अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (17) खंड दो
2. काट-छाँट किए जाने को स्वीकारने से इनकार करते हुए नकारात्मकता फैलाना
एक और स्थिति है जिसमें लोगों के नकारात्मकता फैलाने की संभावना रहती है : जब उन्हें काट-छाँट किए जाने का सामना करना पड़ता है और वे इस काट-छाँट के कुछ शब्दों को स्वीकार नहीं कर पाते, तो वे अपने दिल में अवज्ञा, असंतोष और शिकायत पालते हैं, और कभी-कभी यह भी महसूस करते हैं कि उनके साथ गलत हुआ है। उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है : “मुझे अपनी बात रखने या स्पष्टीकरण देने की अनुमति क्यों नहीं है? मेरे साथ लगातार काट-छाँट क्यों की जा रही है?” ये लोग आम तौर पर किस तरह की नकारात्मकता फैलाते हैं? वे खुद को सही ठहराने और अपना बचाव करने के लिए बहाने भी ढूँढ़ते हैं। अपनी गलतियों का गहन-विश्लेषण करने, उनकी भरपाई करने या उन्हें सुधारने के बजाय, वे अपने मामले पर बहस करते हैं, जैसे कि उन्होंने कोई काम अच्छे से क्यों नहीं किया, इसके पीछे क्या कारण थे, वस्तुनिष्ठ कारक और परिस्थितियाँ क्या थीं और कैसे उन्होंने यह जानबूझकर नहीं किया; वे खुद को सही ठहराने और अपने बचाव के लिए ये बहाने देते हैं ताकि काट-छाँट किए जाने से इनकार करने का अपना लक्ष्य हासिल कर सकें। ये लोग यह बात नहीं स्वीकारते कि काट-छाँट करना सही है, और वे कई अन्य लोगों के साथ मिलकर अपनी काट-छाँट किए जाने की घटना का विश्लेषण करते हैं, सबके सामने मामले को साफ तौर पर समझाने की कोशिश करते हैं। वे यहाँ तक कि ऐसे विचार फैलाते हैं : “इस तरह की काट-छाँट लोगों को उनके कर्तव्य करने से रोकेगी। कोई भी अब अपने कर्तव्य नहीं निभाना चाहेगा। लोगों को पता नहीं होगा कि आगे कैसे बढ़ना है और न ही उनके पास अभ्यास का कोई मार्ग होगा।” यहाँ तक कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ऊपरी तौर पर इस बारे में संगति करते हैं कि वे अपने साथ हुई काट-छाँट को कैसे स्वीकारते हैं, मगर वास्तव में वे इस संगति का उपयोग खुद को सही ठहराने और अपना बचाव करने के लिए कर रहे हैं जिससे ज्यादा लोगों को यह विश्वास हो कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ व्यवहार करने में उनकी भावनाओं पर बिल्कुल भी विचार नहीं करता और यहाँ तक कि एक छोटी-सी गलती भी तुम्हारी काट-छाँट का कारण बन सकती है। जो लोग अक्सर नकारात्मकता फैलाते हैं, वे कभी भी आत्म-चिंतन नहीं करते। यहाँ तक कि काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर भी वे अपनी गलतियों की प्रकृति या उनके कारणों पर चिंतन नहीं करते। वे इन समस्याओं का गहन-विश्लेषण नहीं करते, बल्कि लगातार बहस करते हैं, खुद को सही ठहराते हैं और अपना बचाव करते हैं। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं, “अपनी काट-छाँट से पहले मुझे लगता था कि अनुसरण का कोई मार्ग है। मगर जब मेरे साथ काट-छाँट की गई तो मैं उलझन में पड़ गया। मैं नहीं जानता कि अब कैसे अभ्यास करना है या परमेश्वर में कैसे विश्वास रखना है और मैं आगे का मार्ग नहीं देख पा रहा हूँ।” वे दूसरों से यह भी कहते हैं, “तुम लोगों को बहुत सावधानी बरतनी चाहिए ताकि तुम्हारे साथ काट-छाँट न की जाए; यह बहुत दर्दनाक है, जैसे चमड़ी उधेड़ी जा रही हो। मेरे पुराने मार्ग पर मत चलो। देखो, काट-छाँट के बाद मेरा क्या हाल हो गया। मैं फँस गया हूँ, न आगे बढ़ पाता हूँ और न ही पीछे; मैं कुछ भी सही नहीं कर पाता हूँ!” क्या ये शब्द सही हैं? क्या इनमें कोई समस्या है? (हाँ। वे खुद को सही ठहराते हुए बहस कर रहे हैं, कह रहे हैं कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया।) इस तरह खुद को सही ठहराकर और बहस के जरिए क्या संदेश दिया जा रहा है? (वे कह रहे हैं कि लोगों की काट-छाँट करके परमेश्वर का घर गलत कर रहा है।) कुछ लोग कहते हैं, “अपनी काट-छाँट से पहले मुझे लगता था कि मेरे पास अनुसरण का एक मार्ग है, मगर काट-छाँट किए जाने के बाद मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा।” ऐसा क्यों है कि अपने साथ काट-छाँट किए जाने के बाद उन्हें नहीं पता होता कि क्या करना है? इसका क्या कारण है? (काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर, वे सत्य नहीं स्वीकारते या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते। वे कुछ धारणाएँ पालते हैं और उन्हें हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते। इससे उनके पास कोई मार्ग नहीं बचता। अपने भीतर कारण खोजने के बजाय वे इसके विपरीत दावा करते हैं कि काट-छाँट किए जाने के कारण ही वे अपना मार्ग खो बैठे।) क्या यह आरोप-प्रत्यारोप नहीं है? यह ऐसा कहने जैसा है, “मैंने जो किया वह सिद्धांतों के अनुसार था, मगर तुम्हारा मेरी काट-छाँट करना यह स्पष्ट करता है कि तुम मुझे सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करने दे रहे हो। तो, मैं भविष्य में अभ्यास कैसे करूँगा?” ऐसी बातें कहने वाले लोगों का यही मतलब होता है। क्या वे अपनी काट-छाँट स्वीकार रहे हैं? क्या वे यह तथ्य स्वीकारते हैं कि उन्होंने गलतियाँ की हैं? (नहीं।) क्या वास्तव में इस कथन का मतलब यह नहीं है कि वे यह जानते हैं कि लापरवाही से बुरे कर्म कैसे किए जाते हैं, मगर जब उनकी काट-छाँट की जाती है और सिद्धांतों के अनुसार काम करने के लिए कहा जाता है तो वे नहीं जानते कि क्या करना है और वे उलझन में पड़ जाते हैं? (हाँ।) तो, वे पहले कैसे काम करते थे? जब किसी की काट-छाँट की जाती है, तो क्या यह इसलिए नहीं होता कि उसने सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं किया? (हाँ।) वे लापरवाही से बुरे कर्म करते हैं, सत्य नहीं खोजते और सिद्धांतों या परमेश्वर के घर के नियमों के अनुसार काम नहीं करते हैं, इसलिए उनकी काट-छाँट की जाती है। काट-छाँट किए जाने का उद्देश्य लोगों को सत्य खोजने और सिद्धांतों के अनुसार काम करने में सक्षम बनाना है, ताकि उन्हें फिर से लापरवाही से बुरे कर्म करने से रोका जा सके। लेकिन काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर वे लोग कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि अब कैसे काम करना है या कैसे अभ्यास करना है—क्या इन शब्दों में आत्म-ज्ञान का कोई तत्व है? (नहीं।) उनका खुद को जानने का या सत्य खोजने का कोई इरादा नहीं है। इसके बजाय वे कहते हैं : “मैं अपने कर्तव्य बहुत अच्छी तरह से करता था, मगर जब से तुमने मेरी काट-छाँट की है, तुमने मेरे विचारों को अस्त-व्यस्त कर दिया और अपने कर्तव्यों के प्रति मेरे दृष्टिकोण को भ्रमित कर दिया है। अब मेरी सोच सामान्य नहीं है और मैं पहले की तरह निर्णायक या साहसी नहीं रहा, मैं उतना बहादुर नहीं रहा, और यह सब मेरी काट-छाँट किए जाने के कारण हुआ है। जब से मेरी काट-छाँट की गई है, मेरे दिल को बहुत चोट पहुँची है। तो, मैं दूसरों से अपने कर्तव्य निभाते समय बेहद सावधानी बरतने के लिए कहूँगा। उन्हें अपनी गलतियाँ या खामियाँ नहीं दिखानी चाहिए; अगर वे गलती करते हैं तो उनकी काट-छाँट की जाएगी, फिर वे डरपोक बन जाएँगे और उनमें वह जोश नहीं रहेगा जो पहले था। उनका साहस काफी हद तक सुस्त पड़ जाएगा और उनका युवा हौसला और अपना सब कुछ देने की इच्छा गायब हो जाएगी, जिससे वे बहुत कायर हो जाएँगे, अपनी ही परछाई से डरेंगे और महसूस करेंगे कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं वह सही नहीं है। वे अब अपने दिलों में परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं करेंगे और उससे लगातार दूर होते जाएँगे। यहाँ तक कि परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसे पुकारने का भी कोई जवाब नहीं मिलेगा। उन्हें लगेगा कि उनमें पहले जैसा जोश, उल्लास और प्रेम नहीं रहा और वे खुद को नीचा समझने लगेंगे।” क्या ये किसी अनुभवी व्यक्ति द्वारा दिल से कहे गए शब्द हैं? क्या ये सच्चे हैं? क्या ये लोगों को शिक्षित करते हैं या उन्हें लाभ पहुँचाते हैं? क्या यह तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना नहीं है? (हाँ, ये शब्द काफी बेतुके हैं।) वे कहते हैं, “मेरे नक्शे-कदम पर मत चलो या मेरे पुराने रास्ते को मत दोहराओ! तुम लोग मुझे अब काफी सुसभ्य मानते हो, मगर वास्तव में मैं उस काट-छाँट किए जाने के बाद से डरा हुआ था और मैं पहले जैसा स्वतंत्र और मुक्त नहीं रहा।” इन शब्दों का श्रोताओं पर क्या प्रभाव पड़ता है? (वे लोगों को परमेश्वर के प्रति ज्यादा सतर्क बनाते हैं, जिससे वे अपनी काट-छाँट किए जाने के डर से सावधानी बरतते हुए काम करने लगते हैं।) उन पर ऐसा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसे सुनने के बाद लोग सोचेंगे, “मुझे यह बताओ! एक छोटी सी चूक हुई नहीं कि तुम काट-छाँट के शिकार हो जाओगे—इसे रोकने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते! परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाना इतना कठिन क्यों है? हमेशा सत्य सिद्धांतों के बारे में बातें करते रहना—यह वाकई बहुत कठिन है! क्या एक सरल, स्थिर जीवन जीना ठीक नहीं है? यह कोई बहुत बड़ी माँग या बहुत बड़ी उम्मीद नहीं है, मगर इसे हासिल करना इतना मुश्किल क्यों है? मैं आशा करता हूँ कि मेरे साथ काट-छाँट न की जाए। मैं बहुत डरपोक व्यक्ति हूँ; आम तौर पर जब लोग मुझे घूरते हैं और ऊँची आवाज में बोलते हैं तो मेरा दिल जोर से धड़कने लगता है। अगर मुझे वास्तव में काट-छाँट किए जाने का सामना करना पड़ा और शब्द इतने कठोर हुए, तथ्यों का इस तरह से गहन-विश्लेषण किया गया तो मैं इसे कैसे सँभाल सकूँगा? क्या इससे मुझे डरावने सपने नहीं आएँगे? हर कोई कहता है कि काट-छाँट किया जाना अच्छा है, मगर मुझे समझ नहीं आता कि ऐसा कैसे है। क्या वह व्यक्ति इससे डर नहीं गया था? अगर मेरे साथ काट-छाँट की जाए, तो मैं भी डर जाऊँगा।” क्या यह उन लोगों की बातों का प्रभाव नहीं है जो नकारात्मकता फैलाते हैं? क्या यह प्रभाव स्वीकारात्मक और सकारात्मक है या नकारात्मक और प्रतिकूल? (नकारात्मक और प्रतिकूल।) ये नकारात्मक कथन उन लोगों को बहुत नुकसान पहुँचा सकते हैं जो सत्य का अनुसरण करने के लिए तैयार हैं! तो मुझे बताओ, जो लोग अक्सर नकारात्मकता फैलाते हैं और मौत फैलाते हैं, क्या वे शैतान के नौकर हैं? क्या वे कलीसिया के काम में बाधा डालने वाले लोग हैं? (बिल्कुल।)
कुछ लोग अपनी मनमर्जी से काम करते हैं और सिद्धांतों के विरुद्ध जाते हैं। अपनी काट-छाँट किए जाने के बाद, उन्हें लगता है कि इतनी कड़ी मेहनत करने और कीमत चुकाने के बाद भी उनकी काट-छाँट की गई, इसलिए उनके दिल अवज्ञा से भर जाते हैं और वे उजागर किए जाने या गहन-विश्लेषण करने को नहीं स्वीकारते। वे मानते हैं कि परमेश्वर अधार्मिक है और परमेश्वर के घर ने उनके साथ अन्याय किया है, क्योंकि उनके जैसे उपयोगी प्रतिभाशाली व्यक्ति, जो इतने अधिक कष्ट सहते हैं और इतनी बड़ी कीमत चुकाते हैं, परमेश्वर का घर उनकी प्रशंसा नहीं करता बल्कि उनकी काट-छाँट तक करता है। उनकी अवज्ञा से शिकायतें उभरती हैं और वे अपनी नकारात्मकता फैलाएँगे : “जिस तरह से मैं इसे देखता हूँ, परमेश्वर में विश्वास रखने से ज्यादा कठिन और कुछ भी नहीं है; कुछ आशीषें पाना और थोड़े अनुग्रह का आनंद लेना वास्तव में कठिन है। मैंने इतनी बड़ी कीमत चुकाई, मगर एक काम खराब तरीके से करने पर मेरी काट-छाँट की गई। अगर मेरे जैसा व्यक्ति काम करने के लायक नहीं है तो कोई और कैसे हो सकता है? क्या परमेश्वर धार्मिक नहीं है? ऐसा क्यों है कि मैं उसकी धार्मिकता को पहचानने में सक्षम नहीं हूँ? परमेश्वर की धार्मिकता लोगों की धारणाओं से इतनी असंगत कैसे है?” वे इस बात का गहन-विश्लेषण नहीं करते कि उन्होंने ऐसा क्या किया जो सिद्धांतों के खिलाफ जाता है या उन्होंने कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हैं। उनमें न सिर्फ पछतावे या समर्पण की झलक नहीं है—वे खुलेआम आलोचना और विरोध भी करते हैं। उन्हें ऐसा बयान देते हुए सुनने के बाद ज्यादातर लोग उनसे कुछ हद तक सहानुभूति रखने लगते हैं और उनके बहकावे में आ जाते हैं : “यह सच है, है ना? उन्होंने बीस सालों से परमेश्वर में विश्वास रखा मगर फिर भी उन्हें ऐसी काट-छाँट किए जाने का सामना करना पड़ा। अगर कोई व्यक्ति जो बीस सालों से विश्वास रखता आ रहा है, उसे नहीं बचाया जा सकता तो हमारे जैसे लोगों के लिए तो कोई उम्मीद ही नहीं है।” क्या उनमें जहर नहीं भरा गया है? एक बार नकारात्मकता फैल गई तो जहर बोया जाता है, वैसे ही जैसे लोगों के दिलों में कोई बीज बोया गया हो, जो अपनी जड़ें फैला रहा है, अंकुरित हो रहा है, उनके दिलोदिमाग में फल-फूल रहा है। लोगों को एहसास होने से पहले ही उनमें जहर भर दिया जाता है और उनमें परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध और शिकायतें पैदा हो जाती हैं। जब उन लोगों की काट-छाँट की जाती है, तो वे परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी हो जाते हैं और इस बात से असंतुष्ट होते हैं कि परमेश्वर का घर उनके साथ कैसे पेश आया। पश्चात्ताप करने और अपराध कबूलने का रवैया अपनाने के बजाय, वे बहस करते हैं, खुद को सही ठहराते हैं और अपना बचाव करते हैं। वे दूर-दूर तक ढिंढोरा पीटते हैं कि उन्होंने कितने कष्ट सहे, क्या काम किया और अपनी बरसों की आस्था में कौन-से कर्तव्य निभाए हैं और अब पुरस्कार पाने के बजाय वे काट-छाँट किए जाने का सामना करते हैं। न केवल वे काट-छाँट किए जाने के बाद अपनी भ्रष्टता और गलतियों को पहचानने में नाकाम रहते हैं, बल्कि वे यह विचार भी फैलाते हैं कि जिस तरह से परमेश्वर का घर उनके साथ पेश आया है वह अनुचित और तर्कहीन है, उनके साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए और अगर ऐसा होता है तो परमेश्वर धार्मिक नहीं है। वे यह नकारात्मकता इसलिए फैलाते हैं क्योंकि वे अपनी काट-छाँट किए जाने को या इस तथ्य को स्वीकार नहीं सकते कि उन्होंने गलतियाँ की हैं और वे इस तथ्य को तो कतई मान या स्वीकार नहीं सकते कि उन्होंने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाया है। उनका मानना है कि उन्होंने सही तरीके से काम किया और परमेश्वर के घर ने उनकी काट-छाँट करके गलत किया है। नकारात्मकता फैला कर वे लोगों को यह बताना चाहते हैं कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ अनुचित व्यवहार करता है : जब तक कोई व्यक्ति गलती करता है तब तक परमेश्वर का घर इसे उसके खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करेगा, इस मुद्दे को पकड़कर बेरहमी से उसकी इस हद तक काट-छाँट करेगा कि वह दब्बू हो जाएगा और सोचेगा कि उसने कोई योगदान नहीं दिया है, अब उसे आदर्श मानकर पूजने वाला कोई नहीं है, अब वह खुद की सराहना नहीं करता और न ही परमेश्वर से पुरस्कार माँगने की हिम्मत करता है—केवल तभी परमेश्वर के घर का उद्देश्य पूरा होगा। इस नकारात्मकता को फैलाने में उनका उद्देश्य ज्यादातर लोगों को उनके बचाव में लाना है, ज्यादातर लोगों को “मामले की सच्चाई” समझाना और यह दिखाना है कि परमेश्वर में अपने विश्वास के कई सालों में उन्होंने कितनी पीड़ा सही है, उनके योगदान कितने महत्वपूर्ण रहे हैं और वे कितने योग्य और अनुभवी विश्वासी हैं। इसके साथ, वे चाहते हैं कि अन्य लोग परमेश्वर के घर के नियमों और परमेश्वर के घर द्वारा की गई काट-छाँट के विरोध में उनके साथ खड़े हों। क्या यह लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की प्रकृति नहीं है? (हाँ।) इस तरह से नकारात्मकता फैलाने का उनका लक्ष्य लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करना और उन्हें गुमराह करना है, और वे अपनी नाराजगी प्रकट करने के लिए कलीसिया के कार्य को बाधित करते हैं। अपनी नकारात्मकता फैलाने के बाद लोगों पर इसका असर चाहे जो भी हो, इसका प्रभाव और परिणाम यही होता है कि लोग गुमराह और बाधित हो जाते हैं, उन्हें नुकसान पहुँचता है। इससे शिक्षा नहीं मिलती। यह एक नकारात्मक प्रभाव है।
जब लोगों को काट-छाँट किए जाने का सामना करना पड़ता है तो वे आम तौर पर इसी तरह की नकारात्मकता फैलाते हैं। वे अपनी काट-छाँट स्वीकार नहीं कर सकते और अपने दिलों में असंतुष्ट और अवज्ञाकारी होते हैं, इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारने में असमर्थ होते हैं। उनकी पहली प्रतिक्रिया यह नहीं होती कि वे अपनी काट-छाँट को लेकर सत्य खोजें और आत्म-चिंतन करें, खुद को जानें और अपना गहन-विश्लेषण करें, यह देखें कि वास्तव में उन्होंने क्या गलती की, क्या उनके क्रियाकलाप सिद्धांतों के अनुरूप थे, परमेश्वर के घर ने उनकी काट-छाँट क्यों की और उनके साथ इस तरह से पेश आना कोई व्यक्तिगत नाराजगी के कारण था या फिर यह उचित और तर्कसंगत था। उनकी पहली प्रतिक्रिया इन चीजों को खोजने की नहीं होती—इसके बजाय, उनकी पहली प्रतिक्रिया अपनी काट-छाँट किए जाने का विरोध करने के लिए अपनी योग्यताओं, सहन की गई कठिनाइयों और खुद को खपाने पर भरोसा करने की होती है। ऐसा करते समय, उनके दिलों में उठने वाली हर बात नकारात्मक और प्रतिकूल ही होगी, जिसमें कुछ भी स्वीकारात्मक या सकारात्मक नहीं होगा। इसलिए, जब वे काट-छाँट किए जाने के बाद अपनी भावनाओं और समझ के बारे में संगति करते हैं तो वे निश्चित रूप से नकारात्मकता और धारणाएँ फैला रहे होते हैं। नकारात्मकता और धारणाएँ फैलाने को तुरंत रोका और प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, इसमें लिप्त नहीं होना चाहिए और इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। ये नकारात्मक चीजें हर एक व्यक्ति के जीवन प्रवेश को रोकेंगी, बाधित करेंगी और नुकसान पहुँचाएँगी, और वे स्वीकारात्मक, सकारात्मक भूमिका नहीं निभा सकतीं; वे लोगों की परमेश्वर के प्रति निष्ठा या अपने कर्तव्य निर्वहन में उनकी वफादारी को प्रेरित तो बिल्कुल नहीं कर सकती हैं। इसलिए जब ऐसे लोग नकारात्मकता फैलाते हैं तो वे कलीसियाई जीवन को बाधित कर रहे होते हैं और उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
3. अपनी प्रतिष्ठा, रुतबा और हितों को नुकसान पहुँचने पर नकारात्मकता फैलाना
बर्खास्त किए जाने या काट-छाँट किए जाने के बाद नकारात्मकता फैलाने के अलावा लोग कौन-सी अन्य परिस्थितियों में नकारात्मकता फैलाते हैं? (जब लोगों के हितों को चोट पहुँचती है और उन्हें लगता है कि उन्हें नुकसान हुआ है।) (कुछ लोगों ने कई सालों से अपने कर्तव्य निभाए हैं मगर जब वे बीमार पड़ते हैं या उनके परिवार पर आपदा आती है तो वे कहते हैं, “इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास रखने से मुझे क्या हासिल हुआ?”) नकारात्मकता फैलाने वालों का सामान्य “तकिया कलाम” है “मुझे क्या हासिल हुआ?” और कौन-सी परिस्थितियाँ हैं? (कुछ लोग न केवल अपने कर्तव्यों में नतीजे हासिल करने में विफल रहते हैं बल्कि वे अक्सर गलतियाँ करते हैं इसलिए वे कहते हैं, “परमेश्वर दूसरों को प्रबुद्ध करता है मगर मुझे क्यों नहीं? परमेश्वर ने उन्हें इतनी अच्छी काबिलियत क्यों दी जबकि मेरी काबिलियत इतनी कम है?” अपनी समस्याओं पर चिंतन करने के बजाय वे परमेश्वर को जिम्मेदार ठहराते हैं, कहते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें प्रबुद्ध नहीं किया या रास्ता नहीं दिखाया और फिर वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते रहते हैं।) वे दावा करते हैं कि परमेश्वर निष्पक्ष नहीं है, पूछते हैं कि वह दूसरों को प्रबुद्ध करता है और अनुग्रह प्रदान करता है मगर उन्हें क्यों नहीं; इस बारे में बड़बड़ाते रहते हैं कि वे अपने कर्तव्यों में नतीजे क्यों नहीं हासिल कर रहे—वे शिकायत करते हैं। तुम लोगों द्वारा दिए गए उदाहरण अच्छे हैं। और कुछ है? (जब कुछ लोगों के कर्तव्यों में फेरबदल किया जाता है तो वे बहुत नाराज होते हैं, सवाल करते हैं कि उन्हें दूसरा काम क्यों सौंपा गया और यह संदेह करते हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता उन्हें निशाना बना रहे हैं और उनके लिए चीजों को मुश्किल बना रहे हैं।) क्या उन्हें लगता है कि परमेश्वर का घर उन्हें नीची नजरों से देखता है? (हाँ।) कुछ लोग जो वास्तविक कार्य नहीं करते हैं उन्हें बर्खास्त करके हटा दिया जाता है और उन्हें लगता है कि उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे को नुकसान पहुँचाया गया है। अपना असंतोष जाहिर करने के लिए वे हमेशा अकेले में शिकायत करते रहते हैं : “मैंने थोड़े समय के लिए परमेश्वर पर विश्वास किया है, मेरी समझने की क्षमता अच्छी नहीं है और मेरी काबिलियत कम है। मैं दूसरों के जितना अच्छा नहीं हूँ। अगर वे कहते हैं कि मैं सक्षम नहीं हूँ तो सच में सक्षम नहीं हूँ!” ऊपरी तौर पर वे अपनी कमियों को स्वीकार रहे हैं मगर वास्तव में वे अपने खोए हुए लाभों को फिर से पाने की कोशिश में हैं, लगातार शिकायत करते हैं और लोगों की सहानुभूति पाने और उन्हें यह महसूस कराने के लिए ऐसी बातें कह रहे हैं कि परमेश्वर का घर निष्पक्ष नहीं है। जैसे ही उनके हितों को चोट पहुँचती है वे अनिच्छुक हो जाते हैं और हमेशा अपने नुकसान की भरपाई करने और मुआवजा पाने की उम्मीद करते रहते हैं। अगर ऐसा नहीं होता है तो वे परमेश्वर में अपना विश्वास खो देते हैं और अब यह नहीं जानते कि उसमें कैसे विश्वास किया जाए; वे ऐसी बातें कहते हैं, “मैं सोचता था कि परमेश्वर में विश्वास रखना बहुत अच्छा है और कलीसिया में अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में काम करने से निश्चित ही महान आशीष मिलेंगे। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे बर्खास्त करके हटा दिया जाएगा और दूसरे लोग मुझे ठुकरा देंगे। परमेश्वर के घर में भी ऐसा कुछ हो सकता है! जरूरी नहीं कि हर कोई जो परमेश्वर में विश्वास रखता है वह अच्छा इंसान हो और परमेश्वर का घर जो कुछ भी करता है वह परमेश्वर या न्याय का प्रतिनिधित्व करता हो।” इस तरह के बयानों की प्रकृति क्या है? उनके शब्द, स्पष्ट और निहित दोनों ही रूप से, एक हमले का संदेश देते हैं। वे आलोचना और प्रतिरोध का संदेश देते हैं। ऊपरी तौर पर वे किसी विशेष अगुआ या कलीसिया को निशाना बनाते दिखते हैं मगर वास्तव में उनके दिलों में ये शब्द परमेश्वर, उसके वचनों और उसके घर के प्रशासनिक आदेशों और नियमों को निशाना बना रहे होते हैं। वे पूरी तरह से अपनी नाराजगी दिखा रहे होते हैं। वे अपनी नाराजगी क्यों दिखा रहे होते हैं? उन्हें लगता है कि उन्हें नुकसान हुआ है; अपने दिलों में वे अन्याय और असंतोष महसूस करते हैं और वे चीजों की माँग करना और मुआवजा प्राप्त करना चाहते हैं। हालाँकि ऐसे लोगों द्वारा फैलाई गई नकारात्मकता ज्यादातर लोगों के लिए कोई बड़ा खतरा पैदा नहीं करती, ये गंदे शब्द परेशान करने वाली मक्खियों या खटमलों जैसे होते हैं जो लोगों के मन में थोड़ा व्यवधान पैदा करते हैं। ये शब्द सुनकर ज्यादातर लोग घिन और विरक्ति महसूस करते हैं मगर जाहिर है कि ऐसे लोग भी होंगे जो इनकी किस्म के होंगे, जिनके स्वभाव, सार और झुकाव ऐसे ही होंगे, जो इन लोगों की तरह ही बुरे होंगे, और जो इनसे प्रभावित और बाधित होंगे। यह तो होना ही है। इसके अलावा, कुछ छोटे आध्यात्मिक कद के लोग जिनमें विवेक की कमी होती है, इन नकारात्मक टिप्पणियों से बाधित हो सकते हैं और परमेश्वर में उनकी आस्था प्रभावित हो सकती है। ये लोग पहले से ही नहीं जानते कि वास्तव में परमेश्वर में विश्वास किस लिए करें, और उन्हें दर्शनों के सत्य के बारे में स्पष्ट नहीं है, और सत्य समझने की उनकी क्षमता भी कमजोर है। जब वे ये नकारात्मक कथन सुनते हैं तो उनके अनजाने में ही उन्हें ग्रहण करने और इस तरह उनके प्रभाव से ग्रस्त होने की अत्यधिक संभावना होती है। ये शब्द जहर हैं। इन्हें लोगों के दिलों में आसानी से भरा जा सकता है। जब कोई व्यक्ति इन नकारात्मक टिप्पणियों को स्वीकार लेता है और जब परमेश्वर का घर उनसे कोई कर्तव्य करने के लिए कहता है तो वे बेरुखी से पेश आते हैं। जब परमेश्वर का घर किसी काम में उनसे सहयोग माँगता है तो वे बेपरवाह रहते हैं। वे इसे तभी ग्रहण करेंगे जब उनका मन करेगा; नहीं तो वे ऐसा नहीं करेंगे, हमेशा तरह-तरह के तर्क और बहाने देते रहेंगे। उन नकारात्मक टिप्पणियों को सुनने से पहले परमेश्वर में उनके विश्वास में थोड़ी ईमानदारी थी और अपने कर्तव्य निभाते समय उनका रवैया कुछ हद तक सकारात्मक और सक्रिय था। मगर उन नकारात्मक टिप्पणियों को सुनने के बाद वे उदासीन हो जाते हैं और अपने भाई-बहनों के प्रति भी बेरुखी दिखाते हैं। वे उनसे सावधानी बरतते हैं। जब कलीसिया उनके लिए कोई कर्तव्य करने की व्यवस्था करती है तो वे टाल-मटोल करते रहते हैं और बार-बार उसे टालते रहते हैं जिसमें काफी निष्क्रियता दिखती है। पहले वे समय पर सभाओं में जाते थे मगर उन टिप्पणियों को सुनने के बाद उनकी उपस्थिति कम हो जाती है—जब उनका मिजाज अच्छा होता है तो वे आते हैं मगर जब मिजाज अच्छा नहीं होता है तो वे नहीं आते हैं। अगर घर पर कोई अप्रिय घटना घटती है तो उन्हें चिंता होती है कि कोई आपदा आ सकती है इसलिए वे सभाओं में ज्यादा जाते हैं और परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ने लगते हैं। अगर वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद रोमांचित, खुश और प्रेरित होते हैं तो वे कुछ पैसे भी देंगे। मगर जब घर में सब कुछ शांत हो जाता है तो वे एक बार फिर से सभाओं में जाना बंद कर देते हैं। जब भाई-बहन उनका समर्थन करने की उम्मीद में उनके साथ संगति करने की कोशिश करते हैं तो वे इनकार करने के बहाने ढूँढ़ते हैं; और जब भाई-बहन उनके घर जाते हैं तो वे साफ तौर पर घर में होने के बावजूद दरवाजा नहीं खोलते। यहाँ क्या हो रहा है? वे उन नकारात्मक टिप्पणियों से प्रभावित हो गए हैं—उनमें जहर भरा गया है और उनका मानना है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वालों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। पहले वे इन लोगों पर काफी भरोसा करते थे और जब उन्होंने परमेश्वर के वचन पढ़े तो सोचा, “ये परमेश्वर के वचन हैं, ये लोग मेरे भाई-बहन हैं, यह परमेश्वर का घर है—कितनी शानदार बात है!” मगर जब उन्होंने कुछ लोगों द्वारा फैलाई गई नकारात्मक टिप्पणियों को सुना तो वे बदल गए। क्या वे प्रभावित नहीं हुए हैं? क्या उनके जीवन प्रवेश को नुकसान नहीं पहुँचा है? (हाँ, पहुँचा है।) किसने उन्हें प्रभावित किया? उन लोगों ने जो नकारात्मकता फैलाते हैं, जिन्होंने वे टिप्पणियाँ कीं। अगर किसी ने अभी तक सच्चे मार्ग पर ठोस नींव नहीं बनाई है या परमेश्वर के वचनों को इस हद तक नहीं खाया-पिया है कि वे सत्य समझ सकें तो वे आसानी से नकारात्मक चीजों से प्रभावित हो सकते हैं। और खास तौर पर जिन लोगों में सत्य समझने की क्षमता नहीं है बल्कि केवल रुझानों को देखते हैं, स्थिति को भाँपते हैं और सतही घटनाओं को देखते हैं—वे नकारात्मक शब्दों से और भी ज्यादा आसानी से प्रभावित होते हैं। खासकर जब उन्होंने लोगों को इस तरह की भ्रांतियाँ फैलाते सुना हो जैसे कि, “परमेश्वर का घर जरूरी नहीं कि निष्पक्ष हो और परमेश्वर का घर जो कुछ भी करता है वह सब सकारात्मक नहीं होता,” तो वे और भी ज्यादा सतर्क हो जाते हैं। कोई ऐसा कथन जो सत्य के अनुरूप हो उसे हमेशा आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है मगर एक नकारात्मक, बेतुका, और ऐसा कथन जो सत्य का खंडन करता है—यह बहुत आसानी से लोगों के दिलों में जड़ें जमा सकता है और उसे हटाना आसान नहीं होता। लोगों के लिए सत्य स्वीकारना तो बहुत कठिन है, मगर उनके लिए भ्रांतियाँ स्वीकारना बहुत आसान होता है!
बुरी मानवता वाले कुछ लोग अपनी प्रतिष्ठा, शोहरत, दैहिक सुख, निजी संपत्ति और हितों को बहुत महत्व देते हैं। जब उनकी प्रतिष्ठा, रुतबे और प्रत्यक्ष हितों को नुकसान पहुँचता है तो वे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं करते या परमेश्वर ने उनके लिए जो परिवेश तैयार किया है उसे स्वीकार नहीं करते हैं; वे इन चीजों को त्यागने और अपने व्यक्तिगत नफे-नुकसान की अनदेखी करने में असमर्थ होते हैं। इसके बजाय वे अपने असंतोष और अवज्ञा को जाहिर करने के लिए विभिन्न अवसरों का उपयोग करते हैं और अपनी नकारात्मक भावनाओं को फैलाते हैं जिस वजह से कुछ लोगों को बहुत कष्ट सहना पड़ता है। इसलिए जब ऐसे लोग नकारात्मकता फैलाते हैं तो कलीसिया के अगुआओं को सबसे पहले स्थिति को तुरंत समझना चाहिए और समय रहते उन लोगों को रोकना और प्रतिबंधित करना चाहिए। बेशक, कलीसिया के अगुआओं को सक्रियता से उन लोगों को उजागर भी करना चाहिए और भाई-बहनों के साथ इस बात पर संगति करनी चाहिए कि उन्हें कैसे पहचाना जाए, वे ये नकारात्मक और बेतुकी बातें क्यों कहते हैं, साथ ही खुद को उनके द्वारा गुमराह किए जाने और गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाए जाने से बचने के लिए उन्हें इन शब्दों को कैसे लेना और कैसे पहचानना चाहिए। ऐसे लोगों को पहचानने और उनका गहन-विश्लेषण करने में सक्षम होना और इस तरह उनसे बचना, उन्हें ठुकराना और अब उनके द्वारा गुमराह नहीं होना जरूरी है। यह काम कलीसिया के अगुआओं को करना चाहिए। बेशक, अगर साधारण भाई-बहनों को ऐसे लोगों का पता चलता है और वे उनके मानवता सार को पहचान लेते हैं तो उन्हें भी उनसे दूर रहना चाहिए। अगर तुममें प्रतिरोध करने की पर्याप्त क्षमता नहीं है या उनका समर्थन करने, उनकी मदद करने और उन्हें बदलने के लिए आध्यात्मिक कद नहीं है और तुम्हें लगता है कि तुम उनकी नकारात्मक टिप्पणियों, उनके असंतोष और अवज्ञा वाले शब्दों का सामना नहीं कर सकते हो तो उनसे दूर रहना ही सबसे अच्छा है। अगर तुम्हें लगता है कि तुम बहुत मजबूत हो, तुम्हारे पास थोड़ा आध्यात्मिक कद है और कोई चाहे कुछ भी कहे, तुम विवेक का प्रयोग कर सकते हो और अप्रभावित रह सकते हो तो उनके द्वारा फैलाई गई नकारात्मकता चाहे कितनी भी तीव्र क्यों न हो, इससे परमेश्वर में तुम्हारी आस्था नहीं बदलेगी, तुम ऐसे लोगों को पहचान सकते हो और जब वे नकारात्मकता फैलाएँ तो तुम उन्हें उजागर कर सकते हो और रोक भी सकते हो—तो तुम्हें ऐसे लोगों से बचने या उनसे सावधान रहने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास ऐसा आध्यात्मिक कद नहीं है तो ऐसे लोगों से निपटने का तरीका और सिद्धांत उनसे दूर रहना है। क्या यह हासिल करना आसान है? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “क्या मैं उन्हें बर्दाश्त कर सकता हूँ, उन्हें झेल सकता हूँ और उन्हें माफ कर सकता हूँ?” यह भी ठीक है और यह गलत नहीं है मगर यह सबसे महत्वपूर्ण या सबसे अच्छा तरीका नहीं है। मान लो कि तुम उन्हें सहते हो, बर्दाश्त करते हो और उनके प्रति आसक्त होते हो और अंत में उनके द्वारा गुमराह होकर उनके पक्ष में फुसला लिए जाते हो। और मान लो कि चाहे परमेश्वर का घर तुम्हारा कैसे भी पोषण और समर्थन करे, तुम इसे महसूस नहीं कर पाते हो; या जब तुम परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हो तो अक्सर उनके विचारों और टिप्पणियों से प्रभावित होते हो और जैसे ही तुम उनके द्वारा कही गई किसी बात के बारे में सोचते हो, तुम्हारा मन प्रभावित होता है और तुम पढ़ना जारी नहीं रख पाते। और जब भाई-बहन सत्य की अपनी समझ के बारे में संगति करते हैं—खासकर जब वे ऐसे लोगों की टिप्पणियों को पहचानने के बारे में संगति करते हैं—तो तुम फिर से उनकी बातों में आ जाते हो और उनके शब्दों से प्रभावित हो जाते हो जिससे तुम्हारा मन उधेड़बुन में पड़ जाता है। अगर ऐसा है तो तुम्हें ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए। तुम्हारी सहनशीलता और स्थिरता अप्रभावी रहेंगी और ये ऐसे लोगों से बचाव के सबसे अच्छे तरीके नहीं हैं। मान लो कि तुम्हारी सहनशीलता और स्थिरता कोई छिपे हुए, बाहरी व्यवहार नहीं हैं, बल्कि वास्तव में तुम्हारे पास ऐसे लोगों का सामना करने के लिए पर्याप्त आध्यात्मिक कद है। चाहे वे कुछ भी कहें, भले ही तुम कुछ न बोलो, फिर भी तुम उन्हें अपने दिल में पहचान सकते हो; तुम उनके प्रति सहनशीलता दिखा सकते हो और उन्हें अनदेखा कर सकते हो मगर उनके द्वारा कहे गए कोई भी प्रतिकूल, नकारात्मक शब्द या परमेश्वर के बारे में गलतफहमी और शिकायत भरी बातें परमेश्वर में तुम्हारी आस्था को जरा भी प्रभावित नहीं करेंगी, न ही ये तुम्हारे कर्तव्य पालन में तुम्हारी निष्ठा या परमेश्वर के प्रति तुम्हारे समर्पण को प्रभावित करेंगी। उस स्थिति में तुम उन्हें बर्दाश्त और सहन कर सकते हो। सहनशीलता और स्थिरता का अभ्यास करने का सिद्धांत क्या है? नुकसान नहीं पहुँचाया जाना। उन्हें अनदेखा करो, उन्हें जो कहना है कहने दो—आखिरकार ऐसे लोग सिर्फ विवेकहीन उपद्रवी होते हैं और वे लगातार परेशान करते हैं। चाहे तुम उनके साथ सत्य के बारे में कैसे भी संगति करो वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे; वे राक्षसों और शैतानों की श्रेणी के हैं और उनके साथ संगति करना बेकार है। इसलिए इससे पहले कि परमेश्वर का घर उनसे निपटे और उन्हें हटाए, अगर तुम्हारे पास बिना किसी नुकसान के उन्हें सहन करने और बर्दाश्त करने का आध्यात्मिक कद है तो यह सबसे अच्छा है। क्या तुम लोग आम तौर पर सहनशीलता और स्थिरता के इस सिद्धांत को अपनाते हो? तुम सभी प्रकार के लोगों को सहन करते हो मगर कभी-कभी तुम सावधानी नहीं बरतते और थोड़े गुमराह हो जाते हो; बाद में तुम्हें इसका एहसास होता है तो तुम परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करते हो, कुछ दिनों तक प्रार्थना करते हो, अपनी दशा बदलते हो और परमेश्वर के करीब आ जाते हो। ज्यादातर समय तुम यह स्पष्ट देख सकते हो कि ऐसे लोग अच्छे नहीं हैं और वे राक्षसों की श्रेणी के हैं। हालाँकि तुम उनसे सामान्य रूप से बातचीत कर सकते हो मगर तुम अंदर से उनसे दूर हो जाते हो और उनसे विकर्षित होते हो। चाहे वे कुछ भी कहें या कोई भी नकारात्मक टिप्पणी करें और नकारात्मक विचार व्यक्त करें, तुम उसे अनसुना कर देते हो, उसे अनदेखा करते हुए सोचते हो, “जो भी कहना है कहो। मैं तुम्हें पहचान सकता हूँ। तुम जैसे लोगों से मेरा कोई वास्ता नहीं है।” क्या यही वह सिद्धांत है जिसका तुम लोग ऐसे मामलों से निपटने के दौरान ज्यादातर समय पालन करते हो? इसे हासिल करना भी बुरा नहीं है; यह आसान नहीं है और इसके लिए कुछ सत्यों को समझना और एक निश्चित आध्यात्मिक कद होना जरूरी है। अगर तुममें इस स्तर का आध्यात्मिक कद भी नहीं है तो तुम दृढ़ नहीं रह पाओगे और न ही अपना कर्तव्य अच्छे से निभा पाओगे।
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