अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2) खंड दो
V. दैहिक सुख-सुविधाओं की लालसा से संबंधित मुद्दे
दैहिक सुख-सुविधाओं की लालसा करना भी एक गंभीर मुद्दा है। तुम लोगों को क्या लगता है कि शारीरिक सुख-सुविधाओं की लालसा की कुछ अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? तुम लोगों ने निजी तौर पर जो अनुभव किए हैं, उनके आधार पर तुम लोग क्या उदाहरण दे सकते हो? क्या रुतबे के लाभों का आनंद लेना इसमें शामिल है? (हाँ।) कुछ और? (अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय कठिन के बजाय आसान कार्यों को प्राथमिकता देना और हमेशा हल्का काम करना पसंद करना।) कर्तव्य करते समय, लोग हमेशा हल्का काम चुनते हैं, ऐसा काम जो थकाए नहीं और जिसमें बाहर जाकर चीजों का सामना करना शामिल न हो। इसे आसान काम चुनना और कठिन कामों से भागना कहा जाता है, और यह दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्ति है। और क्या? (अगर कर्तव्य थोड़ा कठिन, थोड़ा थका देने वाला हो, अगर उसमें कीमत चुकानी पड़े, तो हमेशा शिकायत करना।) (भोजन और वस्त्रों की चिंता और दैहिक आनंदों में लिप्त रहना।) ये सभी दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब ऐसे लोग देखते हैं कि कोई कार्य बहुत श्रमसाध्य या जोखिम भरा है, तो वे उसे किसी और पर थोप देते हैं; खुद वे सिर्फ आसान काम करते हैं, और यह कहते हुए बहाने बनाते हैं कि उनकी काबिलियत कम है, कि उनमें उस कार्य को करने की क्षमता नहीं है और वे उस कार्य का बीड़ा नहीं उठा सकते—जबकि वास्तव में, इसका कारण यह होता है कि वे दैहिक सुखों का लालच करते हैं। वे कोई भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे कष्ट नहीं उठाना चाहते। अगर उन्हें बताया जाए कि काम खत्म करने के बाद उन्हें खाने के लिए भुना पोर्क मिलेगा, तो वे उस काम को बहुत जल्दी और दक्षता से करते हैं, और तुम्हें उनसे काम जल्दी निपटाने के लिए कहने, उत्साहित करने या उन पर नजर रखने की जरूरत नहीं होगी; लेकिन अगर उनके खाने के लिए भुना पोर्क न हो, और उन्हें अपना काम सामान्य समय के बाद तक करना पड़े, तो वे टाल-मटोल करते हैं, और उस काम को टालने के लिए हर तरह के कारण और बहाने ढूँढ़ते हैं, और कुछ समय तक ऐसा करने के बाद, कहते हैं कि “मुझे चक्कर आ रहे हैं, मेरा पैर सुन्न हो गया है, मेरा दम निकल रहा है! मेरे शरीर का हर हिस्सा दर्द कर रहा है, क्या मैं थोड़ी देर आराम कर सकता हूँ?” यहाँ समस्या क्या है? वे दैहिक सुखों की लालसा करते हैं। ऐसा भी होता है कि लोग अपना कर्तव्य करते समय कठिनाइयों की शिकायत करते हैं, वे मेहनत नहीं करना चाहते, जैसे ही उन्हें थोड़ा अवकाश मिलता है, वे आराम करते हैं, बेपरवाही से बकबक करते हैं, या आराम और मनोरंजन में हिस्सा लेते हैं। और जब काम बढ़ता है और वह उनके जीवन की लय और दिनचर्या भंग कर देता है, तो वे इससे नाखुश और असंतुष्ट होते हैं। वे भुनभुनाते और शिकायत करते हैं, और अपना कर्तव्य करने में अनमने हो जाते हैं। यह दैहिक सुखों का लालच करना है, है न? उदाहरण के लिए, अपना फिगर बनाए रखने के लिए कुछ महिलाएँ हर दिन तय समय पर व्यायाम करती हैं और अच्छी नींद लेती हैं। परंतु, जैसे ही काम बढ़ जाता है और निर्धारित दिनचर्या बाधित होती है, वे दुःखी हो जाती हैं और कहती हैं, “यह ठीक नहीं है; इस काम से सारी चीजों में देरी हो जाती है। मैं अपने निजी मामलों को इससे प्रभावित नहीं होने दे सकती। मैं किसी ऐसे व्यक्ति पर ध्यान नहीं दूँगी जो मुझ पर जल्दी करने का दबाव डालने की कोशिश करता हो; मैं अपनी गति से चलती रहूँगी। जब योग करने का समय होगा, मैं योग करूँगी। जब मेरा सोने का समय होगा, मैं अपनी नींद लूँगी। ये काम मैं वैसे ही करती रहूँगी जैसे मैं पहले करती थी। मैं तुम सब लोगों की तरह मूर्ख और मेहनती नहीं हूँ। कुछ सालों में, तुम सब बूढ़ी, साधारण-सी दिखने वाली महिलाओं में बदल जाओगी, तुम्हारा शरीर खराब हो जाएगा और तुम छरहरी नहीं रहोगी। कोई भी तुम्हें देखना नहीं चाहेगा और तुम्हांरे जीवन में आत्मविश्वास नहीं रह जाएगा।” अपने कर्तव्यों को करने में वे कितनी भी व्यस्त क्यों न हों, दैहिक भोग-विलास की संतुष्टि के लिए, सुंदरता के लिए, दूसरों द्वारा पसंद किए जाने के लिए और अधिक आत्मविश्वास के साथ जीने के लिए, वे अपने दैहिक सुखों और प्राथमिकताओं को त्यागने से इनकार करती हैं। यह दैहिक भोग-विलास में लिप्त होना है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर व्याकुल है, और हमें परमेश्वर के इरादों के बारे में विचारशील होना चाहिए।” लेकिन ये महिलाएँ कहती हैं, “मैंने नहीं देखा कि परमेश्वर व्याकुल है; जब तक मैं व्याकुल नहीं हूँ, तब तक मेरे लिए सब ठीक है। यदि मैं परमेश्वर के इरादों के लिए विचारशील होऊँगी, तो मेरे लिए कौन विचारशील होगा?” क्या ऐसी महिलाओं में कोई मानवता है? क्या वे शैतान नहीं हैं? कुछ महिलाएँ ऐसी भी होती हैं, जो चाहे जितनी भी व्यस्तता और दबाव वाला काम करती हों, उसे वे अपने कपड़ों और उन्हें पहनने के तरीके को प्रभावित नहीं करने देतीं। वे हर दिन मेकअप पर घंटों बिताती हैं, और बिना किसी भ्रम के उन्हें अपने घर के पते की तरह ही अच्छी तरह याद रहता है कि किस दिन कौन-से कपड़े पहनने हैं, वे जूतों की किस जोड़ी से मेल खाते हैं, और कब उन्हें सौंदर्य उपचार लेना है और कब मालिश करवानी है। परंतु, जब यह बात आती है कि वे कितना सत्य समझती हैं, कौन-से सत्य वे अभी भी नहीं समझ सकी हैं या उनमें प्रवेश नहीं कर पाई हैं, किन चीजों को वे अभी भी अनमने तरीके से और निष्ठाहीनता से सँभालती हैं, उन्होंने कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हैं, और सत्य से संबंधित ऐसे अन्य मुद्दे जिनमें जीवन प्रवेश शामिल है, वे इन चीजों के बारे में कुछ भी नहीं जानती हैं। जब उनसे इनके बारे में पूछा जाता है, तो वे पूरी तरह से अनभिज्ञ होती हैं। फिर भी, जब खाने, पीने और मनोरंजन जैसे दैहिक आनंदों से संबंधित विषयों की बात आती है तो वे अंतहीन रूप से बकबक कर सकती हैं कि उन्हें रोकना असंभव होता है। कलीसिया का काम या उनके कर्तव्य कितने भी व्यस्ततापूर्ण क्यों न हों, उनके जीवन की दिनचर्या और सामान्य स्थिति कभी बाधित नहीं होती। वे दैहिक जीवन की छोटी से छोटी बात को लेकर भी कभी लापरवाह नहीं होतीं और बहुत सख्त और गंभीर होते हुए उन्हें पूरी तरह से नियंत्रित करती हैं। लेकिन, परमेश्वर के घर का काम करते समय, मामला चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो और भले ही उसमें भाई-बहनों की सुरक्षा शामिल हो, वे उससे लापरवाही से निपटती हैं। यहाँ तक कि वे उन चीजों की भी परवाह नहीं करती, जिनमें परमेश्वर का आदेश या वह कर्तव्य शामिल होता है, जिसे उन्हें करना चाहिए। वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेतीं। यह देह-सुखों के भोग में लिप्त होना है, है न? क्या दैहिक सुखों के भोग में लिप्त लोग कोई कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त होते हैं? जैसे ही कोई उनसे कर्तव्य करने या कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करता है, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं। उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होती हैं, वे शिकायतों से भरे होते हैं, और वे नकारात्मकता से भरे होते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, वे अपना कर्तव्य करने की योग्यता नहीं रखते, और उन्हें हटा दिया जाना चाहिए। जहाँ तक दैहिक-सुखों की लालसा की बात है, हम इसे यहीं छोड़ देते हैं।
VI. स्वयं को जानने से संबंधित कठिनाइयाँ
खुद को जानना जीवन में प्रवेश का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। लेकिन अधिकांश लोगों के लिए खुद को जानना सबसे बड़ी कठिनाई बन जाती है क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते या उसका अनुसरण नहीं करते। इसलिए, यह निश्चित है कि जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे असल में खुद को नहीं जान सकते। आत्म-ज्ञान के कौन से पहलू हैं? पहला तो यह जानना है कि किसी की बातचीत और कार्यों में कौन से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं। कभी-कभी, यह अहंकार होता है, कभी धोखेबाजी या शायद दुष्टता, हठधर्मिता अथवा विश्वासघात आदि और भी चीजें हैं। इसके अलावा, जब किसी व्यक्ति पर कोई मुसीबत आती है, तो उसे यह जानने के लिए अपनी जाँच करनी चाहिए कि कहीं उसका ऐसा कोई इरादा या मंशा तो नहीं है जो सत्य के अनुरूप न हो। उसे यह भी जाँचना चाहिए कि क्या उसकी बातचीत या कार्यों में ऐसा कुछ तो नहीं है जो परमेश्वर का विरोध या उससे विद्रोह करता हो। विशेष रूप से उन्हें यह जाँचना चाहिए कि जब उनके कर्तव्य की बात हो, तो क्या उसमें भार का बोध है और वह निष्ठावान है, क्या वह ईमानदारी में खुद को परमेश्वर के लिए खपा रहा है या कहीं वह सौदेबाजी तो नहीं कर रहा है या लापरवाह तो नहीं हो रहा है। आत्म-ज्ञान का अर्थ यह जानना भी है कि क्या उसमें अपनी कोई धारणाएँ और कल्पनाएँ तो नहीं हैं, अनावश्यक अपेक्षाएँ तो नहीं हैं या परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और शिकायतें तो नहीं हैं और क्या उसका दिमाग समर्पण के लिए तैयार है। इसका अर्थ यह जानना है कि क्या वह सत्य खोज सकता है, परमेश्वर से प्राप्त कर सकता है और जब उसे परमेश्वर द्वारा आयोजित परिस्थितियों, लोगों, मामलों और चीजों का सामना करना पड़ता है, तो क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है। इसका अर्थ यह जानना है कि क्या उसमें अंतरात्मा और विवेक है और क्या वह सत्य-प्रेमी है। इसका अर्थ यह जानना है कि जब उस पर कोई मुसीबत आती है तो क्या वह समर्पित होता है या तर्क देने की कोशिश करता है, और क्या वह धारणाओं और कल्पनाओं का आश्रय लेता है या इन मामलों को समझने के लिए सत्य की खोज करता है। यह सब आत्म-ज्ञान के दायरे में आता है। विभिन्न स्थितियों, लोगों, मामलों और घटनाओं के प्रति अपने रवैये के प्रकाश में इंसान को इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि क्या वह सत्य से प्रेम करता है और क्या परमेश्वर में सच्ची आस्था रखता है। यदि कोई अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानकर यह समझ सकता है कि परमेश्वर के विरुद्ध उसका विद्रोह कितना बड़ा है, तो इसका अर्थ है कि वह समझदार हो गया है। इसके अलावा, जब उन मामलों की बात आती है जिनमें परमेश्वर के साथ उनका व्यवहार शामिल होता है, तो व्यक्ति को इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या उसमें धारणाएँ हैं, क्या परमेश्वर के नाम और देहधारण के प्रति उसके व्यवहार में भय या समर्पण है और विशेषकर सत्य के संबंध में उसका दृष्टिकोण क्या है। एक व्यक्ति को अपनी कमियों, अपने आध्यात्मिक कद का पता होना चाहिए और उसे यह भी जानना चाहिए कि क्या उसमें सत्य वास्तविकता है, साथ ही उसे यह ज्ञान भी होना चाहिए कि क्या उसका अनुसरण और जिस पथ पर वह चल रहा है, वह सही और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। लोगों को ये तमाम बातें जाननी चाहिए। संक्षेप में, आत्म-ज्ञान के विभिन्न पहलुओं में अनिवार्यतः निम्नलिखित शामिल होती हैं : यह ज्ञान कि स्वयं की काबिलियत ऊँची है या नीची, अपने चरित्र का ज्ञान, अपने कार्यों में अपने इरादों और मंशा का ज्ञान, अपने द्वारा प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभाव और प्रकृति सार का ज्ञान, अपनी प्राथमिकताओं और खोज का ज्ञान, वह जिस राह पर चल रहा है, उसका ज्ञान, चीजों के बारे में अपने विचारों का ज्ञान, जीवन और मूल्यों के बारे में अपने दृष्टिकोण का ज्ञान, परमेश्वर और सत्य के प्रति अपने रवैये का ज्ञान। आत्म-ज्ञान मुख्यतः इन्हीं पहलुओं से युक्त होता है।
VII. परमेश्वर के साथ व्यवहार में लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ
जीवन प्रवेश के बारे में अगली विषयवस्तु परमेश्वर से पेश आने में लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों से संबंधित है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखना, उसके बारे में गलतफहमियाँ विकसित करना और उसके प्रति सतर्कता बरतना, उससे अनुचित माँगें करना, हमेशा उससे बचना चाहना, उसके बोले वचनों को नापसंद करना और लगातार उसकी पड़ताल करने की कोशिश करना। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को ठीक से समझने या पहचानने में असमर्थ होना, साथ ही हमेशा परमेश्वर की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और अधिकार के प्रति संदेह का रवैया रखना और इन चीजों के बारे में पूरी तरह से ज्ञान का अभाव होना भी इसमें शामिल है। इसके अलावा, न केवल गैर-विश्वासियों और दुनिया द्वारा परमेश्वर पर किए जाने वाले आक्षेपों और ईशनिंदा से बचने या इनकार करने में विफल होना, बल्कि इसके उलट, यह पूछना चाहना भी है कि क्या वे आक्षेप या निंदात्मक बातें सच या तथ्यात्मक हैं। क्या यह परमेश्वर पर संदेह करना नहीं है? इनके अलावा, और क्या अभिव्यक्तियाँ हैं? (परमेश्वर के प्रति शंकालु होना और परमेश्वर की परीक्षा लेना।) (परमेश्वर का अनुग्रह पाने की कोशिश करना।) (परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार न करना।) परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार न करना और साथ ही इस बात पर संदेह करना कि परमेश्वर लोगों के अंतरतम हृदय की जाँच-पड़ताल कर सकता है। (परमेश्वर का विरोध करना भी इसमें शामिल है।) परमेश्वर का विरोध करना और उसके खिलाफ शोर मचाना—यह भी एक अभिव्यक्ति है। परमेश्वर के पास जाने, उससे बात करने और उससे जुड़ने के लिए तिरस्कारपूर्ण और अवमाननापूर्ण रवैया अपनाना भी इसमें शामिल है। और कुछ? (परमेश्वर के प्रति बेपरवाही दिखाना और उसे धोखा देना।) (परमेश्वर के बारे में शिकायत करना।) इसी तरह, मामलों के सामने आने पर कभी भी समर्पण नहीं करना या सत्य की खोज नहीं करना, और हमेशा अपने पक्ष में बहस करना और शिकायत करना। (परमेश्वर के बारे में निर्णय सुनाना और उसकी निंदा करना भी इसमें शामिल है।) (रुतबे के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करना।) (परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करना और उसका गलत फायदा उठाना।) (परमेश्वर को नकारना, परमेश्वर को अस्वीकार करना और परमेश्वर को धोखा देना।) ये सभी आवश्यक मुद्दे हैं; ये वे विभिन्न स्थितियाँ और भ्रष्ट स्वभाव हैं जो परमेश्वर के प्रति लोगों के व्यवहार में उत्पन्न होते हैं। मूलतः ये लोगों के परमेश्वर के साथ पेश आने की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।
VIII. सत्य के साथ व्यवहार में लोगों के रवैये और विभिन्न अभिव्यक्तियाँ
जीवन प्रवेश संबंधी विषयवस्तु का एक और पहलू यह है कि लोग सत्य के साथ कैसे पेश आते हैं। इस पहलू में कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं? सत्य को एक सिद्धांत या नारा, विनियम या कलीसिया के बूते जीवनयापन करने और रुतबे के लाभों का आनंद लेने की पूंजी के रूप में मानना। इसमें और कुछ जोड़ो। (सत्य को आध्यात्मिक पोषण के रूप में लेना।) सत्य को व्यक्ति की आध्यात्मिक आवश्यकताएँ पूरी करने वाले आध्यात्मिक पोषण के रूप में ग्रहण किया जाना इसमें शामिल है। (सत्य स्वीकार न करना और उससे विमुख होना।) यह सत्य के प्रति एक रवैया है। (यह सोचना कि परमेश्वर के वचन दूसरों को उजागर करने के लिए हैं, उनका स्वयं से संबंध न समझना, और स्वयं को सत्य का महारथी समझना।) तुमने इस अभिव्यक्ति का वर्णन काफी सटीक तरीके से किया है। इस अभिव्यक्ति वाले लोग मानते हैं कि वे परमेश्वर के बोले सभी सत्य समझते हैं, और मनुष्य के जो भ्रष्ट स्वभाव और सार वह उजागर करता है, वे दूसरों के संदर्भ में हैं, न कि उनके अपने संदर्भ में। वे समझते हैं कि उन्हें सत्य में महारत हासिल है, और अक्सर दूसरों को उपदेश देने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करते हैं, मानो खुद उनमें भ्रष्ट स्वभाव न हो, वे पहले से ही सत्य की प्रतिमूर्ति और सत्य के प्रवक्ता हों। वे किस किस्म के कूड़ा हैं? वे सत्य की प्रतिमूर्ति बनना चाहते हैं—क्या वे ठीक पौलुस जैसे नहीं हैं? पौलुस इस बात से इनकार करता था कि प्रभु यीशु ही मसीह और परमेश्वर था; वह खुद मसीह और परमेश्वर का पुत्र बनना चाहता था। ये लोग पौलुस जैसे हैं, ये उसी तरह के हैं, वे मसीह-विरोधी हैं। और कुछ? (परमेश्वर के वचनों को अभ्यास किए जाने वाले सत्य के रूप में देखने के बजाय उन्हें किसी साधारण व्यक्ति के शब्द मानना, और परमेश्वर के वचनों के प्रति एक तिरस्कारपूर्ण और सरसरी रवैया रखना।) परमेश्वर के वचनों को स्वीकार किए जाने और अभ्यास किए जाने वाले सत्य के रूप में न देखना, बल्कि उन्हें मानवीय शब्द मानना—यह एक है। (परमेश्वर के वचनों को गैर-विश्वासियों के फलसफों और सिद्धांतों से जोड़ना।) परमेश्वर के वचनों को फलसफे से जोड़ना, परमेश्वर के वचनों को सजावटी या खोखले शब्दों के रूप में मानना जबकि प्रसिद्ध और महान लोगों की प्रचलित कहावतों को सत्य मानना, और ज्ञान, पारंपरिक संस्कृति और रीति-रिवाजों को सत्य के रूप में मानना और परमेश्वर के वचनों को उनसे प्रतिस्थापित कर देना। जो लोग इस अभिव्यक्ति का प्रदर्शन करते हैं, वे हालात का सामना होने पर सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के वचनों की गवाही देने और उन्हें प्रसारित करने की बात लगातार करते हैं, लेकिन अपने दिलों में वे धर्मनिरपेक्ष दुनिया के उन प्रसिद्ध और महान लोगों की प्रशंसा करते हैं, और यहाँ तक कि प्राचीन सोंग राजवंश के बाओ गोंग की भी प्रशंसा करते हैं, और कहते हैं, “वह वास्तव में एक सख्त और निष्पक्ष न्यायाधीश था। उसने कभी भी कोई अन्यायपूर्ण फैसला नहीं सुनाया, उससे कभी भी न्याय में कोई चूक नहीं हुई, या उसके जल्लाद की तलवार की धार से किसी की आत्मा के साथ कुछ गलत नहीं हुआ!” क्या यह किसी प्रसिद्ध व्यक्ति और ऋषि की चापलूसी और प्रशंसा भाव का प्रदर्शन नहीं है? प्रसिद्ध लोगों के शब्दों और कार्यों को सत्य के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करना सत्य की बदनामी और घोर निंदा करना है! कलीसिया में इस तरह के लोग सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के वचनों के प्रसार की इच्छा के बारे में बहुत बात करते हैं, लेकिन वे अपने दिमाग में जो सोचते हैं और आम तौर पर जो कहते हैं वह सिर्फ लोकोक्तियाँ और कहावतें हैं, जिन्हें वे बहुत ही अभ्यस्त और निर्बाध तरीके से व्यक्त करते हैं। ये बातें हमेशा उनके होठों पर होती हैं और उनकी जुबान से आसानी से निकलती रहती हैं। उन्होंने कभी भी परमेश्वर के वचनों के बारे में अपनी अनुभवजन्य समझ के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा होता, और इस बारे में तो और भी नहीं बोलते हैं कि परमेश्वर के कौन-से वचन उनके कृत्यों और आचरण का मानदंड या आधार हैं। वे जो भी बोलते हैं, वे सब भ्रांतियाँ हैं, जैसे, “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है”, “मारने से कोई फायदा नहीं होता”, “दयनीय लोगों में हमेशा कुछ न कुछ घृणा योग्य होता है”, “अपने लिए हमेशा थोड़ी गुंजाइश छोड़ो”, “भले ही मैंने कोई उपलब्धि हासिल न की हो, मगर मैंने कठिनाई झेली है; अगर कठिनाई नहीं तो थकान ही सही।”, “नदी पार करने के बाद पुल को न जलाओ; काम निकल जाने के बाद कामगार के हाथ न काटो”, “दूसरों के लिए उदाहरण स्थापित करने के लिए किसी को कठोर दंड दो, और उसे दूसरों के लिए चेतावनी बना दो”, और “नया मुल्ला ज्यादा प्याज खाता है”, आदि—वे जो भी कहते हैं, वह सत्य नहीं होता। कुछ लोग समकालीन कवियों के शब्दों को याद कर लेते हैं और उन्हें परमेश्वर के घर के वीडियो के टिप्पणी अनुभाग में भी पोस्ट करेंगे। क्या यह आध्यात्मिक समझ के अभाव की अभिव्यक्ति नहीं है? क्या वे शब्द सत्य हैं? क्या वे सत्य से संबंधित हैं? कुछ लोग अक्सर ऐसी बातें कहते हैं, “तुम्हारे तीन फीट ऊपर एक परमेश्वर है,” और “अच्छाई और बुराई का बदला अंत में मिलेगा; यह बस वक्त की बात है।” क्या ये कथन सत्य हैं? (नहीं।) ये कथन कहाँ से आते हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों में मिलते हैं? वे बौद्ध संस्कृति से आते हैं और उनका परमेश्वर में विश्वास करने से कोई संबंध नहीं है। इसके बावजूद, लोग अक्सर उन्हें खींच कर सत्य के स्तर पर लाने की कोशिश करते हैं; यह आध्यात्मिक समझ के अभाव की अभिव्यक्ति है। कुछ लोगों में खुद को परमेश्वर के लिए खपाने का थोड़ा-बहुत संकल्प होता है, और वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर ने मुझे प्रोत्साहन दिया है, परमेश्वर ने मुझे ऊपर उठाया है, इसलिए मुझे इस कहावत को चरितार्थ करना चाहिए कि ‘एक सज्जन उसे समझने वालों के लिए अपनी जान न्योछावर कर देगा।’” तुम भले आदमी नहीं हो, और परमेश्वर ने तुमसे तुम्हारा जीवन बलिदान करने को नहीं कहा है। क्या कर्तव्य करते समय शौर्य की इतनी उच्च भावना रखना आवश्यक है? तुम अपने कर्तव्यों को जीवित रहते पूरा नहीं कर सकते, तो क्या मृत्यु के बाद ऐसा कर पाने की कोई उम्मीद है? फिर तुम अपने कर्तव्यों का पालन कैसे करोगे? कुछ दूसरे लोग कहते हैं, “मैं स्वाभाविक रूप से निष्ठावान हूँ, मैं बहादुर और जुझारू व्यक्ति हूँ। मैं अपने दोस्तों के लिए सब कुछ दाँव पर लगाना पसंद करता हूँ। परमेश्वर के साथ भी ऐसा ही है : चूँकि परमेश्वर ने मुझे चुना है, बढ़ावा दिया है और ऊपर उठाया है, इसलिए मुझे परमेश्वर के अनुग्रह का प्रतिदान करना चाहिए। मौत आ जाए तो भी मैं निश्चित रूप से परमेश्वर के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दूँगा!” क्या यह सत्य है? (नहीं।) परमेश्वर ने इतने सारे वचन कहे हैं, इन लोगों ने उनमें से एक भी वचन याद क्यों नहीं रखा? हर समय, वे जो संगति करते हैं वह बस यही है: “कुछ और कहने की जरूरत नहीं है। एक सज्जन उसे समझने वालों के लिए अपनी जान न्योछावर कर देगा, और लोगों को अपने दोस्तों के लिए सब कुछ दाँव पर लगा देना चाहिए और निष्ठावान होना चाहिए।” वे “परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करना” वाक्यांश भी नहीं बोल सकते। इतने सालों तक धर्मोपदेश सुनने और परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद भी, वे एक भी सत्य नहीं जानते, और दो-चार आध्यात्मिक शब्द भी नहीं बोल सकते—यही उनकी आंतरिक समझ और सत्य की परिभाषा है। मुझे बताओ कि क्या यह दयनीय नहीं है? क्या यह हास्यास्पद नहीं है? क्या यह आध्यात्मिक समझ नहीं होने की अभिव्यक्ति नहीं है? इतने सारे उपदेशों को सुनने के बाद भी, वे सत्य नहीं समझते और नहीं जानते कि सत्य क्या है, फिर भी वे सत्य को प्रतिस्थापित करने के लिए बेशर्मी से उन शैतानी, बेहूदा, भद्दे और बेहद हास्यास्पद शब्दों का उपयोग करते हैं। न केवल उनकी आंतरिक सोच और समझ ऐसी है, बल्कि वे लगातार इसे फैलाते और दूसरों को भी सिखाते हैं, जिससे दूसरों की समझ भी उनके जैसी ही हो जाए। क्या इसमें कुछ हद तक विघ्न-बाधा पैदा करने वाली प्रकृति नहीं है? ऐसा लगता है कि ये लोग जो कि सत्य नहीं समझते और जिनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है, वे खतरनाक हैं, विघ्न-बाधा पैदा करने में और कभी भी कहीं भी हास्यास्पद और भद्दी चीजें करने में सक्षम होते हैं। लोग सत्य के साथ कैसे पेश आते हैं, उसकी कुछ अन्य अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? (सत्य का तिरस्कार करना, केवल वही स्वीकार करना जो किसी की अपनी धारणाओं के साथ मेल खाता हो, और जो उनसे मेल न खाता हो उसे अस्वीकार करना और उसका अभ्यास करने से इनकार करना।) केवल वही स्वीकार करना और उसका अभ्यास करना जो किसी की अपनी धारणाओं के साथ मेल खाता है और जो मेल न खाए उसका सतत विरोध और निंदा करना—यह एक रवैया है। (यह नहीं मानना कि सत्य किसी के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर सकता है या किसी व्यक्ति को बदल सकता है।) सत्य स्वीकार नहीं करना या सत्य पर विश्वास नहीं करना भी एक रवैया है। एक और अभिव्यक्ति यह है कि सत्य के प्रति किसी का रवैया और नजरिया उसके मिजाज, माहौल और भावनाओं के अनुसार बदल जाता है। इन लोगों के संदर्भ में, जब वे किसी दिन अच्छा और उत्साहित महसूस करते हैं तो सोचते हैं, “सत्य उत्कृष्ट है! सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है, मनुष्यों के लिए अभ्यास करने और प्रसारित करने के लिए सबसे योग्य चीज है।” जब उनका मूड खराब हो, तो वे सोचते हैं, “सत्य क्या है? सत्य का अभ्यास करने से क्या लाभ हैं? क्या इससे पैसे मिल सकते हैं? सत्य क्या बदल सकता है? यदि सत्य का अभ्यास किया जाए, तो क्या हो सकता है? मैं इसका अभ्यास नहीं करूँगा—इससे क्या फर्क पड़ता है?” ऐसे लोगों की राक्षसी प्रकृति उभर कर आती है। ये अभिव्यक्तियाँ वे स्वभाव और विभिन्न स्थितियाँ हैं जिन्हें लोग सत्य के साथ व्यवहार करने के तरीके में प्रकट करते हैं। कुछ अन्य विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? (परमेश्वर के वचनों को सत्य या जीवन के रूप में न मानकर उनका विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करना।) परमेश्वर के वचनों को अकादमिक दृष्टिकोण से देखना, बिना किसी स्वीकृति और समर्पण के दृष्टिकोण के हमेशा अपने ज्ञान के आधार पर सत्य का विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करना। कमोबेश, ये सत्य के प्रति लोगों के व्यवहार में आने वाली कठिनाइयाँ हैं जिन्हें परिभाषित किया जा सकता है और सारांश के शीर्षकों में विभक्त किया जा सकता है।
जीवन प्रवेश की कठिनाइयों पर हमारी विषयवस्तु में कुल आठ पहलू हैं, जो जीवन प्रवेश और उद्धार प्राप्त करने से जुड़ी मुख्य कठिनाइयाँ हैं। इन आठ पहलुओं के भीतर लोगों द्वारा प्रकट की गई सभी स्थितियाँ और स्वभाव परमेश्वर के वचनों में उजागर होते हैं; परमेश्वर ने लोगों से अपेक्षाएँ निर्धारित की हैं और उन्हें अभ्यास का मार्ग बताया है। अगर लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्रयास कर सकें, एक गंभीर रवैया अपना सकें, तीव्र लालसा का रवैया अपना सकें, और अपने जीवन प्रवेश का दायित्व उठा सकें, तो परमेश्वर के वचनों में वे इन आठों प्रकार की समस्याओं को हल करने के प्रासंगिक सत्य पा सकते हैं, और उनमें से प्रत्येक के लिए अभ्यास के मार्ग हैं। उनमें से कोई भी न सुलझने वाली चुनौतियाँ या किसी भी प्रकार का रहस्य नहीं है। हालाँकि, अगर तुम अपने जीवन प्रवेश के लिए बिल्कुल भी बोझ नहीं उठाते, और सत्य में या अपना स्वभाव बदलने में जरा भी दिलचस्पी नहीं रखते, तो परमेश्वर के वचन कितने भी स्पष्ट और सटीक क्यों न हों, वे तुम्हारे लिए केवल सामान्य पाठ और धर्म-सिद्धांत ही रहेंगे। यदि तुम सत्य का अनुसरण या अभ्यास नहीं करते, तो तुम्हारे सामने चाहे कोई भी समस्या हो, तुम उसका समाधान नहीं पा सकोगे, जिससे तुम्हारे लिए उद्धार प्राप्त करना बहुत कठिन हो जाएगा। शायद तुम हमेशा मजदूर होने की अवस्था में बने रहोगे; शायद तुम हमेशा उद्धार प्राप्त करने में असमर्थ रहने और परमेश्वर द्वारा ठुकराए जाने और हटाए जाने की अवस्था में बने रहोगे।
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