मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए (भाग दो)
युगों के विकास और मानवजाति के विकास के साथ, सभी चीजों के कार्यान्वयन, और परमेश्वर के हाथों की व्यवस्थाओं और उसकी संप्रभुता, मार्गदर्शन और अगुआई के साथ, मानवजाति और सभी चीजें और संपूर्ण ब्रह्मांड सदा आगे बढ़ रहे हैं। हजारों वर्षों तक व्यवस्था के अंकुश में रहने के बाद, व्यवस्था के अधीन मानवजाति अब व्यवस्था कायम नहीं रख पा रही थी, और उसने अगले युग में परमेश्वर के कार्य का अनुसरण किया, जिसका प्रारंभ परमेश्वर ने किया था—अनुग्रह का युग। अनुग्रह के युग के आगमन पर, परमेश्वर ने इस तथ्य को अपने कार्य का आधार बनाया कि उसने इसकी भविष्यवाणी करने के लिए नबियों को भेजा था। कार्य का यह चरण उतना स्नेही या इच्छित नहीं था जितना मनुष्य ने अपनी धारणाओं में कल्पना की थी, न ही यह उतना अच्छा लगा जितना उन्होंने सोचा था; इसके बजाय, बाहर से, सब-कुछ भविष्यवाणियों के विपरीत लग रहा था। इन परिस्थितियों में से एक ऐसा तथ्य उभरा, जिसका मनुष्य कभी अंदाजा भी नहीं लगा सकता था : उस देह के, जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया था—प्रभु यीशु—के सूली पर चढ़ाए जाने का तथ्य। यह सब मनुष्य के पूर्वानुमान से परे था। बाहर से, यह सब एक क्रूर, रक्तरंजित घटना लगती थी, देखने में भयानक, फिर भी यह परमेश्वर के व्यवस्था के युग को समाप्त कर एक नए युग का प्रारंभ करने की शुरुआत थी। यह नया युग अनुग्रह का युग है, जिसे तुम सब लोग अब जानते हो। अनुग्रह का युग व्यवस्था के युग में परमेश्वर की भविष्यवाणियों को चुनौती देता प्रतीत होता था। निश्चित रूप से यह परमेश्वर के देहधारण के सूली पर चढ़ाए जाने के रूप में भी आया। ये सारी घटनाएँ बिल्कुल अचानक और बहुत स्वाभाविक रूप से हुईं, और ऐसी स्थितियों में हुईं जो उनके लिए उपयुक्त थीं। पुराने युग को समाप्त कर नए युग का आह्वान करने—नए युग को लाने—के लिए—परमेश्वर ने ऐसे साधनों का प्रयोग किया। हालाँकि इस युग के आरंभ में जो कुछ भी हुआ, वह बहुत क्रूर, रक्तरंजित, अकल्पनीय और इसका आगमन बहुत अचानक हुआ, और मनुष्य की कल्पना के जैसा अद्भुत और मधुर नहीं था—हालाँकि अनुग्रह के युग का आरंभ-दृश्य देखने में भयावह, और हृदय-विदारक था, इसमें ऐसी क्या बात थी जो उत्सव मनाने के योग्य थी? व्यवस्था के युग के अंत का अर्थ था कि परमेश्वर को अब व्यवस्था के अंतर्गत मानवजाति के विभिन्न व्यवहारों का पालन करने की जरूरत नहीं थी; इसका अर्थ था कि मानवजाति ने परमेश्वर के कार्य और उसकी योजना के अनुरूप एक नए युग में बहुत विराट कदम रख लिया था। जाहिर है, इसका अर्थ यह भी था कि परमेश्वर की प्रतीक्षा की अवधि घट गई थी। मानवजाति ने एक नए युग में, एक नए कल्प में प्रवेश किया, जिसका अर्थ था कि परमेश्वर के कार्य ने एक विराट कदम आगे बढ़ाया था, और जैसे-जैसे उसका कार्य आगे बढ़ेगा, उसकी इच्छा धीरे-धीरे साकार होती जाएगी। अनुग्रह के युग का आगमन आरंभ में उतना मनोहर नहीं था, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, एक मानवजाति शीघ्र उदय होने वाली थी, ऐसी मानवजाति जिसे वह चाहता था, जो उसकी अपेक्षाओं और लक्ष्यों के बहुत समीप आ रही थी। यह एक आनंददायी और सराहनीय चीज थी, जो कि उत्सव मनाने के योग्य थी। हालाँकि मानवजाति ने परमेश्वर को सूली पर चढ़ा दिया, जो मनुष्य के लिए देखने में दुखद घटना थी, फिर भी मसीह को जिस पल सूली पर चढ़ाया गया, उस पल का अर्थ था कि परमेश्वर का अगला युग—अनुग्रह का युग—आ चुका था, और जाहिर तौर पर उस युग में परमेश्वर का कार्य प्रारंभ होने को था। यही नहीं, इसका अर्थ था कि परमेश्वर के देहधारण की उस घटना का महान कार्य पूरा हो चुका था। परमेश्वर विश्व के लोगों का सामना एक विजेता के रूप में करेगा, एक नए नाम और छवि के साथ, और उसके नए कार्य की विषयवस्तु मानवजाति के सामने अनावृत और प्रकट की जाएगी। इसी दौरान, मानवजाति की बात करें, तो वह अब व्यवस्था के बारंबार होने वाले उल्लंघनों से लगातार परेशान नहीं होगी, न ही अब इसका उल्लंघन करने के लिए व्यवस्था द्वारा दंडित होगी। अनुग्रह के युग के आगमन ने मानवजाति को परमेश्वर के पहले के कार्य से निकलकर, कार्य के नए कदमों और नए तरीकों के साथ एक बिल्कुल नए माहौल में प्रवेश करने दिया। इसने मानवजाति को एक नया प्रवेश, एक नया जीवन दिया, और जाहिर तौर पर इसने परमेश्वर और मनुष्य के बीच एक संबंध बनने दिया, जिससे कि वे एक कदम और समीप आ गए। परमेश्वर के देहधारण के कारण, मनुष्य परमेश्वर से रूबरू हो पाया। मनुष्य ने परमेश्वर की असली और वास्तविक वाणी और वचन सुने; मनुष्य ने उसके कार्य का ढंग और साथ ही उसका स्वभाव आदि देखा। मनुष्य ने हर तरह से, इसे अपने कानों से सुना और अपनी आँखों से देखा; उसने जीवंत रूप से अनुभव किया कि परमेश्वर सचमुच सही मायनों में, इंसानों के बीच आ चुका है, वह सचमुच सही मायनों में मनुष्य के सामने था, वह सचमुच सही मायनों में मानवजाति के बीच जीवनयापन करने आया था। हालाँकि उस देहधारण में परमेश्वर के कार्य की अवधि लंबी नहीं थी, लेकिन उसने उस समय की मानवजाति को परमेश्वर के साथ जीने का सच्चा, दृढ़ और पक्का अनुभव दिया। और भले ही जिन लोगों को ये अनुभव हुए, उन्होंने अधिक समय तक इसका अनुभव नहीं किया, लेकिन परमेश्वर ने अपने देहधारण की उस घटना में अनेक वचन कहे और वे वचन अत्यंत विशिष्ट थे। उसने बहुत कार्य भी किए, और बहुत से लोग थे, जो उसका अनुसरण करते थे। मानवजाति ने निर्णायक ढंग से पुराने युग की व्यवस्था के अधीन अपना जीवन समाप्त कर एक पूर्णतया नए युग : अनुग्रह के युग में प्रवेश किया।
नए युग में प्रवेश कर लेने के बाद, मानवजाति अब व्यवस्था के बंधनों के अधीन नहीं, बल्कि परमेश्वर की नई अपेक्षाओं और नए वचनों के अधीन जी रही थी। परमेश्वर के नए वचनों और नई अपेक्षाओं के कारण, मानवजाति ने एक नया जीवन विकसित किया, जिसका रूप भिन्न था, परमेश्वर में विश्वास का जीवन, जिसका रूप और विषयवस्तु भिन्न थे। व्यवस्था के अधीन पूर्व के जीवन की अपेक्षा यह जीवन मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानकों पर खरे उतरने के एक कदम समीप आ गया। परमेश्वर ने मानवजाति के लिए नई आज्ञाएँ रखीं, उसने मानवजाति के लिए नए व्यवहार संबंधी मानक रखे उस काल की मानवजाति के लिए जो अधिक सही और अधिक अनुकूल थे, और साथ ही उसने लोगों और चीजों को लेकर व्यक्ति के विचारों, और उसके आचरण और कार्यकलाप के लिए मानदंड और सिद्धांत भी बनाए। तब उसके द्वारा कहे वचन, अब के वचनों जैसे विशिष्ट नहीं थे, न ही उनकी मात्रा अब जितनी अधिक थी, फिर भी तब के मनुष्य के लिए, जो अभी-अभी व्यवस्था की अधीनता से बाहर आया था, वे वचन और अपेक्षाएँ काफी थीं। उस काल के लोगों के आध्यात्मिक कद, और वे जिनसे युक्त थे उसे देखा जाए, तो वे इतनी ही चीजें प्राप्त कर सिद्ध कर सकते थे। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने लोगों से विनम्र व धैर्यवान होने, सहिष्णु रहने, क्रूस उठाने, आदि के लिए कहा; व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए परमेश्वर ने मनुष्य से ये अधिक विशिष्ट अपेक्षाएँ रखीं, ऐसी अपेक्षाएँ जो इंसानियत का जीवन जीने के तरीके से जुड़ी थीं। इससे परे, मनुष्य ने, जो व्यवस्था के अधीन जीवन जिया करता था, अनुग्रह के युग के आगमन के कारण, परमेश्वर के अनुग्रह, आशीषों, और ऐसी दूसरी चीजों के प्रचुर और निरंतर प्रवाह का आनंद उठाया। उस युग में मानवजाति सचमुच आरामदेह जीवन जी रही थी। सभी खुश थे, परमेश्वर की आँखों का तारा थे, उसकी हथेलियों में बच्चे जैसे थे। उन्हें आज्ञाओं का पालन करने के अलावा मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुकूल विचारों के अनुसार थोड़ा अच्छा व्यवहार करना था, लेकिन मानवजाति के लिए, परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद अधिक मात्रा में उपलब्ध था। उदाहरण के लिए, दानवों के कब्जे के कारण होने वाले रोगों से लोगों को चंगाई मिली, और उनके भीतर बसे घृणित दानवों और बुरी आत्माओं को खदेड़कर बाहर कर दिया गया। जब लोग मुसीबत या जरूरत में होते, तो परमेश्वर अपवाद के रूप में उनके लिए चिह्नों और चमत्कारों का प्रदर्शन करता, ताकि उनके विभिन्न रोगों से उन्हें चंगाई मिले, उनका शरीर तुष्ट हो, और उन्हें भोजन और वस्त्र मिलें। उस युग में मनुष्य के आनंद के लिए अत्यधिक अनुग्रह और आशीष उपलब्ध थे। केवल आज्ञाओं का पालन करने के अलावा, मानवजाति को अधिक-से-अधिक धैर्यवान, सहिष्णु, स्नेही, इत्यादि रहना था। सत्य या मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं से जुड़ी किसी भी दूसरी चीज का मनुष्य को कोई अंदाजा नहीं था। मनुष्य के पूरी तरह से अनुग्रह और परमेश्वर के आशीषों का आनंद उठाने का इरादा रखने, और प्रभु यीशु द्वारा मनुष्य से उस काल में किए गए वादे के कारण, मनुष्य आदतन परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने लगा, और इसका अंत कहीं नजर न आता था। मनुष्य ने सोचा कि यदि वह परमेश्वर में विश्वास रखता है, तो उसे परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद मिलना चाहिए, और यह हिस्सेदारी न्यायसंगत रूप से उसकी है। लेकिन उसे यह पता नहीं था कि उसे सृजन के प्रभु की आराधना करनी है, या एक सृजित प्राणी का दर्जा अपनाकर एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करना है, और एक नेक सृजित प्राणी बनना है। वह परमेश्वर के प्रति समर्पित होने, उसके प्रति वफादार होने, उसके वचनों को स्वीकार करने और लोगों और चीजों को देखने और अपने आचरण व कार्यों के आधार के रूप में उसके वचनों का प्रयोग करने के तरीकों के बारे में भी नहीं जानता था। मनुष्य ऐसी किसी भी चीज से अनजान था। आदतन परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने के अलावा, मनुष्य मृत्यु के बाद स्वर्ग में वैसे ही प्रवेश करना चाहता था, और वहाँ प्रभु के साथ अच्छे आशीषों का आनंद उठाना चाहता था। यही नहीं, अनुग्रह के युग में जीने वाली मानवजाति, जो कि अनुग्रह और आशीषों के बीच जी रही थी, गलत ढंग से यह विश्वास करती थी कि परमेश्वर बस एक दयालु, स्नेही परमेश्वर है, उसका सार कृपा और प्रेमपूर्ण दयालुता है, और कुछ नहीं। उसके लिए, कृपा और प्रेमपूर्ण दयालुता परमेश्वर की पहचान, रुतबे, और सार के प्रतीक थे; उसके लिए सत्य, मार्ग और जीवन का अर्थ परमेश्वर का अनुग्रह और उसके आशीष थे, या शायद बस क्रूस उठाकर क्रूस के रास्ते पर चलने का तरीका थे। अनुग्रह के युग में, लोगों का परमेश्वर का ज्ञान और उसके प्रति उनकी अनुस्थिति, और साथ ही मानवजाति और स्वयं लोगों के बारे में उनका ज्ञान और उनके प्रति उनकी अनुस्थिति बस इतनी ही थी। इसलिए, कारणों की ओर मुड़कर मूल तक पहुँचें तो : वास्तव में वह क्या था जिससे ये परिस्थितियाँ पैदा हुईं? दोष किसी का भी नहीं है। और अधिक ठोस ढंग से या और अधिक विस्तार से न बोलने या कार्य न करने के लिए तुम परमेश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकते, और तुम मनुष्य पर भी इसकी जिम्मेदारी नहीं डाल सकते। ऐसा क्यों? मनुष्य सृजित मानवजाति है, एक सृजित प्राणी है। वह व्यवस्था से निकलकर अनुग्रह के युग में आया। परमेश्वर के कार्य की प्रगति का मनुष्य ने चाहे जितने भी वर्षों का अनुभव किया हो, परमेश्वर ने मनुष्य को जो प्रदान किया, और उसने जो किया, वह वही था जो मनुष्य प्राप्त कर सकता था, और जो वह जान सकता था। लेकिन इससे परे, जो परमेश्वर ने नहीं किया, जो उसने नहीं कहा, जिसका उसने खुलासा नहीं किया, उसे समझने या जानने की क्षमता मनुष्य में नहीं थी। लेकिन वस्तुपरक परिस्थितियों और बड़ी तस्वीर को देखें, तो हजारों वर्षों से प्रगति करती आ रही मानवजाति अनुग्रह के युग में पहुँची थी, उसकी समझ बस वहीं तक पहुँच सकी, और परमेश्वर वैसा ही कार्य कर सकता था जैसा वह कर रहा था। ऐसा इसलिए कि व्यवस्था से निकली मानवजाति को जिसकी जरूरत थी, वह ताड़ना दिया जाना या न्याय किया जाना, या जीता जाना नहीं था, पूर्ण किए जाने की तो बात ही दूर है। उस समय मानवजाति को सिर्फ एक चीज की जरूरत थी। वह चीज क्या थी? एक पापबलि, परमेश्वर का बहुमूल्य रक्त। परमेश्वर का बहुमूल्य रक्त—व्यवस्था के युग से बाहर आते हुए मानवजाति को एकमात्र उस पापबलि की ही जरूरत थी। इसलिए, उस काल में, मानवजाति की जरूरतों और वास्तविक परिस्थितियों के कारण, परमेश्वर को तब जो कार्य करना था, वह एक पापबलि के रूप में अपने देहधारण का बहुमूल्य रक्त अर्पित करना था। व्यवस्था के अधीन रहने वाली मानवजाति के छुटकारे का यही एकमात्र तरीका था। कीमत और पापबलि के रूप में अपना बहुमूल्य रक्त देकर परमेश्वर ने मानवजाति के पाप को मिटा दिया। और उसके पाप के मिटाए जाने तक मनुष्य की यह साख नहीं थी कि वह परमेश्वर के समक्ष पापमुक्त आ सके, और उसके अनुग्रह और निरंतर मार्गदर्शन को स्वीकार कर सके। मानवजाति को परमेश्वर का बहुमूल्य रक्त अर्पित किया गया, और चूँकि यह मानवजाति के लिए अर्पित किया गया, इसलिए उसे छुटकारा मिल सका। अभी-अभी छुटकारा प्राप्त मानवजाति क्या समझने में सक्षम थी? अभी-अभी छुटकारा प्राप्त मानवजाति को किस चीज की जरूरत थी? अगर इसके तुरंत बाद मानवजाति को जीता जाता, उसका न्याय कर ताड़ना दी गई होती, तो उसके पास इसे स्वीकार करने की क्षमता नहीं होती। उसके पास स्वीकृति की ऐसी क्षमता नहीं थी, और न ही हालात ऐसे थे कि वह ये सब समझ पाई होती। इसलिए, परमेश्वर की पापबलि, और साथ ही उसके अनुग्रह, आशीषों, सहिष्णुता, धैर्य, कृपा, और प्रेमपूर्ण दयालुता के अलावा, उस समय की मानवजाति, परमेश्वर द्वारा की गई मनुष्य के व्यवहार से संबंधित कुछ सरल अपेक्षाओं से ज्यादा कुछ भी स्वीकार नहीं कर सकती थी। इससे ज्यादा और कुछ नहीं। और जहाँ तक मनुष्य के उद्धार को ज्यादा गहराई से छूने वाले समस्त सत्य की बात है—मानवजाति के पास कौन-से गलत विचार और नजरिये हैं; उसके पास कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं; परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोहीपन का कैसा सार उसमें है; उस पारंपरिक संस्कृति का सार क्या है, जिसे मानवजाति कायम रखती है, जैसी कि हमने हाल में संगति की है; शैतान मानवजाति को कैसे भ्रष्ट करता है; इत्यादि—उस समय की मानवजाति कुछ भी समझ नहीं पाती। वैसी परिस्थितियों में, परमेश्वर मानवजाति को सिर्फ फटकारकर उससे आसान और सीधे तरीकों से अपेक्षाएँ ही रख सकता था, जिनमें आचरण की सबसे प्राथमिक अपेक्षाएँ शामिल थीं। इसलिए, अनुग्रह के युग में, मानवजाति केवल अनुग्रह, और असीम ढंग से पापबलि के रूप में परमेश्वर के बहुमूल्य रक्त का आनंद ही उठा सकती थी। वैसे, अनुग्रह के युग में, महानतम काम पहले ही पूरा कर लिया गया था। वह क्या था? वह यह था कि मानवजाति, जिसे परमेश्वर बचाने वाला था, उसके पाप परमेश्वर के बहुमूल्य रक्त द्वारा क्षमा हो गए थे। यह बात उत्सव मनाए जाने के योग्य है; अनुग्रह के युग में परमेश्वर द्वारा किया गया यह महानतम काम था। हालाँकि मनुष्य का पाप क्षमा कर दिया गया था, और मनुष्य अब परमेश्वर के समक्ष एक पापी देह की सदृशता में या एक पापी के रूप में न आता, बल्कि पापबलि द्वारा पापों के लिए क्षमा पाकर परमेश्वर के समक्ष आने के योग्य था, फिर भी परमेश्वर के साथ मनुष्य का संबंध, एक सृजित प्राणी और सृजनकर्ता के बीच संबंध के स्तर तक नहीं पहुँच पाया था। यह अभी भी सृजित मानवजाति का सृजनकर्ता के साथ संबंध नहीं था। अनुग्रह के अधीन मानवजाति अभी भी उस भूमिका से कोसों दूर थी जिसकी परमेश्वर उससे अपेक्षा रखता था, यानी सभी चीजों का स्वामी और संचालक होने की अपेक्षा। तो, परमेश्वर को प्रतीक्षा करनी थी; उसे धैर्य रखना था। परमेश्वर के प्रतीक्षा करने का क्या अर्थ था? इसका अर्थ था कि तब मानवजाति को परमेश्वर के अनुग्रह के बीच, अनुग्रह के युग के परमेश्वर के कार्य की विभिन्न विधियों के बीच जीते रहना था। परमेश्वर मानवजाति के मुट्ठीभर लोगों या एक प्रजाति को नहीं, बल्कि बहुत अधिक लोगों को बचाना चाहता था; उसका उद्धार सिर्फ एक प्रजाति या सिर्फ एक संप्रदाय के लोगों तक सीमित नहीं है। इसलिए, अनुग्रह के युग को, व्यवस्था के युग की तरह, हजारों वर्षों तक चलना था। मानवजाति को परमेश्वर की अगुआई में साल-दर-साल, पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस नए युग में जीते रहना था। मनुष्य को इस प्रकार कितने कल्प गुजारने होंगे—तारों में कितने फेरबदल देखने होंगे, कितने समुद्रों को सूखते और चट्टानों को चूर होते देखना होगा, कितने समुद्रों को उपजाऊ भूमि को स्थान देते हुए देखना होगा, और उन्हें विविध अवधियों में मानवजाति के विभिन्न बदलावों, और पृथ्वी की विभिन्न चीजों में हो रहे बदलावों से गुजरना होगा। और जब वह इन सबका अनुभव कर रही थी, तब परमेश्वर के वचन, उसके कार्य, और अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा मानवजाति के छुटकारे का तथ्य, ये सभी पृथ्वी के अंतिम छोरों तक फैल गए, तमाम गली-मुहल्लों में, हर नुक्कड़ में तब तक फैलते गए, जब तक वे घर-घर में सबको मालूम नहीं हो गए। और फिर वह युग—अनुग्रह का युग, जो व्यवस्था के युग के बाद आया था—समाप्त हुआ। इस अवधि में परमेश्वर ने जो कार्य किया, वह सिर्फ चुपचाप प्रतीक्षा करने का नहीं था; प्रतीक्षा के दौरान, उसने अनुग्रह के युग की मानवजाति पर विभिन्न विधियों से कार्य किया। उसने अपना अनुग्रह-आधारित कार्य जारी रखा, इस युग की मानवजाति को अनुग्रह और आशीष प्रदान करता रहा, ताकि उसके कर्म, उसका कार्य, उसके वचन और जिन तथ्यों पर उसने कार्य किया, और अनुग्रह के युग में उसके इरादे उसके चुने हुए हर व्यक्ति के कानों तक पहुँचे। उसने अपने चुने हुए हर व्यक्ति को अपनी पापबलि का लाभ उठाने योग्य बनाया, ताकि वे अब एक पापी देह की सदृशता में, पापी के रूप में उसके समक्ष न आएँ। हालाँकि परमेश्वर के साथ मनुष्य का संबंध, अब व्यवस्था के युग की तरह नहीं था, जहाँ मनुष्य ने परमेश्वर को कभी देखा नहीं था, बल्कि उससे एक कदम आगे था, यह वैसा संबंध था, जो विश्वासियों और प्रभु, ईसाइयों और मसीह के बीच होता है, फिर भी ऐसा संबंध वह संबंध नहीं है जो अंततः परमेश्वर मानवजाति और परमेश्वर के बीच, सृजित प्राणी और सृजनकर्ता के बीच चाहता है। उस समय उनका संबंध सृजित प्राणियों और सृष्टिकर्ता के बीच के संबंध से अभी भी बहुत दूर था, लेकिन व्यवस्था के युग में मानवजाति और परमेश्वर के संबंध की तुलना में यह बहुत बड़ी प्रगति दर्शाता है। यह उल्लास और उत्सव का कारण था। मगर जो भी हो, परमेश्वर को अब भी मानवजाति की अगुआई करनी थी; उसे उस मानवजाति को आगे बढ़ाना था, जिसके दिल की गहराइयाँ अभी भी परमेश्वर के बारे में धारणाओं, और कल्पनाओं, निवेदनों, माँगों, विद्रोहीपन और प्रतिरोध से भरी हुई थीं। क्यों? क्योंकि ऐसी मानवजाति भले ही परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाना जान गई थी, और जान गई थी कि परमेश्वर कृपालु और प्रेमपूर्ण है, लेकिन उससे परे, वह परमेश्वर की सच्ची पहचान, रुतबे और सार के बारे में एक भी चीज नहीं जानती थी। परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने के बावजूद, शैतान की भ्रष्टता का अनुभव करने के कारण ऐसी मानवजाति के दिल की गहराई में उसका सार और विभिन्न धारणाएँ और विचार परमेश्वर के प्रतिकूल और उसके विरुद्ध हैं। मनुष्य यह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर को समर्पण कैसे करें, या एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे पूरा करें, एक संतोषजनक सृजित प्राणी बनना तो दूर रहा। कोई ऐसा व्यक्ति तो बिल्कुल ही नहीं था जो सृजन के प्रभु की आराधना करना जानता हो। अगर इस हद तक भ्रष्ट मानवजाति को दुनिया की विभिन्न चीजें सौंप दी गई होतीं, तो यह उन्हें शैतान को सौंपने के समान ही होता। इसके परिणाम पूरी तरह से वही होते, उनके बीच कोई फर्क नहीं होता। इसलिए परमेश्वर को अभी भी अपना कार्य जारी रखना था, मानवजाति को उस कार्य के अगले चरण में ले जाना था जिसे वह आगे करने वाला था। यह ऐसा चरण था, जिसकी परमेश्वर लंबे समय से प्रतीक्षा करता रहा, जिसकी वह लंबे समय से बाट जोहता था, और कुछ ऐसा था जिसकी उसने अपने पूर्व के दीर्घकालिक धैर्य से कीमत चुकाई।
अब अंततः चूँकि मानवजाति परमेश्वर के पर्याप्त और प्रचुर अनुग्रह का आनंद उठा चुकी है, तो किसी भी दृष्टि से देखें, यह संसार और यह मानवजाति, दोनों ऐसे स्तर पर पहुँच चुके हैं, जहाँ परमेश्वर मानवजाति को बचाने का सच्चा कार्य करेगा। वे ऐसे समय में आ चुके हैं जब परमेश्वर मानवजाति को जीतकर उन्हें ताड़ना देगा और उनका न्याय करेगा, जब वह मानवजाति को पूर्ण करने, और मानवजाति में से एक समूह को प्राप्त करने के लिए अनेक सत्य व्यक्त करेगा, एक ऐसा समूह जो उन चीजों में से सभी चीजों का संचालक होगा। यह समय आ जाने के बाद, परमेश्वर को अब धैर्यवान रहने की जरूरत नहीं है, न ही उसे अनुग्रह के युग की मानवजाति को अनुग्रह में जीते रहने देने की जरूरत है। अब उसे अनुग्रह में रह रही मानवजाति को पोषण देने, उनकी चरवाही करने, उनकी निगरानी करने या उन्हें सुरक्षित रखने की जरूरत नहीं है; अब उसे अथक रूप से मानवजाति को बिना शर्त अनुग्रह और आशीष प्रदान करने की जरूरत नहीं है; अब जब मानवजाति उसकी आराधना किए बगैर लालच और बेशर्मी से उसके अनुग्रह की याचना करती है, तो उसे अनुग्रह में मानवजाति के साथ बिना शर्त धैर्यवान होने की जरूरत नहीं है। इसके बजाय परमेश्वर अपने इरादे, अपना स्वभाव, अपने हृदय की सच्ची वाणी और अपना सार व्यक्त करेगा। इस दौरान, परमेश्वर मानवजाति को उनकी जरूरत के अनेकानेक सत्य और वचन मुहैया करते हुए, अपना सच्चा स्वभाव—धार्मिक स्वभाव—भी उड़ेल रहा और व्यक्त कर रहा है। अपना धार्मिक स्वभाव व्यक्त करते समय ऐसा नहीं है मानो वह भावशून्य होकर न्याय और निंदा के कुछ वाक्यांश प्रदान कर काम खत्म कर देता है; इसके बजाय, वह मानवजाति की भ्रष्टता, उसके सार और उसकी शैतानी वीभत्सता को उजागर करने के लिए तथ्यों का प्रयोग करता है। वह अपने विरुद्ध मानवजाति के विद्रोहीपन, प्रतिरोध, और अस्वीकरण, और साथ ही अपने बारे में उसकी विभिन्न धारणाओं, और उसे दिए धोखे को भी उजागर करता है। इस अवधि में, वह जो व्यक्त करता है उसमें से अधिकतर उस कृपा और प्रेमपूर्ण दयालुता से परे होता है जो वह मानवजाति को देता है : यह नफरत, घृणा, विरक्ति, और तिरस्कार है जो मानवजाति के प्रति उसके मन में है। परमेश्वर के स्वभाव और दर्जे में इस तरह से पूर्ण रूप से हुए बदलाव या परिवर्तन के लिए मानवजाति तैयार नहीं रहती, और वह इसे स्वीकार करने में सक्षम नहीं होती। परमेश्वर एक कड़कती बिजली की जबरदस्त आकस्मिक शक्ति के साथ अपना स्वभाव और अपने वचन व्यक्त करता है। बेशक, वह अत्यंत धैर्य और सहिष्णुता के साथ मानवजाति को उनकी सारी जरूरतें भी मुहैया करता है। एक सृजनकर्ता होने की अवस्थिति के परिप्रेक्ष्य से परमेश्वर विभिन्न तरीकों और विभिन्न कोणों से मानवजाति के समक्ष बोलता और अपना स्वभाव व्यक्त करता है, वह ऐसा उन तरीकों से करता है जो सृजित प्राणियों से पेश आने के सबसे उपयुक्त, उचित, ठोस, और सीधे तरीके हैं। इसी ढंग से बोलने और कार्य करने के लिए परमेश्वर छह हजार वर्ष से लालायित होकर प्रतीक्षा करता रहा है। छह हजार वर्षों की लालसा; छह हजार वर्षों की प्रतीक्षा—यह परमेश्वर की छह हजार वर्षों की आशा को समाहित किए छह हजार वर्षों के धैर्य को बयान करती है। मानवजाति अभी भी परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति ही है, मगर छह हजार वर्षों के अंतहीन, नक्षत्रों में उलट-फेर करने वाले, समुद्र को निगल जाने वाले परिवर्तन से गुजरकर आने के बाद, वह अब वैसी मानवजाति नहीं रही जिसका परमेश्वर ने आरंभ में सृजन किया था और जिसका सार अब भी वैसा ही है। इसलिए, इस दिन जब परमेश्वर अपना कार्य शुरू करता है, तो वह जिस मानवजाति को अब देखता है, वह भले ही वैसी ही है जैसी उसे उम्मीद थी, पर वह उससे घृणा भी करता है, और बेशक इसे देखना परमेश्वर के लिए बहुत दुखदायी है। मैंने यहाँ तीन चीजों के बारे में बात की; क्या तुम सबको याद है? भले ही परमेश्वर को ऐसी ही मानवजाति की अपेक्षा थी, पर वह इससे घृणा भी करता है। दूसरी चीज क्या थी? (यह देखना परमेश्वर के लिए बहुत दुखदायी है।) यह देखना परमेश्वर के लिए बहुत दुखदायी भी है। मनुष्य में ये तीनों चीजें एक साथ मौजूद हैं। परमेश्वर को किस चीज की अपेक्षा थी? कि ऐसी मानवजाति, व्यवस्था और फिर छुटकारे का अनुभव करने के बाद, अंत में उन कुछ आधारभूत व्यवस्थाओं और आज्ञाओं की बुनियाद पर चलते हुए आज तक पहुँच जाएगी, जिनका मनुष्य को पालन करना चाहिए, और अब आदम और हव्वा की तरह, अपने दिल की गहराई में खालीपन लिए एक सरल मानवजाति नहीं रहेगी। इसके बजाय, उनके दिल में नई चीजों की कुछ समझ होगी। ये वो चीजें हैं जिनके मानवजाति में होने की परमेश्वर को अपेक्षा थी। लेकिन साथ ही मानवजाति ऐसी मानवजाति भी है जिससे परमेश्वर घृणा करता है। तो फिर ऐसा क्या है जिससे परमेश्वर घृणा करता है? क्या तुम सब नहीं जानते? (मनुष्य का विद्रोहीपन और प्रतिरोध।) इंसान शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से भरे हुए हैं, वे एक भयावह जीवन जी रहे हैं, यह न पूरी तरह मनुष्य की तरह है न ही दानव की तरह। मानवजाति अब इतनी सरल नहीं है कि वह सर्प के प्रलोभन से भी न बच सके। हालाँकि मानवजाति की अपनी सोच और विचार हैं, उसकी अपनी निश्चित राय है, और विभिन्न घटनाओं और चीजों को समझने के उसके अपने तरीके हैं, मगर इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर चाहता है कि लोगों और चीजों पर मानवजाति के नजरिये में या उसके आचरण और कार्य में हो। मानवजाति सोच सकती है, दृष्टिकोण रख सकती है, और अपने कार्यों के लिए उसके अपने आधार, साधन और रवैये हैं, मगर ये सब जिनसे वे युक्त हैं, उन सबका उद्गम शैतान की भ्रष्टता में है। ये सब शैतान के विचारों और फलसफों पर आधारित हैं। जब मनुष्य परमेश्वर के समक्ष आता है, तो उसके हृदय में परमेश्वर के प्रति जरा भी समर्पण नहीं होता, न ही कोई ईमानदारी होती है। मनुष्य शैतान के विषों से संतृप्त है, उसकी शिक्षा, सोच और भ्रष्ट स्वभाव से सराबोर है। यह क्या दर्शाता है? मनुष्यों के अस्तित्व के ढंग और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये को बदलने के लिए—और बेशक विशेष रूप से लोगों और चीजों पर उनके दृष्टिकोणों, और उनके आचरण और कार्यों के तरीकों और मानदंडों को बदलने के लिए—परमेश्वर को बहुत-से वचन बोलने होंगे और बहुत-सा कार्य करना होगा। इन सबके प्रभावी होने से पहले, परमेश्वर की दृष्टि में मानवजाति घृणा की चीज है। जब परमेश्वर जिस चीज से घृणा करता है उसे बचाता है, तो उसे किस चीज की जरूरत होती है? क्या उसके हृदय में उल्लास है? क्या प्रसन्नता है? क्या सुकून है? (नहीं।) बिल्कुल कोई सुकून नहीं होता है, न प्रसन्नता होती है। उसके हृदय में घृणा भरी हुई है। ऐसी परिस्थितियों में बोलने, अथक रूप से बोलने, के सिवाय परमेश्वर एक ही चीज करेगा, और वह है धैर्य रखना। परमेश्वर जिस मानवजाति को देख रहा है, उसके प्रति परमेश्वर द्वारा महसूस किया गया दूसरा तत्व है—घृणा। तीसरा तत्व यह है कि वह देखने में बहुत दुखदायी है। मानवजाति का सृजन करने के पीछे परमेश्वर के मूल इरादे के प्रकाश में, मनुष्य के साथ परमेश्वर का संबंध माता-पिता, और बच्चे का, परिवार का है। संबंध का यह आयाम शायद मानवजाति के रक्त संबंधों जैसा न हो, लेकिन परमेश्वर के लिए, यह मानवजाति के दैहिक रक्त संबंधों से बढ़कर है। जिस मानवजाति का परमेश्वर ने आरंभ में सृजन किया, वह उस मानवजाति से पूरी तरह भिन्न है जिसे वह अंत के दिनों में देखता है। आरंभ में, मनुष्य सरल और शिशु समान था, अज्ञानी होकर भी उसका दिल शुद्ध और स्वच्छ था। उसकी आँखों में उसके दिल की गहराई की स्पष्टता और पारदर्शिता देखी जा सकती थी। उसमें वह विविध भ्रष्ट स्वभाव नहीं थे जो आज के मनुष्य में हैं; उसमें कट्टरता, अहंकार, धूर्तता, या कपट नहीं था, और निश्चित रूप से उसमें सत्य से विमुख होने का स्वभाव नहीं था। मनुष्य के कथनों और कार्यों से, उसकी आँखों से, उसके चेहरे से देखा जा सकता था कि यह वही मानवजाति थी जिसका सृजन परमेश्वर ने आरंभ में किया था और जिस पर उसकी कृपा थी। लेकिन अंत में, जब परमेश्वर फिर से मानवजाति को देखता है, तो मनुष्य का हृदय अब अपनी गहराइयों में उतना स्पष्ट नहीं है, और उसकी आँखें उतनी स्पष्ट नहीं हैं। मनुष्य का दिल शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से भरपूर है, और परमेश्वर से मिलने पर, उसका चेहरा, उसके कथन और कार्य परमेश्वर को घृणास्पद लगते हैं। लेकिन एक तथ्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता, और इस तथ्य के कारण ही परमेश्वर कहता है कि ऐसी मानवजाति को देखना बहुत दुखदायी है। यह कौन-सा तथ्य है? यह ये तथ्य है जिसे कोई नकार नहीं सकता : परमेश्वर ने इस मानवजाति का अपने हाथों से सृजन किया, जो एक बार फिर उसके समक्ष आ गई है, लेकिन वह आरंभ में जैसी थी वैसी अब नहीं रही। मनुष्य की आँखों से लेकर उसकी सोच तक, और उसके दिल की गहराई तक, उसमें परमेश्वर के विरुद्ध प्रतिरोध और धोखा भरा हुआ है; मनुष्य की आँखों से लेकर उसकी सोच तक, और उसके दिल की गहराई तक, उनमें से शैतान के स्वभाव से कम कुछ भी नहीं निकलता। कट्टरता, अहंकार, कपट, धूर्तता, और सत्य से विमुख होने के मनुष्य के शैतानी स्वभाव उसकी दृष्टि और उसकी अभिव्यक्तियों से एक समान रूप से, बिना किसी छिपाव के स्वाभाविक रूप से बाहर आते हैं। परमेश्वर के वचनों से सामना होने पर, या परमेश्वर से आमने-सामने होने पर, मनुष्य का भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव और उसका शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया सार, इसी तरह बिना किसी छिपाव के बाहर आता है। इस तथ्य का आविर्भाव परमेश्वर को क्या महसूस करवाता है, इसे केवल एक ही वाक्यांश जाहिर कर पाता है और वह है “देखने में बहुत दुखदायी।” जो मानवजाति आज तक पहुँच गई है और इस काल तक आ गई है, वह परमेश्वर के कार्य के तृतीय और अंतिम चरण की अपेक्षाओं के स्तर पर पहुँच गई है, जो कि मानवजाति के उद्धार का स्तर है, मनुष्य के वृहद् माहौल के संदर्भ में ही नहीं, लोग स्वयं को जिन स्थितियों और हालात में पाते हैं उनके हर विशिष्ट पहलू के संदर्भ में भी—लेकिन भले ही परमेश्वर इस मानवजाति को लेकर बहुत आशान्वित हो, वह उनके प्रति घृणा से भी भरा हुआ है। बेशक, परमेश्वर मानवजाति की भ्रष्टता की एक के बाद एक घटना देखकर अभी भी महसूस करता है कि उसे देखना बहुत दुखदायी है। फिर भी जो बात उत्सव-योग्य है वह यह है कि परमेश्वर को अब मनुष्य की ओर से अर्थहीन धैर्य रखने और अर्थहीन प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है। उसे वह कार्य करने की जरूरत है जिसके लिए उसने छह हजार वर्ष तक प्रतीक्षा की है, उसने छह हजार वर्षों से जिसकी आशा की है, और छह हजार वर्ष तक उसने जिसकी राह देखी है : अपने वचन, अपने स्वभाव और प्रत्येक सत्य को व्यक्त करने की। बेशक, इसका अर्थ यह भी है कि परमेश्वर द्वारा चुनी गई इस मानवजाति के बीच, लोगों के एक समूह का उदय होगा जिसकी परमेश्वर ने लंबे समय से प्रतीक्षा की है, जो सभी चीजों के संचालक और सभी चीजों के स्वामी बनेंगे। स्थिति को पूर्णता में देखें, तो अब तक सभी चीजें उससे बहुत दूर भटक गई हैं जो कि अपेक्षित था; सब-कुछ बहुत पीड़ादायक और दुखदायी रहा है। लेकिन जो परमेश्वर की खुशी के योग्य है वह यह है कि समय के साथ और भिन्न युग के चलते, मानवजाति के शैतान की भ्रष्टता के अधीन होने के दिन लद चुके हैं। मानवजाति व्यवस्था के बपतिस्मा और परमेश्वर के छुटकारे का अनुभव कर चुकी है; अंततः वह परमेश्वर के कार्य के अंतिम चरण में पहुँच चुकी है : वह चरण जिसमें परमेश्वर की ताड़ना और न्याय और उसकी जीत की स्वीकृति के अंतिम परिणाम के रूप में मानवजाति बचाई जाएगी। मानवजाति के लिए यह बेशक एक बहुत बड़ी खबर है, और परमेश्वर के लिए यह निश्चित रूप से एक ऐसी चीज है जो लंबे समय से आने को थी। किसी भी दृष्टि से देखने पर, यह पूरी मानवजाति के महानतम काल का आगमन है। मानवजाति की भ्रष्टता की दृष्टि से देखें या संसार की प्रवृत्तियों, सामाजिक संरचनाओं, मानवजाति की राजनीति या संपूर्ण विश्व के संसाधनों, या वर्तमान आपदाओं की दृष्टि से देखें, मानवजाति का परिणाम समीप है—यह मानवजाति अंतिम सीमा पर पहुँच गई है। यह परमेश्वर के कार्य का चरम समय है, वह समय जो मनुष्य की स्मृति और उत्सव के सबसे योग्य है, और बेशक, यह सबसे महत्वपूर्ण और अहम समय का आगमन भी है, वह समय, जब परमेश्वर की प्रबंधन योजना पर परमेश्वर के छह हजार वर्षों के कार्य में मानवजाति की नियति का निर्णय होता है। इसलिए मानवजाति के साथ जो कुछ भी घटा हो, और जितने भी लंबे समय तक परमेश्वर ने प्रतीक्षा की हो, धैर्य रखा हो, ये सब इस योग्य ही था।
आओ हम उस विषय पर वापस चलें, जिस पर हमने चर्चा करने का तय किया था, “मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए।” मानवजाति के बीच परमेश्वर की प्रबंधन योजना कार्य के तीन चरणों में विभाजित है। उसने पहले दो चरण पहले ही पूरे कर लिए हैं। उन दो चरणों पर आज तक गौर करें, तो व्यवस्था हो या आज्ञाएँ, मनुष्य के लिए उनकी उपयोगिता बस इतनी थी कि वे मनुष्य से व्यवस्था, आज्ञाओं और परमेश्वर के नाम को कायम रखवाएँ और उनके दिल की कोटरिकाओं में आस्था बनाए रखें, मनुष्य से थोड़ा अच्छा व्यवहार करवाएँ और कुछ अच्छे नीति-सूत्रों को कायम रखवाएँ। मनुष्य आधारभूत रूप से परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानक यानी सभी चीजों का संचालक और सभी चीजों का मुखिया बनने के मानक पर खरा नहीं उतर पाता। क्या ऐसा नहीं है? वह आधारभूत रूप से इस पर खरा नहीं उतरता। यदि व्यवस्था और अनुग्रह के युग से गुजर चुके मनुष्य से वह करवाया जाए जिसकी परमेश्वर उनसे अपेक्षा करता है, तो वह इन सभी चीजों से केवल अनुग्रह के युग में उसे दिए गए व्यवस्था के साधनों या अनुग्रह और आशीषों के जरिये ही जुड़ पाएगा। यह परमेश्वर की उस अपेक्षा से बहुत कम है कि मनुष्य को सभी चीजों का संचालक होना चाहिए, और मानवजाति उन चीजों को पूरा नहीं कर पाती जिनकी परमेश्वर उससे अपेक्षा करता है और उस जिम्मेदारी और कर्तव्य में पीछे रह जाती है जो परमेश्वर उससे पूरी करने की अपेक्षा करता है। मनुष्य परमेश्वर की इस अपेक्षा के मानक को बिल्कुल पूरा नहीं कर सकता या उन पर खरा नहीं उतर सकता कि उसे सभी चीजों का मुखिया होना चाहिए और अगले युग का मुखिया होना चाहिए। इसलिए, अपने कार्य के अंतिम चरण में, परमेश्वर मानवजाति के लिए जरूरी वे समस्त सत्य और अभ्यास के वे सभी सिद्धांत उनके सभी आयामों में व्यक्त कर मनुष्य को बताता है, ताकि मनुष्य जान सके कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के मानक क्या हैं, उसे सभी चीजों से कैसा व्यवहार करना चाहिए, सभी चीजों को किस तरह से लेना चाहिए, सभी चीजों का संचालक कैसे बनना चाहिए, उसके अस्तित्व का ढंग क्या होना चाहिए, और उसे परमेश्वर के समक्ष, सृजनकर्ता के प्रभुत्व के अधीन मौजूद सच्चा सृजित प्राणी बनकर किस ढंग से रहना चाहिए। एक बार ये चीजें समझ लेने के बाद मनुष्य यह भी जान लेता है कि परमेश्वर की उससे क्या अपेक्षाएँ हैं; एक बार इन चीजों को पूरा कर लेने पर, वह परमेश्वर की उससे अपेक्षाओं के मानक भी पूरे कर चुका होगा। यह देखते हुए कि व्यवस्था, आज्ञाएँ, और व्यवहार के सरल मानदंड सत्य के पर्याय नहीं हैं, परमेश्वर अंत के दिनों में अनेक वचन और सत्य व्यक्त करता है जो मनुष्य के अभ्यास, उसके आचरण और कार्य, और लोगों व चीजों के बारे में उसके विचारों से संबंधित हैं। परमेश्वर मनुष्य को बताता है कि लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखे, और कैसा आचरण और कार्य करे। परमेश्वर के मनुष्य को ये सब बताने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है कि तुम इन सत्यों के अनुसार लोगों और चीजों को देखो, और आचरण और कार्य करो, और इस तरह इस दुनिया में रहो। तुम चाहे जो कर्तव्य निभाओ या परमेश्वर से कोई भी आदेश स्वीकार करो, तुमसे उसकी अपेक्षाएँ नहीं बदलतीं। एक बार परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझ लेने के बाद, वह तुम्हारे साथ हो या न हो या वह तुम्हारी जाँच कर रहा हो या न कर रहा हो, तुम्हें उसकी अपेक्षाओं की अपनी समझ के अनुसार अभ्यास करना होगा, अपना कर्तव्य निभाना होगा, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए आदेश पूरे करने होंगे। केवल इसी प्रकार से तुम सचमुच उन सभी चीजों के मुखिया बन पाओगे, जिनसे परमेश्वर आश्वस्त है, और वह व्यक्ति बनोगे जो योग्य और उसके आदेशों के लायक है। क्या यह इस विषय को स्पर्श नहीं करता कि मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए? (करता है।) क्या तुम सब अब समझ गए हो? यही तथ्य हैं, जो परमेश्वर सामने लाएगा। इसलिए, सत्य का अनुसरण करना सिर्फ अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर देना और परमेश्वर का प्रतिरोध न करना ही नहीं है। हम जिस सत्य के अनुसरण की बात कर रहे हैं उसकी महत्ता और मूल्य कहीं अधिक है। सही मायनों में, यह मनुष्य की मंजिल और उसकी नियति से जुड़ा हुआ है। क्या तुम समझे? (हाँ।) मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए? सीमित अर्थ में, इसके बारे में मनुष्य की समझ आने वाले अत्यंत बुनियादी धर्म-सिद्धांत बताते हैं। विराट अर्थ में, सबसे पहला कारण यह है कि परमेश्वर के लिए सत्य का अनुसरण, उसके प्रबंधन, मानवजाति से उसकी अपेक्षाओं और मानवजाति को सौंपी गई उसकी आशाओं से जुड़ा हुआ है। यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना का एक हिस्सा है। इसमें यह देखा जा सकता है कि तुम जो भी हो, और तुमने जितने भी लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते या उससे प्रेम नहीं करते, तो तुम अनिवार्यतः ऐसे बन जाओगे जिसे हटाया जाना है। यह बात दिन की तरह साफ है। परमेश्वर तीन चरणों का कार्य करता है; मानवजाति का सृजन करने के बाद से उसकी एक प्रबंधन योजना रही है, और एक-एक करके वह इन चरणों को मानवजाति में प्रभावी करता गया है, और मानवजाति को कदम-दर-कदम बढ़ाते हुए आज तक ले आया। अपने द्वारा व्यक्त किए गए सत्य और मानवजाति को बताई हुई अपनी अपेक्षाओं के मानदंडों के हर आयाम को मनुष्य में गढ़ने के अंतिम लक्ष्य को पाने के लिए परमेश्वर ने श्रमसाध्य प्रयास किए, बहुत बड़ी कीमत चुकाई, और बड़े लंबे समय तक कष्ट सहे और उन्हें मनुष्य के जीवन और वास्तविकता में तब्दील किया। परमेश्वर की दृष्टि में यह एक अति महत्वपूर्ण मामला है। परमेश्वर इसे बहुत अहम मानता है। परमेश्वर ने अनेक वचन व्यक्त किए हैं, और इससे पहले उसने बहुत अधिक तैयारी की है। यदि अंत में, उसके व्यक्त करने के बाद, तुम इन वचनों का अनुसरण न करो, या अब इनमें प्रवेश न करो, तो परमेश्वर तुम्हें किस दृष्टि से देखेगा? परमेश्वर तुम्हें किस प्रकार की कार्य-परिभाषा देगा? यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है। इसलिए हर व्यक्ति को सत्य का अनुसरण करने के मार्ग की ओर प्रयास करने चाहिए, भले ही तुम्हारी क्षमता या उम्र कितनी भी हो, या परमेश्वर में विश्वास किए हुए कितने भी साल हुए हों। तुम्हें किसी भी वस्तुगत तर्क पर जोर नहीं देना चाहिए; तुम्हें बिना शर्त सत्य का अनुसरण करना चाहिए। अपने दिन यूँ ही न गँवाओ। अगर तुम सत्य को खोजने और उसके अनुसरण के प्रयासों को अपने जीवन का प्रधान मामला बना लो, तो शायद अनुसरण से तुम जो सत्य पाओ और जिस सत्य तक तुम पहुँचो, वह तुम्हारी इच्छा के अनुसार न हो। लेकिन अगर परमेश्वर कहता है कि वह अनुसरण में तुम्हारे रवैये और ईमानदारी के आधार पर तुम्हें एक उचित मंजिल देगा, तो यह कितनी अद्भुत बात रहेगी! अभी के लिए, इस बात पर ध्यान केंद्रित मत करो कि तुम्हारी मंजिल या परिणाम क्या होगा, या भविष्य में क्या होगा और क्या बदा है, या क्या तुम विपत्ति से बचकर प्राण न गँवाने में सक्षम रहोगे—इन चीजों के बारे में मत सोचो, न इनकी माँग करो। केवल परमेश्वर के वचनों और उसकी अपेक्षाओं में सत्य का अनुसरण करने, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने और परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करने पर ध्यान केंद्रित करो, जिससे कि तुम परमेश्वर की छह हजार वर्षों की प्रतीक्षा और छह हजार वर्षों की आशा के अयोग्य सिद्ध नहीं होगे। परमेश्वर को थोड़ा सुकून दो; उसे देखने दो कि तुमसे थोड़ी आशा है और स्वयं में उसकी इच्छाएँ साकार होने दो। मुझे बताओ, अगर तुम ऐसा करोगे तो क्या परमेश्वर तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव करेगा? बिल्कुल भी नहीं! और भले ही अंतिम परिणाम व्यक्ति की कामना के अनुरूप न हों, उसे एक सृजित प्राणी की तरह इस तथ्य से कैसे पेश आना चाहिए? उसे बिना किसी निजी योजना के हर चीज में परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। क्या सृजित प्राणियों का नजरिया ऐसा नहीं होना चाहिए? (बिल्कुल।) यही सही मानसिकता है। इसी के साथ, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए, इसके मुख्य विषय पर हम अपनी संगति समाप्त करते हैं।
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