सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7) भाग एक

हाल ही में, मैंने नैतिक आचरण के बारे में पारंपरिक संस्कृति की तमाम तरह की कहावतों पर संगति की। कुछ खास कहावतों के बारे में तो मैंने काफी विस्तार से संगति की है। अब, क्या इस विषय और सामग्री का सत्य से कोई लेना-देना है? (हाँ।) क्या कोई मानता है कि यह विषय और सामग्री सत्य से संबंधित नहीं लगती? अगर उन्हें ऐसा लगता है, तो वे वाकई कम काबिल लोग हैं और उनमें जरा-सी भी समझ नहीं है। क्या इस विषय पर मेरी संगति समझने में आसान रही है? (बिल्कुल।) अगर मैं इस तरह से संगति और विश्लेषण न करता तो क्या तुम लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों को, जिन्हें लोग अपेक्षाकृत सकारात्मक मानते हैं, गलती से सत्य न मान लेते और इन पर लगातार कायम रहते? सबसे पहले, मैं यकीन से कह सकता हूँ कि ज्यादातर लोग इन कहावतों को सकारात्मक चीजें मानते हैं, ऐसी चीजें जो मानवता के अनुरूप हैं और जिनका पालन अवश्य किया जाना चाहिए, और यह भी मानते हैं कि ये चीजें अंतरात्मा, तर्क, अपेक्षाओं, धारणाओं और मानवता से संबंधित ऐसी अन्य चीजों के अनुरूप हैं। यह कहा जा सकता है कि इस विषय पर मेरी संगति से पहले लगभग हर व्यक्ति नैतिक आचरण की इन विभिन्न कहावतों को सकारात्मक और सत्य के अनुरूप मानता था। मेरी संगति और विश्लेषण सुनने के बाद क्या अब तुम लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों और सत्य के बीच अंतर कर सकते हो? क्या तुम लोगों में इस तरह की समझ आ गई है? कुछ लोग कहेंगे : “मैं इनमें फर्क करने में असमर्थ हूँ, लेकिन फिर भी परमेश्वर की संगति सुनकर अब मैं यह समझता हूँ कि इन चीजों और सत्य के बीच अंतर है। ये चीजें सत्य की जगह नहीं ले सकती हैं, इन्हें सकारात्मक चीजें या सत्य तो बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता है। बेशक, इन्हें परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं या सत्य की कसौटी के अनुरूप माने जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। उनका परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर की अपेक्षाओं या सत्य की कसौटी से कोई संबंध नहीं है। कुल मिलाकर, ये चाहे मानवता की अंतरात्मा और तर्क के अनुरूप हों या न हों, मैं अब अपने दिल में इन चीजों की पूजा नहीं करता और इन्हें सत्य नहीं मानता।” इससे पता चलता है कि पारंपरिक संस्कृति के ये पहलू अब लोगों के दिलों में मार्गदर्शक भूमिका नहीं निभाते। जब लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों को सुनेंगे, तो वे अनायास ही उनके और सत्य के बीच फर्क कर पाएँगे और ज्यादातर उन्हें ऐसी चीजें मानेंगे जिन्हें लोग अपनी अंतरात्मा में स्वीकृति देते हैं। लेकिन, वे जानते हैं कि ये चीजें अभी भी सत्य से अलग हैं और ये सत्य की जगह तो बिल्कुल भी नहीं ले सकती हैं। जब लोग नैतिक आचरण की इन कहावतों के सार को समझ लेंगे, तब वे उन्हें सत्य मानना और उनके अनुरूप चलना, उनकी पूजा करना या उन्हें ऐसा मानना बंद कर देंगे—यही मूल प्रभाव हासिल किया जाता है। अब इन सभी चीजों की समझ होने का लोगों के सत्य के अनुसरण पर कौन-से सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं? यकीनन इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, लेकिन उस प्रभाव की तीव्रता इस बात पर निर्भर करेगी कि तुम किस हद तक सत्य को समझते हो या तुम कितना सत्य जानते हो। इन बातों पर विचार करने पर, यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि पारंपरिक संस्कृति के इन पहलुओं का विश्लेषण किया जाए, जिन पर लोग कायम रहते हैं और जो उनकी धारणाओं के अनुरूप हैं। कम-से-कम इस विश्लेषण से लोगों को सत्य की शुद्ध समझ हासिल करने में मदद मिलेगी और उन्हें निरर्थक प्रयास करने या सत्य के अनुसरण में गलत मार्ग पर चलने से रोका जा सकेगा। इससे ऐसे प्रभाव हासिल किए जा सकते हैं।

पिछली बार हमने नैतिक आचरण की इन चार कहावतों पर संगति कर इनका विश्लेषण किया था—“उठाए गए धन को जेब में मत रखो,” “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ,” “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो,” और “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ।” आज हम अन्य कहावतों पर संगति जारी रखेंगे। चीनी पारंपरिक संस्कृति ने नैतिक आचरण के बारे में कई मुखर दावों को आगे बढ़ाया है—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये दावे मूल रूप से किस युग के दौरान या इतिहास की किस अवधि में किए गए, इन सभी को मौजूदा समय तक आगे बढ़ाया गया है और ये लोगों के दिलों में मजबूती से जड़ें जमा चुके हैं। जैसे-जैसे समय बीतता गया और नई चीजें धीरे-धीरे उभरीं, मनुष्य ने नैतिक आचरण के बारे में कई नए और अलग-अलग दावे प्रस्तुत किए। ये दावे मूल रूप से लोगों के नैतिक चरित्र और व्यवहार से की गई अपेक्षाएँ हैं। क्या तुम सब लोगों की समझ नैतिक आचरण की उन चार कहावतों के बारे में कमोबेश स्पष्ट है, जिनके बारे में हमने पिछली बार संगति की थी? (बिल्कुल।) अब हमें अगली कहावत पर संगति करनी चाहिए : “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए।” यह विचार कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, पारंपरिक चीनी संस्कृति में यह आँकने के लिए एक प्रारूपिक कसौटी है कि किसी व्यक्ति का आचरण नैतिक है या अनैतिक। किसी व्यक्ति की मानवता अच्छी है या बुरी, और उसका आचरण कितना नैतिक है, इसका आकलन करने का एक मापदंड यह है कि क्या वह किसी के एहसान या मदद का बदला चुकाने की कोशिश करता है—क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाता है या नहीं। पारंपरिक चीनी संस्कृति में, और मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति में, लोग इसे नैतिक आचरण के एक अहम पैमाने के रूप में देखते हैं। अगर कोई यह नहीं समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, और वह कृतज्ञता नहीं दिखाता है, तो ऐसा माना जाता है कि उसमें जमीर का अभाव है, वह मेलजोल के लिए अयोग्य है और ऐसे व्यक्ति से सभी लोगों को घृणा करनी चाहिए, उसका तिरस्कार करना चाहिए या उसे ठुकरा देना चाहिए। दूसरी तरफ, अगर कोई व्यक्ति यह समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए—अगर वह कृतज्ञ है और उपलब्ध सभी साधनों का इस्तेमाल करके खुद पर किए गए एहसान या मदद का बदला चुकाता है—तो उसे जमीर और मानवता युक्त इंसान माना जाता है। अगर कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से लाभ या मदद लेता है, पर इसका बदला नहीं चुकाता, या सिर्फ जरा-सा “शुक्रिया” कहकर आभार जता देता है, और इसके अलावा कुछ नहीं करता, तो दूसरा व्यक्ति क्या सोचेगा? शायद उसे यह असहज लगेगा? शायद वह सोचेगा, “यह इंसान मदद किए जाने के योग्य नहीं है। यह अच्छा व्यक्ति नहीं है। मैंने उसकी इतनी मदद की, अगर इस पर उसकी यही प्रतिक्रिया है, तो उसमें जमीर और इंसानियत नाम की चीज नहीं है, और इस योग्य नहीं है कि उससे संबंध रखा जाए।” अगर उसे दोबारा कोई ऐसा व्यक्ति मिले, क्या वह तब भी उसकी मदद करेगा? कम-से-कम वह ऐसा करना तो नहीं चाहेगा। क्या तुम लोग भी, ऐसी परिस्थिति में यह नहीं सोचोगे कि सच में मदद करनी चाहिए या नहीं? पिछले अनुभव से तुमने जो सबक सीखा होगा वह यह होगा, “मैं हर किसी की यूँ ही मदद नहीं कर सकता—इन्हें यह बात समझ में आनी चाहिए कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए। अगर ये लोग एहसानफरामोश किस्म के हैं, जो मेरी मदद का बदला नहीं चुकाएंगे, तो बेहतर यही है कि मैं उनकी मदद न ही करूँ।” क्या इस मामले में तुम लोगों की यही सोच नहीं होगी? (बिल्कुल होगी।) आम तौर पर, जब लोग दूसरों की मदद करते हैं, तो वे वास्तव में अपने मदद भरे कदम के बारे में क्या सोचते हैं? क्या वे जिस व्यक्ति की मदद करते हैं उससे कुछ अपेक्षाएँ या उम्मीदें रखते हैं? क्या कोई कहता है, “मैं तुमसे किसी भी तरह की भरपाई की अपेक्षा के बिना तुम्हारी मदद कर रहा हूँ। मैं तुमसे कुछ भी हासिल नहीं करना चाहता। जब तुम परेशानियों का सामना करते हो, तो मुझे तुम्हारी मदद करनी ही चाहिए, और यह मेरा कर्तव्य है। चाहे हमारा एक दूसरे के साथ कोई संबंध हो या न हो और चाहे भविष्य में तुम मेरे एहसान का बदला चुकाने में सक्षम हो या न हो, मैं बस एक साधारण इंसान के रूप में अपना मौलिक कर्तव्य निभा रहा हूँ और बदले में मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। तुम मेरे एहसान का बदला चुकाते हो या नहीं, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।” क्या ऐसी बातें कहने वाले लोग मौजूद हैं? अगर ऐसे लोग मौजूद भी हैं, तो वे बस बनावटी हैं और तथ्यों से मेल नहीं खाते। चीनी ऐतिहासिक उपन्यासों में ऐसे बहुत-से नायक पात्र गढ़े हैं और आधुनिक समाज में बड़े लाल अजगर के देश ने जो नायक गढ़े हैं वे और भी ज्यादा काल्पनिक हैं। भले ही ऐसे लोग मौजूद थे, पर उनके बारे में कहानियां गढ़ी गई थीं। इन तथ्यों के आधार पर देखें, तो क्या तुम्हें अब “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” की कहावत, लोगों के नैतिक आचरण को आँकने की इस कसौटी, और जहाँ से यह आई है, उसके बारे में स्पष्ट हो गया है? शायद कुछ लोगों को अभी भी इसके बारे में सब कुछ स्पष्ट नहीं है। इस भ्रष्ट मानवजाति में, सभी लोगों के पास एक तरह का आदर्श और मानव समाज से कुछ अपेक्षा होती है। उनकी क्या अपेक्षा है? “अगर सभी थोड़ा-सा प्रेम दें, तो दुनिया एक अद्भुत जगह बन जाएगी।” इस अपेक्षा के अलावा, लोग यह भी उम्मीद करते हैं कि उनके स्नेही दिलों और उनके द्वारा चुकाई गई कीमत के बदले में उन्हें कुछ मिले और उनकी भरपाई हो। एक तरफ, यह आर्थिक रूप से की जाने वाली भरपाई हो सकती है, जैसे कि पैसों का उपहार देना या कोई आर्थिक इनाम देना। वहीं दूसरी तरफ, इसका मतलब आध्यात्मिक रूप से भरपाई करना भी हो सकता है—यानी लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए इनाम के तौर पर उन्हें आध्यात्मिक पूर्णता देना, जो “आदर्श श्रमिक,” “नैतिक रोल मॉडल,” या “नैतिकता की मिसाल” जैसी उपाधि देकर किया जाता है। मानव समाज में, लगभग सभी को समाज और संसार से इस तरह की अपेक्षा होती है—वे सभी नेक इंसान बनने, सही रास्ते पर चलने, और जरूरतमंद लोगों के लिए मदद का हाथ बढ़ाने, लोगों को उनकी मदद पाने देने और कुछ लाभ प्राप्त करने की आशा रखते हैं। वे उम्मीद करते हैं उनकी मदद पाने वाले लोग याद रखेंगे कि किसने उनकी मदद की थी, और किस तरह से उनकी मदद की गई थी। बेशक, वे यह भी उम्मीद करते हैं कि जब उन्हें खुद कोई जरूरत होगी, तो कोई न कोई मदद का हाथ बढ़ाने के लिए मौजूद होगा। एक ओर, जब किसी को मदद की जरूरत होती है, तो वे आशा करते हैं कि कुछ लोग उनके प्रति स्नेही दिल दिखाएँगे; वहीं दूसरी ओर, वे आशा करते हैं कि जब स्नेही दिल दिखाने वालों को मुश्किल वक्त का सामना करना पड़ेगा, तो उन्हें भी वो मदद मिल पाएगी जिसकी उनको जरूरत है। समाज और संसार से लोगों को इसी तरह की अपेक्षा होती है—वास्तव में, उनका अंतिम लक्ष्य यही होता है कि मानवजाति एक समरस, शांतिपूर्ण और स्थिर समाज में रहे। यह अपेक्षा कैसे उत्पन्न हुई है? यह अपेक्षा और उससे जुड़ा दावा स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हुआ है[क], क्योंकि लोग इस प्रकार के सामाजिक परिवेश में सुरक्षित और खुश महसूस नहीं करते। इस तरह, लोग व्यक्ति के नैतिक आचरण और उसके चरित्र की श्रेष्ठता का मूल्यांकन इस आधार पर करने लगते हैं कि उसने दूसरों की दयालुता का बदला चुकाया या नहीं, और लोगों के नैतिक आचरण के मूल्यांकन की कसौटी बन चुकी यह कहावत “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” इसी परिस्थिति से निकली है। यह कहावत कैसे बनी, क्या यह बहुत अजीब नहीं है? (बिल्कुल।) वर्तमान युग में मनुष्य सत्य की खोज नहीं करता और उसे नहीं स्वीकारता, और वह सत्य से विमुख हो चुका है। लोग अस्त-व्यस्त दशा में हैं और एक दूसरे के बीच रहते हुए भी उन सभी को यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, कौन-से कर्तव्य निभाने चाहिए, और कौन-सा स्थान ग्रहण करना चाहिए और लोगों और चीजों को देखते समय कौन-से ऊँचे स्थान पर जाना चाहिए। इसके अलावा, लोगों को यह भी स्पष्ट नहीं है कि समाज के प्रति उनकी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य क्या हैं और वे निश्चित नहीं हैं कि उन्हें किस रुख और परिप्रेक्ष्य से समाज को देखना और उससे पेश आना चाहिए। संसार में जो कुछ भी होता है उसके लिए उनके पास सटीक व्याख्या और निर्णय नहीं है; वे अभ्यास का सही मार्ग खोजने में भी विफल रहते हैं, ताकि अपने आचरण और क्रियाकलाप को उस हिसाब से नियंत्रित कर सकें। लड़ाई-झगड़े, खून-खराबे, युद्ध और सभी प्रकार के अनुचित व्यवहार करने वाले अत्यधिक अंधकारमय, भयावह संसार का सामना करते हुए, लोग उद्धारकर्ता को याद करते हैं और उसके आने की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। फिर भी, सत्य में उनकी कोई रुचि नहीं है और कोई भी सक्रिय रूप से परमेश्वर या उसके कार्य की खोज नहीं करता। अगर वे परमेश्वर के कथनों को सुनते हैं, तब भी वे खोज नहीं करते, उन्हें स्वीकारना तो दूर की बात है। सभी लोग इसी असहाय दशा में जीते हैं और सबको लगता है कि यह समाज बेहद अन्यायी और असुरक्षित है। हर कोई इस समाज और इस संसार से पूरी तरह ऊब चुका है और इनके प्रति वैर भाव से भरा है, लेकिन वैर भाव से भरे होने के बावजूद, उन्हें अभी भी यह उम्मीद है कि एक दिन यह समाज बेहतर होगा। उनके हिसाब से एक बेहतर समाज कैसा होता है? वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जिसमें लड़ाई-झगड़ा और खून-खराबा न हो, जिसमें सभी लोग एक दूसरे से समरस तरीके से बातचीत कर सकें, किसी को भी दबाव, पीड़ा या जीवन की बाधाओं का सामना न करना पड़े; और सभी लोग सुकूनभरा, स्वतंत्र, सहज और खुशहाल जीवन जी सकें, दूसरों के साथ सामान्य रूप से बातचीत कर सकें, उनके साथ निष्पक्ष व्यवहार कर सकें, और बेशक दूसरे लोग भी उनके साथ उचित व्यवहार करें। क्योंकि इस संसार में और मानवजाति के बीच, निष्पक्षता कभी नहीं देखी गई है। यहाँ सिर्फ लड़ाई-झगड़े और खून-खराबे होते रहते हैं, पर लोगों के बीच कभी समरसता नहीं होती। इतिहास का कोई भी दौर रहा हो, हमेशा ऐसा होता आया है। इस क्रूर सामाजिक परिवेश और हालात का सामना करते हुए, एक भी ऐसा इंसान नहीं है जो इन समस्याओं को हल करना जानता हो, लोगों के बीच होने वाले लड़ाई-झगड़े और खून-खराबे या समाज में उत्पन्न होने वाली किसी भी अनुचित और अन्यायपूर्ण परिस्थिति का समाधान करना जानता हो। ऐसा साफ तौर पर इस तथ्य की वजह से है कि ऐसी समस्याएँ आती हैं और लोग उनका समाधान करना नहीं जानते; वे यह नहीं जानते कि उन्हें इन समस्याओं का समाधान करने के लिए कौन-सी बेहतर स्थिति या दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, या उन्हें हल करने के लिए कौन-सा तरीका अपनाना चाहिए; उनके मन में इस तरह का आदर्शवादी दर्शन विकसित हो जाता है। इस आदर्शवादी दर्शन में, लोग समरसता के साथ मिलजुलकर रह सकते हैं, समाज और आसपास के लोगों द्वारा सभी के साथ निष्पक्ष व्यवहार किया जाता है। सभी को यह उम्मीद होती है कि “दूसरों के प्रति लोगों का सम्मान दस गुणा अधिक होगा; अगर तुम मेरी मदद करोगे, तो बदले में मैं तुम्हारी मदद करूँगा; और जब तुम्हें मदद की जरूरत होगी, तो समाज में ऐसे बहुत से लोग होंगे जो मदद का हाथ बढ़ाने और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए तैयार होंगे; और जब मुझे मदद की जरूरत होगी, तो जिन लोगों को पहले मेरी मदद का फायदा मिला था वे मेरी मदद के लिए आगे आएँगे। यह ऐसा समाज होगा जिसमें लोग एक दूसरे की मदद करेंगे।” लोग मानते हैं कि मनुष्य सिर्फ इसी तरीके से खुशहाली में, समरस तरीके से और एक स्थिर और शांतिपूर्ण समाज में रह पाएँगे। वे मानते हैं कि सिर्फ इसी तरीके से एक दूसरे के खिलाफ जन संघर्षों को पूरी तरह मिटाकर हल किया जा सकता है। उन्हें लगता है कि जब इन समस्याओं का समाधान हो जाएगा, तब उनके दिलों की गहराइयों में बसी मानव समाज की अपेक्षाएँ और आदर्श साकार हो जाएँगे।

अविश्वासियों के समाज में एक गीत लोकप्रिय है, “आने वाला कल बेहतर होगा।” लोग हमेशा यही आशा करते हैं कि भविष्य में चीजें बेहतर होंगी—इसमें कुछ गलत भी नहीं है—लेकिन, वास्तविकता में, क्या कल चीजें वाकई बेहतर होंगी? नहीं, यह नामुमकिन है; चीजें सिर्फ बदतर ही होंगी, क्योंकि मानवता अधिक से अधिक बुरी और संसार अधिक से अधिक अंधकारमय होता जा रहा है। मानवजाति के बीच, न केवल गिने-चुने लोग ही किसी की दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्ण तरीके से चुकाते हैं, बल्कि अधिक से अधिक लोग कृतघ्न होते हैं और उस हाथ को ही चबा जाते हैं जो उन्हें खिलाता है। यही इस समय के हालत की वास्तविकता है। क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) चीजें ऐसी कैसे हो गईं। नैतिक आचरण की कसौटी, यानी “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” जिसका प्रचार नैतिकतावादी, शिक्षाविद और समाजशास्त्री करते हैं, इसका लोगों पर संकुचित करने वाला प्रभाव क्यों नहीं पड़ा है? (क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं।) क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं। लेकिन क्या ये नैतिकतावादी, शिक्षाविद और समाजशास्त्री इस बात को जानते हैं? (नहीं।) वे यह नहीं जानते कि खून-खराबे और लोगों के बीच संघर्षों का मूल कारण उनके नैतिक आचरण की समस्या नहीं है, बल्कि उनका भ्रष्ट स्वभाव है। लोगों में उस कसौटी की कोई समझ नहीं है जिसके अनुसार उन्हें आचरण करना चाहिए। यानी वे नहीं जानते कि उन्हें कैसा आचरण करना चाहिए और वे यह भी नहीं जानते कि असल में आचरण के सिद्धांत और मार्ग क्या हैं। इसके अलावा, सभी लोगों में भ्रष्ट स्वभाव और शैतानी प्रकृति है, लोग लाभ पाने की खातिर जीते हैं, और अपने हितों को सर्वोपरि मानते हैं। नतीजतन, लोगों के बीच खून-खराबे और संघर्षों की समस्या गंभीर होती जा रही है। क्या ऐसे भ्रष्ट मनुष्य “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” जैसी नैतिक आचरण की कसौटी का पालन कर सकते हैं? यह देखते हुए कि मनुष्य सबसे बुनियादी समझ और अंतरात्मा भी खो चुके हैं, तो वे किसी की दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक कैसे चुकाएंगे? परमेश्वर हमेशा से लोगों का मार्गदर्शन करता रहा है, उनके जीने के लिए जरूरी हर चीज तैयार करता रहा है, उसने धूप, हवा, भोजन, पानी वगैरह की आपूर्ति की है, फिर भी कितने लोग उसके प्रति आभार व्यक्त करते हैं? कितने लोग मानवजाति के प्रति परमेश्वर के सच्चे प्रेम को महसूस कर पाते हैं? ऐसे बहुत-से विश्वासी हैं जो परमेश्वर के इतने अधिक अनुग्रह का आनंद उठाते हुए भी गुस्से में भड़क उठते हैं, परमेश्वर को गाली देते हैं, और जैसे ही परमेश्वर एक-दो बार उनकी इच्छाएँ पूरी नहीं करता तो वे स्वर्ग के अन्याय को लेकर शिकायत करते हैं। क्या लोग ऐसा ही व्यवहार नहीं करते हैं? भले ही कुछ व्यक्ति कुछ लोगों की दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुका लेते हैं, पर वे किन समस्याओं को हल कर पाते हैं? बेशक, जिन लोगों ने नैतिक आचरण की इस कहावत को आगे बढ़ाया उनके इरादे नेक थे—वे केवल इस आशा से प्रेरित थे कि मनुष्य अपनी शत्रुता की समस्या को हल कर सकता है, संघर्ष से बच सकता है, एक दूसरे की मदद करते हुए समरसता से रह सकता है, एक दूसरे पर सुधारात्मक प्रभाव डाल सकता है, एक दूसरे के प्रति स्नेह दिखा सकता है, और जरूरत के समय मिलजुलकर एक दूसरे की मदद कर सकता है। अगर मानवजाति ऐसी दशा में पहुँच सके तो वह समाज कितना अद्भुत होगा, लेकिन अफसोस है कि ऐसा समाज कभी नहीं होगा, क्योंकि समाज उसके भीतर रहने वाले सभी भ्रष्ट व्यक्तियों का कुल योग है। मनुष्य की भ्रष्टता के कारण, समाज अधिक से अधिक अंधकारमय और बुरा होता जा रहा है, और समरस समाज होने का मनुष्य का आदर्श कभी साकार नहीं होगा। यह आदर्श समाज कभी साकार क्यों नहीं होगा? बुनियादी और सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य से देखें तो मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों के कारण ऐसा समाज नहीं बन सकता। वास्तव में, क्षणिक अच्छे व्यवहार, अच्छे नैतिक आचरण के इक्का-दुक्का कृत्य, और दूसरों के प्रति अस्थायी तौर पर प्रेम, मदद, सहयोग वगैरह के प्रदर्शन मात्र से मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की समस्या दूर नहीं हो सकती। बेशक, इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि ये चीजें इन सवालों का समाधान नहीं कर सकतीं कि लोगों को कैसा आचरण करना चाहिए और कैसे उन्हें जीवन में सही मार्ग पर चलना चाहिए। यह देखते हुए कि इन समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता, क्या इस समाज के लिए उस समरस दशा को साकार करना मुमकिन होगा जिसे लोग आदर्श मानते हैं और जिसकी वे आशा करते हैं? यह वास्तव में एक व्यर्थ का सपना है, और ऐसा होने की दूर-दूर तक संभावना नहीं है। नैतिक धर्मशास्त्रों की पैरवी करके और लोगों को शिक्षित करके, ये नैतिकतावादी उन्हें दूसरों की मदद करने के नेक नैतिक आचरण का उपयोग करने और दूसरों पर सुधारात्मक प्रभाव डालने के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश करते हैं, जिसका मकसद समाज को प्रभावित करना और सुधारना होता है। फिर भी, क्या उनका यह विचार, उनकी यह महत्वाकांक्षा सही है या गलत? यह निश्चित रूप से गलत है और इसे साकार नहीं किया जा सकता। मैंने ऐसा क्यों कहा? क्योंकि वे केवल लोगों के व्यवहारों, विचारों और दृष्टिकोणों, और नैतिक आचरण को समझते हैं, लेकिन जब मनुष्य के सार, मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव, मनुष्य की भ्रष्टता के सार और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने के तरीके जैसी गहन समस्याओं की बात आती है, तो उन्हें इनकी जरा-सी भी समझ नहीं होती है। नतीजतन, वे “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” जैसी नैतिक आचरण की मूर्खतापूर्ण कसौटी सामने रखते हैं। फिर, वे इस तरह की कहावत और नैतिक आचरण के लिए इस तरह की कसौटी का उपयोग करने की आशा करते हैं, ताकि मानवजाति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रभावित किया जा सके, मनुष्य के व्यवहार की कसौटी को बदला जा सके और मनुष्य के व्यवहार की दिशा और लक्ष्यों को बदला जा सके; साथ ही, धीरे-धीरे सामाजिक परिवेश को बदला जा सके, और मनुष्यों के बीच के संबंधों में और शासकों और प्रजा के बीच के संबंधों में बदलाव लाया जा सके। उनका मानना है कि एक बार जब इन संबंधों में बदलाव आ जाएगा, तब समाज इतना अन्यायपूर्ण नहीं होगा और इसमें इतने अधिक लड़ाई-झगड़े, शत्रुता और मार-काट की गुंजाइश नहीं होगी। यह आम लोगों के लिए कुछ हद तक फायदेमंद होगा, जिन्हें एक बराबरी में जीने वाला सामाजिक परिवेश मिलेगा और उनका जीवन अपेक्षाकृत अधिक संतोषजनक होगा। लेकिन इसका सबसे बड़ा लाभ आम लोगों को नहीं, बल्कि शासकों को, शासक वर्ग को और हर युग के कुलीन लोगों को मिलेगा। ये तथाकथित प्रख्यात हस्तियाँ और साधु-संत, जो लगातार नैतिक धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, वे इन नैतिक धर्म-सिद्धांतों का इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें मानवजाति अपेक्षाकृत आदर्शपूर्ण और मानवता के साथ-साथ उनकी अंतरात्मा की समझ के अनुरूप मानती है, जिससे लोगों को शिक्षित और प्रभावित किया जाता है और उनके नैतिक दृष्टिकोणों को बदला जाता है, ताकि वे स्वेच्छा से ऐसे सामाजिक परिवेश में रह सकें जो सभ्य हो और जिसके कुछ नैतिक मानक भी हों। एक ओर, तो इससे आम लोगों को दैनिक जीवन में लाभ मिलता है, क्योंकि यह ऐसा सामाजिक परिवेश बनाता है जिसमें वे अधिक समरस, शांतिपूर्ण और सभ्य तरीके से रहते हैं। दूसरी ओर, यह शासकों के लिए भी अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ बनाता है, जिससे वे लोगों पर शासन कर सकते हैं। ये कहावतें, जो नैतिक आचरण की कसौटी के बारे में बताती हैं, ज्यादातर लोगों के विचारों और धारणाओं के अनुरूप होती हैं, और ये एक शानदार भविष्य के संबंध में लोगों के आदर्शपूर्ण दर्शन के अनुरूप भी हैं। बेशक, इन कहावतों का प्रचार करने के पीछे उनका मुख्य इरादा शासकों के लिए शासन करने की अधिक अनुकूल परिस्थितियाँ तैयार करना है। ऐसी परिस्थितियों में, आम आदमी को कोई परेशानी नहीं होगी वे समरसता से और संघर्ष के बिना जी सकेंगे, और सभी लोग स्वेच्छा से सामाजिक व्यवहार को नियंत्रित करने वाली उस नैतिक कसौटी पर खरे उतर पाएँगे। सरल शब्दों में कहें, तो इन कहावतों का प्रचार करने का मकसद ऐसा माहौल बनाना है ताकि राज्य के शासित लोग और आम जनता, समाज की नैतिक कसौटी की बाधाओं के बीच आज्ञाकारिता से और उचित तरीके से व्यवहार कर सकें, नियमों का पालन करना सीख सकें, और विनम्र नागरिक बन सकें। क्या तब शासक अपेक्षाकृत आश्वस्त और सुकून से नहीं रहेंगे? अगर शासकों को यह चिंता नहीं होगी कि आम जनता उनके खिलाफ खड़ी होगी और उनके अधिकार छीनने की कोशिश करेगी, तब क्या इससे वह तथाकथित समरस समाज नहीं बनेगा? क्या इससे शासकों की राजनीतिक शक्ति मजबूत नहीं होगी? यही असल में इन नैतिक धर्मशास्त्रों का मूल और वह प्रसंग है जिसमें उनकी उत्पत्ति हुई है। सीधे शब्दों में कहा जाए, तो आम जनता के व्यवहारों और नैतिक आचरण को नियंत्रित करने के मकसद से ही उनके लिए सामाजिक नैतिकता के कुछ बुनियादी मानदंड बनाए गए। यानी ये कहावतें व्यक्तियों की खातिर थीं; इसके सार में जाएँ, तो वास्तव में इनका प्रचार समाज और देश की स्थिरता की खातिर किया गया, ताकि शासक लंबे समय तक निरंतर शासन करने में सक्षम हो सकें। पारंपरिक संस्कृति का प्रचार करने के पीछे तथाकथित नैतिकतावादियों का असली लक्ष्य यही था। वास्तव में, शासकों को आम जनता के कल्याण की उतनी परवाह नहीं होती है, और जब कभी वे उनकी परवाह करते प्रतीत होते हैं, तब भी वे सिर्फ अपनी राजनीतिक सत्ता की स्थिरता बनाए रखने के लिए ही ऐसा करते हैं। वे सिर्फ अपनी खुशहाली, अपनी सत्ता और रुतबे की स्थिरता, आम जनता पर निरंतर शासन करने की अपनी क्षमता और यहाँ तक कि दूसरे देशों पर भी शासन कर पाने की संभावनाओं की परवाह करते हैं, जिसका अंतिम लक्ष्य संपूर्ण संसार पर अपनी सत्ता कायम करना होता है। ये राक्षस राजाओं की मंशाएँ और इरादे हैं। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोग कहते हैं : “हम किसानों की उस पीढ़ी से आए हैं, जिन्होंने जमींदारों के लिए लंबे समय तक खेतों में कड़ी मेहनत की और जिनके पास कभी अपना कोई खेत नहीं रहा। पीआरसी की स्थापना के बाद, कम्युनिस्ट पार्टी ने जमींदारों और पूंजीपतियों का दबदबा खत्म किया, जिससे हमें अपनी जमीन का मालिकाना हक मिला, और हम किसान से जमीन-मालिक बन गए। हमारा सब कुछ कम्युनिस्ट पार्टी के कर्ज में दबा है, वह चीनी लोगों की उद्धारक है, और हमें उसकी दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाना चाहिए और उसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। कुछ लोग कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ खड़े होना चाहते हैं—वे कितने एहसानफरामोश हैं! क्या वे उस हाथ को ही नहीं चबा रहे हैं जिसने उन्हें खिलाया? लोगों में अंतरात्मा का ऐसा अभाव नहीं होना चाहिए और उन्हें अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिए!” इस कथन का निहितार्थ यह है कि वर्तमान में तुम चाहे कैसे भी परिवेश में जी रहे हो, तुम्हारे साथ चाहे कैसा भी व्यवहार किया गया हो, और चाहे तुम्हारे मानव अधिकारों की गारंटी हो या न हो, या चाहे तुम्हारे जीवन जीने के अधिकार को खतरा ही क्यों न हो या भले ही उसे छीन लिया गया हो, तुम्हें हमेशा उस दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने की बात याद रखनी चाहिए और अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिए। तुम्हें एक बुरे, एहसानफरामोश व्यक्ति जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए और पुरस्कार की किसी भी अपेक्षा के बिना लगातार और हर समय उनकी दयालुता का बदला चुकाना चाहिए। क्या ऐसे लोग अभी भी गुलामों जैसा जीवन नहीं जी रहे हैं? उन्हें लगता है कि वे जमींदारों और पूंजीपतियों के गुलाम हुआ करते थे, लेकिन क्या पूंजीपतियों और जमींदारों ने वाकई आम लोगों का शोषण किया था? क्या उस समय के किसान आज के लोगों की तुलना में वाकई बदतर हालत में थे? नहीं, यह कम्युनिस्ट पार्टी का फैलाया झूठ है। हालात से जुड़े तथ्य और वास्तविकता थोड़ी-थोड़ी करके सामने आ रही है। उनका यह दावा कि पूंजीपतियों ने बहुत-से आम लोगों के खून-पसीने का शोषण किया और “सफेद बालों वाली लड़की” की कहानी, बिल्कुल बनावटी और झूठी है—इनमें से कोई भी सच नहीं है। इन बनावटी और झूठी कहानियों का लक्ष्य क्या है? लोगों को उन जमींदारों और पूंजीपतियों से नफरत करने को मजबूर करना और निरंतर कम्युनिस्ट पार्टी की प्रशंसा के गीत गाना और हमेशा के लिए उनके प्रति समर्पित हो जाना। अतीत में बहुत-से लोग यह गीत गाते थे, “कम्युनिस्ट पार्टी के बिना, नया चीन नहीं बन सकता।” यह गीत कई दशकों तक चीन के कोने-कोने में गाया जाता रहा, लेकिन अब कोई इसे नहीं गाता। कम्युनिस्ट पार्टी की बनावटी कहानियों और झूठ के बहुत सारे उदाहरण मौजूद हैं, ये सभी वस्तुनिष्ठ तथ्यों के विपरीत हैं। अब कुछ लोग सभी को हालात की वास्तविकता दिखाने के लिए सार्वजनिक तौर पर सच्चाई को उजागर कर रहे हैं। मानव समाज के किसी भी युग में नैतिक आचरण की कसौटी “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” का लोगों के व्यवहार को संयमित करने में काफी हद तक प्रभाव रहा है और इसने लोगों की मानवता के लिए एक मानदंड का काम किया है। बेशक, ऐसी कहावत का एक अधिक महत्वपूर्ण प्रभाव यह भी है कि आम जनता पर शासकों की सत्ता की पकड़ मजबूत करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया है। एक विशेष अर्थ में, यह दावा किया जा सकता है कि इस कहावत ने लोगों के व्यवहारों और नैतिक आचरण को नियंत्रित करने के तरीके के तौर पर काम किया है, जिससे लोग समस्याओं को नैतिक आचरण की इस कसौटी के दायरे में रखकर सोचने और देखने को मजबूर हुए और फिर उन्होंने इस कसौटी के आधार पर अपने फैसले लिए और अपने विकल्प चुने। यह कहावत लोगों को अपने परिवार के प्रति और बड़े पैमाने पर समाज के प्रति उन सभी जिम्मेदारियों को पूरा करने की शिक्षा नहीं देती जो लोगों को पूरी करनी चाहिए, बल्कि सामान्य मानवता के मानकों और इच्छाओं के गंभीर उल्लंघन में, यह जबरन लोगों को बताती है कि क्या सोचें और कैसे सोचें, क्या करें और कैसे करें। यह कहावत लोगों को रास्ता दिखाने, रोकने और बाँधने के लिए एक तरह के सूक्ष्म तरीके और अदृश्य ढाँचे के तौर पर काम करती है और यह बताती है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। इस कहावत का लक्ष्य इस तरह की सार्वजनिक राय और सामाजिक नैतिकता की कसौटी का इस्तेमाल कर लोगों के विचारों, दृष्टिकोणों और उनके आचरण और कार्य करने के तरीकों को प्रभावित करना है।

नैतिक आचरण को लेकर ऐसे कथन कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” लोगों को यह नहीं बताते कि समाज में और मानवजाति के बीच उनकी जिम्मेदारियाँ क्या हैं। इसके बजाय, ये लोगों को एक खास तरीके से सोचने और व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं, भले ही वे ऐसा चाहें या न चाहें, और वे परिस्थितियाँ या संदर्भ चाहे कुछ भी हों जिनमें दयालुता के ऐसे व्यवहार उन पर किए जाते हैं। प्राचीन चीन से ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जहाँ दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाया गया है। उदाहरण के लिए, एक भूखे भिखारी लड़के को एक परिवार ने अपने पास रख लिया, जिसने उसे खाना-कपड़ा दिया, मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग दी और उसे हर तरह का ज्ञान सिखाया। उन्होंने उसके बड़े होने तक इंतजार किया और फिर उसे कमाई का जरिया बना लिया। उसे बुरे काम करने के लिए, लोगों को मारने और ऐसी चीजें करने के लिए भेजने लगे, जो वह नहीं करना चाहता था। अगर तुम उसकी कहानी को उन एहसानों की रोशनी में देखो जो उस परिवार ने उस पर किए, तो उसका बचाया जाना एक अच्छी बात थी। लेकिन अगर यह सोचा जाए कि उससे बाद में क्या करवाया गया तो क्या यह सचमुच अच्छी बात थी या बुरी बात? (बुरी बात थी।) लेकिन पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा, जैसे कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” के कारण लोग इसमें भेद नहीं कर पाते। ऊपर से देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि लड़के के सामने बुरे काम करने, लोगों को चोट पहुंचाने और हत्यारा बनने के अलावा कोई रास्ता नहीं था—ऐसे काम जो ज्यादातर लोग नहीं करना चाहेंगे। लेकिन क्या अपने मालिक के कहने पर ऐसे बुरे काम करने और दूसरों की जान लेने के तथ्य के पीछे उसकी दयालुता का बदला चुकाने की गहरी भावना नहीं थी? खास तौर से पारंपरिक चीनी संस्कृति की “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” जैसी शिक्षा के कारण, लोग ऐसे विचारों के प्रभाव और नियंत्रण से बच नहीं पाते। वे जिस तरह व्यवहार करते हैं, और उनके इन कृत्यों के पीछे जो इरादे और मकसद होते हैं, वे यकीनन इनसे नियंत्रित होते हैं। जब लड़के ने खुद को इस स्थिति में पाया तो उसके मन में पहला विचार क्या आया होगा? “मुझे इस परिवार ने बचाया है, और वे सब मेरे साथ कितने अच्छे रहे हैं। मैं एहसान फरामोश नहीं हो सकता, मुझे उनकी दया का बदला चुकाना ही होगा। मेरी जिंदगी उनकी दी हुई है, इसलिए मुझे इसे उन पर अर्पित कर देना होगा। वे जो भी कहें मुझे करना चाहिए, चाहे इसका मतलब बुरे काम करना और लोगों की जान लेना हो। मैं यह नहीं सोच सकता कि यह सही है या गलत, मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना ही है। अगर मैंने ऐसा न किया तो क्या मैं मनुष्य कहलाने लायक भी हूँ?” परिणामस्वरूप, जब भी परिवार उसे किसी की हत्या करने या कोई और बुरा काम करने के लिए कहता था, तो वह बिना किसी झिझक या संकोच के कर देता था। तो क्या उसका आचरण, उसके कृत्य, और उसकी निर्विवाद आज्ञाकारिता, सब इस विचार और दृष्टिकोण से संचालित नहीं होते थे कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए”? क्या वह नैतिक आचरण के इसी मानक को पूरा नहीं कर रहा था? (हाँ।) तुम इस उदाहरण से क्या समझते हो? “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” की कहावत अच्छी बात है या नहीं? (यह अच्छी बात नहीं है, क्योंकि इसके पीछे कोई सिद्धांत नहीं है।) दरअसल, जो व्यक्ति दयालुता का बदला चुकाता है उसका एक सिद्धांत तो होता है, जो यह है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए। अगर कोई तुम पर दया करता है तो बदले में तुम्हें भी दया करनी चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर पाते तो तुम मनुष्य नहीं हो, और अगर इसके लिए तुम्हारी निंदा की जाए तो तुम कुछ नहीं कह सकते। एक कहावत है कि “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” पर इस मामले में, लड़के पर कोई छोटी-मोटी दया नहीं दिखाई जाती है, बल्कि उसकी जान बचाई जाती है, इसलिए उसके पास इसका मोल एक जीवन देकर चुकाने के सभी कारण मौजूद थे। उसे नहीं पता था कि दयालुता के प्रतिदान की सीमाएं और सिद्धांत क्या थे। उसका विश्वास था कि उसका जीवन उस परिवार का दिया हुआ था, इसलिए उसे बदले में अपना जीवन अर्पित करना होगा, और वे जो भी चाहते थे उसे करना होगा, चाहे किसी की हत्या हो या दूसरे बुरे काम। दयालुता के प्रतिदान के इस तरीके में न कोई सिद्धांत होता है न सीमा। उसने कुकर्मियों का साथ देने का काम किया और इस चक्कर में खुद को बर्बाद कर लिया। क्या उसका इस तरीके से दयालुता का बदला चुकाना सही था? बिल्कुल नहीं। यह चीजों को करने का एक मूर्खतापूर्ण तरीका था। यह सही है कि इस परिवार ने उसे बचाया और जीने का मौका दिया, लेकिन किसी व्यक्ति की दयालुता का बदला चुकाने के लिए सिद्धांत, सीमाएँ और संतुलन होना चाहिए। उन्होंने उसका जीवन बचाया, लेकिन उसके जीवन का मकसद बुरे कर्म करना नहीं है। मनुष्य के जीवन के अर्थ और मूल्य के साथ-साथ उसका मकसद बुरे कर्म और हत्या करना नहीं है, और उसे सिर्फ दयालुता का बदला चुकाने मात्र के उद्देश्य से नहीं जीना चाहिए। लड़के ने यह गलत समझ लिया कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाना ही जीवन का अर्थ और मूल्य था। यह बेहद गंभीर गलतफहमी थी। क्या यह नैतिक आचरण की कसौटी “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” से प्रभावित होने का नतीजा नहीं था? (बिल्कुल था।) क्या वह दयालुता का बदला चुकाने की इस कहावत के प्रभाव में पथभ्रष्ट हो गया था या उसे अभ्यास का सही मार्ग और सिद्धांत मिल चुके थे? जाहिर है कि वह पथभ्रष्ट हो चुका था—यह बात बिल्कुल दिन के उजाले की तरह साफ है। अगर नैतिक आचरण की यह कसौटी नहीं होती, तो क्या लोग सही-गलत के सरल मामलों में निर्णय लेने में सक्षम होते? (बिल्कुल।) लड़के ने यह सोचा होता : “इस परिवार ने भले ही मुझे बचाया हो, लेकिन लगता है कि उसने ऐसा सिर्फ अपने कारोबार और अपने भविष्य की खातिर किया। मैं एक साधन मात्र हूँ जिसका इस्तेमाल वह ऐसे किसी भी व्यक्ति को नुकसान पहुँचाने या मारने के लिए कर सकता है जो उसके व्यावसायिक उद्यमों में रोड़ा अटकाता है या उसे रोकता है। मुझे बचाने के पीछे का असली कारण यही है। उसने मुझे मौत के मुँह से सिर्फ इसलिए खींच लिया ताकि मुझसे बुरे कर्म और हत्या करवा सके—क्या वह मुझे नरक के रास्ते पर नहीं धकेल रहा है? क्या इससे मुझे और अधिक कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा? ऐसी स्थिति में उसने मुझे मरने ही दिया होता तो बेहतर था। असल में उसने मुझे बचाया नहीं है!” इस परिवार ने भिखारी लड़के को परोपकार की भावना से और उसे बेहतर जीवन जीने देने के लिए नहीं बचाया, बल्कि उसे काबू में करने और उसके जरिए दूसरों को चोट पहुँचाने, नुकसान पहुँचाने और मारने के लिए यह किया। तो यह परिवार वास्तव में भलाई कर रहा था या बुराई? जाहिर है कि वह भलाई नहीं, बल्कि बुराई कर रहा था—ये भलाई करने वाले लोग बुराई करने वाले बन गए। क्या बुरे लोग प्रतिदान के लायक हैं? क्या उन्हें प्रतिदान दिया जाना चाहिए? बिल्कुल नहीं। जैसे ही तुम्हें पता चले कि वे बुरे लोग हैं, तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उनसे दूरी बना लेनी चाहिए, उनसे बचना चाहिए, और उनके चंगुल से भाग जाना चाहिए। यही बुद्धिमानी है। कुछ लोग कहेंगे : “इन बुरे लोगों ने पहले ही मुझे काबू में कर लिया है, तो इनके चंगुल से भागना इतना आसान नहीं है। बच निकलना तो नामुमकिन है!” अक्सर, दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाने के यही दुष्परिणाम होते हैं। चूँकि दुनिया में अच्छे लोग बहुत कम हैं और बुरे लोगों की संख्या बहुत अधिक है, ऐसे में अगर तुम किसी अच्छे इंसान के साथ हो, तो उनकी दयालुता का बदला चुकाना ठीक है, लेकिन अगर तुम किसी बुरे इंसान के हाथ में पड़ गए हो, तो यह राक्षस, शैतान के हाथों में पड़ने के बराबर है। वे लोग तुम्हारे खिलाफ साजिश करेंगे और तुम्हारे साथ खिलवाड़ करेंगे, और उनके हाथों में पड़ने से तुम्हारा कुछ भी भला नहीं होगा। पूरे इतिहास में इसके बहुत सारे उदाहरण मौजूद हैं। अब जबकि तुम यह जानते हो कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाना अपने आचरण और व्यवहार के लिए कोई वैध कसौटी नहीं है, तो जब कोई तुम पर दया दिखाए, तब तुम्हें कैसा व्यवहार करना चाहिए? इस बारे में तुम लोगों के दृष्टिकोण क्या हैं? (चाहे कोई भी हमारी मदद करे, हालात के अनुसार हमें तय करना चाहिए हम उनकी मदद को स्वीकारें या नहीं। कुछ मामलों में, मदद स्वीकारना ठीक है, लेकिन अन्य मामलों में हमें बिना सोचे-विचारे उनकी मदद नहीं स्वीकारनी चाहिए। अगर हम मदद स्वीकार लेते हैं, तब भी हमें सिद्धांतों पर कायम रहना चाहिए और उनकी दयालुता का बदला चुकाने के लिए सीमाएँ तय करनी चाहिए, ताकि हम धोखा खाने से बच जाएँ और बुरे लोग हमारा फायदा न उठाएँ।) यह हालात से निपटने का एक सैद्धांतिक तरीका है। इसके अलावा, अगर तुम हालात को साफ तौर पर नहीं देख पाते हो या आगे कोई रास्ता नहीं दिखता है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर अपने लिए रास्ता खोलने की विनती करनी चाहिए। इससे तुम प्रलोभन से बच पाओगे और शैतान के चंगुल से निकल जाओगे। कई बार, परमेश्वर लोगों की मदद करने के लिए शैतान की सेवाओं का उपयोग करता है, लेकिन ऐसे मामलों में हमें परमेश्वर का धन्यवाद जरूर करना चाहिए और शैतान को दयालुता का बदला नहीं चुकाना चाहिए—यह सिद्धांत का प्रश्न है। जब प्रलोभन किसी बुरे आदमी की दयालुता के रूप में सामने आता है, तो तुम्हें यह साफ तौर पर पता होना चाहिए कि तुम्हारी मदद और सहायता कौन कर रहा है, तुम्हारे हालात क्या हैं, और क्या तुम कोई और रास्ता चुन सकते हो। तुम्हें ऐसे मामलों से लचीले ढंग से पेश आना चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हें बचाना चाहता है, तो चाहे वह ऐसा करने के लिए किसी की भी सेवाओं का उपयोग करे, तुम्हें पहले परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए। तुम्हें अपनी कृतज्ञता सिर्फ लोगों के प्रति निर्देशित नहीं करनी चाहिए, कृतज्ञता में किसी को अपना जीवन अर्पित करने की तो बात ही छोड़ो। यह एक गंभीर भूल है। महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर का आभारी हो, और तुम इसे परमेश्वर की ओर से स्वीकारो। जो व्यक्ति तुम पर दया दिखाता है, तुम्हारी मदद करता है या तुम्हें बचाता है, अगर वह अच्छा इंसान है, तो तुम्हें उसकी दयालुता का बदला चुकाना चाहिए, लेकिन तुम्हें सिर्फ वही करना चाहिए जो तुम अपने मौजूदा साधनों के हिसाब से करने में सक्षम हो। अगर तुम्हारी मदद करने वाले व्यक्ति के इरादे गलत हैं और वह तुम्हारे खिलाफ साजिश करना चाहता है और अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए तुम्हारा इस्तेमाल करना चाहता है, तो किसी भी कीमत पर उसकी दयालुता का बदला चुकाने की जरूरत नहीं है। संक्षेप में, परमेश्वर मनुष्य के हृदय की जाँच-परख करता है, ऐसे में अगर तुम्हारा जमीर तुम्हें दोषी नहीं मानता और तुम्हारे पास सही प्रेरणाएँ हैं, तो इसमें कोई समस्या नहीं है। यानी सत्य समझने से पहले तुम्हारे क्रियाकलाप कम-से-कम मानवीय समझ और तर्क के अनुरूप तो होने ही चाहिए। तुम्हें यथोचित रूप से इस हालत से निपटने में सक्षम होना चाहिए, ताकि तुम्हें अपने क्रियाकलापों पर भविष्य में कभी भी कोई पछतावा न हो। तुम सब वयस्क लोग हो और बड़े लाल अजगर के देश में बहुत सारी परेशानियों का सामना कर चुके हो—क्या तुम्हारे जीवन में दबाव, अत्याचार, बुरे बर्ताव या अपमान की कोई कमी रही है? तुम सब साफ तौर पर देख सकते हो कि मानवजाति कितनी गहराई तक भ्रष्ट हो चुकी है, तो तुम चाहे किसी भी प्रलोभन का सामना करो, तुम्हें बुद्धिमानी से काम लेना चाहिए और शैतान की छल-कपट वाली साजिशों में नहीं पड़ना चाहिए। तुम चाहे किसी भी हालात का सामना करो, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए और केवल प्रार्थना और संगति के जरिए सिद्धांतों को समझने के बाद ही अपने फैसले लेने चाहिए। बीते कुछ वर्षों में कलीसिया स्वच्छता का काम करती आई है और बहुत से बुरे लोगों, छद्म-विश्वासियों और मसीह-विरोधियों को उजागर कर बहिष्कृत या निष्कासित किया गया है। अधिकतर लोगों ने कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा कुछ होगा। यह देखते हुए कि कलीसिया के भीतर अभी भी बहुत सारे भ्रमित लोग, बुरे लोग और छद्म-विश्वासी मौजूद हैं, मुझे लगता है कि तुम्हें यह स्पष्ट हो चुका होगा कि भ्रष्ट और बुरे अविश्वासी कैसे होते हैं? सत्य और बुद्धि के बिना, लोग कुछ भी साफ तौर पर नहीं देख सकते और वे आसानी से धोखा और चकमा खा जाएँगे, ऐसे में वे बुरे लोगों और शैतान के हाथों का खिलौना बन जाएँगे। इस तरह वे शैतान के सेवक बन जाएँगे। जो लोग सत्य नहीं समझते और जिनके पास सिद्धांतों का अभाव है वे केवल मूर्खतापूर्ण चीजें ही करते हैं।

फुटनोट :

क. मूल पाठ में “यह दावा है” लिखा है।

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