने के लिए परमेश्वर के वचनों में यूँ ही फेरबदल कर रहे थे। इसे क्या कहते हैं? यह यहूदा, गद्दारों और विश्वासघातियों का व्यवहार है, जो महिमा के लिए प्रभु को धोखा दे देते हैं। उन्होंने परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ की, लोगों को खुश करने और उन्हें सुसमाचार स्वीकार करवाने के लिए अधिक स्वादिष्ट और स्वीकार्य बना दिया—इसका क्या मतलब है? भले ही पृथ्वी पर एक भी व्यक्ति विश्वास न करे, तो क्या परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन नहीं रह जाते? क्या परमेश्वर के वचनों की प्रकृति बदल जाती है? (नहीं।) क्या परमेश्वर के वचन केवल तभी सत्य होते हैं जब वे उन्हें स्वीकार करते हैं, और यदि वे नहीं करते, तो उसके वचन सत्य नहीं होते? क्या परमेश्वर के वचनों की प्रकृति इस वजह से बदल सकती है? बिल्कुल भी नहीं। सत्य सत्य है; यदि तुम इसे स्वीकार नहीं करते, तो तुम तबाह हो जाते हो! सुसमाचार प्रचार करने वाले कुछ लोग सोचते हैं, “स्वीकार न करने के कारण वे कितने दयनीय हैं! वे कितने महान और अभिजात्य लोग हैं। परमेश्वर उनसे इतना प्यार करता है और उन पर इतनी दया करता है, तो हम उन्हें थोड़ा प्यार कैसे न करें? चलो परमेश्वर के वचनों को बदल देते हैं ताकि वे उन्हें स्वीकार कर सकें। वे लोग कितने अद्भुत हैं, और परमेश्वर उनके प्रति कितना अच्छा और दयालु है। हमें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए!” क्या यह दिखावा नहीं है? (हाँ है।) एक और बहुरूपिया—जो लोग सत्य नहीं समझते वे केवल मूर्खतापूर्ण कार्य ही कर सकते हैं! यह पहले ही कहा जा चुका है कि जिसने परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ की थी, उससे निपटा गया और उसे निष्कासित किया गया, और ऐसे लोग हैं जो फिर से उनके साथ छेड़छाड़ करना चाहते हैं। वे क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं? क्या यह महिमा के लिए प्रभु को धोखा देना नहीं है? (हाँ है।) यह शैतान को प्रसन्न करते हुए महिमा के लिए प्रभु को धोखा देना है। क्या परमेश्वर के वचन व्यावहारिक नहीं हैं? क्या उन्हें खुले तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता? क्या तुम उन्हें सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करते? यदि तुम उन्हें स्वीकार नहीं करते, तो फिर तुम अभी तक विश्वास क्यों करते हो? यदि तुम लोग सत्य स्वीकार नहीं कर सकते, तो परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब ही क्या है? इस तरह से उद्धार प्राप्त करना असंभव है। चाहे परमेश्वर जैसे भी बोले, चाहे वह जो भी शब्द इस्तेमाल करे जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाते, वह फिर भी परमेश्वर है, और उसका सार नहीं बदलता। चाहे तुम कितनी भी अच्छी बातें बोलो, चाहे तुम कुछ भी करो, चाहे तुम खुद को कितना भी दयालु, परोपकारी या प्रेमपूर्ण समझो, तुम फिर भी एक इंसान हो, एक भ्रष्ट इंसान। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने से इनकार करते हो और शैतान को खुश करने के लिए परमेश्वर के वचनों को बदलने का प्रयास करते हो। यह किस तरह का व्यवहार है? यह घृणित है! मैंने सोचा था कि परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ की प्रकृति को लेकर हुई पिछली संगतियों के बाद अब सुसमाचार प्रचार करने के मामले में ऐसा मुद्दा फिर नहीं उठेगा। फिर भी, अविश्वसनीय रूप से अभी भी ऐसे लोग हैं जो छेड़छाड़ करने और ऐसे विचारों को मन में लाने का साहस कर रहे हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति इन लोगों का रवैया कैसा है? (अनादर का है।) वे पूरी तरह से लापरवाह हैं! उनके दिलों में, परमेश्वर के वचन पंखों की तरह हल्के हैं, उनसे कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। वे सोचते हैं, “परमेश्वर के वचनों को किसी भी तरह से रखा जा सकता है; मैं उसके वचनों को अपनी इच्छानुसार बदल सकता हूँ। उन्हें मानवीय धारणाओं और अभिरुचियों के अनुरूप बनाना बेहतर है। परमेश्वर के वचन ऐसे ही होने चाहिए!” जो लोग परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने जैसे काम करते हैं, उन्हें मसीह-विरोधी के रूप में निरूपित किया जा सकता है। वे बेपरवाही से और बिना विचारे काम करते हैं, बेतरतीब ढंग से छेड़छाड़ करते हैं; वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, और उनमें अन्य मसीह-विरोधियों के समान ही स्वभाव और गुण होते हैं। और एक और बात है : जब वे खतरे का सामना करते हैं या जब उनके अपने हितों को नुकसान पहुँचता है, तो उनका पहला विचार और कार्य क्या होता है? वे क्या चुनते हैं? वे खुद को बचाने के लिए परमेश्वर के हितों और परमेश्वर के घर के हितों को धोखा देने का चुनाव करते हैं। जो लोग परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करते हैं, क्या वे वास्तव में प्रभावी ढंग से सुसमाचार प्रचार करने के लिए ऐसा करते हैं? उनकी तथाकथित प्रभावशीलता के पीछे छिपा हुआ उद्देश्य क्या होता है? वे अपनी प्रतिभा और क्षमताओं का प्रदर्शन करना चाहते हैं, ताकि लोग देख सकें, “देखो मैं कितना सक्षम हूँ! देखो मेरे बदलाव करने के बाद सुसमाचार प्रचार करना कितना प्रभावी हो गया है? तुम लोगों के पास वैसा कौशल नहीं है, तुम लोग ऐसा सोचने की हिम्मत भी नहीं करोगे। देखो, मेरे विचारों और कार्यों से मैंने जो नतीजे प्राप्त किए हैं, उन्हें देख रहे हो?” ये लोग परमेश्वर के वचनों की अवहेलना करते हैं और प्रसिद्धि और रुतबे का अनुसरण करने की अपनी महत्वाकांक्षा और इच्छा को पूरा करने के लिए उनके साथ छेड़छाड़ करते हैं। क्या उनका चरित्र मसीह-विरोधी का नहीं है? उन्हें मसीह-विरोधी के रूप में निरूपित करना बिल्कुल भी अन्यायपूर्ण नहीं है।
मसीह-विरोधियों के स्वेच्छाचार और तानाशाही की एक और अभिव्यक्ति क्या होती है? वे कभी भी भाई-बहनों के साथ सत्य की संगति नहीं करते, न ही वे लोगों की असल समस्याओं का समाधान करते हैं। इसके बजाय, वे लोगों को उपदेश देने के लिए केवल शब्द और सिद्धांतों का भाषण देते हैं, और दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर भी करते हैं। अब ऊपरवाले और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये और दृष्टिकोण के बारे में क्या? यह धोखे और कपट के अलावा और कुछ नहीं होता। कलीसिया के भीतर के मुद्दों के बावजूद वे कभी भी ऊपरवाले को कुछ भी नहीं बताते। वे जो भी करते हैं, उसके लिए कभी भी ऊपरवाले से नहीं पूछते। ऐसा लगता है कि उनके पास कोई भी मुद्दा नहीं है जिसके लिए ऊपरवाले से संगति या निर्देश की आवश्यकता हो—वे जो कुछ भी करते हैं वह चोरी-छिपे और गुप्त होता है, और पर्दे के पीछे होता है। इसे छलपूर्ण हेरफेर कहा जाता है, जहाँ वे अपनी चलाना चाहते हैं और निर्णय लेने वाले बनना चाहते हैं। हालाँकि, कभी-कभी वे स्वांग भी करते हैं, ऊपरवाले से पूछताछ करने के लिए तुच्छ मामले सामने लाते हैं, ऐसे दिखाते हैं मानो वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हैं, जिससे ऊपरवाले को यह गलतफहमी हो जाती है कि वे हर चीज में अत्यंत सावधानी से सत्य की तलाश करते हैं। वास्तव में, वे किसी भी महत्वपूर्ण मामले पर मार्गदर्शन नहीं माँगते, एकतरफा निर्णय लेते हैं और ऊपरवाले को अँधेरे में रखते हैं। यदि कोई समस्या आती है, तो उनके इसकी रिपोर्ट करने की संभावना कम है, उन्हें डर होता है कि इससे उनकी सत्ता, रुतबा या प्रतिष्ठा प्रभावित हो सकते हैं। मसीह-विरोधी स्वेच्छाचारी और तानाशाह तरीके से काम करते हैं; वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते और दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं। सीधे कहें तो इस व्यवहार की प्राथमिक अभिव्यक्तियाँ व्यक्तिगत उद्यम में संलग्न होना; अपना प्रभाव, व्यक्तिगत गुट और संबंध विकसित करना; अपने स्वयं के उपक्रमों में लगे रहना हैं; और फिर वे जो चाहे करते रहते हैं, वे अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और पारदर्शिता के बिना कार्य करते हैं। मसीह-विरोधियों की दूसरों से अपने आगे समर्पण कराने की इच्छा और चाहत विशेष रूप से प्रबल होती है; वे लोगों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी आज्ञा का पालन करें जैसे एक शिकारी अपने कुत्ते को अपनी आज्ञा मानने के लिए कहता है, सही-गलत का कोई विवेक नहीं होने देता, पूर्ण रूप से अनुपालन और अधीनता पर जोर देता है।
मसीह-विरोधियों के स्वेच्छाचार और तानाशाही की एक और अभिव्यक्ति निम्नलिखित परिदृश्य में देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी खास कलीसिया का अगुआ मसीह-विरोधी है, और यदि उच्चस्तरीय अगुआ और कार्यकर्ता उस कलीसिया के काम के बारे में जानने और उसमें हस्तक्षेप करने का इरादा रखते हैं, तो क्या यह मसीह-विरोधी सहमत होगा? बिल्कुल नहीं। वह कलीसिया को किस हद तक नियंत्रित करता है? एक अभेद्य किले की तरह, जिसमें न तो सुई जा सकती है और न पानी अंदर रिस सकता है, वह किसी और को शामिल होने या पूछताछ करने की अनुमति नहीं देता। जब उसे पता चलता है कि अगुआ और कार्यकर्ता काम के बारे में जानने के लिए आ रहे हैं, तो वह भाई-बहनों से कहता है, “मुझे नहीं पता कि इन लोगों के आने का क्या उद्देश्य है। वे हमारे कलीसिया की वास्तविक स्थिति को नहीं समझते। यदि उन्होंने हस्तक्षेप किया, तो वे हमारे कलीसिया का काम बाधित कर सकते हैं।” इस तरह वह भाई-बहनों को गुमराह करता है। एक बार जब अगुआ और कार्यकर्ता आ जाते हैं, तो वह भाई-बहनों को उनसे संपर्क करने से रोकने के लिए विभिन्न कारण और बहाने ढूँढ़ता है, जबकि वह अगुआओं और कार्यकर्ताओं का पाखंडपूर्ण तरीके से मनोरंजन करता है, उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने की आड़ में उन्हें एक जगह अलग-थलग करके रखता है; लेकिन वास्तव में, यह उन्हें भाई-बहनों से मिलने और उनसे हालात के बारे में जानने से रोकने के लिए होता है। जब अगुआ और कार्यकर्ता कार्य की स्थिति के बारे में पूछते हैं, तो मसीह-विरोधी झूठी छवि पेश करके उन्हें धोखा देने में लग जाता है; वह अपने से ऊपर के लोगों को धोखा देता है और अपने से नीचे के लोगों से सत्य छिपाता है, अपने बयानों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, और उन्हें धोखा देने के लिए कार्य की प्रभावशीलता को बढ़ा-चढ़ाकर बताता है। जब अगुआ और कार्यकर्ता कलीसिया के भाई-बहनों से मिलने का सुझाव देते हैं, तो वह जवाब देता है, “मैंने कोई व्यवस्था नहीं की है! आपने आने से पहले मुझे सूचित नहीं किया। अगर आपने किया होता, तो मैं कुछ भाई-बहनों को आपसे मिलवाने की व्यवस्था कर देता। लेकिन वर्तमान शत्रुतापूर्ण माहौल को देखते हुए सुरक्षा कारणों से यह बेहतर है कि आप लोग भाई-बहनों से न मिलें।” हालाँकि उसके शब्द उचित लगते हैं, लेकिन एक समझदार व्यक्ति इस मुद्दे को पहचान सकता है : “वह नहीं चाहता कि अगुआ और कार्यकर्ता भाई-बहनों से मिलें क्योंकि उसे उजागर होने का डर होता है, उसे डर होता है कि उसके काम में खामियाँ और विचलन बेनकाब हो जाएँगे।” मसीह-विरोधी कलीसिया के भाई-बहनों को कसकर नियंत्रित करता है। यदि अगुआ और कार्यकर्ता जिम्मेदार नहीं हैं, तो वे आसानी से मसीह-विरोधी द्वारा धोखा खा सकते हैं और मूर्ख बनाए जा सकते हैं। कलीसिया के भाई-बहनों की वास्तविक स्थिति, उनकी अनसुलझी रही कठिनाइयाँ, क्या ऊपर वाले की संगति और उपदेश और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें भाई-बहनों को समय पर दिए जाते हैं, कलीसिया की विभिन्न कार्य परियोजनाएँ कैसे आगे बढ़ रही हैं, क्या कोई विचलन या समस्याएँ हैं—ये सभी बातें अगुआ और कार्यकर्ता नहीं जान पाएँगे। भाई-बहन परमेश्वर के घर में किसी भी नई कार्य व्यवस्था से भी अनजान होते हैं; इस प्रकार, मसीह-विरोधी कलीसिया को पूरी तरह से नियंत्रित करता है, सत्ता पर एकाधिकार जमाए रखता है और मामलों में अंतिम निर्णय लेता रहता है। कलीसिया के भाई-बहनों को उच्चस्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं से संपर्क करने का कोई अवसर नहीं मिलता और तथ्यात्मक सत्य को न जानने से वे मसीह-विरोधी द्वारा गुमराह और नियंत्रित होते हैं। मसीह-विरोधी चाहे जो भी बोले, इन निरीक्षक अगुआओं और कार्यकर्ताओं में विवेक की कमी होती है और वे अभी भी सोच रहे होते हैं कि मसीह-विरोधी अच्छा काम कर रहा है, वे उस पर पूरा भरोसा करते हैं। यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को मसीह-विरोधी की देखभाल में सौंपने के समान है। जब मसीह-विरोधी लोगों को गुमराह कर रहे होते हैं, तब यदि अगुआ और कार्यकर्ता इसका भेद पहचानने में असमर्थ होते हैं, गैर-जिम्मेदार होते हैं, और नहीं जानते कि इससे कैसे निपटें, तो क्या यह कलीसिया के काम में बाधा डालना नहीं है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाना नहीं है? ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता क्या नकली अगुआ और कार्यकर्ता नहीं हैं? मसीह-विरोधी द्वारा नियंत्रित कलीसिया के संबंध में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को हस्तक्षेप करना चाहिए और पूछताछ करनी चाहिए, और उन्हें मसीह-विरोधी को तुरंत सँभालना और उससे छुटकारा पाना चाहिए—इसमें कोई दो राय नहीं है। अगर ऐसे नकली अगुआ हैं जो वास्तविक कार्य नहीं करते और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह करने वाले मसीह-विरोधी को अनदेखा करते हैं, तो चुने हुए लोगों को इन नकली अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उजागर करना चाहिए, उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए, उन्हें उनके पदों से हटाना चाहिए और उनकी जगह अच्छे अगुआओं को लाना चाहिए। लोगों को गुमराह करने वाले मसीह-विरोधी के मुद्दे को पूरी तरह से हल करने का यही एकमात्र तरीका है। कुछ लोग कह सकते हैं, “हो सकता है कि ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता खराब काबिलियत वाले और विवेकहीन थे, यही वजह है कि वे मसीह-विरोधी के मुद्दे को सँभालने और हल करने में विफल रहे। वे जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहे हैं; क्या उन्हें एक और मौका नहीं दिया जाना चाहिए?” ऐसे भ्रमित अगुआओं को और कोई मौका नहीं दिया जाना चाहिए। अगर उन्हें और मौका दिया जाता है, तो वे केवल परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाते रहेंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं; उनमें अंतरात्मा और विवेक की कमी है, और वे अपने कार्यकलापों में सिद्धांतहीन हैं—वे घृणित लोग हैं जिन्हें हटा दिया जाना चाहिए! पिछले दो वर्षों में कुछ कलीसियाओं के कुछ भाई-बहन ऐसे नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों को हटाने के लिए एकजुट हुए हैं जो वास्तविक कार्य नहीं करते हैं और उन्हें बरखास्त करवा और निकलवा दिया है। क्या यह अच्छी बात नहीं है? (हाँ।) मुझे ऐसी अच्छी खबर सुनकर खुशी होती है; यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन में बढ़ने और परमेश्वर में विश्वास करने के सही मार्ग पर प्रवेश करने का सबसे अच्छा सबूत है। यह दर्शाता है कि लोगों ने कुछ विवेक और आध्यात्मिक कद प्राप्त कर लिया है, और अब वे नकली अगुआओं, मसीह-विरोधियों और दुष्ट राक्षसों द्वारा नियंत्रित नहीं होते। साधारण नकली अगुआ और मसीह-विरोधी अब परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह या नियंत्रित नहीं कर सकते, जो अब रुतबे या शक्ति से बेबस नहीं हैं। उनमें नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानने और उजागर करने, उन्हें निर्वासित करने और हटाने का साहस है। वास्तव में, चाहे अगुआ और कार्यकर्ता हों या परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कोई साधारण व्यक्ति, सभी का दर्जा परमेश्वर के सामने समान है, केवल उनके कर्तव्यों में अंतर होता है। परमेश्वर के घर में रुतबे में कोई अंतर नहीं होता, केवल कर्तव्य और जिम्मेदारी में अंतर होता है। जब नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों द्वारा कलीसिया के काम में बाधा डाली जाए, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों, दोनों को ही उन्हें उजागर करना चाहिए और उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए, उनसे तुरंत निपटना चाहिए, मसीह-विरोधियों को कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। यह जिम्मेदारी सभी के लिए समान है और सभी के लिए साझा है।
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