सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7) भाग दो
कुछ लोग जब परेशानी या खतरे में होते हैं और उन्हें किसी बुरे व्यक्ति से मदद मिल जाती है जिससे वे अपनी परेशानी से निकल पाते हैं, तो वे मानते हैं कि बुरा व्यक्ति असल में अच्छा इंसान है और वे अपना आभार जताने की खातिर उसके लिए कुछ करना चाहते हैं। लेकिन, ऐसे मामलों में, बुरा इंसान उन्हें अपने घृणित कृत्यों में शामिल करने की कोशिश करेगा और बुरे कर्म करने के लिए उनका इस्तेमाल करेगा। अगर वे इनकार नहीं कर पाते तो यह खतरनाक हो सकता है। कुछ ऐसे लोग इन हालात में उलझन में पड़ जाएँगे, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने कुछ बुरे कर्मों में अपने बुरे दोस्त की मदद नहीं की, तो लगेगा कि वे यह दोस्ती ठीक से नहीं निभा रहे हैं, और इससे उनके जमीर और विवेक का हनन होगा और वे कुछ गलत करेंगे। इस तरह वे दुविधा में फँस जाते हैं। दयालुता का बदला चुकाने को लेकर पारंपरिक संस्कृति के इस विचार से प्रभावित होने का यही नतीजा है—वे इस विचार से बाधित और नियंत्रित होकर बँध जाते हैं। कई मामलों में, पारंपरिक संस्कृति की ये कहावतें मनुष्य के जमीर की समझ और उसके सामान्य फैसले की जगह ले लेती हैं; स्वाभाविक रूप से, वे मनुष्य की सामान्य सोच और सही फैसले लेने की क्षमता को भी प्रभावित करती हैं। पारंपरिक संस्कृति के विचार गलत हैं और वे चीजों के बारे में मनुष्य के दृष्टिकोणों पर सीधा प्रभाव डालते हैं, जिसके कारण वह बुरे फैसले लेने लगता है। प्राचीन समय से लेकर आज तक अनगिनत लोग दयालुता का बदला चुकाने के संबंध में नैतिक आचरण के इस विचार, दृष्टिकोण और कसौटी से प्रभावित हुए हैं। यहाँ तक कि जब उन पर दया दिखाने वाला व्यक्ति दुष्ट या बुरा इंसान हो और उन्हें घृणित कृत्य और बुरे कर्म करने के लिए मजबूर करता हो, तब भी वे अपने जमीर और विवेक के खिलाफ जाकर उसकी दयालुता का बदला चुकाने के लिए बिना सोचे-विचारे उसकी बात मानते हैं, जिसके विध्वंसक परिणाम होते हैं। यह कहा जा सकता है कि बहुत से लोग, नैतिक आचरण की इस कसौटी से बाधित, बेबस और बंधे होने के कारण बिना सोचे-विचारे और गलती से दयालुता का बदला चुकाने के इस दृष्टिकोण पर कायम रहते हैं, और बुरे लोगों की मदद और सहयोग तक कर सकते हैं। अब जबकि तुम लोगों ने मेरी संगति सुन ली है, तुम्हारे पास इन हालात की साफ तस्वीर मौजूद है और तुम तय कर सकते हो कि यह मूर्खतापूर्ण वफादारी है, और ऐसा व्यवहार कोई सीमा तय किए बिना आचरण करना और बिना किसी समझदारी के बेपरवाही से दयालुता का बदला चुकाना कहलाता है, और इसमें अर्थ और मूल्य का सर्वथा अभाव होता है। चूँकि लोग जनमत के जरिए तिरस्कृत या दूसरों के द्वारा निंदित होने से डरते हैं, इसलिए वे न चाहकर भी दूसरों की दयालुता का बदला चुकाने में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, यहाँ तक कि इस प्रक्रिया में अपना जीवन बलिदान कर देते हैं, जो चीजों से निपटने का एक भ्रामक और मूर्खतापूर्ण तरीका है। पारंपरिक संस्कृति की इस कहावत ने केवल लोगों की सोच को ही बाधित नहीं किया है, बल्कि उनके जीवन पर एक अनावश्यक भार और असुविधा का बोझ डाल दिया है, और उनके परिवारों को अतिरिक्त पीड़ा और बोझ तले दबा दिया है। बहुत से लोगों ने दयालुता का बदला चुकाने के लिए बहुत बड़ी कीमतें चुकाई हैं—वे दयालुता का बदला चुकाने को एक सामाजिक जिम्मेदारी या अपना कर्तव्य मानते हैं, और बहुत से लोगों ने तो दूसरों की दयालुता का बदला चुकाने के लिए अपना पूरा जीवन न्योछावर कर दिया है। उनका मानना है कि ऐसा करना बिल्कुल स्वाभाविक और उचित है, यह ऐसा कर्तव्य है जिससे बचा नहीं जा सकता है। क्या यह दृष्टिकोण और चीजों को करने का तरीका मूर्खतापूर्ण और बेतुका नहीं है? इससे साफ पता चलता है कि लोग कितने अज्ञानी और अबोध हैं। किसी भी स्थिति में, नैतिक आचरण की यह कहावत कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, भले ही लोगों की धारणाओं के अनुरूप हो, लेकिन यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप बिल्कुल नहीं है। यह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप भी नहीं है और यह चीजों को करने का गलत दृष्टिकोण और तरीका है।
यह देखते हुए कि दयालुता का बदला चुकाने का संबंध न तो सत्य से है और न ही मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं से है, और यह हमारी आलोचना का विषय रहा है, तो असल में परमेश्वर इस कहावत को कैसे देखता है? इस कहावत के जवाब में सामान्य लोगों के दृष्टिकोण और क्रियाकलाप किस तरह के होने चाहिए? क्या तुम लोगों को यह बात स्पष्ट है? अगर किसी ने पहले तुम पर कोई दया दिखाई थी जिससे तुम्हें काफी लाभ हुआ या तुम्हारा बहुत भला हो गया, तो क्या तुम्हें इस भलाई का बदला चुकाना चाहिए? इस तरह के हालात से तुम कैसे निपटोगे? क्या यह लोगों के दृष्टिकोण का मामला नहीं है? यह लोगों के दृष्टिकोण का मामला भी है और उनके लिए अभ्यास का मार्ग भी है। अब तुम लोग इस मामले पर अपने विचार बताओ—अगर किसी ने तुम पर दया दिखाई, तो क्या तुम्हें उसका बदला चुकाना चाहिए? अगर तुम लोग अभी भी इस समस्या की थाह नहीं पा सकते, तो यह एक समस्या होगी। पहले, तुम लोग सत्य नहीं समझते थे और दयालुता का बदला चुकाने का अभ्यास इस तरह करते थे मानो वह सत्य हो। अब, मेरा विश्लेषण और आलोचना सुनने के बाद, तुम लोगों ने देख लिया है कि समस्या कहाँ है, लेकिन तुम अभी भी यह नहीं जानते कि इस समस्या से कैसे निपटें या इसका अभ्यास कैसे करें—क्या तुम अभी भी इस समस्या की थाह नहीं पा सकते? सत्य को समझने से पहले तुम अपने जमीर के अनुसार जीते थे और चाहे किसी ने भी तुम पर दया दिखाई या तुम्हारी मदद की हो, भले ही वह कोई बुरा आदमी या अपराधी रहा हो, तुम बेशक उसकी भलाई का बदला चुकाते थे, और अपने दोस्तों के लिए गोली खाने को मजबूर रहते थे, और उनके लिए अपना जीवन दाँव पर लगा देते थे। पुरुषों को अपनी भलाई करने वालों का बदला चुकाने के लिए उनके गुलाम बनकर रहना चाहिए, जबकि महिलाओं को उनके साथ विवाह कर बच्चे पैदा करने चाहिए—यह विचार पारंपरिक संस्कृति लोगों पर थोपती है, उन्हें दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने के आदेश देती है। नतीजतन, लोग सोचते हैं, “जो लोग दयालुता का बदला चुकाते हैं सिर्फ उनमें ही जमीर होता है, और अगर वे दयालुता का बदला नहीं चुकाते, तो उनमें जमीर नहीं होता और वे इंसान नहीं हैं।” यह विचार लोगों के दिलों में मजबूती से जड़ें जमा चुका है। अब बताओ, क्या जानवर दयालुता का बदला चुकाना जानते हैं? (हाँ।) अगर ऐसा है, तो क्या मनुष्यों को सिर्फ इसलिए उन्नत माना जा सकता है कि वे दयालुता का बदला चुकाना जानते हैं? क्या दयालुता का बदला चुकाने के मनुष्यों के अभ्यास को मानवता की निशानी माना जा सकता है? (नहीं।) तो इस मामले को लेकर लोगों का दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? इस तरह की चीज को कैसे समझा जाना चाहिए? इसे समझने के बाद इसके प्रति क्या नजरिया अपनाना चाहिए? ये ऐसे सवाल हैं जिनका हल तुम लोगों को इसी पल निकालना चाहिए। अब इस मामले को लेकर अपने दृष्टिकोण बताओ। (अगर किसी ने वाकई किसी मुद्दे या समस्या को हल करने में मेरी मदद की, तो सबसे पहले मैं उसे सच्चे दिल से धन्यवाद दूँगा, लेकिन मैं इन हालात के आगे बेबस या नियंत्रित नहीं होऊँगा। अगर वह किसी परेशानी का सामना कर रहा है, तो मैं अपनी सामर्थ्य के दायरे में रहकर वह करूँगा जो मैं कर सकता हूँ। जहाँ उसकी मदद कर सकता हूँ, ऐसा जरूर करूँगा, लेकिन मैं खुद को अपने साधनों के दायरे से बाहर जाने को मजबूर नहीं करूँगा।) यह सही दृष्टिकोण है और इस तरह का व्यवहार स्वीकार्य है। क्या कोई और इस मामले पर अपने विचार साझा करना चाहेगा? (पहले, मेरा दृष्टिकोण यह था कि अगर किसी ने मेरी मदद की, तो उसके किसी परेशानी में होने पर, बदले में मुझे उसकी मदद करनी चाहिए। “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” और “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” जैसे दृष्टिकोणों पर परमेश्वर की संगति और विश्लेषण से, मुझे एहसास हुआ है कि दूसरों की मदद करते समय लोगों को सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। अगर किसी ने मुझ पर दया दिखाई है या मेरी मदद की है, तो मेरा जमीर कहता है कि मुझे भी उनकी मदद करनी चाहिए, लेकिन मेरी मदद मेरी परिस्थितियों और क्षमता के अनुरूप होनी चाहिए। इसके अलावा, मुझे सिर्फ उनकी परेशानियों को हल करने और जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने में उनकी मदद करनी चाहिए; मुझे बुराई या बुरे कर्म करने में उनकी मदद नहीं करनी चाहिए। अगर मैं किसी भाई-बहन को परेशानी में देखता हूँ, तो मैं सिर्फ इसलिए उनकी मदद नहीं करूँगा कि उन्होंने एक बार मेरी मदद की थी, बल्कि इसलिए करूँगा कि यह मेरा कर्तव्य, मेरी जिम्मेदारी है।) और कुछ? (मुझे परमेश्वर के वे वचन याद हैं जिनमें कहा गया है, “अगर कोई हमारा भला करता है, तो हमें उसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए।” कहने का मतलब यह है कि जब कोई हमारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, तो हमें इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए और इसे सही तरीके से संभालना चाहिए। इस तरह, हम दयालुता का बदला चुकाने के इस दृष्टिकोण को सही तरीके से समझ सकते हैं। इसके अलावा, परमेश्वर कहता है कि हमें उससे प्रेम करना चाहिए जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे नफरत करनी चाहिए जिससे परमेश्वर नफरत करता है। दूसरे लोगों की मदद करते समय, हमें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर ऐसे व्यक्ति से प्रेम करता है या नफरत। हमें इसी सिद्धांत के अनुसार व्यवहार करना चाहिए।) यह सत्य से संबंधित है—यह एक सही सिद्धांत है और इसका एक आधार है। अभी हम इस बारे में बात नहीं करेंगे कि सत्य से संबंधित क्या है, बल्कि हम यह देखेंगे कि मानवता के परिप्रेक्ष्य से लोगों को इस मामले से कैसे निपटना चाहिए। वास्तव में, तुम जिन हालात का सामना कर सकते हो वे हमेशा इतने सरल नहीं होते—वे हमेशा कलीसिया के भीतर और भाई-बहनों के बीच नहीं होते। वे अक्सर कलीसिया के दायरे से बाहर होते हैं। उदाहरण के लिए, कोई अविश्वासी रिश्तेदार, दोस्त, परिचित या सहकर्मी तुम पर दया दिखा सकता है या तुम्हारी मदद कर सकता है। अगर तुम इस मामले में सही रवैया अपना सकते हो और जिस व्यक्ति ने तुम्हारी मदद की थी उसके साथ सही तरीके से पेश आ सकते हो, यानी ऐसा रवैया अपना सकते हो, जिसमें दोनों सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हों और एक दूसरे के प्रति उचित प्रतीत होते हों, तो इस मामले के प्रति तुम्हारा रवैया और इसके बारे में तुम्हारे विचार अपेक्षाकृत सटीक होंगे। “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” इस पारंपरिक अवधारणा को ठीक-से समझने की जरूरत है। इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा “दयालुता” शब्द है—तुम्हें इस दयालुता को किस तरह देखना चाहिए? इसमें दयालुता के किस पहलू और प्रकृति की बात की गई है? “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” का क्या महत्व है? लोगों को इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए और किसी भी परिस्थिति में दयालुता का बदला चुकाने के इस विचार से बेबस नहीं होना चाहिए—जो व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है उसके लिए तो यह एकदम अनिवार्य है। मानवीय धारणाओं के अनुसार “दयालुता” क्या है? एक छोटे स्तर पर, दयालुता का मतलब है, मुसीबत में किसी व्यक्ति का तुम्हारी मदद करना। उदाहरण के लिए, जब तुम भूख से बेहाल हो तो कोई तुम्हें चावल का कटोरा दे देता है, या जब तुम प्यास से तड़प रहे हो तो कोई तुम्हें पानी की बोतल दे देता है। या तुम गिर पड़ते हो और उठ नहीं पाते हो तो कोई तुम्हें हाथ पकड़कर उठा देता है। ये सभी दयालुता के काम हैं। दयालुता का बड़ा कर्म, किसी का तुम्हें उस समय बचा लेना है जब तुम बहुत ही कठिन परिस्थिति में फंस गए हो—यह जान बचाने वाली दयालुता है। जब तुम जान के खतरे में हो और कोई मौत से बचने में तुम्हारी मदद करता है, तो वह मूल रूप से तुम्हारी जान बचाता है। ये कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें लोग “दयालुता” के रूप में देखते हैं। इस तरह की दयालुता किसी भी तरह के छोटे-मोटे, भौतिक एहसान से बहुत ऊपर है—यह महान दयालुता है, जिसे पैसे या भौतिक वस्तुओं से नहीं तोला जा सकता। जिन्हें इस तरह की दयालुता मिलती है, वे कृतज्ञता की ऐसी भावना महसूस करते हैं जिसे धन्यवाद के कुछ शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। पर क्या दयालुता को इस तरह से नापना सही है? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह सही नहीं है? (क्योंकि यह माप पारंपरिक संस्कृति के मापदंड पर आधारित है।) यह उत्तर परिकल्पना और धर्म-सिद्धांत पर आधारित है, और भले ही यह सही प्रतीत हो, यह मामले के मर्म को नहीं छूता। तो हम इसे व्यावहारिक तौर पर कैसे समझा सकते हैं? इस पर ध्यान से विचार करो। कुछ समय पहले, मैंने एक ऑनलाइन वीडियो के बारे में सुना, जिसमें एक आदमी का पर्स गिर जाता है और उसे पता नहीं चलता। एक छोटा-सा कुत्ता उस पर्स को उठाकर उस आदमी के पीछे भागता है, जब वह आदमी उसे देखता है तो पर्स चुराने के लिए कुत्ते को मारने लगता है। बेहूदी बात, है ना? आदमी में कुत्ते से कम नैतिकता है! कुत्ते की हरकत मनुष्य के नैतिक मापदंडों के अनुरूप थी। कोई मनुष्य होता तो कहता, “आपका पर्स गिर गया है!” पर क्योंकि कुत्ता बोल नहीं सकता, इसलिए वह चुपचाप पर्स उठाकर आदमी के पीछे दौड़ पड़ा। तो अगर कुत्ता भी पारंपरिक संस्कृति द्वारा प्रोत्साहित अच्छे व्यवहार दिखा सकता है तो यह मनुष्यों के बारे में क्या बताता है? मनुष्य जमीर और विवेक के साथ पैदा होते हैं, इसलिए वे यह सब करने में ज्यादा सक्षम हैं। अगर किसी में अपने जमीर की समझ है, तो वह इस तरह की जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभा सकता है। इसके लिए कोई कड़ी मेहनत करने या कोई कीमत चुकाने की जरूरत नहीं है, बस थोड़े-से प्रयास की जरूरत होती है, और कुल मिलाकर कोई ऐसा काम करना होता है जिससे दूसरों की मदद हो और उनका भला हो। लेकिन क्या इस तरह के काम की प्रकृति सचमुच “दयालुता” है? क्या यह दयालुता के एक कर्म के स्तर तक पहुँचती है? (नहीं पहुँचती।) तो फिर, क्या लोगों को इसका बदला चुकाने की बात करने की जरूरत है? इसकी कोई जरूरत नहीं है।
आओ अब हम अपना ध्यान मनुष्य की तथाकथित दयालुता के विषय की तरफ मोड़ें। उदाहरण के लिए, एक ऐसे दयालु व्यक्ति को लो जो बाहर बर्फ में भूख के कारण गिर पड़े भिखारी को बचाता है। वह भिखारी को अपने घर ले जाता है, उसे खाना-कपड़ा देता है, और अपने परिवार के बीच रहने और अपने लिए काम करने देता है। भिखारी ने चाहे अपनी मर्जी से उसके लिए काम करने का विकल्प चुना हो या दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए ऐसा किया हो, क्या उसे बचाना दयालुता का कृत्य था? (नहीं।) यहाँ तक कि छोटे जानवर भी मदद करने और एक दूसरे को बचाने में सक्षम हैं। ऐसे कर्म करने के लिए मनुष्य को बस थोड़ी-सी कोशिश करनी पड़ती है और मानवता वाला कोई भी व्यक्ति ऐसे काम करने में कामयाब रहता है। कहा जा सकता है कि ऐसे कर्म सामाजिक जिम्मेदारी और दायित्व हैं जो मानवता संपन्न किसी भी व्यक्ति को पूरे करने चाहिए। क्या मनुष्य का इसे दयालुता कहना कुछ ज्यादा ही बड़ी बात नहीं है? क्या यह सही चरित्र-चित्रण है? उदाहरण के लिए, अकाल के दौरान जब बहुत से लोग भूखे होते हैं, अगर कोई अमीर व्यक्ति गरीब परिवारों की मदद करने के लिए चावल की बोरियाँ बाँटता है ताकि वे इस मुश्किल दौर का सामना कर सकें, तो क्या यह सिर्फ बुनियादी नैतिक सहायता और सहयोग का एक उदाहरण नहीं है जो लोगों के बीच दिखना चाहिए? उसने लोगों को बस थोड़ा-सा चावल दिया—ऐसा नहीं है कि अपना सारा भोजन दूसरों को देकर वह खुद भूखा रह गया। क्या इसे वाकई दयालुता माना जाएगा? (नहीं।) वे सामाजिक जिम्मेदारियाँ और दायित्व जो मनुष्य पूरा करने में सक्षम है, ऐसे कर्म जो मनुष्य अंतःप्रेरणा से करने में सक्षम होगा और जो उसे करने चाहिए, और सेवा के सामान्य कृत्य जो दूसरों के लिए मददगार और लाभकारी हैं—इन चीजों को किसी भी तरह से दयालुता नहीं माना जा सकता, क्योंकि वे सभी ऐसे मामले हैं जहाँ मनुष्य बस मदद का हाथ बढ़ा रहा है। किसी जरूरतमंद व्यक्ति की सही समय और स्थान पर मदद करना एक बहुत ही सामान्य घटना है। यह मानवजाति के प्रत्येक सदस्य की जिम्मेदारी भी है। यह बस एक तरह की जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर ने लोगों को सृजित करते समय ऐसी अंतःप्रेरणाएँ दी थीं। मैं यहाँ किन अंतःप्रेरणाओं की बात कर रहा हूँ? मैं मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक की बात कर रहा हूँ। जब तुम किसी को जमीन पर गिरे हुए देखते हो, तो तुम्हारी स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है “मुझे जाकर उसकी मदद करनी चाहिए।” अगर तुमने उसे गिरा देखकर भी न देखने का बहाना बनाया और उसकी मदद नहीं की, तो तुम्हारी अंतरात्मा पर बोझ पड़ेगा और ऐसा व्यवहार करने पर तुम्हें बुरा लगेगा। जिस व्यक्ति में सचमुच मानवता होगी वह गिरे हुए व्यक्ति की मदद करने की तुरंत सोचेगा। वह इस बात की परवाह नहीं करेगा कि वह व्यक्ति उसका आभारी होगा या नहीं, क्योंकि उसका मानना है कि उसे यही करना चाहिए, और देखेगा कि इस मामले में और विचार करने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा क्यों है? ये परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी गई अंतःप्रेरणाएँ हैं, और जिसके पास अंतरात्मा और विवेक है वह यही करने की सोचेगा और इस तरह व्यवहार करने में सक्षम होगा। परमेश्वर ने मनुष्य को अंतरात्मा और एक मानवीय हृदय दिया—क्योंकि मनुष्य के पास मानवीय हृदय है, इसलिए उसमें मानवीय विचारों के साथ-साथ ऐसे परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण हैं जो कुछ मामलों में उसके पास होने चाहिए, तो वह ये चीजें स्वाभाविक रूप से और आसानी से करने में अक्षम है। उसे बाहरी शक्तियों से किसी मदद या सैद्धांतिक मार्गदर्शन की जरूरत नहीं है, और उसे शिक्षा या सकारात्मक नेतृत्व की भी जरूरत नहीं है—उसे इनमें से किसी भी चीज की जरूरत नहीं है। यह ठीक वैसा ही है जैसे लोग भूखे होने पर भोजन की तलाश करते हैं या प्यासे होने पर पानी माँगते हैं। यह एक सहज क्रिया है और इसे माता-पिता या शिक्षक नहीं सिखा सकते—यह स्वाभाविक रूप से आता है, क्योंकि मनुष्य में सामान्य मानवता की सोच है। इसी तरह परमेश्वर के घर में लोग अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ निभाने में सक्षम हैं और जिस व्यक्ति के पास अंतरात्मा और विवेक है उसे यही करना चाहिए। इस प्रकार, लोगों की मदद करने और उनके प्रति दया दिखाने में इंसानों को लगभग कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, यह मानवीय अंतःप्रेरणा के दायरे में आता है, और ऐसी चीज है जिसे करने में लोग पूरी तरह से सक्षम हैं। इसे दयालुता जितना ऊँचा दर्जा देने की कोई आवश्यकता नहीं। हालाँकि, कई लोग दूसरों की मदद को दयालुता के बराबर समझते हैं, और यह सोचकर हमेशा इसके बारे में बात करते रहते हैं और लगातार इसका मूल्य चुकाते रहते हैं कि अगर वे ऐसा नहीं करते, तो उनमें जमीर नहीं है। वे खुद को हिकारत से देखते और तुच्छ समझते हैं, यहाँ तक कि इस बात की चिंता भी करते हैं कि उन्हें जनमत द्वारा फटकार लगाई जाएगी। क्या इन बातों की चिंता करना जरूरी है? (नहीं।) ऐसे बहुत-से लोग हैं जो असलियत नहीं देख पाते और लगातार इस मुद्दे से विवश रहते हैं। सत्य सिद्धांतों को न समझना यही है। उदाहरण के लिए, अगर तुम किसी दोस्त के साथ रेगिस्तान में गए हो और उसके पास पानी खत्म हो जाता है, तो तुम बेशक उसे अपना थोड़ा-सा पानी दोगे, तुम उसे प्यासा मरने नहीं दोगे। भले ही तुम्हें पता हो कि तुम्हारी बोतल से दो लोग पानी पिएँगे तो वह आधा ही रह जाएगा, फिर भी तुम अपने दोस्त को पानी पिलाओगे। अब, तुम भला ऐसा क्यों करोगे? क्योंकि जब तुम्हारा दोस्त तुम्हारे सामने प्यासा खड़ा होगा, तब पानी की बूँद तुम्हारे गले से भी नीचे नहीं उतरेगी—तुम उस दृश्य को बर्दाश्त नहीं कर पाओगे। अपने दोस्त को प्यास से तड़पते देखना तुम क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाओगे? यह तुम्हारी अंतरात्मा की समझ है जहाँ से यह एहसास पैदा होता है। भले ही तुम इस तरह की जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना न चाहो, तुम्हारी अंतरात्मा ऐसा कर देगी कि तुम इसे न करना बर्दाश्त नहीं कर सकते, यह तुम्हें बेचैन कर देगा। क्या यह सब मानवीय अंतःप्रेरणाओं का नतीजा नहीं है? क्या यह सब मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक से तय नहीं होता है? अगर वह दोस्त कहता है, “ऐसे हालात में अपने हिस्से का थोड़ा-सा पानी देने पर मैं तुम्हारा एहसानमंद हूँ!” क्या ऐसा कहना भी गलत नहीं होगा? इसका दयालुता से कोई लेना-देना नहीं है। अगर मामला पलट जाए, और दोस्त में मानवता, अंतरात्मा और विवेक हो, तो वह भी अपना पानी तुम्हें पिलाएगा। यह लोगों के बीच बस एक बुनियादी सामाजिक जिम्मेदारी या संबंध है। ये सभी सबसे बुनियादी सामाजिक संबंध या जिम्मेदारियाँ या दायित्व मनुष्य की अंतरात्मा की समझ, उसकी मानवता और अंतःप्रेरणाओं के कारण उत्पन्न होते हैं जो परमेश्वर मनुष्य की सृष्टि के समय उसे देता है। सामान्य परिस्थितियों में, ये चीजें माता-पिता या समाज को सिखाने या समझाने की जरूरत नहीं होती हैं, और दूसरों को तुम्हें बार-बार ऐसा करने की चेतावनी देने की जरूरत तो बिल्कुल नहीं होती। जिन लोगों में अंतरात्मा और विवेक नहीं है, जिनमें सामान्य संज्ञानात्मक चीजों का अभाव है उनके लिए सिर्फ शिक्षा होना जरूरी है—उदाहरण के लिए, मानसिक रूप से बीमार लोग या मंदबुद्धि—या जिन लोगों में अच्छी काबिलियत नहीं होती, और जो अज्ञानी और अड़ियल होते हैं। जिन लोगों में सामान्य मानवता होती है उन्हें ये चीजें सिखाने की जरूरत नहीं होती है—अंतरात्मा और विवेक से संपन्न सभी लोगों में ये चीजें होती हैं। इसलिए, जब कोई व्यवहार या कार्य बस अंतःप्रेरणा की बात हो और अंतरात्मा और विवेक के अनुरूप हो तो उसे बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दयालुता बताना अनुचित है। यह क्यों अनुचित है? ऐसे व्यवहार को बहुत ऊँचा बताकर तुम हर एक व्यक्ति पर बहुत ज्यादा भार और बोझ डाल देते हो, और बेशक यह लोगों को एक दायरे में बाँध देता है। उदाहरण के लिए, अगर अतीत में, किसी ने तुम्हें पैसे दिए थे, किसी मुश्किल हालत से निकालने में तुम्हारी मदद की थी, काम ढूँढने में मदद की थी या तुम्हें बचाया था, तो तुम सोचोगे : “मैं एहसान फरामोश नहीं हो सकता, मुझे विवेकशील बनकर उसकी दयालुता का बदला चुकाना चाहिए। अगर मैंने उसकी दयालुता का बदला नहीं चुकाया, तो क्या मैं इंसान कहलाने लायक भी हूँ?” वास्तविकता में, चाहे तुम उसकी दयालुता का बदला चुकाओ या नहीं, तुम अभी भी इंसान हो और अभी भी सामान्य मानवता के ढाँचे में रहते हो—इस तरह बदला चुकाने से कुछ भी नहीं बदलेगा। सिर्फ इसलिए कि तुमने अच्छे से उसकी दयालुता का बदला चुकाया, इससे तुम्हारी मानवता में कोई बदलाव नहीं होगा और तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव भी दूर नहीं होगा। इसी तरह, सिर्फ इसलिए कि तुमने उसकी दयालुता का बदला अच्छे से नहीं चुकाया, तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बदतर नहीं होगा। चाहे तुम दयालुता दिखाते हो या उसका बदला चुकाते हो या कुछ और करते हो, इस का तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से कोई संबंध नहीं है। बेशक, भले ही ऐसा कोई संबंध मौजूद हो या नहीं, मेरे लिए, इस तरह की “दयालुता” का कोई अस्तित्व नहीं है, और मुझे उम्मीद है तुम लोगों के लिए भी ऐसा ही है। तो फिर तुम्हें इसे कैसे देखना चाहिए? इसे सीधे-सीधे एक दायित्व, एक जिम्मेदारी और कुछ ऐसा समझो जो एक मानवीय प्रवृत्तियों वाले किसी व्यक्ति को करना चाहिए। एक मनुष्य के रूप में तुम्हें इसे अपनी जिम्मेदारी और दायित्व की तरह देखना चाहिए, और इसे अपनी पूरी क्षमता से निभाना चाहिए। बस इतना ही। कुछ लोग कह सकते हैं : “मैं जानता हूँ कि यह मेरी जिम्मेदारी है, लेकिन मैं इसे नहीं निभाना चाहता।” यह भी ठीक है। तुम अपनी स्थिति और परिस्थिति के आधार पर अपना रास्ता चुन सकते हो। तुम उस समय की अपनी मनोदशा के आधार पर लचीले ढंग से भी फैसला कर सकते हो। अगर तुम्हें यह चिंता है कि जिसकी तुम मदद करोगे वह लगातार उसका बदला चुकाने की कोशिश करेगा, तुम्हारी खोज-खबर लेगा, बार-बार इस तरह तुम्हारा धन्यवाद करेगा कि यह तुम्हारे लिए असुविधा और परेशानी का सबब बन जाएगा, और इसी वजह से तुम यह जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहते, तो यह भी ठीक है—यह तुम पर निर्भर है। कुछ लोग पूछेंगे : “जो लोग इस तरह की सामाजिक जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहते क्या उनमें बुरी मानवता है?” क्या यह किसी व्यक्ति की मानवता को परखने का सही तरीका है? (नहीं।) यह बात क्यों गलत है? इस बुरे समाज में, मनुष्य को उसके व्यवहार से आँका जाना चाहिए और वह जो कुछ भी करता है उसमें स्वामित्व की भावना होनी चाहिए। बेशक, यह बात और भी अधिक जरूरी है कि वह व्यक्ति उस वक्त के परिवेश और संदर्भ को पहचानता हो। जैसा कि अविश्वासी कहते हैं, इस अस्त-व्यस्त संसार में, लोगों को अपने हर काम में चालाक, होशियार और बुद्धिमान होना चाहिए—उन्हें अज्ञानी नहीं होना चाहिए, और यकीनन उन्हें मूर्खतापूर्ण कृत्य नहीं करने चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ देशों में लोग सार्वजनिक स्थानों पर जालसाजी करते हैं, जिनमें वे कोई नकली दुर्घटना घटित होने का नाटक करके धोखाधड़ीपूर्ण तरीके से मुआवजे का दावा करते हैं। अगर तुम उन बुरे लोगों की जालसाजी को नहीं समझ पाते, और बिना सोचे-समझे अपनी अंतरात्मा के अनुसार व्यवहार करते हो, तो तुम मूर्ख बनकर खुद को परेशानी में डाल सकते हो। उदाहरण के लिए, किसी बुजुर्ग महिला को सड़क पर गिरी देखकर तुम सोच सकते हो : “मुझे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, जरूरी नहीं है कि वह मेरी दयालुता का बदला चुकाए। क्योंकि मुझमें मानवता और अंतरात्मा की समझ है, इसलिए मुझे उसकी तरफ मदद करनी चाहिए और मैं जरूर करूँगा।” फिर, जब तुम उसे उठाने जाते हो, तो वह तुम्हारा फायदा उठाती है और तुम उसे अस्पताल तक लेकर जाने और उसके मेडिकल बिलों का भुगतान करने, उसकी भावनात्मक क्षति की भरपाई करने और उसकी सेवानिवृत्ति के खर्चों को पूरा करने को मजबूर होते हो। अगर तुम ऐसा नहीं करते हो, तो तुम्हें पुलिस थाने बुलाया जाएगा। ऐसा प्रतीत होता है कि तुमने अपने लिए मुसीबत मोल ले ली, है ना? ऐसे हालात क्यों पैदा हुए? (तुमने अपने नेक इरादे को पूरा किया लेकिन बुद्धिमानी से काम नहीं लिया।) तुमने बिना सोचे-समझे कदम उठाया, तुममें विवेक की कमी थी, तुम मौजूदा रुझानों को समझ नहीं पाए, और हालात की वास्तविकता पर गौर नहीं किया। इस तरह के बुरे समाज में, व्यक्ति को सड़क पर गिरी एक बुजुर्ग महिला की यूँ ही मदद करने के कारण बड़ी कीमत चुकानी पड़ जाती है। अगर वह सच में गिरी होती और उसे तुम्हारी मदद की जरूरत होती, तो सामाजिक जिम्मेदारियाँ पूरी करने के कारण तुम्हारी निंदा नहीं की जाती, तुम्हारी सराहना की जाती, क्योंकि तुम्हारा व्यवहार मानवता और मनुष्य की अंतरात्मा की समझ के अनुरूप था। इस बुजुर्ग महिला की एक छिपी हुई मंशा थी—उसे सच में तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं थी। वह बस धोखे से तुम्हें फँसाना चाहती थी, और तुम उसकी धूर्त साजिश को समझ नहीं पाए। एक इंसान के रूप में उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करके, तुम उसकी रची साजिश में फँस गए, और अब वह तुम्हें नहीं छोड़ेगी, तुमसे और भी ज्यादा पैसे माँगेगी। सामाजिक जिम्मेदारियाँ पूरी करने का मतलब जरूरतमंद लोगों की मदद करना और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना होना चाहिए। इसकी वजह से किसी को छल-कपट का शिकार नहीं होना चाहिए या जाल में नहीं फँसना चाहिए। बहुत-से लोग इस तरह के घोटालों का शिकार बने हैं और तब जाकर उन्हें साफ तौर पर समझ आया कि लोग कितने बुरे हैं, और दूसरों को धोखा देने में कितने माहिर हो चुके हैं। वे किसी को भी धोखा दे सकते हैं, चाहे वे अजनबी हों या दोस्त और सगे-संबंधी। कितनी भयानक स्थिति है! यह भ्रष्टता किसकी वजह से आई? बड़े लाल अजगर की वजह से। बड़े लाल अजगर ने मानवजाति को बहुत गहराई तक और बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है। बड़ा लाल अजगर अपने हितों को साधने के लिए सभी प्रकार की अनैतिक चीजें करेगा, और लोग इसकी बुरी मिसालों के कारण भटक चुके हैं। नतीजतन, घोटालेबाजों और चोरों की तादाद काफी बढ़ चुकी है। इन तथ्यों के आधार पर, यह देखा जा सकता है कि बहुत-से लोग कुत्तों जैसे हैं। शायद कुछ लोग इस तरह की बातें न सुनना चाहें, वे इससे असहज होंगे और सोचेंगे : “क्या हम वाकई कुत्तों जैसे हैं? तुम हमारा अनादर कर रहे हो और हमेशा कुत्तों से तुलना करके हमें नीचा दिखाना चाहते हो। तुम हमें इंसान नहीं समझते!” मैं तुम लोगों को इंसान बने देखना पसंद करूँगा, लेकिन इंसान ने किस तरह का व्यवहार दिखाया है? वास्तविकता में, कुछ लोगों का व्यवहार वाकई कुत्तों से बेहतर नहीं है। अभी मैं इस मामले पर बस इतना ही कहना चाहूँगा।
मैंने अभी-अभी इस बारे में संगति की कि कैसे दूसरों की थोड़ी-सी मदद करने को दयालुता नहीं माना जाना चाहिए और यह एक सामाजिक जिम्मेदारी मात्र है। बेशक, लोग यह तय कर सकते हैं कि वे अपनी सर्वोत्तम क्षमताओं के अनुसार कौन-सी सामाजिक जिम्मेदारियाँ पूरी कर लेंगे। वे उन जिम्मेदारियों को पूरा कर सकते हैं जिन्हें पूरा करना उनके लिए उपयुक्त है, और जो उनके लिए उपयुक्त नहीं हैं उन्हें वे पूरा न करने का विकल्प चुन सकते हैं। यह मनुष्य की स्वतंत्र पसंद-नापसंद है। तुम अपनी परिस्थितियों, योग्यताओं और बेशक उस समय की मौजूदा परिस्थितियों और प्रसंग के आधार पर यह चुन सकते हो कि तुम्हें कौन-सी सामाजिक जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। यह तुम्हारा अधिकार है। यह अधिकार किस संदर्भ में आया? यह संसार बेहद अंधकारमय है, मानवजाति बेहद दुष्ट है, और समाज में न्याय का अभाव है। इन परिस्थितियों में, तुम्हें पहले अपनी सुरक्षा करनी होगी, मूर्खतापूर्ण और अज्ञानतापूर्ण व्यवहार से बचकर बुद्धिमानी से काम लेना होगा। बेशक, अपनी सुरक्षा करने से मेरा मतलब यह नहीं है कि तुम अपने बटुए और संपत्ति की चोरों से रक्षा करो, बल्कि इसका मतलब खुद को होने वाले नुकसान से बचाना है—यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। तुम्हें अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने के साथ-साथ अपनी सुरक्षा भी पक्की करनी चाहिए। दूसरों से सम्मान पाने पर ध्यान मत दो, और जनमत के बहाव में मत बहो या उसके आगे बेबस मत होओ। तुम्हें बस अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने की जरूरत है। तुम्हें अपनी स्थिति के अनुसार यह तय करना चाहिए कि तुम अपना कर्तव्य कैसे पूरा करोगे; अपनी परिस्थितियों और योग्यताओं को देखते हुए जितना मुमकिन हो सके उससे अधिक जिम्मेदारियाँ और दायित्व मत उठाओ। जो क्षमताएँ तुममें मौजूद नहीं हैं उनका दिखावा कर लोगों को प्रभावित करने की कोशिश मत करो और दूसरों से अपने अनादर, आलोचना या निंदा का भय मत पालो। अपने अहंकार को संतुष्ट करने की खातिर चीजें करना गलत है। बस उतना करो जितना तुम कर सकते हो, जितनी जिम्मेदारी उठा सकते हो उतनी ही उठाओ, और उतने ही दायित्व निभाओ जितने तुम पूरे कर सकते हो। यह तुम्हारा अधिकार है। तुम्हें खुद को ऐसी चीजें करने के लिए मजबूर करने की जरूरत नहीं है जिसकी परमेश्वर ने तुमसे अपेक्षा नहीं की है। जिन चीजों का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है उन्हें करने के लिए अपनी अंतरात्मा के अनुसार चलने का कोई अर्थ नहीं है। तुम चाहे जितना अधिक काम करो, परमेश्वर इसके लिए तुम्हारी सराहना नहीं करेगा, और इसका अर्थ यह भी नहीं होगा कि तुमने सच्ची गवाही दी है, यह कहना तो दूर की बात है कि तुमने अच्छे कर्म संचित किए हैं। जिन चीजों का परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई संबंध नहीं है, लेकिन जिनकी लोग तुमसे अपेक्षा करते हैं, उनके मामले में तुम्हारी अपनी पसंद और सिद्धांत होने चाहिए। लोगों के आगे बेबस मत बनो। अगर तुम ऐसा कुछ भी नहीं करते हो जिससे तुम्हारी अंतरात्मा, विवेक और सत्य का उल्लंघन होता है, तो यह काफी है। अगर तुम किसी की क्षणिक समस्या हल करके उसकी मदद करते हो तो वह तुम पर निर्भर होता जाएगा, और वह मानने लगेगा कि तुम्हें उसकी समस्याएँ हल करनी चाहिए और करनी ही होंगी। वह व्यक्ति तुम पर पूरी तरह निर्भर हो जाएगा और अगर तुम एक बार भी उसकी किसी समस्या को हल करने में विफल रहे, तो तुमसे मुँह मोड़ लेगा। इससे तुम्हारे लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी और यह उस तरह का परिणाम बिल्कुल नहीं है जो तुम देखना चाहते हो। अगर तुम इस तरह के परिणाम का अंदाजा लगा सको तो तुम उसकी मदद न करने का फैसला ले सकते हो। दूसरे शब्दों में, इस मामले में उस जिम्मेदारी या दायित्व को पूरा करने से बचना गलत नहीं होगा। समाज, मानवजाति, और अधिक विशेष रूप से, जिस समुदाय में तुम रहते हो उसके प्रति तुम्हें इसी तरह का दृष्टिकोण और रवैया अपनाना चाहिए। यानी, किसी को जितना अधिक प्यार दे सको उतना अधिक प्यार दो और जितना तुम कर पाने में सक्षम हो उतना ही करो। दिखावा करने के प्रयास में अपने दृढ़ विश्वास के खिलाफ मत जाओ, उन चीजों को करने की कोशिश मत करो जो तुम करने में सक्षम नहीं हो। तुम्हें खुद को ऐसी कीमत चुकाने के लिए भी मजबूर करने की जरूरत नहीं है जो सामान्य इंसान चुका पाने में असमर्थ है। संक्षेप में, खुद से बहुत अधिक अपेक्षा मत रखो। बस उतना ही करो जितना तुम कर सकते हो। यह सिद्धांत कैसा प्रतीत होता है? (अच्छा प्रतीत होता है।) उदाहरण के लिए, तुम्हारा दोस्त तुम्हारी कार उधार लेना चाहता है और तुम सोचते हो : “उसने पहले मुझे चीजें उधार में दी थीं, तो उसे मेरी कार उधार लेने का हक है। लेकिन वह चीजों का अच्छे से ध्यान नहीं रखता है या उनका किफायती तरीके से इस्तेमाल नहीं करता है। मुमकिन है कि वह मेरी कार का कबाड़ा कर दे। बेहतर होगा कि मैं उसे अपनी कार उधार में न दूँ।” तो तुम उसे अपनी कार उधार में नहीं देने का फैसला करते हो। क्या ऐसा करना सही है? तुम उसे कार उधार दो या न दो, यह कोई बड़ी बात नहीं है—अगर तुम्हारे पास मामले की सटीक और अंतर्दृष्टि वाली समझ है, तो तुम्हें वही फैसला करना चाहिए जो तुम उन हालात में सबसे उपयुक्त समझते हो, और तब तुम बिल्कुल सही होगे। लेकिन, अगर तुम यह सोचने लगो, “कोई बात नहीं, मैं उसे अपनी कार उधार दूँगा। इससे पहले जब भी मैंने उससे कोई चीज माँगी थी तो उसने कभी मुझे मना नहीं किया था। वह चीजों को किफायती तरीके से इस्तेमाल नहीं करता है या उनका अच्छे से ध्यान नहीं रखता है, पर कोई बात नहीं। अगर मेरी कार को नुकसान पहुँचा, तो मैं थोड़े-से पैसे खर्च करके उसे ठीक करा लूँगा,” और फिर तुम उसे अपनी कार उधार देने पर सहमत हो जाते हो और उसे इनकार नहीं करते—क्या ऐसा करना सही है? ऐसा करने में भी कुछ गलत नहीं है। उदाहरण के लिए, अगर किसी ने पहले तुम्हारी मदद की थी और फिर जब उसका परिवार किसी परेशानी में पड़ जाता है तो वह तुमसे मदद माँगने आता है, तो तुम्हें मदद करनी चाहिए या नहीं? यह तुम्हारी स्थिति पर निर्भर करता है, और उसकी मदद करने या न करने का तुम्हारा फैसला सिद्धांत का मामला नहीं होगा। तुम्हें बस ईमानदारी से और सहज बुद्धि से काम लेना चाहिए और अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। ऐसा करके, तुम मानवता के दायरे में रहकर और अपनी अंतरात्मा की समझ से काम कर रहे होगे। तुम इस जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाते हो या नहीं, इसे अच्छे से पूरा करते हो या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। सहमत होना या इनकार करना तुम्हारा अधिकार है—अगर तुम इनकार करते हो, तो यह नहीं कहा जा सकता कि तुममें अंतरात्मा का अभाव है, और यह भी नहीं कहा जा सकता कि तुम्हारे दोस्त ने तुम्हारी मदद करके कोई दयालुता दिखाई थी। ऐसे कृत्य उस ऊँचाई तक नहीं पहुँचते हैं। समझ गए? (बिल्कुल।) यह चर्चा दयालुता के विषय पर थी, यानी तुम्हें दयालुता को कैसे देखना चाहिए, दूसरों की मदद करने के मामले को कैसे देखना चाहिए, और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को कैसे पूरा करना चाहिए। इन मामलों में, लोगों को सत्य सिद्धांतों की खोज करनी चाहिए—तुम सिर्फ अपनी अंतरात्मा और विवेक पर निर्भर रहकर इन समस्याओं को हल नहीं कर सकते। कुछ विशेष परिस्थितियाँ बेहद जटिल हो सकती हैं, और अगर तुम उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं संभालते हो, तो अपने लिए मुसीबत खड़ी कर लोगे और इसके नकारात्मक परिणाम होंगे। इसलिए इन मामलों में परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके इरादे समझने चाहिए और मानवता, विवेक, बुद्धि और सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए। यही सबसे उचित रुख रहेगा।
“दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” इस कहावत के संबंध में एक और स्थिति यह उत्पन्न हो सकती है कि तुम्हें मिलने वाली सहायता एक बोतल पानी, मुट्ठी भर सब्जियों या एक बोरी चावल जैसी कोई छोटी-मोटी चीज न हो, बल्कि ऐसी मदद हो जिससे तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की आजीविका पर प्रभाव पड़ता है, और जिसके निहितार्थ तुम्हारे भाग्य और भविष्य की संभावनाओं के लिए भी हैं। उदाहरण के लिए, कोई तुम्हें पढ़ा सकता है या तुम्हारी आर्थिक मदद कर सकता है, ताकि तुम किसी अच्छी यूनिवर्सिटी में दाखिला पा सको, अच्छी नौकरी ढूँढ सको, अच्छी तरह शादी कर सको, और तुम्हारे जीवन में बहुत-सी अच्छी चीजें होती रहें। यह कोई छोटा-मोटा एहसान या तुच्छ सहायता नहीं है—बहुत से लोग ऐसी चीज को बहुत बड़ी दयालुता मानते हैं। ऐसी स्थिति में तुम लोगों को क्या करना चाहिए? इस प्रकार की सहायता मनुष्य की सामाजिक जिम्मेदारी और उसके द्वारा निभाए जाने वाले दायित्वों से संबंधित होती है, जिनके बारे में हमने अभी-अभी चर्चा की है, मगर चूँकि उनके निहितार्थ मनुष्य के अस्तित्व, भाग्य और भविष्य की संभावनाओं से जुड़े हैं, तो वे महज एक बोतल पानी या एक बोरी चावल से कहीं अधिक मूल्यवान हैं—इनका लोगों के जीवन, उनकी आजीविका और इस धरती पर बीतने वाले उनके समय पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार उनकी कीमत काफी ज्यादा है। अब, क्या इस प्रकार की सहायता को दयालुता जैसा ऊँचा दर्जा देना चाहिए? मैं पहले की तरह ऐसी मदद को दया नहीं मानता। यह देखते हुए कि इस प्रकार की सहायता को दया नहीं मानना चाहिए, तो फिर ऐसी स्थिति से निपटने का उपयुक्त और उचित तरीका क्या है? क्या मनुष्यों को इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ता? उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी ने तुम्हें अपराध के जीवन से बाहर निकाला, तुम्हें सीधे रास्ते पर लाकर कानूनी तौर पर सही नौकरी दिलवाई, जिससे तुम एक अच्छा जीवन जी सको, शादी करके अपना घर बसा सको, और अपनी किस्मत बेहतर बना सको। या, मुमकिन है कि जब तुम मुसीबत में निराश-हताश थे, तो किसी नेक व्यक्ति ने तुम्हारी थोड़ी मदद की और मार्गदर्शन दिया, जिससे तुम्हारे भविष्य की संभावनाएँ सकारात्मक हो गईं, और तुम सबसे आगे निकलकर एक अच्छा जीवन बिता सके। इन स्थितियों को तुम्हें कैसे देखना चाहिए? क्या तुम्हें उनकी दयालुता याद रखकर बदला चुकाना चाहिए? क्या तुम्हें उनकी भरपाई करने और उनका बदला चुकाने के तरीके खोजने चाहिए? इस मामले में, तुम्हें सिद्धांतों के आधार पर फैसला करना चाहिए, है न? तुम्हें देखना चाहिए कि तुम्हारी मदद करने वाला व्यक्ति कैसा है। अगर वह नेक और सकारात्मक इंसान है, तो उसे “शुक्रिया” कहने के साथ ही तुम उससे सामान्य तरीके से मिलना-जुलना जारी रख सकते हो, दोस्त बन सकते हो और फिर, जब उसे मदद की जरूरत हो, तब तुम अपनी सर्वोत्तम क्षमता के साथ अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा सकते हो। लेकिन, तुम्हें अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करने के लिए अपना सब कुछ दाँव पर नहीं लगाना चाहिए, बल्कि यह इस बात पर निर्भर होना चाहिए कि तुम अपनी वर्तमान परिस्थिति में कितना कर सकते हो। इन हालात में ऐसे लोगों से निपटने का यही उचित तरीका है। तुम दोनों के बीच दर्जे में कोई अंतर नहीं है—भले ही उसने तुम्हारी मदद की और तुम पर दया दिखाई, फिर भी उसे तुम्हारा उद्धारकर्ता नहीं कहा जा सकता, क्योंकि केवल परमेश्वर ही मानवजाति को बचा सकता है। उसने तो बस परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के जरिए तुम्हारी मदद की—यकीनन इसका यह मतलब नहीं है कि वह तुमसे श्रेष्ठ है, और इसका यह मतलब तो कतई नहीं है कि वह तुम्हारा मालिक है और तुम्हें अपने हिसाब से चलाकर काबू में कर सकता है। उसे तुम्हारे भाग्य पर नियंत्रण रखने का कोई अधिकार नहीं है और न ही उसे तुम्हारे जीवन को लेकर आलोचना या टिप्पणी करनी चाहिए; तुम दोनों अभी भी बराबर हो। क्योंकि तुम दोनों बराबर हो, तो एक-दूसरे से दोस्तों की तरह मिल-जुल सकते हो, और सही समय आने पर, तुमसे जितना हो सके उसकी मदद कर सकते हो। यह अभी भी मानवता के दायरे में रहकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी और दायित्व को पूरा करना, और मानवता के आधार पर और उसके दायरे में रहकर अपना कर्तव्य निभाना—तुम अपने लक्ष्य के अनुसार अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को पूरा कर रहे हो। तुम्हें ऐसा क्यों करना चाहिए? उसने अतीत में तुम्हारी मदद की थी और उसके कारण तुम्हें कई फायदे हुए और काफी लाभ मिला, तो तुम्हारी मानवता से आने वाली अंतरात्मा की समझ यह कहती है कि तुम्हें उसके साथ एक दोस्त जैसा व्यवहार करना चाहिए। कुछ लोग पूछेंगे : “क्या मैं उसे जिगरी दोस्त मान सकता हूँ?” यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम दोनों कैसे मिल-जुलकर रहते हो, और क्या तुम्हारी मानवता और प्राथमिकताएँ, तुम क्या खोजते हो और इस संसार को कैसे देखते हो, यह सब एक जैसी हैं या नहीं। इसका जवाब तुम पर ही निर्भर करेगा। अब इस अनोखे रिश्ते में, क्या तुम्हें अपनी जान न्यौछावर करके अपने मददगार का बदला चुकाना चाहिए? यह देखते हुए कि उसने तुम्हारी इतनी मदद की और तुम पर इतना जबरदस्त प्रभाव डाला, क्या तुम्हें अपनी जान देकर उसका बदला चुकाना चाहिए? ऐसा करना जरूरी नहीं है। तुम अपने जीवन के शाश्वत स्वामी हो—परमेश्वर ने तुम्हें जीवन दिया है, और यह जीवन सिर्फ तुम्हारा है, कोई और इसे नहीं संभाल सकता। इस संदर्भ और स्थिति के कारण लापरवाही से किसी और को अपने जीवन का प्रबंधन करने देने की कोई जरूरत नहीं है। यह चीजें करने का बेहद मूर्खतापूर्ण तरीका है और बेशक, यह बेतुका भी है। चाहे तुम लोग कितने ही गहरे दोस्त हो या तुम्हारा रिश्ता कितना भी मजबूत हो, तुम सिर्फ एक इंसान की तरह अपनी जिम्मेदारी निभा सकते हो, सामान्य रूप से बातचीत कर सकते हो और मानवता और विवेक के दायरे में रहकर ही एक-दूसरे की मदद कर सकते हो। ऐसा रिश्ता अधिक तर्कसंगत और बराबर है। तुम दोनों के दोस्त बनने का मुख्य कारण यह है कि उस व्यक्ति ने कभी तुम्हारी मदद की थी, और इसलिए तुम्हें लगा कि वह दोस्त बनाने लायक है, और वह उन अपेक्षाओं पर खरा उतरता है जो तुम अपने दोस्तों से करते हो। सिर्फ इसी वजह से तुम उससे दोस्ती करना चाहते थे। इस स्थिति पर भी विचार करो : अतीत में किसी ने तुम्हारी मदद की थी, कुछ खास तरीकों से तुम पर दया दिखाई थी और तुम्हारे जीवन या किसी बड़ी घटना पर उसने काफी प्रभाव डाला था, मगर उसकी मानवता और जिस मार्ग पर वह चल रहा है, वह तुम्हारे मार्ग और जो तुम खोजते हो उसके अनुरूप नहीं है। तुम लोगों की भाषा अलग है, तुम इस व्यक्ति को पसंद नहीं करते और, शायद कुछ हद तक तुम कह सकते हो कि तुम्हारी रुचियाँ और जिस चीज की तुम्हें तलाश है वे बिल्कुल अलग हैं। जीवन में तुम्हारे मार्ग, संसार को देखने के तुम्हारे दृष्टिकोण और जीवन के प्रति तुम्हारे नजरिये, सभी अलग-अलग हैं—तुम दोनों एक दूसरे से पूरी तरह अलग हो। तो, अतीत में उसने तुम्हारी जो मदद की थी उसके प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए और तुम्हें उस मदद की कीमत कैसे चुकानी चाहिए? क्या वास्तव में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है? (बिल्कुल।) तो, तुम्हें क्या करना चाहिए? इस स्थिति से भी निपटना काफी आसान है। यह देखते हुए कि तुम दोनों अलग-अलग राह पर चल रहे हो, तो अपने साधनों के अनुसार तुम उसे जो भी आर्थिक प्रतिपूर्ति कर सकते हो वह करने के बाद, तुम्हें पता चलता है कि तुम्हारी मान्यताएँ बहुत भिन्न हैं, तुम दोनों एक ही मार्ग पर नहीं चल सकते, यहाँ तक कि दोस्त भी नहीं रह सकते और न ही मेलजोल कर सकते हो। अब जब तुम दोनों मेलजोल नहीं कर सकते, तो तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? उससे दूरी बनाए रखो। मुमकिन है कि अतीत में उसने तुम पर दया दिखाई हो, लेकिन वह समाज में धोखाधड़ी और चालबाजी करता है, सभी प्रकार के घृणित कर्म करता है और तुम्हें यह व्यक्ति पसंद नहीं है, इसलिए तुम्हारा उससे दूरी बनाए रखना बिल्कुल सही है। कुछ लोग कह सकते हैं, “क्या इस तरह से व्यवहार करना अंतरात्मा का अभाव नहीं दर्शाता?” यह अंतरात्मा का अभाव नहीं है—अगर उसे वाकई जीवन में किसी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, तो तुम अभी भी उसकी मदद कर सकते हो, पर तुम उसके आगे बेबस नहीं हो सकते और न ही बुरे और अविवेकपूर्ण कर्मों में उसका साथ दे सकते हो। सिर्फ इसलिए कि अतीत में उसने तुम्हारी मदद की थी या तुम पर कोई बड़ा एहसान किया था, तो तुम्हें उसकी गुलामी करने की भी कोई जरूरत नहीं है—यह तुम्हारा दायित्व नहीं है और न ही वह ऐसे व्यवहार के लायक है। तुम उन लोगों के साथ मेलजोल करने, समय बिताने और यहाँ तक कि उनके साथ दोस्ती करने के भी हकदार हो जिन्हें तुम पसंद करते हो और जिनके साथ तुम्हारी बनती है, और जो सही लोग हैं। तुम इस व्यक्ति के प्रति अपनी जिम्मेदारी और दायित्व को पूरा कर सकते हो, यह तुम्हारा अधिकार है। बेशक, तुम उन लोगों से दोस्ती करने और उनसे मेलजोल करने से इनकार भी कर सकते हो जिन्हें तुम पसंद नहीं करते, और तुम्हें उनके प्रति किसी भी दायित्व या जिम्मेदारी को पूरा करने की कोई जरूरत नहीं है—यह भी तुम्हारा अधिकार है। अगर तुम इस व्यक्ति को त्यागने का फैसला करते हो और उसके साथ मेलजोल करने या उसके प्रति किसी भी जिम्मेदारी या दायित्व को पूरा करने से इनकार करते हो, तब भी यह गलत नहीं होगा। तुम्हें अपने आचरण के तरीके पर कुछ सीमाएँ निर्धारित करनी होंगी और अलग-अलग लोगों के साथ अलग-अलग तरीकों से पेश आना होगा। तुम्हें बुरे लोगों से नहीं जुड़ना चाहिए या उनके बुरे उदाहरण पर नहीं चलना चाहिए, यही बुद्धिमानी है। कृतज्ञता, भावनाओं और जनमत जैसे विभिन्न कारकों से प्रभावित मत हो—यह एक रुख अपनाना और सिद्धांत पर चलना है, और तुम्हें यही करना चाहिए। क्या तुम लोग इन तरीकों और दावों को स्वीकार सकते हो? (बिल्कुल।) भले ही मैंने जिन दृष्टिकोणों, अभ्यास के मार्गों और सिद्धांतों पर चर्चा की है, उनकी पारंपरिक धारणाओं और संस्कृति में आलोचना की जाती है, ये दृष्टिकोण और सिद्धांत हर उस व्यक्ति के अधिकारों और गरिमा की दृढ़ता से रक्षा करेंगे जिनमें मानवता और अंतरात्मा की समझ है। वे लोगों को पारंपरिक संस्कृति में नैतिक आचरण के तथाकथित मानकों से बेबस और बाधित नहीं होने, और इन झूठी पवित्र और दिखावटी चीजों के धोखे से आजाद होने और गुमराह न किए जाने में सक्षम बनाएँगे। ये दृष्टिकोण और सिद्धांत उन्हें परमेश्वर के वचनों के जरिए सत्य समझने, परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार जीने, नैतिकता को लेकर सार्वजनिक राय से प्रभावित नहीं होने और खुद को तथाकथित सांसारिक तौर-तरीकों की बाधाओं और बंधनों से मुक्त करने में भी मदद करेंगे, ताकि वे लोगों और सभी चीजों के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सही दृष्टिकोणों का उपयोग करके व्यवहार कर सकें, और सांसारिक चीजों, परंपरा और सामाजिक नैतिकता की बेड़ियों और गुमराह करने वाले तौर-तरीकों को पूरी तरह से त्याग सकें। इस तरह, वे रोशनी में रह सकेंगे, सामान्य मानवता का जीवन जी सकेंगे, गरिमा के साथ रह सकेंगे और परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करेंगे।
सामाजिक नैतिकता के संबंध में “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” और “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” जैसी कहावतों से लोगों पर वास्तव में क्या प्रभाव पड़ सकता है? क्या वे मनुष्य का रुतबा और लाभ कमाने वाला शैतानी स्वभाव बदल सकती हैं? क्या वे मनुष्य की महत्वाकांक्षा और इच्छा को बदल सकती हैं? क्या वे मनुष्यों के बीच संघर्ष और खून-खराबे का समाधान कर सकती हैं? क्या वे लोगों को जीवन में सही मार्ग पर कदम रखने और खुशहाल जीवन जीने में सक्षम बना सकती हैं? (नहीं।) तो फिर सामाजिक नैतिकता के इन मानदंडों का वास्तव में क्या प्रभाव पड़ता है? ज्यादा-से-ज्यादा, क्या वे चंद नेक लोगों को अच्छे कर्म करने और समाज की सुरक्षा में योगदान देने के लिए प्रोत्साहित करते हैं? (हाँ।) वे बस इतना ही करते हैं, और एक भी समस्या का समाधान नहीं करते। भले ही नैतिक आचरण के इन तथाकथित मानदंडों की शिक्षा के तहत लोग आखिर में उनका पालन करके उनके अनुसार जीने लगें, इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त होकर एक मनुष्य की तरह जीवन जी पाएँगे। उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी व्यक्ति ने तुम पर एहसान किया है, तो तुम इसका बदला चुकाने के लिए जो बन पाता है वह करते हो—वह तुम्हें एक बोरी चावल देता है तो तुम बदले में उसे आटे का एक बड़ा-सा थैला देते हो, और वह तुम्हें दो किलो बकरे का माँस देता है, तो तुम उसे दो किलो भेड़ का माँस देकर बदला चुकाते हो। तुम्हारे लगातार एक-दूसरे के एहसान का बदला चुकाने का परिणाम क्या होगा? मन-ही-मन, तुम दोनों हिसाब लगाओगे कि किसे ज्यादा फायदा हुआ और किसे कम, और इससे गलतफहमियाँ पैदा होंगी, तुम्हारे बीच झगड़े होंगे और तुम एक-दूसरे के खिलाफ साजिश रचोगे। मेरे कहने का क्या अर्थ है? मैं यह कहना चाहता हूँ कि नैतिक आचरण की यह अपेक्षा कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” न सिर्फ लोगों के सोचने के तरीके को बाधित और गुमराह करती है, बल्कि यह लोगों के जीवन को कई असुविधाओं, बोझ और यहाँ तक कि संकट से भर देती है। और अगर इसके कारण तुम किसी के दुश्मन बन जाते हो, तो तुम्हें और बड़ी मुश्किल और भयंकर कष्ट झेलना पड़ सकता है! लोगों को ऐसे रिश्तों में नहीं रहना चाहिए जो लेनदेन की नींव पर बने हों। लोग हमेशा ऐसी भावनाओं और सांसारिक तौर-तरीकों के अनुसार जीते हैं, जिससे आखिर में बहुत-सी अनावश्यक परेशानियाँ ही खड़ी होंगी। यह सिर्फ आत्म-प्रताड़ना और निरर्थक पीड़ा है। परंपरागत संस्कृति और नैतिक आचरण के दावे इसी तरह लोगों के मन में बैठकर उन्हें गुमराह करते हैं। इन्हें बिल्कुल भी न पहचान पाने के कारण लोग यह गलत मान बैठते हैं कि परंपरागत संस्कृति के ये पहलू सही हैं और वे इन्हें अपने मानदंड और दिशा-निर्देश के रूप में अपना लेते हैं, इन कहावतों का सख्ती से पालन करते हैं और जनमत की निगरानी में जीवन जीते हैं। धीरे-धीरे और अनजाने में, वे इन चीजों से शिक्षित, प्रभावित और नियंत्रित हो जाते हैं, और असहाय और पीड़ित महसूस करने लगते हैं, और फिर भी इनसे मुक्त होने में असमर्थ होते हैं। जब परमेश्वर लोगों के अंदर मौजूद परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं को उजागर करने और उनका न्याय करने की बात कहता है, तो इससे कई लोग परेशान भी होते हैं। जब ये चीजें लोगों के मन, विचारों और धारणाओं से पूरी तरह से साफ हो जाती हैं, तो वे अचानक काफी खालीपन महसूस करते हैं, मानो उनके पास सहारा लेने के लिए कुछ भी नहीं है, और तब वे पूछेंगे, “मुझे आगे क्या करना चाहिए? मुझे कैसे जीना चाहिए? इन चीजों के बिना, मेरे जीवन में कोई मार्ग या दिशा नहीं है। अब जब ये बातें मेरे मन से बिल्कुल साफ हो गई हैं, तो मैं इतना खालीपन और लक्ष्यहीन क्यों महसूस करता हूँ? अगर लोग इन कहावतों के अनुसार न जिएँ, तो क्या उन्हें अभी भी मनुष्य कहा जा सकता है? क्या उनमें अभी भी मानवता होगी?” सोचने का यह तरीका गलत है। वास्तव में, जब तुम परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं से मुक्त हो जाते हो, तो तुम्हारा हृदय शुद्ध हो जाता है, तुम अब इन चीजों से बँधे हुए और बाधित नहीं रहते हो, तुम्हें आजादी और मुक्ति मिल जाती है और ये परेशानियाँ भी खत्म हो जाती हैं—तुम उनसे मुक्त क्यों नहीं होना चाहोगे? कम से कम, जब तुम परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं को त्याग दोगे जो सत्य नहीं हैं, तो तुम्हें कम पीड़ा और यातना सहनी पड़ेगी और तुम कई निरर्थक बाधाओं और चिंताओं से छुटकारा पा सकोगे। अगर तुम सत्य स्वीकार करके परमेश्वर के वचनों के अनुसार चल सकते हो, तो तुम जीवन में सही मार्ग पर कदम रखोगे और रोशनी में जी पाओगे। परंपरागत संस्कृति के नैतिक आचरण के मानकों के अनुरूप चलना पूरी तरह से सही प्रतीत हो सकता है, पर क्या इस तरह तुम एक मनुष्य का जीवन जी रहे हो? क्या तुमने जीवन में सही मार्ग पर कदम रखा है? परंपरागत संस्कृति के ये पहलू कुछ भी नहीं बदल सकते। वे न तो लोगों की भ्रष्ट सोच बदल सकते हैं, न ही उनके भ्रष्ट स्वभाव, तो फिर लोगों का भ्रष्ट सार बदलना तो दूर की बात है। उनका कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि इनकी शिक्षाओं, अनुकूलन और प्रभाव से मनुष्य की मानवता विकृत और पथभ्रष्ट हो सकती है। लोग स्पष्ट देख पाते हैं कि जिस व्यक्ति ने उन पर दया दिखाई थी वह अच्छा इंसान नहीं है, मगर फिर भी वे अपनी मान्यताओं के खिलाफ जाकर उसका ऋण चुकाते हैं, सिर्फ इसलिए कि अतीत में उसने उन पर कोई एहसान किया था। अपनी मान्यताओं के बावजूद लोग दूसरों की दयालुता का बदला क्यों चुकाते हैं? वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि परंपरागत संस्कृति का यह विचार कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाना चाहिए, उनके दिलों में जड़ें जमा चुका है। वे डरते हैं कि अपनी मान्यताओं के खिलाफ जाकर अगर उन्होंने उनकी मदद करने वालों के एहसान का बदला नहीं चुकाया, तो सभी उनका तिरस्कार करेंगे, और उन्हें ऐसे एहसान फरामोश के रूप में देखा जाएगा जो दयालुता का बदला चुकाने में असफल रहे, और उन्हें नीच, घिनौने चरित्र वाले, और ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाएगा जिसके पास कोई अंतरात्मा या मानवता नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे इन बातों से डरते हैं और सोचते हैं कि भविष्य में कोई उनकी मदद नहीं करेगा, उनके पास दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने से जुड़ी परंपरागत संस्कृति के विचार की शिक्षा और बेड़ियों में जकड़कर जीने के अलावा कोई चारा नहीं है। इसी वजह से सभी लोग प्रतिकूल और कष्टपूर्ण जीवन जीते हैं, जिसमें वे अपनी मान्यताओं के खिलाफ जाकर काम करते हैं और अपनी ही मुश्किलों के बारे में बोल नहीं पाते। क्या इसके लिए इतनी सारी मुश्किलें उठाई जानी चाहिए? क्या दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने के इस विचार ने लोगों को कष्ट में नहीं डाला है?
“दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” इस कहावत के बारे में मैंने अभी-अभी संगति करते हुए कहा कि वास्तव में “दयालुता” क्या है, परमेश्वर मनुष्य की दयालुता की परिभाषा को कैसे देखता है, मनुष्य को इस दयालुता के साथ कैसे पेश आना चाहिए, जिन्होंने तुम पर दया दिखाई है या तुम्हारी जान बचाई है उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, सही परिप्रेक्ष्य और मार्ग वास्तव में क्या हैं और तुम्हारे जीवन में उनका क्या स्थान होना चाहिए, लोगों को अपने दायित्व कैसे पूरे करने चाहिए, और कुछ विशेष परिस्थितियों से कैसे निपटना चाहिए और उन्हें किस परिप्रेक्ष्य से देखा जाना चाहिए। ये अपेक्षाकृत पेचीदा मामले हैं जिन्हें केवल कुछ संक्षिप्त टिप्पणियों से स्पष्ट नहीं किया जा सकता, मगर मैंने तुम लोगों को मुख्य समस्याओं, इस विषय से जुड़ी समस्याओं के सार वगैरह के बारे में बता दिया है। आइंदा ऐसी समस्या का सामना करने पर तुम लोगों को कैसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और अभ्यास का कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए, इस बारे में क्या यह नहीं लगता कि तुम्हें कमोबेश सब स्पष्ट है? कुछ लोग कहते हैं, “सैद्धांतिक तौर पर तो मुझे सब स्पष्ट है, पर मनुष्य देह और रक्त से बना है। इस संसार में रहते हुए हम इन नैतिक मानदंडों से प्रभावित और जनमत से प्रेरित जरूर होंगे। बहुत से लोग इसी तरह से जीते हैं, दयालुता दिखाने और दूसरों की दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने के कार्यों को महत्व देते हैं। अगर मैं इस तरह से नहीं जीता, तो यकीनन दूसरे लोग मेरा अपमान और तिरस्कार करेंगे। मुझे डर है कि लोग मुझे अमानवीय घोषित कर देंगे, जो कि एक अछूत की तरह जीता है, और मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता।” इसमें दिक्कत क्या है? लोग इससे बेबस क्यों होते हैं? क्या इस समस्या को हल करना आसान है? बिल्कुल है, और मैं तुम्हें बताऊँगा कि ऐसा कैसे होगा। अगर तुम्हें लगता है कि जब तुम पारंपरिक संस्कृति के दृष्टिकोण यानी दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए के अनुसार नहीं जियोगे, तो तुम एक सामाजिक अछूत की तरह जियोगे; अगर तुम्हें लगता है कि तुम अब एक पारंपरिक चीनी व्यक्ति के समान नहीं दिखते, और पारंपरिक संस्कृति से भटककर तुम एक इंसान की तरह नहीं जी रहे और तुममें उन गुणों का अभाव है जो तुम्हें इंसान बनाते हैं; अगर तुम्हें चिंता है कि तुम चीनी समाज के उपयुक्त नहीं होगे, और दूसरे चीनी लोग तुम्हारा तिरस्कार करेंगे और तुम्हें सड़े हुए सेब की तरह देखेंगे; तो सामाजिक रुझानों के साथ चलो—कोई तुम पर दबाव नहीं डालेगा और न ही तुम्हारी निंदा करेगा। हालाँकि, अगर तुम्हें लगता है कि पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीने और हमेशा दूसरों की दयालुता के कृत्यों को महत्व देने से पिछले कुछ सालों में तुम्हें कोई लाभ नहीं हुआ है, यह जीवन जीने का थकाऊ तरीका रहा है, और अगर तुम इस जीवनशैली को त्यागकर लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखने और आचरण करने और मेरे वचनों के अनुसार सब कुछ करने के लिए प्रतिबद्ध हो, तो बेशक, यह और भी बेहतर होगा। भले ही तुम लोग इन चीजों को अब सैद्धांतिक तौर पर समझते हो और तुम्हें हालात की अच्छी समझ है, आगे जाकर तुम वास्तव में लोगों और चीजों को कैसे देखोगे, कैसे जीवन जियोगे, कैसे आचरण करोगे, यह सब तुम लोगों का अपना मामला है। तुम्हें किस हद तक मेरी बात माननी है, किस हद तक तुम इन सारी बातों को अभ्यास में ला सकते हो, और इसे कितनी दूर तक लेकर जाओगे, यह सब तुम्हारा फैसला है और तुम पर ही निर्भर करता है। मैं तुम पर दबाव नहीं डाल रहा। मैं तो बस तुम्हें रास्ता दिखा रहा हूँ। लेकिन, एक बात पक्की है : मैं तुम्हें सच-सच बता दूँ कि अगर तुम पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीते हो, तो तुम बेहद अमानवीय और गरिमाहीन जीवन जियोगे, और तुम्हें एहसास होगा कि तुम्हारी अंतरात्मा की भावना अधिक से अधिक असंवेदनशील हो जाएगी। धीरे-धीरे, तुम एक दयनीय जीवन जीने लगोगे, जहाँ तुम न तो इंसान जैसे दिखोगे, न ही भूत जैसे। लेकिन, अगर तुम मेरे वचनों और मेरे बताए सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हो, तो मैं गारंटी देता हूँ कि तुम और अधिक मानवता, अंतरात्मा, विवेक और गरिमा के साथ जियोगे—यह पक्का है। बाद में जब ऐसी परिस्थितियों से तुम्हारा सामना होगा, तो तुम स्वतंत्र और मुक्त होकर जी पाओगे और शांति और खुशी महसूस करोगे। तुम्हारे दिल का अंधकार और बोझ कम हो जाएगा, तुम आत्मविश्वास महसूस करोगे और दृढ़ता से खड़े रहने में सक्षम होगे। अब तुम लौकिक संसार के तौर-तरीकों से त्रस्त, गुमराह या प्रभावित नहीं होगे और गरिमा के साथ जीवन जियोगे। हर दिन खुद को जमीन से जुड़ा हुआ महसूस करोगे और हर एक मामले से सबसे सटीक तरीके से निपटोगे, अनेक भटकावों और भयंकर कष्टों से बच पाओगे, जिनसे तुम्हें नहीं गुजरना होगा। तुम ऐसा कुछ भी नहीं करोगे जो तुम्हें नहीं करना चाहिए, और न ही ऐसी कोई कीमत चुकाओगे जो तुम्हें नहीं चुकानी चाहिए। अब तुम दूसरों की खातिर नहीं जियोगे। अब तुम लोगों के परिप्रेक्ष्य और राय से प्रभावित नहीं होगे। अब तुम समाज की आलोचनाओं और निंदा से बेबस नहीं होगे। क्या यह गरिमापूर्ण जीवन नहीं है? क्या यह स्वतंत्र और मुक्त जीवन नहीं है? इसी समय तुम्हें एहसास होगा कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना ही जीवन का एकमात्र सही मार्ग है, और केवल इस तरह से जीने से ही कोई व्यक्ति मनुष्य की तरह जीकर खुश रह सकता है। पारंपरिक संस्कृति के कोहरे में रहते हुए तुम्हें मार्ग साफ दिखाई नहीं देता और तुम गलती से यह मान बैठते हो कि तुम मनुष्य के संसार में स्थित किसी आदर्शवादी सपनों की नगरी की ओर जा रहे हो। लेकिन आखिर में तुम भटक जाते हो और शैतान तुम्हारा मजाक उड़ाते हुए तुम्हें यंत्रणा देता है। आज, अब जब तुमने परमेश्वर की वाणी सुन ली है, सत्य खोज लिया है और मनुष्य के संसार में रोशनी को आते देखा है, तो तुम कोहरे से निकलकर उस मार्ग और दिशा को स्पष्ट देख रहे हो जो तुम्हें अपने जीवन में अपनाना चाहिए। तुम तेजी से आगे बढ़कर परमेश्वर के समक्ष वापस आते हो। क्या यह परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष नहीं है? तो, क्या अब तुम लोगों को उस कोहरे से निकलकर ऊपर साफ आसमान दिख रहा है? शायद तुम लोग पहले ही एक किरण देख चुके हो और अब रोशनी की ओर बढ़ रहे हो—यह सबसे बड़ा आशीष है। अगर तुम परमेश्वर की वाणी सुन सकते हो, सत्य को स्वीकार और समझ सकते हो, कोहरे को दूर कर सकते हो, पारंपरिक संस्कृति की ये सभी गलत चीजें त्याग कर सभी बाधाएँ दूर कर सकते हो, तो तुम उद्धार पाने के मार्ग पर कदम रख सकते हो। नैतिक आचरण की कहावत “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” के संबंध में मुझे बस इतना ही कहना है। आगे चलकर तुम लोग इन वचनों के बारे में मिलकर और संगति कर सकते हो, और फिर तुम्हें पूरी समझ आ जाएगी। सिर्फ एक बार सभा में संगति करने से कोई व्यक्ति इन मामलों में तत्काल प्रवेश नहीं कर सकता है। भले ही मैंने अब नैतिक आचरण की इस कहावत पर अपनी संगति पूरी कर ली है, और तुम लोग इसे सैद्धांतिक तौर पर समझते हो, पर वास्तविक जीवन में इन पुरानी, पारंपरिक धारणाओं को त्यागना आसान नहीं है। हो सकता है कि तुम लोग अभी भी इन पुराने विचारों पर अड़े रहकर कुछ समय इनसे जूझते रहो। कम से कम, पारंपरिक संस्कृति के इन पहलुओं को पूरी तरह से त्यागने और परमेश्वर के वचनों के सत्य को पूरी तरह से स्वीकारने में तुम्हें थोड़ा समय जरूर लगेगा। तुम्हें वास्तविक जीवन में और समाज और मानवजाति का सामना करते हुए धीरे-धीरे इनका अनुभव करना होगा, इन्हें जीना होगा और इनकी पुष्टि करनी होगी। इन अनुभवों से तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों को जानोगे और सत्य समझोगे। ऐसा करके तुम्हें लाभ होने लगेगा, फायदे और इनाम प्राप्त होंगे, और तुम सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के बारे में अपने गलत दृष्टिकोणों और विचारों को सुधार लोगे। यही सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया और मार्ग है।
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