अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (15) खंड तीन

3. मौखिक झगड़े

कलीसिया में एक और तरह का व्यक्ति भी होता है—ऐसा व्यक्ति खास तौर पर खुद को सही ठहराना पसंद करता है। उदाहरण के लिए, अगर उसने कुछ गलत किया या कहा तो उसे डर लगता है कि दूसरे लोग उसके बारे में गलत राय बना सकते हैं और इससे ज्यादातर लोगों की नजर में उसकी छवि खराब होगी, इसलिए वह खुद को सही ठहराता है और सभाओं के दौरान मामले को समझाता है। इसे समझाने का उसका उद्देश्य लोगों को अपने बारे में गलत राय बनाने से रोकना होता है, इसलिए वह इस पर बहुत प्रयास करता है और बहुत विचार करता है, पूरे दिन सोचता रहता है : “मैं इस मामले को कैसे स्पष्ट कर सकता हूँ? कैसे मैं इसे उस व्यक्ति को स्पष्ट रूप से समझा सकता हूँ? कैसे मैं उसके द्वारा मेरे बारे में बनाई गई गलत राय का खंडन कर सकता हूँ? आज की सभा इस मामले पर बात करने का एक अच्छा अवसर है।” सभा में वह कहता है, “पिछली बार मैंने जो किया उसका उद्देश्य किसी को चोट पहुँचाना या उजागर करना नहीं था; मेरा इरादा अच्छा था, मेरा इरादा लोगों की मदद करने का था। फिर भी कुछ लोग हमेशा मुझे गलत समझते हैं, हमेशा मुझे निशाना बनाना चाहते हैं और हमेशा सोचते हैं कि मैं लालची और महत्वाकांक्षी हूँ और मेरी मानवता खराब है। लेकिन असल में मैं वैसा बिल्कुल नहीं हूँ, है ना? मैंने वैसी बातें न तो की हैं और न ही कही हैं। जब मैंने किसी के बारे में उसकी गैर-मौजूदगी में बात की थी तो ऐसा नहीं है कि मैं जानबूझकर उसके लिए परेशानी खड़ी कर रहा था। जब लोगों ने बुरी चीजें की होती हैं तो वे दूसरों को उनके बारे में बात कैसे नहीं करने दे सकते?” वे खुद को सही ठहराते हुए और अपना बचाव करते हुए और साथ ही दूसरे पक्ष की कई समस्याएँ उजागर करते हुए बहुत कुछ कहते हैं और वह सब खुद को मामले से अलग करने के लिए, हर किसी को यह विश्वास दिलाने के लिए कहते हैं कि उन्होंने जो प्रकट किया था वह भ्रष्ट स्वभाव नहीं था और उनमें खराब मानवता या सत्य के प्रति नापसंदगी नहीं है और दुर्भावनापूर्ण इरादा तो बिल्कुल भी नहीं है, और हर किसी को यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि इसके उलट वे नेकनीयत हैं, उनके अच्छे इरादे अक्सर गलत समझ लिए जाते हैं और अक्सर उनकी निंदा दूसरों की गलतफहमियों के कारण की जाती है। प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों से उनके शब्द श्रोताओं को यह महसूस कराते हैं कि वे निर्दोष हैं और जो लोग यह सोचते हैं कि वे गलत और खराब हैं, वे बुरे और ऐसे लोग हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते। यह सुनने के बाद दूसरा पक्ष समझता है : “क्या तुम्हारे शब्दों का मतलब यह नहीं है कि तुममें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? क्या यह सिर्फ खुद को अच्छा दिखाने के लिए नहीं है? क्या यह सिर्फ खुद को नहीं जानना, सत्य नहीं स्वीकारना, तथ्यों को नहीं स्वीकारना नहीं है? अगर तुम ये चीजें नहीं स्वीकारते तो ठीक है, लेकिन मुझे क्यों निशाना बनाते हो? मेरा इरादा तुम्हें निशाना बनाने का नहीं था, न ही मैं तुम पर प्रहार करना चाहता था। तुम जो सोचना चाहते हो सोच सकते हो; इसका मुझसे क्या लेना-देना है?” और इसलिए वह खुद को रोक नहीं पाता और कहता है, “जब कुछ लोगों के सामने कोई छोटी-मोटी समस्या आती है, उन्हें थोड़ा अनुचित व्यवहार या दर्द सहना पड़ता है तो वे उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते और खुद को सही ठहराना और स्पष्ट करना चाहते हैं; वे हमेशा खुद को समस्या से अलग करने की कोशिश करते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाना चाहते हैं, अपनी छवि चमकाना चाहते हैं। वे वैसे व्यक्ति नहीं हैं तो वे खुद को अच्छा दिखाने, खुद को परिपूर्ण दिखाने की कोशिश क्यों करते हैं? इसके अलावा मैं सत्य पर संगति करता हूँ, मैं किसी को निशाना नहीं बनाता, न ही मैं किसी पर प्रहार करने या किसी से बदला लेने के बारे में सोचता हूँ। लोगों को जो सोचना है सोचने दो!” क्या ये दोनों लोग सत्य पर संगति कर रहे हैं? (नहीं।) तो वे क्या कर रहे हैं? एक पक्ष कहता है, “मैंने वे चीजें कलीसिया के कार्य के लिए की थीं। मुझे परवाह नहीं कि तुम क्या सोचते हो।” दूसरा पक्ष कहता है, “जब मनुष्य काम करता है, तो स्वर्ग देख रहा होता है। परमेश्वर लोगों के विचार जानता है। यह मत सोचो कि सिर्फ इसलिए कि तुम्हारे पास कुछ साख, योग्यता और वाक्पटुता है और तुम बुरी चीजें नहीं करते, परमेश्वर तुम्हारी जाँच नहीं करेगा; यह मत सोचो कि अगर तुम अपने विचार गहरे छिपाओगे तो परमेश्वर उन्हें नहीं देख सकता। सभी भाई-बहन उन्हें देख सकते हैं—परमेश्वर की तो बात ही छोड़ो! क्या तुम नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है?” वे दोनों किस बात पर बहस कर रहे हैं? एक पक्ष खुद को सही ठहराने, खुद को दोषमुक्त करने के लिए बहुत प्रयास कर रहा है, वह नहीं चाहता कि दूसरे उसके बारे में गलत छवि बनाएँ, जबकि दूसरा पक्ष इसे नहीं छोड़ने पर अड़ा हुआ है, वह उस व्यक्ति को खुद को अच्छा दिखाने नहीं देता और साथ ही फटकार के जरिये उसे उजागर करने और उसकी निंदा करने का लक्ष्य रखता है। ऊपरी तौर पर ये दोनों सीधे एक-दूसरे को कोस नहीं रहे या सीधे एक-दूसरे को उजागर नहीं कर रहे, लेकिन उनका भाषण उद्देश्यपूर्ण है : एक पक्ष यह कोशिश करता है कि वह दूसरे व्यक्ति को उसे गलत समझने से रोक दे और माँग करता है कि वह उसे निर्दोष घोषित कर दे, जबकि दूसरा पक्ष ऐसा करने से इनकार करता है और इसके बजाय उस पर दोषी होने का ठप्पा लगाकर उसकी निंदा करने पर अड़ा हुआ है और माँग करता है कि वह इसे स्वीकार ले। क्या यह बातचीत सत्य की सामान्य संगति है? (नहीं।) क्या यह बातचीत जमीर और विवेक पर आधारित है? (नहीं।) तो ऐसी बातचीत की प्रकृति क्या है? क्या ऐसी बातचीत आपसी हमलों में लिप्त होना है? (हाँ।) क्या खुद को सही ठहराने वाला इस बारे में संगति कर रहा है कि कैसे वे परमेश्वर से चीजें स्वीकार सकते हैं, खुद को जान सकते है और वे सिद्धांत पा सकते हैं जिनका अभ्यास किया जाना चाहिए? नहीं, वह दूसरों के सामने खुद को सही ठहरा रहा है। वह दूसरों के सामने अपने विचार, दृष्टिकोण, इरादे और उद्देश्य स्पष्ट करना चाहता है, खुद को दूसरे पक्ष के सामने समझाना चाहता है और दूसरे पक्ष से खुद को निर्दोष घोषित करवाना चाहता है। इसके अलावा, वह दूसरे पक्ष द्वारा किए गए अपने खुलासे और निंदा को नकारना चाहता है और दूसरा पक्ष जो कहता है वह चाहे तथ्यों या सत्य से मेल खाता हो या नहीं, अगर वह उसे नहीं मानता या स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होता तो दूसरा पक्ष जो कहता है उसे वह गलत मानता है और उसे सुधारना चाहता है। जबकि दूसरा पक्ष उसे निर्दोष घोषित नहीं करना चाहता, बल्कि उसे उजागर करता है, अपनी निंदा स्वीकारने के लिए बाध्य करता है। एक स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होता और दूसरा उससे स्वीकार करवाने पर जोर देता है, जिससे उनके बीच हमले होते हैं। ऐसी बातचीत की प्रकृति आपसी हमलों में लिप्त होने की होती है। तो ऐसे हमले की प्रकृति क्या होती है? क्या इस बातचीत के लक्षण आपसी इनकार, आपसी शिकायतें और आपसी निंदा है? (हाँ।) क्या ऐसी बातचीत कलीसियाई जीवन में भी होती है? (हाँ।) ऐसी तमाम बातचीत मौखिक झगड़े हैं।

ऐसे संवाद मौखिक झगड़े क्यों कहलाते हैं? (इसलिए कि उनमें शामिल लोग सही-गलत के बारे में बहस करते हैं, कोई खुद को जानने की कोशिश नहीं करता और किसी को कुछ हासिल नहीं होता; वे बस लगातार इस मामले पर बोलते रहते हैं और बातचीत निरर्थक रहती है।) वे बस बहुत बोलते हैं और इस बात पर बहस करने में अपनी बहुत सारी ऊर्जा नष्ट कर देते हैं कि सही या गलत कौन है, श्रेष्ठ या हीन कौन है। वे लगातार बहस करते रहते हैं जिसमें कभी कोई विजेता नहीं होता और फिर बहस जारी रखते हैं। आखिरकार उन्हें इससे क्या हासिल होता है? क्या यह सत्य की समझ है, परमेश्वर के इरादों की समझ है? क्या यह पश्चात्ताप करने और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारने की क्षमता है? क्या यह चीजें परमेश्वर से स्वीकारने और खुद को और ज्यादा जानने की क्षमता है? उन्हें इनमें से कुछ भी हासिल नहीं होता। ये निरर्थक विवाद और सही-गलत के बारे में ये संवाद मौखिक झगड़े हैं। इसे स्पष्ट रूप से कहें तो, मौखिक झगड़े पूरी तरह से निरर्थक बातचीत होते हैं, जिनमें कही गई हर बात बकवास होती है, एक भी शब्द दूसरों के लिए शिक्षाप्रद या लाभप्रद नहीं होता, बल्कि बोले गए तमाम शब्द चोट पहुँचाने वाले होते हैं और वे इंसानी इच्छा, उग्रता, लोगों के दिमाग और निश्चित रूप से इनसे भी बढ़कर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से उत्पन्न होते हैं। बोला गया हर शब्द व्यक्ति के अपने हितों, अपनी छवि और प्रतिष्ठा के लिए होता है, दूसरों की शिक्षा या सहायता के लिए नहीं, सत्य के किसी पहलू की अपनी समझ के लिए या परमेश्वर के इरादे समझने के लिए नहीं, और निश्चित रूप से इस बात पर चर्चा करने के लिए नहीं कि परमेश्वर के वचनों में व्यक्ति के कौन-से भ्रष्ट स्वभाव उजागर होते हैं, क्या उसके भ्रष्ट स्वभाव परमेश्वर के वचनों से मेल खाते हैं या क्या व्यक्ति की समझ सही है। ये निरर्थक आत्म-औचित्य और स्पष्टीकरण कितने भी सुखद, ईमानदार या धर्मनिष्ठ क्यों न लगें, ये सब मौखिक झगड़े और आपसी हमले और आलोचनाएँ हैं जो न तो दूसरों को और न ही खुद को लाभ पहुँचाते हैं। ये न सिर्फ दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं और व्यक्ति के सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंधों को प्रभावित करते हैं, बल्कि व्यक्ति के अपने जीवन विकास में भी बाधा डालते हैं। संक्षेप में, चाहे जो भी बहाने, इरादे, रवैये, लहजे इस्तेमाल किए गए हों या जो भी साधन और तकनीकें उपयोग में लाई गई हों, अगर इनमें मनमाने ढंग से दूसरों की आलोचना और निंदा करना शामिल है तो ये शब्द, तरीके इत्यादि सब दूसरों पर हमला करने की श्रेणी में आते हैं, ये सब मौखिक झगड़े हैं। क्या यह दायरा व्यापक है? (यह काफी व्यापक है।) तो जब तुम लोग लोगों के हमलों, आलोचनाओं और निंदा का सामना करते हो तो क्या तुम दूसरों पर हमला और उनकी निंदा करने के व्यवहार में शामिल होने से बच सकते हो? ऐसी स्थितियों से सामना होने पर तुम लोगों को कैसे अभ्यास करना चाहिए? (हमें प्रार्थना के जरिये शांत होने के लिए परमेश्वर के सामने आना चाहिए; तब हमारे दिलों में नफरत नहीं रहेगी।) अगर व्यक्ति समझदार और विवेकशील है, अगर वह परमेश्वर के सामने खुद को शांत कर सकता है और उससे प्रार्थना कर सकता है और सत्य स्वीकार सकता है तो वह अपने इरादे और इच्छाएँ नियंत्रित कर सकता है और फिर उस बिंदु पर पहुँच सकता है जहाँ वह न तो दूसरों की आलोचना करता है और न ही उन पर हमला करता है। अगर किसी का इरादा और उद्देश्य व्यक्तिगत भड़ास निकालना या बदला लेना नहीं है और निश्चित रूप से दूसरे पक्ष पर हमला करना नहीं है और इसके बजाय वह अनजाने में इसलिए दूसरे पक्ष को चोट पहुँचा देता है क्योंकि वह सत्य नहीं समझता या बहुत सतही रूप से समझता है और चूँकि वह कुछ हद तक मूर्ख और अज्ञानी या जिद्दी है तो दूसरों की मदद, समर्थन और संगति के जरिये सत्य समझने के बाद उसका भाषण ज्यादा सटीक हो जाएगा, साथ ही दूसरों के बारे में उसके मूल्यांकन और विचार भी सटीक हो जाएँगे और वह दूसरे लोगों द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों और उनके गलत क्रियाकलापों को सही ढंग से ले पाएगा, जिससे धीरे-धीरे दूसरों पर उसके हमले और आलोचनाएँ कम हो जाएँगी। लेकिन अगर कोई हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभावों के भीतर जीता है, ऐसे हर व्यक्ति से बदला लेने के अवसर तलाशता है जो उसे अप्रिय लगता है या जिसने पहले उसे नाराज किया या नुकसान पहुँचाया होता है, हमेशा ऐसे इरादे रखता है और सत्य की तलाश या परमेश्वर से प्रार्थना या उस पर भरोसा बिल्कुल नहीं करता तो वह कहीं भी कभी भी दूसरों पर हमला करने में सक्षम होता है और इसे हल करना मुश्किल है। अनजाने में दूसरों पर हमला करने का समाधान करना आसान है, लेकिन सोच-समझकर और जानबूझकर हमला करने का नहीं। अगर कोई व्यक्ति दूसरों की सहायता और समर्थन करने के लिए सत्य पर संगति करने के माध्यम से कभी-कभी और अनजाने में उन पर हमला और उनकी आलोचना करता है तो वे सत्य समझने के बाद अपना रास्ता बदलने में सक्षम होंगे। लेकिन अगर कोई लगातार बदला लेने और व्यक्तिगत भड़ास निकालने की कोशिश करता है, हमेशा दूसरों को सताना या नीचे गिराना चाहता है और ऐसे इरादों के साथ दूसरों पर हमला करता है जिन्हें सभी लोग महसूस कर सकते और देख सकते हैं तो ऐसा व्यवहार कलीसियाई जीवन के लिए विघ्न-बाधा बन जाता है; यह पूरी तरह से जानबूझकर उत्पन्न की गई विघ्न-बाधा है। इसलिए दूसरों पर हमला करने का यह स्वभाव बदलना मुश्किल है।

अब क्या तुम लोग समझते हो कि दूसरों पर हमला और उनकी निंदा करने की समस्या कैसे हल की जानी चाहिए? इसका सिर्फ एक ही तरीका है—व्यक्ति को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उस पर भरोसा करना चाहिए, फिर उसकी नफरत धीरे-धीरे गायब हो जाएगी। मुख्य रूप से दो प्रकार के लोग होते हैं जो दूसरों पर हमला कर सकते हैं। एक प्रकार उन लोगों का होता है जो बिना सोचे-समझे बोलते हैं, मुँहफट और उजड्ड होते हैं और जब भी लोगों को अप्रिय पाते हैं तभी कुछ आहत करने वाली बातें कह सकते हैं। लेकिन ज्यादातर समय वे जानबूझकर या सोच-समझकर लोगों पर हमला नहीं करते—वे बस खुद को रोक नहीं पाते, यह बस उनका स्वभाव होता है और वे अनजाने में ही दूसरे लोगों के खिलाफ हमले करते हैं। अगर उनकी काट-छाँट की जाए तो वे इसे स्वीकार सकते हैं और इसलिए वे बुरे लोग नहीं होते और दूर किए जाने के लक्ष्य नहीं होते। लेकिन बुरे लोग काट-छाँट किए जाने को नहीं स्वीकारते और अक्सर कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, वे अक्सर दूसरों पर हमला करते हैं, उनकी आलोचना करते हैं, उन पर प्रहार करते हैं और उनसे प्रतिशोध लेते हैं और सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। वे बुरे लोग हैं और वे ही हैं जिन पर कलीसिया को ध्यान देकर दूर करने की जरूरत है। उन पर ध्यान देने और उन्हें दूर किए जाने की जरूरत क्यों है? उनके प्रकृति सार से आँकें तो, दूसरों पर हमला करने का उनका व्यवहार अनजाने में नहीं बल्कि जानबूझकर किया गया होता है। वह इसलिए कि इन लोगों में दुर्भावनापूर्ण मानवता होती है—कोई भी उन्हें नाराज या उनकी आलोचना नहीं कर सकता और अगर कोई ऐसा कुछ कह देता है जिससे अनजाने में उन्हें थोड़ी ठेस पहुँचती है तो वे बदला लेने के अवसर खोजने के बारे में सोचते हैं—और इसलिए ऐसे लोग दूसरों पर हमले करने में सक्षम होते हैं। यह एक प्रकार का व्यक्ति है जिस पर कलीसिया को ध्यान देने और उसे दूर करने की आवश्यकता है। जो कोई भी आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होता है—चाहे वह किसी भी पक्ष का हो, चाहे वह सक्रिय रूप से हमला करता हो या निष्क्रिय रूप से—अगर वह ऐसे हमलों में भाग लेता है तो वह कुटिल इरादों वाला बुरा व्यक्ति है जो थोड़ी-सी भी नाराजगी होने पर दूसरों को सताएगा। ऐसे लोग कलीसियाई जीवन में गंभीर विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। वे कलीसिया के भीतर एक प्रकार के बुरे व्यक्ति होते हैं। कम गंभीर मामले संबंधित व्यक्ति को आत्म-चिंतन करने के लिए अलग-थलग करके निपटाया जा सकता है; ज्यादा गंभीर मामलों में संबंधित व्यक्ति को बहिष्कृत या निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। यह वह सिद्धांत है जिसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस मामले को सँभालने की बात आने पर समझने की आवश्यकता है।

इस संगति के जरिये क्या अब तुम लोग समझते हो कि दूसरों पर हमला करने का क्या मतलब है? क्या तुम इसे पहचान सकते हो? मेरे यह परिभाषित करने के बाद कि हमला क्या होता है, कुछ लोग सोचते हैं, “दूसरों पर हमला करने की इतनी व्यापक परिभाषा के होते हुए भविष्य में कौन बोलने की हिम्मत करेगा? हम इंसानों में से कोई भी सत्य नहीं समझता, इसलिए अपना मुँह खोलने भर से हम दूसरों पर हमला कर देंगे, जो भयानक है! भविष्य में हमें बस खाना खाना चाहिए, पानी पीना चाहिए और चुप रहना चाहिए, दूसरों पर हमला करने से बचने के लिए सुबह उठते ही अपना मुँह बंद कर लेना चाहिए और लापरवाही से नहीं बोलना चाहिए। यह बहुत अच्छा होगा और हमारे दिन बहुत ज्यादा शांतिपूर्ण होंगे।” क्या सोचने का यह तरीका सही है? अपना मुँह बंद रखने से समस्या हल नहीं होती; दूसरों पर हमला करने के मुद्दे का सार व्यक्ति के दिल की समस्या है, यह व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों के कारण होती है और यह व्यक्ति के मुँह की समस्या नहीं है। लोग अपने मुँह से जो कहते हैं वह उनके भ्रष्ट स्वभावों और उनके विचारों से नियंत्रित होता है। अगर किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो जाता है और वह वाकई कुछ सत्य समझ लेता है और उसका भाषण भी कुछ हद तक सैद्धांतिक और नपा-तुला हो जाता है तो दूसरों पर हमला करने की उसकी समस्या आंशिक रूप से हल हो जाएगी। बेशक कलीसियाई जीवन के भीतर लोगों को सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध रखने के लिए और आपसी हमलों या मौखिक झगड़ों में लिप्त नहीं होने के लिए जरूरी है कि वे अक्सर प्रार्थना में परमेश्वर के सामने आएँ, परमेश्वर का मार्गदर्शन माँगें और धार्मिकता के भूखे-प्यासे पवित्र हृदयों के साथ परमेश्वर के सामने शांत हों। इस तरह किसी के अनजाने में कुछ ऐसा कह देने पर जो तुम्हें ठेस पहुँचाता है, तुम्हारा दिल परमेश्वर के सामने शांत हो सकता है, तुम उसका बुरा नहीं मानोगे, तुम दूसरे व्यक्ति के साथ बहस नहीं करना चाहोगे, अपना बचाव करना और खुद को सही ठहराना तो दूर की बात है। इसके बजाय तुम इसे परमेश्वर से स्वीकारोगे, खुद को जानने का एक अच्छा अवसर देने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद दोगे और उसे इस बात के लिए भी धन्यवाद दोगे कि उसने तुम्हें दूसरों के शब्दों के जरिये यह जानने दिया कि तुममें अभी भी अमुक समस्या है। यह तुम्हारे लिए खुद को जानने का एक अच्छा अवसर है, यह परमेश्वर का अनुग्रह है और तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए। तुम्हें उस व्यक्ति के प्रति नाराजगी नहीं रखनी चाहिए जिसने तुम्हें ठेस पहुँचाई है, न ही उस व्यक्ति के प्रति घृणा और नफरत महसूस करनी चाहिए जिसने अनजाने में तुम्हारी गलतियों की चर्चा कर दी या तुम्हारी कमियाँ उजागर कर दीं, जानबूझकर या अनजाने में उसे अनदेखा नहीं करना चाहिए या उससे बदला लेने के लिए तमाम तरह के तरीके नहीं अपनाने चाहिए। इनमें से कोई भी नजरिया परमेश्वर के लिए सुखद नहीं है। अक्सर परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने के लिए आओ और जब तुम्हारा दिल शांत हो जाएगा तो दूसरे लोगों द्वारा अनजाने में तुम्हें नुकसान पहुँचाए जाने पर तुम उसे सही तरीके से ले पाओगे, तुम उनके प्रति सहनशीलता और धैर्य दिखा पाओगे। अगर कोई तुम्हें जानबूझकर नुकसान पहुँचाए तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम इसे कैसे लोगे—उग्र होकर उससे बहस करोगे या परमेश्वर के सामने खुद को शांत करोगे और सत्य खोजोगे? बेशक, मेरे कहे बिना ही तुम सभी लोग स्पष्ट रूप से जानते हो कि प्रवेश करने का कौन-सा तरीका सही विकल्प है।

कलीसियाई जीवन में इंसानी ताकत, इंसानी आत्म-नियंत्रण और इंसानी धैर्य पर भरोसा करके आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों से बचना बहुत मुश्किल है। चाहे तुम्हारी मानवता कितनी भी अच्छी हो, तुम कितने भी सज्जन और दयालु हो या कितने भी महामना हो, तुम्हारा कुछ ऐसे लोगों या चीजों से पाला पड़ना अपरिहार्य है जो तुम्हारी गरिमा, ईमानदारी आदि को ठेस पहुँचाते हैं। ऐसी समस्याएँ सँभालने और हल करने के लिए तुम्हारे मन में एक सिद्धांत होना चाहिए। अगर तुम इन समस्याओं को उग्रता से लेते हो तो यह बहुत आसान है : वे तुम्हें कोसते हैं और तुम उन्हें कोसते हो, वे तुम पर हमला करते हैं और तुम उन पर हमला करते हो, दाँत के बदले दाँत, आँख के बदले आँख, ईंट का जवाब पत्थर से देते हो और अपनी गरिमा, ईमानदारी और इज्जत बचा लेते हो। इसे हासिल करना बहुत आसान है। लेकिन तुम्हें अपने दिल में तोलना चाहिए कि क्या यह तरीका उचित है, क्या यह तुम्हारे और सामने वाले, दोनों के लिए फायदेमंद है और क्या यह परमेश्वर को प्रसन्न करता है। अक्सर जब लोगों ने इस समस्या का सार नहीं समझा होता तो उनके तात्कालिक विचार ये होते हैं, “वह मुझ पर दया नहीं करता तो मैं क्यों उस पर दया करूँ? वह मुझसे प्रेम नहीं करता तो मैं क्यों उसके साथ प्रेम से पेश आऊँ? उसके पास मेरे लिए धैर्य नहीं है और वह मेरी मदद नहीं करता तो मैं उसके प्रति धैर्य क्यों रखूँ या उसकी मदद क्यों करूँ? वह मेरे प्रति निष्ठुर है इसलिए मैं उसका बुरा करूँगा। मैं दाँत के बदले दाँत, आँख के बदले आँख क्यों नहीं ले सकता?” ये पहले विचार हैं जो लोगों के दिमाग में आते हैं। लेकिन जब तुम सच में इस तरह से कार्यकलाप करते हो तो भीतर से शांत महसूस करते हो या बेचैन और पीड़ित? जब तुम वाकई इसे चुनते हो तो तुम क्या प्राप्त करते हो? तुम क्या पाते हो? कई लोगों ने अनुभव किया है कि जब वे वाकई इस तरह से कार्यकलाप करते हैं तो भीतर से बेचैनी महसूस करते हैं। बेशक ज्यादातर लोगों के लिए यह अपराध-बोध का मामला नहीं होता और यह इस भावना के कारण होने वाली बेचैनी तो बिल्कुल नहीं होती कि वे परमेश्वर के ऋणी हैं; लोगों के पास वैसा आध्यात्मिक कद नहीं होता। उनमें यह बेचैनी किस वजह से होती है? यह लोगों की नफरत, अपमान किए जाने पर उनकी गरिमा और ईमानदारी को चुनौती और साथ ही उन्हें महसूस होने वाली चोट और मौखिक रूप से उकसाए जाने के बाद उनके दिलों में उठने वाले क्रोध, नफरत, अवज्ञा और आक्रोश से उपजती है, ये सभी चीजें लोगों को असहज महसूस कराती हैं। इस बेचैनी के क्या परिणाम होते हैं? इसे महसूस करने के फौरन बाद तुम इस बात पर विचार करना शुरू कर दोगे कि उस व्यक्ति से निपटने के लिए भाषा का उपयोग कैसे करना है, कैसे कानूनी और उचित साधनों का उपयोग कर उसे नीचे गिराना और यह दिखाना है कि तुम्हारे पास गरिमा और ईमानदारी है और तुम्हें धौंस देना आसान नहीं है। जब तुम बेचैनी महसूस करते हो, जब तुम नफरत उत्पन्न करते हो तो तुम उस व्यक्ति के प्रति धैर्य और सहनशीलता दिखाने या उसके साथ सही तरह से पेश आने या अन्य सकारात्मक चीजों के बारे में नहीं सोचते, बल्कि ईर्ष्या, विकर्षण, जुगुप्सा, दुश्मनी, नफरत और निंदा जैसी तमाम नकारात्मक चीजों के बारे में सोचते हो, इस हद तक कि तुम उसे अपने दिल में अनगिनत बार कोसते हो और चाहे जो भी समय हो—यहाँ तक कि उस समय भी जब तुम खा या सो रहे होते हो—तुम सोचते हो कि उस पर कैसे पलटवार किया जाए और कल्पना करते हो कि अगर उसने तुम पर हमला या तुम्हारी निंदा इत्यादि की तो तुम उससे कैसे निपटोगे और ऐसी स्थितियाँ कैसे सँभालोगे। तुम पूरा दिन यह सोचने में बिताते हो कि सामने वाले व्यक्ति को कैसे नीचे गिराया जाए, अपनी नाराजगी और नफरत कैसे निकाली जाए और सामने वाले व्यक्ति को तुम्हारे आगे झुकने, तुमसे डरने और दोबारा तुम्हें उकसाने की हिम्मत नहीं करने के लिए कैसे मजबूर किया जाए। तुम अक्सर यह भी सोचते हो कि सामने वाले व्यक्ति को सबक कैसे सिखाया जाए, ताकि उसे पता चले कि तुम कितने शक्तिशाली हो। जब ऐसे विचार उठते हैं और जब तुम्हारे मन में बार-बार कल्पित परिदृश्य आते हैं तो वे जो विघ्न और दुष्परिणाम तुम्हारे लिए उत्पन्न करते हैं वे मापे नहीं जा सकते। जब तुम मौखिक झगड़ों और आपसी हमलों में लिप्त होने की स्थिति में पड़ जाते हो तो परिणाम क्या होते हैं? क्या तब परमेश्वर के सामने शांत रहना आसान होता है? क्या यह तुम्हारे जीवन प्रवेश में देरी नहीं करता? (हाँ, करता है।) मामले सँभालने के लिए गलत तरीका चुनने का व्यक्ति पर यह प्रभाव पड़ता है। अगर तुम सही मार्ग चुनते हो तो जब कोई व्यक्ति इस तरह से बोलता है जो तुम्हारी छवि या गौरव को नुकसान पहुँचाता है या तुम्हारी ईमानदारी और गरिमा का अपमान करता है तो तुम सहिष्णु होना चुन सकते हो। तुम किसी भी तरह की भाषा का उपयोग करके उसके साथ बहस में लिप्त नहीं होगे या जानबूझकर खुद को सही ठहराते हुए और दूसरे पक्ष पर हमला करते हुए अपने भीतर नफरत को जन्म नहीं दोगे। सहिष्णु होने का सार और महत्व क्या है? तुम कहते हो, “उसकी कही कुछ चीजें तथ्यों से मेल नहीं खातीं, लेकिन सत्य समझने और उद्धार प्राप्त करने से पहले हर कोई ऐसा ही होता है और मैं भी कभी ऐसा ही था। अब जबकि मैं सत्य समझता हूँ तो मैं सही-गलत के बारे में बहस करने या लड़ाई के फलसफे में लिप्त होने के गैर-विश्वासियों के मार्ग पर नहीं चलता—मैं सहिष्णुता और दूसरों के साथ प्रेम से पेश आना चुनता हूँ। उसकी कही कुछ चीजें तथ्यों से मेल नहीं खातीं, लेकिन मैं उन पर ध्यान नहीं देता। मैं वही स्वीकारता हूँ जो मैं पहचान और समझ सकता हूँ। मैं इसे परमेश्वर से स्वीकारता हूँ और प्रार्थना में परमेश्वर के सामने लाता हूँ, उससे ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित करने के लिए कहता हूँ जो मेरे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, मुझे इन भ्रष्ट स्वभावों का सार जानने दें और इन समस्याओं पर ध्यान देना शुरू करने, धीरे-धीरे इन पर काबू पाने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का अवसर दें। जहाँ तक इस बात का सवाल है कि कौन मुझे अपने शब्दों से ठेस पहुँचाता है और वह जो कहता है वह सही है या नहीं या उसके इरादे क्या हैं तो एक ओर मैं इसे समझने का अभ्यास करता हूँ और दूसरी ओर मैं इसे बर्दाश्त करता हूँ।” अगर यह व्यक्ति ऐसा है जो सत्य स्वीकारता है तो तुम उसके साथ शांति से बैठकर संगति कर सकते हो। अगर वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, अगर वह बुरा व्यक्ति है तो उस पर ध्यान मत दो। तब तक प्रतीक्षा करो जब तक वह पर्याप्त सीमा तक प्रदर्शन न कर ले और सभी भाई-बहन और तुम भी उसे अच्छी तरह से न पहचान लो और जब तक अगुआ और कार्यकर्ता उसे बहिष्कृत करने और सँभालने वाले न हों—तभी परमेश्वर के लिए उस पर ध्यान देने का समय आएगा और निश्चित रूप से तुम भी प्रसन्न महसूस करोगे। लेकिन तुम्हें जो मार्ग चुनना चाहिए वह बुरे लोगों के साथ मौखिक झगड़ों में लिप्त होना या उनसे बहस करना और खुद को सही ठहराने की कोशिश करना बिल्कुल नहीं है। इसके बजाय यह जब भी कुछ हो तो सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना है। चाहे यह उन लोगों से बर्ताव करना हो जिन्होंने तुम्हें ठेस पहुँचाई है या उन लोगों से जिन्होंने तुम्हें ठेस नहीं पहुँचाई है और जो तुम्हारे लिए फायदेमंद हैं, अभ्यास के सिद्धांत समान होने चाहिए। जब तुम यह मार्ग चुनते हो तो क्या तुम्हारे दिल में कोई नफरत होगी? थोड़ी असुविधा हो सकती है। अपनी गरिमा को ठेस पहुँचने पर कौन असहज महसूस नहीं करेगा? अगर कोई असहज महसूस नहीं करने का दावा करता है तो यह झूठ होगा, धोखा होगा, लेकिन तुम सत्य का अभ्यास करने की खातिर यह कठिनाई झेल और सह सकते हो। जब तुम यह मार्ग चुनते हो तो दोबारा परमेश्वर के सामने आने पर तुम्हारा जमीर साफ होगा। तुम्हारा जमीर साफ क्यों होगा? क्योंकि तुम स्पष्ट रूप से जान जाओगे कि तुम्हारे शब्द उग्रता से उत्पन्न नहीं होते, तुम अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं की खातिर दूसरों के साथ तब तक विवादों में लिप्त नहीं होते जब तक शर्मिंदा न कर दिए जाओ और सत्य समझने की नींव के आधार पर तुम इसके बजाय परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो और अपने मार्ग पर चलते हो। तुम अपने दिल में पूरी तरह से स्पष्ट होगे कि तुमने जो मार्ग चुना है वह परमेश्वर द्वारा निर्देशित है, परमेश्वर द्वारा अपेक्षित है और इसलिए तुम अपने भीतर विशेष रूप से शांति महसूस करोगे। जब तुम्हारे पास ऐसी शांति होगी तो क्या अपने और दूसरों के बीच की नफरत और व्यक्तिगत शिकायतें तुम्हें परेशान करेंगी? (नहीं।) जब तुम वास्तव में इन्हें छोड़ देते हो और स्वेच्छा से सकारात्मक मार्ग चुनते हो तो तुम्हारा दिल चुप और शांत हो जाएगा। तुम अब क्रोध, नफरत और उस नफरत से उत्पन्न प्रतिशोधी मानसिकता और षड्यंत्रों के साथ-साथ उग्रता की अन्य चीजों से परेशान नहीं होगे। तुमने जो मार्ग चुना है, वह तुम्हें शांति और शांत हृदय प्रदान करेगा और उग्रता की वे चीजें अब तुम्हें परेशान नहीं कर पाएँगी। जब वे तुम्हें परेशान नहीं कर सकतीं तो क्या तुम उन लोगों पर हमला करने के तरीके सोचोगे जो तुम्हें अपने शब्दों से ठेस पहुँचाते हैं या उनके साथ मौखिक झगड़ों में लिप्त होओगे? तुम ऐसा नहीं करोगे। बेशक, तुम्हारे छोटे आध्यात्मिक कद या कुछ विशेष संदर्भों के कारण कभी-कभी तुम्हारी उग्रता, आवेग और नाराजगी जाग्रत होगी। लेकिन सत्य का अभ्यास करने का तुम्हारा दृढ़ निश्चय, संकल्प और इच्छाशक्ति इन चीजों को तुम्हारे दिल को उद्विग्न करने से रोकेगी। यानी ये चीजें तुम्हें बाधित नहीं कर सकतीं। तुममें अभी भी उग्रता की लहरें उठ सकती है, जैसे कि यह सोचना, “वह लगातार मेरे लिए चीजें मुश्किल बना रहा है। मुझे किसी दिन उसे खरी-खोटी सुनानी चाहिए और उससे पूछना चाहिए कि वह हमेशा मुझे निशाना क्यों बनाता है और हमेशा मेरे लिए मुश्किलें पैदा क्यों करता है। मुझे उससे पूछना चाहिए कि वह हमेशा मेरा तिरस्कार और अपमान क्यों करता है।” कभी-कभी तुम्हारे मन में ऐसे विचार आ सकते हैं। लेकिन कुछ और सोचने के बाद तुम्हें एहसास होगा कि वे गलत हैं और इस तरह से कार्यकलाप करना परमेश्वर को नाराज करेगा। जब ऐसे विचार उठेंगे तो तुम इस अवस्था को उलटने के लिए जल्दी से परमेश्वर के सामने लौट जाओगे, ताकि ये गलत विचार तुम पर हावी न हों। नतीजतन तुम्हारे भीतर कुछ सकारात्मक चीजें उभरने लगेंगी—जैसे कि आत्म-ज्ञान और साथ ही कुछ प्रबुद्धता और रोशनी जो परमेश्वर तुम्हें देता है, जो तुम्हें लोगों को पहचानने और मामलों की असलियत समझने में सक्षम बनाएँगी—और तुम्हारे जाने बिना ही ये सकारात्मक चीजें तुम्हें और ज्यादा सत्य वास्तविकता को समझने और उसमें प्रवेश करने में मदद करेंगी। इस बिंदु पर तुम्हारा प्रतिरोध यानी नफरत, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और उग्रता से बचाव करने वाले “रोग-प्रतिकारक” उत्तरोत्तर मजबूत होते जाएँगे और तुम्हारा आध्यात्मिक कद उत्तरोत्तर बढ़ता जाएगा। उग्रता की वे चीजें अब तुम्हें नियंत्रित नहीं कर पाएँगी। हालाँकि कभी-कभी तुम्हारे मन में कुछ गलत विचार, धारणाएँ और आवेग आ सकते हैं, लेकिन ये चीजें जल्दी ही गायब हो जाएँगी, तुम्हारा प्रतिरोध और आध्यात्मिक कद इन्हें खत्म कर देगा और जड़ से मिटा देगा। इस समय सकारात्मक चीजें, सत्य की वास्तविकता और परमेश्वर के वचन तुम्हारे भीतर हावी होंगे। जब ये सकारात्मक चीजें हावी होंगी तो तुम बाहरी लोगों, घटनाओं और चीजों से प्रभावित नहीं होओगे। तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, तुम्हारी अवस्था उत्तरोत्तर सामान्य होती जाएगी और तुम अब भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार नहीं जिओगे और दुष्चक्र की दिशा में आगे नहीं बढ़ोगे और इस तरह तुम्हारा आध्यात्मिक कद उत्तरोत्तर बढ़ता रहेगा।

जब तुम कलीसिया में या लोगों के समूह के बीच होते हो तो अगर तुम सहनशील और धैर्यवान बनना चुन सको और अपनी गरिमा और ईमानदारी को नुकसान पहुँचाने वाले व्यक्तिगत हमलों से सामना होने पर अभ्यास के सही मार्ग का चुनाव कर सको तो यह लाभदायक होता है। हो सकता है तुम्हें यह लाभ न दिखे, लेकिन ऐसी घटना का अनुभव करने पर तुम्हें अनजाने ही पता चल जाएगा कि लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ और उसके द्वारा उन्हें प्रदान किए गए मार्ग एक उज्ज्वल रास्ता और सच्चा और जीवंत मार्ग हैं, वे लोगों को सत्य प्राप्त करने और लाभ पहुँचाने में सक्षम बनाते हैं और वे सबसे सार्थक मार्ग हैं। जब तुम लोगों के समूह के बीच होते हो, खासकर जब तुम कलीसियाई जीवन में होते हो तो तुम विभिन्न प्रलोभनों और आकर्षणों पर विजय प्राप्त कर सकते हो। जब कोई दुर्भावनापूर्ण तरीके से तुम पर हमला करके तुम्हें चोट पहुँचाता है या जानबूझकर तुमसे बदला लेना चाहता है और तुम पर अपनी नफरत निकालना चाहता है तो तुम्हारा इसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार लेना और अभ्यास करने में सक्षम होना महत्वपूर्ण है। चूँकि परमेश्वर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से घृणा करता है, इसलिए वह लोगों से कहता है कि वे अपने सामने आने वाली चीजों को उग्रता से न लें, बल्कि परमेश्वर के सामने शांत रहें और सत्य और परमेश्वर के इरादे खोजें और फिर समझें कि लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ वास्तव में क्या हैं। इंसानी धैर्य सीमित है, लेकिन जब व्यक्ति सत्य समझ लेता है तो उसके धैर्य के सिद्धांत होंगे और यह उस व्यक्ति द्वारा सत्य का अभ्यास करने के लिए एक प्रेरक शक्ति और सहायता बन सकता है। लेकिन अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, सही-गलत पर बहस करना पसंद करता है और दूसरों पर हमला करता है और उसमें अपनी उग्रता के भीतर जीने की प्रवृत्ति है तो जब उस पर हमला किया जाता है तो वह मौखिक झगड़ों और आपसी हमलों में लिप्त होने में प्रवृत्त होगा। इससे सभी शामिल लोगों को नुकसान होता है, किसी को कोई शिक्षा या मदद नहीं मिलती। जब भी कोई आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होता है तो बाद में वह शक्तिहीन हो जाता है, बेहद थक जाता है और दोनों पक्ष घायल हो जाते हैं; वे सत्य प्राप्त करने में बिल्कुल भी सक्षम नहीं होते और अंत में उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता। बचती है तो सिर्फ नफरत और अवसर मिलने पर पलटवार करने का इरादा। आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों का अंततः लोगों पर यही प्रतिकूल परिणाम होता है।

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