सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (6) भाग एक
क्या तुम लोगों को याद है कि हमने अपनी पिछली सभा में किस विषय पर संगति की थी? (परमेश्वर ने पहले अपनी अपेक्षा के अनुसार सामान्य मानवता को जीने की तुलना में लोग जिन्हें अच्छे व्यवहार समझते हैं, उनके बीच के अंतरों पर संगति की, और फिर परंपरागत संस्कृति में मनुष्य के नैतिक आचरण पर संगति की और मनुष्य के नैतिक आचरण के बारे में इक्कीस दावों का सारांश दिया।) अपनी पिछली सभा में मैंने दो विषयों पर संगति की थी। पहले, मैंने अच्छे व्यवहार के विषय पर कुछ अतिरिक्त संगति प्रदान की, और फिर मैंने बिना अधिक विस्तार में गए मनुष्य के चरित्र, आचरण और सद्गुण पर थोड़ी सरल, परिचयात्मक संगति की। सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है, इस विषय पर हम पहले ही कई बार संगति कर चुके हैं, और मैंने सत्य के अनुसरण से संबंधित उन सभी अच्छे व्यवहारों पर संगति पूरी कर ली है, जिन्हें उजागर और विश्लेषित करने की आवश्यकता थी। पिछली बार मैंने मनुष्य के नैतिक आचरण से संबंधित कुछ बुनियादी विषयों पर भी थोड़ी संगति की थी। नैतिक आचरण संबंधी इन कथनों का विस्तार से खुलासा या विश्लेषण न करने के बावजूद, हमने मनुष्य के नैतिक आचरण के बारे में विभिन्न दावों के कुछ उदाहरण सूचीबद्ध किए थे—सटीक रूप से कहें तो इक्कीस। ये इक्कीस उदाहरण दरअसल वे विभिन्न कथन हैं, जिन्हें परंपरागत चीनी संस्कृति लोगों के मन में बैठाती है, जिनमें परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता के विचार प्रबल होते हैं। उदाहरण के लिए, हमने मनुष्य के नैतिक आचरण के बारे में उन विभिन्न कहावतों का उल्लेख किया, जो निष्ठा, धार्मिकता, औचित्य और भरोसे के साथ-साथ पुरुषों, महिलाओं, अधिकारियों और बच्चों को कैसे कार्य करना चाहिए, वगैरह से संबंधित हैं। चाहे ये इक्कीस कहावतें व्यापक या सर्वव्यापी हों या नहीं, हर हाल में, वे मूल रूप से उन विभिन्न अपेक्षाओं का सार दर्शाने में सक्षम हैं, जिन्हें परंपरागत चीनी संस्कृति मनुष्य के नैतिक आचरण के संबंध में वैचारिक और वास्तविक दोनों परिप्रेक्ष्यों से सामने रखती है। हमारे द्वारा इन उदाहरणों को सूचीबद्ध किए जाने के बाद, क्या तुम लोगों ने उन पर विचार और संगति की? (हमने अपनी सभाओं के दौरान उन पर थोड़ी संगति की और पाया कि उनमें से कुछ कथनों से सत्य का भ्रम होना आसान है। उदाहरण के लिए, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो,” “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा,” और साथ ही, अन्य कहावतों के अलावा, “अन्य लोगों ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निष्ठापूर्वक संभालने की पूरी कोशिश करो।”) अन्य कहावतों में शामिल हैं : “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” “सज्जन का वचन उसका अनुबंध होता है,” “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो,” “कुएँ का पानी पीते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इसे किसने खोदा था,” वगैरह। बारीकी से निरीक्षण करने पर तुम देखोगे कि ज्यादातर लोग अपने आचरण और अपने और दूसरों के नैतिक आचरण के बारे में अपने आकलन का आधार अनिवार्य रूप से नैतिक आचरण के इन कथनों को बनाते हैं। ये चीजें हर व्यक्ति के दिल में कुछ हद तक मौजूद रहती हैं। इसका एक प्राथमिक कारण वह सामाजिक माहौल है जिसमें लोग रहते हैं, और वह शिक्षा है जो वे अपनी सरकारों से प्राप्त करते हैं; दूसरा कारण उन्हें अपने परिवारों से मिली परवरिश और वे परंपराएँ हैं, जो उनके पूर्वजों से चली आ रही हैं। कुछ परिवार अपने बच्चों को सिखाते हैं कि उठाए गए धन को जेब में मत रखो, दूसरे परिवार अपने बच्चों को सिखाते हैं कि उन्हें देशभक्त होना चाहिए और “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” क्योंकि प्रत्येक परिवार अपने देश पर निर्भर है। कुछ परिवार अपने बच्चों को सिखाते हैं, “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए,” और उन्हें अपनी जड़ें कभी नहीं भूलनी चाहिए। कुछ माता-पिता अपने बच्चों को नैतिक आचरण के बारे में सिखाने के लिए स्पष्ट कथनों का उपयोग करते हैं, जबकि अन्य माता-पिता नैतिक आचरण के बारे में अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाते, लेकिन अपने बच्चों के लिए एक आदर्श के रूप में काम करते हैं और अगली पीढ़ी को अपने शब्दों और क्रियाकलापों के माध्यम से प्रभावित और शिक्षित करते हुए मिसाल देकर सिखाते हैं। इन शब्दों और क्रियाकलापों में “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” “दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ,” “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,” और साथ ही “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना” आदि जैसे जोरदार कथन शामिल हो सकते हैं। माता-पिता अपने बच्चों को जो सिखाते हैं, उसके तमाम विषय और सार आम तौर पर परंपरागत चीनी संस्कृति द्वारा अपेक्षित नैतिक आचरण के दायरे में आते हैं। पहली बात जो शिक्षक छात्रों को उनके स्कूल पहुँचने पर बताते हैं, यह है कि उन्हें दूसरों के प्रति दयालु होना चाहिए और दूसरों की मदद करने में खुशी पानी चाहिए, उन्हें उठाए गए धन को जेब में नहीं रखना चाहिए, और उन्हें अपने शिक्षकों का सम्मान और उनकी शिक्षाओं का आदर करना चाहिए। जब छात्र प्राचीन चीनी गद्य या प्राचीन काल के नायकों की जीवनियाँ पढ़ते हैं, तो उन्हें सिखाया जाता है कि, “मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा,” “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” “कोई कार्य स्वीकार करो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” “प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के भाग्य के लिए उत्तरदायित्व साझा करता है,” “रास्ते में मिलने वाली खोई हुई वस्तुएँ नहीं लेनी चाहिए,” वगैरह। ये सभी चीजें परंपरागत संस्कृति से आती हैं। राष्ट्र भी इन विचारों की वकालत और प्रचार करते हैं। वास्तव में, राष्ट्रीय शिक्षा कमोबेश उन्हीं चीजों को बढ़ावा देती है, जिन्हें पारिवारिक शिक्षा बढ़ावा देती है—वे सभी परंपरागत संस्कृति के इन्हीं विचारों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। परंपरागत संस्कृति से प्राप्त विचार मूल रूप से मानव-चरित्र, सद्गुण, आचरण आदि से संबंधित सभी अपेक्षाओं में व्याप्त हैं। एक संदर्भ में, वे अपेक्षा करते हैं कि लोग बाहरी तौर पर तहजीब और शिष्टाचार प्रदर्शित करें, वे इस तरह से कार्य और व्यवहार करें जो दूसरों को स्वीकार्य हो, और वे दूसरों को दिखाने के लिए अच्छे व्यवहार और क्रियाकलापों का प्रदर्शन करें जबकि अपने दिल की गहराइयों के अँधेरे पहलुओं को छिपाएँ। दूसरे संदर्भ में, वे उन रवैयों, व्यवहारों और क्रियाकलापों को उन्नत करते हैं, जो इस बात से संबंधित होते हैं कि व्यक्ति कैसे आचरण करता, लोगों से मिलता और मामले सँभालता है; वह अपने दोस्तों और परिवार के साथ कैसे व्यवहार करता है; और विभिन्न प्रकार के लोगों और चीजों को नैतिक आचरण के स्तर पर कैसे लेता है और इस तरह दूसरों से प्रशंसा और सम्मान प्राप्त करता है। परंपरागत संस्कृति लोगों से जो अपेक्षाएँ करती है, वे मूलतः इन्हीं चीजों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। चाहे वे ऐसे विचार हों जिनकी लोग बड़े सामाजिक स्तर पर वकालत करते हैं, या छोटे पैमाने पर, नैतिक आचरण के बारे में वे विचार जिन्हें लोग परिवारों के भीतर बढ़ावा देते और बनाए रखते हैं, और वे अपेक्षाएँ जो लोगों के समक्ष उनके आचरण के संबंध में प्रस्तुत की जाती हैं—ये सभी अनिवार्य रूप से इसी दायरे में आती हैं। इसलिए, लोगों के बीच, चाहे परंपरागत चीनी संस्कृति हो या पश्चिमी संस्कृतियों सहित अन्य देशों की परंपरागत संस्कृतियाँ, नैतिक आचरण के बारे में इन तमाम विचारों में ऐसी चीजें शामिल हैं जिन्हें लोग हासिल कर सकते हैं और जिनके बारे में सोच सकते हैं; ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोग अपने जमीर और विवेक के आधार पर कार्यान्वित कर सकते हैं। कम से कम, कुछ लोग ऐसे हैं जो खुद से अपेक्षित कुछ नैतिक आचरण को पूरा कर सकते हैं। ये अपेक्षाएँ केवल लोगों के नैतिक चरित्र, मिजाज और प्राथमिकताओं के दायरे तक ही सीमित हैं। अगर तुम्हें मुझ पर यकीन न आए, तो मैं तुम्हें बारीकी से यह देखने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ कि लोगों के नैतिक आचरण से संबंधित इनमें से कौन-सी अपेक्षाएँ उनके भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करती है। इनमें से कौन-सी अपेक्षा इस तथ्य पर ध्यान देती है कि लोग सत्य से विमुख हैं, सत्य को नापसंद करते हैं और अपने सार में ही परमेश्वर का विरोध करते हैं? इनमें से किन अपेक्षाओं का सत्य से कोई लेना-देना है? इनमें से कौन-सी अपेक्षाएँ सत्य के स्तर तक पहुँच सकती हैं? (इनमें से कोई नहीं।) चाहे व्यक्ति इन अपेक्षाओं को कैसे भी देखे, इनमें से कोई भी सत्य के स्तर तक नहीं पहुँच सकती। इनमें से किसी का भी सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, इनमें से किसी का भी उससे रत्ती भर भी संबंध नहीं है। अब तक, जो लोग लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करते आ रहे हैं, जिनके पास कुछ अनुभव है और जो थोड़ा-बहुत सत्य समझते हैं, उनके पास इस मामले की बस थोड़ी-सी सच्ची समझ होगी; लेकिन अधिकांश लोग अभी भी केवल धर्म-सिद्धांत ही समझते हैं और सिद्धांत के रूप में ही इस विचार से सहमत होते हैं, जबकि सत्य को सही मायने में समझने के स्तर तक पहुँचने में विफल रहते हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि अधिकांश लोग परंपरागत संस्कृति के इन नियमों की तुलना परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं से करने पर केवल यह समझ पाते हैं कि परंपरागत संस्कृति के ये पहलू सत्य के अनुरूप और सत्य से संबंधित नहीं हैं। वे मौखिक रूप से पूरी तरह स्वीकार सकते हैं कि इन चीजों का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन अपने दिल की गहराइयों में वे जिनकी अभिलाषा करते हैं, जिनका अनुमोदन करते हैं, जिन्हें प्राथमिकता देते हैं और जिन्हें आसानी से स्वीकारते हैं, वे अनिवार्य रूप से ये विचार ही हैं जो मानवजाति की परंपरागत संस्कृति से निकले हैं, जिनमें से कुछ ऐसी चीजें हैं जिनकी उनका देश वकालत करता और जिन्हें बढ़ावा देता है। लोग उन्हें सकारात्मक चीजें मानते हैं या उनसे सत्य की तरह पेश आते हैं। क्या यही मामला नहीं है? (हाँ, है।) जैसा कि तुम देख सकते हो, परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं ने मनुष्य के दिल में गहरी जड़ें जमा ली हैं, और इन्हें थोड़े समय के भीतर मिटाया और उखाड़ा नहीं जा सकता।
हालाँकि मनुष्य के नैतिक आचरण के बारे में हमारे द्वारा सूचीबद्ध इक्कीस अपेक्षाएँ परंपरागत चीनी संस्कृति का सिर्फ एक हिस्सा हैं, फिर भी कुछ हद तक वे उन सभी अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं, जो परंपरागत चीनी संस्कृति ने मनुष्य के नैतिक आचरण के संबंध में सामने रखी हैं। इन इक्कीस दावों में से प्रत्येक को मनुष्य एक सकारात्मक चीज, उत्कृष्ट और सही चीज मानता है, और लोगों का विश्वास है कि ये दावे उन्हें गरिमा के साथ जीने में सक्षम बनाते हैं, और यह एक प्रकार का नैतिक आचरण है जो प्रशंसा और सम्मान के योग्य है। फिलहाल हम उठाए गए धन को जेब में न रखने या दूसरों की मदद करने में खुशी पाने जैसी अपेक्षाकृत सतही कहावतों को किनारे रख देंगे और इनके बजाय उस नैतिक आचरण के बारे में बात करेंगे जिसका मनुष्य विशेष रूप से अत्यधिक सम्मान करता है और जिसे उत्कृष्ट मानता है। उदाहरण के लिए, यह कहावत लो : “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए,”—इस कथन का सार प्रस्तुत करने का सबसे सरल तरीका यह है कि व्यक्ति को अपनी जड़ें नहीं भूलनी चाहिए। अगर व्यक्ति में यह नैतिक आचरण है, तो सभी सोचेंगे कि उसका व्यक्तित्व कितना महान है, और वह सचमुच “कीचड़ से बेदाग निकल आना, साफ लहरों में नहाकर भी भड़कीला न दिखना।” लोग इसे बहुत सम्मान देते हैं। इस तथ्य का कि लोग इसे बहुत सम्मान देते हैं, मतलब यह है कि वे वास्तव में इस तरह के कथन को स्वीकारते हैं और इससे सहमत हैं। और निस्संदेह, वे उन लोगों की भी बहुत प्रशंसा करते हैं, जो इस नैतिक आचरण को अमल में ला सकते हैं। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन फिर भी परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रचारित इन चीजों को वास्तव में स्वीकारते हैं और उन अच्छे व्यवहारों को अभ्यास में लाने के इच्छुक रहते हैं। ये लोग सत्य नहीं समझते : वे सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ है एक अच्छा इंसान बनना, दूसरे लोगों की मदद करना, दूसरों की मदद करने में खुशी पाना, दूसरे लोगों को कभी धोखा न देना या नुकसान न पहुँचाना, सांसारिक चीजों के पीछे न भागना और धन या सुख का लालची न होना। अपने दिलों में वे सभी सहमत हैं कि “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए” कथन सही है। कुछ लोग कहेंगे : “अगर परमेश्वर में विश्वास करने से पहले व्यक्ति ‘धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए’ जैसे नैतिक आचरण का पहले से ही पालन करता है, अगर वह एक महान, दयालु व्यक्ति है जो अपनी जड़ें नहीं भूलता, तो आस्था में शामिल होने के बाद वह जल्दी से परमेश्वर का आनंद प्राप्त करने में सक्षम होगा। ऐसे लोगों के लिए परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना आसान है—वे उसके आशीष प्राप्त कर सकते हैं।” कई लोग जब दूसरों का मूल्यांकन करते और उन्हें देखते हैं, तो वे उनके सार को परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर नहीं देखते; इसके बजाय वे लोगों के नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति की अपेक्षाओं के अनुसार उनका मूल्यांकन करते और उन्हें देखते हैं। इस परिप्रेक्ष्य से, क्या इस बात की संभावना नहीं है कि जो लोग सत्य नहीं समझते, वे उन चीजों को सत्य समझने की भूल करेंगे, जिन्हें मनुष्य अच्छी और सही मानता है? क्या उनके द्वारा उन लोगों को, जिन्हें मनुष्य अच्छा मानता है, वैसा ही मानने की संभावना नहीं है, जिन्हें परमेश्वर अच्छा मानता है? लोग हमेशा अपने विचार परमेश्वर पर थोपना चाहते हैं—ऐसा करके, क्या वे सैद्धांतिक त्रुटि नहीं करते? क्या यह परमेश्वर के स्वभाव को नाराज नहीं करता? (करता है।) यह एक बहुत गंभीर समस्या है। अगर लोगों में वास्तव में विवेक हो, तो उन्हें उन मामलों में, जिन्हें वे समझ नहीं सकते, सत्य खोजना चाहिए, उन्हें परमेश्वर के इरादे समझने शुरू करने चाहिए और लापरवाही से ढेर सारी बकवास नहीं झाड़नी चाहिए। मनुष्य के मूल्यांकन के लिए परमेश्वर के मानकों और सिद्धांतों में क्या इस आशय की कोई पंक्ति है : “जो अपनी जड़ें नहीं भूलते, वे अच्छे लोग होते हैं और उनमें अच्छे व्यक्ति के लक्षण होते हैं”? क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कुछ कहा है? (नहीं।) परमेश्वर ने मनुष्य के लिए जो विशिष्ट अपेक्षाएँ रखी हैं, उनमें क्या उसने कभी कहा है, “अगर तुम गरीब हो, तो तुम्हें चोरी नहीं करनी चाहिए। अगर तुम अमीर हो, तो तुम्हें कामुक नहीं होना चाहिए। जब तुम्हें दादागिरी या धमकियों का सामना करना पड़े, तो तुम्हें कभी भी झुकना नहीं चाहिए”? क्या परमेश्वर के वचनों में ऐसी अपेक्षाएँ हैं? (नहीं।) वास्तव में, उनमें ऐसी अपेक्षाएँ नहीं हैं। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि “धन से कभी भ्रष्ट नहीं होना चाहिए, गरीबी से कभी बदल नहीं जाना चाहिए, बल से कभी झुकना नहीं चाहिए” कथन मनुष्य द्वारा बोला गया है—यह मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है, यह सत्य के साथ असंगत है, और यह मूलभूत रूप से सत्य के समान नहीं है। परमेश्वर ने कभी यह अपेक्षा नहीं की है कि सृजित प्राणी अपनी जड़ें न भूलें। अपनी जड़ें न भूलने का क्या मतलब है? मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ : अगर तुम्हारे पूर्वज किसान थे, तो तुम्हें हमेशा उनकी यादें सँजोकर रखनी चाहिए। अगर तुम्हारे पूर्वज किसी शिल्प-कार्य में संलग्न थे, तो तुम्हें उस शिल्प का अभ्यास बनाए रखना होगा और उसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाना होगा। यहाँ तक कि जब तुम परमेश्वर में विश्वास करना शुरू कर देते हो, तब भी तुम इन चीजों को नहीं भूल सकते—तुम उन पूर्वजों से प्राप्त शिक्षाएँ या शिल्प या कोई भी चीज नहीं भूल सकते। अगर तुम्हारे पूर्वज भिखारी थे, तो तुम्हें वे लाठियाँ सँभालकर रखनी चाहिए, जिनका इस्तेमाल वे कुत्तों को भगाने के लिए करते थे। अगर पूर्वजों को कभी भूसी और जंगली पौधों के सहारे जीवित रहना पड़ा हो, तो उनके वंशजों को भी भूसी और जंगली पौधे खाने की कोशिश करनी चाहिए—यह वर्तमान की खुशियों का आनंद लेने के लिए अतीत के दुख को याद करना है, यह अपनी जड़ें न भूलना है। तुम्हारे पूर्वजों ने जो कुछ किया, तुम्हें उसे कायम रखना चाहिए। तुम अपने पूर्वजों को सिर्फ इसलिए नहीं भूल सकते कि तुम पढ़े-लिखे हो और तुम्हारे पास रुतबा है। चीनी लोग इन चीजों को लेकर सबसे ज्यादा सतर्क होते हैं। अपने दिल में उन्हें ऐसा लगता है कि केवल उन लोगों में ही जमीर और विवेक होता है, जो अपनी जड़ें नहीं भूलते, और केवल ऐसे लोग ही ईमानदारी से व्यवहार कर सकते और गरिमा के साथ जी सकते हैं। क्या यह दृष्टिकोण सही है? क्या परमेश्वर के वचनों में ऐसा कुछ है? (नहीं।) परमेश्वर ने कभी ऐसा कुछ नहीं कहा है। इस उदाहरण से हम देख सकते हैं कि भले ही किसी सद्गुण के क्षेत्र को अत्यधिक आदर दिया जा सकता है और मनुष्य उसकी आकांक्षा कर सकता है, और भले ही यह एक सकारात्मक चीज जैसा लग सकता है, कुछ ऐसा जो मनुष्य के नैतिक आचरण को नियंत्रित कर सकता है और लोगों को बुराई और भ्रष्टता के मार्ग पर चलने से रोक सकता है, और भले ही इसे लोगों के बीच प्रसारित किया जाता है और उन सभी के द्वारा इसे एक सकारात्मक चीज के रूप में स्वीकारा जाता है, लेकिन अगर तुम इसकी तुलना परमेश्वर के वचनों और सत्य से करो, तो तुम देखोगे कि परंपरागत संस्कृति के ये दावे और विचार पूरी तरह से बेतुके हैं। तुम देखोगे कि वे उल्लेख करने लायक भी नहीं हैं, कि उनका सत्य से थोड़ा-सा भी संबंध नहीं है, और वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके इरादों से भी दूर हैं। इन विचारों और दृष्टिकोणों की वकालत करके और मनुष्य के नैतिक आचरण के संबंध में विभिन्न कथनों को आगे बढ़ाकर लोग मौलिक और अनूठा होने का दिखावा करने, अपनी महानता और सत्यता पर इतराने और लोगों से अपनी आराधना करवाने के लिए मनुष्य की सोच के दायरे का अतिक्रमण करने वाली कुछ चीजों का उपयोग करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहे। पूरब हो या पश्चिम, सभी लोग मूलतः एक-जैसा ही सोचते हैं। मनुष्य के नैतिक आचरण के संबंध में लोग जिन अपेक्षाओं की वकालत कर उन्हें सामने रखते हैं, उनके विचार और शुरुआती बिंदु, और उन अपेक्षाओं के जरिये वे जो लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं, वे सभी अनिवार्यतः एक जैसे ही हैं। भले ही पश्चिम के लोगों में “बुराई का बदला भलाई से चुकाओ,” और “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,” जैसे विशिष्ट विचार और दृष्टिकोण नहीं होते, जिन पर पूरब के लोग जोर देते हैं, और भले ही उनके पास परंपरागत चीनी संस्कृति जैसी स्पष्ट कहावतें भी नहीं होतीं, फिर भी उनकी अपनी परंपरागत संस्कृति इन्हीं विचारों से भरी हुई है। हालाँकि जिन चीजों पर हम संगति कर रहे हैं और जिनके बारे में बोल रहे हैं, वे कुछ हद तक परंपरागत चीनी संस्कृति से संबंधित हैं, और सार में, नैतिक आचरण के बारे में ये दावे और अपेक्षाएँ समस्त भ्रष्ट मानवजाति के प्रमुख विचारों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
आज हमने मुख्य रूप से इस बात पर संगति की है कि परंपरागत संस्कृति मनुष्य के नैतिक आचरण से संबंधित अपने दावों और अपेक्षाओं के माध्यम से लोगों पर किस प्रकार का नकारात्मक प्रभाव डालती है। इसे समझने के बाद, लोगों के लिए समझने वाली अगली सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सृष्टि के प्रभु, परमेश्वर की मानवजाति के नैतिक व्यवहार के प्रति वास्तव में क्या अपेक्षाएँ हैं, उसने विशेष रूप से क्या कहा है और क्या अपेक्षाएँ सामने रखी हैं। यह बात मनुष्य को अवश्य समझनी चाहिए। हमने अब स्पष्ट रूप से देख लिया है कि परंपरागत संस्कृति परमेश्वर की मनुष्य से की गई अपेक्षाओं या उसके द्वारा बोले गए वचनों की थोड़ी-सी भी गवाही नहीं देती, और लोगों ने इस विषय के संबंध में सत्य नहीं खोजा है। और इसलिए, परंपरागत संस्कृति वह चीज थी जो लोगों ने पहले सीखी और यह उन पर हावी हो गई, यह लोगों के दिलों में प्रवेश कर गई, और इसने हजारों वर्षों से मानवजाति के जीने के तरीके का मार्गदर्शन किया है। यही वह मुख्य तरीका है, जिससे शैतान ने मानवजाति को भ्रष्ट किया है। इस तथ्य को स्पष्ट रूप से पहचानने के बाद, लोगों के लिए अब सबसे महत्वपूर्ण चीज यह समझना है कि सृष्टि के प्रभु ने सृजित मनुष्यों से उनकी मानवता और नैतिकता के संबंध में क्या अपेक्षाएँ की हैं—या, दूसरे शब्दों में, सत्य के इस पहलू के संबंध में क्या मानक हैं। साथ ही, लोगों को यह समझना चाहिए कि इनमें से कौन-से चीज सत्य है : परंपरागत संस्कृति द्वारा की गई अपेक्षाएँ या वह जिसकी परमेश्वर मानवजाति से अपेक्षा करता है। उन्हें समझना चाहिए कि इनमें से कौन-सी चीज लोगों को शुद्ध कर सकती और बचा सकती है, और जीवन में सही मार्ग पर उनका मार्गदर्शन कर सकती है; और इनमें से कौन-सी चीज भ्रांति है, जो लोगों को गुमराह कर नुकसान पहुँचा सकती है और उन्हें गलत रास्ते पर, पाप के जीवन में धकेल सकती है। जब लोगों को यह बात समझ आ जाती है, तो वे पहचान सकते हैं कि मानवजाति से सृष्टि के प्रभु की अपेक्षाएँ बिल्कुल स्वाभाविक और न्यायसंगत हैं, और वे ऐसे सत्य सिद्धांत हैं जिनका लोगों को अभ्यास करना चाहिए। जहाँ तक परंपरागत संस्कृति के नैतिक आचरण और माप के मानकों के बारे में दावों का सवाल है, जो लोगों के सत्य के अनुसरण, और लोगों और चीजों को लेकर व्यक्ति के विचारों और उसके आचरण और कार्यकलापों को प्रभावित करते हैं—अगर लोग उन दावों को थोड़ा समझ सकें, और उनकी असलियत जान सकें और यह पहचान सकें कि वे सार में बेतुके हैं, और उन्हें अपने दिल से त्याग दें, तो नैतिक आचरण के संबंध में लोगों की कुछ उलझनें या मुद्दे हल हो सकते हैं। क्या इन चीजों को हल करने से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग में लोगों के सामने आने जाने वाली बाधाओं और कठिनाइयों में काफी हद तक कमी नहीं आएगी? (बिल्कुल आएगी।) जब लोग सत्य नहीं समझते, तो उनके द्वारा नैतिक आचरण के बारे में आम तौर पर स्वीकृत विचारों को सत्य समझने और उनका इस तरह अनुसरण और पालन करने की गलती किए जाने की संभावना होती है, मानो वे सत्य हों। यह लोगों की सत्य को समझने और उसका अभ्यास करने की क्षमता पर, और साथ ही उनके द्वारा स्वभावगत बदलाव हासिल करने के लिए सत्य का अनुसरण करते समय प्राप्त होने वाले परिणामों पर बहुत प्रभाव डालता है। यह ऐसी चीज है, जिसे तुम लोगों में से कोई भी देखना नहीं चाहेगा; बेशक, यह ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर भी नहीं देखना चाहता। इसलिए, मनुष्य द्वारा समर्थित नैतिक आचरण के बारे में इन तथाकथित सकारात्मक कथनों, विचारों और दृष्टिकोणों के संबंध में, लोगों को पहले इन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर स्पष्ट रूप से जानना और समझना चाहिए, और इनके सार की असलियत जाननी चाहिए, और इस प्रकार अपने दिल की गहराइयों में इन चीजों का एक सटीक मूल्यांकन करके स्थान बनाना चाहिए, जिसके बाद वे उन्हें थोड़ा-थोड़ा करके खोदकर बाहर निकाल सकते हैं और झाड़कर पूरी तरह त्याग सकते हैं। भविष्य में, हर बार जब लोग सत्य के विरोधी उन तथाकथित सकारात्मक कथनों को देखें, तो उन्हें पहले सत्य को चुनना चाहिए, न कि उन कथनों को जिन्हें मनुष्य की धारणाओं के भीतर सकारात्मक माना जाता है, क्योंकि ये तथाकथित सकारात्मक कथन सिर्फ मनुष्य के विचार हैं, ये वास्तव में सत्य से मेल नहीं खाते। चाहे हम किसी भी कोण से बोल रहे हों, आज इन विषयों पर संगति करने का हमारा मुख्य लक्ष्य सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में लोगों के सामने आने वाली विभिन्न बाधाएँ दूर करना है, खास तौर पर परमेश्वर के वचनों और सत्य की कसौटी के संबंध में लोगों के मन में आने वाली अनिश्चितताएँ दूर करना है। इन अनिश्चितताओं का मतलब यह है कि जब तुम सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास करते हो, तो तुम यह नहीं बता सकते कि कौन-सी चीजें नैतिक आचरण के बारे में कहावतें हैं जिनकी मानवजाति वकालत करती है, और कौन-सी चीजें परमेश्वर की मनुष्य से अपेक्षाएँ हैं, और उनमें से कौन सच्चे सिद्धांत और कसौटी हैं। लोगों को इन चीजों के बारे में स्पष्ट नहीं है। ऐसा क्यों है? (क्योंकि वे सत्य नहीं समझते।) एक तरह से, ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे सत्य नहीं समझते। दूसरी तरह से, ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनमें मानवजाति की परंपरागत संस्कृति द्वारा किए गए नैतिक आचरण के दावों की समझ नहीं है और वे अभी भी इन दावों का सार समझ नहीं पाते। अंत में, मन की उलझन भरी स्थिति में, तुम यह निर्धारित कर लोगे कि जो चीजें तुमने पहले सीखीं और जो तुम्हारे दिमाग में जमी हुई हैं, वे सही हैं; तुम यह निर्धारित कर लोगे कि वे चीजें, जिन्हें आम तौर पर सभी सही मानते हैं, सही हैं। और फिर तुम उन चीजों को चुन लोगे, जो तुम्हें पसंद हैं, जिन्हें तुम हासिल कर सकते हो, और जो तुम्हारी रुचि और धारणाओं के अनुरूप हैं; और तुम उन चीजों को इस तरह लोगे, उनसे इस तरह चिपके रहोगे और उनका इस तरह पालन करोगे, मानो वे सत्य हों। और इसके परिणामस्वरूप, लोगों का व्यवहार और आचरण, और साथ ही जिसका वे अनुसरण करते हैं, जिसे चुनते हैं और जिससे चिपके रहते हैं, वे सभी सत्य से पूरी तरह असंबद्ध होंगे—वे सभी मनुष्य के व्यवहारों और उसके द्वारा नैतिकता के प्रदर्शन से संबंधित होंगे जो सत्य के दायरे से बाहर हैं। लोग परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं को ऐसे लेते हैं और उनसे ऐसे चिपके रहते हैं, मानो वे सत्य हों, जबकि मनुष्य के व्यवहार से संबंधित परमेश्वर की अपेक्षाओं से जुड़े सत्यों को किनारे कर अनदेखा कर देते हैं। चाहे व्यक्ति मनुष्य द्वारा अच्छे समझे जाने वाले व्यवहारों में से कितने भी व्यवहार अपनाए, वह कभी परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं करेगा। यह लोगों द्वारा सत्य के दायरे से बाहर की चीजों पर बहुत ज्यादा प्रयास बरबाद करने का मामला है। इसके अलावा, इन चीजों को, जो मनुष्य से उत्पन्न होती हैं और सत्य के अनुरूप नहीं हैं, सत्य मानकर लोग पहले ही भटक चुके हैं। लोगों ने परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं को पहले सीखा, और इस प्रकार वे उन पर हावी हो गए; ये चीजें उनके भीतर तमाम तरह के भ्रामक विचारों को जन्म देती हैं, और जब लोग सत्य समझकर उसका अभ्यास करने का प्रयास करते हैं, तो ये उनके लिए बड़ी कठिनाइयाँ और गड़बड़ियाँ पैदा कर देती हैं। सभी लोग मानते हैं कि अगर उनके पास अच्छे व्यवहार हैं, तो परमेश्वर उन्हें स्वीकारेगा, और वे उसके आशीष और वादे प्राप्त करने के योग्य होंगे, लेकिन क्या वे यह दृष्टिकोण और मानसिकता रखने पर परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार सकते हैं? ऐसी मानसिकता लोगों के शुद्धिकरण और उद्धार में कितनी बड़ी बाधा उत्पन्न करती है? क्या ये कल्पनाएँ और धारणाएँ लोगों को परमेश्वर को गलत समझने, उसके प्रति विद्रोह और उसका विरोध करने के लिए प्रेरित नहीं करेंगी? क्या उसके ये परिणाम नहीं होंगे? (बिल्कुल होंगे।) मैंने कमोबेश इस विषय पर संगति का महत्व स्पष्ट कर दिया है, यह सामान्य विचार है।
इसके बाद, हम नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत चीनी संस्कृति की विभिन्न कहावतों का एक-एक करके विश्लेषण करेंगे और फिर उनके बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे। इस तरह, सबके पास उनके संबंध में एक बुनियादी पुष्टि और उत्तर होगा, और सभी के पास, कम से कम, इन कहावतों के बारे में अपेक्षाकृत सटीक समझ और दृष्टिकोण होगा। आओ पहली कहावत से शुरू करते हैं : “उठाए गए धन को जेब में मत रखो।” इस कहावत की सटीक व्याख्या क्या होगी? (अगर तुम कोई वस्तु उठाते हो, तो तुम्हें उसे लेकर अपनी होने का दावा नहीं करना चाहिए। यह एक प्रकार की अच्छी नैतिकता और सामाजिक रिवाज को दर्शाता है।) क्या इसे हासिल करना आसान है? (यह अपेक्षाकृत आसान है।) ज्यादातर लोगों के लिए इसे हासिल करना आसान है—अगर तुम कोई चीज उठाते हो, तो चाहे वह कुछ भी हो, तुम्हें उसे अपने पास नहीं रखना चाहिए, क्योंकि वह किसी और की है। तुम उसे रखने के हकदार नहीं हो और तुम्हें उसे उसके असली मालिक को लौटा देना चाहिए। अगर तुम्हें उसका असली मालिक न मिल पाए, तो तुम्हें उसे अधिकारियों को सौंप देना चाहिए—किसी भी स्थिति में तुम्हें उसे नहीं लेना चाहिए। यह सब दूसरे लोगों की संपत्ति के लिए न ललचाने और दूसरों का फायदा न उठाने की भावना के अनुरूप है। यह मनुष्य के नैतिक व्यवहार के बारे में की गई अपेक्षा है। लोगों के नैतिक व्यवहार के बारे में इस प्रकार की अपेक्षा रखने का क्या उद्देश्य है? जब लोग इस तरह का नैतिक आचरण करते हैं, तो इसका सामाजिक माहौल पर अच्छा और सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। लोगों में ऐसे विचार भरने का उद्देश्य उन्हें दूसरों का फायदा उठाने से रोकना है, जिससे उनका अपना अच्छा नैतिक आचरण बना रहे। अगर प्रत्येक व्यक्ति में इस प्रकार का अच्छा नैतिक आचरण हो, तो सामाजिक माहौल में सुधार होगा, और वह उस स्तर तक पहुँच जाएगा जहाँ “रास्ते में मिलने वाली खोई हुई वस्तुएँ नहीं उठानी चाहिए,” और किसी को रात में अपने दरवाजे बंद करने की जरूरत नहीं होती। इस तरह के सामाजिक माहौल से सार्वजनिक व्यवस्था में सुधार होगा और लोग अधिक शांति से रह सकेंगे। चोरी और डकैतियाँ कम होंगी, लड़ाई-झगड़े और प्रतिशोध में की जाने वाली हत्याएँ कम होंगी; इस तरह के समाज में रहने वाले लोगों में सुरक्षा की भावना होगी और समग्र कल्याण बेहतर होगा। “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” सामाजिक और जीवन संबंधी परिवेश में लोगों के नैतिक आचरण के संबंध में की गई अपेक्षा है। इस अपेक्षा का लक्ष्य सामाजिक माहौल और लोगों के जीवन-परिवेश की रक्षा करना है। क्या इसे हासिल करना आसान है? चाहे लोग इसे हासिल कर सकें या नहीं, मनुष्य के नैतिक आचरण के बारे में यह विचार और अपेक्षा रखने वाले लोगों का लक्ष्य उस आदर्श सामाजिक जीवन संबंधी परिवेश को साकार करना था, जिसके लिए लोग लालायित रहते हैं। “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” का मनुष्य के आचरण की कसौटी से कोई लेना-देना नहीं है—यह महज लोगों के कोई चीज उठाने पर उनके नैतिक आचरण के बारे में की गई अपेक्षा है। इसका मनुष्य के सार से बहुत कम संबंध है। मनुष्य के नैतिक आचरण के बारे में मानवजाति हजारों वर्षों से यह अपेक्षा करती आ रही है। बेशक, जब लोग इस अपेक्षा का पालन करते हैं, तो देश या समाज एक ऐसे दौर का अनुभव कर सकता है, जब अपराध कम होते हैं, और यह उस बिंदु तक भी पहुँच सकता है, जहाँ लोगों को रात में अपने दरवाजे बंद करने की जरूरत नहीं होती, जहाँ रास्ते में मिलने वाली खोई हुई वस्तुएँ नहीं उठानी चाहिए, और जहाँ अधिकांश लोग उठाए गए धन को जेब में नहीं रखते। उस दौर में सामाजिक माहौल, सार्वजनिक व्यवस्था और जीवन-परिवेश सभी अपेक्षाकृत स्थिर और सामंजस्यपूर्ण होंगे, लेकिन यह माहौल और सामाजिक परिवेश केवल अस्थायी रूप से, या एक अवधि के लिए, या एक निश्चित समय के लिए ही बनाए रखा जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग इस प्रकार का नैतिक आचरण केवल कुछ सामाजिक परिवेशों में ही प्राप्त कर सकते या बनाए रख सकते हैं। जैसे ही उनका जीवन-परिवेश बदलता है और पुराना सामाजिक माहौल काम नहीं करता, तो सामाजिक परिवेश, सामाजिक माहौल और सामाजिक रुझानों में बदलावों के साथ-साथ “उठाए गए धन को जेब में न रखने” जैसी नैतिकताओं के भी बदल जाने की संभावना रहती है। देखो कि कैसे सत्ता में आने के बाद बड़े लाल अजगर ने सामाजिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए तमाम तरह की कहावतों को बढ़ावा देकर लोगों को गुमराह किया। 80 के दशक में इन बोलों वाला एक लोकप्रिय गीत भी था : “सड़क के किनारे, मैंने जमीन से एक सेंट उठाया, और पुलिस अधिकारी को सौंप दिया। अधिकारी ने सेंट लिया, और स्वीकृति में सिर हिलाया। मैंने खुशी से कहा, ‘बाद में मिलते हैं, सर!’” एक सेंट सौंपने का छोटा-सा मामला भी जाहिर तौर पर उल्लेख करने और गाने लायक था—यह इतना “उत्कृष्ट” सामाजिक सदाचार और व्यवहार था! लेकिन क्या यह सचमुच इतना उत्कृष्ट था? लोग खुद को मिला एक सेंट तो पुलिस अधिकारी को सौंप सकते हैं, लेकिन क्या वे सौ या हजार युआन सौंपेंगे? यह कहना कठिन है। अगर किसी व्यक्ति को कुछ सोना, चाँदी या कीमती चीजें या कोई इससे भी मूल्यवान चीज मिलती है, तो वह अपने लालच को नियंत्रित नहीं कर पाएगा, उसके अंदर का राक्षस बाहर आ जाएगा और वह लोगों को चोट और नुकसान पहुँचाने, दूसरों को आरोपित करके फँसाने में सक्षम हो जाएगा—वह सक्रिय रूप से किसी व्यक्ति से उसका पैसा लूटने, यहाँ तक कि उसकी हत्या करने में भी सक्षम होगा। उस समय, मनुष्य की उत्कृष्ट परंपरागत संस्कृति और परंपरागत नैतिकता में से क्या बचेगा? तब “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” की नैतिक कसौटी कहाँ रहेगी? यह हमें क्या दिखाता है? चाहे लोगों में यह भावना और नैतिक आचरण हो या नहीं, यह अपेक्षा और कहावत ऐसी चीज है, जिसकी लोग कल्पना करते हैं, इच्छा करते हैं और चाहते हैं कि वे इसे साकार और हासिल कर सकें। विशिष्ट सामाजिक संदर्भों में और उपयुक्त परिवेशों के भीतर, जिन लोगों में एक निश्चित मात्रा में जमीर और विवेक होता है, वे स्वयं द्वारा उठाए गए धन को अपनी जेब में न रखने का अभ्यास कर सकते हैं, लेकिन यह केवल एक क्षणिक अच्छा व्यवहार है, यह उनके आचरण या जिंदगी की कसौटी नहीं बन सकता। जैसे ही वह सामाजिक परिवेश और संदर्भ, जिसमें वे लोग रहते हैं, बदलेगा, यह सिद्धांत और मनुष्य की धारणाओं के अनुसार आदर्श नैतिक आचरण लोगों से बहुत दूर हो जाएगा। यह उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने में सक्षम नहीं होगा, और निस्संदेह, यह उनके बुरे कर्मों को सीमित करने में तो बिल्कुल भी सक्षम नहीं होगा। यह महज एक अस्थायी अच्छा व्यवहार और मनुष्य के आदर्शों के अनुसार एक अपेक्षाकृत उत्कृष्ट नैतिक गुण है। जब यह वास्तविकता और स्वार्थ से टकराता है, जब यह लोगों के आदर्शों से टकराता है, तो इस प्रकार की नैतिकता लोगों के व्यवहार को संयमित नहीं कर सकती, या उनके व्यवहार और विचारों का मार्गदर्शन नहीं कर सकती। अंततः, लोग इसके विरुद्ध जाने का निर्णय लेंगे, वे नैतिकता की इस परंपरागत धारणा का उल्लंघन करेंगे और अपने हितों का चयन करेंगे। इसलिए, जब “उठाए गए धन को जेब में न रखने” की नैतिकता की बात आती है, तो लोग स्वयं द्वारा उठाया गया एक सेंट पुलिस को सौंप सकते हैं। लेकिन अगर उन्हें एक हजार युआन, दस हजार युआन या सोने का सिक्का पड़ा मिल जाए, तो क्या वे फिर भी उसे पुलिस अधिकारी को दे देंगे? वे नहीं दे पाएँगे। जब उस धन को लेने का लाभ उससे अधिक हो जाता है जिसे मनुष्य की नैतिकता हासिल कर सकती है, तो वे उसे पुलिस को नहीं सौंप पाएँगे। वे “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” की नैतिकता को साकार नहीं कर पाएँगे। तो, क्या “उठाए गए धन को जेब में न रखना” व्यक्ति के मानवता-सार को दर्शाता है? वह उसके मानवता-सार को बिल्कुल भी नहीं दर्शा सकता। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि मनुष्य के नैतिक आचरण से संबंधित इस अपेक्षा का उपयोग यह आकलन करने के आधार के रूप में नहीं किया जा सकता कि व्यक्ति में मानवता है या नहीं, और यह मनुष्य के आचरण के लिए कसौटी नहीं बन सकती।
क्या पहले यह देखना कि व्यक्ति उठाए गए धन को जेब में रखता है या नहीं, उसकी नैतिकता और चरित्र का मूल्यांकन करने का सटीक तरीका होगा? (नहीं।) क्यों नहीं? (लोग वास्तव में उस अपेक्षा का पालन करने में असमर्थ हैं। अगर उन्हें थोड़ी-सी धनराशि या कम मूल्य की कोई चीज मिलती है, तो वे उसे सौंपने में सक्षम होंगे, लेकिन अगर वह कोई मूल्यवान चीज हो, तो उनके ऐसा करने की संभावना कम होगी। अगर वह कोई बहुत ही कीमती वस्तु हो, तो उनके उसे सौंपने की संभावना और भी कम होगी—वे उसे किसी भी कीमत पर अपने पास रख सकते हैं।) तुम्हारा मतलब है कि “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” लोगों की मानवता का मूल्यांकन करने की कसौटी नहीं बन सकती, क्योंकि लोग उसे हासिल करने में असमर्थ हैं। ऐसे में, अगर लोग इस अपेक्षा का पालन कर सकें, तो क्या यह उनकी मानवता के मूल्यांकन की कसौटी माना जाएगा? (नहीं, वह नहीं माना जाएगा।) लोगों द्वारा इसका पालन किए जाने के बाद भी इसे लोगों की मानवता के मूल्यांकन की कसौटी क्यों नहीं माना जाएगा? (“उठाए गए धन को जेब में मत रखो” का पालन करने की व्यक्ति की क्षमता या कमी वास्तव में उसकी मानवता की गुणवत्ता प्रतिबिंबित नहीं करती। इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि उसकी मानवता कितनी अच्छी या बुरी है, और यह लोगों की मानवता का मूल्यांकन करने की कसौटी नहीं है।) यह मुद्दे को समझने का एक तरीका है। व्यक्ति द्वारा उठाए गए धन को जेब में न रखने और उसकी मानवता की गुणवत्ता के बीच थोड़ा ही संबंध है। इसलिए, अगर तुम्हारा सामना किसी ऐसे व्यक्ति से हो, जो वास्तव में उठाए गए धन को जेब में न रखने में सक्षम है, तो तुम लोग उसे कैसे देखोगे? क्या तुम उसे ऐसा व्यक्ति मान सकते हो जिसमें मानवता है, क्या वह एक ईमानदार व्यक्ति और ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर के प्रति समर्पित है? क्या तुम उठाए गए धन को जेब में न रखने को मानवता होने के मानक के रूप में वर्गीकृत कर सकते हो? हमें इस मुद्दे पर सहभागिता करनी चाहिए। इसके बारे में कौन बोलेगा? (व्यक्ति की उठाए गए धन को जेब में न रखने की क्षमता उस व्यक्ति के मानवता-सार को परिभाषित करने के लिए अप्रासंगिक है। उनके सार का मूल्यांकन सत्य के अनुसार किया जाता है।) और क्या? (कुछ लोग उठाए गए धन को जेब में न रखने में सक्षम होते हैं, चाहे वह एक बड़ी रकम हो, या वे ऐसे कई अन्य अच्छे कर्म करते हैं, लेकिन उनके अपने लक्ष्य और इरादे होते हैं। वे अपने सराहनीय कार्यों के लिए पुरस्कृत होना और अच्छी प्रतिष्ठा हासिल करना चाहते हैं, इसलिए उनके बाहरी अच्छे व्यवहार उनकी मानवता की गुणवत्ता निर्धारित नहीं कर सकते।) और कुछ? (मान लो, कोई उठाए गए धन को जेब में न रखने में सक्षम है, लेकिन वह सत्य को एक प्रतिरोधी रवैये के साथ लेता है, एक ऐसे रवैये के साथ, जो सत्य से उकता चुका है। अगर हम परमेश्वर के वचनों के आधार पर उसका मूल्यांकन करें, तो पाएँगे कि उसमें मानवता नहीं है। इसलिए, व्यक्ति के पास मानवता है या नहीं, इसका निर्णय करने के लिए इस मानक का उपयोग करना गलत है।) तुममें से कुछ लोग पहले ही समझ चुके हैं कि व्यक्ति में मानवता है या नहीं, इसका मूल्यांकन करने के लिए “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” का उपयोग करना गलत है—व्यक्ति में मानवता है या नहीं, इसका मूल्यांकन करने के लिए तुम इसे एक मानक के रूप में उपयोग किए जाने से सहमत नहीं हो। यह दृष्टिकोण सही है। चाहे व्यक्ति उठाए गए धन को जेब में न रखने में सक्षम हो या नहीं, इसका उसके आचरण के सिद्धांतों और उसके द्वारा चुने गए मार्ग से कोई लेना-देना नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? सबसे पहले, जब व्यक्ति उठाए गए धन को जेब में नहीं रखता, तो यह केवल एक क्षणिक व्यवहार दर्शाता है। यह कहना मुश्किल है कि क्या उसने ऐसा इसलिए किया कि जो चीज उसने उठाई थी वह बेकार थी, या इसलिए कि अन्य लोग उसे देख रहे थे और वह उनकी प्रशंसा और सम्मान हासिल करना चाहता था। भले ही उसका कार्य शुद्ध रहा हो, फिर भी यह सिर्फ एक तरह का अच्छा व्यवहार ही है, और इसका उसके अनुसरण और आचरण से कोई लेना-देना नहीं है। अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि इस व्यक्ति का व्यवहार थोड़ा अच्छा और चरित्र नेक है। भले ही इस व्यवहार को एक नकारात्मक चीज नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसे एक सकारात्मक चीज के रूप में भी वर्गीकृत नहीं किया जा सकता, और किसी व्यक्ति को यकीनन सिर्फ इसलिए सकारात्मक के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह उठाए गए धन को जेब में नहीं रखता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इसका सत्य से कोई संबंध और परमेश्वर की मनुष्य से की गई अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोग कहते हैं : “यह एक सकारात्मक चीज कैसे नहीं हो सकती? ऐसे नेक व्यवहार को सकारात्मक कैसे नहीं माना जा सकता? अगर कोई अनैतिक है और उसमें मानवता की कमी है, तो क्या वह उठाए गए धन को जेब में न रखने में सक्षम होगा?” यह इसे कहने का अनिवार्य रूप से कोई सटीक तरीका नहीं है। शैतान कुछ अच्छे काम करने में भी सक्षम होता है—तो क्या तुम कहोगे कि वह शैतान नहीं है? कुछ राक्षस राजा अपना नाम कमाने और इतिहास में अपनी जगह पक्की करने के लिए एक-दो अच्छे कर्म करते हैं—तो क्या तुम उन्हें अच्छे लोग कहोगे? तुम किसी के द्वारा किए गए एक अच्छे या बुरे काम के आधार पर ही यह निर्धारित नहीं कर सकते कि उसमें मानवता है या नहीं, या उसका चरित्र अच्छा है या बुरा। मूल्यांकन सटीक हो, इसके लिए तुम्हें उसे उसके समग्र आचरण और इस बात पर आधारित करना चाहिए कि उसके विचार और दृष्टिकोण सही हैं या नहीं। अगर कोई व्यक्ति कहीं पड़ी मिली कोई बहुत ही मूल्यवान वस्तु उसके असली मालिक को लौटाने में सक्षम है, तो इससे सिर्फ यह पता चलता है कि वह लालची नहीं है और वह अन्य लोगों की संपत्ति का लालच नहीं करता। उसमें अच्छे नैतिक आचरण का यह पहलू है, लेकिन क्या इसका उसके आचरण और सकारात्मक चीजों के प्रति उसके रवैये से कोई लेना-देना है? (नहीं।) संभव है, कुछ लोग इससे सहमत न हों, वे इस दावे को थोड़ा व्यक्तिपरक और गलत मानेंगे। लेकिन, इस पर एक अलग परिप्रेक्ष्य से विचार करने पर, अगर कोई व्यक्ति कोई उपयोगी चीज खो देता है, तो क्या वह इसके बारे में बहुत चिंतित नहीं होगा? इसलिए, जिस व्यक्ति को वह वस्तु मिलती है, चाहे उसे कुछ भी मिले, वह उसकी नहीं है, इसलिए उसे वह वस्तु अपने पास नहीं रखनी चाहिए। चाहे वह कोई भौतिक वस्तु हो या धन, चाहे वह मूल्यवान हो या मूल्यहीन, वह उसका नहीं है—तो क्या उस वस्तु को उसके असली मालिक को लौटाना उसका कर्तव्य नहीं है? क्या यही वह चीज नहीं है, जो लोगों को करनी चाहिए? इसे बढ़ावा देने का क्या महत्व है? क्या यह तिल का ताड़ बनाना नहीं है? क्या उठाए गए धन को जेब में न रखने को एक उत्कृष्ट नैतिक गुण मानना और उसे एक ऊँचे, आध्यात्मिक संदर्भ में ऊपर उठाना अतिरंजना नहीं है? क्या यह एक अच्छा व्यवहार अच्छे लोगों के बीच जिक्र करने लायक भी है? बहुत-से व्यवहार इससे भी बेहतर और ऊँचे हैं, इसलिए उठाए गए धन को जेब में न रखना जिक्र करने लायक नहीं है। हालाँकि, अगर तुम भिखारियों और चोरों के बीच इस अच्छे व्यवहार का जोर-शोर से प्रचार-प्रसार करो, तो यह उचित होगा, और इसका कुछ उपयोग हो सकता है। अगर कोई देश जोर-शोर से यह प्रचार करता है कि “उठाए गए धन को जेब में मत रखो,” तो यह दर्शाता है कि वहाँ के लोग पहले से ही बहुत बुरे हैं, कि देश लुटेरों और चोरों से भर गया है और वह उनसे रक्षा करने में असमर्थ है। इसलिए, समस्या हल करने के लिए इस तरह के व्यवहार को बढ़ावा देना और प्रचारित करना ही उसका एकमात्र सहारा है। दरअसल, यह व्यवहार हमेशा से लोगों का कर्तव्य रहा है। उदाहरण के लिए, अगर किसी को सड़क पर पचास युआन मिलते हैं और वह उन्हें आसानी से उसके असली मालिक को लौटा देता है, तो क्या यह इतना महत्वहीन नहीं है कि इसका जिक्र भी न किया जाए? क्या वाकई इसे सराहने की जरूरत है? क्या तिल का ताड़ बनाना और इस व्यक्ति की प्रशंसा करना, यहाँ तक कि उसके उत्कृष्ट और सम्मानजनक नैतिक आचरण के लिए उसकी सराहना करना सिर्फ इसलिए आवश्यक है कि उसने उस व्यक्ति को धन लौटा दिया, जिसने उसे खो दिया था? क्या खोया हुआ धन उसके असली मालिक को लौटाना सामान्य और स्वाभाविक बात नहीं है? क्या यह एक ऐसी चीज नहीं है, जो सामान्य विवेक वाले व्यक्ति को करनी ही चाहिए? सामाजिक नैतिकताओं को न समझने वाला एक छोटा बच्चा भी ऐसा करने में सक्षम होगा, तो क्या इसे इतनी बड़ी बात बनाना वाकई जरूरी है? क्या यह व्यवहार वास्तव में मनुष्य की नैतिकता के स्तर तक ऊपर उठाने योग्य है? मेरी राय में, इसे इस स्तर तक नहीं उठाया जा सकता, और यह प्रशंसा के योग्य नहीं है। यह सिर्फ एक क्षणिक अच्छा व्यवहार है और इसका बुनियादी स्तर पर वास्तव में एक अच्छा इंसान होने से कोई संबंध नहीं है। उठाए गए धन को जेब में न रखना बहुत मामूली बात है। यह ऐसी चीज है, जिसे कोई भी सामान्य व्यक्ति और मानव-त्वचा धारण करने या मानव-भाषा बोलने वाला हर व्यक्ति करने में सक्षम होना चाहिए। यह ऐसी चीज है, जिसे लोग कर सकते हैं अगर वे कड़ी मेहनत करें, उन्हें इसे सिखाने के लिए किसी शिक्षक या विचारक की जरूरत नहीं है। एक तीन साल का बच्चा भी ऐसा करने में सक्षम है, और फिर भी, विचारकों और शिक्षकों ने इसे मनुष्य के नैतिक आचरण की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता माना है, और ऐसा करके उन्होंने बिना बात के बतंगड़ खड़ा कर दिया है। भले ही “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” ऐसा कथन है, जो मनुष्य के नैतिक आचरण का मूल्यांकन करता है, लेकिन यह मूलभूत रूप से यह मापने के स्तर तक नहीं पहुँचता कि व्यक्ति के पास मानवता या उत्कृष्ट नैतिकता है या नहीं। इसलिए, किसी व्यक्ति की मानवता की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने के लिए “उठाए गए धन को जेब में मत रखो” का उपयोग करना गलत और अनुपयुक्त दोनों है।
परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।