मनुष्य और परमेश्वर के बीच संबंध सुधारना अत्यंत आवश्यक है (भाग एक)

परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करने में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उसके वचनों को किस तरह लें। परमेश्वर चाहे जिस भी अंदाज में बोले, किसी भी विषय पर या किसी भी हद तक बोले, तथ्य यह है कि वह वही सब कहता है जिसकी मनुष्य को सबसे ज्यादा जरूरत होती है, जो उसे समझना चाहिए और जो उसे मालूम होना चाहिए। और फिर, परमेश्वर जो वचन कहता है वे पूरी तरह मनुष्य के मस्तिष्क और विचारों की पहुंच में होते हैं, अर्थात मनुष्य की मूल क्षमता के अनुरूप। वे मनुष्य द्वारा बूझे और समझे जाने योग्य होते हैं। परमेश्वर जो भी कहता या करता है, चाहे वह पवित्र आत्मा का किसी व्यक्ति के भीतर कार्य हो, या परमेश्वर द्वारा विभिन्न लोगों, घटनाओं, चीजों, या परिवेशों की व्यवस्था हो, यह मनुष्य की मूल क्षमता या उसके विचारों की दुनिया से बाहर नहीं होता; उल्टा यह प्रासंगिक, सही और वास्तविक होता है। अगर कोई मनुष्य इसे समझ नहीं पाता तो यह उनकी ही कोई समस्या होती है। इसका अर्थ है कि वे लोग बेहद कम काबिलियत वाले लोग हैं। जो भी हो, परमेश्वर के बोलने का अंदाज और लहजा, उसके व्याख्यान का आवेग, और मनुष्य के लिए उपलब्ध कराए गए उसके सभी वचन ऐसी चीजें हैं जो परमेश्वर के विश्वासियों को समझ में आनी ही चाहिए, और ये सभी मनुष्य के लिए सुगमता से समझने योग्य हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर मनुष्य से बात कर रहा होता है, और जो वह बोलता है वह मनुष्य की भाषा होती है, और इन वचनों को अभिव्यक्त करते हुए वह इन्हें समझाने के लिए बोलचाल की भाषा, भाषाई विविधता और ऐसी शब्दावली का प्रयोग करता है जो मनुष्य के लिए आसानी से उपलब्ध और अधिक-से-अधिक सुगम हो, ताकि भिन्न-भिन्न विचारों और परिप्रेक्ष्य वाले लोग, शिक्षा के अलग-अलग स्तरों और अलग-अलग शैक्षणिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले लोग इन्हें आसानी से सुन-पढ़ और समझ सकें। परमेश्वर द्वारा बोले गए सभी वचनों में कुछ-न-कुछ ऐसा होता है जो तुम्हें समझना चाहिए : उसके वचनों में कुछ भी गूढ या अमूर्त नहीं होता, कोई भी ऐसा शब्द नहीं जिसे मनुष्य समझ-बूझ न सके। अगर व्यक्ति के पास एक निश्चित काबिलियत है और वह परमेश्वर के वचनों का अनुभव और अभ्यास करने पर ध्यान देता है, तो ऐसे लोग सत्य की समझ हासिल कर सकते हैं और परमेश्वर के इरादों को समझ सकते हैं। परमेश्वर जिन सत्यों को अभिव्यक्त करता है वे उसी से आते हैं, पर इनकी अभिव्यक्ति के लिए वह भाषा के जिन स्वरूपों और आम लोगों की जिस शब्दावली का प्रयोग करता है वे सभी मानवीय होते हैं। वे मानवीय भाषा की सीमाओं से बाहर नहीं जाते हैं। परमेश्वर अपने वचन बोलने के लिए चाहे भाषा के किसी भी स्वरूप का प्रयोग करे, या वह जिस भी अंदाज और लहजे में बोले, चाहे उसकी शब्दावली पश्चिम की हो या पूरब की, वह चाहे प्राचीन या आधुनिक मानवीय भाषा का प्रयोग करे, क्या उसके व्याख्यान की कोई ऐसी भाषा है जो मनुष्य की समझ से परे या गैर-मानवीय है? (नहीं।) आज तक किसी को भी ऐसी कोई भाषा नहीं दिखी। कुछ लोग कहते हैं, “यह सही नहीं है; मुझे ऐसे दो शब्द मिले हैं : ‘धार्मिकता’ और ‘प्रताप।’” “धार्मिकता” और “प्रताप” दो ऐसे वर्णन या वक्तव्य हैं जो दिव्यता के सार के एक पहलू के बारे में हैं। पर क्या ये शब्द वर्तमान में मानवजाति में प्रचलित नहीं हैं? (हां, वे हैं।) इन दो शब्दों के बारे में तुम्हारी समझ चाहे जितनी दूर तक जाती हो, पर तुम कम-से-कम शब्दकोश में इनकी सबसे मूल और आधारभूत परिभाषाएं तो पा ही सकते हो, और इन सबसे मूल परिभाषाओं की परमेश्वर के सार, उसके स्वभाव और जो वह स्वयं है से तुलना करते हुए, और इस संयोजन में, ये शब्द मनुष्यों के लिए ज्यादा ठोस हो जाते हैं और वे अमूर्त नहीं रह जाते। इसके साथ ही अगर परमेश्वर के वचनों में इन शब्दों की लंबी तथ्यात्मक अभिव्यक्तियों, टिप्पणियों और व्याख्याओं को भी ध्यान में रखा जाए, तो सभी लोगों के लिए ये शब्द और भी ठोस बन जाते हैं और वे एक अधिक जीवंत छवि का, और अधिक प्रामाणिक रूप लेकर परमेश्वर के सार, उसके पास जो है और जो वह स्वयं है के ज्यादा-से-ज्यादा नजदीक प्रतीत होते हैं, जिसके बारे में लोगों को पता होना चाहिए। तो, ऐसी शब्दावली और वक्तव्य जिनका संबंध परमेश्वर के स्वभाव से है, तुम लोगों के लिए अमूर्त और रहस्यमयी नहीं लगते। तो फिर तुम्हीं बताओ : क्या उन सत्यों में कुछ भी अमूर्त है जो मनुष्य के सामान्य अभ्यास, उसके द्वारा चुने गए रास्ते और सत्य सिद्धांतों से जुड़ा हुआ है? (नहीं।) फिर से कहता हूँ, वहाँ कुछ भी अमूर्त नहीं है।

मैंने जब से अपने वचनों को अभिव्यक्त करना और प्रवचन देना शुरू किया है, मैंने उपदेश देने, सत्य पर संगति करने और सत्य सिद्धांतों की चर्चा करने के लिए मानवीय भाषा के प्रयोग के सर्वोत्तम प्रयास किए हैं—वह भाषा जिसे लोग समझ सकें, जिसके साथ वे जुड़ सकें, जिसका अर्थ जान सकें—ताकि तुम लोग सत्य को बेहतर ढंग से समझ सको। क्या यह अधिक मानवीय नजरिया नहीं है? तुम लोगों को इससे क्या लाभ पहुंचता है? इससे तुम लोग सत्य को समझने में और अधिक सक्षम हो पाते हो। और इस तरह बात करने के पीछे मेरा क्या उद्देश्य है? तुम लोगों को अधिक समृद्ध, अधिक विविधतापूर्ण भाषा को सुनने में सक्षम बनाना, और फिर इस विविधतापूर्ण भाषा का प्रयोग करके लोगों के लिए सत्य को समझना सरल बनाना, ताकि उन्हें यह थकाऊ न लगे। बाइबल, पुराने और नए नियम की विविधतापूर्ण भाषा एक जैसी है, सभी एक खास तरह के मुहावरे में आती हैं, इसलिए लोग एक ही नजर में बता सकते हैं कि ये खास वचन बाइबल से जुड़े हुए हैं, ये बाइबल के वचन हैं। इन वचनों में कुछ बहुत विशिष्ट या प्रतीकात्मक है। मैं यह प्रयास करता हूं कि आज की भाषा की शैली और शब्दावली में प्रतीकात्मक चीजें न हों, ताकि लोग यह देख सकें कि यह भाषा बाइबल के मुहावरे से आगे की भाषा है। हालांकि लोग परमेश्वर के व्याख्यान के विषय और लहजे से यह देख सकते हैं कि इसका स्रोत और बाइबल में परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों का स्रोत एक ही प्रतीत होता है, पर इसकी शब्दावली में वे यह भी देख सकते हैं कि यह बाइबल से, पुराने और नए नियम से बहुत आगे निकल चुकी है, और एक हजार वर्ष से सभी आध्यात्मिक लोगों द्वारा प्रयोग की गई आध्यात्मिक शब्दावली से भी बहुत ऊपर उठ चुकी है। तो अब परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों में किस तरह के शब्द होते हैं? इनमें से कुछ आम लोगों द्वारा अक्सर प्रयोग की जाने वाली सकारात्मक और प्रोत्साहन भरी भाषा के शब्द होते हैं, जबकि परमेश्वर के कुछ अन्य शब्द और भाषा मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को उजागर और अभिव्यक्त करने के लिए अधिक उपयुक्त है। साहित्य, संगीत, नृत्य, अनुवाद इत्यादि से जुड़ी कुछ विशिष्ट चीजें भी हैं। इसका उद्देश्य यह है कि किसी के कर्तव्य या पेशेवर हुनर का चाहे कोई भी क्षेत्र हो, वह यह महसूस कर सके कि जिन सत्यों को मैं अभिव्यक्त करता हूं, वे वास्तविक जीवन से और लोगों द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों से घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं, और सत्य का कोई भी पहलू लोगों के वास्तविक जीवन और उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों से कटा हुआ नहीं है। तो क्या ये सत्य तुम लोगों के लिए बेहद मददगार नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) अगर मैं इन चीजों की परवाह न करता, और अनुवाद, फिल्म, कला, लेखन और संगीत से जरा-सा भी जुड़े विषयों को सिरे से टालता रहता, ऐसे शब्दों का कभी भी इस्तेमाल नहीं करता, और उनसे इरादतन कतराता रहता, तो क्या मैं अपना कार्य अच्छी तरह से कर पाता? अगर ऐसा होता, तो भी मैं शायद इसका कुछ हिस्सा कर पाता, पर फिर तुम लोगों के साथ संवाद करना दूभर हो जाता। इसलिए, मैं ऐसी भाषा के अध्ययन और उसमें महारत के लिए भरपूर मेहनत करता हूं। एक बात तो यह है कि इससे तुम लोगों को अपने पेशेवर काम की परिकल्पना और सिद्धांतों को जानने में मदद मिल सकती है, दूसरी यह कि जब तुम लोग इन क्षेत्रों में अपने कर्तव्य निभाते हो, तो तुम्हें ऐसा महसूस करने में मदद मिलती है कि तुम्हारे कर्तव्य से जुड़ा तुम्हारा पेशेवर काम सत्य से कटा हुआ नहीं है। तुम्हारी विशेषज्ञता चाहे कुछ भी हो, तुम्हारी चाहे कोई भी खूबी हो, तुम चाहे जिस किसी भी पेशे का अध्ययन करते हो, तुम इन शब्दों को पढ़ और समझ सकते हो, और वे तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य में प्रवेश करने के लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम बनाते हैं। क्या यह अच्छी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) तो, ऐसा अच्छा नतीजा कैसे हासिल किया जा सकता है? इसके लिए परमेश्वर, अपनी मानवता में, कुछ चीजें होने की अपेक्षा करता है। और ये चीजें क्या हैं? देहधारी परमेश्वर की सामान्य मानवता को बहुत-सी विशेषज्ञताओं के बारे में थोड़ा-बहुत समझने की जरूरत होती है, हालांकि मुझे मेहनत करने और महारत हासिल करने के लिए इन चीजों के अध्ययन की जरूरत नहीं होती। यह इसलिए है ताकि सत्य पर संगति करते हुए और परमेश्वर की गवाही देते हुए मैं सभी क्षेत्रों के ज्ञान का प्रयोग कर सकूं। इससे किसी भी क्षेत्र से जुड़े लोग परमेश्वर के घर की गवाहियों को समझ और सराह पाते हैं, और इसके सभी फिल्मांकित कार्यों को भी, जो सुसमाचार के प्रचार के लिए अत्यंत लाभदायक हैं। अगर मैं सत्य पर संगति करने के लिए सिर्फ परमेश्वर के घर की भाषा का प्रयोग करूं, और समाज के विविध, विशेषज्ञताओं वाले क्षेत्रों की भाषा और ज्ञान का प्रयोग बिल्कुल न करूं, तो नतीजे बहुत खराब होंगे। तो यह कार्य अच्छी तरह से करने के लिए मुझे क्या हासिल करने की जरूरत है? मेरे पास कुछ हद तक पेशेवर ज्ञान होना चाहिए, और यही कारण है कि मैं कभी-कभी गीत सुनता हूं, समाचार देखता हूं, पत्रिकाएं पढ़ता हूं, और कुछ अवसरों पर अखबार पढ़ता हूं। कई बार, मैं गैर-विश्वासियों के मामलों पर भी ध्यान देता हूं। गैर-विश्वासियों के मामलों से कई अलग-अलग चीजें जुड़ी होती हैं, और उनकी कुछ भाषा परमेश्वर के घर में मौजूद नहीं है—लेकिन अगर इस भाषा का प्रवचनों की भाषा के रूप में प्रयोग किया जाए तो कई बार यह बड़ी प्रभावी साबित होगी, और तुम लोगों को यह एहसास करने में मदद मिलेगी कि परमेश्वर में विश्वास का रास्ता बहुत चौड़ा है, और यह थकाऊ या नीरस नहीं है। यह तुम लोगों के लिए बहुत मददगार होगा, और तुम इससे कुछ उपयोगी बातें सीख सकोगे। हालांकि तुम में से ज़्यादातर अपनी सीख में सफल नहीं हो पाओगे, पर पर्याप्त काबिलियत वाले लोग कुछ उपयोगी चीजें सीखने में सक्षम होंगे, जो उनके कर्तव्य निर्वहन में मददगार साबित होंगी। जब मुझे कोई काम नहीं होता, तो मैं बिना सोचे ही समाचार देखकर और संगीत सुनकर कुछ बातें सीख लेता हूं। इसके लिए किसी विशेष प्रयास की जरूरत नहीं होती; मैं बस अपना खाली समय चीजों को सीखने, चीजों को देखने और चीजों को सुनने में गुजारता हूं, और बिना किसी इरादे के कुछ चीजों पर महारत हासिल कर लेता हूं। क्या इन चीजों पर मेरी महारत मेरे कार्य पर असर डालेगी? बिल्कुल भी नहीं—बल्कि यह जरूरी है कि ऐसा ही हो। यह परमेश्वर के घर के कार्य और सुसमाचार के प्रचार के लिए लाभदायक है। तुम लोगों के साथ इन मामलों पर संगति करने के पीछे मेरा क्या आशय है? यह कि परमेश्वर जो वचन बोलता है वे तुम लोगों के लिए सुगम होने चाहिए, वे सभी समझने में आने लायक और व्यवहार में लाने के लिए सरल होने चाहिए। कम-से-कम, वे ऐसी चीजें हैं जो मनुष्यता के पास होनी चाहिए। जब मैं कहता हूँ कि ये चीजें मानवता के पास होनी चाहिए, तो इससे मेरा मतलब है कि जब परमेश्वर अपना कार्य करता है और अपने वचन व्यक्त करता है तो वे चीजें पहले ही उसकी मानवता द्वारा संसाधित हो चुकी होती हैं। “संसाधित” का क्या अर्थ है? उदाहरण के लिए, यह भूसा हटाए हुए गेहूं की तरह है, जिसे गहाई और पीसने के बाद आटा बनाया जाता है, और फिर इससे ब्रेड, केक और नूडल बनाए जाते हैं। संसाधित करने के बाद ये चीजें तुम लोगों को दी जाती हैं, और आखिर में तुम लोग जिसे ग्रहण करते हो वह अंतिम उत्पाद, एक तैयार भोजन होता है। तुम लोगों की इसमें क्या भूमिका होती है? यह कि परमेश्वर आज जो वचन बोल रहा है, उन्हें जल्दी-से-जल्दी समूचे का समूचा खाना और पीना। उन्हें और ज्यादा खाओ-पियो, उन्हें और ज्यादा स्वीकार करो, और उन्हें थोड़ा-थोड़ा करके अनुभव, हजम और आत्मसात करो। तुम लोग उन्हें अपनी जिंदगी, अपने आध्यात्मिक कद का हिस्सा बना लो, और परमेश्वर के वचनों को अपनी जिंदगी के हर दिन पर और अपने कर्तव्य निर्वहन पर छा जाने दो। परमेश्वर जो भी वचन बोलता है, वे सभी मानवता की भाषा में होते हैं, और भले ही वे झट से समझ में आ जाते हैं, पर उनके भीतर के सत्य को समझना या उसमें प्रवेश करना इतना आसान नहीं होता; भले ही भाषा आसानी से समझ में आ जाती हो, सत्य में प्रवेश करना कई चरणों की प्रक्रिया होती है। परमेश्वर ने इतने सारे वचन बोले हैं और मनुष्य को वर्तमान तक लेकर आया है, और हर वचन जो उसने बोला है, वह तुम लोगों के भीतर थोड़ा-थोड़ा साकार हो रहा है, और उसने जो सत्य अभिव्यक्त किया है, और वह कार्य-प्रणाली जो सत्य में प्रवेश करने और उद्धार के मार्ग पर चलने में लोगों का मार्गदर्शन करती है, साफ तौर से और प्रत्यक्ष रूप से तुम लोगों में थोड़ी-थोड़ी करके साकार और पूर्ण हो रही है। ऐसे नतीजे तुम लोगों में थोड़े-थोड़े करके झलकते हैं। इसमें कुछ भी अमूर्त नहीं है। अब हमें इस तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए कि परमेश्वर के वचन उसकी मानवता के माध्यम से किस तरह संसाधित होते हैं। इस प्रक्रिया की तरफ देखने की कोई जरूरत नहीं है—इसमें एक ऐसा रहस्य है जिसे मनुष्य का अध्ययन भेद नहीं सकता। सिर्फ यह ध्यान रखो कि तुम सत्य स्वीकारते हो। यह सबसे समझदारी की बात और सबसे सही रवैया है। इसका कोई लाभ नहीं है कि हम हमेशा चीजों में ताक-झांक करना चाहें। यह समय और मेहनत की बर्बादी है। सत्य अध्ययन के माध्यम से प्राप्त की जाने वाली चीज नहीं है, विज्ञान द्वारा इसे खोजा जाना तो दूर की बात है। इसे परमेश्वर सीधे अभिव्यक्त करता है, और इसे सिर्फ अनुभव के माध्यम से समझा और जाना जा सकता है। सिर्फ परमेश्वर के कार्य के अनुभव के माध्यम से ही सत्य को पाया जा सकता है। अगर कोई चीजों के अध्ययन के लिए सिर्फ मानसिक प्रक्रिया का इस्तेमाल करता है, पर उसके पास कोई अभ्यास या अनुभव नहीं है, तो वह सत्य प्राप्त नहीं कर सकता। चीजों में झांकने के बजाय परमेश्वर के वचनों को लेकर एक सकारात्मक रवैया क्या हो सकता है? स्वीकृति, सहयोग और बिना किसी समझौते के समर्पण। सचमुच, अगर कोई इस अध्ययन के लिए सबसे ज्यादा योग्य है, तो वह मैं हूं, फिर भी मैं कभी ऐसा नहीं करता। मैं कभी नहीं कहता, “ये वचन कहां से आते हैं? मुझे ये किसने बताए? मैं इन्हें कैसे जानता हूं? मैंने इन्हें कब जाना? क्या दूसरे भी इन्हें जानते हैं? जब मैं इन्हें कहता हूं तो क्या ये नतीजे लाएंगे? इनसे क्या हासिल होगा? मैं इतने सारे लोगों की अगुवाई करता हूं—अगर मुझे आखिर में मनवांछित नतीजे न मिले, अगर मैं उन्हें उद्धार के मार्ग पर न ले जा सका, तो मैं क्या करूंगा?” बताओ मुझे—क्या ये ऐसी चीजें हैं जिन पर ध्यान देना चाहिए? (नहीं, ये ऐसी चीजें नहीं हैं।) मैं इन चीजों की तरफ कभी नहीं देखता। मुझे जो कहना होता है, मुझे जो तुम लोगों को बताना होता है, मैं तुमसे सीधे कह देता हूं। मुझे इनके अध्ययन के लिए मानसिक प्रक्रिया से गुजरने की जरूरत नहीं है। मुझे सिर्फ यह ध्यान रखने की जरूरत होती है कि अगर मैं इसे एक खास तरीके से कहूं तो क्या तुम लोग इसे समझ पाओगे; क्या मुझे ज्यादा ठोस तरीके से बात करनी चाहिए, क्या मुझे और ज्यादा उदाहरणों और कथाओं का संदर्भ देना चाहिए, ताकि तुम लोगों को एक विशिष्ट जानकारी और अभ्यास का एक विशिष्ट मार्ग मिल सके; क्या जो कुछ मैंने कहा है तुम लोग उसे समझ पाए हो; क्या मेरी शब्दावली में, मेरे बोलने की शैली और लहजे में, या मेरी व्याकरण या मेरे वाक्यांशों में कोई ऐसी चीज है जिससे तुम लोग गलतफहमी या उलझन में पड़ सकते हो; या मेरे व्याख्यान में कोई ऐसी चीज है जो तुम लोगों को अमूर्त, रहस्यमयी या खोखली प्रतीत हो। मुझे सिर्फ इन चीजों को देखना और इनका ध्यान रखना पड़ता है। मैं बाकी चीजें नहीं देखता। यह मेरे लिए सामान्य बात है कि मैं चीजों की जांच-पड़ताल न करूं, पर क्या तुम लोगों के लिए भी यह सामान्य बात है? तुम लोगों के लिए चीजों की जांच-पड़ताल करना बड़ी सामान्य बात है, ऐसा न करना असामान्य होगा। यह मनुष्य के सहज बोध और भ्रष्ट मानवता की प्रकृति की उपज है। तुम सभी के लिए चीजों की जांच-पड़ताल करना निश्चित है। फिर भी एक ऐसी चीज है जो इस समस्या का समाधान कर सकती है : जब मनुष्य धीरे-धीरे परमेश्वर के साथ संवाद की तरफ बढ़ता है, तो मनुष्य और परमेश्वर के बीच संबंध सामान्य होने लगते हैं, और मनुष्य अपनी सही जगह तय करके अपने दिल में परमेश्वर को उचित स्थान दे देता है। जब यह संबंध प्रगति करते हुए बेहतरी की तरफ और अधिक सौम्य दिशा में बढ़ता है, तो परमेश्वर के कार्यों को लेकर मनुष्य की जागरूकता, ज्ञान, निश्चितता और स्वीकृति का स्तर और गहरा होता जाता है, और जब यह होता है, तो मनुष्य की निश्चितता, जागरूकता, ज्ञान और देहधारण की स्वीकृति की गहराई भी बढ़ जाती है। जब ये चीजें गहरी हो जाती हैं, तो हल्के-फुल्के तरीके से भी, तुम लोग परमेश्वर का और भी कम अध्ययन और उस पर और भी कम संदेह करने लगते हो।

मनुष्य परमेश्वर का अध्ययन क्यों करता है? इसका कारण यह है कि उनमें परमेश्वर को लेकर बहुत सारी धारणाएं और कल्पनाएं होती हैं, और बहुत सारे अनिश्चित कारक, संदेह और न समझी जा सकने वाली चीजें होती हैं, बहुत सारी ऐसी चीजें और बहुत सारे ऐसे रहस्य होते हैं जो उन्हें अबूझ लगते हैं, और इसलिए वे अध्ययन के द्वारा इन्हें समझना चाहते हैं। जब तुम कोई ऐसा अध्ययन करते हो जिसमें बाहरी घटनाओं और तुम्हारे विशिष्ट ज्ञान या मानसिक निर्णय का उपयोग होता है तो तुम कुछ भी समझ नहीं सकते; तुम फिजूल की मेहनत करोगे और फिर भी यह नहीं समझ सकोगे कि परमेश्वर और सत्य क्या है। पर जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, उन्हें नतीजे देख पाने, परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हासिल करने और उसके प्रति भय और समर्पण भरा दिल विकसित करने में कुछ ही वर्ष लगते हैं। कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन व्यावहारिक या तथ्यपरक हैं, इसलिए वे हमेशा परमेश्वर का, उसके वचनों का, और उसके देहधारण का भी, अध्ययन करना चाहते हैं। जीवन के मामले और आत्मा के मामले किसी अध्ययन के वश में नहीं होते। जब वह दिन आएगा जब तुम इन सत्यों का अनुभव करोगे, और तुम्हारा समूचा मस्तिष्क, तुम्हारे द्वारा चुकाया गया समूचा मूल्य, और सत्य के अभ्यास और अपने कर्तव्य के निर्वाह पर तुम्हारा पूरा जोर तुम्हें उद्धार के मार्ग पर ले जाएगा, और तुम देहधारी परमेश्वर का अध्ययन नहीं करोगे। मतलब यह कि क्या वह मनुष्य है या परमेश्वर, इस सवाल का जवाब मिल चुका होगा। परमेश्वर की मानवता कितनी ही सामान्य क्यों न हो, वह आम लोगों से कितना ही मिलता-जुलता क्यों न हो, यह अब महत्वपूर्ण नहीं रह जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुमने आखिरकार उसके दिव्य सार को खोज लिया होगा, और आखिरकार उसके द्वारा अभिव्यक्त सत्यों को स्वीकार लिया होगा, और तब तक, तुमने दिल की गहराइयों से इस तथ्य को स्वीकार लिया होगा कि यह व्यक्ति वह देह है जिसमें देहधारी परमेश्वर है। कुछ तथ्यों, कुछ प्रक्रियाओं, कुछ अनुभवों के कारण, और लड़खड़ाने और विफल होने से सीखे कुछ सबकों के कारण, तुम अपने भीतर की गहराइयों में थोड़े-से सत्य को समझ पाओगे, और यह मान लोगे कि तुम गलत थे। तुम अब उस व्यक्ति पर संदेह या उसका अध्ययन नहीं करोगे, बल्कि यह महसूस करोगे कि वह व्यावहारिक परमेश्वर है, यह एक निर्विवाद तथ्य बन चुका है। तब तुम अपने सहज बोध से, और बिना किसी संदेह के, यह स्वीकार लोगे कि वह देहधारी परमेश्वर है। उसकी मानवता चाहे कितनी ही सामान्य क्यों न हो, और भले ही वह एक मामूली व्यक्ति की तरह बोले और व्यवहार करे, और वह किसी भी तरह से असाधारण या भव्य न हो, तुम उस पर संदेह नहीं करोगे, और न ही तुम उसका तिरस्कार करोगे। अतीत में, तुम्हें परमेश्वर अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं लगा होगा, और तुमने उसका अध्ययन किया होगा, और तुम अपने दिल में उसके प्रति तिरस्कार, उपहास और विद्रोह महसूस करते रहे होगे—पर आज चीजें अलग हैं। आज, तुम एक अलग नजरिए से, उसके वचनों को बड़े चाव से और पूरे विवरण के साथ सुनते हो, और उसके द्वारा अभिव्यक्त किया गया सब कुछ स्वीकारते हो। और यह नजरिया क्या है? “मैं एक सृजित प्राणी हूं। मसीह भले ही लंबा न हो, उसकी वाणी भले ही ऊंची न हो, चाहे वह जरा भी विशिष्ट न दिखता हो, पर उसकी पहचान मुझसे अलग है। वह भ्रष्ट मानवता का सदस्य नहीं है; वह हममें से एक नहीं है। हम उसके बराबर नहीं हैं, उसके समतुल्य नहीं हैं।” इसमें तुम्हारे पिछले नजरिए से अंतर है। यह अंतर कैसे आया? अपने भीतर की गहराइयों में, तुम अपनी शुरुआती अस्वीकृति और अनैच्छिक अध्ययन से एक परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरकर उसके वचनों को जीवन और अपने अभ्यास के मार्ग के रूप में स्वीकारने लगे हो, और यह महसूस करने लगे हो कि उसके पास सत्य है; वह सत्य, मार्ग और जीवन है; उस पर परमेश्वर की छाया है और उसमें परमेश्वर के स्वभाव का प्रकटावा है; उस व्यक्ति में परमेश्वर का आदेश और कार्य है। तब तुम उसे पूरी तरह स्वीकार चुके होगे। जब उसके प्रति तुम्हारी कोई भी प्रतिक्रिया, उसके प्रति तुम्हारा रवैया, एक ऐसा सहज बोध और सही प्रतिक्रिया बन जाएगा जो एक सृजित प्राणी में होने चाहिए, तब तुम मनुष्य के इस देहधारी पुत्र को परमेश्वर के रूप में देखने में सक्षम हो जाओगे और उसका अध्ययन करना छोड़ दोगे, भले ही तुम्हें ऐसा करने के लिए कहा जाए, जैसे कि तुम यह अध्ययन नहीं करोगे कि तुम अपने मां-बाप की संतान के रूप में क्यों पैदा हुए या तुम उनके जैसे क्यों दिखते हो। जब तुम इस बिंदु पर पहुंच जाओगे तो तुम अपने सहज बोध से ऐसी चीजों का अध्ययन करना छोड़ दोगे। ये विषय तुम्हारे दैनिक जीवन के दायरे से जुड़े हुए नहीं हैं और अब कोई सवाल नहीं रह गया है। इन चीजों को लेकर तुम्हारा रवैया अध्ययन करने की अपनी शुरुआती सनक से लेकर सहज बोध द्वारा ऐसा करने से इनकार तक एक बदलाव के दौर से गुजर चुका है, और तुम्हारे सहज बोध में इस बदलाव से देहधारी परमेश्वर का रुतबा और परिमाण और भी ऊंचा और किसी मनुष्य द्वारा बराबरी न किया जा सकने वाला हो जाएगा, और वह तुम्हारे दिल में स्वयं परमेश्वर की तरह बस जाएगा। फिर परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध बिल्कुल सामान्य होंगे। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम आध्यात्मिक जगत को देख नहीं सकते, और किसी भी व्यक्ति के लिए आध्यात्मिक जगत का परमेश्वर अपेक्षाकृत अमूर्त है। वह कहां है, वह कैसा है, मनुष्य के प्रति उसका रवैया क्या है, मनुष्य से बात करते हुए उसके मुखभाव कैसे होते हैं—लोग इस बारे में कुछ भी नहीं जानते। आज, तुम्हारे सामने जो खड़ा है, वह स्वरूप और समानता वाला एक व्यक्ति है और परमेश्वर कहलाता है। तुम पहले तो अपने प्रतिरोध, संदेह, अंदाजों, गलतफहमियों, और तिरस्कार के कारण उसे नहीं समझते हो; फिर तुम उसके वचनों को अनुभव करते हो और उन्हें जीवन और सत्य के रूप में, अपने अभ्यास के सिद्धांतों के रूप में, और अपने चुने हुए मार्ग के उद्देश्य और दिशा के रूप में स्वीकारने लगते हो; और वहीं से तुम इस ईमानदार और भले व्यक्ति को स्वीकार लेते हो, मानो वह तुम्हारे दिल में बसे उस परमेश्वर की भौतिक छवि हो जिसे तुम देख नहीं सकते। जब तुम ऐसा महसूस करते हो, तो क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध एक खोखली चीज होगा? (नहीं।) नहीं, यह ऐसा नहीं होगा। जब तुम परमेश्वर को एक अस्पष्ट और देखी न जा सकने वाली छवि के रूप में देखते हो और उसे इतना ठोस रूप दे देते हो कि वह हाड़-मांस की एक देह बन जाए, लोगों में एक ऐसा व्यक्ति बन जाए जिसे कोई पलटकर न देखे, अगर तुम फिर भी उसके साथ एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता वाले संबंध बनाने में सक्षम हो जाते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध बिल्कुल सामान्य होंगे। फिर उसके साथ तुम जो भी करोगे, वह आधारभूत रूप से वही प्रतिक्रिया होगी जो एक सृजित प्राणी में सहज बोध से होनी चाहिए। तुम्हें कहा भी जाए तो तुम उस पर संदेह नहीं करोगे, न ही तुम उसका अध्ययन करोगे; तुम यह कहते हुए उसका अध्ययन नहीं करोगे कि “परमेश्वर इस तरह क्यों बोलता है? उसके मुखभाव ऐसे क्यों हैं? वह मुस्कुराता क्यों है और ऐसा व्यवहार क्यों करता है?” ऐसी चीजें तुम्हारे लिए सामान्य नहीं रहेंगी। तुम अपने-आपसे कहोगे, “परमेश्वर ऐसा है और उसे ऐसा ही होना चाहिए—हां! वह कुछ भी करे, उसके साथ मेरे संबंध सामान्य और अपरिवर्तित रहेंगे।”

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