अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (27) खंड छह
जो लोग ढुलमुल होते हैं, दरअसल वे भले-चंगे होने पर भी शंकाएँ पाले रहते हैं और हमेशा जाँच-परख करते रहते हैं। उत्पीड़न और गिरफ्तारियों का सामना करते ही वे ढुलमुल होने लगते हैं। यह दर्शाता है कि परमेश्वर में अपने सामान्य विश्वास में उनमें सच्ची आस्था नहीं होती है। हालात उत्पन्न होने पर वे बेनकाब हो जाते हैं। यह दर्शाता है कि वे परमेश्वर के कार्य के बारे में कभी भी आश्वस्त नहीं रहे हैं और हमेशा प्रश्न और जाँच-परख करते रहे हैं। उन्होंने कलीसिया क्यों नहीं छोड़ी है? वे सोचते हैं, “मैंने इतने सारे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और बहुत कष्ट सहा है। अगर अब मैंने बिना कोई फायदा उठाए कलीसिया छोड़ दी तो क्या यह नुकसान नहीं होगा? क्या वह सारा कष्ट सहना बेकार नहीं जाएगा?” वे यही सोचते हैं। तुम शायद यह सोचो कि वे आश्वस्त हैं, उनमें आस्था है, वे सत्य समझते हैं, लेकिन दरअसल ऐसा नहीं है। वे अभी भी संदेह में हैं, अभी भी जाँच-परख कर रहे हैं। अपने दिलों में वे बस यह देखना चाहते हैं कि क्या परमेश्वर के घर का कार्य सही मायने में फलता-फूलता है, क्या कार्य की हर मद फल देती है और क्या इसने दुनिया पर बड़ा प्रभाव डाला है। वे विशेष रूप से ऐसी बातें जानना चाहते हैं : विभिन्न देशों में कलीसियाओं द्वारा सुसमाचार प्रचार कैसा चल रहा है? क्या यह बड़े पैमाने पर फैल रहा है और प्रभाव छोड़ रहा है? क्या इस धारा की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता है? क्या कुछ मशहूर लोगों या प्रभावशाली हस्तियों ने कार्य के इस चरण को स्वीकार किया है? क्या संयुक्त राष्ट्र द्वारा सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया को मान्यता या स्वीकृति दी गई है? क्या इसे विभिन्न देशों की सरकारों का समर्थन प्राप्त है? क्या विभिन्न देशों में भाई-बहनों के राजनीतिक शरण के लिए उनके आवेदनों को स्वीकृति मिल चुकी है? ऐसे लोग इस प्रकार की चीजों के बारे में हमेशा चिंतित रहते हैं और यह उनके ढुलमुल होने की एक स्पष्ट अभिव्यक्ति है। जब वे देख लेते हैं कि परमेश्वर के घर ने शक्ति प्राप्त कर ली है और सुसमाचार कार्य फैल चुका है, तो वे खुद को खुशकिस्मत मानते हैं कि उन्होंने परमेश्वर का घर नहीं छोड़ा और वे अब परमेश्वर पर संदेह नहीं करते हैं। लेकिन जैसे ही वे देखते हैं कि परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा उत्पन्न की जा रही है, उसे रोका जा रहा है या उसका नुकसान किया जा रहा है, भाई-बहनों का कर्तव्य निर्वहन भी प्रभावित हो रहा है और दुनिया कलीसिया को बहिष्कृत और अस्वीकृत कर रही है तो वे परमेश्वर का घर छोड़ने के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं। वे हमेशा शंका करते रहते हैं : “क्या परमेश्वर वाकई इन सबका संप्रभु है? मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता क्यों दिखाई नहीं दे रही है? क्या परमेश्वर के वचन वाकई सत्य हैं? क्या वे सही मायने में लोगों को शुद्ध कर सकते हैं और बचा सकते हैं?” वे कभी भी इन मामलों की असलियत नहीं जान पाते हैं और इन पर शंका करते रहते हैं क्योंकि उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है और वे परमेश्वर के वचन नहीं समझ पाते हैं। वे चाहे कितने भी धर्मोपदेश क्यों न सुन लें, वे इनमें से किसी के भी बारे में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते हैं। फलस्वरूप, वे हमेशा इधर-उधर पूछते रहते हैं, यह चाहते हैं कि काश वे ऐसे कान विकसित कर पाते जो बहुत दूर की चीजें सुन पाते और ऐसी आँखें विकसित कर पाते जो हजारों मील दूर तक देख पातीं, ताकि वे उन चीजों के बारे में जान पाएँ और खबरें हासिल कर पाएँ जो बहुत दूर घट रही हैं। तब वे पहले ही यह तय कर पाते कि उन्हें कलीसिया में बने रहना चाहिए या इसे छोड़ देना चाहिए। क्या ऐसे लोग बेवकूफ नहीं हैं? (हाँ, हैं।) क्या इस तरह के लोग थकाऊ जीवन नहीं जी रहे हैं? (जी रहे हैं।) उनके पास सामान्य मानवता की सोच नहीं है, और न ही वे सत्य समझते हैं। जितनी ज्यादा चीजें घटित होती हैं, उतना ही ज्यादा वे घबरा जाते हैं और उलझन में पड़ जाते हैं। उन्हें यह नहीं पता होता है कि इन मामलों का भेद कैसे पहचानना है या इन्हें कैसे निरूपित करना है; और वे यकीनन यह नहीं जानते हैं कि इन मामलों में सही और गलत का भेद कैसे पहचानना है या उनसे सबक कैसे सीखना है और फिर परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के सिद्धांत कैसे ढूँढ़ने हैं। उन्हें नहीं पता होता है कि ये चीजें कैसे करनी हैं। तो वे क्या करते हैं? मिसाल के तौर पर, जब मसीह-विरोधी और बुरे लोग कलीसिया में दिखते हैं और लोगों को गुमराह करते हैं तो वे सोचने लगते हैं : “आखिर कौन सही है और कौन गलत? क्या यह मार्ग वाकई सच्चा है? अगर मैं अंत तक विश्वास करता रहा, तो क्या मुझे आशीष मिलेगा? अब मुझे कर्तव्य करते हुए कई वर्ष हो गए हैं—क्या यह कष्ट सहना उपयोगी रहा है? क्या मुझे अपना कर्तव्य करना जारी रखना चाहिए?” वे हर चीज अपने हितों के परिप्रेक्ष्य से देखते हैं और अपने सामने मौजूद किसी भी व्यक्ति, घटना और चीज को नहीं समझ पाते हैं, बहुत ही अनाड़ी दिखाई देते हैं। उनके पास सही विचारों और दृष्टिकोणों की कमी होती है और वे किनारे खड़े रहकर जाँच-परख करना चाहते हैं, देखते हैं कि चीजें किस तरह से होती हैं। उन्हें देखने पर तुम्हें लगता है कि वे दयनीय भी हैं और हास्यास्पद भी। जब कुछ नहीं हो रहा होता है तो वे काफी सामान्य व्यवहार करते हैं, लेकिन जैसे ही कोई बड़ी घटना घटती है तो उन्हें नहीं पता होता है कि उन्हें इस मामले को किस रुख से देखना चाहिए; और वे जो बातें कहते हैं वे अविश्वासियों के विचार और दृष्टिकोण दर्शाती हैं। सब कुछ समाप्त हो जाने के बाद व्यक्ति यह नहीं देख पाता है कि इससे उसने क्या हासिल किया है। क्या ऐसे लोग बहुत ही बेवकूफ नहीं होते हैं? (हाँ।) बेवकूफ लोग बिल्कुल इसी तरह से व्यवहार करते हैं। तो इस तरह के लोगों से निपटने के सिद्धांत क्या हैं? उनकी अभिव्यक्तियों के आधार पर उन्हें अत्यंत विश्वासघाती और दुष्ट लोग नहीं माना जा सकता है। लेकिन उनमें एक घातक दोष होता है, जो यह है कि इन लोगों के पास विचार नहीं होते हैं, उनमें आत्मा नहीं होती है और वे किसी भी चीज की असलियत नहीं पहचान पाते हैं। उनके आस-पास जो कुछ भी घटता है वह उन्हें किंकर्तव्यविमूढ़ कर देता है, उन्हें समझ नहीं आता है कि किस पर भरोसा करना है, किस पर निर्भर रहना है या इस समस्या को कैसे देखना है या इसे हल करने के लिए कहाँ से शुरुआत करनी है—वे बस घबराहट की स्थिति में होते हैं। घबराहट होने के बाद उनके मन में संदेह उत्पन्न हो सकते हैं या वे कुछ समय के लिए शांत रह सकते हैं, लेकिन उनका आदतन ढुलमुल होना बिल्कुल नहीं बदलता है। उनकी अभिव्यक्तियों के आधार पर चूँकि उन्हें बुरे लोगों के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है, इसलिए अगर वे फिलहाल थोड़ा-सा कर्तव्य करने और खुशी से श्रम करने में समर्थ होते हैं, तो उन्हें अपना कर्तव्य निभाने दिया जा सकता है। बशर्ते उनका कर्तव्य कम-से-कम कुछ नतीजे देता हो। अगर वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार किए बिना अपना कर्तव्य करते हैं और हमेशा लापरवाह बने रहते हैं, तो उन्हें घर भेज देना चाहिए। लेकिन अगर वे अपनी गलतियाँ सुधारने के इच्छुक हैं तो उन्हें परमेश्वर के घर में रुकने और अपना कर्तव्य निभाते रहने देना चाहिए। उन्हें वह कर्तव्य सौंपा जाना चाहिए जिसके लिए वे उपयुक्त हों। अगर वे कोई भी कर्तव्य करने में असमर्थ हैं और वे किसी काम के नहीं हैं, तो उन्हें ऐसी जगह भेज देना चाहिए जो उनके लिए उपयुक्त हो। इस मामले में यह अब इस बात पर निर्भर नहीं रह सकता है कि क्या वे श्रम करने को तैयार और इच्छुक हैं। क्या चीजों को सँभालने का यह तरीका आसान नहीं है? (है।)
क्या तुम उन लोगों का भेद पहचान सकते हो जो ढुलमुल होते हैं? क्या तुम लोगों के आस-पास ऐसे लोग हैं? अतीत में कुछ लोगों को कलीसिया से दूर कर दिया गया था। मान लो कि उनमें से एक यह कहता है : “मैं बेहतर व्यक्ति बन गया हूँ। मैं अब ढुलमुल नहीं होता हूँ। जब सच्चे मार्ग की बात आती थी तो मैं हमेशा ढुलमुल होता था, क्योंकि जब परमेश्वर का घर विदेशों में अपने कार्य की नई-नई शुरुआत कर रहा था, तो चीजें वाकई कठिन थीं। उस समय सुसमाचार प्रचार करना कलीसिया के भाई-बहनों के लिए बहुत कठिन था और विदेशों में ऐसे लोग कम थे जिन्होंने सच्चा मार्ग स्वीकार किया था। इसके अलावा, ऐसा नहीं लगता था कि सुसमाचार कार्य के फैलने की कोई संभावना है। इसलिए तब मैं हमेशा परमेश्वर के कार्य के बारे में संदेहग्रस्त रहता था। अब जब मैं देखता हूँ कि परमेश्वर के घर का सुसमाचार कार्य फैल रहा है, कार्य की विभिन्न मदों में सुधार हो रहा है और परिणाम मिल रहे हैं, और विभिन्न देशों में कलीसियाएँ लगातार फल-फूल रही हैं, तो मैं अब संदेहग्रस्त या ढुलमुल नहीं रहा। कृपया मुझे अपना कर्तव्य करने दो। मुझे उन लोगों की श्रेणियों में शामिल मत करो जिन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया गया है!” क्या ऐसे व्यक्ति को मौका देना ठीक होगा? (नहीं।) क्यों नहीं? (उसके शब्द झूठे हैं। वह खुद को सिर्फ इसलिए फिर से कलीसिया से जोड़ना चाहता है क्योंकि वह देखता है कि परमेश्वर के घर का कार्य फैलाव की दिशा में है और इसने शक्ति प्राप्त कर ली है। लेकिन जब भी कुछ उसकी धारणाओं के खिलाफ हुआ तो वह फिर से ढुलमुल हो जाएगा।) क्या तुमने इस मामले की असलियत पहचान ली है? (हाँ।) कुछ लोग पैदाइशी ढुलमुल होते हैं। आज हवा का रुख एक तरफ है, तो वे इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं; कल उसका रुख दूसरी तरफ होगा, तो वे उस दिशा में आगे बढ़ेंगे—यहाँ तक कि जब हवा नहीं चल रही होती है, तो भी वे अपने आप ही ढुलमुल होते रहते हैं। ऐसे लोगों में सोचने की वह क्षमता नहीं होती है जो एक सामान्य मनुष्य में होनी चाहिए, इसलिए वे मनुष्य होने का मानक पूरा नहीं करते हैं। क्या यह सही है? (हाँ।) अगर किसी में सामान्य मनुष्य की सोचने की क्षमता है और उसमें समझने की वह क्षमता है जो मनुष्यों में होनी चाहिए, तो वह देखेगा कि परमेश्वर ने बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं और वह यह पुष्टि करने में सक्षम होगा कि यह परमेश्वर का कार्य है। इतना ही नहीं, परमेश्वर में विश्वास रखने वाले बहुत से लोग हैं—वे हर रोज परमेश्वर का कार्य और पवित्र आत्मा का कार्य देखते हैं और साथ ही परमेश्वर के अद्भुत कर्म भी देखते हैं; उनकी आस्था और मजबूत हो जाती है और अपना कर्तव्य करने में उनकी ऊर्जा बढ़ जाती है। क्या ये ऐसी चीजें हैं जो मनुष्य के कार्य द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं? जिन लोगों के पास एक मनुष्य की सोचने की क्षमता नहीं है, चाहे तुम उन्हें ये मामले कितनी भी स्पष्टता से क्यों ना समझा दो, वे इस बात की पुष्टि नहीं कर सकते हैं कि यह परमेश्वर का कार्य है। उनमें वह राय बनाने की क्षमता नहीं है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर अभी कितना महान कार्य कर रहा है, वह कितना बोलता है, कितने लोग उसका अनुसरण करते हैं, कितने लोगों को यकीन है कि यह परमेश्वर का कार्य है या कितने लोगों को यकीन है कि मानवजाति की किस्मत परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन आती है और परमेश्वर ही सृष्टिकर्ता है, इनमें से कुछ भी उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं है। तो उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है? उन्हें तो व्यक्तिगत रूप से यह देखना है कि स्वर्ग से परमेश्वर उनके सामने प्रकट हो, उन्हें यह भी देखना है कि परमेश्वर अपना मुँह खोले और बोले, यह देखना है कि वह व्यक्तिगत रूप से स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजें बनाए, व्यक्तिगत रूप से संकेत और चमत्कार दिखाए और जब वह बोले तो उसके शब्द बादलों की तरह गरजते सुनाई दें। सिर्फ तभी वे परमेश्वर में विश्वास रखेंगे। वे बिल्कुल थोमा की तरह हैं—प्रभु यीशु ने धरती पर अपने समय के दौरान चाहे कितने भी वचन बोले हों, चाहे कितना भी सत्य व्यक्त किया हो या उसने कितने भी संकेत और चमत्कार दिखाए हों, थोमा के लिए इनमें से कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं था। महत्वपूर्ण यह था कि मृत्यु के बाद प्रभु यीशु का पुनरुत्थान वास्तविक है या नहीं। उसने इसकी पुष्टि कैसे की? उसने प्रभु यीशु से माँग की : “अपने हाथ आगे बढ़ाओ और मुझे कीलों के निशान दिखाओ। अगर तुम वाकई पुनर्जीवित प्रभु यीशु हो, तो तुम्हारे हाथों पर कीलों के निशान होंगे और तब मैं तुम्हें प्रभु यीशु मानूँगा। अगर मैं तुम्हारे हाथों पर कीलों के निशान महसूस नहीं कर पाया, तो मैं तुम्हें प्रभु यीशु नहीं मानूँगा, और न ही मैं तुम्हें परमेश्वर मानूँगा।” क्या वह बेवकूफ नहीं था? (था।) इस तरह के लोग सिर्फ उन्हीं सच्चाइयों पर विश्वास करते हैं जिन्हें वे अपनी आँखों से और अपनी कल्पनाओं और तार्किकता से देख पाते हैं। भले ही वे परमेश्वर के वचन सुनते हों, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हों और परमेश्वर के कार्य का उदय, विकास और फलना-फूलना देखते हों, फिर भी वे यह विश्वास नहीं करते कि यह परमेश्वर का कार्य है। वे परमेश्वर की महान शक्ति नहीं देख पाते हैं, वे परमेश्वर का अधिकार नहीं देख पाते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों की शक्ति या उन परिणामों को पहचान नहीं पाते हैं जो वे लोगों में प्राप्त कर सकते हैं। वे इनमें से किसी भी चीज को देख या पहचान नहीं पाते हैं। वे सिर्फ एक ही चीज की उम्मीद करते हैं : “तुम्हें स्वर्ग से कड़कदार आवाज में बोलना चाहिए, यह घोषणा करनी चाहिए कि तुम्हीं सृष्टिकर्ता हो। तुम्हें संकेत और चमत्कार भी दिखाने होंगे और अपनी महान सामर्थ्य दिखाने के लिए व्यक्तिगत रूप से स्वर्ग, धरती और सभी चीजों का निर्माण भी करना होगा। तब जाकर मैं विश्वास करूँगा कि तुम परमेश्वर हो, मैं तुम्हें परमेश्वर मान लूँगा।” क्या परमेश्वर ऐसी मान्यता की कद्र करता है? क्या वह ऐसे विश्वास की कद्र करता है? (नहीं।) क्या परमेश्वर को परमेश्वर होने के लिए तुम्हारी मान्यता की जरूरत है? क्या उसे तुम्हारी स्वीकृति की जरूरत है? परमेश्वर ने बहुत से सत्य व्यक्त किए हैं, बहुत से लोगों ने परमेश्वर का कार्य स्वीकार किया है, और यहाँ बहुत सारी अनुभवजन्य गवाहियाँ हैं—ऐसी गवाहियाँ जो किसी भी पिछली पीढ़ी की गवाहियों से बढ़कर हैं—इसके बावजूद तुम अब भी यह पुष्टि नहीं कर पाते हो कि क्या यह परमेश्वर का प्रकटन और कार्य है। तुम उन सच्चाइयों पर विश्वास नहीं करते हो या उन्हें नहीं मानते हो जिन्हें परमेश्वर पहले ही पूरी कर चुका है और न ही परमेश्वर के वादे पूरे करने की बात पर तुम विश्वास करते हो या उसे मानते हो। तो, तुम किस तरह की चीज हो? तुम तो मनुष्य भी नहीं हो—तुम एक बेवकूफ हो! और फिर भी तुम परमेश्वर से आशीषें प्राप्त करना चाहते हो—इसकी बहुत ही कम संभावना है! तुम बस सपना देख रहे हो! तुम हर मोड़ पर परमेश्वर पर संदेह करते हो और उसे नकारते हो, हमेशा परमेश्वर के घर की बदकिस्मती पर हँसना चाहते हो। तुमने कभी परमेश्वर का अस्तित्व नहीं माना है या उस पर विश्वास नहीं किया है, और न ही तुमने कभी भी परमेश्वर के वचनों और कार्यों को माना है, उन पर विश्वास किया है या उन्हें स्वीकार किया है। इसलिए परमेश्वर के वादों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है और तुम कुछ भी प्राप्त नहीं करोगे। कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन वे अब भी अपना कर्तव्य कर रहे हैं। वे कैसे कुछ भी हासिल नहीं कर सकते हैं?” तो हमें इस बारे में स्पष्ट होना होगा कि उनके द्वारा अपना कर्तव्य करने का उद्देश्य क्या है, वे इसे किसके लिए कर रहे हैं और अपना कर्तव्य करते समय वे किन सिद्धांतों का पालन करते हैं। अगर तुम परमेश्वर के वचन स्वीकार नहीं करते हो, तो भले ही तुम अपना कर्तव्य करो, तुम बस श्रम कर रहे हो—यह सच्चा समर्पण नहीं है। तुम अपने कर्तव्य के रूप में जो करते हो उसे परमेश्वर मान्यता नहीं देता है। परमेश्वर की नजर में तुम बस एक आत्मा-विहीन मृत व्यक्ति से ज्यादा कुछ भी नहीं हो। एक मृत व्यक्ति अब भी आशीषों की उम्मीद कर रहा है—क्या यह बस ख्याली पुलाव पकाना नहीं है? तुम जो यह थोड़ा-सा कर्तव्य भी जैसे-तैसे कर पाते हो, उसका कारण यह है कि तुम आशीषें पाने की मंशा से प्रेरित रहते हो। और तुम लगातार परमेश्वर पर संदेह करते हो, हमेशा उसकी मन ही मन आलोचना करते हो, निंदा करते हो, उसे नकारते हो, और परमेश्वर के वचनों और कार्यों की भी आलोचना करते हो और उन्हें नकारते हो। यह तुम्हें परमेश्वर का दुश्मन बना देता है। क्या ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर का दुश्मन है एक सृजित प्राणी के रूप में मानक स्तर का हो सकता है? (नहीं।) तुम हर मोड़ पर खुद को परमेश्वर के दुश्मन के रूप में खड़ा कर लेते हो, अँधेरों में रहकर चुपके से उसे और उसके कार्य की जाँच-परख करते हो, चुपके से अपने दिल में परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाते हो, उसकी आलोचना और निंदा करते हो, और उसके वचनों और कार्य की आलोचना और निंदा करते हो। अगर यह परमेश्वर का दुश्मन होना नहीं है तो फिर यह क्या है? यह खुलेआम परमेश्वर का दुश्मन होना है। और तुम अविश्वासी दुनिया में परमेश्वर के दुश्मन नहीं बन रहे हो—तुम ऐसा परमेश्वर के घर में कर रहे हो। यह और भी अक्षम्य है!
ये लोग जो ढुलमुल होते हैं, चाहे हम उनका मानवीय तत्व देखें या उनकी अभिव्यक्तियाँ देखें, वे सत्य स्वीकार नहीं करते हैं और परमेश्वर के वचनों और कार्य को स्वीकार नहीं करते हैं। वे सिर्फ इस बात की परवाह करते हैं कि क्या उन्हें आशीष प्राप्त हो सकता है। वे परमेश्वर या उसके कार्य के बारे में कभी आश्वस्त नहीं होते हैं, हमेशा पर्दे के पीछे से जाँच-परख करते रहते हैं, लगातार ढुलमुल होते हैं और संदेह करते हैं। जाँच-परख करते हुए वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, वे चलते हैं और फिर रुक जाते हैं, रुकते हैं और फिर से चलने लगते हैं। ये काफी परेशान करने वाले लोग होते हैं! विशेष रूप से अब, जब कलीसिया अक्सर लोगों को दूर कर रहा है, तो वे हमेशा घबराए रहते हैं और सोचते हैं, “मैं हमेशा ढुलमुल रहता हूँ। शायद एक दिन कोई यह देख लेगा, और मुझे कलीसिया से बाहर निकाल दिया जाएगा। मैं परमेश्वर के बारे में अपने अंदरूनी संदेहों को बाहर नहीं आने दे सकता। मैं इसका जिक्र किसी से नहीं कर सकता।” इसलिए वे पर्दे के पीछे से चुपके से जाँच-परख करते हैं; और वे परमेश्वर द्वारा बेनकाब किए जाने से डरते नहीं हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं, परमेश्वर की जाँच-पड़ताल की तो बात ही छोड़ दो। ये लोग अक्सर भाई-बहनों को यह संगति करते हुए सुनते हैं कि परमेश्वर ने कैसे उनका मार्गदर्शन किया है, उसने कैसे उन्हें अनुशासित किया है, उसने कैसे लोगों को बेनकाब किया है, उसने कैसे लोगों को बचाया है, परमेश्वर ने कैसे उन्हें अनुग्रह और आशीषें प्रदान की हैं, और परमेश्वर का अनुसरण करने की प्रक्रिया में कैसे उन्होंने उसके कार्य का अनुभव किया है, और उन्होंने क्या महसूस किया है, देखा है या सराहा है, वगैरह-वगैरह। जब वे भाई-बहनों को इस अनुभवजनित समझ के बारे में संगति करते हुए सुनते हैं तो वे सोचते हैं : “क्या जिन अनुभवों के बारे में तुम लोग बात कर रहे हो वे सिर्फ तुम लोगों की कल्पना है? क्या ये सिर्फ मानवीय भावनाएँ हैं? मैंने उन चीजों को क्यों महसूस नहीं किया? विशेष रूप से वे जो अनुभवजन्य गवाही लेख लिखते हैं—मैं उन्हें नहीं जानता और मैंने नहीं देखा है कि उन्होंने इन अनुभवों के जरिए ये चीजें कैसे प्राप्त कीं। क्या उनके पास सही मायने में सत्य वास्तविकता है, यह अभी भी अनिश्चित है!” कुछ बेवकूफ लोग अब भी परमेश्वर के घर के कार्य की जाँच-परख करते हैं और उस पर प्रश्न उठाते हैं, वे यह देखने में असमर्थ हैं कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा लिखे गए अनुभवजन्य गवाही लेखों में कौन सी सत्य वास्तविकताएँ निहित हैं, वे अपने ढुलमुल होने और आस्था की कमी के लिए बहाने और आधार खोजने का प्रयास करते हैं। वे सोचते हैं कि चूँकि वे ढुलमुल हो रहे हैं, इसलिए दूसरे भी ढुलमुल हो रहे होंगे। अगर कोई व्यक्ति कभी ढुलमुल नहीं होता है, उसके मन में कोई संदेह नहीं होता है और सत्य पर उसकी सामान्य संगति हमेशा काफी व्यावहारिक होती है, और चाहे वह किसी भी समस्या का सामना क्यों न करे, वह उसे हल करने के लिए सत्य खोज सकता है, तो ये बेवकूफ लोग अपने दिलों में असमानता और बेचैनी महसूस करते हैं। जब वे बेचैनी महसूस करते हैं, तो वे राहत कैसे पाते हैं? वे किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करते हैं जो बिल्कुल उनके जैसा ही है, एक समान सोचवाला व्यक्ति ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं। जब वे किसी को नकारात्मक और कमजोर महसूस करते देखते हैं तो वे लहरों को परखने के लिए अपने विचारों की तरफ संकेत करते हैं और कहते हैं : “कभी-कभी मैं भी नकारात्मक महसूस करता हूँ। जब मैं नकारात्मक महसूस करता हूँ, तो मुझे पता होता है कि मुझे ऐसा नहीं होना चाहिए, लेकिन कभी-कभी मुझे संदेह होता है कि क्या वाकई परमेश्वर का अस्तित्व है।” अगर दूसरा व्यक्ति उनकी बात का उत्तर नहीं देता और वे देखते हैं कि वह व्यक्ति बस नकारात्मक और कमजोर है, लेकिन उसे परमेश्वर के बारे में कोई संदेह नहीं है तो वे किसी दूसरे की परीक्षा लेने के लिए अपने आंतरिक विचारों से मेल न खाने वाली कुछ और बात कहते हैं : “तुम्हें क्या लगता है मेरे साथ क्या हो रहा है? मैं परमेश्वर में बिल्कुल ठीक विश्वास रखता हूँ, लेकिन मेरे मन में हमेशा उसके बारे में संदेह क्यों होते हैं? क्या यह विद्रोहपूर्ण नहीं है? ऐसा नहीं होना चाहिए!” वे यह बात पूरी तरह से दूसरे व्यक्ति को खुश करने और उसकी परीक्षा लेने के लिए कहते हैं। वे बेसब्री से उम्मीद करते हैं कि दूसरे लोग भी उन्हीं की तरह परमेश्वर पर प्रश्न उठाएँगे—इससे उन्हें खुशी होगी! अगर उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति का पता चलता है जो हमेशा परमेश्वर के बारे में संदेह करता है और उसके बारे में लगातार धारणाएँ रखता है, तो वे खुद को खुशकिस्मत समझते हैं कि उन्हें एक समान सोच वाला व्यक्ति मिल गया है। एक जैसी मलिन मानसिकता वाले ये दोनों लोग अक्सर एक-दूसरे को अपनी अंतरंग बातें बताते हैं। वे जितनी ज्यादा बात करते हैं, उतना ही वे परमेश्वर से दूर होते जाते हैं। वे जितनी ज्यादा बात करते हैं, उतना ही कम वे अपना कर्तव्य करना चाहते हैं, उतना ही कम वे परमेश्वर के वचन पढ़ना चाहते हैं और यहाँ तक कि वे कलीसियाई जीवन में भाग लेना भी बंद करना चाहते हैं। धीरे-धीरे, आखिर वे दोनों कार्य करने के लिए दुनिया में निकल पड़ते हैं, जब वे इकट्ठे बाहर जाते हैं, तो दोनों अभिन्न साथियों की तरह एक-दूसरे से चिपके होते हैं, एक-दूसरे से लिपटे होते हैं। छोड़कर जाते समय वे अपने साथ परमेश्वर के वचनों की एक भी किताब नहीं लेते हैं। कोई उनसे पूछता है, “क्या तुमने परमेश्वर में विश्वास रखना बंद कर दिया है?” तो वे उत्तर देते हैं, “नहीं, मैं विश्वास रखता हूँ।” वे अब भी इसका हठपूर्वक खंडन करते हैं। दूसरा व्यक्ति पूछता है, “तो फिर तुम अपने साथ परमेश्वर के वचनों की कोई किताब क्यों नहीं लेकर आए?” और वे उत्तर देते हैं, “वे बहुत ही भारी हैं और मेरे पास उन्हें रखने की कोई जगह नहीं है।” वे जो कुछ भी कहते हैं, वह सिर्फ दूसरे व्यक्ति को टालने के लिए होता है। दरअसल, वे बस दुनिया में लौटने, नौकरी ढूँढ़ने और अपने जीवन जीने के लिए तैयार हो रहे हैं। मैं तुम लोगों को सत्य बताता हूँ : इस तरह के लोग छद्म-विश्वासी होते हैं और यही उनका अंतिम परिणाम होगा—वे वाकई ऐसे ही होते हैं। परमेश्वर में उनका विश्वास लंबे समय तक नहीं रहेगा। जैसे ही उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिलता है जिसे वे पसंद करते हैं, कोई ऐसा व्यक्ति जिसे वे अपने सबसे आंतरिक विचार बता सकते हैं तो वे सोचते हैं, “आखिरकार, मुझे कोई ऐसा व्यक्ति मिल गया है जो मेरे बचाव में खड़ा होता है, कोई ऐसा व्यक्ति जिस पर मैं निर्भर कर सकता हूँ। आओ चलें! परमेश्वर में विश्वास रखना बहुत उबाऊ है। वैसे भी इस दुनिया में कोई परमेश्वर नहीं है। जिस चीज का अस्तित्व नहीं है उसे वास्तविक मानना असहनीय बोझ है। ये पिछले कुछ वर्ष बहुत ही कठिन रहे हैं!” वे चले जाते हैं और खुद ही विश्वास रखना बंद कर देते हैं, और यहाँ तक कि भाई-बहनों से भी कह देते हैं कि वे उनकी तलाश न करें, वे कहते हैं, “हम कार्य करने गए हैं। हमें अब मत बुलाना, नहीं तो हम पुलिस को सतर्क कर देंगे!” ये दो बेवकूफ, बेअक्ल गधों की जोड़ी, ऐसे ही चली जाती है। मैं कहता हूँ, जान छूटी—इससे परमेश्वर के घर को उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित करने या बाहर निकाल देने की परेशानी नहीं उठानी पड़ी। मुझे बताओ, क्या इस तरह के लोगों को सहारा और सहायता देने के लिए उनके साथ सत्य की संगति करने की कोई जरूरत है? क्या उन्हें तर्क देकर समझाने और राजी करने का प्रयास करने की कोई जरूरत है? (नहीं।) अगर तुम लोग उन्हें राजी करने का प्रयास करते हो, तो तुम बेहद बेवकूफ हो। इस तरह के लोग अपने दिल की गहराइयों तक छद्म-विश्वासी होते हैं—वे चलती-फिरती लाशें और बेअक्ल अहमक होते हैं। अगर तुम उन्हें राजी करने का प्रयास करते हो, तो तुम भी बेवकूफ हो। तुम्हें इस तरह के लोगों को जल्दी से खुशी-खुशी अलविदा कह देना चाहिए—और बाद में उनकी तलाश करने की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने अपनी बात स्पष्ट रूप से कह दी है कि वे अब परमेश्वर में विश्वास नहीं रखेंगे, और कि अगर तुमने उन्हें फिर से बुलाया, तो वे पुलिस को तुम्हारी रिपोर्ट कर देंगे। अगर तुम अब भी उनसे संपर्क करने का प्रयास करते हो, तो क्या तुम बस परेशानी को दावत नहीं दे रहे हो? अगर उन्होंने वाकई पुलिस बुला ली और तुम पर उत्पीड़न का आरोप लगा दिया, तो क्या यह बात फैलने पर अच्छी प्रतिष्ठा बनेगी? (नहीं।) तुम्हें ऐसी बेवकूफी भरी चीज बिल्कुल नहीं करनी चाहिए! उन्हें खुद अपना ख्याल रखने दो और चुपचाप चले जाने दो—यह ज्यादा बेहतर तरीका है! हर व्यक्ति अपने खुद के मार्ग का अनुसरण करता है; हर व्यक्ति का मार्ग इस बात से तय होता है कि वह कौन है। वे धन्य नहीं हैं, उनके जीवन बस सड़े-गले, बेकार जीवन हैं। ऐसा महान आशीष विरासत में प्राप्त करना या उसका आनंद लेना उनकी क्षमता से परे है—उनके पास इसे प्राप्त करने की खुशकिस्मती ही नहीं है। परमेश्वर के वचनों के प्रावधान को स्वीकार करना और सत्य को जीवन के रूप में स्वीकार करना पूरे ब्रह्मांड में और सारी मानवजाति के बीच सबसे बड़ा आशीष है। जो कोई भी सत्य स्वीकार कर सकता है वह धन्य व्यक्ति है, और जो कोई भी सत्य स्वीकार नहीं कर सकता है उसके पास यह आशीष ही नहीं है। जिन्होंने सत्य स्वीकार कर लिया है वे एक दिन महा विनाश से बच निकलेंगे और बहुत धन्य किए जाएँगे, जबकि जिन्होंने सत्य स्वीकार नहीं किया है वे महा विनाश में नष्ट हो जाएँगे और विपत्ति सहेंगे, और तब तक पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। भले ही अभी तुम लोग यह मान लो कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं और कि परमेश्वर का कार्य खुद परमेश्वर द्वारा ही किया जाता है, लेकिन अगर तुम लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हो, सत्य स्वीकार नहीं करते हो और सत्य में प्रवेश नहीं करते हो, तो भी तुम लोग ऐसा आशीष प्राप्त नहीं करोगे! क्या तुम्हें लगता है कि यह आशीष इतनी आसानी से प्राप्त किया जा सकता है? यह एक ऐसा आशीष है जो समय की शुरुआत से कभी अस्तित्व में नहीं रहा है और फिर कभी अस्तित्व में नहीं रहेगा—यह तुम्हें इतनी आसानी से कैसे प्राप्त करने दिया जा सकता है? परमेश्वर ने मानवजाति को इस तरह के आशीष का वादा किया है, लेकिन यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे आम लोग प्राप्त कर सकें। यह आशीष परमेश्वर द्वारा चुने गए लोगों के लिए है, और किसी बेवकूफ गधे, चलती-फिरती लाश, नीच या बदमाश का चुना जाना असंभव है। परमेश्वर मानवजाति को बचाने के लिए तीन चरणों वाला कार्य करता है, और अंत में, वह विजेताओं का एक समूह बनाएगा, और इन लोगों को सभी चीजों का मालिक बनने और एक नई मानवजाति बनने में सक्षम करेगा। मानवजाति के लिए यह आशीष कितना महान है! अंत के दिनों में न्याय के कार्य का यह चरण कितने वर्षों से चल रहा है? (तीस वर्षों से भी ज्यादा समय से।) इन तीस से ज्यादा वर्षों पर नजर डालें, तो यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर ने कितनी कीमत चुकाई है और उसने कितना कार्य किया है, इसलिए यह स्पष्ट है कि परमेश्वर अंत में जो मानवजाति प्राप्त करेगा वह कितनी अद्भुत रूप से मूल्यवान और कितनी अद्भुत रूप से श्रेष्ठ होगी, और कि यह परमेश्वर की नजर में बहुमूल्य और अत्यंत महत्वपूर्ण है! तो फिर तुम लोग कितने खुशकिस्मत हो; यह तुम्हारे लिए इतना महान आशीष है! इसलिए कुछ लोग जो इस बिंदु पर अब भी ढुलमुल हो रहे हैं, वे सही मायने में धन्य नहीं हैं! भले ही वे ढुलमुल न हों और अनुसरण करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हों, तब अगर उन्होंने सत्य का अनुसरण न किया, तो भी वे यह आशीष प्राप्त नहीं कर पाएँगे। इसलिए जो लोग अंत में यह आशीष प्राप्त करते हैं, वे साधारण लोग नहीं हैं—वे ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने कड़ाई से और बार-बार छाँटा है और बड़ी सावधानी से चुना है; वे ऐसे लोग हैं जिन्हें अंततः परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
जो लोग ढुलमुल होते हैं उनकी मुख्य अभिव्यक्तियाँ ठीक यही मुद्दे हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उनका अंतिम परिणाम क्या हो सकता है, जो भी हो, एक बार जब कलीसिया में ऐसे लोगों की पहचान हो जाती है, तो उन्हें सिद्धांतों के अनुसार सँभाला जाना चाहिए। उनके साथ भाई-बहनों जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। अगर उनमें परमेश्वर में विश्वास रखने के प्रति सकारात्मक भावनाएँ हैं या वे कुछ प्रयास कर सकते हैं और कुछ श्रम प्रदान करने के इच्छुक हैं, तो वे ज्यादा-से-ज्यादा कलीसियाई मित्र हैं, और भाई या बहन नहीं माने जा सकते हैं। इसलिए भले ही वे अपना कोई नया नाम रख लें, जैसे कि “समर्पण” या “सच्चाई”, तुम्हें फिर भी उन्हें भाई या बहन नहीं बुलाना चाहिए—उन्हें उनके नए नाम से पुकारना ही पर्याप्त है। ऐसा क्यों है? क्योंकि ऐसे लोग भाई या बहन होने की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। अब तुम समझ रहे हो? (हाँ।) तो अब तुम्हारे पास इस तरह के लोगों को सँभालने के सिद्धांत हैं, है ना? (हाँ।) आज की संगति के लिए बस इतना ही। अलविदा!
29 जून 2024
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