सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7) भाग तीन
अब मैं “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो” की कहावत पर संगति करूँगा। यह कहावत चीनी पारंपरिक संस्कृति के एक विशेष सद्गुण के बारे में है जिसे लोग उत्कृष्ट और महान मानते हैं। बेशक, यह मत थोड़ा अतिशयोक्तिपूर्ण और अवास्तविक है, फिर भी इसे दुनियाभर में एक सद्गुण माना जाता है। जब भी कोई इस सद्गुण के बारे में सुनता है, तो उसके दिमाग में कुछ दृश्य उभर आते हैं, जैसे : पंगत में भोजन करते समय एक-दूसरे की थाली में खाना परोसना और सबसे अच्छा खाना दूसरों के लिए छोड़ना; किराने की दुकान पर कतार में अपने आगे किसी और को खड़े होने देना; रेलवे स्टेशन या हवाई अड्डे पर पहले दूसरों को टिकट खरीदने देना; सड़क पर चलते या गाड़ी चलाते समय दूसरों को रास्ता देकर पहले जाने देना...। ये सभी “एक के लिए सभी, और सभी के लिए एक” के कुछ “सुंदर” उदाहरण हैं। इनमें से हरेक दृश्य यह बताता है कि समाज और संसार कितना प्यारा, सौहार्दपूर्ण, खुश और शांतिपूर्ण है। खुशी का स्तर इतना ऊँचा है कि इसे बयाँ नहीं किया जा सकता। अगर उनसे कोई पूछे, “तुम इतने खुश क्यों हो?” तो वे जवाब देते हैं, “चीनी पारंपरिक संस्कृति दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की वकालत करती है। हम सभी इस विचार पर अमल करते हैं और हमारे लिए यह बिल्कुल भी कठिन नहीं है। हम काफी धन्य महसूस करते हैं।” क्या ऐसे दृश्य तुम लोगों के दिमाग में भी आए हैं? (हाँ।) ऐसे दृश्य कहाँ देखे जा सकते हैं? ये वसंत उत्सव के चित्रों में देखे जा सकते हैं जो 1990 के दशक से पहले चीनी नववर्ष के दौरान दीवारों पर लगाए जाते थे। ये जनमानस में और यहाँ तक कि तथाकथित मृगतृष्णाओं में या हवाई किलों में भी पाए जा सकते हैं। संक्षेप में कहें तो ऐसे दृश्य असली जीवन में मौजूद नहीं हैं। बेशक, “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो,” नैतिक मानदंडों के संबंध में नैतिकतावादियों की एक अपेक्षा भी है। यह मनुष्य के नैतिक आचरण के संबंध में एक कहावत है जो यह अपेक्षा करती है कि लोगों को कोई काम करने से पहले अपने बजाय दूसरों के बारे में सोचना चाहिए। उन्हें पहले दूसरों के हितों के बारे में सोचना चाहिए, न कि अपने हितों के बारे में। उन्हें दूसरों के बारे में सोचना और खुद की इच्छाओं का त्याग करना सीखना चाहिए—यानी, उन्हें अपने हितों, अपेक्षाओं, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को त्याग देना चाहिए, और यहाँ तक कि अपना सब कुछ त्याग कर पहले दूसरों के हितों के बारे में सोचना चाहिए। भले ही मनुष्य इस अपेक्षा को पूरा कर सकता हो या नहीं, सबसे पहले यह पूछा जाना चाहिए : इस दृष्टिकोण का प्रस्ताव रखने वाले कैसे लोग हैं? क्या वे मनुष्यता को समझते हैं? क्या वे इस प्राणी अर्थात मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों और मनुष्यता के सार को समझते हैं? उन्हें इसकी जरा-सी भी समझ नहीं है। जिन लोगों ने इस कहावत को आगे बढ़ाया है, वे बेहद मूर्ख रहे होंगे जो उन्होंने दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की अवास्तविक अपेक्षा मनुष्य जैसे स्वार्थी प्राणी पर थोपी, जिसके पास न केवल विचार और स्वतंत्र इच्छा है, बल्कि वह महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से भी भरा है। चाहे लोग इस अपेक्षा को पूरा कर पाएँ या नहीं, प्राणियों के रूप में लोगों के सार और सहज प्रवृत्तियों को देखते हुए, जिन नैतिकतावादियों ने इस अपेक्षा को सामने रखा है वे वास्तव में अमानवीय थे। मैंने उन्हें अमानवीय क्यों कहा? उदाहरण के लिए, जब कोई भूखा होता है तो उसे तुरंत अपनी भूख महसूस होगी और वह नहीं सोचेगा कि क्या कोई और भी भूखा है। वह कहेगा, “मुझे भूख लगी है, मैं कुछ खाना चाहता हूँ।” वह सबसे पहले “मैं” के बारे में सोचता है। यह सामान्य, स्वाभाविक और उचित है। कोई भी भूखा व्यक्ति, अपनी सच्ची भावनाओं के विरुद्ध जाकर किसी और से यह नहीं पूछेगा, “तुम क्या खाना चाहते हो?” जब कोई खुद भूखा हो तो क्या उसका दूसरे व्यक्ति से यह पूछना कि वह क्या खाना चाहता है कोई सामान्य बात है? (नहीं।) रात में जब कोई थका-हारा होगा, तो वह यही कहेगा, “मैं थक गया हूँ। सोना चाहता हूँ।” कोई यह नहीं कहेगा, “मैं थक गया हूँ, तो क्या तुम मेरी खातिर जाकर बिस्तर पर सो सकते हो? जब तुम सोते हो, तो मुझे कम थकान महसूस होती है।” अगर वह इस तरह से खुद को अभिव्यक्त करे तो क्या यह असामान्य नहीं होगा? (बिल्कुल होगा।) लोग जो कुछ भी सहज रूप से सोच और कर पाते हैं, वह सब अपनी खातिर होता है। अगर वे अपना ख्याल रख पा रहे हैं तो वे पहले से ही काफी अच्छा कर रहे हैं—यह मानवीय प्रवृत्ति है। अगर तुम स्वतंत्र रूप से रह सकते हो, उस स्तर तक पहुँच गए हो जहाँ तुम अकेले रह सकते हो और खुद मसले निपटा सकते हो, अपना ख्याल रख सकते हो, बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास जाना जानते हो, बीमारी से उबरना जानते हो, और जीवन में आने वाली सभी समस्याओं और कठिनाइयों को हल करना जानते हो, तो तुम पहले से ही काफी अच्छा कर रहे हो। लेकिन दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने के लिए तुम्हें दूसरों के हितों के पक्ष में इन जरूरतों को त्यागना होगा; अपने लिए कुछ न करना, बल्कि पहले दूसरों के हितों के बारे में सोचना और सब कुछ दूसरों की खातिर करना होगा—क्या यह अमानवीय नहीं है? मेरे हिसाब से यह लोगों को जीने के अधिकार से पूरी तरह वंचित करता है। जीवन की बुनियादी जरूरतों का ध्यान तुम्हें खुद रखना चाहिए, तो फिर इन चीजों को करने और तुम्हारे लिए इनका ख्याल रखने के लिए दूसरे लोग अपने हितों का त्याग क्यों करें? ऐसा करने से तुम कैसे व्यक्ति कहलाओगे? क्या तुम मानसिक तौर पर बीमार, विकलांग या कोई पालतू जानवर हो? ये सभी चीजें लोगों को सहज रूप से करनी चाहिए—दूसरे लोग तुम्हारी खातिर यह सब करने के लिए अपने सारे काम क्यों त्यागें और अपनी ऊर्जा क्यों खपाएँ? क्या यह उचित है? क्या दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की यह अपेक्षा अतिशयोक्ति नहीं है? (बिल्कुल है।) यह बात सुनने में कैसी लगती है, और कहाँ से आई है? क्या यह उन तथाकथित नैतिकतावादियों के दिमाग की उपज नहीं है जिनमें मनुष्य की सहज प्रवृत्ति, जरूरतों और सार की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है, और क्या यह नैतिक श्रेष्ठता के बारे में शेखी बघारने की उनकी ललक नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या यह अमानवीय नहीं है? (हाँ, है।) अगर सभी लोग दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दें, तो फिर वे अपने मामलों से कैसे निपटेंगे? क्या तुम वाकई बाकी सबको अक्षम, अपना जीवन संभालने में असमर्थ, बेवकूफ, मानसिक तौर पर कमजोर या मंदबुद्धि समझते हो? अगर ऐसा नहीं है, तो फिर तुम दूसरों की खातिर अपने हितों की बलि क्यों चढ़ाओगे, और यह अपेक्षा क्यों करोगे कि दूसरे भी तुम्हारी खातिर अपने हितों को त्याग दें? यहाँ तक कि कुछ विकलांग लोग भी नहीं चाहते कि दूसरे उनकी मदद करें, बल्कि वे अपनी जीविका खुद कमाना चाहते हैं और अपना जीवन खुद चलाना चाहते हैं—उन्हें नहीं चाहिए कि दूसरे उनके लिए ज्यादा कीमत चुकाएँ या कोई उनकी अतिरिक्त मदद करे। वे बस इतना चाहते हैं कि दूसरे उनके साथ उचित व्यवहार करें; यह उनके लिए अपनी गरिमा बनाए रखने का एक तरीका है। उन्हें दूसरों से सहानुभूति और दया की नहीं, बल्कि सम्मान की जरूरत है। यह उन लोगों के लिए और भी अधिक सही है जो अपना खुद ख्याल रख सकते हैं, है न? इसलिए, दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की यह अपेक्षा मेरे विचार में उचित नहीं है। यह मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों और अंतरात्मा की समझ का निरादर करती है और कम-से-कम अमानवीय तो है ही। भले ही उद्देश्य सामाजिक मानदंडों, सार्वजनिक व्यवस्था और सामान्य पारस्परिक संबंधों को बनाए रखना हो, इस अनुचित और अमानवीय तरीके से यह अपेक्षा रखने की कोई जरूरत ही नहीं है कि हर कोई अपनी इच्छा के विरुद्ध जाकर दूसरों की खातिर जिए। अगर लोग अपने बजाय दूसरों की खातिर जिएँ, तो क्या यह थोड़ा अजीब और असामान्य नहीं होगा?
दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की अपेक्षा किन परिस्थितियों में लागू होती है? ऐसी एक परिस्थिति वह होती है जब माँ-बाप अपने बच्चों की खातिर काम करते हैं। ऐसा सिर्फ कुछ समय के लिए किया जा सकता है। बच्चों के वयस्क होने से पहले माँ-बाप को उनकी देखभाल करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने और यह पक्का करने के लिए कि वे स्वस्थ, सुखी और आनंदमय जीवन जिएँ, माँ-बाप अपनी युवावस्था को त्याग देते हैं, अपनी ऊर्जा खपाते हैं, शारीरिक सुखों को एक तरफ रखकर अपने करियर और शौक को भी त्याग देते हैं। वे यह सब अपने बच्चों की खातिर करते हैं। यह एक जिम्मेदारी है। माँ-बाप को यह जिम्मेदारी क्यों निभानी चाहिए? क्योंकि हर माँ-बाप पर अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने का दायित्व है। यह उनकी ऐसी जिम्मेदारी है जिसे वे टाल नहीं सकते। हालाँकि, लोगों का समाज और मानवजाति के प्रति ऐसा कोई दायित्व नहीं है। अगर तुम अपना ख्याल रखते हो, परेशानी खड़ी नहीं करते और दूसरों के लिए दिक्कत पैदा नहीं करते, तो तुम पहले से ही काफी अच्छा कर रहे हो। ऐसी एक और परिस्थिति वह होती है जहाँ शारीरिक रूप से कमजोर लोग अपनी देखभाल खुद नहीं कर पाते और अपने जीवन-यापन में मदद करने और जीवित रहने के लिए उन्हें माँ-बाप, भाई-बहनों और यहाँ तक कि समाज कल्याण संगठनों की जरूरत होती है। एक और विशेष परिस्थिति तब होती है जब लोग या क्षेत्र प्राकृतिक आपदा से प्रभावित होते हैं, और वे आपातकालीन राहत के बिना जीवित नहीं रह सकते। यह एक ऐसी परिस्थिति है जहाँ उन्हें दूसरों की मदद की जरूरत पड़ती है। क्या इनके अलावा भी कोई अन्य परिस्थितियाँ हैं, जिनमें लोगों को दूसरों की खातिर अपने हित त्याग देने चाहिए? शायद नहीं। वास्तविक जीवन में, समाज बेहद प्रतिस्पर्धी है, और अगर कोई अपना काम अच्छी तरह से करने में अपनी सारी मानसिक ऊर्जा नहीं लगाता, तो आगे बढ़ना, जीवित रहना मुश्किल है। मानवजाति दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने में असमर्थ है; अगर लोग अपना जीवित रहना सुनिश्चित कर सकते हैं और दूसरों के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते, तो यह पहले से ही काफी अच्छी बात है। वास्तव में, मानवजाति का असली चेहरा उन संघर्षों और प्रतिशोधपूर्ण खून-खराबे में अधिक सटीक रूप से प्रतिबिंबित होता है जहाँ वे सामाजिक संदर्भ और वास्तविक जीवन की परिस्थितियों से जूझते हैं। खेल आयोजनों में तुम देखते हो कि जब खिलाड़ी अपनी क्षमता दिखाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाकर आखिर में जीत जाते हैं, तो उनमें से कोई भी यह नहीं कहता, “मुझे चैंपियन का खिताब नहीं चाहिए। मेरे हिसाब से तुम उसके ज्यादा काबिल हो।” कोई भी ऐसा कभी नहीं करेगा। प्रथम स्थान पर आने, सर्वश्रेष्ठ बनने और शीर्ष पर पहुँचने के लिए प्रतिस्पर्धा करना लोगों की सहज प्रवृत्ति है। वास्तव में लोग दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने में बिल्कुल असमर्थ हैं। दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की जरूरत या इच्छा मनुष्य की सहज प्रवृत्ति नहीं है। मनुष्य के सार और प्रकृति को देखें, तो वह केवल अपनी खातिर कार्य कर सकता है और करेगा। अगर कोई व्यक्ति अपने हितों के लिए कार्य करता है और ऐसा करते हुए सही मार्ग अपनाने में सक्षम होता है, तो यह एक अच्छी बात है, और इस व्यक्ति को मनुष्यों के बीच एक अच्छा सृजित प्राणी माना जा सकता है। अगर, अपने हित में कार्य करते हुए, तुम सही मार्ग अपनाने में सक्षम होते हो, सत्य और सकारात्मक चीजों का अनुसरण कर सकते हो, और अपने आस-पास के लोगों पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हो, तो तुम पहले से ही काफी अच्छा कर रहे हो। दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने के विचार का प्रचार-प्रसार करना शेखी बघारने से ज्यादा कुछ नहीं है। यह न तो मनुष्य की जरूरतों के अनुरूप है, न ही मानवजाति की वर्तमान स्थिति से मेल खाता है। इस तथ्य के बावजूद कि दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की यह अपेक्षा वास्तविकता के अनुरूप न होकर अमानवीय है, इसका अभी भी लोगों के दिलों में एक खास स्थान है, और लोगों के विचार अभी भी इससे अलग-अलग स्तर तक प्रभावित और बँधे हुए हैं। जब लोग सिर्फ अपने लिए कार्य करते हैं, दूसरों के लिए कुछ नहीं करते, दूसरों की मदद नहीं करते, या दूसरों के बारे में नहीं सोचते या उनके लिए विचार नहीं करते, तो उन्हें अक्सर दिल से बुरा महसूस होता है। उन्हें लगता है कि उन पर कोई अदृश्य दबाव है और कभी-कभी तो दूसरों की आलोचनात्मक नजरें उन्हें घूर रही होती हैं। ऐसी भावनाएँ उनके दिलों की गहराई में निहित पारंपरिक नैतिक विचारधारा के प्रभाव के कारण उत्पन्न होती हैं। क्या तुम लोग भी पारंपरिक संस्कृति से अलग-अलग स्तर तक प्रभावित हुए हो, जिसमें कहा जाता है कि तुम्हें दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने होंगे? (बिल्कुल।) बहुत से लोग अभी भी पारंपरिक संस्कृति की अपेक्षाओं को मानते हैं, और अगर कोई इन अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम है, तो लोग उनके बारे में अच्छा सोचेंगे और कोई भी उनकी निंदा या विरोध नहीं करेगा, फिर चाहे वे इनमें से कितनी भी अपेक्षाएँ पूरी करते हों। अगर कोई व्यक्ति किसी को सड़क पर गिरते हुए देखे और जाकर उसकी मदद न करे तो सभी लोग उस व्यक्ति से नाराज होंगे, कहेंगे कि वह व्यक्ति बहुत अमानवीय है। इससे पता चलता है कि मनुष्यों पर लागू होने वाले पारंपरिक संस्कृति के आवश्यक मानकों का लोगों के दिलों में एक खास स्थान है। तो, अगर किसी व्यक्ति को पारंपरिक संस्कृति की इन चीजों के आधार पर आँका जाए, तो क्या यह सही होगा? जो लोग सत्य नहीं समझते वे कभी भी इस समस्या को पूरी तरह से नहीं समझ पाएँगे। यह कहना सही होगा कि पारंपरिक संस्कृति हजारों साल से मानव जीवन का हिस्सा रही है, पर वास्तव में इसका क्या प्रभाव पड़ा है? क्या इसने मानवजाति के आध्यात्मिक नजरिए को बदला है? क्या इससे समाज में सभ्यता और प्रगति आई? क्या इससे समाज में लोक सुरक्षा की समस्याएँ हल हुई हैं? क्या यह मानवजाति को शिक्षित करने में सफल रही है? इसने इनमें से किसी का भी समाधान नहीं किया है। पारंपरिक संस्कृति बिल्कुल भी प्रभावी नहीं रही है, तो हम यह कह सकते हैं कि मनुष्यों पर लागू होने वाले इसके आवश्यक मानकों को कसौटी नहीं माना जा सकता है—यह सिर्फ लोगों के हाथ-पैर बाँधने, उनके विचारों को बाधित करने और उनके व्यवहार को नियंत्रित करने वाली बेड़ियाँ हैं। ऐसा इसलिए है ताकि मनुष्य चाहे जहाँ कहीं भी जाए, वह अच्छा व्यवहार करे, नियमों का पालन करे, उसमें मानवता की झलक दिखे, वह बूढ़ों का सम्मान करे और छोटों का खयाल रखे और वरिष्ठता का सम्मान करना जाने। ऐसा इसलिए है ताकि कोई व्यक्ति भोला और अशिष्ट दिखकर दूसरों को परेशान न करे। बहुत हुआ तो ये सभी मानक लोगों को बस थोड़ा अधिक आकर्षक और परिष्कृत दिखने में मदद करते हैं—वास्तव में, इसका लोगों के सार से कोई लेना-देना नहीं है और यह सिर्फ दूसरों से पल भर की स्वीकृति पाने और अपने घमंड को संतुष्ट करने के लिए अच्छा है। जब दूसरों के लिए कार्य करने के कारण लोग तुम्हें अच्छा इंसान कहते हैं तो तुम फूले नहीं समाते। जब तुम बस में बच्चों और बुजुर्गों के लिए अपनी सीट छोड़कर उनका ख्याल रखना दिखाते हो और दूसरे लोग तुम्हें अच्छा इंसान और देश का भविष्य कहते हैं, तो तुम्हें भी बड़ी खुशी होती है। तुम तब भी खुश होते हो जब टिकट खरीदने के लिए कतार में खड़े होकर भी तुम खुद से पहले अपने पीछे वाले को टिकट खरीदने देते हो और दूसरों का ध्यान रखने के लिए लोग तुम्हारी प्रशंसा करते हैं। कुछ नियमों का पालन करने और कुछ अच्छे काम करने के बाद तुम्हें लगता है कि तुम्हारा चरित्र महान है। अगर तुम यह मानते हो कि कुछ एक बार के अच्छे कार्यों के बाद तुम्हारा दर्जा दूसरों की तुलना में ऊँचा हो गया है—तो क्या यह बेवकूफी नहीं है? इस बेवकूफी के कारण तुम अपने मार्ग और विवेक से भटक सकते हो। दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने की नैतिक आचरण की इस कहावत के बारे में संगति करने में ज्यादा समय बर्बाद करना उचित नहीं है। इससे जुड़ी समस्याओं को समझना काफी आसान है, क्योंकि यह लोगों की मानवता, चरित्र और गरिमा को काफी बड़े स्तर तक विकृत कर देती है। इससे वे अधिक निष्ठाहीन, अव्यावहारिक, आत्म-संतुष्ट हो जाते हैं और यह जानने में सक्षम नहीं होते हैं कि उन्हें कैसे रहना चाहिए, वास्तविक जीवन में लोगों, घटनाओं और चीजों को कैसे समझना चाहिए, और अपने सामने आने वाली विभिन्न समस्याओं से कैसे निपटना चाहिए। लोग सिर्फ दूसरों की थोड़ी-बहुत मदद करने और उनकी चिंताओं और समस्याओं से राहत दिलाने में सक्षम हैं, पर जीवन में उन्हें किस मार्ग पर चलना चाहिए, इस बारे में कुछ नहीं बता पाते हैं, इसलिए शैतान उन्हें अपने इशारों पर नचाता है और वे उसके उपहास के पात्र बन जाते हैं—क्या यह अपमान का प्रतीक नहीं है? जो भी हो, दूसरों की खातिर अपने हित त्यागने का यह तथाकथित नैतिक मानक पाखंडपूर्ण और विकृत कहावत है। बेशक, इस संबंध में, परमेश्वर मनुष्यों से बस यही अपेक्षा करता है कि वे उन दायित्वों, जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को पूरा करें जो उन्हें सौंपे गए हैं, और यह कि वे लोगों को चोट, नुकसान या हानि न पहुँचाएँ, और वे इस तरह से व्यवहार करें जिससे दूसरों को भी फायदा हो—इतना ही काफी है। परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि लोग कोई अतिरिक्त जिम्मेदारियाँ या दायित्व उठाएँ। अगर तुम अपने सभी कार्य, कर्तव्यों, दायित्वों, और जिम्मेदारियों को पूरा कर सकते हो, तो तुम पहले से ही अच्छा कर रहे हो—क्या यह सीधी-सी बात नहीं है? (बिल्कुल।) इसे आसानी से पूरा किया जा सकता है। क्योंकि यह बहुत सरल है और हर कोई इसे समझता है, तो इसके बारे में अधिक विस्तार से संगति करने की कोई जरूरत नहीं है।
अब मैं नैतिक आचरण के इस कथन पर चर्चा करूँगा कि “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए।” इस कथन और नैतिक आचरण के लिए अन्य आवश्यक मानकों के बीच इस मायने में अंतर है कि यह मानक खास तौर पर महिलाओं के लिए है। “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” यह महिलाओं के संबंध में तथाकथित नैतिकतावादियों द्वारा प्रस्तावित एक अमानवीय और अव्यावहारिक अपेक्षा है। मैंने ऐसा क्यों कहा? क्योंकि इस मानक की अपेक्षा यह है कि सभी महिलाओं को, चाहे वे बेटियाँ हों या पत्नियाँ, सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए। एक अच्छी और सम्मानित महिला कहलाने के लिए उन्हें इस प्रकार के नैतिक आचरण का अभ्यास करना और यह नैतिक चरित्र अपनाना होगा। पुरुषों के लिए इसका मतलब यह है कि महिलाओं को तो सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए, जबकि पुरुषों को नहीं—पुरुषों को सच्चरित्र या दयालु होने की कोई जरूरत नहीं है, और न ही उन्हें सौम्य या नैतिकतायुक्त होने की जरूरत है। फिर पुरुषों को क्या करना चाहिए? अगर उनकी पत्नियाँ सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त नहीं हो पाती हैं, तो वे उन्हें तलाक दे सकते हैं या त्याग सकते हैं। अगर कोई पुरुष अपनी पत्नी को त्याग नहीं सकता, तो उसे क्या करना चाहिए? उसे अपनी पत्नी को एक सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त महिला बनाना चाहिए—यह उसकी जिम्मेदारी और दायित्व है। पुरुषों की सामाजिक जिम्मेदारी महिलाओं पर सख्ती से नजर रखना, उनका मार्गदर्शन और उनकी निगरानी करना है। उन्हें पूरी तरह से श्रेष्ठ लोगों की भूमिका निभाते हुए सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त महिलाओं का दमन करना चाहिए, उनका स्वामी और घर का मुखिया बनकर यह पक्का करना चाहिए कि महिलाएँ वही करें जो उन्हें करना चाहिए और इस तरह अपने उचित दायित्वों को पूरा करना चाहिए। वहीं, पुरुषों को ऐसे नैतिक आचरण का अभ्यास करने की कोई जरूरत नहीं है—उन पर यह नियम लागू नहीं होता। क्योंकि यह नियम पुरुषों पर लागू नहीं होता, तो नैतिक आचरण के बारे में यह दावा सिर्फ एक मानक है जिससे पुरुष महिलाओं को आँक सकते हैं। यानी, जब कोई पुरुष अच्छे नैतिक आचरण वाली महिला से शादी करना चाहता है तो उसे उस महिला को कैसे आँकना चाहिए? वह बस यह निर्धारित कर सकता है कि महिला सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त है या नहीं। अगर वह सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त है, तो वह उससे शादी कर सकता है—वरना उसे उससे शादी नहीं करनी चाहिए। अगर वह ऐसी महिला से शादी करता है, तो लोग उसे नीची नजर से देखेंगे और यह भी कहेंगे कि वह एक अच्छी इंसान नहीं है। तो, नैतिकतावादियों के अनुसार महिलाओं को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त कहलाने के लिए कौन-सी विशेष अपेक्षाएँ पूरी करनी होंगी? क्या इन विशेषणों का कोई विशेष अर्थ होता है? “सच्चरित्र,” “दयालु,” “सौम्य,” और “नैतिकतायुक्त,” इन चारों शब्दों में से प्रत्येक के पीछे एक गहरा अर्थ है, और इनमें से एक भी गुण पर खरा उतरना किसी के लिए आसान नहीं है। कोई भी पुरुष या बुद्धिजीवी इन गुणों पर खरा नहीं उतर सकता, फिर भी वे सामान्य महिलाओं से ऐसी अपेक्षा रखते हैं—यह महिलाओं के लिए बेहद अनुचित है। तो महिलाओं को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त कहलाने के लिए कैसे बुनियादी व्यवहार और किस तरह के नैतिक आचरण दिखाने चाहिए? सबसे पहले, महिलाओं को अपने निवास के आंतरिक कक्षों के बाहर कभी भी कदम नहीं रखना चाहिए, और उन्हें लगभग चार इंच तक ही अपने पैर आगे करने चाहिए, जो एक छोटे बच्चे की हथेली की लंबाई से भी कम है। यह महिलाओं पर रोक लगाता है और पक्का करता है कि वे जहाँ चाहें वहाँ न जा सकें। शादी से पहले महिलाओं को अपने निवास के आंतरिक कक्षों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं दी जाती है, उन्हें अपने जनानखाने तक ही सीमित रहना पड़ता है, और वे सबके सामने अपना चेहरा तक नहीं दिखा सकती हैं। अगर वे इन नियमों का पालन कर सकती हैं, तो उनके पास एक सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त अविवाहित महिला का नैतिक चरित्र है। शादी के बाद महिला को अपने सास-ससुर के प्रति संतानोचित आज्ञाकारिता दिखानी चाहिए और अपने पति के अन्य रिश्तेदारों के साथ अपेक्षाकृत अच्छा व्यवहार करना चाहिए। ससुराली उससे चाहे जैसा व्यवहार या ज्यादती करें, उसे वफादार बैल की तरह जुतकर कठिनाई और आलोचना सहनी होगी। उसे न सिर्फ परिवार के सभी सदस्यों, बच्चों-बूढ़ों की सेवा करनी होगी, बल्कि वंश को आगे बढ़ाने के लिए बच्चे भी पैदा करने होंगे और यह सब बिना किसी शिकायत के करना होगा। चाहे उसे अपने सास-ससुर के हाथों कितना भी पिटना पड़े या उसके साथ कितना भी अन्याय किया जाए, चाहे वह कितनी भी थकी हुई हो और उसे कितनी भी मेहनत करनी पड़े, वह कभी अपने पति से इस बारे में शिकायत नहीं कर सकती। उसके सास-ससुर चाहे उसे कितना भी धमकाएँ, वह परिवार के बाहर किसी को भी इसकी जानकारी नहीं होने दे सकती और न ही अपने परिवार के बारे में कोई अफवाह फैला सकती है। उसके साथ चाहे कितना भी गलत हुआ हो, वह अपना मुँह नहीं खोल सकती और उसे चुपचाप अपमान का घूँट पीना होगा। उसे न सिर्फ कठिनाइयों और आलोचनाओं को सहना होगा, बल्कि उत्पीड़न के प्रति दब्बू बनकर समर्पण करना, अपने गुस्से को दबाना, और अपमान सहकर भी जिम्मेदारी का बोझ उठाना सीखना होगा—उसे सहनशीलता और धैर्य की कला सीखनी होगी। भोजन में चाहे जो भी बढ़िया पकवान बना हो, उसे पहले परिवार के अन्य सदस्यों को खिलाना होगा; अपनी संतानोचित आज्ञाकारिता दिखाने के लिए उसे पहले अपने सास-ससुर को और फिर अपने पति और बच्चों को खिलाना होगा। जब सभी लोग खा चुके होंगे और सारा बढ़िया खाना खत्म हो जाएगा, तब उसे बचे-खुचे खाने से अपना पेट भरना पड़ेगा। जिन अपेक्षाओं की मैंने अभी चर्चा की उनके अलावा, आज के समय में, महिलाओं से “घर के साथ ही बाहर भी चमकने” की अपेक्षा की जाती है। यह बात सुनकर मैंने सोचा, अगर महिलाओं से घर के साथ ही बाहर भी चमकने की अपेक्षा की जाती है तो पुरुष क्या कर रहे हैं? महिलाओं को पूरे परिवार के लिए खाना बनाना चाहिए, घर के सारे काम और बच्चों की देखभाल करनी चाहिए, और बाहर खेतों में जाकर मजदूरी भी करनी चाहिए—ये सभी काम करते हुए उन्हें घर में और घर के बाहर दोनों जगह अच्छा काम करना होगा। वहीं, पुरुषों को बस काम पर जाकर घर वापस आना, और मौज-मस्ती में अपना समय बर्बाद करना होता है, उन्हें घरेलू काम नहीं करने होते। अगर काम के दौरान उन्हें किसी बात पर गुस्सा आता है, तो वे इसे अपनी पत्नी और बच्चों पर उतारते हैं—क्या यह उचित है? जिन विषयों पर मैंने चर्चा की उनसे तुम लोगों ने क्या समझा? कोई भी पुरुषों के नैतिक आचरण को लेकर कोई अपेक्षा नहीं रखता, लेकिन महिलाओं से सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त चरित्र बनाए रखने के अलावा घर के साथ ही बाहर भी चमकने की अपेक्षा की जाती है। कितनी महिलाएँ ऐसी अपेक्षाओं पर खरी उतर पाती हैं? क्या महिलाओं से ऐसी अपेक्षा करना अनुचित नहीं है? अगर कोई महिला छोटी-सी भी गलती करती है, तो उसे मारा-पीटा और अपमानित किया जाता है, और यहाँ तक कि उसका पति उसे छोड़ भी सकता है। महिलाओं को यह सब सहना पड़ता है, और अगर वे वाकई यह सब और नहीं सह सकतीं, तो उनके पास सिर्फ आत्महत्या करने का विकल्प बचता है। क्या सिर्फ महिलाओं से ऐसी अमानवीय अपेक्षाएँ करना दमनकारी नहीं है, जबकि वे शारीरिक रूप से कमजोर, पुरुषों की तुलना में कम शक्तिशाली और शारीरिक रूप से कम सक्षम होती हैं? आज यहाँ जितनी भी महिलाएँ हैं, अगर वास्तविक जीवन में लोग तुम सबसे ऐसी अपेक्षाएँ करें तो क्या तुम लोगों को यह ज्यादती नहीं लगेगी? क्या पुरुष सचमुच महिलाओं पर काबू रखने के लिए बने हैं? क्या उनका उद्देश्य महिलाओं के मालिक बनना और उन्हें कठिनाई सहने के लिए मजबूर करना है? इस विकृत स्थिति को देखते हुए, क्या हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए” वाली कहावत प्रभावी रूप से समाज में दरार पैदा कर रही है? क्या यह साफ तौर पर समाज में पुरुषों का दर्जा ऊँचा उठाते हुए जानबूझकर महिलाओं का दर्जा नहीं घटा रही है? यह अपेक्षा पुरुषों और महिलाओं को दृढ़ता से यह सोचने पर मजबूर करती है कि समाज में महिलाओं का दर्जा और मूल्य पुरुषों के बराबर नहीं, बल्कि उनकी तुलना में कम है। इसलिए, महिलाओं को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना पड़ता है, दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है, समाज में उनके साथ भेदभाव होता है, उन्हें अपमान सहना पड़ता है और मानवाधिकारों से वंचित किया जाता है। इसके विपरीत, यह मान लिया गया है कि पुरुष घर के मुखिया होने चाहिए और तार्किक ढंग से महिलाओं से सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होने की माँग करते हैं। क्या यह जानबूझकर समाज में संघर्ष पैदा करना नहीं हुआ? क्या यह जानबूझकर समाज में दरार पैदा करना नहीं हुआ? क्या लंबे समय तक दुर्व्यवहार झेलने के बाद कुछ महिलाएँ विद्रोह के लिए नहीं उठ खड़ी होंगी? (बिल्कुल होंगी।) जहाँ भी अन्याय होता है, वहाँ विद्रोह जरूर होगा। क्या नैतिक आचरण की यह कहावत महिलाओं के लिए उचित और न्यायसंगत है? कम से कम, यह महिलाओं के लिए उचित और न्यायसंगत तो नहीं है—यह पुरुषों को और भी ज्यादा बेशर्मी से व्यवहार करने का लाइसेंस देती है, समाज में दरार को गहरा करती है, पुरुषों का दर्जा बढ़ाती है और महिलाओं का दर्जा गिराती है; इसके साथ ही, यह महिलाओं को उनके अस्तित्व के अधिकार से और भी अधिक वंचित करती है, और समाज में पुरुषों और महिलाओं के दर्जे में महीन ढंग से असमानता बढ़ाती है। मैं घर पर और समाज में बड़े पैमाने पर महिलाओं की भूमिका और उनके द्वारा प्रदर्शित नैतिक आचरण को केवल तीन शब्दों में समेट सकता हूँ : बलि का बकरा। नैतिक आचरण की कहावत, “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” यह अपेक्षा करती है कि महिलाएँ परिवार में बड़ों का सम्मान करें, छोटों से प्यार और उनकी देखभाल करें, खास तौर पर अपने पतियों का सम्मान और सेवा करें। उन्हें घर के अंदर और बाहर सभी पारिवारिक मामलों को संभालना होगा, और वे चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ झेलें, कभी कोई शिकायत नहीं कर सकतीं—क्या यह महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करना नहीं हुआ? (बिल्कुल हुआ।) यह महिलाओं को उनकी स्वतंत्रता, आजादी से बोलने के अधिकार और जीवन जीने के अधिकार से वंचित करना हुआ। क्या महिलाओं को उनके सभी अधिकारों से वंचित करके उनसे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने की अपेक्षा करना मानवीय है? यह महिलाओं को कुचलने और भयंकर कष्ट देने के समान है!
साफ जाहिर है कि जिन नैतिकतावादियों ने महिलाओं पर यह अपेक्षा थोपी और इस प्रक्रिया में उन्हें भयंकर कष्ट पहुँचाया, वे पुरुष ही थे, न कि महिलाएँ। महिलाएँ कभी दूसरी महिलाओं को नहीं कुचलेंगी, तो यह यकीनन पुरुषों का ही काम था। उन्हें चिंता थी कि अगर महिलाएँ ज्यादा सक्षम हो गईं, उन्हें बहुत ज्यादा अधिकार और स्वतंत्रता मिल गई तो सख्त निगरानी और नियंत्रण के बिना वे पुरुषों के बराबर हो जाएँगी। धीरे-धीरे, सक्षम महिलाओं का दर्जा पुरुषों से ऊँचा हो जाएगा, वे अपने घरेलू काम करना बंद कर देंगी, और वे मानते थे कि इससे घरेलू सामंजस्य पर असर पड़ेगा। अगर अलग-अलग घरों में सामंजस्य की कमी हो, तो पूरे समाज का तालमेल बिगड़ जाएगा और यह देश के शासकों के लिए चिंताजनक रहेगा। देखा तुमने, चाहे हम कोई भी चर्चा करें, बात हमेशा घूम-फिरकर शासक वर्ग पर आ जाती है। उनके इरादे बुरे होते हैं और वे महिलाओं से निपटना और उनके खिलाफ कार्रवाई करना चाहते हैं—यह अमानवीय है। वे यह अपेक्षा करते हैं कि चाहे घर पर हो या पूरे समाज में, महिलाओं को पूरी तरह से आज्ञाकारी होना चाहिए, उत्पीड़न के प्रति चुपचाप समर्पण करना चाहिए, खुद को विनम्र और कमतर दिखाना चाहिए, हर तरह के अपमान का घूँट पीना चाहिए, सुशिक्षित और समझदार होना चाहिए, विनीत और विचारशील होना चाहिए, और बिना किसी आलोचना के सभी कठिनाइयों को सहना चाहिए, वगैरह। जाहिर है कि वे महिलाओं को बस बलि का बकरा और पायदान जैसा समझते हैं—अगर वे यह सब करते हैं, तो क्या उन्हें अभी भी मनुष्य कहा जाएगा? अगर वे वाकई इन सभी अपेक्षाओं को पूरा कर सकें, तो वे मनुष्य नहीं होंगी; वे अविश्वासियों द्वारा पूजी जाने वाली उन प्रतिमाओं जैसी होंगी जो खाती-पीती नहीं हैं, सांसारिक भौतिक चिंताओं से अलग होती हैं, कभी गुस्सा नहीं होती हैं, और न ही उनका कोई व्यक्तित्व होता है। या फिर वे उन कठपुतलियों या मशीनों जैसी हो सकती हैं जो न तो अपने आप सोचती हैं और न ही प्रतिक्रिया करती हैं। किसी भी वास्तविक इंसान के पास बाहरी दुनिया की इन कहावतों और पाबंदियों पर राय और दृष्टिकोण होंगे—यह मुमकिन नहीं है कि वह सभी उत्पीड़नों के प्रति चुपचाप समर्पण कर दे। यही कारण है कि आज के समय में महिला अधिकार आंदोलन हो रहे हैं। पिछले करीब सौ सालों में धीरे-धीरे समाज में महिलाओं का दर्जा बढ़ा है, और वे आखिरकार उन बेड़ियों से मुक्त हो पाई हैं जो कभी उन्हें बाँधकर रखती थीं। कितने सालों तक महिलाओं को इस बंधन में जकड़कर रखा गया? पूर्वी एशिया में, वे कम से कम कई हजार सालों तक इस बंधन में बंधी रहीं। यह बंधन बेहद क्रूर और बर्बर था—उनके पैर इस हद तक बंधे थे कि वे चल-फिर भी नहीं सकती थीं और किसी ने कभी इन महिलाओं को अन्याय से नहीं बचाया। मैंने सुना है कि 17वीं और 18वीं शताब्दी में कुछ पश्चिमी देशों और क्षेत्रों ने भी महिलाओं की आजादी पर कुछ पाबंदियाँ लगाईं थीं। उन दिनों उन्होंने महिलाओं पर कैसी पाबंदियाँ लगाईं थीं? उन्हें हूप स्कर्ट पहनने को कहा गया था जो उनकी कमर पर धातु की पट्टियों और धातु के लटकते हुए भारी छल्लों से कसकर बँधी होती थीं। इससे महिलाओं के लिए घर से बाहर निकलना या घूमना-फिरना बहुत असुविधाजनक होता था और वे अच्छे से चल-फिर नहीं पाती थीं। इसलिए महिलाओं को दूर तक चलने या अपने घरों से निकलने में बहुत कठिनाई होती थी। इन कठिन परिस्थितियों में महिलाओं ने क्या किया? उनके पास चुपचाप सहमति देने और घर पर ही रहने के अलावा और कोई चारा नहीं था, और वे लंबी दूरी की यात्राएँ भी नहीं कर सकती थीं। घूमने-फिरने के लिए बाहर जाने, दर्शनीय स्थल देखने, अपना दायरा बढ़ाने या दोस्तों से मिलने के लिए बाहर जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था। पश्चिमी समाज में महिलाओं पर इसी तरह की पाबंदियाँ लगाई जाती थीं—वे नहीं चाहते थे कि महिलाएँ घर छोड़कर बाहर जाएँ और अपनी मर्जी से किसी के भी संपर्क में आएँ। उन दिनों, पुरुष अपनी घोड़ागाड़ी लेकर बेरोकटोक जहाँ चाहें वहाँ जा सकते थे, मगर महिलाओं को घर से बाहर निकलने पर तमाम पाबंदियों का सामना करना पड़ता था। आज के समय में महिलाओं पर कम से कम पाबंदियाँ लगाई जाती हैं : पैरों को बाँधकर रखना गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है और पूरब की महिलाएँ जिसे चाहे उसे अपना साथी चुन सकती हैं। महिलाएँ अब पहले से ज्यादा आजाद हैं और धीरे-धीरे उन बेड़ियों की छाया से बाहर आ रही हैं। इस छाया से उभरते हुए, उन्होंने समाज में प्रवेश किया है और धीरे-धीरे अपनी उचित जिम्मेदारी निभानी भी शुरू कर दी है। महिलाओं ने समाज में अपेक्षाकृत ऊँचा दर्जा हासिल कर लिया है और उन्हें पहले की तुलना में अधिक अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त हैं। धीरे-धीरे कुछ देशों में महिलाओं को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति चुना जाने लगा है। धीरे-धीरे महिलाओं का दर्जा बढ़ना मानवता के लिए अच्छी बात है या बुरी? कम से कम, इस तरह दर्जा बढ़ने से महिलाओं को कुछ हद तक स्वतंत्रता और मुक्ति मिली है—महिलाओं के लिए तो यह यकीनन अच्छी बात है। क्या महिलाओं का स्वतंत्र होना और उनके पास खुद को अभिव्यक्त करने का अधिकार होना समाज के लिए फायदेमंद है? दरअसल, यह फायदेमंद है; महिलाएँ ऐसे कई काम करने में सक्षम हैं जिन्हें पुरुष या तो अच्छी तरह से नहीं करते या करना नहीं चाहते हैं। महिलाएँ कई कार्यक्षेत्रों में बेहतरीन प्रदर्शन करती हैं। आजकल महिलाएँ न केवल कार चला सकती हैं बल्कि हवाई जहाज भी उड़ा सकती हैं। कुछ महिलाएँ राष्ट्रों के मामलों की अध्यक्षता करने वाली अधिकारियों या अध्यक्षाओं के रूप में भी काम कर रही हैं, और वे अपने काम में पुरुषों से कहीं भी कमतर नहीं हैं—इससे एक बात तो साफ है कि महिलाएँ पुरुषों के बराबर हैं। अब महिलाओं को जो अधिकार मिलने चाहिए, उन्हें पूरी तरह बढ़ावा देकर उनकी रक्षा की जा रही है, जो एक सामान्य घटना है। बेशक, यह उचित है कि महिलाओं को अपने अधिकारों का आनंद उठाना चाहिए, लेकिन हजारों सालों तक हालात बदतर रहने के बाद, अब जाकर यह फिर से मानक बना है, और महिला-पुरुषों के बीच समानता हासिल हो पाई है। वास्तविक जीवन के परिप्रेक्ष्य से देखें, तो महिलाएँ धीरे-धीरे सभी सामाजिक वर्गों और उद्योगों में अपनी मौजूदगी बढ़ा रही हैं। इससे हमें क्या पता चलता है? इससे हमें यह पता चलता है कि सभी प्रकार की विभिन्न विशेषज्ञताओं वाली महिलाएँ धीरे-धीरे अपनी प्रतिभाओं का उपयोग करके मानवजाति और समाज के लिए योगदान दे रही हैं। कोई व्यक्ति इन हालात को चाहे कैसे भी देखे, यह यकीनन मानवजाति के लिए फायदेमंद है। अगर समाज में महिलाओं के अधिकार और दर्जे को बहाल न किया जाता, तो वे आज किस तरह के काम कर रही होतीं? वे घर पर रहकर अपने पतियों की सेवाटहल करतीं और अपने बच्चों को बड़ा करतीं, घर के मामले देखतीं, और अपने सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त आचरण पर अमल करतीं—वे अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को बिल्कुल भी पूरा न कर पातीं। अब जबकि उनके अधिकारों को बढ़ावा दिया जा रहा है और उनकी सुरक्षा की जा रही है, तो महिलाएँ सामान्य रूप से समाज में योगदान दे सकती हैं, और मानवजाति ने उन मूल्यों और योगदानों का लाभ उठाया है जो महिलाएँ समाज में लेकर आई हैं। इस तथ्य से यह बात पूरी तरह स्पष्ट होती है कि महिला-पुरुष बराबर हैं, और पुरुषों को महिलाओं को नीचा नहीं दिखाना चाहिए या उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए, और महिलाओं के सामाजिक दर्जे को बढ़ाना चाहिए, जो यह दर्शाता है कि समाज में सुधार हो रहा है। मानवजाति के पास अब लैंगिक मामलों में अधिक अंतर्दृष्टिपूर्ण, सही और नियंत्रित समझ है, और इसी वजह से महिलाएँ उन कामों में शामिल होने लगी हैं जिनके बारे में लोग सोचते थे कि वे करने में असमर्थ हैं। महिला कर्मचारियों को अब न केवल अक्सर निजी उद्यमों में नियुक्त किया जाता है, बल्कि वैज्ञानिक अनुसंधान विभागों में भी कई पदों पर महिलाओं का काम करना काफी आम हो गया है, और राष्ट्रीय नेतृत्व की भूमिकाओं में कार्यरत महिलाओं का अनुपात भी बढ़ रहा है। हम सभी ने महिला लेखिकाओं, गायिकाओं, उद्यमियों और वैज्ञानिकों के बारे में भी सुना है, कई महिलाएँ खेल प्रतियोगिताओं में विजेता और उप-विजेता बनी हैं, और यहाँ तक कि युद्ध के समय में महिला नायिकाएँ भी रही हैं, इन सारी बातों से यह साबित होता है कि महिलाएँ भी बिल्कुल अपने पुरुष समकक्षों जैसी सक्षम हैं। हरेक उद्योग में कार्यरत महिलाओं का अनुपात बढ़ रहा है और यह अपेक्षाकृत सामान्य बात है। समकालीन समाज में सभी कारोबारों और पेशों में, महिलाओं के प्रति कम से कम पूर्वाग्रह है, समाज पहले से ज्यादा निष्पक्ष है और महिला-पुरुषों के बीच सच्ची समानता है। महिलाओं को अब नैतिक आचरण की उन कहावतों और मानदंडों से बाधित नहीं किया जाता और आँका नहीं जाता है, जैसे कि “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए” या “एक महिला को अपने जनानखाने तक ही सीमित रहना चाहिए।” महिलाओं के अधिकार अब पहले से ज्यादा सुरक्षित हैं, जो वास्तव में पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता के सामाजिक परिवेश को दर्शाता है।
हम सिर्फ पुरुषों को ही यह अपेक्षा करते हुए देखते हैं कि महिलाएँ सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त हों, लेकिन हमें महिलाएँ कभी ऐसी अपेक्षाएँ पुरुषों से करती दिखाई नहीं देती हैं। महिलाओं से पेश आने का यह तरीका बहुत ही गलत है और थोड़ा-बहुत स्वार्थी, घृणित और बेशर्म भी है। यह भी कहा जा सकता है कि महिलाओं के साथ ऐसा बर्ताव करना गैरकानूनी और अपमानजनक है। समकालीन समाज में कई देशों ने महिलाओं और बच्चों के साथ दुर्व्यवहार पर रोक लगाने वाले कानून बनाए हैं। वास्तव में, मानवजाति के लैंगिक संबंध को लेकर परमेश्वर ने कुछ नहीं कहा है, क्योंकि महिला-पुरुष दोनों ही परमेश्वर की रचनाएँ हैं और परमेश्वर से आते हैं। जैसी एक कहावत भी है, “हाथ की हथेली और पीछे का हिस्सा, दोनों ही हाड़-माँस से बने होते हैं”—परमेश्वर का पुरुषों या महिलाओं के प्रति कोई विशेष पूर्वाग्रह नहीं है, और न ही वह दोनों में से किसी से अलग-अलग अपेक्षाएँ करता है, दोनों ही बराबर हैं। इसलिए, चाहे तुम पुरुष हो या महिला, परमेश्वर तुम्हें आँकने के लिए एक जैसे चंद मानकों का उपयोग करता है—वह यह देखता है कि तुम्हारी मानवता का सार कैसा है, तुम किस मार्ग पर चलते हो, सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, क्या तुम सत्य से प्रेम करते हो, क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है और क्या तुम उसके प्रति समर्पण कर सकते हो। किसी व्यक्ति को कोई विशेष कर्तव्य या विशेष जिम्मेदारी निभाने के लिए चुनते और तैयार करते समय परमेश्वर यह नहीं देखता कि वह महिला है या पुरुष। वह चाहे पुरुष हो या महिला, परमेश्वर यह देखकर उसे आगे बढ़ाता और उपयोग करता है कि उसके पास अंतरात्मा और विवेक है या नहीं, स्वीकार्य क्षमता है या नहीं, क्या वह सत्य को स्वीकारता है या नहीं और वह किस मार्ग पर चलता है। मानवजाति को बचाते और पूर्ण बनाते समय परमेश्वर उसकी लैंगिक स्थिति पर विचार करने के लिए नहीं रुकता। अगर तुम एक महिला हो, तो परमेश्वर यह विचार नहीं करता है कि तुम सच्चरित्र, दयालु, सौम्य या नैतिकतायुक्त हो या नहीं, या तुम्हारा व्यवहार अच्छा है या नहीं, और न ही वह पुरुषों को उनके साहस और पुरुषत्व के आधार पर आँकता है—परमेश्वर महिला-पुरुषों को इन मानकों के आधार पर नहीं आँकता है। फिर भी भ्रष्ट मानवजाति के बीच हमेशा ऐसे लोग होते हैं जो महिलाओं से भेदभाव करते हैं, जो महिलाओं पर कुछ अनैतिक और अमानवीय अपेक्षाएँ थोपते हैं ताकि उन्हें उनके अधिकारों, उनके वास्तविक सामाजिक दर्जे, और समाज में उनके मूल्य से वंचित किया जा सके, और जो समाज के भीतर महिलाओं के सकारात्मक विकास और अस्तित्व को सीमित और बाधित करने की कोशिश करते हैं, उनकी मनोवैज्ञानिक मनोदशाओं को विकृत करते हैं। इस वजह से महिलाओं को अपना पूरा जीवन अवसादग्रस्त और व्यथित होकर बिताना पड़ता है, उनके पास इन विकृत और असाधारण सामाजिक और नैतिक परिवेशों में रहकर अपमानजनक जीवनशैली को बर्दाश्त करने के अलावा और कोई चारा नहीं होता। इसका एकमात्र कारण यह है कि समाज और पूरे संसार पर शैतान का नियंत्रण है, और सभी प्रकार के दानव मानवजाति को निर्दयतापूर्वक गुमराह कर भ्रष्ट कर रहे हैं। इसलिए लोग सच्ची रोशनी नहीं देख पाते हैं, परमेश्वर को नहीं खोजते, बल्कि न चाहते हुए भी या अनजाने में शैतान की धूर्तता और चालाकी में फँसकर जीवन जीते हैं, और इन सबसे छुटकारा पाने में असमर्थ होते हैं। उनके लिए इन सबसे बाहर निकलने का एकमात्र तरीका परमेश्वर के वचनों, उसके प्रकटन और कार्य को खोजना है, ताकि वे सत्य की समझ पा सकें और विभिन्न भ्रांतियों, पाखंडों, शैतानी शब्दों और बेतुके दावों को स्पष्ट रूप से देखने और पहचानने में सक्षम हो सकें, जो सभी शैतान और दुष्ट मानवजाति से उत्पन्न होते हैं। तभी वे इन बाधाओं, दबावों और प्रभावों से मुक्त हो सकेंगे। परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार चीजों और लोगों को देखने, आचरण और व्यवहार करने से ही व्यक्ति एक मनुष्य की तरह, गरिमा के साथ और रोशनी में जीवन जी सकता है, अपने कर्तव्य निभा सकता है, अपने दायित्व पूरे कर सकता है, और बेशक, परमेश्वर की अगुआई में और सही विचारों और दृष्टिकोणों से निर्देशित होकर ही वह अपना उचित योगदान दे सकता है और जीवन का मकसद पूरा कर सकता है—क्या इस तरह से जीना काफी सार्थक नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) इस बात पर पुनर्विचार करते हुए तुम्हारे मन में कैसी भावनाएँ उभर रही हैं कि कैसे शैतान ने महिलाओं से अपेक्षाएँ रखकर और कई हजार साल तक उन पर पाबंदियाँ लगाकर उन्हें नियंत्रित करने और यहाँ तक कि गुलाम बनाने के लिए “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए” जैसी कहावत का उपयोग किया है? जब तुम सब महिलाएँ लोगों को यह कहते सुनती हो कि “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए,” तो क्या तुम तुरंत इसके विरोध में कहती हो, “ऐसी बातें मत करो! इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। भले ही मैं एक महिला हूँ, मगर परमेश्वर के वचन कहते हैं कि इस कहावत का महिलाओं से कोई लेना-देना नहीं है।” इस पर कुछ पुरुष कहेंगे : “अगर इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है, तो फिर यह कहावत किसके लिए बनी है? क्या तुम महिला नहीं हो?” तब तुम्हारा जवाब होगा : “मैं एक महिला हूँ, यह सच है। मगर ये परमेश्वर के वचन नहीं हैं, ये सत्य नहीं हैं। ये शब्द शैतान और मानवजाति की उपज हैं, ये महिलाओं को कुचलकर उन्हें जीवन जीने के अधिकार से वंचित करते हैं। ये शब्द महिलाओं के लिए अमानवीय और अनुचित हैं। मैं इसका विरोध करती हूँ!” इसके विरोध में खड़े होना वास्तव में जरूरी नहीं है। तुम्हें बस ऐसी कहावतों के प्रति सही दृष्टिकोण रखना है, उन्हें अस्वीकार करना है, और उनसे प्रभावित और बेबस नहीं होना है। अगर, आगे जाकर तुमसे कोई कहता है, “तुम महिला जैसी नहीं दिखती, और एक पुरुष की तरह बहुत बेरुखी से बात करती हो। तुमसे भला कौन शादी करना चाहेगा?” इस पर तुम्हें कैसे जवाब देना चाहिए? तुम कह सकती हो, “अगर कोई मुझसे शादी नहीं करता, तो कोई बात नहीं। क्या तुम वाकई यह कहना चाहते हो कि कोई महिला शादी करके ही गरिमापूर्ण जीवन जी सकती है? क्या तुम यह कहना चाहते हो कि सिर्फ सच्चरित्र, दयालु, सौम्य, नैतिकतायुक्त महिलाएँ, जिनसे सभी प्यार करते हैं, वे ही सच्ची महिलाएँ हैं? यह सही नहीं हो सकता—महिलाओं को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त जैसे शब्दों से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। महिलाओं को उनके लिंग से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए और उनकी मानवता को उनके सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होने के आधार पर नहीं आँकना चाहिए, बल्कि उन्हें उन मानकों का उपयोग करके आँकना चाहिए जिनसे परमेश्वर मनुष्य की मानवता का मूल्यांकन करता है। यही उन्हें आँकने का निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ तरीका है।” क्या अब तुम्हें इस कहावत की बुनियादी समझ आ गई कि “महिला को सच्चरित्र, दयालु, सौम्य और नैतिकतायुक्त होना चाहिए?” मेरी संगति से अब तक इस कहावत के प्रासंगिक सत्यों और उन दृष्टिकोणों के बारे में सब स्पष्ट हो जाना चाहिए जो लोगों को इसके प्रति अपनाना चाहिए।
ऐसी ही एक और कहावत है : “कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था।” मैं इस कहावत पर संगति नहीं करना चाहता। मैं इस पर संगति क्यों नहीं करना चाहता? क्योंकि इसकी प्रकृति “दूसरों की खातिर अपने हित त्याग दो” की कहावत के समान है और इसमें कुछ बेतुकापन भी है। अगर किसी व्यक्ति को हर बार पानी निकालने के लिए कुआँ खोदने वाले को याद करना पड़े तो कितनी दिक्कत होगी? कुछ कुओं को लाल फीतों और ताबीजों से सजाया जाता है—अगर लोग वहाँ जाकर धूप-अगरबत्ती जलाएँ और फल चढ़ाएँ, तो क्या यह अजीब नहीं होगा? इस कहावत की तुलना में कि कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था, मुझे यह कहावत ज्यादा पसंद है, “आने वाली पीढ़ियाँ पिछली पीढ़ियों के रोपे हुए पेड़ों की छाया का आनंद लेती हैं,” क्योंकि यह कहावत उस वास्तविकता को दर्शाती है जिसे लोग वास्तव में खुद अनुभव कर जी सकते हैं। एक पौधे को छायादार पेड़ बनने में दस से बीस साल लग जाते हैं, इसलिए जिस व्यक्ति ने पेड़ लगाया था वह इसकी छाया में ज्यादा समय तक आराम नहीं कर पाएगा, और सिर्फ आने वाली पीढ़ियों को ही उनके जीवन भर में इसका लाभ मिलेगा। प्रकृति में चीजें इसी प्रकार व्यवस्थित होती हैं। वहीं दूसरी ओर, जब भी कोई कुएँ से पानी पीने जाए तो उसे खोदने वाले को याद करना थोड़ा पागलपन लगता है। अगर लोगों को हर बार कुएँ से पानी निकालने से पहले उसे खोदने वाले को याद करना पड़े, तो क्या यह थोड़ा पागलपन नहीं लगेगा? अगर उस साल सूखा पड़ जाए और बहुत-से लोगों को उस कुएँ से पानी भरने की जरूरत हो, ऐसे में अगर हर किसी को वहाँ खड़े रहकर पानी निकालने से पहले कुआँ खोदने वाले का ध्यान करना पड़े, तो क्या लोगों को पानी लेने और खाना पकाने में परेशानी नहीं होगी? क्या यह वाकई इतना जरूरी होगा? इससे तो सबका काम रुक जाएगा। क्या कुआँ खोदने वाले की आत्मा कुएँ के पास बसती है? क्या वह उन्हें याद करने वालों की पुकार सुन सकता है? इनमें से किसी भी बात की पुष्टि नहीं की जा सकती। यानी यह कहावत कि “कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था,” पूरी तरह से बेतुकी और निरर्थक है। चीनी परंपरागत संस्कृति ने नैतिक आचरण के संबंध में ऐसी कई कहावतें पेश की हैं, जिनमें से ज्यादातर बेतुकी हैं, और खास तौर पर यह कहावत सबसे ज्यादा बेतुकी है। कुआँ किसने खोदा था? उसने यह किसके लिए और क्यों खोदा? क्या उसने वाकई सभी लोगों और आने वाली पीढ़ियों की खातिर कुआँ खोदा था? यह जरूरी नहीं है। उसने यह काम सिर्फ अपने लिए किया, ताकि उसके परिवार के पास पीने का पानी उपलब्ध हो—उसने आने वाली पीढ़ियों के बारे में नहीं सोचा था। तो फिर, क्या यह लोगों को गुमराह करना और गलत राह दिखाना नहीं हुआ कि बाद की सभी पीढ़ियाँ कुआँ खोदने वाले को याद करें और उसे धन्यवाद दें; और क्या यह उन्हें ऐसा सोचने पर मजबूर करना नहीं हुआ कि उसने यह कुआँ सभी लोगों के लिए खोदा था? इसलिए जिस व्यक्ति ने यह कहावत बनाई वह सिर्फ अपने विचार और दृष्टिकोण दूसरों पर थोपकर इन्हें स्वीकारने के लिए मजबूर कर रहा था। यह अनैतिक है; इससे और भी ज्यादा लोग ऐसी कहावतों से नाराजगी, वितृष्णा और घृणा महसूस करेंगे। जो लोग ऐसी कहावत को बढ़ावा देते हैं उनके दिमाग में कुछ तो बौद्धिक खराबी होती है जिससे यह निश्चित हो जाता है कि वे कुछ बेतुकी बातें कहेंगे और बेतुके काम करेंगे। परंपरागत संस्कृति के विचारों और दृष्टिकोणों, जैसे कि “कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था” और “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” इन कहावतों का लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है? परंपरागत संस्कृति की इन कहावतों से शिक्षित और थोड़े जानकार लोगों को क्या हासिल हुआ है? क्या वे वाकई अच्छे इंसान बन गए हैं? क्या उन्होंने मनुष्य की तरह जीवन जिया है? बिल्कुल नहीं। परंपरागत संस्कृति को पूजने वाले ये नैतिकता विशेषज्ञ नैतिकता के शिखर पर बैठकर उन लोगों से नैतिक अपेक्षाएँ करते हैं जिनके जीवन की वास्तविक परिस्थिति इनसे जरा भी नहीं मिलती—यह इस धरती पर जीने वाले सभी लोगों के लिए अनैतिक और अमानवीय है। ये लोग परंपरागत संस्कृति के जिन नैतिक दृष्टिकोणों को बढ़ावा देते हैं, वे सामान्य समझ रखने वाले किसी भी व्यक्ति को असामान्य विवेक वाले व्यक्ति में बदल सकता है, जो ऐसी बातें कहने में सक्षम हो जो दूसरों को अकल्पनीय और गूढ़ लगें। ऐसे लोगों की मानवता और उनका मस्तिष्क विकृत हो जाता है। इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कई सारे चीनी लोग खेल आयोजनों, सार्वजनिक स्थानों और आधिकारिक व्यवस्था में ऐसी बातें कह जाते हैं जो थोड़ी अजीब होती हैं और लोगों को उन बातों की थाह लेने में समय लगता है। उनकी सारी बातें खोखली, बेतुके सिद्धांत वाली होती हैं, और उनमें से एक भी बात सच्ची या व्यावहारिक नहीं होती। यह सच्चा प्रमाण है, शैतान द्वारा मानवजाति की भ्रष्टता का नतीजा है, और चीनी लोगों को कई सहस्राब्दियों तक परंपरागत संस्कृति द्वारा शिक्षित किए जाने का दुष्परिणाम है। इन सबने ईमानदारी और प्रामाणिकता से जीवन जीने वाले लोगों को ऐसे लोगों में बदल दिया है जो झूठ का कारोबार करते हैं, दूसरों को धोखा देने के लिए भेष बदलने और खुद को छिपाने में माहिर हैं, जो देखने में बेहद सुसंस्कृत और सिद्धांत पर वाक्पटुता से राय देने में सक्षम प्रतीत होते हैं, लेकिन असल में, जिनकी मानसिकता विकृत है और वे समझदारी से बात करने या लोगों के साथ मेलजोल और बातचीत करने में असमर्थ होते हैं—वे सभी मूल रूप से इसी प्रकृति के हैं। सच कहें, तो ऐसे लोग मानसिक रोग के कगार पर हैं। अगर तुम इन शब्दों को स्वीकार नहीं सकते, तो मैं तुम्हें इनका अनुभव करने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ। इसी के साथ आज की संगति खत्म होती है।
2 अप्रैल 2022
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