अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (15) खंड चार
आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों के विषय में, जिस पर हमने अभी-अभी संगति की, क्या अब तुम लोग भेद पहचानने के सिद्धांत समझते हो? क्या तुम पहचान सकते हो कि कौन-सी परिस्थितियाँ आपसी हमले और मौखिक झगड़े बनती हैं? आपसी हमले और मौखिक झगड़े लोगों के समूहों के बीच प्रायः होते हैं और अक्सर देखे जा सकते हैं। आपसी हमलों में मुख्य रूप से किसी पर व्यक्तिगत रूप से हमला करने, उसकी आलोचना करने, निंदा करने, यहाँ तक कि उसे कोसने के लिए उसकी समस्याओं को उद्देश्यपूर्वक निशाना बनाना शामिल है, जिसका उद्देश्य बदला लेना, जवाबी हमला करना, व्यक्तिगत भड़ास निकालना आदि होता है। जो भी हो, आपसी हमले और मौखिक झगड़े सत्य पर संगति करने से ताल्लुक नहीं रखते, न ही वे सत्य का अभ्यास करने से ताल्लुक रखते हैं और निश्चित रूप से वे सामंजस्यपूर्ण सहयोग की अभिव्यक्ति नहीं हैं। इसके बजाय वे उग्रता और शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के कारण लोगों से बदला लेने और उन पर प्रहार करने की अभिव्यक्ति हैं। आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों का उद्देश्य सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति करना बिल्कुल नहीं होता, सत्य समझने के लिए बहस करना तो वह एकदम नहीं होता। बल्कि इसका उद्देश्य अपने भ्रष्ट स्वभावों, महत्वाकांक्षाओं, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और दैहिक प्राथमिकताओं को संतुष्ट करना होता है। जाहिर है, आपसी हमलों का ताल्लुक सत्य पर संगति करने से नहीं होता और निश्चित रूप से उनका ताल्लुक लोगों की मदद करने और उनके साथ प्रेम से पेश आने से नहीं होता; इसके बजाय वे लोगों को सताने, उनके साथ खिलवाड़ करने और उन्हें मूर्ख बनाने की शैतान की रणनीतियों और तरीकों में से एक होते हैं। लोग भ्रष्ट स्वभावों के भीतर रहते हैं और सत्य नहीं समझते। अगर वे सत्य का अभ्यास करना नहीं चुनते तो उनका ऐसे फंदों और प्रलोभनों में फँसना और आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों की लड़ाई में शामिल होना बहुत आसान होता है। वे तब तक बहस करते हैं जब तक कि उनके चेहरे लाल नहीं हो जाते, यहाँ तक कि वे हमेशा एक ही शब्द, वाक्यांश या रूप को लेकर बहस करते रहते हैं, एक ही चीज पर एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए बरसों तक लड़ते रहते हैं और उस बिंदु पर पहुँच जाते हैं जहाँ दोनों की ही हार होती है। जैसे ही वे मिलते हैं, वे अंतहीन बहस करते हैं और कुछ तो कंप्यूटर पर चैट समूहों में एक-दूसरे पर हमला भी करते हैं, एक-दूसरे को कोसते भी हैं और एक-दूसरे की निंदा भी करते हैं। यह नफरत कितनी गंभीर हो चुकी है! सभाओं के दौरान उनका एक-दूसरे को कोसना पर्याप्त नहीं होता, उनकी नफरत अभी दूर नहीं हुई होती, उन्होंने अपने उद्देश्य प्राप्त नहीं किए होते और घर जाने के बाद जितना ज्यादा वे इसके बारे में सोचते हैं, उतने ही ज्यादा क्रोधित हो जाते हैं और वहाँ भी वे एक-दूसरे को कोसना जारी रखते हैं। यह किस तरह की भावना है? क्या यह बढ़ावा देने योग्य है, क्या यह समर्थन करने योग्य है? (नहीं।) यह किस तरह की “निडर भावना” है? यह किसी भी चीज से नहीं डरने की भावना है, यह अराजकता की भावना है, यह शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने का परिणाम है। बेशक ऐसे व्यवहारों और क्रियाकलापों से इन व्यक्तियों के जीवन में उल्लेखनीय विघ्न आते हैं और नुकसान होते हैं और इनसे कलीसियाई जीवन में भी विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए इन स्थितियों से सामना होने पर अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पता चले कि दो लोग एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं और मौखिक झगड़ों में लिप्त हैं और अंत तक लड़ने की कसम खा रहे हैं तो उन्हें तुरंत दूर कर देना चाहिए और उन्हें बर्दाश्त नहीं करना चाहिए और उन्हें खुली छूट तो निश्चित रूप से नहीं देनी चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अन्य भाई-बहनों की रक्षा करनी चाहिए और सामान्य कलीसियाई जीवन बनाए रखना चाहिए, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रत्येक सभा परिणाम प्राप्त करे और ऐसे व्यक्तियों को कलीसियाई जीवन में विघ्न उत्पन्न कर भाई-बहनों का परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य पर संगति करने का समय जाया नहीं करने देना चाहिए। अगर सभाओं के दौरान यह पता चले कि वे एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं और मौखिक झगड़ों में लिप्त हैं तो इसे तुरंत रोका और हल किया जाना चाहिए। अगर इसे प्रतिबंधित न किया जा सके तो इन लोगों को तुरंत एक सभा के माध्यम से उजागर कर उनका गहन-विश्लेषण किया जाना चाहिए और उन्हें दूर किया जाना चाहिए। कलीसिया परमेश्वर के वचन खाने-पीने, परमेश्वर की आराधना करने का स्थान है; यह व्यक्तिगत भड़ास निकालने के लिए एक-दूसरे पर हमला करने या मौखिक झगड़ों में लिप्त होने का स्थान नहीं है। जो कोई भी अक्सर कलीसियाई जीवन को बाधित करता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को प्रभावित करता है, उसे दूर किया जाना चाहिए। कलीसिया ऐसे लोगों का स्वागत नहीं करती, वह शैतानों से विघ्न की या बुरे लोगों की उपस्थिति की अनुमति नहीं देती—इन लोगों को दूर करो, समस्या हल हो जाएगी।
अगर यह पता चले कि कलीसिया में कुछ लोग आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त हैं तो चाहे उनके बहाने और कारण कुछ भी हों और चाहे उनकी चर्चा का केंद्र कुछ भी हो—चाहे वह ऐसी बात हो जिसकी सभी परवाह करते हों या नहीं करते हों—अगर कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न हो रही हों तो इस समस्या को तुरंत और बिना देरी किए हल किया जाना चाहिए। अगर इसमें शामिल लोगों को रोकना या प्रतिबंधित करना संभव न हो तो उन्हें दूर कर दिया जाना चाहिए। यह वह कार्य है जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऐसी परिस्थितियों से सामना होने पर करना चाहिए। मुख्य सिद्धांत यह नहीं है कि तुम इन लोगों के बुरे व्यवहार को बर्दाश्त करके या उन्हें खुली छूट देकर बढ़ावा दो, न ही यह कि तुम इन लोगों के लिए सही-गलत का फैसला करने वाले “ईमानदार अधिकारी” की तरह कार्यकलाप करके यह देखो कि कौन सही है और कौन गलत, कौन न्यायसंगत है और कौन नहीं, स्पष्ट रूप से सही-गलत में भेद करो और फिर दोनों पक्षों को समान दंड दो या जिसे तुम दोषी मानते हो उसे दंडित करो और दूसरे को पुरस्कृत करो—यह समस्या हल करने का तरीका नहीं है। इस मामले को सँभालने में तुमसे इसे कानून के आधार पर मापने की अपेक्षा नहीं की जाती और नैतिक मानकों के आधार पर मापने और आँकने की अपेक्षा तो बिल्कुल नहीं की जाती, बल्कि इसे कलीसिया के कार्य के सिद्धांतों के अनुसार मापने और सँभालने की अपेक्षा की जाती है। आपसी हमलों में लिप्त दोनों पक्षों के संबंध में, अगर वे कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं तो कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उन्हें रोकना और प्रतिबंधित करना या उन्हें अलग-थलग करना या बहिष्कृत करना अपना अनिवार्य कर्तव्य समझना चाहिए, न कि दोनों पक्षों को ध्यान से सुनकर यह ब्योरा देना कि क्या हुआ और उनके प्रत्येक कारण और बहाने के बारे में बात करना और दूसरे व्यक्ति पर हमला करने और मौखिक झगड़े में पड़ने के पीछे के उनके इरादे, उद्देश्य और मूल कारण के बारे में बात करना—उनसे पूरी कहानी समझने की अपेक्षा नहीं की जाती, इसके बजाय उनसे समस्या हल करने, कलीसियाई जीवन में इन विघ्न-बाधाओं को खत्म करने और उन्हें उत्पन्न करने वालों से निपटने की अपेक्षा की जाती है। मान लो अगुआ और कार्यकर्ता अंतर्निहित समस्या समझे बिना और सिद्धांतों का पालन किए बिना मतभेद सुलझाते हैं और “मध्यम मार्ग” अपनाकर आपसी हमलों में लिप्त दोनों लोगों के प्रति समझौतावादी नीति अपनाते हैं और हस्तक्षेप किए बिना या उसे सँभाले बिना वे इन लोगों को कलीसियाई जीवन में जानबूझकर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने देते हैं—वे इन लोगों को खुली छूट देते रहते हैं। वे हर बार उन्हें सिर्फ उपदेश और सलाह देते हैं और समस्या पूरी तरह से हल नहीं कर पाते। ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता अपने कर्तव्यों में लापरवाह होते हैं। अगर कलीसिया में लोगों के आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होने की समस्या उत्पन्न होती है जिससे कलीसियाई जीवन में गंभीर विघ्न उत्पन्न होते हैं और भारी नुकसान होता है और इससे ज्यादातर लोगों में नाराजगी और घृणा उत्पन्न होती है तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए, परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं और कलीसिया को शुद्ध करने के सिद्धांतों के अनुसार दोनों पक्षों को अलग-थलग या बहिष्कृत करना चाहिए। उन्हें इसमें शामिल लोगों के लिए मामले का निर्णय करने वाले और इन व्यक्तिगत झगड़ों का फैसले करने वाले “ईमानदार अधिकारियों” की तरह क्रियाकलाप नहीं करना चाहिए, उन्हें यह देखने के लिए कि कौन सही है और कौन गलत, कौन उचित है और कौन अनुचित, इन लोगों की गंदी, लंबी-चौड़ी बकवास ध्यान से नहीं सुननी चाहिए और इन चीजों का आकलन करने के बाद इन चीजों पर चर्चा और संगति करने के लिए और ज्यादा लोगों को नहीं बुलाना चाहिए, इससे और ज्यादा लोगों के दिलों में घृणा और जुगुप्सा उत्पन्न होती है। इससे समय बर्बाद होगा जिसका उपयोग लोगों को परमेश्वर के वचन खाने-पीने और उन पर संगति करने में करना चाहिए। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा जिम्मेदारी की और भी अधिक उपेक्षा है और अभ्यास का यह सिद्धांत गलत है। अगर प्रतिबंधित किए गए पक्ष किसी बिंदु पर पश्चात्ताप करते हैं और फिर सभा का समय अपने आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में बर्बाद नहीं करते तो उनको अलग-थलग रखना बंद किया जा सकता है। अगर उन्हें बुरे लोगों के रूप में बहिष्कृत किया गया हो और कोई यह दावा करे कि वे बदलकर बेहतर हो गए हैं तो यह देखना जरूरी है कि क्या वे पश्चात्ताप की वास्तविक अभिव्यक्तियाँ दिखाते हैं और इस मामले पर बहुमत की राय लेना भी जरूरी है। अगर उन्हें वापस स्वीकार कर भी लिया जाए तो भी उन पर कड़ी निगरानी रखी जानी चाहिए और उनके बोलने का समय सख्ती से सीमित किया जाना चाहिए और बाद में उनकी अभिव्यक्तियों के आधार पर उन्हें तदनुसार सँभाला जाना चाहिए। ये वे सिद्धांत हैं जिन्हें कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समझकर उन पर ध्यान देना चाहिए। बेशक इस मामले को व्यक्तिपरक मान्यताओं के आधार पर नहीं सँभाला जा सकता; दोनों पक्षों के आपसी हमलों में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने की प्रकृति होनी चाहिए। लोगों को सिर्फ इसलिए बोलने से मना और अलग-थलग नहीं किया जाना चाहिए कि उनमें से एक ने कुछ ऐसा कहा जिससे दूसरे को ठेस पहुँची और फिर उस व्यक्ति ने अपनी टिप्पणी के साथ पलटवार किया। लोगों को इस तरह से सँभालना वाकई सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है! अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सिद्धांत ठीक से समझकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बहुमत इस बात पर सहमत हो कि उनके क्रियाकलाप सिद्धांतों के अनुरूप हैं, बजाय इसके कि वे अनियंत्रित होकर बुरे काम करने लगें या समस्या की गंभीरता को यथासंभव बढ़ा-चढ़ाकर पेश करें। जब कार्य के इस पहलू की बात आती है तो एक ओर तो बहुमत को यह समझना सीखना चाहिए कि हमला क्या होता है और दूसरी ओर कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं को भी यह जानना चाहिए कि इस कार्य को करने में कौन-से सिद्धांत समझने चाहिए और कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए।
4. लोगों की अकारण निंदा
आपसी हमलों की एक अभिव्यक्ति और है। कुछ लोग कुछ आध्यात्मिक शब्द जानते हैं और वे हमेशा अपने भाषण में ऐसे कुछ शब्दों का उपयोग करते हैं, जैसे “दानव,” “शैतान,” “सत्य का अभ्यास नहीं करना,” “सत्य से प्रेम नहीं करना,” “फरीसी,” इत्यादि—वे कुछ लोगों की मनमाने ढंग से आलोचना करने के लिए इन शब्दों का उपयोग करते हैं। क्या इसमें हमले की कुछ प्रकृति नहीं है? पहले एक व्यक्ति था जो भाई-बहनों के साथ बातचीत करने पर अपनी इच्छा के अनुसार क्रियाकलाप न करने वाले किसी भी व्यक्ति को कोसना चाहता था। लेकिन उसने अपने मन में सोचा : “अब जबकि मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ तो लोगों को कोसना अशोभनीय लगता है। इससे ऐसा लगता है कि मैं संतों वाली मर्यादा का पालन नहीं कर रहा हूँ। मैं कोस नहीं सकता या अभद्र भाषा का उपयोग नहीं कर सकता, लेकिन अगर मैं कोसूँगा नहीं तो बेचैन हो जाऊँगा, अपनी नफरत दूर नहीं कर पाऊँगा—मैं हमेशा लोगों को कोसना चाहूँगा। तो फिर मैं उन्हें कैसे कोसूँ?” तो उसने एक नया शब्द गढ़ा। जो कोई भी उसे अपमानित करता, अपने क्रियाकलापों से उसे ठेस पहुँचाता या उसकी बात नहीं सुनता, वह उसे इस तरह से कोसता : “बुरा राक्षस!” “तुम एक बुरे राक्षस हो!” “फलाँ आदमी एक बुरा राक्षस है!” उसने “राक्षस” शब्द से पहले “बुरा” जोड़ दिया—मैंने वास्तव में पहले कभी किसी को इस वाक्यांश का उपयोग करते नहीं सुना था। क्या यह बिल्कुल नया नहीं है? भाई-बहनों को वह यूँ ही “बुरा राक्षस” कहकर कोसता—यह सुनकर कौन सहज महसूस करेगा? उदाहरण के लिए, अगर वह किसी भाई या बहन से एक कप पानी पिलाने के लिए कहता और वह व्यक्ति बहुत व्यस्त होता और उससे खुद पानी पी लेने के लिए कहता तो वह उसे यह कहकर कोसता : “बुरा राक्षस!” अगर वह किसी सभा से लौटकर देखता कि उसका भोजन अभी तक तैयार नहीं हुआ है तो वह क्रोधित हो जाता : “बुरे राक्षसो, तुम सभी बहुत आलसी हो। मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाहर जाता हूँ और लौटने पर मुझे भोजन भी तैयार नहीं मिलता!” जो कोई भी उसके संपर्क में आता, वह संभावित रूप से “बुरा राक्षस” कहकर कोसा जा सकता था। वह कैसा व्यक्ति है? (बुरा व्यक्ति।) वह बुरा कैसे है? जो कोई भी उसे अपमानित करता है या उसकी इच्छाओं के अनुरूप नहीं होता, वह उसकी नजर में बुरा राक्षस होता है—वह खुद बुरा राक्षस नहीं होता, लेकिन बाकी सभी बुरे राक्षस होते हैं। क्या उसके पास ऐसा कहने का कोई आधार है? बिल्कुल नहीं; उसने बस मनमाने ढंग से लोगों को कोसने के लिए एक शब्द चुन लिया जिससे वह अपनी नफरत दूर कर सके और भड़ास निकाल सके। वह मानता है कि अगर वह किसी को सचमुच कोसेगा तो दूसरे कहेंगे कि वह परमेश्वर का विश्वासी प्रतीत नहीं होता, लेकिन उसे लगता है कि अगर वह किसी को राक्षस कहता है तो यह कोसना नहीं है और यह दूसरों को उचित लगना चाहिए, इससे उसकी इच्छाएँ भी पूरी होंगी और दूसरों को उसमें दोष निकालने का कोई मौका भी नहीं मिलेगा। यह आदमी बहुत चालाक और काफी बुरा है, यह लोगों से बदला लेने और उनकी निंदा करने के लिए सबसे दुर्भावनापूर्ण भाषा का उपयोग करता है, ऐसी भाषा जो लोगों के पास प्रतिरोध का कोई तरीका नहीं छोड़ती, और फिर भी लोग उस पर कोसने या अनुचित तरीके से बात करने का आरोप नहीं लगा सकते। ऐसे व्यक्ति से सामना होने पर ज्यादातर लोग उससे दूर रहेंगे या उसके करीब आएँगे? (वे उससे दूर रहेंगे।) क्यों? वे उसे उकसाने का जोखिम नहीं उठा सकते, इसलिए वे उससे दूर ही रहेंगे; होशियार लोग ऐसा ही करेंगे।
किसी व्यक्ति की अकारण निंदा करने, उस पर कोई ठप्पा लगाने और उसे पीड़ित करने की परिघटना अक्सर हर कलीसिया में होती है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग किसी खास अगुआ या कार्यकर्ता के खिलाफ पूर्वाग्रह रखते हैं और बदला लेने की कोशिश में उनकी पीठ पीछे उनके बारे में टिप्पणियाँ करते हैं, सत्य के बारे में संगति करने की आड़ में उनका पर्दाफाश और उनका गहन-विश्लेषण करते हैं। ऐसे कार्यों के पीछे का इरादा और उद्देश्य गलत होते हैं। अगर कोई वास्तव में परमेश्वर के लिए गवाही देने और दूसरों को लाभ पहुँचाने के लिए सत्य पर संगति कर रहा है, तो उसे अपने स्वयं के सच्चे अनुभवों पर संगति करनी चाहिए और खुद का गहन-विश्लेषण करके और खुद को जानकर दूसरों को लाभ पहुँचाना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से बेहतर परिणाम मिलते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे स्वीकार करेंगे। अगर किसी की संगति किसी दूसरे व्यक्ति पर हमला करने या उससे बदला लेने के प्रयास में उसे उजागर करती है, हमला करती है और उसे नीचा दिखाती है, तो संगति का इरादा गलत है, यह अनुचित है, परमेश्वर इससे घृणा करता है और भाई-बहनों को इससे कोई शिक्षा नहीं मिलती। अगर किसी का इरादा दूसरों की निंदा करना या उन्हें पीड़ा पहुँचाना है, तो वह एक बुरा व्यक्ति है और वह बुराई कर रहा है। जब बुरे लोगों की बात आती है तो परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों में उन्हें पहचानने की समझ होनी चाहिए। अगर कोई जानबूझकर लोगों पर प्रहार करता है, उन्हें उजागर करता है या उन्हें नीचा दिखाता है, तो उनकी प्रेम से मदद की जानी चाहिए, उनके साथ संगति करनी चाहिए और उनका गहन-विश्लेषण करना चाहिए या उनकी काट-छाँट करनी चाहिए। अगर वे सत्य को स्वीकार करने में असमर्थ हैं और हठपूर्वक अपने तौर-तरीके सुधारने से इनकार करते हैं, तो वह मामला पूरी तरह से अलग होगा। जब अक्सर मनमाने ढंग से दूसरों की निंदा करने वाले, दूसरों पर कोई ठप्पा लगाने और पीड़ा पहुँचाने वाले बुरे लोगों की बात आती है, तो उन्हें पूरी तरह से उजागर किया जाना चाहिए, ताकि हर कोई उनका भेद पहचानना सीख सके, और फिर उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए या कलीसिया से निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। यह आवश्यक है, क्योंकि ऐसे लोग कलीसियाई जीवन और कार्य को बाधित करते हैं और संभव है कि वे लोगों को गुमराह करें और कलीसिया में अराजकता पैदा करें। विशेष रूप से कुछ बुरे लोग केवल इसलिए अक्सर दूसरों पर हमला करते हैं और उनकी निंदा करते हैं, ताकि वे अपने आप को दिखाने और दूसरों से अपना सम्मान करवाने का उद्देश्य हासिल कर सकें। ये बुरे लोग अक्सर सभाओं में सत्य पर संगति करने के अवसर का उपयोग दूसरों को अप्रत्यक्ष रूप से उजागर करने, उनका गहन-विश्लेषण करने और उन्हें दबाने के लिए करते हैं। अपने काम को वे यह कहकर उचित भी ठहराते हैं कि वे ऐसा लोगों की मदद करने और कलीसिया में मौजूद समस्याओं को हल करने के लिए कर रहे हैं, और इन बहानों का इस्तेमाल अपने उद्देश्य हासिल करने के लिए आवरण के रूप में करते हैं। वे ऐसे लोग हैं जो दूसरों पर हमला करते हैं और पीड़ा पहुँचाते हैं, और वे सभी स्पष्ट रूप से बुरे लोग हैं। वे सभी जो सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों पर हमला करते हैं और उनकी निंदा करते हैं, वे बेहद क्रूर होते हैं, और जो परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा के लिए बुरे लोगों को उजागर कर उनका गहन-विश्लेषण करते हैं, उन्हीं में न्याय की भावना होती है और परमेश्वर केवल उनका ही अनुमोदन करता है। बुरे लोग अक्सर अपने कुकर्मों में बहुत चालाक होते हैं; वे सभी अपने लिए औचित्य खोजने और दूसरों को गुमराह करने का अपना उद्देश्य हासिल करने के लिए सिद्धांतों का उपयोग करने में कुशल होते हैं। यदि परमेश्वर के चुने हुए लोगों में उनके बारे में समझ नहीं है और वे इन बुरे लोगों को प्रतिबंधित करने में असमर्थ हैं, तो कलीसिया का जीवन और कलीसिया का कार्य पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो जाएगा—या यहाँ तक कि कोलाहल मच जाएगा। जब बुरे लोग समस्याओं पर संगति करते हैं और उनका गहन-विश्लेषण करते हैं, तो हमेशा उनका कोई इरादा और उद्देश्य होता है जो हर बार किसी पर लक्षित होता है। वे अपना गहन-विश्लेषण नहीं कर रहे होते या खुद को जानने की प्रक्रिया में नहीं होते, न ही अपनी समस्याओं को हल करने के लिए खुद को खोलकर रख रहे होते हैं—बल्कि वे दूसरों को उजागर करने, उनका गहन-विश्लेषण करने और उन पर हमला करने के अवसर का लाभ उठा रहे होते हैं। वे अक्सर दूसरों का गहन-विश्लेषण करने और उनकी निंदा करने के लिए अपने आत्म-ज्ञान की संगति का लाभ उठाते हैं, और परमेश्वर के वचनों और सत्य पर संगति करने के माध्यम से वे लोगों को उजागर करते हैं, उन्हें नीचा दिखाते हैं और बदनाम करते हैं। वे विशेष रूप से उन लोगों के प्रति विकर्षण और नफरत महसूस करते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो कलीसिया के काम का बोझ उठाते हैं, और जो अक्सर अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। बुरे लोग इन लोगों की प्रेरणा पर प्रहार करने और उन्हें कलीसिया का काम करने से रोकने के लिए सभी प्रकार के औचित्य और बहानों का उपयोग करते हैं। उनके प्रति वे जो कुछ महसूस करते हैं उसका एक हिस्सा ईर्ष्या और नफरत होता है; दूसरा हिस्सा यह डर होता है कि ये लोग काम करने के लिए उठ खड़े होकर उनकी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए खतरा पैदा करते हैं। इसलिए वे उन्हें चेतावनी देने, दबाने और प्रतिबंधित करने का हरसंभव तरीका आजमाने के लिए उत्सुक रहते हैं, यहाँ तक कि उन्हें फँसाने और उनकी निंदा करने के लिए तथ्यों को विकृत करने का मसाला इकट्ठा करने की हद तक चले जाते हैं। इससे साफ पता चलता है कि इन बुरे लोगों का स्वभाव ऐसा होता है जो सत्य और सकारात्मक चीजों से नफरत करता है। उन्हें उन लोगों से खास नफरत होती है जो सत्य का अनुसरण करते हैं और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, और उन लोगों से भी जो काफी हद तक निष्कपट, सभ्य और बेलाग-लपेट हैं। भले वे ऐसा न कहें, लेकिन उनकी मानसिकता ऐसी ही होती है। तो वे खास तौर से सत्य का अनुसरण करने वाले और सभ्य और ईमानदार लोगों को ही क्यों निशाना बनाते हैं, उनका पर्दाफाश करने, नीचा दिखाने, दबाने और अलग करने के लिए? यह स्पष्ट रूप से अच्छे लोगों और सत्य का अनुसरण करने वालों को उखाड़ फेंकने और उन्हें कुचलने, पैरों तले रौंदने का प्रयास होता है, ताकि वे कलीसिया पर नियंत्रण स्थापित कर सकें। कुछ लोग नहीं मानते कि ऐसा है। उनसे मैं एक प्रश्न पूछता हूँ : सत्य पर संगति करते समय ये बुरे लोग खुद को उजागर क्यों नहीं करते या अपना गहन-विश्लेषण क्यों नहीं करते, और हमेशा दूसरों को क्यों निशाना बनाते और उजागर करते हैं? क्या यह वास्तव में हो सकता है कि वे भ्रष्टता प्रकट नहीं करते, या उनके स्वभाव भ्रष्ट नहीं हैं? निश्चित रूप से नहीं। फिर वे खुलासे और गहन-विश्लेषण के लिए दूसरों को निशाना बनाने पर जोर क्यों देते हैं? वे वास्तव में क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे होते हैं? यह प्रश्न गहन विचार की माँग करता है। यदि कोई कलीसिया को बाधित करने वाले बुरे लोगों के बुरे कामों को उजागर करता है, तो वह वही कर रहा है जैसा उसे करना चाहिए। लेकिन इसके बजाय ये लोग सत्य के बारे में संगति करने के बहाने अच्छे लोगों को उजागर करते हैं और पीड़ा पहुँचाते हैं। उनका इरादा और उद्देश्य क्या होता है? क्या वे इसलिए क्रोधित हैं क्योंकि वे देखते हैं कि परमेश्वर अच्छे लोगों को बचाता है? वास्तव में ऐसा ही है। परमेश्वर बुरे लोगों को नहीं बचाता, इसलिए बुरे लोग परमेश्वर और अच्छे लोगों से घृणा करते हैं—यह सब बिल्कुल स्वाभाविक है। बुरे लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते या उसका अनुसरण नहीं करते; वे खुद भी बचाए नहीं जा सकते, फिर भी वे उन अच्छे लोगों को पीड़ा देते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं और बचाए जा सकते हैं। यहाँ समस्या क्या है? अगर इन लोगों को खुद का और सत्य का ज्ञान होता, तो वे अपने को खोलते हुए संगति कर सकते थे, पर वे तो हमेशा दूसरों को निशाना बनाते और भड़काते रहते हैं—उनमें हमेशा दूसरों पर हमला करने की प्रवृत्ति होती है—और वे हमेशा सत्य का अनुसरण करने वालों को अपना कल्पित दुश्मन के तौर पर देखते हैं। ये बुरे लोगों के पहचान-चिह्न होते हैं। ऐसी बुराई करने में सक्षम लोग असली दानव और शैतान हैं, मसीह-विरोधी के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, और अगर वे बहुत अधिक बुराई करते हैं, तो उन्हें तुरंत सँभाला जाना चाहिए—उन्हें कलीसिया से निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। अच्छे लोगों पर प्रहार करने वाले और उन्हें अलग करने वाले सभी लोग सड़े हुए सेबों जैसे होते हैं। मैं उन्हें सड़ा हुआ सेब क्यों कहता हूँ? क्योंकि वे कलीसिया में अनावश्यक विवाद और संघर्ष भड़काने की संभावना पैदा करते हैं, जिससे वहाँ की स्थिति और भी गंभीर होती जाती है। वे एक दिन एक व्यक्ति को निशाना बनाते हैं और दूसरे दिन दूसरे को, और वे हमेशा दूसरों को, उन लोगों को निशाना बनाते जाते हैं जो सत्य से प्रेम करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं। इससे कलीसिया का जीवन बाधित हो सकता है और परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा परमेश्वर के वचनों को सामान्य रूप से खाने-पीने पर, साथ ही सत्य पर उनकी सामान्य संगति पर भी इसका असर पड़ सकता है। ये बुरे लोग अक्सर सत्य के बारे में संगति के नाम पर दूसरों पर हमला करने के लिए कलीसियाई जीवन जीने का फायदा उठाते हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं उसमें शत्रुता होती है; वे सत्य का अनुसरण करने वालों और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने वालों पर हमला करने और उनकी निंदा करने के लिए भड़काऊ टिप्पणियाँ करते हैं। इसके क्या परिणाम होंगे? यह कलीसिया के जीवन को गड़बड़ करेगा और बाधा डालेगा, और लोगों के दिलों में बेचैनी पैदा करेगा और वे परमेश्वर के सामने शांत नहीं रह पाएँगे। विशेष रूप से दूसरों की निंदा करने, उन पर प्रहार करने और उन्हें चोट पहुँचाने के लिए ये बुरे लोग जो विचारहीन बातें कहते हैं, उससे प्रतिरोध भड़क सकता है। यह समस्याओं को हल करने वाली स्थितियाँ नहीं पैदा करता; बल्कि इसके विपरीत, कलीसिया में भय और चिंता को बढ़ाता है और लोगों के बीच संबंधों को खराब करता है, जिससे उनके बीच तनाव पैदा होता है और उनके बीच झगड़े होते हैं। इन लोगों का व्यवहार न केवल कलीसिया के जीवन को प्रभावित करता है, बल्कि कलीसिया में संघर्ष को भी जन्म देता है। यह पूरे कलीसिया के काम और सुसमाचार के प्रसार को भी प्रभावित कर सकता है। इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस तरह के व्यक्ति को चेतावनी देने की और उसे प्रतिबंधित कर सँभालने की भी जरूरत है। एक ओर, भाई-बहनों को उन बुरे लोगों पर कठोर प्रतिबंध लगाने चाहिए जो अक्सर दूसरों पर हमला करते हैं और उनकी निंदा करते हैं। दूसरी ओर, कलीसिया के अगुआओं को तुरंत उन लोगों को उजागर कर रोकना चाहिए जो मनमाने ढंग से दूसरों पर प्रहार करते हैं और उनकी निंदा करते हैं, और अगर वे नहीं सुधरते हैं, तो उन्हें कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। बुरे लोगों को सभाओं में कलीसियाई जीवन को बाधित करने से रोका जाना चाहिए, और साथ ही भ्रमित लोगों को कलीसिया के जीवन को प्रभावित करने वाले तरीके से बोलने से रोका जाना चाहिए। अगर कोई बुरा व्यक्ति बुरा काम करते हुए पाया जाता है, तो उसे उजागर किया जाना चाहिए। उसे मनमानी करने, और अपनी मर्जी से बुराई करने की बिल्कुल भी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। कलीसियाई जीवन सामान्य बनाए रखने और यह सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग एकत्रित हो सकें और परमेश्वर के वचनों को खा-पी सकें, और सामान्य रूप से सत्य के बारे में संगति कर सकें जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों को सामान्य रूप से पूरा करने का मौका मिल सके। केवल तभी कलीसिया में परमेश्वर की इच्छा क्रियान्वित हो सकती है, और केवल इसी तरह से उसके चुने हुए लोग सत्य को समझ सकते हैं, वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं, और परमेश्वर के आशीष पा सकते हैं। क्या तुम लोगों को कलीसिया में ऐसे बुरे लोगों का पता चला है? वे हमेशा अच्छे लोगों के प्रति ईर्ष्यापूर्ण नफरत रखते हैं और हमेशा उन्हें निशाना बनाते हैं। आज वे एक अच्छे व्यक्ति को नापसंद करते हैं, कल दूसरे को; वे किसी की भी आलोचना करने और उनमें ढेरों खामियाँ निकालने में सक्षम होते हैं और इसके अलावा, वे जो कहते हैं वह बहुत ही ठोस और उचित लगता है और अंततः वे व्यापक उपद्रव भड़का देते हैं जो समूह के लिए एक आफत बन जाता है। वे कलीसिया को इस हद तक बाधित कर देते हैं कि लोगों के दिलों में उथल-पुथल मच जाती है, कई लोग नकारात्मक और कमजोर हो जाते हैं, सभाओं से कोई लाभ या शिक्षा नहीं मिलती और कुछ लोगों की तो सभाओं में जाने की इच्छा भी नहीं रहती। क्या ऐसे बुरे लोग तालाब में गंदी मछली नहीं हैं? अगर वे उस स्तर तक नहीं पहुँचे हों जहाँ उन्हें बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिए तो उन्हें अलग-थलग या प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, सभाओं के दौरान उन्हें दूसरों को प्रभावित करने से रोकने के लिए एकांत स्थान पर बैठा दो। अगर वे बोलने और लोगों पर हमला करने के अवसर तलाशने पर अड़ जाएँ तो उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए—बेकार की बातें कहने से रोका जाना चाहिए। अगर उन्हें प्रतिबंधित करना असंभव हो और वे फट पड़ने या प्रतिरोध करने के कगार पर हों तो उन्हें तुरंत बाहर कर दिया जाना चाहिए। यानी तब, जब वे आगे प्रतिबंधित होने के लिए तैयार नहीं होते और कहते हैं, “तुम किस आधार पर मेरा भाषण प्रतिबंधित कर रहे हो? बाकी सभी को पाँच मिनट बोलने का मौका मिलता है और मुझे सिर्फ एक मिनट, ऐसा क्यों?”—जब वे लगातार ये सवाल पूछते हैं, जिसका मतलब है कि वे प्रतिरोध करेंगे। जब वे प्रतिरोध करने वाले होते हैं तो क्या वे विद्रोही नहीं हो रहे होते? क्या वे परेशानी पैदा करने, अशांति भड़काने की कोशिश नहीं कर रहे होते? क्या वे कलीसियाई जीवन को बाधित करने वाले नहीं होते? वे यह प्रकट करने ही वाले होते हैं कि वे असल में कौन हैं; उन्हें सँभालने का समय आ गया होता है—उन्हें जल्दी से दूर कर दिया जाना चाहिए। क्या यह उचित है? हाँ, यह उचित है। यह सुनिश्चित करना कि बहुसंख्यक लोग सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकें, वाकई आसान नहीं है क्योंकि तमाम तरह के बुरे लोग, बुरी आत्माएँ, गंदे राक्षस और “विशेष प्रतिभाएँ” चीजें खराब करने की ताक में रहती हैं। क्या हम उन्हें प्रतिबंधित नहीं करने का जोखिम उठा सकते हैं? कुछ “विशेष प्रतिभाएँ” मुँह खोलते ही दूसरों को नीचा दिखाना और उन पर हमला करना शुरू कर देती हैं—अगर तुम चश्मा पहनते हो या तुम्हारे बाल ज्यादा नहीं हैं तो वे तुम पर हमला कर देती हैं; अगर तुम सभाओं के दौरान अपनी अनुभवजन्य गवाही साझा करते हो या अगर तुम अपने कर्तव्य निभाने में सक्रिय और जिम्मेदार हो तो वे तुम पर हमला कर देती हैं और तुम्हारी आलोचना करती हैं; अगर तुम परीक्षणों के दौरान परमेश्वर में आस्था रखते हो, अगर तुम कमजोर होते हो या अगर तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत किए बिना अपनी आस्था का उपयोग करके पारिवारिक कठिनाइयों पर काबू पा लेते हो तो वे तुम पर हमला कर देती हैं। यहाँ हमला करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि दूसरे चाहे जो भी करें, वह इन लोगों को कभी पसंद नहीं आता; वे हमेशा उसे नापसंद करते हैं, वे हमेशा ऐसी गलतियाँ ढूँढ़ते हैं जो होती ही नहीं, वे हमेशा दूसरों पर आरोप लगाने की कोशिश करते हैं और दूसरे लोग जो कुछ भी करते हैं, वह उनकी नजर में कभी सही नहीं होता। यहाँ तक कि अगर तुम सत्य पर संगति और परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार समस्याएँ हल करो तो भी वे तुम्हारे हर कार्य में कमियाँ ढूँढ़ते हुए मीन-मेख निकालेंगे और तुम्हारी आलोचना करेंगे। वे जानबूझकर परेशानी खड़ी करते हैं और हर कोई उनके हमलों का शिकार होता है। जब भी कलीसिया में ऐसा कोई व्यक्ति दिखाई दे तो तुम्हें उसे सँभालना चाहिए; अगर ऐसे दो व्यक्ति दिखाई दें तो तुम्हें उन दोनों को सँभालना चाहिए। वह इसलिए कि वे कलीसियाई जीवन को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं, वे कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं और इसके परिणाम भयानक होते हैं।
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