अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (15) खंड एक
मद बारह : उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को बदलो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें (भाग तीन)
विभिन्न लोग, घटनाएँ और चीजें जो कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त करती हैं
पिछली सभा में हमने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बारहवीं जिम्मेदारी पर चर्चा की थी : “उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की तुरंत और सटीक रूप से पहचान करो, जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं; उन्हें रोको और प्रतिबंधित करो, और चीजों को बदलो; इसके अतिरिक्त, सत्य के बारे में संगति करो, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसी बातों के माध्यम से समझ विकसित करें और उनसे सीखें।” इस जिम्मेदारी के बारे में हमने मुख्य रूप से कलीसियाई जीवन से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर संगति की थी, जिसे हमने ग्यारह मुद्दों में विभाजित किया था। आगे बढ़ो और उन्हें पढ़ो। (पहला, सत्य पर संगति करते समय अक्सर विषय से भटक जाना; दूसरा, लोगों को गुमराह करने और उनसे सम्मान प्राप्त करने के लिए शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना; तीसरा, घरेलू मामलों के बारे में बकबक करना, व्यक्तिगत संबंध बनाना और व्यक्तिगत मामले सँभालना; चौथा, गुट बनाना; पाँचवाँ, रुतबे के लिए होड़ करना; छठा, अनुचित संबंधों में लिप्त होना; सातवाँ, आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना; आठवाँ, धारणाएँ फैलाना; नौवाँ, नकारात्मकता फैलाना; दसवाँ, निराधार अफवाहें फैलाना; और ग्यारहवाँ, चुनावों में हेराफेरी और गड़बड़ करना।) पिछली बार हमने संगति की थी पाँचवें मुद्दे पर जो कि रुतबे के लिए होड़ करना है और छठे मुद्दे पर जो अनुचित संबंधों में लिप्त होना है। ये दो तरह की समस्याएँ भी पिछले चार मुद्दों की ही तरह कलीसियाई जीवन और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती हैं। इन दो तरह की समस्याओं की प्रकृति, इनसे कलीसियाई जीवन को होने वाले नुकसान और लोगों के जीवन प्रवेश पर इनके प्रभाव को देखते हुए ये दोनों ऐसे लोग, घटनाएँ और चीजें हो सकती हैं जो परमेश्वर के कार्य और कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में विघ्न-बाधा उत्पन्न करती हैं।
VII. आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना
आज हम सातवें मुद्दे पर संगति करेंगे—आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना। ऐसी समस्याएँ कलीसियाई जीवन में आम हैं जो हर किसी को स्पष्ट हैं। जब लोग परमेश्वर का वचन खाने-पीने, अपने व्यक्तिगत अनुभवों पर संगति करने या कुछ वास्तविक समस्याओं पर चर्चा करने के लिए इकट्ठे होते हैं तो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण या सही-गलत पर बहस अक्सर लोगों के बीच तर्क-वितर्क और विवाद पैदा कर देती है। अगर लोग एक-दूसरे से असहमत होते हैं और भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखते हैं लेकिन इससे कलीसियाई जीवन बाधित नहीं होता तो क्या इसे आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होना माना जाएगा? यह इस श्रेणी में नहीं आता; यह सामान्य संगति से संबंधित है। इसलिए ऊपरी तौर पर कई समस्याएँ सातवें मुद्दे से संबंधित लग सकती हैं लेकिन असल में सिर्फ वे समस्याएँ ही इस मुद्दे से संबंधित होती हैं जो परिस्थितियों और प्रकृति की दृष्टि से ज्यादा गंभीर होती हैं और इस कारण विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती हैं। आओ अब इस बात पर संगति करते हैं कि किन समस्याओं की प्रकृति उन्हें इस मुद्दे के अंतर्गत शामिल होने योग्य बनाती है।
पहले, आपसी हमलों में लिप्त होने की अभिव्यक्तियों को देखें तो यह निश्चित रूप से सत्य पर सामान्य संगति करने या सत्य खोजने या सत्य की संगति करने के आधार पर अलग समझ या प्रकाश होने या सत्य सिद्धांतों की खोज करने, संगति करने, उन पर चर्चा करने और एक निश्चित सत्य के संबंध में अभ्यास का मार्ग तलाशने से ताल्लुक नहीं रखता, इसके बजाय यह सही-गलत पर बहस और विवाद करने से ताल्लुक रखता है। यह मूलभूत रूप से इसी तरह से अभिव्यक्त होता है। क्या कलीसियाई जीवन में कभी-कभी इस तरह की समस्या उत्पन्न होती है? (हाँ।) सिर्फ बाहरी स्वरूपों के आधार पर यह स्पष्ट है कि आपसी हमलों में लिप्त होने जैसा क्रियाकलाप निश्चित रूप से सत्य खोजने या पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में सत्य पर संगति करने या सामंजस्यपूर्वक सहयोग करने से ताल्लुक नहीं रखता, बल्कि उसकी जड़ें उग्रता में होती हैं और उसमें इस्तेमाल की जाने वाली भाषा में आलोचना और निंदा, यहाँ तक कि अपशब्द भी शामिल होते हैं—ऐसी अभिव्यक्ति वास्तव में शैतान के भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा होती है। जब लोग एक-दूसरे पर हमला करते हैं तो चाहे उनकी भाषा तीखी हो या व्यवहारकुशल, उसमें उग्रता, द्वेष और घृणा होती है, उसमें प्रेम, सहनशीलता और धैर्य नहीं होता, और स्वाभाविक रूप से उसमें सामंजस्यपूर्ण सहयोग तो और भी नहीं होता है। लोग एक-दूसरे पर हमला करने के लिए जो तरीके अपनाते हैं, वे अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए, जब दो लोग किसी मामले पर चर्चा करते हैं तो ‘क’ नामक व्यक्ति ‘ख’ नामक व्यक्ति से कहता है, “कुछ लोगों में बुरी मानवता और अहंकारी स्वभाव होता है; वे जब भी जरा-सा भी कुछ करते हैं तो दिखावा करते हैं और किसी की नहीं सुनते। जानवरों की तरह बर्बर और मानवता से रहित लोगों के बारे में परमेश्वर के वचन जो कहते हैं, वे बिल्कुल वैसे ही होते हैं।” यह सुनने के बाद ‘ख’ सोचता है, “क्या तुमने अभी जो कहा, वह मुझे निशाना बनाते हुए नहीं कहा? तुमने मुझे उजागर करने के लिए परमेश्वर के वचनों का भी उपयोग किया! चूँकि तुमने मेरे बारे में बोला है, इसलिए मैं भी नहीं रुकूँगा। तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहे हो, इसलिए मैं तुम्हारा बुरा करूँगा!” और फिर, ‘ख’ कहता है, “कुछ लोग बाहर से बहुत धर्मपरायण लग सकते हैं लेकिन असल में वे किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा दुष्ट होते हैं। यहाँ तक कि वे विपरीत लिंग के व्यक्ति के साथ अनुचित संबंधों में लिप्त भी रहते हैं, ठीक उन तवायफों और वेश्याओं की तरह जिनके बारे में परमेश्वर के वचनों में कहा गया है—परमेश्वर ऐसे लोगों से पूरी तरह से घृणा करता है, वह उनसे विमुख महसूस करता है। धर्मपरायण दिखने का क्या फायदा है? यह सब ढोंग है। परमेश्वर ढोंगियों को सर्वाधिक नापसंद करता है; सभी ढोंगी फरीसी हैं!” यह सुनने के बाद ‘क’ सोचता है, “यह मुझ पर जवाबी हमला है! ठीक है, तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहे हो, इसलिए मैं भी संयम नहीं रखूँगा और इसके लिए तुम मुझे दोष मत देना!” वे दोनों एक-दूसरे से लड़ना शुरू कर देते हैं। क्या यह परमेश्वर के वचनों पर संगति करना है? (नहीं।) वे क्या कर रहे हैं? (एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं और लड़ रहे हैं।) वे दूसरे की किसी कमी का उपयोग करके अपने हमलों के लिए एक “आधार” भी ढूँढ़ लेते हैं और आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल करते हैं—यह आपसी हमलों में लिप्त होना है, और साथ ही यह मौखिक झगड़ों में लिप्त होना है। क्या ऐसी संगति कभी-कभी कलीसियाई जीवन में देखी जाती है? क्या यह सामान्य संगति है? क्या यह सामान्य मानवता के भीतर होने वाली संगति है? (नहीं।) तो क्या ऐसी संगति कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती है? यह किस तरह की विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करती है? (सामान्य कलीसियाई जीवन बाधित हो जाता है, लोग सही-गलत के बारे में विवादों में पड़ जाते हैं और नतीजतन परमेश्वर के वचनों पर शांति से विचार और संगति करने में असमर्थ रहते हैं।) जब लोग ऐसी लड़ाई और सही-गलत के बारे में बहस में लिप्त होते हैं और कलीसियाई जीवन के दौरान व्यक्तिगत हमले करते हैं तो क्या पवित्र आत्मा तब भी काम करता है? पवित्र आत्मा काम नहीं करता; ऐसी संगति लोगों के दिलों को अस्त-व्यस्त कर देती है। बाइबल में कुछ वचन हैं, क्या वे तुम लोगों को याद हैं? (“फिर मैं तुम से कहता हूँ, यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिए एक मन होकर उसे माँगें, तो वह मेरे पिता की ओर से जो स्वर्ग में है, उनके लिए हो जाएगी। क्योंकि जहाँ दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठा होते हैं, वहाँ मैं उनके बीच में होता हूँ” (मत्ती 18:19-20)।) इन वचनों का क्या अर्थ है? जब लोग परमेश्वर के सामने इकट्ठे होते हैं तो उन्हें परमेश्वर के सामने एक दिल और एक मन का होना चाहिए और संगठित होना चाहिए; परमेश्वर उन्हें तभी आशीष देगा और पवित्र आत्मा तभी कार्य करेगा, जब लोग एक दिल और एक मन के होंगे। लेकिन क्या बहस करने वाले दो लोग, जिनका मैंने अभी उल्लेख किया था, एक दिल और एक मन के थे? (नहीं।) वे किसमें लिप्त थे? आपसी हमलों में, लड़ने में, यहाँ तक कि आलोचना और निंदा में भी। हालाँकि उन्होंने ऊपरी तौर पर गंदे अपशब्दों का उपयोग नहीं किया या एक-दूसरे का नाम नहीं लिया, लेकिन उनके शब्दों के पीछे की प्रेरणा सत्य पर संगति करना या सत्य खोजना नहीं थी और वे सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के भीतर नहीं बोल रहे थे। उनके द्वारा बोला गया हर शब्द गैर-जिम्मेदाराना था और उसमें आक्रामकता और द्वेष था; कोई भी शब्द तथ्यों के अनुरूप नहीं था, न ही उसका कोई आधार था। कोई भी शब्द परमेश्वर के वचनों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार किसी मामले का आकलन करने के बारे में नहीं था, यह उस व्यक्ति के विरुद्ध अपनी प्राथमिकताओं और इच्छा के आधार पर व्यक्तिगत हमले, आलोचना और निंदा करने से ताल्लुक रखता था जिससे वे घृणा करते थे और जिसे नीची निगाह से देखते थे। इनमें से कोई भी एक दिल और एक मन के होने की अभिव्यक्ति नहीं है; बल्कि ये वे शब्द और अभिव्यक्तियाँ हैं जो उग्रता और शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से आती हैं और परमेश्वर इनसे प्रसन्न नहीं होता; इसलिए वहाँ पवित्र आत्मा का कोई कार्य नहीं होता। यह आपसी हमलों में लिप्त होने की अभिव्यक्ति है।
कलीसियाई जीवन में अक्सर लोगों के बीच छोटी-छोटी बातों या परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों और हितों को लेकर विवाद और टकराव पैदा हो जाते हैं। विवाद अक्सर असंगत व्यक्तित्वों, महत्वाकांक्षाओं और प्राथमिकताओं के कारण भी होते हैं। अन्य कारणों के साथ-साथ सामाजिक हैसियत और शिक्षा-स्तरों में अंतर या उनकी मानवता और प्रकृति के लिहाज से अंतर, यहाँ तक कि बोलने और मामले सँभालने के तरीकों के लिहाज से अंतर के कारण भी व्यक्तियों के बीच विभिन्न प्रकार की असहमतियाँ और मनमुटाव उभरते हैं। अगर लोग ये समस्याएँ परमेश्वर के वचन का उपयोग करके हल करने की कोशिश नहीं करते, अगर आपस में समझ, सहिष्णुता, समर्थन और सहायता नहीं है और अगर लोग इसके बजाय अपने दिलों में पूर्वाग्रह और घृणा रखते हैं और भ्रष्ट स्वभावों के भीतर एक-दूसरे के साथ उग्रता से पेश आते हैं तो इससे आपसी हमले और आलोचनाएँ होने की संभावना होती है। कुछ लोगों में थोड़ा जमीर और विवेक होता है और जब विवाद होते हैं तो वे धैर्य रख सकते हैं, विवेक से कार्यकलाप कर सकते हैं और दूसरे पक्ष की प्रेम से मदद कर सकते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं कर सकते, उनमें सबसे बुनियादी सहिष्णुता, धैर्य, मानवता और विवेक तक की कमी होती है। वे अक्सर तुच्छ मामलों या किसी एक शब्द या चेहरे के भाव को लेकर दूसरों के प्रति विभिन्न पूर्वाग्रह, संदेह और गलतफहमियाँ विकसित कर लेते हैं, जिसके कारण उनके दिलों में उनके प्रति विभिन्न प्रकार के विचार, संदेह, आलोचनाएँ और निंदाएँ घर कर लेती हैं। कलीसिया के भीतर अक्सर ये घटनाएँ होती हैं और वे अक्सर व्यक्तियों के बीच सामान्य संबंधों, भाई-बहनों के सामंजस्यपूर्ण मेलजोल, यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों की उनकी संगति को भी प्रभावित करती हैं। जब लोग एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं तो विवाद उत्पन्न होना आम बात है, लेकिन अगर कलीसियाई जीवन में अक्सर ऐसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तो वे सामान्य कलीसियाई जीवन को प्रभावित, बाधित, यहाँ तक कि नष्ट भी कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति किसी सभा में बहस करने लगता है तो वह सभा बाधित हो जाएगी, कलीसियाई जीवन सफल नहीं हो पाएगा और सभा में भाग लेने वाले लोगों को कुछ हासिल नहीं होगा और वे अनिवार्य रूप से व्यर्थ ही सभा में आएँगे और अपना समय बर्बाद करेंगे। नतीजतन ये समस्याएँ पहले ही कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था को प्रभावित कर चुकी होंगी।
क. आपसी हमलों और मौखिक झगड़ों में लिप्त होने की विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्तियाँ
1. एक-दूसरे की कमियों का खुलासा
कुछ लोग सभाओं के दौरान हमेशा घरेलू मामलों और महत्वहीन विषयों पर बकबक करना पसंद करते हैं और जब भी वे भाई-बहनों से मिलते हैं तो वे उनसे तुच्छ घरेलू मामलों के बारे में बात करते हैं और उनके साथ गपशप करने लगते हैं जिससे वे भाई-बहन असहाय महसूस करते हैं। कोई उन्हें टोकने के लिए खड़ा हो सकता है लेकिन तब क्या होता है? अगर उन्हें लगातार टोका जाता है तो वे रुष्ट हो जाते हैं और उनके रुष्ट होने का मतलब है मुसीबत। वे सोचते हैं : “तुम हमेशा मुझे टोक देते हो और मुझे बोलने नहीं देते। तो ठीक है। जब तुम बोलोगे तब मैं तुम्हें टोकूँगा! जब तुम परमेश्वर के वचनों पर संगति करोगे तो मैं परमेश्वर के वचनों का एक दूसरा अंश बोलकर हस्तक्षेप करूँगा। जब तुम खुद को जानने के बारे में संगति करोगे तो मैं परमेश्वर के उन वचनों के बारे में संगति करूँगा जो लोगों का न्याय करते हैं। जब तुम अपने अहंकारी स्वभाव को समझने के बारे में संगति करोगे तो मैं लोगों के परिणाम और गंतव्य निर्धारित करने के बारे में परमेश्वर के वचनों पर संगति करूँगा। तुम जो भी कहोगे, मैं उससे कुछ अलग कहूँगा!” इतना ही नहीं, अगर दूसरे लोग भी उन्हें टोकने में शामिल हो जाएँ तो ये लोग खड़े होकर उन पर हमला कर देते हैं। साथ ही, चूँकि उनके दिल में नाराजगी और नफरत घर किए रहती है, वे सभाओं के दौरान अक्सर उस व्यक्ति की कमियाँ उजागर कर देते हैं जिसने उन्हें टोका था और इस बारे में बताते हैं कि कैसे वह व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करने से पहले दूसरों को व्यापार में धोखा देता था, दूसरों के साथ अपने व्यवहार में वह कितना बेईमान था, इत्यादि—जब भी वह व्यक्ति बोलता है, वे इन चीजों के बारे में बात करते हैं। शुरू में तो वह व्यक्ति धैर्य रख सकता है, लेकिन समय के साथ वह सोचने लगता है : “मैं हमेशा तुम्हारी मदद करता हूँ, मैं हमेशा तुम्हारे प्रति सहिष्णुता और धैर्य दिखाता हूँ, लेकिन तुम मेरे प्रति कोई सहिष्णुता नहीं दिखाते। अगर तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते हो तो मुझे संयम नहीं रखने के लिए दोष मत देना! हम इतने लंबे समय से एक ही गाँव में रहे हैं—हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं। तुमने मुझ पर हमला किया है इसलिए मैं तुम पर हमला करूँगा; तुमने मेरी कमियाँ उजागर की हैं लेकिन तुममें खुद बहुत सारी कमियाँ हैं।” और फिर, वह कहता है, “तुमने बचपन में भी चीजें चुराई थीं; तुमने जो छोटी-मोटी चोरियाँ कीं, वे और भी शर्मनाक हैं! कम से कम, मैंने जो किया वह व्यवसाय था, वह सब जीविका चलाने के लिए था। इस दुनिया में कौन कुछ गलतियाँ नहीं करता? अपने व्यवहार के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? तुम्हारा व्यवहार एक चोर, एक डाकू का व्यवहार है!” क्या यह आपसी हमलों में लिप्त होना नहीं है? इन हमलों का तरीका क्या है? यह एक-दूसरे की कमियों का खुलासा करना है, है ना? (हाँ।) वे अपने मन में यह तक सोचते हैं : “तुम मेरी कमियाँ उजागर करते रहते हो, सबको उनके बारे में और मेरे अपमानजनक अतीत के बारे में बताते रहते हो, ताकि दूसरे लोग अब मेरा सम्मान न करें—तो ठीक है, मैं भी संयम नहीं रखूँगा। मुझे सब पता है कि तुम्हारे कितने साथी रहे हैं, तुम विपरीत लिंग के कितने लोगों के साथ रहे हो; मेरे पास यह सब गोला-बारूद भरा रखा है। अगर तुमने दोबारा मेरी कमियाँ उजागर कीं और मुझे बहुत ज्यादा परेशान किया तो मैं तुम्हारे सारे कुकर्म जग-जाहिर कर दूँगा!” एक-दूसरे की कमियों का खुलासा करना उन लोगों के बीच एक आम समस्या होती है जो एक-दूसरे से अच्छी तरह से परिचित होते हैं और एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं। शायद किसी असहमति के कारण या अपने बीच लड़ाई या द्वेष के कारण दो लोग सभाओं के दौरान एक-दूसरे पर हमला करने के लिए हथियारों के रूप में इस्तेमाल करने के लिए पुरानी और तुच्छ बातों को घसीट लाते हैं। ये दो लोग एक-दूसरे की कमियों का खुलासा करते हैं और एक-दूसरे पर हमला और एक-दूसरे की निंदा करते हैं, जिससे सभी का परमेश्वर के वचन खाने-पीने का समय चला जाता है और सामान्य कलीसियाई जीवन प्रभावित होता है। क्या ऐसी सभाएँ सफल हो सकती हैं? क्या उनके आस-पास के लोगों का अभी भी सभाओं में आने का मन करता है? कुछ भाई-बहन सोचने लगते हैं : “ये दोनों वाकई परेशान करने वाले लोग हैं, इन पुरानी बातों को सामने लाने का भला क्या मतलब है! ये दोनों अब परमेश्वर में विश्वास करते हैं, इन्हें ये चीजें छोड़ देनी चाहिए। किसमें समस्याएँ नहीं होतीं? क्या ये दोनों अब परमेश्वर के सामने नहीं आ गए हैं? ये सभी समस्याएँ परमेश्वर के वचन से हल की जा सकती हैं। कमियाँ उजागर करना सत्य का अभ्यास करना नहीं है, न ही यह एक व्यक्ति की खूबियों से सीखकर दूसरे की कमजोरियों की भरपाई करना है; ये आपसी हमले हैं, यह शैतानी व्यवहार है।” उनके आपसी हमले सामान्य कलीसियाई जीवन में विघ्न पैदा करते और उसे नष्ट कर देते हैं। उन्हें कोई नहीं रोक सकता और चाहे कोई भी उनके साथ सत्य पर संगति करे, वे नहीं सुनते। कुछ लोग उन्हें सलाह देते हैं : “एक-दूसरे की कमियों का खुलासा करना बंद करो। दरअसल, यह पूरी बात इतनी बड़ी बात नहीं है; क्या यह सिर्फ एक छोटी-सी मौखिक असहमति नहीं है? तुम दोनों के बीच कोई गहरी नफरत नहीं है। अगर तुम दोनों दिल खोलकर बात कर सको, खुद को उजागर कर सको, अपने पूर्वाग्रह, नाराजगी और नफरत त्यागकर परमेश्वर के सामने प्रार्थना कर सको और सत्य खोज सको तो ये तमाम समस्याएँ सुलझ सकती हैं।” लेकिन उन दोनों में अभी भी गतिरोध कायम रहता है। उनमें से एक कहता है, “अगर वह पहले मुझसे माफी माँगे और अगर वह पहले दिल खोलकर बात करे और खुद को उजागर करे तो मैं भी ऐसा ही करूँगा। लेकिन अगर पहले की तरह वह इस बात को नहीं छोड़ेगा तो मैं उसके खिलाफ बोले बिना नहीं रहूँगा! तुम मुझसे सत्य का अभ्यास करने के लिए कहते हो—वह इसका अभ्यास क्यों नहीं करता? तुम मुझसे चीजें छोड़ने के लिए कहते हो—वह पहले ऐसा क्यों नहीं करता?” क्या यह अनुचित ढंग से कार्यकलाप करना नहीं है? (हाँ, है।) वे अनुचित ढंग से कार्यकलाप करना शुरू कर देते हैं। किसी की भी सलाह का उन पर कोई असर नहीं होता और वे सत्य पर संगति नहीं सुनते। जैसे ही वे एक-दूसरे को देखते हैं, वैसे ही वे बहस करते हैं, एक-दूसरे की कमियों का खुलासा करते हैं और एक-दूसरे पर हमला करते हैं। वे बस मारपीट नहीं करते, और जो कुछ भी वे एक-दूसरे के साथ करते हैं उसमें नफरत होती है और हर शब्द जो वे बोलते हैं उसमें हमले और अपशब्द के संकेत होते हैं। अगर कलीसियाई जीवन में ऐसे दो लोग हों जो एक-दूसरे को देखते ही हमले और मौखिक झगड़ों में लिप्त हो जाते हों तो क्या यह कलीसियाई जीवन फलदायी हो सकता है? क्या लोग इससे कुछ सकारात्मक हासिल कर सकते हैं? (नहीं।) जब ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो ज्यादातर लोग चिंतित हो जाते हैं और कहते हैं, “हर बार जब हम सभा में आते हैं तो वे दोनों हमेशा लड़ते रहते हैं और किसी की सलाह नहीं सुनते। हमें क्या करना चाहिए?” जब तक वे वहाँ रहते हैं, तब तक सभाओं में शांति नहीं होती और हर कोई उनसे बाधित होता है। ऐसे मामलों में कलीसिया के अगुआओं को समस्या हल करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए; उन्हें ऐसे व्यक्तियों को कलीसियाई जीवन बाधित करते रहने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। अगर बार-बार की सलाह, संगति और सकारात्मक मार्गदर्शन के बाद भी कोई परिणाम हासिल नहीं होता और दोनों पक्ष अपने पूर्वाग्रहों पर अड़े रहते हैं, एक-दूसरे को माफ करने से इनकार करते हैं और एक-दूसरे पर हमला और कलीसियाई जीवन को बाधित करते रहते हैं तो मामले से सिद्धांतों के अनुसार निपटना आवश्यक है। उन्हें बताया जाना चाहिए : “तुम दोनों लंबे समय से इसी स्थिति में हो और इसने कलीसियाई जीवन और सभी भाई-बहनों के लिए गंभीर विघ्न पैदा कर दिए हैं। ज्यादातर लोग तुम लोगों के इस व्यवहार से नाराज हैं, लेकिन वे इसके बारे में कुछ भी कहने से डरते हैं। तुम लोगों के वर्तमान रवैये और अभिव्यक्तियों को देखते हुए कलीसिया को सिद्धांतों के अनुसार कलीसियाई जीवन में तुम्हारी भागीदारी निलंबित कर देनी चाहिए और तुम लोगों को आत्म-चिंतन के लिए अलग-थलग कर देना चाहिए। जब तुम लोग सामंजस्यपूर्वक मिलजुलकर रहने, सामान्य संगति में शामिल होने और सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध रखने में सक्षम होगे, तब तुम कलीसियाई जीवन में लौट सकते हो।” वे इससे सहमत हों या नहीं, कलीसिया को यह निर्णय ले लेना चाहिए; यह सिद्धांतों के आधार पर मामले को सँभालना है। ये मामले इसी तरह सँभाले जाने चाहिए। एक ओर यह दोनों व्यक्तियों के लिए लाभदायक है; यह उन्हें आत्म-चिंतन कर खुद को जानने के लिए प्रेरित कर सकता है। दूसरी ओर यह मुख्य रूप से ज्यादा भाई-बहनों को बुरे लोगों द्वारा बाधित किए जाने से बचाता है। कुछ लोग कहते हैं, “उन्होंने कोई बुरा काम नहीं किया है; अपने सार के लिहाज से वे बुरे लोग भी नहीं हैं। बस उनकी मानवता में छोटी-मोटी खामियाँ हैं, वे बस जिद्दी हैं, अविवेकी होने और ईर्ष्या और विवादों की ओर प्रवृत्त हैं। सिर्फ इस वजह से उन्हें अलग-थलग क्यों किया जाए?” उनकी मानवता चाहे जैसी भी हो, अगर वे कलीसियाई जीवन में विघ्न पैदा करते हैं तो कलीसिया के अगुआओं को इस समस्या पर ध्यान देकर उसे हल करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। अगर ये दो व्यक्ति बुरे हैं तो जैसे ही इसका पता चले, इसकी प्रतिक्रिया उन्हें अलग-थलग करने जैसी सरल नहीं होनी चाहिए; उन्हें तुरंत सीधे बहिष्कृत करने का निर्णय लिया जाना चाहिए। अगर उनके कार्यकलाप दूसरों को नुकसान पहुँचाए बिना या अन्य ऐसे दुष्कर्म किए बिना जो परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हों, एक-दूसरे पर हमला करने और सही-गलत के बारे में बहस करने तक ही सीमित हैं, और वे बुरे नहीं हैं तो उन्हें बहिष्कृत करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय उनका कलीसियाई जीवन निलंबित कर देना चाहिए और उन्हें आत्म-चिंतन के लिए अलग-थलग कर देना चाहिए। यह तरीका सबसे उपयुक्त है। मामले को इस तरह से सँभालने का उद्देश्य कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था सुनिश्चित करना और यह गारंटी देना है कि कलीसिया का कार्य सामान्य रूप से आगे बढ़ सकता है।
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