सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (9) भाग तीन
हमने अभी-अभी कहा कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” कहावत मानवजाति के नैतिक आचरण पर थोपी गई एक अपेक्षा है। हमने इस कहावत से जुड़ी कुछ समस्याओं और इसके मानवजाति पर पड़े कुछ प्रभावों का भी विश्लेषण किया है। इसने मानवजाति के लिए कुछ अस्वस्थ विचार और दृष्टिकोण पेश किए हैं, और लोगों के अनुसरणों और अस्तित्व पर कुछ ऐसे नकारात्मक प्रभाव डाले हैं जिनसे लोगों को अवगत होना चाहिए। तो, विश्वासियों को मानवता में उदारता और व्यापक सोच की समस्याओं को कैसे समझना चाहिए? व्यक्ति इन्हें परमेश्वर से एक सही और सकारात्मक तरीके से कैसे समझ सकता है? क्या यह बात भी नहीं समझनी चाहिए? (समझनी चाहिए।) इन चीजों को समझना वास्तव में कठिन नहीं है। तुम्हें न कोई अनुमान लगाने की जरूरत है, न ही कोई जानकारी खोजने की जरूरत है। परमेश्वर ने जो कुछ कहा है और लोगों के बीच जो कार्य किया है, उससे, और परमेश्वर के स्वभाव से, जो उन विभिन्न तरीकों में दिखाया गया है जिनसे वह तमाम तरह के लोगों के साथ व्यवहार करता है, सीखकर हम जान सकते हैं कि परंपरागत संस्कृति की इन कहावतों और विचारों पर परमेश्वर की ठीक-ठीक क्या राय है और उसके ठीक-ठीक क्या इरादे हैं। परमेश्वर के इरादों और विचारों पर नजर डालकर लोगों को सत्य के अनुसरण का मार्ग मिल जाना चाहिए। कहावत “मारने से कोई फायदा नहीं होता” जिसका लोग पालन करते हैं, अर्थ यह होता है कि जब किसी व्यक्ति का सिर काटकर जमीन पर गिरा दिया जाता है तो यह मामला यहीं खत्म हो जाता है और इसे आगे नहीं बढ़ाना चाहिए। क्या यह एक प्रकार का दृष्टिकोण नहीं है? क्या यह एक ऐसा दृष्टिकोण नहीं है जिसे आम तौर पर लोगों के बीच रखा जाता है? इसका अर्थ है कि जब व्यक्ति के भौतिक जीवन का अंत आ जाता है तो वह जीवन पूरा और समाप्त हो जाता है। उस व्यक्ति ने अपने जीवन में जितनी भी बुरी चीजें की होती हैं, और जितने भी प्रेम, घृणा, जुनून और शत्रुता का अनुभव किया होता है, वे सब ठीक उसी समय समाप्त घोषित कर दिए जाते हैं और वह जीवन समाप्त मान लिया जाता है। लोग इस पर विश्वास करते हैं, लेकिन परमेश्वर के वचनों को और परमेश्वर के कार्यों के विभिन्न संकेतों को देखने से क्या यह परमेश्वर के कार्यों का सिद्धांत है? (नहीं।) तो परमेश्वर के कार्यों का क्या सिद्धांत है? परमेश्वर किस आधार पर ऐसे काम करता है? कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर ऐसे काम अपने प्रशासनिक आदेशों के आधार पर करता है, जो सही है, लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है। एक ओर, यह उसके प्रशासनिक आदेशों के अनुसार होता है, लेकिन दूसरी ओर, वह सभी तरह के लोगों के साथ अपने स्वभाव और सार के आधार पर व्यवहार करता है—यही पूरी तस्वीर है। परमेश्वर की दृष्टि में अगर कोई व्यक्ति मारा जाता है और उसका सिर भूमि पर गिर जाता है तो क्या उस व्यक्ति का जीवन समाप्त हो जाता है? (नहीं।) तो फिर परमेश्वर किसी व्यक्ति के जीवन का अंत किस तरह करता है? क्या परमेश्वर किसी व्यक्ति के साथ इस तरह व्यवहार करता है? (नहीं।) किसी भी व्यक्ति के साथ व्यवहार करने का परमेश्वर का तरीका सिर्फ उसका सिर काटकर उसे मार देना और मामला खत्म करना नहीं है। परमेश्वर के मानवजाति के साथ व्यवहार करने का एक आरंभ और एक अंत होता है, एक सुसंगतता और एक दृढ़ता होती है। आत्मा के मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेने से लेकर मनुष्य का भौतिक जीवन समाप्त होने के बाद आध्यात्मिक क्षेत्र में लौटने तक, वह चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र में हो या भौतिक दुनिया में, वह जिस भी मार्ग का अनुसरण करती हो, वह परमेश्वर के प्रबंधन के अधीन होनी चाहिए। अंत में, उसे पुरस्कृत किया जाता है या दंडित, यह परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों पर निर्भर करता है, और इसके स्वर्गिक नियम भी हैं। अर्थात परमेश्वर किसी व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह पूरे जीवन की नियति पर निर्भर करता है जिसे उसने प्रत्येक व्यक्ति के लिए निर्धारित किया है। व्यक्ति की नियति समाप्त होने के बाद उससे बुरे को दंड देने और अच्छे को पुरस्कृत करने के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित व्यवस्था और स्वर्गिक नियमों के आधार पर निपटा जाता है। अगर इस व्यक्ति ने संसार में काफी बुराई की है तो इसे काफी दंड भुगतना होगा; अगर इस व्यक्ति ने ज्यादा बुराई नहीं की है और कुछ अच्छे कर्म भी किए हैं तो इसे पुरस्कार दिया जाना चाहिए। वह पुनर्जन्म लेते रह सकता है या नहीं और वह मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेता है या पशु के रूप में, यह इस जीवन में उसके प्रदर्शन पर निर्भर करता है। मैं क्यों इन चीजों के बारे में संगति कर रहा हूँ? क्योंकि “मारने से कोई फायदा नहीं होता” कहावत के साथ एक और वाक्यांश जुड़ा है, “जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” परमेश्वर के बोलने या कार्य करने के ऐसे कोई तरीके नहीं हैं, जो चीजों की गंभीरता घटाने का सिद्धांतहीन प्रयास करते हों। परमेश्वर के कार्य उस तरीके से प्रकट होते हैं, जिससे वह किसी भी सृजित प्राणी के साथ शुरू से अंत तक व्यवहार करता है, जो लोगों को स्पष्ट रूप से यह देखने में सक्षम बनाता है कि यह परमेश्वर ही है जो मनुष्यों की नियति पर संप्रभुता रखता है, उसका आयोजन और व्यवस्था करता है, और फिर, जहाँ उचित हो वहाँ दंड देते हुए व्यक्ति के व्यवहार के अनुसार बुरे को दंडित और भले को पुरस्कृत करता है। परमेश्वर ने जो निर्धारित किया है, उसके अनुसार व्यक्ति को कितने ही वर्षों और कितने ही पुनर्जन्मों के लिए दंडित किया जाना चाहिए, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसने कितनी बुराइयाँ की हैं, और आध्यात्मिक क्षेत्र इसे स्थापित नियमों के अनुसार, बिना जरा-से भी विचलन के, लागू करती है। कोई भी इसे बदल नहीं सकता, और जो कोई ऐसा करता है, वह परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्वर्गिक नियमों का उल्लंघन करता है, और उसे बिना किसी अपवाद के दंडित किया जाएगा। परमेश्वर की दृष्टि में, इन स्वर्गिक नियमों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि किसी भी व्यक्ति से, चाहे उसने जो भी बुराई की हो या जिन भी स्वर्गिक नियमों और कानूनों का उल्लंघन किया हो, अंततः बिना किसी रियायत के निपटा जाएगा। दुनिया के कानूनों के विपरीत—जहाँ सज़ाएँ निलंबित रहती हैं, या कोई बीच-बचाव कर सकता है, या न्यायाधीश अपने रुझानों के अनुसार और जहाँ कहीं संभव हो, उदार होकर दयालुता बरत सकता है, ताकि व्यक्ति को अपराध के लिए दोषी न ठहराया जाए और तदनुसार दंडित न किया जाए—आध्यात्मिक क्षेत्र में चीजें इस तरह से काम नहीं करतीं। परमेश्वर प्रत्येक सृजित प्राणी के पिछले और वर्तमान जीवन के साथ सख्ती से उन नियमों के अनुसार व्यवहार करेगा, जिन्हें उसने स्थापित किया है, अर्थात, स्वर्ग के नियमों के अनुसार। इससे फर्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति के अपराध कितने गंभीर या गौण हैं, या उसके अच्छे कर्म कितने महान या क्षुद्र हैं, और उस व्यक्ति के अपराध या सत्कर्म कितने समय से चल रहे हैं या वे कितने समय पहले किए गए हैं। इनमें से कोई भी उस तरीके को नहीं बदलता, जिससे सृष्टि का परमेश्वर स्वयं द्वारा सृजित मनुष्यों के साथ व्यवहार करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि परमेश्वर द्वारा बनाए गए स्वर्गिक नियम कभी नहीं बदलेंगे। परमेश्वर के कार्यों और उसके कार्य करने के तरीके के पीछे यही सिद्धांत है। जबसे मनुष्य अस्तित्व में आए और परमेश्वर ने उनके बीच कार्य करना शुरू किया, तब से उसके बनाए प्रशासनिक आदेश अर्थात् स्वर्ग के नियम नहीं बदले। इसलिए, अंततः परमेश्वर के पास मनुष्य के अपराधों, अच्छे कर्मों और सभी प्रकार के बुरे कर्मों से निपटने के तरीके होंगे। सभी सृजित प्राणियों को अपने कार्यों और व्यवहार की उचित कीमत चुकानी होगी। लेकिन परमेश्वर प्रत्येक सृजित प्राणी को परमेश्वर के प्रति किए गए विद्रोह, उसके बुरे कर्मों और उसके पिछले अपराधों के कारण दंडित करता है, इसलिए नहीं कि परमेश्वर लोगों से घृणा करता है। परमेश्वर मानवजाति का सदस्य नहीं है। परमेश्वर परमेश्वर है, सृष्टि का प्रभु है। सभी सृजित प्राणियों को इसलिए दंडित नहीं किया जाता कि सृष्टि का प्रभु लोगों से घृणा करता है, बल्कि इसलिए किया जाता है कि उन्होंने परमेश्वर द्वारा स्थापित स्वर्गिक नियमों-विनियमों, कानूनों और आज्ञाओं का उल्लंघन किया है, और इस सच्चाई को कोई नहीं बदल सकता। इस दृष्टिकोण से परमेश्वर की नजरों में “जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” जैसी कोई चीज कभी नहीं होती। हो सकता है, तुम लोग पूरी तरह से समझ न पाओ कि मैं क्या कह रहा हूँ, लेकिन कुछ भी हो, अंतिम उद्देश्य तुम लोगों को यह बताना है कि परमेश्वर के दिल में कोई घृणा नहीं है, बल्कि सिर्फ स्वर्ग के नियम, प्रशासनिक आदेश, कानून, उसका स्वभाव, और उसका कोप और प्रताप है, जो कोई अपराध सहन नहीं करता। इसलिए, परमेश्वर की नजरों में “जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” जैसी कोई चीज नहीं है। तुम्हें जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनने की अपेक्षा से परमेश्वर को नहीं मापना चाहिए, और न ही परमेश्वर को इस अपेक्षा की कसौटी पर जाँचना चाहिए। “परमेश्वर को इस अपेक्षा की कसौटी पर जाँचने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि कभी-कभी जब परमेश्वर लोगों को दया और सहनशीलता दिखाता है, तो कुछ लोग कहते हैं, “देखो, परमेश्वर अच्छा है, परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है, वह जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार होता है, वह मनुष्यों के प्रति वास्तव में सहिष्णु है, परमेश्वर सबसे ज्यादा उदारमना है, उसका मन इंसानों के मन से कहीं ज्यादा बड़ा है, यहाँ तक कि प्रधानमंत्रियों के मन से भी बड़ा!” क्या ऐसा कहना सही है? (नहीं।) अगर तुम इस तरह से परमेश्वर की स्तुति करते हो, तो क्या यह कहना उचित है? (नहीं, यह अनुचित है।) बोलने का यह तरीका गलत है और इसे परमेश्वर पर लागू नहीं किया जा सकता। मनुष्य अपनी उदारता और सहनशीलता दिखाने के लिए, और यह दिखावा करने के लिए कि वे सहिष्णु और उदार, और महान गुणों वाले व्यक्ति हैं, जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार होने का प्रयास करते हैं। जहाँ तक परमेश्वर की बात है, परमेश्वर के सार में दया और सहनशीलता है। दया और सहनशीलता परमेश्वर का सार है। लेकिन परमेश्वर का सार उस उदारता और सहनशीलता के समान नहीं है, जिसे मनुष्य जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार होकर दिखाते हैं। ये दो अलग चीजें हैं। जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार होने में मनुष्यों का उद्देश्य लोगों से अपने बारे में अच्छी बातें कहलवाना है, उनसे यह सुनना है कि उनमें उदारता और अनुग्रह है, और वे अच्छे इंसान हैं। इसके अलावा, यह अस्तित्व के लिए सामाजिक दबावों के कारण भी है। लोग किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही दूसरों के प्रति थोड़ी-सी उदारता और थोड़ी-सी व्यापक सोच दिखाते हैं, वे अंतरात्मा के मापदंड के मुताबिक चलने या उसका पालन करने के लिए नहीं, बल्कि लोगों से अपना आदर और आराधना करवाने के लिए ऐसा करते हैं, या इसलिए कि यह किसी गुप्त उद्देश्य या छल-प्रपंच का हिस्सा होता है। उनके कार्यों में पवित्रता नहीं होती। तो क्या परमेश्वर जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार होने जैसे कार्य करता है? परमेश्वर ऐसे कार्य नहीं करता। कुछ लोग कहते हैं, “क्या परमेश्वर भी लोगों के प्रति उदारता नहीं दिखाता? तो जब वह ऐसा करता है तो क्या वह जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार नहीं होता?” नहीं, यहाँ एक फर्क है जिसे लोगों को समझना चाहिए। ऐसा क्या है जिसे लोगों को समझना चाहिए? वह यह है कि जब लोग “जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनें” कहावत लागू करते हैं, तो वे इसे सिद्धांतों के बिना करते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं कि वे सामाजिक दबावों और जनमत के आगे घुटने टेक रहे होते हैं और यह दिखावा कर रहे होते हैं कि वे अच्छे लोग हैं। इन्हीं नापाक मकसदों से और भले आदमी होने का दिखावा करने के लिए पाखंड का मुखौटा पहनकर लोग अनिच्छा से ऐसा करते हैं। या शायद वे परिस्थितियों से मजबूर होते हैं और बदला लेना चाहते हैं पर ले नहीं पाते, और इस स्थिति में जहाँ कोई अन्य विकल्प नहीं होता, वे अनिच्छा से इस सिद्धांत का पालन करते हैं। यह उनके आंतरिक सार के उद्गार से नहीं आता। जो लोग ऐसा कर सकते हैं, वे वास्तव में अच्छे लोग नहीं हैं या ऐसे लोग नहीं हैं जो वास्तव में सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। तो लोगों के प्रति परमेश्वर के सहिष्णु और दयालु होने और “जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनें” कहावत अमल में लाने वाले लोगों के बीच क्या अंतर है? तुम्हीं बताओ, क्या अंतर हैं। (परमेश्वर जो करता है, उसके सिद्धांत होते हैं। उदाहरण के लिए, नीनवे के लोगों ने वास्तव में पश्चात्ताप करने के बाद परमेश्वर की सहनशीलता पाई। इससे हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के कार्यों के सिद्धांत होते हैं, और हम यह भी देख सकते हैं कि परमेश्वर के सार में लोगों के प्रति दया और सहिष्णुता है।) सही कहा। यहाँ दो मुख्य अंतर हैं। जिस बिंदु का तुम लोगों ने अभी उल्लेख किया, वह महत्वपूर्ण है, जो यह है कि परमेश्वर जो करता है उसके सिद्धांत होते हैं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसकी एक स्पष्ट सीमा और दायरा होता है, और यह सीमा और दायरा ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोग समझ सकते हैं। यानी, परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसके कुछ निश्चित सिद्धांत होते हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के अपराधों के लिए उनके प्रति उदारता दिखाई। जब नीनवे के लोगों ने अपनी बुराई छोड़ दी और वास्तव में पश्चात्ताप किया तो परमेश्वर ने उन्हें क्षमा कर दिया और वादा किया कि वह शहर को नष्ट नहीं करेगा। परमेश्वर के कार्यों के पीछे यही सिद्धांत था। इस सिद्धांत को यहाँ किस रूप में समझा जा सकता है? यह सबसे महत्वपूर्ण बात थी। मनुष्यों की समझ और बोलने के तरीके के अनुसार, यह कहा जा सकता है कि यह परमेश्वर की सबसे महत्वपूर्ण बात थी। अगर नीनवे के लोगों ने बुराई में लिप्त होना छोड़ दिया और पाप में जीना और परमेश्वर को त्यागना बंद कर दिया, जैसा कि उन्होंने एक बार किया था, और वास्तव में परमेश्वर के आगे पश्चात्ताप करने में सक्षम रहे, तो यह सच्चा पश्चात्ताप परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई आधार-रेखा थी। अगर वे सच्चा पश्चात्ताप कर पाते, तो परमेश्वर उनके साथ उदार होता। इसके विपरीत, अगर वे सच्चा पश्चात्ताप करने में विफल रहते, तो क्या परमेश्वर ने पुनर्विचार किया होता? क्या इस शहर को नष्ट करने का परमेश्वर का पिछला निर्णय और योजना बदल गई होती? (नहीं।) परमेश्वर ने उन्हें दो विकल्प दिए : पहला था अपने बुरे तरीकों पर चलते रहना और तबाही झेलना, जिस स्थिति में पूरा शहर मिटा दिया जाता; दूसरा था अपनी बुराई छोड़ देना, टाट ओढ़कर और राख मलकर उसके सामने सच में पश्चात्ताप करना, और अपने हृदय की गहराई से उसके सामने अपने पाप स्वीकारना, उस स्थिति में वह उनके साथ नरमी बरतता, और चाहे अतीत में उन्होंने जो भी बुराई की हो या उनकी बुराई कितनी भी गंभीर रही हो, वह उनके पश्चात्ताप के कारण शहर नष्ट न करने का मन बना लेता। परमेश्वर ने उन्हें दो विकल्प दिए, और पहला विकल्प चुनने के बजाय उन्होंने दूसरा विकल्प चुना—टाट ओढ़कर और राख मलकर परमेश्वर के सामने सच्चा पश्चात्ताप करने का विकल्प। अंतिम परिणाम क्या रहा? वे परमेश्वर का मन बदलवाने में सफल हुए, अर्थात उससे अपनी योजनाओं पर पुनर्विचार कर उन्हें बदलवाने, उनके प्रति उदारता दिखवाने और शहर को नष्ट करने से रुकवाने में कामयाब रहे। क्या यह वह सिद्धांत नहीं है, जिसके जरिये परमेश्वर कार्य करता है? (हाँ।) यही वह सिद्धांत है, जिसके जरिये परमेश्वर कार्य करता है। इसके अलावा, एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि परमेश्वर के सार में प्रेम और दया है, लेकिन निश्चित रूप से मनुष्य के अपराधों और क्रोध के प्रति असहिष्णुता भी है। नीनवे के आसन्न विनाश के मामले में, परमेश्वर के सार के ये दोनों पहलू प्रकट हुए थे। जब परमेश्वर ने उन लोगों के बुरे कर्म देखे, तो परमेश्वर के कोप का सार अभिव्यक्त होकर प्रकट हो गया। क्या परमेश्वर के क्रोध का कोई सिद्धांत है? (बिल्कुल है।) सरल शब्दों में कहें तो, वह सिद्धांत यह है कि परमेश्वर के क्रोध का एक आधार है। यह अंधाधुंध क्रोधित या कुपित होना नहीं है, यह एक प्रकार की भावना तो बिल्कुल भी नहीं है। बल्कि यह एक स्वभाव है, जो एक निश्चित संदर्भ में उत्पन्न और स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है। परमेश्वर का कोप और प्रताप कोई अपमान सहन नहीं करता। इंसानी भाषा में, इसका अर्थ यह है कि जब परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के बुरे कर्म देखे, तो वह क्रोधित और कुपित हो गया। सटीक रूप से कहें तो परमेश्वर इसलिए क्रोधित था, क्योंकि उसका एक पक्ष लोगों के अपराधों के प्रति असहिष्णु होने का है, इसलिए लोगों के बुरे कर्म और नकारात्मक चीजें घटित होते और उभरते देखकर परमेश्वर स्वाभाविक रूप से अपना कोप प्रकट करेगा। तो, अगर परमेश्वर का कोप प्रकट होता तो क्या वह तुरंत शहर को नष्ट कर देता? (नहीं।) इस तरह तुम देख सकते हो कि परमेश्वर जो करता है, उसके सिद्धांत हैं। ऐसा नहीं है कि जब परमेश्वर क्रोधित हो जाता है, तो कहता है, “मेरे पास अधिकार है, मैं तुम्हें नष्ट कर दूँगा! चाहे तुम्हारी जो भी स्थिति हो, मैं तुम्हें मौका नहीं दूँगा!” ऐसा नहीं है। परमेश्वर ने क्या चीजें कीं? परमेश्वर ने चीजों की एक शृंखला की। लोगों को उनकी व्याख्या कैसे करनी चाहिए? परमेश्वर द्वारा की गई तमाम चीजों की शृंखला परमेश्वर के स्वभाव पर आधारित है। वे विशुद्ध रूप से उसके कोप के आधार पर उत्पन्न नहीं हुई थीं। कहने का तात्पर्य यह है कि, परमेश्वर का कोप उतावलापन नहीं है। यह मनुष्यों के उतावलेपन की तरह नहीं है, जो आवेश में आकर कहते हैं, “मेरे पास ताकत है, मैं तुम्हें मार डालूँगा, मैं तुम्हें ठीक कर दूँगा,” या जैसा बड़ा लाल अजगर कहता है, “अगर मैंने तुम्हें पकड़ लिया, तो मैं तुम्हें मार डालूँगा और बिना परेशानी के तुम्हें मौत के घाट उतार दूँगा।” शैतान और दुष्ट इसी तरह से काम करते हैं। उतावलापन शैतान और दुष्टों से आता है। परमेश्वर के क्रोध में कोई उतावलापन नहीं है। उसमें उतावलापन न होना किस तरह प्रकट होता है? जब परमेश्वर ने देखा कि नीनवे के लोग कितने भ्रष्ट हैं तो वह क्रोधित और कुपित हो गया। लेकिन क्रोधित होने के बावजूद उसने अपने कोप के सार की मौजूदगी के कारण एक भी शब्द कहे बिना उन्हें नष्ट नहीं किया। इसके बजाय उसने योना को नीनवे के लोगों के पास यह बताने के लिए भेजा कि वह आगे क्या करने वाला है, वह क्या और क्यों करने जा रहा है ताकि उन्हें स्पष्ट हो जाए और आशा की एक किरण भी मिल जाए। यह तथ्य मनुष्य को बताता है कि परमेश्वर का कोप नकारात्मक और बुरी चीजें सामने आने के कारण प्रकट होता है, लेकिन उसका कोप मनुष्य के उतावलेपन और मनुष्य की भावनाओं से अलग है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर का कोप मनुष्य के उतावलेपन और भावनाओं से अलग है पर क्या परमेश्वर का कोप नियंत्रणीय है?” नहीं, यहाँ नियंत्रणीय शब्द का उपयोग करना उचित नहीं है, ऐसा कहना उचित नहीं है। सटीक रूप से कहें तो परमेश्वर के कोप के सिद्धांत हैं। अपने कोप में, परमेश्वर ने सिलसिलेवार चीजें कीं जो इस बात को और भी साबित करती हैं कि उसके कार्यों में सत्य और सिद्धांत हैं, और साथ ही मनुष्यजाति को यह भी बताती हैं कि परमेश्वर में कोप के अलावा दया और प्रेम भी हैं। परमेश्वर की दया और प्रेम का निवेश पाकर मनुष्य को क्या लाभ होते हैं? कहने का तात्पर्य यह है कि अगर लोग परमेश्वर के सिखाए तरीके से अपने पाप स्वीकार कर पश्चात्ताप करते हैं तो वे परमेश्वर से जीवन का एक अवसर और बचे रहने की आशा और संभावना प्राप्त कर सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि लोग परमेश्वर की अनुमति से इस शर्त पर जीते रह सकते हैं कि उन्होंने सच में पाप स्वीकार किया है और सच में पश्चात्ताप किया है, तब वे वह वादा प्राप्त करने में सक्षम होंगे जो परमेश्वर उन्हें देता है। क्या कथनों की इस पूरी कड़ी के सिद्धांत नहीं हैं? तुम देखते हो, परमेश्वर द्वारा की जाने वाली हर चीज और हर प्रकार के कार्य के पीछे, इंसानी भाषा में कहें तो एक औचित्य और सतर्कता है, या परमेश्वर के वचनों का उपयोग करें तो सत्य और सिद्धांत हैं। यह मनुष्य के कार्य करने के तरीके से भिन्न है और इसमें मनुष्य के उतावलेपन की मिलावट तो बिल्कुल भी नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर का स्वभाव शांत है और आवेशपूर्ण नहीं है!” क्या यही बात है? नहीं, यह नहीं कहा जा सकता कि परमेश्वर का स्वभाव शांत और संतुलित है, और आवेशपूर्ण नहीं है—यह इसे मापने और वर्णन करने का इंसानी तरीका है। परमेश्वर जो करता है उसके सत्य और सिद्धांत होते हैं। चाहे वह कुछ भी करे, उसका एक आधार होता है, और वह आधार सत्य और परमेश्वर का स्वभाव है।
नीनवे के लोगों से निपटते हुए परमेश्वर ने सिलसिलेवार कई चीजें कीं। पहले, उसने योना को नीनवे के लोगों को यह बताने भेजा, “अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा” (योना 3:4)। क्या चालीस दिन बहुत लंबा समय है? इसमें ठीक एक महीना और दस दिन होते हैं जो काफी लंबा समय है और लोगों के लिए कुछ देर सोच-विचार और सच्चा पश्चात्ताप करने के लिए पर्याप्त है। अगर ये चार घंटे या चार दिन होते तो यह पछताने के लिए पर्याप्त समय न होता। लेकिन परमेश्वर ने चालीस दिन दिए, जो एक बहुत लंबा समय था और काफी ज्यादा था। कोई शहर कितना बड़ा हो सकता है? योना ने शहर के एक छोर से दूसरे छोर तक घूमकर थोड़े ही दिनों में सबको सूचित कर दिया, ताकि हर एक नागरिक और हर एक परिवार को संदेश मिल जाए। ये चालीस दिन टाट या राख तैयार करने और कोई अन्य आवश्यक तैयारी करने के लिए काफी थे। तुम इन चीजों से क्या समझे? परमेश्वर ने नीनवे के लोगों को यह बताने के लिए कि वह उनके शहर को नष्ट करने वाला है, उन्हें तैयारी, चिंतन और आत्म-परीक्षण करने के लिए पर्याप्त समय दिया। इंसानी भाषा में कहें तो परमेश्वर ने वह सब किया जो वह कर सकता था और जो उसे करना चाहिए था। चालीस दिन की अवधि पर्याप्त थी, क्योंकि उसने—राजा से लेकर जनसामान्य तक—सभी को सोचने और तैयार होने के लिए पर्याप्त समय दिया। एक ओर, इससे यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर लोगों के लिए जो करता है वह है सहनशीलता दिखाना, और दूसरी ओर, यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर अपने हृदय में लोगों की परवाह करता है और उनके लिए सच्चा प्रेम रखता है। परमेश्वर की दया और प्रेम वास्तव में मौजूद हैं, बिना किसी ढोंग के, और उसका हृदय विश्वसनीय है, बिना किसी ढोंग के। लोगों को पश्चात्ताप करने का अवसर देने के लिए उसने उन्हें चालीस दिन का समय दिया। उन चालीस दिनों में परमेश्वर की सहनशीलता और प्रेम समाहित था। वे चालीस दिन लोगों को यह साबित करने और पूरी तरह से यह देख पाने के लिए काफी थे कि परमेश्वर को लोगों के प्रति सच्ची चिंता और प्रेम है, और परमेश्वर की दया और प्रेम किसी ढोंग के बिना वास्तव में मौजूद हैं। कुछ लोग कहेंगे, “क्या तुमने पहले नहीं कहा था कि परमेश्वर लोगों से प्रेम नहीं करता, कि वह लोगों से घृणा करता है? क्या वह तुम्हारी अभी कही गई बातों का विरोधाभास नहीं है?” क्या यह विरोधाभास है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) परमेश्वर अपने हृदय में लोगों की परवाह करता है, उसमें प्रेम का सार है। क्या यह कहना अलग है कि परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है? (बिल्कुल।) यह कैसे अलग है? परमेश्वर वास्तव में लोगों से प्रेम करता है या घृणा? (वह लोगों से प्रेम करता है।) तो परमेश्वर फिर भी लोगों को शाप और ताड़ना क्यों देता है, उनका न्याय क्यों करता है? अगर इतनी महत्वपूर्ण बात भी तुम लोगों को स्पष्ट नहीं है, तो फिर तुम लोग इसे गलत समझे होगे। क्या यह तुम्हारे और परमेश्वर के बीच विरोधाभास है? अगर यह ऐसी चीज है जिसके बारे में तुम स्पष्ट नहीं हो, तो क्या तुम्हारे और परमेश्वर के बीच एक खाई पैदा होने की संभावना नहीं है? तुम्हीं बताओ, अगर परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है, तो क्या परमेश्वर लोगों से घृणा भी करता है? क्या लोगों के लिए परमेश्वर के प्रेम का लोगों के प्रति उसकी घृणा पर कोई असर पड़ता है? क्या लोगों के प्रति परमेश्वर की घृणा का लोगों के लिए उसके प्रेम पर कोई असर पड़ता है? (नहीं, कोई असर नहीं पड़ता।) तो ऐसा क्यों है कि परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है? लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर देहधारी हुआ—क्या यह उसका सबसे बड़ा प्रेम नहीं है? अगर तुम लोग यह नहीं जानते, तो कितनी दयनीय बात है! अगर तुम यह भी नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों से प्रेम क्यों करता है, तो यह हास्यास्पद है। तुम्हीं बताओ, अपने बच्चे के लिए माँ के मन में प्रेम कहाँ से उपजता है? (सहज प्रवृत्ति से।) सही कहा। ममता सहज प्रवृत्ति से उपजती है। तो क्या यह प्रेम इस बात पर आधारित होता है कि बच्चा अच्छा है या बुरा? (नहीं, ऐसा नहीं है।) उदाहरण के लिए, भले ही बच्चा बहुत शरारती हो और कभी-कभी अपनी माँ को बहुत गुस्सा दिला देता हो, फिर भी अंततः वह उससे प्रेम करती है। ऐसा क्यों होता है? जिस तरह से वह अपने बच्चे के साथ व्यवहार करती है, वह माँ के रूप में उसकी भूमिका की सहज प्रवृत्ति से उपजता है। उसकी इस सहज ममता के कारण बच्चे के लिए उसका प्रेम इस बात पर आधारित नहीं होता कि बच्चा अच्छा है या बुरा। कुछ लोग कहते हैं, “जब माँ अपने बच्चे से सहज प्रवृत्ति से प्रेम करती है, तो फिर वह उसे पीटती क्यों है? उससे नफरत क्यों करती है? कभी-कभी गुस्सा होकर उसे डाँटती क्यों है? और कभी-कभी वह इतनी पगला जाती है कि उसके साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहती? क्या तुमने नहीं कहा कि माँ में प्रेम होता है और वह अपने बच्चे से प्रेम करती है? तो वह इतनी बेरहम कैसे हो सकती है?” क्या यह एक विरोधाभास है? नहीं, यह कोई विरोधाभास नहीं है। माँ अपने बच्चे के साथ कैसा व्यवहार करती है, यह माँ के प्रति बच्चे के रवैये और बच्चे के व्यवहार पर निर्भर करता है। लेकिन चाहे वह अपने बच्चे के साथ कैसा भी व्यवहार करे, चाहे वह उसे पीटे और उससे नफरत करे, इसका उसकी ममता की मौजूदगी पर कोई असर नहीं पड़ता। इसी तरह, लोगों के लिए परमेश्वर का प्रेम कहाँ से आता है? (परमेश्वर में प्रेम का सार है।) सही कहा। तुमने अंततः इसे स्पष्ट कर दिया है। यहाँ मूल बात यह है कि परमेश्वर में प्रेम का सार है। परमेश्वर के लोगों से प्रेम और उनकी परवाह करने का कारण यह है कि एक ओर परमेश्वर में प्रेम का सार है। इस प्रेम में दया, करुणा, सहनशीलता और धैर्य है। बेशक, सरोकार की अभिव्यक्तियाँ भी हैं, और कभी-कभी चिंता और उदासी आदि भी। यह सब परमेश्वर के सार से तय होता है। यह इसे व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से देखना है। वस्तुपरक दृष्टिकोण से, इंसान परमेश्वर द्वारा सृजित किए गए हैं, जैसे बच्चा अपनी माँ से पैदा होता है, और माँ स्वाभाविक रूप से उसकी परवाह करती है और उनके बीच अटूट रक्त-संबंध होते हैं। इंसानों और परमेश्वर के बीच ये रक्त-संबंध नहीं हैं, जैसा कि इंसान कहते हैं, फिर भी इंसान परमेश्वर द्वारा सृजित किए गए हैं, और वह उनकी परवाह करता है और उनके लिए स्नेह महसूस करता है। परमेश्वर चाहता है कि इंसान अच्छे बनें और सही मार्ग पर चलें, लेकिन उन्हें शैतान के हाथों भ्रष्ट होते, बुराई के मार्ग पर चलते और कष्ट सहते देखना परमेश्वर को दुखी और पीड़ित करता है। यह सामान्य है, है कि नहीं? परमेश्वर में ये प्रतिक्रियाएँ, भावनाएँ और अभिव्यक्तियाँ हैं, ये सभी परमेश्वर के सार के कारण उत्पन्न होती हैं और इन्हें उस आपसी संबंध से अलग नहीं किया जा सकता जो परमेश्वर ने मनुष्य को सृजित कर बनाया है। ये सभी वस्तुपरक तथ्य हैं। कुछ लोग कहते हैं : “चूँकि परमेश्वर के सार में प्रेम है, फिर भी वह लोगों से घृणा क्यों करता है? क्या परमेश्वर लोगों की परवाह नहीं करता? वह फिर भी उनसे घृणा कैसे करता है?” यहाँ एक वस्तुपरक तथ्य भी है, जो यह है कि लोगों का स्वभाव, सार और अन्य पहलू परमेश्वर और सत्य के साथ मेल नहीं खाते, इसलिए लोग परमेश्वर के सामने जो कुछ अभिव्यक्त और प्रकट करते हैं, वह उससे घृणा करता है, वह उसके लिए घृणास्पद है। जैसे-जैसे समय बीतता है, लोगों के भ्रष्ट स्वभाव अधिकाधिक गंभीर होते जाते हैं, उनके पाप अधिकाधिक गंभीर होते जाते हैं, और वे अत्यंत हठी, पश्चात्ताप न करने पर भी अड़े रहते हैं, और सत्य का छोटा-सा अंश भी नहीं स्वीकारते। वे पूरी तरह से परमेश्वर के विरोध में होते हैं, इसलिए उसकी घृणा भड़क जाती है। तो, परमेश्वर की घृणा कहाँ से उत्पन्न होती है? वह क्यों उत्पन्न होती है? वह इसलिए उत्पन्न होती है, क्योंकि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, और परमेश्वर की घृणा उसके सार से भड़कती है। परमेश्वर बुराई से घृणा करता है, नकारात्मक चीजों से घृणा करता है, और बुरी ताकतों और बुरी चीजों से घृणा करता है। इसलिए, परमेश्वर इस भ्रष्ट मानवजाति से घृणा करता है। इसलिए परमेश्वर सृजित प्राणियों के लिए जो प्रेम और घृणा प्रकट करता है वे सामान्य हैं और उसके सार से निर्धारित होते हैं। इसमें बिल्कुल भी विरोधाभास नहीं है। कुछ लोग पूछते हैं, “तो परमेश्वर वास्तव में लोगों से प्रेम करता है या घृणा?” तुम इसका उत्तर कैसे दोगे? (यह परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैये पर निर्भर करता है या इस पर निर्भर करता है कि लोगों ने वास्तव में पश्चात्ताप किया है या नहीं।) यह मूलभूत रूप से सच है लेकिन पूरी तरह सटीक नहीं है। यह सटीक क्यों नहीं है? क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर को लोगों से अनिवार्यतः प्रेम करना चाहिए? (नहीं।) मनुष्य के लिए परमेश्वर के वचन और वह सब कार्य जो वह लोगों में करता है, परमेश्वर के स्वभाव और सार की स्वाभाविक अभिव्यक्तियाँ हैं। परमेश्वर के अपने सिद्धांत हैं, उसका लोगों से प्रेम करना जरूरी नहीं है लेकिन उसका लोगों से घृणा करना भी जरूरी नहीं है। परमेश्वर लोगों से सत्य का अनुसरण करने, अपने मार्ग पर चलने और अपने वचनों के अनुसार आचरण और कार्य करने के लिए कहता है। परमेश्वर का लोगों से प्रेम करना जरूरी नहीं है लेकिन उसका लोगों से घृणा करना भी जरूरी नहीं है। यह एक तथ्य है और लोगों को इसे समझना होगा। अभी तुम लोगों ने कहा कि परमेश्वर लोगों के व्यवहार के आधार पर उनसे प्रेम या घृणा करता है। ऐसा कहना गलत क्यों है? परमेश्वर का तुमसे प्रेम करना जरूरी नहीं है, न ही उसका तुमसे घृणा करना बिल्कुल जरूरी है। परमेश्वर तुम्हारी उपेक्षा भी कर सकता है। तुम चाहे सत्य का अनुसरण और परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण या कार्य करो या चाहे तुम सत्य न स्वीकारो, परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसका विरोध तक करो, अंत में वह प्रत्येक व्यक्ति को उसकी करनी के अनुसार प्रतिफल देगा। अच्छा करने वालों को पुरस्कृत किया जाएगा, जबकि बुरा करने वालों को दंडित किया जाएगा। इसे ही निष्पक्ष और न्यायसंगत ढंग से मामले निपटाना कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे पास यह माँग करने का कोई आधार नहीं है कि परमेश्वर को तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। जब तुम परमेश्वर और सत्य के साथ लालसापूर्वक व्यवहार करते हो और सत्य का अनुसरण करते हो, तो तुम सोचते हो कि उसे तुमसे प्रेम करना चाहिए, लेकिन अगर परमेश्वर तुम्हें अनदेखा करता है और तुमसे प्रेम नहीं करता, तो तुम्हें लगता है कि वह परमेश्वर नहीं है। या जब तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हो, तो तुम सोचते हो कि उसे तुमसे घृणा करनी चाहिए और तुम्हें दंड देना चाहिए, लेकिन अगर वह तुम्हें अनदेखा करता है, तो तुम्हें लगता है कि वह परमेश्वर नहीं है। क्या ऐसा सोचना सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) लोगों के संबंधों, जैसे कि माता-पिता और बच्चों के संबंध का आकलन इस प्रकार किया जा सकता है—यानी अपने बच्चों के लिए माता-पिता का प्रेम या घृणा कभी-कभी बच्चों के व्यवहार पर आधारित होती है—लेकिन इंसानों और परमेश्वर के बीच संबंध का आकलन इस तरह नहीं किया जा सकता। इंसानों और परमेश्वर के बीच का संबंध सृजित प्राणियों और सृष्टिकर्ता के बीच का संबंध है और उनमें रक्त-संबंध बिल्कुल नहीं है। यह सिर्फ सृजित प्राणियों और सृष्टिकर्ता के बीच का संबंध है। इसलिए इंसान यह माँग नहीं कर सकते कि परमेश्वर उनसे प्रेम करे या यह घोषणा करे कि वह उनके साथ कहाँ खड़ा है। ये अनुचित माँगें हैं। इस प्रकार का दृष्टिकोण गलत और अनुचित है; लोग ऐसी माँगें नहीं कर सकते। तो अब इसे देखते हुए क्या इंसानों को वास्तव में परमेश्वर के प्रेम की सही समझ है? उनकी पहले की समझ गलत थी, है न। (बिल्कुल।) परमेश्वर लोगों से प्रेम करता है या घृणा, इसके सिद्धांत हैं। अगर इंसानों का व्यवहार या अनुसरण सत्य के अनुरूप और परमेश्वर की पसंद के अनुसार है, तो वह इसका अनुमोदन करता है। लेकिन लोगों का सार भ्रष्ट है और वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर सकते हैं और उन आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण कर सकते हैं जो उन्हें सही लगती हैं या जिन्हें वे पसंद करते हैं। यह ऐसी चीज है जिससे परमेश्वर घृणा करता है और जिसे वह अनुमोदित नहीं करता। लेकिन मामला लोगों की इस सोच के विपरीत है कि जब भी परमेश्वर लोगों का अनुमोदन करेगा, वह उन पर पुरस्कार बरसाएगा, या जब भी वह उनका अनुमोदन नहीं करेगा, वह लोगों को अनुशासित और दंडित करेगा। परमेश्वर के कार्यों के सिद्धांत होते हैं। यह परमेश्वर के सार के बारे में बताता है और लोगों को इसे इसी तरह समझना चाहिए।
मैंने कुछ देर पहले ही एक प्रश्न उठाया और परमेश्वर के कार्यों के सिद्धांतों और परमेश्वर के सार पर संगति की। मैंने कौन-सा प्रश्न पूछा था? (परमेश्वर ने यह पूछा कि लोगों के प्रति उसकी सहनशीलता और दया और जहाँ कहीं संभव हो वहाँ उदार बनने के इंसानी अभ्यास के बीच क्या अंतर है। बाद में, तुमने संगति की थी कि परमेश्वर सांसारिक व्यवहार के इस फलसफे के अनुसार कार्य नहीं करता। परमेश्वर मुख्य रूप से दो पहलुओं के आधार पर लोगों के अपराधों से निपटता है : एक ओर परमेश्वर जो करता है उसके सिद्धांत होते हैं, और दूसरी ओर परमेश्वर के सार में दया और कोप दोनों हैं।) यह वास्तव में इसे समझने का सही तरीका है। इस तरह से काम करने के परमेश्वर के सिद्धांत उसके सार और उसके स्वभाव पर आधारित हैं, और जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनने से उनका कोई लेना-देना नहीं है जो कि मनुष्यों के सांसारिक व्यवहार का एक फलसफा है। लोगों के कार्य शैतानी फलसफों पर आधारित और शैतानी स्वभावों से नियंत्रित होते हैं। परमेश्वर के कार्य उसके स्वभाव और सार की अभिव्यक्ति हैं। परमेश्वर के सार में प्रेम, दया और बेशक घृणा भी है। तो क्या अब तुम समझे कि मनुष्यों के बुरे कर्मों और उनके विभिन्न प्रकार के विद्रोहों और विश्वासघात के प्रति परमेश्वर का क्या रवैया है? परमेश्वर के रवैये का क्या आधार है? क्या यह उसके सार से उत्पन्न होता है? (हाँ।) परमेश्वर के सार में दया, प्रेम और कोप है। परमेश्वर का सार धार्मिकता है और परमेश्वर के कार्यों के सिद्धांत इसी सार से उपजते हैं। तो वास्तव में परमेश्वर के कार्यों के सिद्धांत क्या हैं? प्रचुरता से दया करो और गहराई से कोप बरसाओ। इसका जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनने से कोई लेना-देना नहीं है, जिसका मनुष्यों के बीच अभ्यास किया जाता है और जो एक बहुत ही महान सिद्धांत होने का आभास देता है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में वह उल्लेखनीय नहीं है। एक ओर एक विश्वासी के रूप में तुम इस सिद्धांत के आधार पर परमेश्वर के सार, कर्मों और उसके कार्यों के सिद्धांतों का आकलन नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त, अपने ही परिप्रेक्ष्य से लोगों को सांसारिक व्यवहार के इस फलसफे का पालन नहीं करना चाहिए; उनके पास एक सिद्धांत होना चाहिए कि जब चीजें उन पर आ पड़ें तो कैसे निर्णय लें और इन चीजों से कैसे निपटें। वह सिद्धांत क्या है? लोगों में परमेश्वर का सार नहीं है और बेशक वे हर चीज स्पष्ट सिद्धांतों के साथ नहीं कर सकते, जैसे परमेश्वर करता है, या स्वर्ग में खड़े होकर अवसर नहीं बाँट सकते और सभी के साथ उदार नहीं हो सकते। लोग ऐसा नहीं कर सकते। तो तुम्हें उन चीजों का सामना करने पर क्या करना चाहिए, जो तुम्हें परेशान करती हैं, तुम्हें चोट पहुँचाती हैं या तुम्हारी गरिमा और चरित्र का अपमान करती हैं, यहाँ तक कि तुम्हारे दिल और तुम्हारी आत्मा को चोट पहुँचाती हैं? अगर तुम नैतिक आचरण संबंधी इस कहावत का पालन करते हो, “जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनें” तो तुम सिद्धांतों की परवाह किए बिना चीजों को सुलझाने की कोशिश करते हो, लोगों को खुश करने वाले बनते हो, तुम्हें लगता है कि इस दुनिया में गुजारा करना आसान नहीं, तुम दुश्मन नहीं बना सकते और तुम्हें लोगों को नाराज करने की कोशिश कम करनी चाहिए या बिल्कुल नहीं करनी चाहिए, जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनना चाहिए, हर मौके पर तटस्थ रहना चाहिए, बीच का रास्ता अपनाना चाहिए, किसी खतरनाक स्थिति में नहीं पड़ना चाहिए और सुरक्षित रहना चाहिए। क्या यह सांसारिक व्यवहार का एक फलसफा नहीं है? (है।) यह सांसारिक व्यवहार का एक फलसफा है, न कि एक ऐसा सिद्धांत जो परमेश्वर मनुष्य को सिखाता है। तो परमेश्वर लोगों को कौन-सा सिद्धांत सिखाता है? सत्य का अनुसरण कैसे परिभाषित किया जाता है? पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना। अगर कुछ ऐसा हुआ हो जिसने तुम्हारी घृणा भड़का दी हो तो तुम उसे कैसे देखोगे? तुम उसे किस आधार पर देखोगे? (परमेश्वर के वचनों के आधार पर।) सही कहा। अगर तुम नहीं जानते कि इन चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार कैसे देखा जाए तो तुम सिर्फ जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बन सकते हो, अपना आक्रोश दबा सकते हो, रियायतें दे सकते हो और बदला लेने के अवसर तलाशते हुए उचित समय की प्रतीक्षा कर सकते हो—यही वह रास्ता है जिस पर तुम चलोगे। अगर तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो तो तुम्हें लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना चाहिए और खुद से पूछना चाहिए : “यह व्यक्ति मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है? मेरे साथ ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा परिणाम क्यों हो सकता है?” ऐसी चीजें परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखी जानी चाहिए। पहली चीज यह करनी चाहिए कि इस मामले को परमेश्वर से स्वीकारने में सक्षम होना चाहिए और सक्रिय रूप से यह स्वीकारना चाहिए कि यह परमेश्वर की ओर से आया है और तुम्हारे लिए सहायक और लाभदायक है। इस मामले को परमेश्वर से स्वीकारने के लिए तुम्हें पहले यह मानना चाहिए कि यह परमेश्वर द्वारा आयोजित और शासित है। पृथ्वी पर जो कुछ भी होता है, वह सब जो तुम महसूस कर सकते हो, वह सब जो तुम देख सकते हो, वह सब जो तुम सुन सकते हो—सब परमेश्वर की अनुमति से होता है। इस मामले को परमेश्वर से स्वीकारने के बाद इसे परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कसो और पता करो कि जिसने भी यह काम किया है वह किस तरह का व्यक्ति है और इस मामले का सार क्या है, फिर चाहे उसकी कथनी-करनी ने तुम्हें ठेस पहुँचाई हो या तुम्हारे हृदय और आत्मा को आघात पहुँचाया हो या फिर तुम्हारे चरित्र को रौंद दिया हो। पहले यह देखो कि वह व्यक्ति कोई बुरा व्यक्ति है या कोई साधारण भ्रष्ट व्यक्ति है, पहले परमेश्वर के वचनों के अनुसार उसकी असलियत जानो और फिर इस मामले को परमेश्वर के वचनों के अनुसार समझकर इससे निपटो। क्या ये कदम उठाना सही नहीं है? (बिल्कुल सही है।) पहले इस मामले को परमेश्वर से स्वीकारो और इस मामले में शामिल लोगों को उसके वचनों के अनुसार देखो ताकि यह निर्धारित कर सको कि क्या वे साधारण भाई-बहन हैं या बुरे लोग, मसीह-विरोधी, छद्म-विश्वासी, बुरी आत्माएँ, गंदे राक्षस या बड़े लाल अजगर के जासूस हैं, और उन्होंने जो किया वह भ्रष्टता का एक सामान्य नमूना था या एक दुष्ट कार्य था जिसका उद्देश्य जानबूझकर परेशान करना और बाधित करना था। यह सब परमेश्वर के वचनों से तुलना करके निर्धारित किया जाना चाहिए। चीजों को परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर कसना सबसे सटीक और वस्तुनिष्ठ तरीका है। परमेश्वर के वचनों के अनुसार ही लोगों में अंतर करना और मामलों को निपटाना चाहिए। तुम्हें विचार करना चाहिए : “इस घटना ने मेरे हृदय और आत्मा को बहुत आहत किया है और मेरी स्थिति बिगाड़ी है। लेकिन यह घटना घटित होने से मुझे जीवन-प्रवेश के लिए क्या शिक्षा मिली है? परमेश्वर का इरादा क्या है?” यह तुम्हें मामले की जड़ तक ले जाता है जिसे तुम्हें जानना-समझना चाहिए—यह सही रास्ते पर चलना है। तुम्हें यह सोचते हुए परमेश्वर का इरादा खोजना चाहिए : “इस घटना ने मेरे दिल और मेरी आत्मा को आघात पहुँचाया है। मुझे पीड़ा और दर्द महसूस होता है, पर मैं नकारात्मक और तिरस्कारपूर्ण नहीं हो सकता। सबसे महत्वपूर्ण बात परमेश्वर के वचनों के अनुसार यह समझना, पहचानना और तय करना है कि यह घटना वास्तव में मेरे लिए फायदेमंद है या नहीं। अगर यह परमेश्वर के अनुशासन करने से आती है और मेरे जीवन-प्रवेश और मेरी आत्म-समझ के लिए लाभदायक है तो मुझे इसे स्वीकारकर इसके प्रति समर्पित होना चाहिए; अगर यह शैतान की ओर से प्रलोभन है तो मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और इससे बुद्धिमानी से निपटना चाहिए।” क्या इस तरह खोजना और सोचना सकारात्मक प्रवेश है? क्या यह लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना है? (बिल्कुल।) इसके बाद तुम जिस भी मामले से निपट रहे हो या लोगों के साथ तुम्हारे संबंधों में जो भी समस्याएँ उत्पन्न होती हों, उन्हें हल करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों की तलाश करनी चाहिए। क्रियाओं की इस पूरी कड़ी का क्या उद्देश्य है? इसका उद्देश्य लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना है ताकि लोगों और चीजों के संबंध में तुम्हारा परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण पूरी तरह से अलग हों। इसका उद्देश्य अत्यधिक मान-सम्मान पाने के लिए प्रतिष्ठा जुटाना और इज्जत बचाना या देश और समाज में समरसता स्थापित कर शासक वर्ग को संतुष्ट करना नहीं है, बल्कि परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार जीना है ताकि परमेश्वर को संतुष्ट और सृष्टिकर्ता को गौरवान्वित किया जा सके। सिर्फ इसी तरह अभ्यास करके तुम पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो सकते हो। इसलिए तुम्हें परंपरागत संस्कृति में मौजूद नैतिक आचरण संबंधी कहावतों का पालन करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें यह विचारने की जरूरत नहीं है, “जब ऐसा मामला मेरे साथ हो, तो क्या मुझे यह कहावत अमल में नहीं लानी चाहिए, ‘मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो’? अगर मैं ऐसा नहीं कर सकता तो जनमत मेरे बारे में क्या सोचेगा?” तुम्हें खुद को विवश और नियंत्रित करने के लिए इन नैतिक सिद्धांतों का उपयोग करने की जरूरत नहीं है। इसके बजाय तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य को अपनाना चाहिए जो सत्य का अनुसरण करता है और लोगों और चीजों के साथ उस तरीके से व्यवहार करना चाहिए जैसा परमेश्वर तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के लिए कहता है। क्या यह अस्तित्व का पूरी तरह से नया तरीका नहीं है? क्या यह पूरी तरह से नया जीवन-दृष्टिकोण और जीवन-लक्ष्य नहीं है? (बिल्कुल है।) लोगों और चीजों को देखने का यह तरीका अपनाने पर तुम्हें जानबूझकर खुद से यह कहने की जरूरत नहीं होती, “अगर मैं उदार होना चाहता हूँ और लोगों के बीच एक मुकाम हासिल करना चाहता हूँ, तो मुझे यह-यह करना चाहिए,” तुम्हें अपने साथ इतना कठोर होने की जरूरत नहीं है, तुम्हें अपनी इच्छा के प्रतिकूल जीने की जरूरत नहीं है और तुम्हारी मानवता को इतना विकृत होने की जरूरत नहीं है। इसके बजाय तुम परमेश्वर से प्राप्त इन परिवेशों, लोगों, मामलों और चीजों को स्वाभाविक रूप से और स्वेच्छा से स्वीकारोगे। इतना ही नहीं, तुम इनसे अप्रत्याशित लाभ भी बटोर सकते हो। घृणा जगाने वाली ऐसी चीजों से निपटने में तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों की असलियत जानना सीख चुके होगे और परमेश्वर के वचनों के अनुसार ऐसी चीजों को पहचानना और उनसे निपटना सीख चुके होगे। अनुभवों और संघर्ष की एक अवधि से गुजरने के बाद तुम्हें ऐसी चीजों से निपटने के लिए सत्य-सिद्धांत मिल चुके होंगे और तुम जान चुके होगे कि ऐसे लोगों, मामलों और चीजों से निपटते समय किस प्रकार के सत्य-सिद्धांतों का उपयोग करना है। क्या यह सही रास्ते पर चलना नहीं है? इस तरह तुम्हारी मानवता में सुधार हो रहा होगा क्योंकि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, यानी अब तुम सिर्फ अपने इंसानी जमीर और विवेक के अनुसार नहीं जीते और जब चीजें घटित होती हैं तो तुम उन्हें सिर्फ जमीर और विवेक पर आधारित सोच और दृष्टिकोणों से नहीं देखते, बल्कि परमेश्वर के कई वचन पढ़ने और वास्तव में परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर लेने के कारण तुम कुछ सत्य समझ चुके होगे और सृष्टिकर्ता परमेश्वर की कुछ वास्तविक समझ पा चुके होगे। यह निश्चित रूप से एक भरपूर फसल है जिससे तुम सत्य और जीवन दोनों प्राप्त कर चुके होगे। अपने जमीर और विवेक के आधार पर तुम अपने सामने आने वाली सभी समस्याओं का सामना और समाधान करने के लिए परमेश्वर के वचनों और सत्य का उपयोग करना सीख चुके होगे और धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने लगे होगे। ऐसे मनुष्य कैसे होते हैं? क्या वे परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होते हैं? ऐसे मनुष्य तेजी से परमेश्वर द्वारा अपेक्षित योग्य सृजित प्राणी बनने के करीब होते हैं और ऐसा करने में धीरे-धीरे परमेश्वर के उद्धार के कार्य के अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। जब लोग सत्य स्वीकारकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार जी सकते हैं तो बिना जरा-सी भी पीड़ा के इस तरह से जीना कितना आसान है। लेकिन जहाँ तक परंपरागत सांस्कृतिक शिक्षा प्राप्त लोगों की बात है, वे जो कुछ भी करते हैं वह उनकी इच्छा के बहुत ही विपरीत, बहुत ही पाखंडपूर्ण होता है और उनकी मानवता द्वारा प्रकट की जाने वाली चीजें बहुत विकृत और असामान्य होती हैं। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे नहीं बताते कि वे क्या सोच रहे हैं। उनके होंठ कहते हैं, “जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” लेकिन उनका दिल कहता है, “मेरा बदला पूरा नहीं हुआ है। सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या”—क्या यह उनकी अपनी इच्छा के विपरीत नहीं है? (बिल्कुल है।) “विकृत” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि ऊपर से वे परोपकार और नैतिकता के सिवाय कुछ नहीं बोलते लेकिन दूसरों की पीठ पीछे वे व्यभिचार और लूटपाट जैसे तमाम तरह के बुरे काम करते हैं। परोपकार और नैतिकता की यह सारी बाहरी बात सिर्फ एक मुखौटा होती है और उनका दिल हर तरह की बुराई, हर तरह के घिनौने विचारों और दृष्टिकोणों से भरा रहता है; यह बेहद गंदी, निहायत घिनौनी, भद्दी और शर्मनाक बात है। विकृत का यही अर्थ है। आधुनिक भाषा में विकृति को दुश्चरित्रता कहा जाता है। वे सभी इतने दुश्चरित्र हैं, फिर भी दूसरों के सामने पूरी तरह से सभ्य, परिष्कृत, सज्जन और सम्माननीय होने का दिखावा करते हैं। उन्हें वास्तव में कोई शर्म नहीं है, वे बहुत दुष्ट हैं! परमेश्वर ने लोगों को जो मार्ग दिखाया है, वह इसलिए नहीं दिखाया कि तुम इस तरह जियो, बल्कि इसलिए दिखाया है कि तुम अपने हर काम में, चाहे वह परमेश्वर के सामने हो या अन्य लोगों के, परमेश्वर के बताए सही सिद्धांतों और अभ्यास के मार्ग का पालन करने में सक्षम बनो। यहाँ तक कि अगर तुम ऐसी चीजों का भी सामना करते हो जो तुम्हारे हितों को नुकसान पहुँचाती हैं या जो तुम्हारी पसंद के अनुरूप नहीं हैं या जिनका तुम पर आजीवन प्रभाव पड़ता है, तो भी इन मामलों से निपटने के लिए तुम्हारे पास सिद्धांत होने चाहिए। उदाहरण के लिए, तुम्हें सगे भाई-बहनों के साथ प्रेम से पेश आना चाहिए और उनके प्रति सहिष्णु, मददगार और सहयोगी बनना सीखना चाहिए। तो, तुम्हें परमेश्वर के शत्रुओं, मसीह-विरोधियों, दुष्ट लोगों और छद्म-विश्वासियों या कलीसिया में घुसपैठ करने वाले एजेंटों और जासूसों के साथ क्या करना चाहिए? तुम्हें उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए नकार देना चाहिए। इसकी प्रक्रिया पहचानने और उजागर करने, घृणा महसूस करने और अंततः नकार देने की है। परमेश्वर के घर में प्रशासनिक आदेश और नियम होते हैं। जब बात मसीह-विरोधियों, बुरे लोगों, छद्म-विश्वासियों और उन लोगों की आती है जो दानवों, शैतान और दुष्ट आत्माओं जैसे होते हैं, तो वे श्रम करने के लिए तैयार नहीं होते, इसलिए उन्हें परमेश्वर के घर से हमेशा के लिए अलग कर दो। तो फिर उनके साथ परमेश्वर के चुने हुए लोगों को कैसा व्यवहार करना चाहिए? (उन्हें नकार देना चाहिए।) बिल्कुल सही कहा, तुम्हें उन्हें नकार देना चाहिए, हमेशा-हमेशा के लिए नकार देना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “नकारना एक शब्द भर है। मान लो, तुम सैद्धांतिक रूप से उन्हें नकार देते हो तो फिर तुम वस्तुतः इसे वास्तविक जीवन में कैसे करोगे?” क्या उनका कट्टर विरोधी होना ठीक है? इस तरह अनावश्यक रूप से खुद को थकाने की जरूरत नहीं है। तुम्हें उनका कट्टर विरोधी होने की जरूरत नहीं है, उनसे लड़ने-मरने की जरूरत नहीं है और पीठ पीछे उन्हें कोसने की जरूरत नहीं है। तुम्हें इनमें से कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। बस अपने दिल की गहराई से खुद को उनसे अलग कर लो और सामान्य परिस्थिति में उनके साथ व्यवहार मत करो। विशेष परिस्थिति में और जब तुम्हारे पास कोई विकल्प न हो, तो तुम उनसे सामान्य रूप से बात कर सकते हो लेकिन फिर जल्द से जल्द उनसे दूरी बना लो और उनके किसी भी मामले में मत पड़ो। इसका अर्थ है उन्हें अपने हृदय की गहराई से नकारना, उन्हें भाई-बहन या परमेश्वर के परिवार के सदस्य न समझना और उन्हें विश्वासी न मानना। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो परमेश्वर और सत्य से घृणा करते हैं, जो जानबूझकर परमेश्वर के कार्य को बिगाड़ते और बाधित करते हैं या जो परमेश्वर के कार्य को नष्ट करने का प्रयास करते हैं, तुम्हें न सिर्फ परमेश्वर से उन्हें शाप देने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, बल्कि उन्हें हमेशा के लिए बाँधना और रोकना भी चाहिए और उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए नकार देना चाहिए। क्या ऐसा करना परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है? यह पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। इन लोगों से निपटने के लिए अपना रुख जाहिर करना और सिद्धांत रखना जरूरी है। अपना रुख जाहिर करने और सिद्धांत रखने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है उनका सार स्पष्ट रूप से देखना, उन्हें विश्वासी कभी न मानना और भाई-बहन बिल्कुल न समझना। वे दुष्ट हैं, शैतान हैं। यह उन्हें माफ करने या न करने का सवाल नहीं है, बल्कि खुद को उनसे अलग करने और उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए नकारने का सवाल है। यह पूरी तरह से न्यायोचित और सत्य के अनुरूप है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोगों के लिए इस तरह की चीजें करना बहुत निर्मम नहीं है?” (नहीं।) रुख जाहिर करने और सिद्धांत रखने का यही अर्थ है। हम वही करते हैं जो परमेश्वर हमें करने के लिए कहता है। परमेश्वर हमें जिसके साथ उदार होने के लिए कहता है, उसके साथ हम उदार होते हैं और परमेश्वर हमें जिससे घृणा करने के लिए कहता है, उससे हम घृणा करते हैं। व्यवस्था के युग में जिन लोगों ने व्यवस्थाओं और आज्ञाओं का उल्लंघन किया, उन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने पत्थर मार-मार कर मार डाला था, लेकिन आज राज्य के युग में परमेश्वर के पास प्रशासनिक आदेश हैं और वह दुष्ट और शैतान जैसे लोगों को सिर्फ हटाता और निकालता है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इंसानी धारणाओं से बेबस या प्रभावित हुए बिना और धार्मिक लोगों द्वारा आलोचना और निंदा किए जाने से डरे बिना परमेश्वर के वचनों और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन न करते हुए उन्हें अमल में लाना और उनका पालन करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना ऐसी चीज है जो पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है। हर समय सिर्फ यह विश्वास करो कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, मनुष्य के वचन सत्य नहीं हैं चाहे वे कितने भी अच्छे क्यों न लगें। लोगों में यह आस्था होनी चाहिए। लोगों को परमेश्वर में यह आस्था होनी चाहिए और उनमें समर्पण का यह रवैया भी होना चाहिए। यह रवैये का सवाल है।
हमने नैतिक आचरण संबंधी इस कहावत कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो” पर और परमेश्वर के कार्यों के सिद्धांतों पर कमोबेश पर्याप्त कह दिया है। जब ऐसे मामलों की बात आती है जो लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं तो क्या तुम लोग अब उनसे निपटने का वह सिद्धांत समझते हो जो परमेश्वर लोगों को सिखाता है? (बिल्कुल।) वह यह है कि परमेश्वर लोगों को उन मामलों से निपटने में उतावला होने की अनुमति नहीं देता जो उन पर आन पड़ते हैं, किसी भी मामले से निपटने के लिए मानवीय नैतिक संहिताओं का उपयोग करने की तो बात ही छोड़ दो। वह कौन-सा सिद्धांत है जिसके बारे में परमेश्वर लोगों को बताता है? लोगों को किस सिद्धांत का पालन करना चाहिए? (परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखो और आचरण और कार्य करो।) बिल्कुल सही कहा, परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार लोगों और चीजों को देखो और आचरण और कार्य करो। चाहे जो कुछ भी हो, उससे परमेश्वर के वचनों के अनुसार निपटना चाहिए क्योंकि सभी मामलों और चीजों में जो कुछ भी होता है और जो भी व्यक्ति, घटना या चीज प्रकट होती है, उसके पीछे एक मूल कारण होता है, जिसकी व्यवस्था परमेश्वर करता है और जिसके ऊपर उसकी संप्रभुता होती है। जो कुछ भी होता है, उसका एक सकारात्मक या नकारात्मक अंतिम परिणाम हो सकता है, और उनके बीच का अंतर लोगों के अनुसरणों और उनके चलने के मार्ग पर निर्भर करता है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार मामलों से निपटने का फैसला करते हो तो अंतिम परिणाम सकारात्मक होगा; अगर तुम उनसे देह और उतावलेपन के तरीकों और मनुष्यों के दिमाग से उपजीं तमाम तरह की कहावतों, विचारों और दृष्टिकोणों से निपटने का चुनाव करते हो तो अंतिम परिणाम निश्चित रूप से उतावलेपन और नकारात्मकता का होगा। उतावलेपन और नकारात्मकता की उन चीजों में अगर लोगों की गरिमा, शरीर, आत्मा, हितों आदि को नुकसान पहुँचाना शामिल है, तो वे अंततः लोगों में सिर्फ घृणा और विषाद ही छोड़ जाएँगी, जिससे वे कभी छुटकारा नहीं पा सकते। सिर्फ परमेश्वर के वचनों का पालन करने से ही उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के कारणों का पता लगाना संभव है जिनका व्यक्ति सामना करता है और सिर्फ परमेश्वर के वचनों का पालन करके ही ऐसे लोगों, घटनाओं और चीजों का सार स्पष्ट रूप से देखना संभव है। बेशक, सिर्फ परमेश्वर के वचनों का पालन करके ही लोग उन सभी विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से संबंधित समस्याओं से सही ढंग से निपट सकते और उन्हें हल कर सकते हैं जिनका वे हकीकत में सामना करते हैं। अंत में, यह लोगों को उन सभी परिवेशों से लाभ उठाने में सक्षम करेगा जिन्हें परमेश्वर सृजित करता है, उनका जीवन धीरे-धीरे विकसित हो जाएगा, उनके भ्रष्ट स्वभाव बदल जाएँगे और साथ ही वे उनके भीतर जीवन में सही दिशा, जीवन के बारे में सही दृष्टिकोण, अस्तित्व का सही तरीका और अनुसरण का सही लक्ष्य और मार्ग पाएँगे। हमने मूल रूप से नैतिक आचरण संबंधी इस कहावत पर अपनी संगति पूरी कर ली है, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” यह कहावत कुछ सतही है लेकिन सत्य के अनुसार विश्लेषण किया जाए तो इसका सार उतना सरल नहीं है। इस संबंध में लोगों को क्या करना चाहिए और ऐसी स्थितियों से कैसे निपटना चाहिए, यह तो और भी मुश्किल है। इसका संबंध इस बात से है कि क्या लोग सत्य की खोज और उसका अनुसरण कर सकते हैं, और बेशक इसका और भी ज्यादा संबंध लोगों के स्वभाव में बदलाव और लोगों के उद्धार से है। इसलिए चाहे ये समस्याएँ सरल हों या जटिल, सतही हों या गहरी, इनसे सही तरह से और गंभीरता से निपटना चाहिए। लोगों के स्वभाव में बदलावों से संबंधित या लोगों के उद्धार से जुड़ी कोई भी चीज तुच्छ नहीं है, हर चीज निर्णायक और महत्वपूर्ण है। मुझे उम्मीद है कि अब से अपने दैनिक जीवन में तुम लोग परंपरागत संस्कृति में नैतिकता के बारे में तमाम कहावतों और विचारों का अपने विचारों और चेतना से पता लगाओगे, उनका विश्लेषण करोगे और परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनकी असलियत जानोगे ताकि तुम धीरे-धीरे उन्हें समझकर हल कर सको, जीवन में एक पूर्णतः नई दिशा और लक्ष्य अपना सको और अपने अस्तित्व का ढंग पूरी तरह से बदल सको। अच्छा, आज की संगति यहीं समाप्त करते हैं। फिर मिलेंगे!
23 अप्रैल 2022
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