सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (6) भाग तीन

आओ, अब नैतिक आचरण से संबंधित अगली कहावत पर संगति करते हैं—“अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो”—इस कहावत का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम्हें खुद से सख्त अपेक्षाएँ करनी चाहिए और दूसरे लोगों के साथ नरमी बरतनी चाहिए, ताकि वे देख सकें कि तुम कितने उदार और दरियादिल हो। तो, लोगों को ऐसा क्यों करना चाहिए? यह क्या हासिल करने के लिए है? क्या यह करने योग्य है? क्या यह वाकई लोगों की मानवता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है? इसे करने के लिए तुम्हें बहुत समझौता करना होगा! तुम्हें इच्छाओं और अपेक्षाओं से मुक्त होना चाहिए, खुद से कम आनंद महसूस करने, थोड़ा ज्यादा कष्ट उठाने, ज्यादा कीमत चुकाने और ज्यादा काम करने की अपेक्षा करनी चाहिए, ताकि दूसरों को खुद को थकाने की जरूरत न पड़े। और अगर दूसरे लोग ठिनठिनाते हैं, शिकायत करते हैं या खराब प्रदर्शन करते हैं, तो तुम्हें उनसे बहुत ज्यादा माँग नहीं करनी चाहिए—थोड़ा ऊपर नीचे चलता है। लोग मानते हैं कि यह उत्कृष्ट नैतिकताओं का चिह्न है—लेकिन यह मुझे झूठा क्यों लगता है? क्या यह झूठा नहीं है? (है।) सामान्य परिस्थितियों में, एक साधारण व्यक्ति की मानवता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति खुद के प्रति सहिष्णु और दूसरों के प्रति सख्त होना है। यह एक तथ्य है। लोग अन्य सबकी समस्याएँ समझ सकते हैं—“यह व्यक्ति अहंकारी है! वह व्यक्ति बुरा है! यह स्वार्थी है! वह अपना कर्तव्य निभाने के प्रति अनमना रहता है! यह व्यक्ति बहुत आलसी है!”—जबकि अपने बारे में वह सोचता है : “अगर मैं थोड़ा आलसी हूँ, तो क्या हुआ। मैं अच्छी काबिलियत वाला हूँ। भले ही मैं आलसी हूँ, लेकिन दूसरों से बेहतर काम करता हूँ!” वे दूसरों में दोष ढूँढ़ते और मीनमेख निकालना पसंद करते हैं, लेकिन अपने साथ वे, जहाँ भी संभव हो, सहिष्णु और अनुकूल होते हैं। क्या यह उनकी मानवता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति नहीं है? (है।) अगर लोगों से “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु” होने के विचार पर खरा उतरने की अपेक्षा की जाती है, तो उन्हें किस पीड़ा से गुजरना होगा? क्या वे सचमुच इसे सहन कर सकते हैं? कितने लोग ऐसा करने में कामयाब होंगे? (कोई नहीं।) और ऐसा क्यों है? (लोग प्रकृति से स्वार्थी होते हैं। वे इस सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हैं कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।”) वाकई, मनुष्य जन्मजात स्वार्थी है, वह एक स्वार्थी प्राणी है और इस शैतानी फलसफे के प्रति गहराई से प्रतिबद्ध है : “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।” लोग सोचते हैं कि जब चीजें उन पर आ पड़ें, तब उनके लिए स्वार्थी न होना और वह न करना जो वे अपने लिए सही समझते हैं, विनाशकारी और अप्राकृतिक होगा। लोग यही मानते हैं और वे इसी तरह कार्य करते हैं। अगर लोगों से यह अपेक्षा की जाए कि वे स्वार्थी न हों, खुद से सख्त अपेक्षाएँ करें, और दूसरों से फायदा उठाने के बजाय स्वेच्छा से हार जाएँ, और अगर उनसे यह अपेक्षा की जाए कि जब कोई उनका फायदा उठाए तो वे खुशी से कहें, “तुम मेरा शोषण कर रहे हो, लेकिन मैं इससे नाराज नहीं हो रहा। मैं एक सहिष्णु व्यक्ति हूँ, मैं तुम्हारी बुराई या तुमसे बदला लेने की कोशिश नहीं करूँगा, और अगर तुमने अभी तक मेरा पर्याप्त शोषण नहीं किया है, तो बेझिझक जारी रखो”—क्या यह एक व्यावहारिक अपेक्षा है? कितने लोग ऐसा करने में कामयाब हो सकेंगे? क्या भ्रष्ट मनुष्य सामान्य रूप से इसी तरह व्यवहार करता है? जाहिर है, ऐसा होना असंगत है। ऐसा क्यों है? क्योंकि भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग, खासकर स्वार्थी और मतलबी लोग, अपने ही हितों के लिए संघर्ष करते हैं, और दूसरों के बारे में सोचने से उन्हें बिल्कुल भी संतुष्टि महसूस नहीं होगी। इसलिए यह घटना, अगर घटती भी है तो, एक असंगति है। “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो”—नैतिक आचरण के बारे में यह दावा स्पष्ट रूप से केवल एक अपेक्षा है, जो तथ्यों या मानवता से मेल नहीं खाती, जो मानवता को न समझने वाले सामाजिक नैतिकतावादियों द्वारा मनुष्य पर थोपी जाती है। यह चूहे को यह कहने जैसा है कि उसे बिल बनाने की अनुमति नहीं है या बिल्ली से यह कहने जैसा है कि उसे चूहे पकड़ने की अनुमति नहीं है। क्या इस तरह की अपेक्षा करना सही है? (नहीं। यह मानवता के नियमों की अवहेलना करता है।) यह अपेक्षा स्पष्ट रूप से वास्तविकता के अनुरूप नहीं है और बहुत खोखली है। यह अपेक्षा करने वाले लोग क्या खुद इसका पालन करने में सक्षम हैं? (नहीं।) वे दूसरों से उस अपेक्षा का पालन करने की उम्मीद करते हैं, जिसे वे खुद पूरा नहीं कर सकते—यहाँ समस्या क्या है? क्या यह थोड़ा गैर-जिम्मेदाराना नहीं है? कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि वे गैर-जिम्मेदार हैं और बकवास करते हैं। अब, इसे एक कदम आगे बढ़ाते हुए, इस समस्या की प्रकृति क्या है? (पाखंड।) सही कहा, यह पाखंड का एक उदाहरण है। स्पष्ट रूप से वे खुद इस अपेक्षा का पालन नहीं कर सकते, फिर भी वे खुद को इतना सहिष्णु, बड़े दिल वाले और इतने उच्च नैतिक आचरण वाले होने का दावा करते हैं—क्या यह निरा पाखंड नहीं है? चाहे तुम इसे कैसे भी गढ़ो, यह एक खोखली कहावत है जिसमें एक निश्चित झूठ है, इसलिए हम इसे एक पाखंडी कहावत ही कहेंगे। यह उस तरह की कहावतों के समान है, जिन्हें फरीसियों ने प्रचारित किया था; इसके पीछे एक गुप्त मकसद है, जो स्पष्ट रूप से दिखावा करना, खुद को एक उत्कृष्ट नैतिक आचरण वाले व्यक्ति के रूप में चित्रित करना, और एक आदर्श और उत्कृष्ट नैतिक आचरण के प्रतिमान के रूप में दूसरों की प्रशंसा पाना है। तो, किस तरह के लोग अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम हैं? क्या शिक्षक और डॉक्टर इस कहावत का पालन करने में सक्षम हैं? क्या कन्फ्यूशियस, मेंसियस और लाओजी जैसे तथाकथित प्रसिद्ध लोग, महान लोग और अन्य लोगों द्वारा आराधना किए जाने वाले संत इस कहावत का पालन करने में सक्षम थे? (नहीं।) संक्षेप में, चाहे मनुष्य द्वारा प्रचारित यह कहावत कितनी भी हास्यास्पद हो, या यह अपेक्षा तर्कसंगत हो या नहीं, यह अंततः लोगों के नैतिक चरित्र और व्यवहार को लेकर की गई एक अपेक्षा ही है। कम से कम, लोग इस अपेक्षा का पालन करने को तैयार नहीं हैं और उनके लिए इसका अभ्यास करना आसान नहीं है, क्योंकि यह उन मानकों के विपरीत है जिन्हें मनुष्य की सामान्य मानवता प्राप्त करने में सक्षम है। लेकिन, हर हाल में, यह फिर भी मनुष्य के नैतिक आचरण के बारे में एक मानक और अपेक्षा है, जिसे परंपरागत संस्कृति द्वारा बढ़ावा दिया जाता है। भले ही “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” एक खोखला वाक्यांश है जिसका पालन बहुत कम लोग कर सकते हैं, फिर भी यह “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” और “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” जैसा ही है—इसका अभ्यास करने वाले लोग चाहे जो मकसद या इरादे रखते हों, या अगर कोई इसका अभ्यास करने में सक्षम भी हो—हर हाल में, सिर्फ इस तथ्य के आधार कि इस अपेक्षा को बढ़ावा देने वाले लोग खुद को नैतिकता के शिखर पर रखते हैं, क्या यह उन्हें अहंकारी और आत्मतुष्ट, और कुछ हद तक असामान्य विवेक वाले नहीं बनाता? अगर तुम उनसे पूछो कि क्या वे “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” कहावत का पालन कर सकते हैं, तो वे कहेंगे, “बेशक!” और फिर भी, जब उन्हें वास्तव में इसका पालन करने के लिए मजबूर किया जाता है, तो वे ऐसा नहीं कर पाएँगे। वे इसका पालन क्यों नहीं कर पाएँगे? क्योंकि उनमें एक अहंकारी, शैतानी स्वभाव है। जब दूसरे लोग उनके साथ हैसियत, ताकत, प्रतिष्ठा और लाभ के लिए होड़ कर रहे हों, तो उनसे इस नैतिकता का पालन करने के लिए कहो और देखो कि क्या वे ऐसा कर सकते हैं। वे ऐसा करने में असमर्थ ही होंगे, यहाँ तक कि वे तुम्हारे प्रति शत्रुतापूर्ण भी हो जाएँगे। अगर तुम उनसे पूछो, “तुम इस कहावत का प्रचार क्यों करते हो, जबकि तुम खुद भी इसका पालन नहीं कर सकते? तुम फिर भी दूसरों से इसके अनुरूप होने की अपेक्षा क्यों करते हो? क्या यह तुम्हारा पाखंड नहीं है?” तो क्या वे इसे स्वीकारेंगे? अगर तुम उन्हें उजागर करते हो, तो वे इसे नहीं स्वीकारेंगे—चाहे तुम उन्हें कैसे भी उजागर करो, वे इसे या अपनी गलती नहीं स्वीकारेंगे—यह दर्शाता है कि वे अच्छे लोग नहीं हैं। यह तथ्य कि अपनी अपेक्षाओं का खुद भी पालन करने में असमर्थ होने के बावजूद वे उच्च नैतिक लहजा अपनाते हैं, यह दर्शाता है कि उन्हें बड़े धोखेबाज और पाखंडी ठीक ही कहा जाता है।

“उठाए गए धन को जेब में मत रखो” और “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ” कहावतों की तरह ही “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” भी उन माँगों में से एक है, जो परंपरागत संस्कृति लोगों के नैतिक आचरण के संबंध में करती है। इसी तरह, चाहे कोई व्यक्ति इस नैतिक आचरण को प्राप्त या इसका अभ्यास कर सकता हो या नहीं, फिर भी यह उनकी मानवता मापने का मानक या प्रतिमान नहीं है। हो सकता है, तुम वाकई अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम हो और खुद के लिए विशेष रूप से उच्च मानक रखते हो। हो सकता है, तुम बहुत साफ-सुथरे हो और बिना स्वार्थी हुए और बिना अपने हितों की परवाह किए हमेशा दूसरों के बारे में सोचते हो और उनके प्रति सम्मान दिखाते हो। हो सकता है, तुम विशेष रूप से उदार और निस्स्वार्थ प्रतीत होते हो, और सामाजिक उत्तरदायित्व और सामाजिक नैतिकताएँ रखते हो। हो सकता है, तुम्हारा उच्च व्यक्तित्व और गुण तुम्हारे करीबी लोगों और उनके देखने के लिए हो, जिनसे तुम मिलते और बातचीत करते हो। हो सकता है, तुम्हारा व्यवहार कभी भी दूसरों को तुम्हें दोष देने या तुम्हारी आलोचना करने का कोई कारण न दे, बल्कि अत्यधिक प्रशंसा और सराहना प्राप्त कराए। हो सकता है, लोग तुम्हें ऐसा व्यक्ति समझें, जो वाकई अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु है। लेकिन ये बाहरी व्यवहार से ज्यादा कुछ नहीं हैं। क्या तुम्हारे दिल की गहराई में मौजूद विचार और इच्छाएँ इन बाहरी व्यवहारों, इन कार्यों के अनुरूप हैं जो तुम बाहरी तौर पर जीते हो? जवाब है नहीं, वे उनके अनुरूप नहीं हैं। तुम्हारे इस तरह से कार्य कर पाने का कारण यह है कि इसके पीछे एक मकसद है। वह मकसद आखिर क्या है? क्या तुम उस मकसद का सार्वजनिक होना सहन कर सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि यह मकसद ऐसी चीज है जिसका उल्लेख नहीं किया जा सकता, ऐसी चीज जो अंधकारपूर्ण और बुरी है। अब, यह मकसद अवर्णनीय और बुरा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि लोगों की मानवता उनके भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित और संचालित होती है। मानवता के तमाम विचारों पर, चाहे लोग उन्हें शब्दों में व्यक्त करें या उड़ेलें, निर्विवाद रूप से उनके भ्रष्ट स्वभाव हावी होते और नियंत्रण रखते हैं और उनमें फेरबदल करते हैं। नतीजतन, लोगों के तमाम मकसद और इरादे भयावह और बुरे होते हैं। चाहे लोग अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बन पाएँ या नहीं, या वे बाहरी तौर पर इस नैतिकता को पूरी तरह से व्यक्त करें या नहीं, यह अपरिहार्य है कि इस नैतिकता का उनकी मानवता पर कोई नियंत्रण या प्रभाव नहीं होगा। तो, लोगों की मानवता को क्या नियंत्रित करता है? वे उनके भ्रष्ट स्वभाव हैं, वह उनका मानवता-सार है जो “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” की नैतिकता के नीचे छिपा रहता है—यही उनकी वास्तविक प्रकृति है। किसी व्यक्ति की असली प्रकृति उसका मानवता-सार होती है। और उसके मानवता-सार में क्या-क्या शामिल होता है? इसमें मुख्य रूप से उनकी प्राथमिकताएँ, उनके अनुसरण, जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण और उनकी मूल्य-व्यवस्था, और साथ ही सत्य और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया इत्यादि शामिल रहते हैं। सिर्फ ये चीजें ही वास्तव में लोगों का मानवता-सार दर्शाती हैं। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो लोग खुद से “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु” होने की नैतिकता पूरी करने की अपेक्षा करते हैं, वे हैसियत के प्रति आसक्त हैं। अपने भ्रष्ट स्वभाव से संचालित होने के कारण वे दूसरों की नजरों में लोगों के बीच प्रतिष्ठा, सामाजिक ख्याति और हैसियत के पीछे दौड़े बिना नहीं रह पाते। ये सभी चीजें उनकी हैसियत पाने की इच्छा से संबंधित हैं, और उनके अच्छे नैतिक आचरण की आड़ में इनके पीछे दौड़ा जाता है। और उनके ये अनुसरण कहाँ से आते हैं? वे पूरी तरह से उनके भ्रष्ट स्वभावों से आते और प्रेरित होते हैं। इसलिए, चाहे कुछ भी हो, चाहे कोई “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु” होने की नैतिकता पूरी करता हो या नहीं, और चाहे वह ऐसा पूर्णता के साथ करता हो या नहीं, यह उनका मानवता-सार बिल्कुल नहीं बदल सकता। इसका निहितार्थ यह है कि यह किसी भी तरह से जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण या उनकी मूल्य-प्रणाली नहीं बदल सकता, या तमाम लोगों, घटनाओं और चीजों पर उनके रवैये और दृष्टिकोण निर्देशित नहीं कर सकता। क्या ऐसा नहीं है? (है।) जितना ज्यादा कोई व्यक्ति अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम होता है, उतना ही वह दिखावा करने में, खुद को छिपाने में, और दूसरों को अच्छे व्यवहार और मनभावन शब्दों से गुमराह करने में बेहतर होता है, और उतना ही ज्यादा वह प्रकृति से कपटी और दुष्ट होता है। जितना ज्यादा वह इस प्रकार का व्यक्ति होता है, हैसियत और ताकत के प्रति उसका प्रेम और अनुसरण उतना ही गहरा होता जाता है। उसका बाहरी नैतिक आचरण कितना भी महान, गौरवशाली और सही क्यों न प्रतीत होता हो, और लोगों के लिए उसे देखना कितना भी सुखद क्यों न हो, उसके दिल की गहराइयों में मौजूद अनकहा अनुसरण, और साथ ही उसका प्रकृति-सार, यहाँ तक कि उसकी महत्वाकांक्षाएँ भी किसी भी समय उसके भीतर से फूटकर बाहर आ सकती हैं। इसलिए, उसका नैतिक आचरण कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह उसके आंतरिक मानवता-सार या उसकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ नहीं छिपा सकता। वह उसके भयानक प्रकृति-सार को नहीं छिपा सकता, जो सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता और सत्य से विमुख होता और घृणा करता है। जैसा कि इन तथ्यों से पता चलता है, “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” कहावत बहुत बेतुकी है—यह उन महत्वाकांक्षी किस्म के लोगों को उजागर करती है, जो ऐसी कहावतों और व्यवहारों का उपयोग अपनी उन महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को ढकने के लिए करने का प्रयास करते हैं, जिनके बारे में वे बोल नहीं सकते। तुम लोग इसकी तुलना कलीसिया के कुछ मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों से कर सकते हो। कलीसिया के भीतर अपनी हैसियत और ताकत सुदृढ़ करने और अन्य सदस्यों के बीच बेहतर प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए, वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होते हैं, वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर अपने काम और परिवारों को भी त्याग सकते हैं और अपना सब-कुछ बेच भी सकते हैं। कुछ मामलों में, परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर उनके द्वारा चुकाई जाने वाली कीमतें और उठाया जाने वाला कष्ट एक औसत व्यक्ति की सहनशक्ति से भी ज्यादा होता है; अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए वे अत्यधिक आत्म-त्याग की भावना साकार करने में सक्षम रहते हैं। फिर भी, चाहे वे कितना भी कष्ट सहें या चाहे कोई भी कीमत चुकाएँ, उनमें से कोई भी परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकता या परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करता, न ही वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हैं। जिस लक्ष्य का वे अनुसरण करते हैं, वह सिर्फ हैसियत, ताकत और परमेश्वर से पुरस्कार प्राप्त करना है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसका सत्य से रत्ती भर भी संबंध नहीं होता। चाहे वे अपने प्रति कितने भी सख्त और दूसरों के प्रति कितने भी सहिष्णु हों, उनका अंतिम परिणाम क्या होगा? परमेश्वर उनके बारे में क्या सोचेगा? क्या वह उनके बाहरी अच्छे व्यवहारों के आधार पर, जिन्हें वे जीते हैं, उनका परिणाम निर्धारित करेगा? निश्चित रूप से नहीं। लोग इन व्यवहारों और अभिव्यक्तियों के आधार पर दूसरों को देखते और उनका आकलन करते हैं, और चूँकि वे अन्य लोगों का सार नहीं समझ पाते, इसलिए वे अंततः उनके द्वारा धोखा खाते हैं। लेकिन परमेश्वर कभी मनुष्य से धोखा नहीं खाता। वह इसलिए लोगों के नैतिक आचरण की सराहना बिल्कुल नहीं करेगा और उन्हें याद नहीं रखेगा कि वे अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम थे। इसके बजाय, वह उनकी महत्वाकांक्षाओं और हैसियत की खोज में उनके द्वारा अपनाए गए मार्गों के लिए उनकी निंदा करेगा। इसलिए, सत्य का अनुसरण करने वालों को लोगों के मूल्यांकन की इस कसौटी की समझ होनी चाहिए। उन्हें इस बेतुके मानक को पूरी तरह से नकार कर त्याग देना चाहिए और लोगों को परमेश्वर के वचनों और सत्य-सिद्धांतों के अनुसार पहचानना चाहिए। उन्हें मुख्य रूप से यह देखना चाहिए कि व्यक्ति सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है या नहीं, वह सत्य स्वीकारने में सक्षम है या नहीं और वह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकता है या नहीं, और साथ ही वह मार्ग भी देखना चाहिए, जिसे वह चुनता और जिस पर वह चलता है, और इन चीजों के आधार पर यह वर्गीकृत करना चाहिए कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है और उसमें किस तरह की मानवता है। जब लोग “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” के मानक के आधार पर दूसरों का मूल्यांकन करते हैं, तो भटकाव और त्रुटियाँ उत्पन्न होना बहुत आसान है। अगर तुम मनुष्य से आए सिद्धांतों और कहावतों के आधार पर व्यक्ति को गलत तरीके से पहचानते और देखते हो, तो तुम उस मामले में सत्य का उल्लंघन और परमेश्वर का विरोध कर रहे होगे। ऐसा क्यों है? इसका कारण यह है कि लोगों के बारे में तुम्हारे विचारों का आधार गलत, और परमेश्वर के वचनों और सत्य के साथ असंगत होगा—यहाँ तक कि वह उनके विरुद्ध और विपरीत भी हो सकता है। परमेश्वर नैतिक आचरण से संबंधित इस कथन के आधार पर लोगों की मानवता का मूल्यांकन नहीं करता, “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो,” इसलिए अगर तुम फिर भी इस कसौटी के अनुसार लोगों की नैतिकता का आकलन करने और यह निर्धारित करने पर जोर देते हो कि वे किस तरह के व्यक्ति हैं, तो तुमने सत्य-सिद्धांतों का पूरी तरह से उल्लंघन किया है, और तुम त्रुटियाँ करने, और कुछ गलतियाँ और भूलें करने के लिए बाध्य हो। क्या ऐसा नही है? (ऐसा ही है।) जब लोग इन चीजों को समझ लेते हैं, तो उनके पास कम से कम उस आधार, सिद्धांतों और कसौटी की एक निश्चित स्तर की समझ होगी, जिनके द्वारा परमेश्वर लोगों और चीजों को देखता है—तुम्हें कम से कम इन चीजों के प्रति परमेश्वर के नजरिये की समझ और कदर होगी। तो, अपने परिप्रेक्ष्य के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? तुम्हें कम से कम यह जानना चाहिए कि किसी व्यक्ति को देखने का सही आधार क्या है और लोगों को देखने की कौन-सी कसौटी सत्य और वास्तविक तथ्यों के अनुरूप है, जिससे बिल्कुल भी कोई त्रुटि या भूल नहीं होगी। अगर तुम वास्तव में इन मामलों पर स्पष्ट हो जाते हो, तो तुम्हें परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं के साथ-साथ मनुष्य के विभिन्न कथनों, सिद्धांतों और लोगों को देखने के तरीकों की समझ हो जाएगी, और तुम परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं और मनुष्य से आने वाली तमाम विभिन्न कहावतों और विचारों को पूरी तरह से त्यागने में सक्षम हो जाओगे। इस तरह, तुम लोगों को सत्य-सिद्धांतों के आधार पर देखोगे और समझोगे, और कुछ हद तक, तुम परमेश्वर के अनुकूल होगे, और तुम उससे विद्रोह नहीं करोगे, उसका विरोध नहीं करोगे या उससे असहमत नहीं होगे। जैसे-जैसे तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के साथ अनुकूलता प्राप्त करते हो, वैसे-वैसे तुम लोगों और चीजों के सार को लेकर एक स्पष्ट अंतर्दृष्टि विकसित करोगे और इसकी पुष्टि तुम्हें परमेश्वर के वचनों में मिलेगी। तुम देखोगे कि मनुष्य को उजागर करने वाले परमेश्वर के विभिन्न कथन और मानवजाति के बारे में उसके निरूपण और परिभाषाएँ बिल्कुल सही हैं और वे सभी सत्य हैं। निस्संदेह, जैसे-जैसे तुम इसकी पुष्टि पाओगे, वैसे-वैसे तुम परमेश्वर और उसके वचनों के बारे में अधिकाधिक आस्था और ज्ञान प्राप्त करोगे, और तुम ज्यादा से ज्यादा निश्चित हो जाओगे कि परमेश्वर के वचन सत्य और वास्तविकता हैं, जिन्हें मनुष्य को जीना चाहिए। क्या यही वह चीज नहीं है, जो सत्य स्वीकारने और प्राप्त करने की प्रक्रिया में शामिल है? (हाँ, यही है।) यह सत्य स्वीकारने और प्राप्त करने की प्रक्रिया है।

सत्य का अनुसरण करने का लक्ष्य सत्य को अपना जीवन स्वीकारना है। जब लोग सत्य स्वीकारने में सक्षम होते हैं, तो उनकी आंतरिक मानवता और जीवन धीरे-धीरे बदलना शुरू हो जाता है, और अंत में, यह परिवर्तन उनका पुरस्कार होता है। अतीत में, तुम लोगों और चीजों को परंपरागत संस्कृति के अनुसार देखते थे, लेकिन अब तुमने जान लिया है कि यह गलत था, और अब तुम चीजों को उस परिप्रेक्ष्य से नहीं देखोगे, या परंपरागत संस्कृति जो निर्देशित करती है, उसके आधार पर किसी व्यक्ति को नहीं देखोगे। तो अब तुम लोगों और चीजों को किस आधार पर देखोगे? अगर तुम नहीं जानते, तो यह साबित करता है कि तुमने अभी भी सत्य नहीं स्वीकारा है। अगर तुम पहले ही जानते हो कि किन सत्य-सिद्धांतों के अनुसार तुम्हें लोगों और चीजों को देखना चाहिए, अगर तुम अपना आधार, मार्ग, कसौटी और अपने सिद्धांत सटीक और स्पष्ट रूप से बता सकते हो, और अगर तुम उन सत्य-सिद्धांतों के अनुसार लोगों को पहचान और देख भी सकते हो, तो सत्य पहले ही तुम्हारे भीतर काम करना शुरू कर चुका है, वह तुम्हारे विचारों का मार्गदर्शन कर रहा है और उस परिप्रेक्ष्य पर हावी हो रहा है जिससे तुम लोगों और चीजों को देखते हो। इससे साबित होता है कि सत्य पहले ही तुममें जड़ें जमा चुका है और तुम्हारा जीवन बन गया है। तो, सत्य का तुम पर पड़ने वाला प्रभाव अंततः तुम्हारी किस तरह सहायता करेगा? क्या सत्य तुम्हारे द्वारा किए जाने वाले आचरण, तुम्हारे द्वारा चुने जाने वाले मार्ग और जीवन में तुम्हारी दिशा को प्रभावित नहीं करेगा? (हाँ, करेगा।) अगर वह इस बात को प्रभावित करने में सक्षम है कि तुम कैसे आचरण करते हो और किस मार्ग पर चलते हो, तो क्या वह परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को प्रभावित नहीं करेगा? (बिल्कुल करेगा।) सत्य द्वारा परमेश्वर के साथ तुम्हारे रिश्ते को प्रभावित करने से क्या परिणाम आएगा? तुम उसके और करीब हो जाओगे या और दूर चले जाओगे? (मैं परमेश्वर के और करीब हो जाऊँगा।) तुम निश्चित रूप से उसके और करीब हो जाओगे। जब तुम परमेश्वर के और करीब हो जाओगे, तो तुम उसका अनुसरण करने और उसके सामने झुकने के ज्यादा इच्छुक होगे, या संदेहों और गलतफहमियों से परेशान होकर अनिच्छा से उसके अस्तित्व पर विश्वास करोगे? (मैं परमेश्वर का अनुसरण करने और उसके सामने झुकने को तैयार रहूँगा।) यह निश्चित है। अब, तुम यह इच्छा कैसे प्राप्त करोगे? तुम्हें अपने वास्तविक जीवन में परमेश्वर के वचनों की पुष्टि मिलेगी; सत्य तुममें काम करना शुरू कर देगा और तुम्हें इसकी पुष्टि मिल जाएगी। सभी चीजों के खुलने की प्रक्रिया में, तुम्हारे भीतर इन सभी चीजों के छिपे हुए स्रोत की पुष्टि हो जाएगी और तुम पाओगे कि यह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुरूप है। तुम सत्यापित करोगे कि परमेश्वर के समस्त वचन सत्य हैं, और इससे परमेश्वर में तुम्हारी आस्था बढ़ेगी। परमेश्वर में तुम्हारी आस्था जितनी ज्यादा होगी, उसके साथ तुम्हारा रिश्ता उतना ही ज्यादा सामान्य हो जाएगा, तुम एक सृजित प्राणी के रूप में कार्य करने के अधिकाधिक इच्छुक होगे और परमेश्वर को अपना संप्रभु मानने के भी इच्छुक होगे। परमेश्वर के प्रति समर्पित होने वाले तुम्हारे हिस्सों की संख्या में वृद्धि होगी। अपने रिश्ते में होने वाले इस सुधार के बारे में तुम क्या सोचते हो? यह बढ़िया है न? यह एक अच्छे और सकारात्मक विकास की प्रक्रिया का परिणाम है। तो फिर, खराब और घातक विकास प्रक्रिया के क्या परिणाम होंगे? (परमेश्वर के अस्तित्व में मेरी आस्था अधिकाधिक कमजोर हो जाएगी और मेरे मन में परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और संदेह होंगे।) कम से कम, ये परिणाम तो जरूर होंगे। तुम्हें किसी भी मामले में पुष्टि प्राप्त नहीं होगी, और तुम न सिर्फ अपनी आस्था में सत्य प्राप्त करने में विफल रहोगे, बल्कि तुम तमाम तरह की धारणाएँ भी बना लोगे—तुम परमेश्वर को गलत समझोगे, उसका तिरस्कार करोगे और उससे सावधान रहोगे, और अंततः तुम उसे नकार दोगे। अगर तुम अपने हृदय में परमेश्वर को नकारते हो, तो क्या तुम फिर भी उसका अनुसरण कर पाओगे? (नहीं।) अब तुम उसका अनुसरण नहीं करना चाहोगे। इसके बाद क्या होगा? परमेश्वर जो करता और कहता है, उसमें तुम्हारी रुचि खत्म हो जाएगी। जब परमेश्वर कहेगा, “मानवजाति का अंत निकट है,” तो तुम उत्तर दोगे, “मुझे तो ऐसा नहीं लगता!” तुम उस पर विश्वास नहीं करोगे। जब परमेश्वर कहेगा, “सत्य का अनुसरण करने के बाद तुम्हें एक अच्छी मंजिल मिलेगी,” तो तुम उत्तर दोगे, “वह अच्छी मंजिल कहाँ है, जिसकी तुम बात करते हो? मुझे तो नहीं दिखती!” तुम्हें इसमें कोई रुचि नहीं होगी। जब परमेश्वर कहेगा, “तुम्हें एक सच्चे सृजित प्राणी की तरह कार्य करना चाहिए,” तो तुम उत्तर दोगे, “क्या एक सच्चे सृजित प्राणी की तरह कार्य करने का कोई लाभ है? मैं इससे कितने आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? क्या ऐसा करने से मैं सचमुच आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? क्या इसका संबंध आशीष प्राप्त करने से है?” जब परमेश्वर कहेगा, “तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता स्वीकारनी चाहिए और उसके प्रति समर्पित होना चाहिए!” तुम उत्तर दोगे, “कैसी संप्रभुता? मैं परमेश्वर की संप्रभुता महसूस क्यों नहीं कर पाता? अगर परमेश्वर वास्तव में संप्रभु है, तो उसने मुझे गरीबी में क्यों रहने दिया? उसने मुझे बीमार क्यों पड़ने दिया? अगर परमेश्वर संप्रभु है, तो मेरे लिए चीजें हमेशा इतनी कठिन क्यों होती हैं?” तुम्हारा हृदय शिकायतों से भरा होगा और तुम परमेश्वर की किसी भी बात पर विश्वास नहीं करोगे। यह परमेश्वर में तुम्हारी सच्ची आस्था की कमी प्रदर्शित करेगा। और इसीलिए, विभिन्न समस्याओं का सामना करते समय तुम बिना जरा-से भी समर्पण के सिर्फ शिकायत करोगे। इसी तरह तुम इस घातक परिणाम पर पहुँचोगे। कुछ लोग कहते हैं, “चूँकि परमेश्वर संप्रभु है, तो उसे बीमारी से उबरने में मेरी तुरंत मदद करनी चाहिए। मैं जो कुछ भी चाहता हूँ, वह सब हासिल करने में उसे मेरी मदद करनी चाहिए। मेरा जीवन अब असुविधाओं और कष्टों से क्यों भर गया है?” उन्होंने परमेश्वर में अपनी आस्था खो दी है और उनमें उस अस्पष्ट आस्था का जरा-सा भी निशान नहीं रह गया है, जो कभी उनमें थी—वह पूरी तरह से गायब हो गई है। यह इन सबका घातक परिणाम और बुरा नतीजा है। क्या तुम लोग इस बिंदु तक पहुँचना चाहते हो? (नहीं।) तुम इस स्तर तक गिरने से कैसे बच सकते हो? जब सत्य की बात आती है, तो तुम्हें प्रयास करना चाहिए—इस सब की कुंजी और मार्ग सत्य और परमेश्वर के वचनों में निहित है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य की बात आने पर अनजाने ही प्रयास करते हो, तो तुम उस मार्ग को ज्यादा स्पष्ट रूप से देखना शुरू कर दोगे, जो परमेश्वर ने तुम्हें सिखाया और जिस पर उसने तुम्हारा मार्गदर्शन किया है, और तुम उन लोगों, घटनाओं और चीजों का सार देखोगे, जिनकी परमेश्वर व्यवस्था करता है। इस अनुभव के हर चरण के माध्यम से तुम धीरे-धीरे परमेश्वर के वचनों के भीतर लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने के सिद्धांत और आधार खोजोगे। सत्य स्वीकारने और समझने से तुम उन लोगों, घटनाओं और चीजों में अभ्यास के सिद्धांत और मार्ग पाओगे, जिनका तुम सामना करते हो। अगर तुम इन मार्गों के अनुसार अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर के वचन तुममें प्रवेश करके तुम्हारा जीवन बन जाएँगे और अनजाने ही तुम परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजनों के अधीन रहना शुरू कर दोगे। जब तुम परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजनों के अधीन रहते हो, तो तुम अनजाने ही लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना सीख जाओगे, और चीजों को उचित रुख, परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण से देखोगे; चीजों पर तुम्हारे विचारों के परिणाम परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुरूप होंगे और वे तुम्हें परमेश्वर के और करीब जाने और सत्य के लिए और ज्यादा प्यासे होने देंगे। लेकिन अगर तुम सत्य का अनुसरण या सत्य के संबंध में प्रयास नहीं करते और अगर तुम सत्य में कोई रुचि नहीं रखते, तो यह कहना मुश्किल है कि तुम अंततः किस बिंदु तक पहुँचोगे। अंततः, सबसे खराब संभावित परिणाम तब होता है, जब लोग परमेश्वर के कार्य देखने या उसकी संप्रभुता महसूस करने में विफल रहते हैं, चाहे वे उसमें विश्वास करने की कैसे भी कोशिश करें; ऐसा तब होता है, जब वे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि समझने में विफल रहते हैं, चाहे वे कितनी भी चीजों का अनुभव करें। ऐसे मामलों में, लोग सिर्फ यह स्वीकारेंगे कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचन सत्य हैं, लेकिन उन्हें अपने बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं दिखेगी, वे यह तो बिल्कुल भी नहीं देखेंगे कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है, और उन्हें हमेशा यह महसूस होगा कि परमेश्वर में उनकी आस्था धुँधली है। यह दर्शाता है कि उन्हें सत्य या परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं हुआ और वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ। इससे तीसरी कहावत : “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” पर मेरी संगति समाप्त होती है।

नैतिक आचरण के बारे में चौथा कथन क्या है? (बुराई का बदला भलाई से चुकाओ।) जब लोग बुराई का बदला भलाई से चुकाते हैं, तो क्या वे कुछ इरादे रखते हैं? क्या वे अपने लिए चीजें आसान बनाने के लिए एक कदम पीछे नहीं हट रहे होते? क्या यह चीजों से निपटने का एक समाधानकारी तरीका नहीं है? लोग प्रतिशोध के कभी न खत्म होने वाले चक्र में नहीं फँसना चाहते, वे चीजों को सुचारु रूप से चलाना चाहते हैं ताकि वे थोड़ा और शांति से जी सकें। किसी व्यक्ति का जीवन खास लंबा नहीं होता, और चाहे वह सौ साल जिए या कई सौ साल, उसे अपना जीवन छोटा ही लगता है। पूरे दिन वह बदले और हत्या के विचारों से घिरा रहता है, उसकी आंतरिक दुनिया उथल-पुथल से भरी होती है और वह दुखी जीवन जीता है। इसलिए, वह ज्यादा खुशहाल, ज्यादा आनंदमय जीवन जीने और अपने साथ सही तरह से पेश आने का तरीका खोजने की कोशिश करता है—जो कि बुराई का बदला भलाई से चुकाना है। यह अपरिहार्य है कि लोग अपने जीवन के दौरान एक-दूसरे को अपमानित करेंगे और एक-दूसरे के षड्यंत्रों का शिकार होंगे, वे हमेशा प्रतिशोधी और कटु भावनाओं से त्रस्त रहते हैं और काफी खराब जीवन जीते हैं, इसलिए सामाजिक माहौल और सामाजिक स्थिरता और एकता की खातिर इसे अपनी प्रेरणा के रूप में लेकर नैतिकतावादी दुनिया में इस नैतिक कसौटी को बढ़ावा देते हैं। वे लोगों को आगाह करते हैं कि वे बुराई का बदला बुराई से न चुकाएँ, घृणा और हत्या से दूर रहें, और इसके बजाय वे लोगों से आग्रह करते हैं कि बुराई का बदला भलाई से चुकाना सीखें। वे कहते हैं कि भले ही किसी ने अतीत में तुम्हें नुकसान पहुँचाया हो, फिर भी तुम्हें उससे बदला नहीं लेना चाहिए, बल्कि उसकी मदद करनी चाहिए, उसके पिछले गलत काम भूल जाने चाहिए, उसके साथ सामान्य रूप से बातचीत करनी चाहिए और धीरे-धीरे उसे सुधारना चाहिए, अपने बीच शत्रुता कम करनी चाहिए, और सौहार्दपूर्ण संबंध हासिल करना चाहिए। क्या इससे समाज में समग्र रूप से समरसता नहीं आएगी? वे कहते हैं कि चाहे जिसने भी तुम्हें अपमानित किया हो, चाहे वह परिवार का कोई सदस्य हो या दोस्त, पड़ोसी या सहकर्मी, तुम्हें उसकी बुराई का बदला भलाई से चुकाना चाहिए और द्वेष रखने से बचना चाहिए। उनका दावा है कि अगर सभी ऐसा करने में सक्षम हो जाएँ, तो यह वैसा ही होगा जैसा लोग कहते हैं : “अगर सभी थोड़ा-सा प्रेम दें, तो दुनिया एक अद्भुत जगह बन जाएगी।” क्या ये दावे कल्पनाओं पर आधारित नहीं हैं? एक अद्भुत जगह? मिसाल के तौर पर! जरा नजर डालो कि वह कौन है जो इस दुनिया को चलाता है और वह कौन है जो मानवजाति को भ्रष्ट करता है। नैतिक आचरण के बारे में यह कथन, “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ,” वास्तव में क्या बदलाव ला सकता है? यह कुछ नहीं बदल सकता। दूसरे कथनों की तरह ही यह कथन भी लोगों की नैतिक गुणवत्ता को लेकर कुछ अपेक्षाएँ रखता है या उन पर कुछ विनियम लागू करता है। इसके लिए आवश्यक है कि वे दूसरे लोगों से घृणा और हत्या वाले व्यवहार का सामना होने पर घृणा और हत्या का सहारा लेने से बचें, और जो लोग उन्हें नुकसान पहुँचाते हैं उनके साथ शांति से, संतुलित स्वभाव के साथ व्यवहार करें, और उस शत्रुता और हत्या की भावना को शांत करने और रक्तपात की मात्रा कम करने के लिए अपने नैतिक आचरण का उपयोग करें। बेशक, नैतिक आचरण के बारे में यह कहावत कुछ हद तक लोगों पर प्रभावी है; यह शत्रुता और आक्रोश को शांत कर सकती है और बदले की भावना से होने वाली हत्याएँ कुछ हद तक कम कर सकती है; और इसका सामाजिक माहौल, सार्वजनिक व्यवस्था और सामाजिक सद्भाव पर कुछ हद तक सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, लेकिन इस कहावत के उस प्रभाव के लिए क्या पूर्व-शर्तें हैं? सामाजिक परिवेश के संदर्भ में इसकी महत्वपूर्ण पूर्व-शर्ते हैं। एक तो वह सामान्य विवेक और आकलन है, जो लोगों में होता है। लोग सोचते हैं : “यह व्यक्ति, जिससे मैं बदला लेना चाहता हूँ, मुझसे ज्यादा ताकतवर है या कम? अगर मैं इससे बदला लूँ, तो क्या मैं अपना लक्ष्य हासिल कर पाऊँगा? अगर मैं अपना बदला लेकर उसे मार डालता हूँ, तो कहीं मैं अपने मौत के परवाने पर हस्ताक्षर तो नहीं कर दूँगा?” वे पहले परिणामों का आकलन करते हैं। चीजों पर विचार करने के बाद ज्यादातर लोगों को एहसास होता है : “उसके लोगों से अच्छे संबंध हैं, उसका बहुत ज्यादा सामाजिक प्रभाव है और वह शातिर और क्रूर है, इसलिए भले ही उसने मुझे नुकसान पहुँचाया है, पर मैं उससे बदला नहीं ले सकता। मुझे चुपचाप अपमान का घूँट पी लेना चाहिए। लेकिन अगर मुझे इस जीवन में कभी उससे बदला लेने का मौका मिला, तो मैं बदला लूँगा।” जैसी कि लोकप्रिय कहावतें हैं, “जो बदला नहीं लेता वह मर्द नहीं है” और “सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या।” लोग अभी भी सांसारिक लेनदेनों के लिए इस तरह के फलसफे अपनाए हुए हैं। सांसारिक लेनदेनों के लिए बुराई का बदला भलाई से चुकाने के फलसफे को लोग एक संदर्भ में इसलिए अपनाते हैं, क्योंकि यह सीधे तौर पर सामाजिक परिवेश और मनुष्य की गहरी भ्रष्टता से जुड़ा है—यह लोगों की धारणाओं और उनके विवेक के निर्णयों के कारण उत्पन्न हुआ है। जब ज्यादातर लोग इस तरह की स्थितियों का सामना करते हैं, तो वे सिर्फ चुपचाप अपमान का घूँट पी सकते हैं, और अपनी नफरत और प्रतिशोध एक तरफ रखकर, बाहरी तौर पर बुराई का बदला भलाई से चुकाने का अभ्यास करते हैं। लोगों द्वारा सांसारिक लेनदेनों के लिए इस फलसफे को अपनाए जाने का दूसरा कारण यह है कि कुछ मामलों में इसमें शामिल दोनों पक्षों के बीच शक्ति का एक बड़ा असंतुलन होता है, इसलिए पीड़ित पक्ष बदला लेने की हिम्मत नहीं करता और वह बुराई का बदला भलाई से चुकाने के लिए मजबूर होता है, क्योंकि वह और कुछ नहीं कर सकता। अगर वह बदला लेने लगे, तो अपने पूरे परिवार का जीवन खतरे में डाल सकता है, जिसके परिणाम अकल्पनीय हैं। ऐसे में लोग अपमान का घूँट पीकर रह जाना ही बेहतर समझते हैं। लेकिन, क्या ऐसा करके उन्होंने अपने आक्रोश पर काबू पा लिया होता है? क्या कोई भी व्यक्ति गिले-शिकवे भूलने में सक्षम है? (नहीं।) खासकर बहुत गंभीर शिकायतों के मामलों में, उदाहरण के लिए, जब किसी ने तुम्हारे करीबी रिश्तेदारों की हत्या कर दी हो और तुम्हारा परिवार बर्बाद कर दिया हो, और तुम्हारा नाम बदनाम कर दिया हो, जिससे तुम्हारे भीतर उसके प्रति गहरी दुश्मनी पैदा हो गई हो—कोई भी इस तरह की शिकायत भूल नहीं सकता। यह मानवता का एक हिस्सा है और ऐसी चीज है, जिस पर मानवता काबू नहीं पा सकती। ऐसी स्थितियों में लोगों में सहज रूप से घृणा की भावना विकसित हो जाती है—यह बिल्कुल सामान्य है। चाहे वह क्रोध के कारण उत्पन्न हो या सहज प्रवृत्ति के कारण या फिर जमीर के कारण, हर हाल में यह एक सामान्य प्रतिक्रिया है। यहाँ तक कि कुत्ते भी उन लोगों के करीब आ जाते हैं, जो उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं और नियमित रूप से उन्हें खाना खिलाते हैं या उनकी मदद करते हैं, और वे उन पर भरोसा करना शुरू कर देते हैं, जबकि वे उन लोगों से घृणा करते हैं जो उनके साथ गाली-गलौज और दुर्व्यवहार करते हैं—और इतना ही नहीं, वे उन लोगों से भी घृणा करते हैं जिनमें से उनके साथ गाली-गलौज और दुर्व्यवहार करने वाले की-सी गंध आती है या जो उन जैसे लगते हैं। देखो, कुत्तों तक में यह प्रवृत्ति होती है, लोगों का तो कहना ही क्या! यह देखते हुए कि लोगों का दिमाग जानवरों की तुलना में कहीं ज्यादा जटिल होता है, बदले वाली हत्या या अन्यायपूर्ण व्यवहार का सामना करने पर उनके लिए शत्रुता महसूस करना बिल्कुल सामान्य है। लेकिन, कई वजहों से और विशेष परिस्थितियों के कारण, लोगों को अक्सर रियायतें देने और अपमान का घूँट पीने, और अस्थायी रूप से चीजें सहने के लिए मजबूर किया जाता है—लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे बुराई का बदला भलाई से देना चाहते हैं या वैसा करने में सक्षम हैं। मैंने अभी जो कहा है, वह मानवता के परिप्रेक्ष्य और मनुष्य की सहज प्रतिक्रियाओं पर आधारित है। अगर अब हम इसे समाज के बारे में वस्तुनिष्ठ तथ्यों के परिप्रेक्ष्य से देखें—अगर कोई बुराई का बदला भलाई से नहीं चुकाता, बल्कि बदला लेकर हत्या कर देता है, तो इसके परिणाम क्या होंगे? उन्हें कानूनी रूप से जिम्मेदार ठहराया जाएगा, उन्हें हिरासत में लिया जा सकता है, जेल की सजा दी जा सकती है और संभवतः मौत की सजा भी हो सकती है। इसके आधार पर, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि चाहे मानवता के परिप्रेक्ष्य से हो या समाज और कानून की प्रतिबंधात्मक शक्ति से, जब लोगों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार होता है और बदले की भावना से हत्या कर दी जाती है, तो कोई भी व्यक्ति अपने मन से या अपने दिल की गहराइयों से नफरत निकालने में सक्षम नहीं होता। मौखिक हमले करने, ताने मारने या उपहास करने जैसे छोटे-मोटे नुकसानों के शिकार होने पर भी लोग बुराई का बदला भलाई से चुकाने में असमर्थ रहते हैं। क्या बुराई का बदला भलाई से चुकाने की क्षमता मानवता की सामान्य अभिव्यक्ति है? (नहीं।) फिर, जब किसी व्यक्ति को धमकाया जा रहा हो या नुकसान पहुँचाया जा रहा हो, तो उसकी मानवता कम से कम क्या चाहती और माँगती है? क्या कोई भी व्यक्ति खुशी-खुशी कहेगा : “आगे बढ़ो और मुझे धमकाओ! तुम ताकतवर और बुरे इंसान हो, तुम जैसे चाहो मुझे धमका सकते हो, और मैं तुम्हारी बुराई का बदला भलाई से चुकाऊँगा। तुम्हें मेरे नेक चरित्र और नैतिकता का सशक्त बोध होगा और मैं निश्चित रूप से तुमसे बदला नहीं लूँगा या तुम्हारे बारे में कोई राय नहीं बनाऊँगा। मैं तुम पर क्रोधित नहीं होऊँगा—मैं इन सबको सिर्फ एक मजाक के रूप में लूँगा। चाहे तुम्हारे द्वारा कही गई बातें मेरे चरित्र का कितना भी अपमान करें, मेरे गौरव को कितनी भी ठेस पहुँचाएँ या मेरे हितों का कितना भी नुकसान करें, यह सब ठीक है और तुम्हें बेझिझक जो भी कहना हो, कह दो।” क्या ऐसे लोग मौजूद हैं? (नहीं।) कोई भी वास्तव में अपनी शिकायतें भूलने में सक्षम नहीं है—अगर वह बदला लेने के लिए अपने दुश्मन की हत्या किए बिना कुछ समय तक रह सकता है, तो वह पहले ही अच्छा कर रहा है। इसलिए, कोई भी वास्तव में बुराई का बदला भलाई से चुकाने में सक्षम नहीं है, और अगर लोग इस नैतिक आचरण का अभ्यास करते भी हैं, तो ऐसा इसलिए होगा क्योंकि उन्हें उस समय की विशिष्ट परिस्थितियों की बाध्यताओं के कारण उस तरह से कार्य करने के लिए मजबूर किया गया होगा, या इसलिए कि पूरी घटना वास्तव में मनगढ़ंत और काल्पनिक रही होगी। सामान्य परिस्थितियों में, जब लोग गंभीर उत्पीड़न या दुर्व्यवहार के शिकार होते हैं, तो वे द्वेष रखेंगे और प्रतिशोधी हो जाएँगे। एकमात्र परिस्थिति, जिसमें शायद कोई व्यक्ति अपनी घृणा से अवगत न हो पाए या उस पर प्रतिक्रिया न दे पाए, यह होगी कि वह घृणा बहुत ज्यादा हो और उसे इतना गंभीर झटका लगा हो कि वह अपनी याददाश्त या बुद्धि खो बैठा हो। लेकिन जिस भी व्यक्ति में सामान्य मानवता और विवेक है, वह नहीं चाहेगा कि उसके साथ अपमान, भेदभाव, निंदा, जगहँसाई, ताने, मजाक, नुकसान आदि का व्यवहार किया जाए, या कोई इस हद तक चला जाए कि उसके चरित्र और गरिमा को रौंद डाले और उसका अनादर करे; कोई भी व्यक्ति ऐसे लोगों को झूठे मन से नैतिक आचरण के साथ बदला चुकाकर प्रसन्न नहीं होगा, जिन्होंने पहले उसका अपमान किया हो या उसे नुकसान पहुँचाया हो—कोई भी ऐसा करने में सक्षम नहीं है। इस तरह, बुराई का बदला भलाई से चुकाने के नैतिक आचरण से संबंधित यह दावा भ्रष्ट मानवजाति को बहुत कमजोर, जोशरहित, खोखला और अर्थहीन प्रतीत होता है।

अगर हम इसे सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के परिप्रेक्ष्य से देखें, तो चाहे व्यक्ति कितना भी भ्रष्ट क्यों न हो, और चाहे वह दुष्ट व्यक्ति हो या अपेक्षाकृत अच्छी मानवता वाला व्यक्ति, वे सभी आशा करते हैं कि दूसरे उनके साथ अच्छी तरह से और बुनियादी स्तर के सम्मान के साथ व्यवहार करेंगे। अगर कोई बिना किसी कारण के तुम्हारी चापलूसी और खुशामद करना शुरू कर दे, तो क्या इससे तुम्हें खुशी मिलेगी? क्या तुम उसे पसंद करोगे? (नहीं।) तुम उसे पसंद क्यों नहीं करोगे? क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगेगा, जैसे तुम्हें मूर्ख बनाया जा रहा हो? तुम सोचोगे : “क्या मैं तुम्हें तीन साल का बच्चा लगता हूँ? मैं यह समझने में कैसे असफल हो रहा हूँ कि तुम्हें मुझसे ये बातें कहने की आवश्यकता क्यों महसूस होती है? क्या मैं उतना ही अच्छा हूँ, जितना तुम कहते हो? क्या मैंने उनमें से कोई भी चीज की? यह सब मूर्खतापूर्ण चापलूसी किसलिए है? तुम्हें खुद से घृणा कैसे नहीं होती?” लोग चापलूसी के शब्द सुनना पसंद नहीं करते और इसे एक तरह का अपमान समझते हैं। सम्मान की एक आधार-रेखा के अलावा, लोग और कैसे चाहते हैं कि दूसरे उनके साथ व्यवहार करें? (ईमानदारी के साथ।) लोगों से दूसरों के साथ ईमानदारी से व्यवहार करने के लिए कहना असंभव होगा—अगर वे दूसरों को धमकाने से बचते हैं, तो यह पहले ही काफी अच्छा है। लोगों से एक-दूसरे को धमकाने से बचने के लिए कहना तुलनात्मक रूप से एक वस्तुनिष्ठ माँग है। लोग आशा करते हैं कि दूसरे उनका सम्मान करेंगे, उन्हें धमकाएँगे नहीं और, सबसे महत्वपूर्ण बात, उनके साथ उचित व्यवहार करेंगे। वे आशा करते हैं कि उनके कमजोर होने पर दूसरे उन्हें परेशान नहीं करेंगे, या उनकी गलतियाँ उजागर होने पर उन्हें बहिष्कृत नहीं करेंगे, या लगातार उनकी चापलूसी और खुशामद नहीं करेंगे। लोगों को इस तरह के व्यवहार घृणित लगते हैं और वे सिर्फ यह चाहते हैं कि उनके साथ उचित व्यवहार किया जाए—क्या ऐसा ही नहीं है? दूसरों के साथ उचित व्यवहार करना मनुष्य की दुनिया और उसकी सोच के दायरे में एक अपेक्षाकृत सकारात्मक आदर्श है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? इसके बारे में सोचो : सभी लोग बाओ झेंग को क्यों पसंद करते हैं? लोग मामलों का फैसला करते हुए बाओ झेंग के चित्रण देखना पसंद करते हैं, भले ही ये मामले काल्पनिक और पूरी तरह से मनगढ़ंत हों। लोग फिर भी उनका आनंद क्यों लेते हैं? वे फिर भी उन्हें देखने के इच्छुक क्यों होते हैं? क्योंकि, अपनी आदर्श दुनिया में, अपनी सोच के दायरे में और अपने दिल की गहराइयों में वे सभी एक सकारात्मक और थोड़ी बेहतर दुनिया की कामना करते हैं। वे चाहते हैं कि मनुष्य एक अपेक्षाकृत निष्पक्ष और न्यायपूर्ण सामाजिक परिवेश में, एक ऐसी दुनिया में रह सके, जिसमें हर किसी को इसकी गारंटी मिले। इस तरह, कम से कम, जब तुम्हें बुरी ताकतों द्वारा परेशान किया जाता है, तो एक ऐसी जगह होगी जहाँ न्याय बरकरार रहेगा, जहाँ तुम अपनी शिकायतें दर्ज करवा सकते हो, जहाँ तुम्हें शिकायत करने का अधिकार होगा, और अंततः, जहाँ तुम्हारे द्वारा सहे गए अन्याय पर कुछ प्रकाश डाला जाएगा। इस समाज और मानवजाति में एक ऐसी जगह होगी जहाँ तुम खुद को निरपराध साबित कर सकते हो, और निरंतर अपमान झेलने या शिकायतों का भार उठाने से खुद को बचा सकते हो। क्या यह मनुष्य का आदर्श समाज नहीं है? क्या हर व्यक्ति इसी की लालसा नहीं करता? (हाँ, बिल्कुल।) यह हर व्यक्ति का सपना है। लोग आशा करते हैं कि उनके साथ उचित व्यवहार किया जाएगा—वे किसी अनुचित व्यवहार के पात्र नहीं बनना चाहते, या यह नहीं चाहते कि अपने साथ गलत व्यवहार किए जाने पर उनके पास शिकायत करने के लिए कोई जगह ही न हो, और उन्हें यह बहुत तकलीफदेह लगता है। यह कहा जा सकता है कि मनुष्य के नैतिक आचरण पर रखा गया “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ” का मानक और अपेक्षा वास्तविक जीवन में मानवजाति की भ्रष्टता की वास्तविकता से बहुत दूर है। और इसलिए, मनुष्य के नैतिक आचरण से की गई यह अपेक्षा मनुष्य के प्रति विचारशील नहीं है, और यह वस्तुनिष्ठ तथ्य और वास्तविक जीवन से बहुत दूर है। यह उन आदर्शवादियों द्वारा प्रस्तावित कथन है जिन्हें ऐसे वंचित लोगों की आंतरिक दुनिया की कोई समझ नहीं है जिनके साथ अन्याय हुआ है और जिन्हें अपमानित किया गया है—इन आदर्शवादियों को इस बात का कोई एहसास नहीं है कि इन लोगों के साथ किस हद तक अन्याय हुआ है और उनकी गरिमा और चरित्र का कितना अपमान हुआ है, यहाँ तक कि उनकी अपनी निजी सुरक्षा भी कितनी खतरे में पड़ गई है। वे इन वास्तविकताओं को नहीं समझते और फिर भी ऐसी बातें कहते हुए अपेक्षा करते हैं कि ये पीड़ित अपने हमलावरों के साथ सामंजस्य बैठा लें और उनसे बदला लेने से बचें : “तुम्हारा जन्म दुर्व्यवहार किए जाने के लिए ही हुआ है और तुम्हें अपनी नियति स्वीकार लेनी चाहिए। तुम समाज के सबसे निचले वर्ग में पैदा हुए हो और तुम गुलामों वाली चीज से बने हो। तुम दूसरों द्वारा शासित होने के लिए पैदा हुए हो—तुम्हें उन लोगों से बदला नहीं लेना चाहिए जो तुम्हें नुकसान पहुँचाते हैं, इसके बजाय तुम्हें बुराई का बदला भलाई से चुकाना चाहिए। तुम्हें सामाजिक माहौल और सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए और अपनी सकारात्मक ऊर्जा और अपना सर्वोत्तम नैतिक आचरण प्रदर्शित करके समाज में योगदान देना चाहिए।” यह सब समाज के उच्च सोपानकों और शासक वर्गों द्वारा निम्न वर्गों के शोषण को माफ करने, उन्हें यह सुविधा प्रदान करने और उनकी ओर से वंचितों के दिलों और भावनाओं को शांत करने के लिए स्पष्ट रूप से कहा गया है। क्या ऐसी बातें कहने का यही उद्देश्य नहीं है? (हाँ, बिल्कुल।) अगर प्रत्येक देश की कानूनी और सामाजिक व्यवस्थाएँ, और प्रत्येक जाति और कबीले की व्यवस्थाएँ और विनियम निष्पक्ष होते और सख्ती से लागू किए जाते, तो क्या फिर भी मानवता के नियमों के विपरीत चलने वाली इस पक्षपातपूर्ण कहावत को बढ़ावा देना आवश्यक होता? यह आवश्यक न होता। “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ” कहावत स्पष्ट रूप से सिर्फ शासक वर्गों और उन बुरे लोगों के लिए एक अवसर और सुविधा के रूप में प्रचारित की गई है, जिनके पास वंचितों का शोषण करने और उन्हें रौंदने का अधिकार और शक्ति है। साथ ही, वंचित वर्गों को दिलासा देने और उन्हें अमीरों, कुलीनों और शासक वर्ग से बदला लेने या उनके प्रति शत्रुतापूर्ण होने से रोकने के लिए ये तथाकथित विचारक और शिक्षक खुद को नैतिक श्रेष्ठता के शिखर पर स्थापित करते हैं, इस कहावत का इस आवश्यकता के बहाने प्रचार करते हैं कि सभी लोग अच्छे नैतिक आचरण का अभ्यास करें। क्या इससे समाज के भीतर और ज्यादा अंतर्विरोध पैदा नहीं होते? जितना ज्यादा तुम लोगों को दबाते हो, समाज उतना ही ज्यादा अन्यायपूर्ण साबित होता है। अगर समाज वास्तव में निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होता, तो क्या फिर भी इस कहावत का उपयोग करके लोगों के नैतिक आचरण का आकलन करना और उससे अपेक्षाएँ रखना आवश्यक होता? यह स्पष्ट रूप से इस तथ्य के कारण है कि समाज में या मानवजाति के बीच कोई न्याय नहीं है। अगर कुकर्मी कानून द्वारा दंडित किए जा सकते, या अगर धनवान और शक्तिशाली लोग भी कानून के प्रति जवाबदेह होते, तो “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ” कहावत अमान्य होती और मौजूद ही न होती। कितने आम लोग किसी अधिकारी को नुकसान पहुँचा पाएँगे? कितने गरीब लोग अमीरों का नुकसान कर पाएँगे? इसे हासिल करना उनके लिए कठिन होगा। इस तरह, “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ” कहावत के लक्ष्य स्पष्ट रूप से आम लोग, गरीब और निम्न वर्ग हैं—यह एक अनैतिक और अन्यायपूर्ण कहावत है। उदाहरण के लिए, अगर तुम यह अपेक्षा करो कि कोई सरकारी अधिकारी बुराई का बदला भलाई से चुकाए, तो वह तुमसे कहेगा : “मुझे किस बुराई का बदला चुकाना है? कौन मुझसे उलझने की हिम्मत करेगा? कौन मुझे अपमानित करने का साहस करेगा? कौन मुझे ‘नहीं’ कहने का साहस करेगा? जो कोई भी मुझे नहीं कहेगा, मैं उसे मार डालूँगा—मैं उसके पूरे परिवार और उसके सभी रिश्तेदारों को खत्म कर दूँगा!” देखो, अधिकारियों को किसी बुराई का बदला नहीं चुकाना है, इसलिए “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ” कहावत उनके लिए अस्तित्व में ही नहीं है। अगर तुम उनसे कहो : “तुम्हें बुराई का बदला भलाई से चुकाने के इस नैतिक आचरण का अभ्यास करना चाहिए, तुममें यह नैतिक आचरण होना चाहिए,” तो वे उत्तर देंगे : “जरूर, मैं ऐसा कर सकता हूँ।” यह पूरी तरह से एक भ्रामक झूठ है। हर हाल में, “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ” अनिवार्य रूप से सामाजिक नैतिकतावादियों द्वारा निम्न वर्गों को दिलासा देने के एक तरीके के रूप में प्रचारित एक कहावत भर है, और इससे भी बढ़कर, यह एक ऐसी कहावत है जिसे निम्न वर्गों को गुलाम बनाने के लिए प्रचारित किया जाता है। इसे शासक वर्ग के अधिकार को और ज्यादा स्थिर करने, शासक वर्ग का पक्ष लेने और निम्न वर्गों की दासता कायम रखने के लिए प्रचारित किया जाता है, ताकि पीढ़ियों तक गुलाम रहने पर भी वे शिकायत न करें। इससे हम देख सकते हैं कि इस तरह के समाज में कानून और व्यवस्थाएँ स्पष्ट रूप से अन्यायपूर्ण हैं; इस तरह का समाज सत्य द्वारा नियंत्रित नहीं होता, वह सत्य, न्याय या धार्मिकता द्वारा शासित नहीं होता। इसके बजाय, वह मनुष्य की बुराई और ताकत द्वारा नियंत्रित होता है, चाहे अधिकारियों के रूप में कोई भी काम करे। अगर आम लोग अधिकारियों के रूप में काम करते, तो भी स्थिति बिल्कुल ऐसी ही होती। यही इस सामाजिक व्यवस्था का सार है। “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ” इस तथ्य को उजागर करता है। इस वाक्यांश में स्पष्ट रूप से एक निश्चित राजनीतिक गुण है—यह शासक वर्गों के वर्चस्व और निम्न वर्गों की दासता सुदृढ़ करने के लिए मनुष्य के नैतिक आचरण को लेकर की गई एक अपेक्षा है।

न सिर्फ यह अपेक्षा कि लोग बुराई का बदला भलाई से चुकाएँ, मानवता की सामान्य जरूरतों या अपेक्षाओं या मानवता के चरित्र और गरिमा के अनुरूप नहीं है, बल्कि स्वाभाविक रूप से, यह व्यक्ति की मानवता की गुणवत्ता के मूल्यांकन के लिए उचित मानक तो बिल्कुल भी नहीं है। यह अपेक्षा वास्तविक मानवता से अब तक दूर है; बात सिर्फ इतनी नहीं है कि यह अप्राप्य है, बल्कि इसे कभी प्रचारित ही नहीं किया जाना चाहिए था। यह शासक वर्ग द्वारा जनता पर अपना शासन और नियंत्रण मजबूत करने के लिए लागू की गई एक कहावत और अपनाई गई रणनीति मात्र है। स्वाभाविक रूप से, परमेश्वर ने कभी इस तरह की कहावत को बढ़ावा नहीं दिया है, चाहे व्यवस्था के युग में हो या फिर अनुग्रह के युग में या फिर राज्य के वर्तमान युग में, और परमेश्वर ने कभी लोगों की मानवता की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने के आधार के रूप में इस तरह की पद्धति, कहावत या अपेक्षा का उपयोग नहीं किया है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि चाहे कोई नैतिक हो या अनैतिक, और चाहे उसका नैतिक आचरण कितना भी अच्छा या बुरा क्यों न हो, परमेश्वर सिर्फ उसके सार पर विचार करता है—नैतिक आचरण से संबंधित ये कहावतें परमेश्वर के दायरे में मौजूद ही नहीं हैं। इस तरह, नैतिक आचरण से संबंधित “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ” कहावत परमेश्वर के घर में अमान्य है और विश्लेषण के योग्य भी नहीं है। चाहे तुम बुराई का बदला भलाई से चुकाओ, या बुराई का बदला प्रतिशोध से चुकाओ, परमेश्वर में विश्वास करने वालों को “बुराई का बदला चुकाने” के मामले को कैसे देखना चाहिए? उन्हें इस मामले को किस रवैये और दृष्टिकोण से देखना और लेना चाहिए? अगर कोई कलीसिया में बुरा कार्य करता है, तो उस व्यक्ति से निपटने के लिए परमेश्वर के घर के अपने प्रशासनिक आदेश और सिद्धांत हैं—किसी को पीड़ित के लिए प्रतिशोध लेने या अन्याय से उसका बचाव करने की कोई जरूरत नहीं है। परमेश्वर के घर में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है और कलीसिया स्वाभाविक रूप से सिद्धांतों के अनुसार समस्या को सँभाल लेगी। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे लोग देख सकते हैं और जिसका सामना कर सकते हैं। इसे बहुत स्पष्ट और सटीक रूप से कहें, तो : लोगों को सँभालने के लिए कलीसिया के पास सिद्धांत हैं और परमेश्वर के घर के पास प्रशासनिक आदेश हैं। तो फिर परमेश्वर के बारे में क्या खयाल है? जहाँ तक परमेश्वर का संबंध है, जो व्यक्ति बुरा करेगा, उसे तदनुसार दंडित किया जाएगा, और परमेश्वर तय करेगा कि उसे कब और कैसे दंडित किया जाए। परमेश्वर के दंड के सिद्धांत उसके स्वभाव और सार से बिल्कुल अविभाज्य हैं। परमेश्वर के पास धार्मिक और ऐसा स्वभाव है जिसका अपमान नहीं किया जा सकता, उसमें प्रताप और क्रोध है, और जो भी बुराई करते हैं, उन्हें तदनुसार दंडित किया जाएगा। यह मनुष्य के नियमों से कहीं ज्यादा उत्कृष्ट है, यह मानवता और सभी धर्मनिरपेक्ष कानूनों से बढ़कर है। यह न केवल निष्पक्ष, उचित और मानवता की इच्छाओं के अनुरूप है, बल्कि इसके लिए हर किसी की प्रशंसा और पुष्टि की भी आवश्यकता नहीं है। इसके लिए तुम्हें नैतिक श्रेष्ठता के शिखर से मामलों का मूल्यांकन करने की आवश्यकता नहीं है। जब परमेश्वर ये चीजें करता है, तो उसके अपने सिद्धांत होते हैं और ऐसा समय होता है। इसे परमेश्वर पर छोड़ देना चाहिए कि वह जैसा चाहे वैसा करे, और लोगों को इसमें हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए, क्योंकि इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। “बुराई का बदला चुकाने” के मामले में परमेश्वर लोगों से क्या चाहता है? यही कि वे उतावलेपन से दूसरे लोगों पर कार्रवाई न करें या उनसे बदला न लें। अगर कोई तुम्हें अपमानित करता है, परेशान करता है, यहाँ तक कि तुम्हें नुकसान भी पहुँचाना चाहता है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? क्या ऐसी चीजों से निपटने के लिए कोई सिद्धांत हैं? (हाँ, हैं।) इन चीजों के लिए परमेश्वर के वचनों और सत्य में समाधान, सिद्धांत और आधार हैं। अन्य किसी भी चीज के बावजूद, नैतिक आचरण से संबंधित कहावत, “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ” लोगों की मानवता की गुणवत्ता आँकने का कोई मानक भी नहीं है। ज्यादा से ज्यादा, अगर कोई बुराई का बदला भलाई से चुकाने में सक्षम है, तो यह कहा जा सकता है कि वह अपेक्षाकृत सहिष्णु, सरल, अच्छी प्रकृति वाला और उदार व्यक्ति है, वह क्षुद्र नहीं है, और उसमें कामचलाऊ नैतिक आचरण है। लेकिन, क्या इस एक कहावत के आधार पर इस व्यक्ति की मानवता की गुणवत्ता का मूल्यांकन और निर्णय किया जा सकता है? नहीं, बिल्कुल नहीं। व्यक्ति को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह किस चीज का अनुसरण करता है, किस मार्ग पर चलता है, सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति उसका क्या रवैया है, इत्यादि। यह इस बात का सटीक रूप से आकलन करने का एकमात्र तरीका है कि उसमें मानवता है या नहीं।

इससे आज की हमारी संगति समाप्त होती है।

26 मार्च 2022

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