सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (5) भाग तीन

नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति की कहावतें शैतान से आती हैं। वे भ्रष्ट मनुष्यों के बीच उत्पन्न हुई हैं, और वे सिर्फ गैर-विश्वासियों और सत्य से प्रेम न करने वालों के लिए ही उपयुक्त हैं। परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों को पहले इन चीजों को समझने और नकारने में सक्षम होना चाहिए, क्योंकि इन कहावतों का लोगों पर कुछ नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, वे उन्हें दिग्भ्रमित कर गलत रास्ते पर ले जाएँगी। उदाहरण के लिए, हमने अभी जो उदाहरण दिए, उनमें एक कहावत है : “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती।” आओ, पहले इस बारे में बात करते हैं, “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती।” अगर यह राजा एक बुद्धिमान, सक्षम और सकारात्मक व्यक्ति है, तो तुम्हारा उसका समर्थन, अनुसरण और बचाव करना दर्शाता है कि तुममें मानवता, आचार-विचार और नेक चरित्र है। लेकिन अगर राजा निरंकुश और मूर्ख है, शैतान है, और तुम फिर भी उसका अनुसरण और बचाव करते हो और उसके खिलाफ नहीं जाते, तो तुममें यह कैसी “वफादारी” है? यह एक मूर्खतापूर्ण, अंधी वफादारी है; यह अंधी और मूर्खतापूर्ण है। उस स्थिति में, तुम्हारी वफादारी गलत है और वह एक नकारात्मक चीज बन गई है। जब इस तरह के राक्षस राजा और शैतान की बात आती है, तो तुम्हें अब इस कहावत : “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती,” का पालन नहीं करना चाहिए। तुम्हें इस राजा को त्याग और नकार देना चाहिए और उससे दूर हो जाना चाहिए—तुम्हें अँधेरा त्याग देना चाहिए और प्रकाश चुनना चाहिए। अगर तुम अभी भी इस दानव राजा के प्रति वफादार रहना चुनते हो, तो तुम उसके अनुचर और अपराध के साथी हो। इसलिए, कुछ परिस्थितियों और संदर्भों में, वह विचार या सकारात्मक अर्थ और मूल्य, जिनकी यह कहावत बड़ाई करती है, मौजूद नहीं रहते। इससे तुम देख सकते हो कि हालाँकि यह कहावत बहुत न्यायप्रिय और सकारात्मक लगती है, इसका प्रयोग कुछ विशेष परिस्थितियों और संदर्भों तक ही सीमित है; यह हर परिस्थिति या संदर्भ में लागू नहीं होती। अगर लोग आँख मूँदकर और मूर्खतापूर्वक इस कहावत का पालन करते हैं, तो वे अपना रास्ता खो देंगे और गलत रास्ते पर जा गिरेंगे। इसके परिणाम अकल्पनीय हैं। इस कहावत में अगला खंड है : “अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती।” “अच्छी महिला” से यहाँ क्या आशय है? यह एक ऐसी महिला को संदर्भित करता है जो पवित्र है, जो सिर्फ एक पति के प्रति वफादार है। उसे अंत तक उसी के प्रति वफादार रहना चाहिए, और कभी उसका मन बदलना नहीं चाहिए, चाहे वह अच्छा व्यक्ति हो या नहीं। अगर उसका पति मर भी जाए, तो भी उसे आजीवन विधवा ही रहना चाहिए। वह एक तथाकथित पवित्र और वफादार पत्नी है। परंपरागत संस्कृति सभी महिलाओं से पवित्र और वफादार पत्नी होने की अपेक्षा करती है। क्या यह महिलाओं के साथ पेश आने का उचित तरीका था? पुरुष एक से ज्यादा पत्नियाँ क्यों रख सकते थे, और पति के मर जाने पर भी महिलाएँ पुनर्विवाह क्यों नहीं कर सकती थीं? पुरुषों और महिलाओं को समान दर्जा प्राप्त नहीं था। अगर महिला इन शब्दों से विवश रहे कि “अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” और पवित्र और वफादार पत्नी बनने का चुनाव करे, तो उसे क्या हासिल होगा? ज्यादा से ज्यादा, उसकी मृत्यु के बाद उसकी पवित्रता की याद में एक स्मारक बनाया जाता। क्या यह सार्थक है? क्या तुम लोग इस बात से सहमत हो कि जीवन में महिलाओं की नियति बहुत कठिन थी? पति की मृत्यु के बाद उन्हें पुनर्विवाह का अधिकार क्यों नहीं था? यह वह दृष्टिकोण है, जिसकी परंपरागत संस्कृति बड़ाई करती है, और यह एक ऐसी धारणा है, जिससे मानवजाति हमेशा चिपकी रही है। अगर किसी महिला का पति अपने पीछे कई बच्चे छोड़कर मर गया हो और वह उनकी देखभाल करने में असमर्थ हो, तो वह क्या कर सकती थी? उसे भोजन के लिए भीख माँगनी पड़ती। अगर वह अपने बच्चों को कष्ट में न देखना चाहती और जीवित रहने का कोई रास्ता खोजना चाहती, तो उसे पुनर्विवाह करना पड़ता और बदनाम होना, और जनमत की निंदा सहनी होती और समाज और जनता द्वारा परित्यक्त और तिरस्कृत होकर रहना पड़ता। उसे शर्मिंदा होना पड़ता और समाज के हाथों अपमान सहना पड़ता, ताकि उसके बच्चों की सामान्य परवरिश हो सके। इस परिप्रेक्ष्य से, हालाँकि वह “अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” के मानक पर खरी नहीं उतरी, पर क्या उसके व्यवहार, नजरिये और बलिदान सम्मान के योग्य नहीं थे? कम से कम जब उसके बच्चे बड़े होंगे और अपनी माँ के प्यार को समझेंगे, तो वे उसका सम्मान करेंगे और निश्चित रूप से उसके व्यवहार के लिए उसे नीची निगाह से नहीं देखेंगे या उससे किनारा नहीं करेंगे। इसके बजाय, वे उसके आभारी होंगे, और सोचेंगे कि उनकी जैसी माँ असाधारण है। हालाँकि, जनमत उनसे सहमत नहीं होगा। समाज के परिप्रेक्ष्य से, जो “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” के परिप्रेक्ष्य के समान है, जिसकी मनुष्य वकालत करता है, चाहे तुम इसे कैसे भी देखो, यह माँ एक अच्छी इंसान नहीं थी, क्योंकि उसने नैतिकता की इस परंपरागत धारणा का उल्लंघन किया। नतीजतन, वे उस पर समस्याग्रस्त नैतिक आचरण का ठप्पा लगाएँगे। तो फिर, उसके प्रति उसके बच्चों के विचार और दृष्टिकोण परंपरागत संस्कृति के दृष्टिकोण से भिन्न क्यों होंगे? क्योंकि उसके बच्चे इस मुद्दे को जीवित रहने के परिप्रेक्ष्य से देखेंगे। अगर इस महिला ने पुनर्विवाह न किया होता, तो उसके और उसके बच्चों के पास जीवित रहने का कोई साधन न होता। अगर वह इस परंपरागत धारणा पर टिकी होती, तो उसके पास जीने का कोई रास्ता न होता—वह भूखों मर जाती। उसने अपनी और अपने बच्चों की जान बचाने के लिए दोबारा शादी करने का चुनाव किया। इस संदर्भ के आलोक में, क्या परंपरागत संस्कृति और जनमत द्वारा उसकी निंदा पूरी तरह से गलत नहीं है? उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि लोग जीते हैं या मरते हैं! तो, नैतिकता की इस परंपरागत धारणा को बनाए रखने का क्या अर्थ और मूल्य है? कहा जा सकता है कि इसमें कोई मूल्य ही नहीं है। यह ऐसी चीज है, जो लोगों को चोट और नुकसान पहुँचाती है। इस धारणा के शिकार के रूप में, इस महिला और उसके बच्चों ने इस तथ्य का प्रत्यक्ष अनुभव किया, लेकिन किसी ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया या उनके साथ सहानुभूति नहीं जताई। वे अपना दर्द सहने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे। तुम लोग क्या सोचते हो, क्या यह समाज न्यायसंगत है? इस तरह का समाज और देश इतना दुष्ट और अँधकार से भरा क्यों है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि परंपरागत संस्कृति, जिसे शैतान ने मनुष्य में रोपा है, अभी भी लोगों की सोच को नियंत्रित करती है और जनमत पर हावी है। आज तक कोई भी व्यक्ति इस मुद्दे को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाया है। गैर-विश्वासी अभी भी परंपरागत संस्कृति की धारणाओं और विचारों से चिपके हुए हैं, और सोचते हैं कि वे सही हैं। आज तक उन्होंने इन चीजों का त्याग नहीं किया है।

अब, जब हम इस कहावत को देखते हैं, “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” तो तुम देख सकते हो कि चाहे हम इसे किसी भी परिप्रेक्ष्य से देखें, यह सकारात्मक चीज नहीं है, यह विशुद्ध रूप से मनुष्य की धारणा और कल्पना है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह सकारात्मक चीज नहीं है? (क्योंकि यह सत्य नहीं है, यह मनुष्य की धारणा और कल्पना है।) वास्तव में, बहुत कम लोग वह कर सकते हैं, जो यह वाक्यांश कहता है। यह सिर्फ एक खोखला सिद्धांत और मनुष्य की धारणा और कल्पना है, लेकिन चूँकि इसने लोगों के दिलों में जड़ें जमा लीं, इसलिए यह एक तरह का लोकप्रिय जनमत बन गया, और कई लोगों ने इसी के अनुसार इस तरह के मामलों का आकलन किया। तो, उस परिप्रेक्ष्य और रुख का सार क्या है, जिससे लोकप्रिय जनमत इस तरह के मामलों का आकलन करता है? लोकप्रिय जनमत ने पुनर्विवाह करने वाली महिला का इतनी कठोरता से आकलन क्यों किया? लोगों ने इस तरह के इंसान की आलोचना क्यों की, उससे दूर क्यों रहे और उसे हेय दृष्टि से क्यों देखा? कारण क्या था? तुम लोग नहीं समझते, है न? जब तथ्यों की बात आती है, तो तुम लोग अस्पष्ट रहते हो; तुम बस इतना जानते हो कि यह सत्य नहीं है और यह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं है। ठीक है, मैं तुम लोगों को बताऊँगा, जब मैं अपनी बात पूरी कर लूँगा तो तुम लोग इस तरह की चीज स्पष्टता से देख पाओगे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि लोकप्रिय जनमत ने इस महिला को सिर्फ एक चीज और एक कार्य—उसके पुनर्विवाह—के आधार पर आँका और उसकी मानवता की वास्तविक गुणवत्ता को देखने के बजाय उसी एक चीज के आधार पर उसकी मानवता की गुणवत्ता को संकीर्ण रूप से परिभाषित किया। क्या यह अनुचित और अन्यायपूर्ण नहीं है? लोकप्रिय जनमत ने यह नहीं देखा कि महिला की मानवता आम तौर पर कैसी थी—वह एक दुष्ट इंसान थी या एक दयालु इंसान, वह सकारात्मक चीजों से प्यार करती थी या नहीं, क्या उसने अन्य लोगों को चोट या नुकसान पहुँचाया, या पुनर्विवाह करने से पहले क्या वह दुराचारी महिला थी। क्या समाज और लोकप्रिय जनमत में लोगों ने इन चीजों के आधार पर इस महिला का विस्तार से मूल्यांकन किया? (नहीं, उन्होंने नहीं किया।) तो उस समय लोगों ने उसका मूल्यांकन किस आधार पर किया था? “अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” इस कहावत के आधार पर किया। सभी ने सोचा, “महिलाओं को सिर्फ एक बार शादी करनी चाहिए। अगर तुम्हारे पति की मृत्यु हो जाती है, तो भी तुम्हें जीवन भर विधवा ही रहना चाहिए। आखिर तुम एक महिला हो। अगर तुम अपने पति की स्मृति के प्रति वफादार रहती हो और पुनर्विवाह नहीं करती, तो हम तुम्हारी पवित्रता की याद में एक स्मारक बना देंगे—हम तो दस स्मारक भी बना सकते हैं! किसी को परवाह नहीं होगी कि तुम कितना कष्ट उठाती हो, या तुम्हारे लिए अपने बच्चों की परवरिश करना कितना मुश्किल है। अगर तुम्हें खाने के लिए सड़कों पर भीख भी माँगनी पड़े, तो भी कोई परवाह नहीं करेगा। तुम्हें फिर भी इस कहावत का पालन करना चाहिए : ‘अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती।’ यह करके ही तुम एक अच्छी महिला बनोगी और तुममें मानवता और शील होगा। अगर तुम पुनर्विवाह करती हो, तो तुम एक बुरी औरत और पतुरिया हो।” इसका तात्पर्य यह है कि सिर्फ पुनर्विवाह न करके ही कोई महिला अच्छे नैतिक आचरण और चरित्र वाली एक अच्छी, पवित्र और वफादार इंसान बन सकती है। परंपरागत संस्कृति की परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता की अवधारणाओं के भीतर “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” यह कहावत लोगों का मूल्यांकन करने का आधार बन गई। लोगों ने इस कहावत को सत्य मान लिया और इसे दूसरों के मूल्यांकन के लिए एक मानक के रूप में इस्तेमाल किया। यही इस मामले का सार है। चूँकि किसी का व्यवहार परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रस्तुत अपेक्षाओं और मानकों के अनुरूप नहीं था, इसलिए उस पर निम्न गुणवत्ता वाली मानवता और निम्न नैतिक आचरण वाला, खराब और भयानक मानवता वाला इंसान होने का ठप्पा लगा दिया गया। क्या यह जरा भी उचित है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) फिर, एक अच्छी महिला होने के लिए परिस्थितियाँ क्या होंगी और तुम्हें क्या कीमत चुकानी होगी? अगर तुम एक अच्छी महिला बनना चाहती हो, तो तुम्हें सिर्फ एक पति के प्रति वफादार होना चाहिए, और अगर तुम्हारे पति की मृत्यु हो जाती है, तो तुम्हें विधवा रहना चाहिए। तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को गलियों में जाकर भीख माँगनी चाहिए, और दूसरों का उपहास, मारपीट, चिल्लाना, धौंस और अपमान सहना चाहिए। क्या यह महिलाओं के साथ पेश आने का सही तरीका है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) फिर भी मनुष्य यही करते हैं, बल्कि वे तुम्हें सड़कों पर भीख तक माँगते, बेघर होकर जीते देखना पसंद करेंगे, उन्हें पता नहीं तुम्हारा अगला भोजन कहाँ से आएगा, और कोई तुम्हारी परवाह नहीं करेगा, तुमसे सहानुभूति नहीं रखेगा, या तुम पर ध्यान नहीं देगा। चाहे तुम्हारे कितने भी बच्चे हों या तुम्हारा जीवन कितना भी कठिन हो, भले ही तुम्हारे बच्चे भूखे मर जाएँ, कोई परवाह नहीं करेगा। लेकिन अगर तुम पुनर्विवाह करती हो, तो तुम अच्छी महिला नहीं हो। तुम्हें तिरस्कार और घृणा के शब्दों से लाद दिया जाएगा, और तुम्हें गाली और निंदा के कुछ शब्दों से कहीं अधिक झेलना होगा। तुम्हें हर तरह की बातें कही जाएँगी, और सिर्फ तुम्हारे बच्चे और कुछ रिश्तेदार और दोस्त ही तुमसे सहानुभूति और समर्थन के शब्द कहेंगे। यह कैसे हो गया? यह सीधे परंपरागत संस्कृति की शिक्षा और अनुकूलन से जुड़ा है। यह इस कहावत का परिणाम है, “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” जिसकी वकालत परंपरागत संस्कृति करती है। इन चीजों से क्या देखा जा सकता है? “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” इस कहावत में क्या छिपा है? मनुष्य का झूठ, पाखंड और क्रूरता। किसी महिला के पास खाने के लिए कुछ न हो, वह जीवित रहने में असमर्थ हो, और भूख से मरने के कगार पर हो, पर कोई उसके साथ सहानुभूति नहीं रखेगा; इसके बजाय, सभी उससे अपेक्षा करेंगे कि वह अपनी पवित्रता बनाए रखे। लोग उसे जिंदा रहने का चुनाव न करने देकर भूख से मरते देखना पसंद करेंगे और उसके सम्मान में एक स्मारक बनवाएँगे। एक संदर्भ में, यह मुद्दा मानवजाति की हठधर्मिता उजागर करता है। दूसरे संदर्भ में, यह मानवजाति का झूठ और उसकी क्रूरता उजागर करता है। मानवजाति कमजोर समूहों या दया के योग्य लोगों को कोई सहानुभूति, समझ या सहायता प्रदान नहीं करती। इसके अतिरिक्त, मानवजाति इस हास्यास्पद सिद्धांत और नियम का उपयोग करके कि “अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” कटे पर नमक छिड़कती है, ताकि लोगों की निंदा कर उन्हें मौत के मुँह में धकेले। यह लोगों के साथ उचित व्यवहार नहीं है। यह न सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सृष्टि के प्रभु द्वारा मानवजाति से की जाने वाली माँगों के विरुद्ध जाता है, बल्कि मनुष्य के जमीर और विवेक के मानकों का भी खंडन करता है। तो क्या महिला के बच्चों ने जिस परिप्रेक्ष्य से इस मुद्दे को देखा, वह उचित है? क्या उन्हें अपनी माँ की दूसरी शादी और उसके द्वारा चुकाई गई कीमत से वास्तविक तौर पर लाभ नहीं हुआ? खुद इस कार्य के संबंध में, बच्चों ने अपनी माँ का सम्मान और समर्थन किया, लेकिन वह समर्थन कहाँ से आया? ऐसा सिर्फ इसलिए है, क्योंकि उनकी माँ ने उनके अस्तित्व के लिए पुनर्विवाह करना चुना, जिससे वे जीवित रह सकें और अपनी जान बचा सकें। बस इतना ही। अगर उनकी माँ ने उनकी जान बचाने के लिए ऐसा न किया होता, तो वे पुनर्विवाह के उसके फैसले को स्वीकार या उसका समर्थन न करते। इसलिए, उसके बच्चों का अपनी माँ के पुनर्विवाह के बारे में विचार वास्तव में न्यायसंगत नहीं था। किसी भी तरह से, चाहे वह लोकप्रिय जनमत के परिप्रेक्ष्य से हो या उसके बच्चों के परिप्रेक्ष्य से, जिस तरह से लोगों ने इस माँ के साथ व्यवहार किया और उसके मूल्यांकन के लिए जिन मानकों का इस्तेमाल किया, वे उसकी मानवता की वास्तविक प्रकृति पर आधारित नहीं थे। यह वह गलती थी, जो मनुष्यों ने पुनर्विवाह करने वाली महिला के साथ अपने व्यवहार में की। इससे, यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रस्तुत यह कहावत, “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” परमेश्वर से नहीं, बल्कि शैतान से आती है, और इसका सत्य से कुछ भी लेना-देना नहीं है। जिन परिप्रेक्ष्यों से लोग सभी चीजों को देखते हैं, और जिस तरह से वे किसी व्यक्ति की नैतिकता या अनैतिकता को देखते हैं, वे सत्य या परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं हैं, वे परंपरागत संस्कृति के विचारों और परंपरागत संस्कृति की परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता की अवधारणाओं द्वारा मनुष्य से की गई माँगों पर आधारित हैं। परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता क्या हैं? ये अवधारणाएँ कहाँ से आती हैं? ऊपर से तो ऐसा लगता है जैसे वे पुराने संतों और प्रसिद्ध लोगों से आती हैं, लेकिन वास्तव में वे शैतान से आती हैं। ये वे विभिन्न कहावतें हैं, जिन्हें शैतान ने लोगों के व्यवहार को नियंत्रित और प्रतिबंधित करने के लिए, और लोगों के नैतिक आचरण के लिए एक मानक, प्रतिमान और साँचा स्थापित करने के लिए प्रस्तुत किया है। वास्तव में, इन पुराने संतों और प्रसिद्ध लोगों की शैतानी प्रकृति थी और वे सभी शैतान के लिए सेवा प्रदान करते थे। वे लोगों को गुमराह करने वाले दानव थे। इसलिए, यह कहना पूरी तरह से तथ्यात्मक है कि ये अवधारणाएँ शैतान से आई हैं।

जब लोग दूसरों के नैतिक चरित्र का और इस बात का मूल्यांकन करते हैं कि उनकी मानवता अच्छी है या बुरी, तो वे सिर्फ परंपरागत संस्कृति की एक प्रसिद्ध कहावत के आधार पर ऐसा करते हैं; वे दूसरे लोगों की मानवता की गुणवत्ता के संबंध में सिर्फ इस आधार पर किसी निर्णय और निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि वे किसी एक मामले के प्रति कैसा रुख अपनाते हैं। यह स्पष्ट रूप से गलत और अनुचित है। तो, व्यक्ति सटीक, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष तरीके से यह मूल्यांकन कैसे कर सकता है कि किसी की मानवता अच्छी है या बुरी? उसके मूल्यांकन के लिए क्या सिद्धांत और मानक हैं? सटीक शब्दों में, सत्य ही इस मूल्यांकन का सिद्धांत और मानक होना चाहिए। सिर्फ सृष्टिकर्ता के वचन ही सत्य हैं और सिर्फ उन्हीं में अधिकार और सामर्थ्य है। भ्रष्ट मनुष्यों के वचन सत्य नहीं हैं, उनमें कोई अधिकार नहीं है, और उन्हें किसी के मूल्यांकन के लिए आधार या सिद्धांतों के रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए, लोगों के नैतिक चरित्र का और इस बात का मूल्यांकन करने का कि उनकी मानवता अच्छी है या बुरी, एकमात्र सटीक, वस्तुनिष्ठ और उचित तरीका है सृष्टिकर्ता के वचनों और सत्य का अपने आधार के रूप में उपयोग करना। “वफादार प्रजा दो राजाओं की सेवा नहीं कर सकती, अच्छी महिला दो पतियों से शादी नहीं कर सकती,” भ्रष्ट मनुष्यों के बीच एक प्रसिद्ध कहावत है। इसका स्रोत सही नहीं है, यह शैतान से आती है। अगर लोग शैतान के शब्दों के आधार पर दूसरों की मानवता की गुणवत्ता मापते हैं, तो उनके निष्कर्ष निश्चित रूप से गलत और अनुचित होंगे। तो, कोई व्यक्ति किसी की नैतिकता की गुणवत्ता और इस बात का निष्पक्ष और सटीक रूप से मूल्यांकन कैसे कर सकता है कि उसकी मानवता अच्छी है या बुरी? इसका आधार यह होना चाहिए कि वह व्यक्ति किस इरादे से कार्य करता है, उसके कार्य के लक्ष्य और परिणाम क्या हैं, इसके साथ-साथ यह उसके द्वारा किए गए कार्यों के अर्थ और मूल्य पर आधारित होना चाहिए, साथ ही इसे इस पर भी आधारित करना चाहिए कि सकारात्मक चीजों से पेश आने के संबंध में उसके विचार और इस बारे में उसके द्वारा चुने गए विकल्प क्या हैं। यह बिल्कुल सटीक होगा। उस व्यक्ति को परमेश्वर का विश्वासी होने की आवश्यकता नहीं है—तुम देख सकते हो कि कुछ ऐसे गैर-विश्वासी हैं, जिन्हें भले ही परमेश्वर द्वारा नहीं चुना गया, फिर भी उनमें वस्तुनिष्ठ रूप से अच्छी मानवता है, इस हद तक कि उनकी मानवता परमेश्वर के कुछ विश्वासियों से भी उच्च गुणवत्ता वाली है। ठीक उसी तरह, जैसे कुछ धार्मिक लोग, जिन्होंने अंत के दिनों के परमेश्वर का कार्य स्वीकारा है, और जो कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, भाई-बहनों की मेजबानी करने पर हमेशा कलीसिया से पैसे माँगने के बारे में सोचते हैं, और भाई-बहनों के सामने हमेशा रोना रोते हैं कि वे गरीब हैं, जबकि वे पैसे और चीजों का लालच करते रहते हैं। जब भाई-बहन उन्हें मेजबानी करते समय इस्तेमाल करने के लिए कुछ माँस, सब्जियाँ, अनाज आदि देते हैं, तो वे उन्हें चुपके से अपने परिवार के खाने के लिए रख लेते हैं। ये किस तरह के लोग हैं? उनकी मानवता अच्छी है या बुरी? (वह बुरी है।) इस तरह के लोग लालची होते हैं, वे लोगों का फायदा उठाना पसंद करते हैं, और वे नीच चरित्र के होते हैं। अंत के दिनों के परमेश्वर का कार्य सीधे स्वीकार लेने वाले कुछ गैर-विश्वासी भाई-बहनों की मेजबानी करने के खूब इच्छुक रहते हैं। वे उनकी मेजबानी करने के लिए अपने ही पैसे का उपयोग करने पर जोर देते हैं और कलीसिया का पैसा लेने से मना कर देते हैं। चाहे कलीसिया उन्हें कितना भी पैसा दे, वे उसकी एक कौड़ी का भी उपयोग नहीं करते, और वे उन पैसों का जरा भी लालच नहीं करते—वे उसे पूरा बचाते हैं और बाद में वापस कलीसिया को दे देते हैं। जब भाई-बहन मेजबानी के समय उनके उपयोग के लिए कुछ चीजें खरीदते हैं, तो वे उन्हें उन भाई-बहनों के इस्तेमाल और खाने के लिए सहेज लेते हैं, जिनकी वे मेजबानी करते हैं। उन भाई-बहनों के चले जाने के बाद वे उन चीजों को भंडार-गृह में रख देते हैं, और उन्हें फिर तभी बाहर निकालते हैं, जब अगली बार कुछ भाई-बहन रहने के लिए उनके पास आते हैं। उनके मन में एक बहुत स्पष्ट अंतर होता है और उन्होंने कभी भी कलीसिया की किसी भी चीज का दुरुपयोग नहीं किया होता। उन्हें यह किसने सिखाया? उनसे किसी ने नहीं कहा, तो फिर उन्होंने कैसे जाना कि उन्हें क्या करना है? वे ऐसा कैसे कर पाए? अधिकांश लोग ऐसा करने में असमर्थ रहते हैं, लेकिन वे कर पाते हैं। यहाँ क्या समस्या है? क्या यह मानवता में अंतर नहीं है? यह उनकी मानवता की गुणवत्ता में अंतर है, और उनके शीलाचार में अंतर है। चूँकि इन दो तरह के लोगों के शीलाचार में अंतर होता है, तो क्या सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति उनके रवैये में भी अंतर होता है? (हाँ, होता है।) इन दो तरह के लोगों में से किस तरह के लोगों के लिए सत्य में प्रवेश करना आसान होगा? किस तरह के लोगों द्वारा सत्य का अनुसरण करने की ज्यादा संभावना है? अच्छे शीलाचार वाले लोगों द्वारा सत्य का अनुसरण करने की ज्यादा संभावना है। क्या तुम लोग इसे इसी तरह से देखते हो? तुम लोग इसे इस तरह से नहीं देखते, तुम बस यह सोचते हुए आँख मूँदकर नियम लागू कर देते हो कि जो धार्मिक लोग शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना जानते हैं, वे ऐसा करने में सक्षम होंगे, और गैर-विश्वासी, जिन्होंने अभी परमेश्वर में विश्वास करना शुरू ही किया है और जो अभी शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने में सक्षम नहीं हैं, ऐसा करने में असमर्थ हैं। हालाँकि, वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। क्या लोगों और चीजों को इस तरह से देखना तुम लोगों के लिए गलत और हास्यास्पद नहीं है? मैं चीजों को इस तरह से नहीं देखता। जब मैं लोगों के साथ बातचीत करता हूँ, तो मैं व्यापक रूप से विभिन्न चीजों के प्रति उनका रवैया देखता हूँ, विशेष रूप से यह कि एक ही स्थिति आने पर दो अलग-अलग तरह के लोग कैसे व्यवहार करते और क्या विकल्प चुनते हैं। यह इस बात का बेहतर उदाहरण होता है कि उनकी मानवता कैसी है। इन दो नजरियों में से कौन-सा न्यायपूर्ण और ज्यादा वस्तुनिष्ठ है? व्यक्ति का मूल्यांकन उसके बाहरी कार्यों के बजाय उसके प्रकृति-सार के आधार पर करना ज्यादा उचित है। अगर कोई अपना मूल्यांकन परंपरागत संस्कृति के विचारों पर आधारित करता है और किसी एक स्थिति में किए गए व्यक्ति के कार्यों को लेकर उनका इस्तेमाल उसके बारे में निर्णय देने और निष्कर्ष निकालने के लिए करता है, तो यह गलत है और यह उस व्यक्ति के प्रति अन्याय है। व्यक्ति को उसकी मानवता की गुणवत्ता, समग्र रूप से उसके व्यवहार, और जिस मार्ग पर वह चलता है, उसके आधार पर सटीक मूल्यांकन करना चाहिए। सिर्फ यही उचित और तर्कसंगत है, और यह उस व्यक्ति के प्रति न्यायसंगत भी है।

नैतिक आचरण के बारे में जो दावे हमने आज यहाँ सूचीबद्ध किए हैं, उनमें से किसी का भी परमेश्वर के वचनों से कोई लेना-देना नहीं है, और उनमें से कोई भी सत्य के अनुरूप नहीं है। कोई कहावत कितनी भी परंपरागत या सकारात्मक क्यों न हो, वह सत्य नहीं बन सकती। नैतिक आचरण के बारे में कहावतें परंपरागत संस्कृति द्वारा सराही गई चीजों से उत्पन्न होती हैं, और उनका उन सत्यों से कोई लेना-देना नहीं होता, जिनका अनुसरण करने की परमेश्वर मनुष्य से अपेक्षा करता है। चाहे लोग मनुष्य के नैतिक आचरण से संबंधित इन विभिन्न कहावतों को कितना भी अच्छा बताते हों, या लोग कितने भी अच्छे ढंग से उन पर खरे उतरते हों, या लोग कितनी भी दृढ़ता से उनसे चिपके रहते हों, इसका अर्थ यह नहीं कि ये कहावतें सत्य हैं। भले ही पृथ्वी पर अधिकांश लोग इन चीजों से चिपके रहते हों और इन पर विश्वास करते हों, वे सत्य नहीं बनेंगी—ठीक वैसे ही, जैसे झूठ फिर भी झूठ ही रहता है, भले ही तुम उसे हजार बार कहो। झूठ कभी सत्य नहीं बन सकता। झूठ शैतान की चालों से युक्त झूठी रचनाएँ होते हैं, इसलिए वे सत्य की जगह नहीं ले सकते, सत्य बनने की तो बात ही छोड़ दो। इसी तरह, नैतिक आचरण के संबंध में लोगों द्वारा की जाने वाली विभिन्न अपेक्षाएँ भी सत्य नहीं हो सकतीं। चाहे तुम उनसे कितने भी चिपके रहो या कितनी भी अच्छी तरह चिपके रहो, वह तुम्हारे बारे में बस यही बताता है कि मनुष्य की दृष्टि से तुम्हारे पास अच्छा नैतिक आचरण है—लेकिन क्या परमेश्वर की नजर में तुम्हारे पास मानवता है? ऐसा जरूरी नहीं है। इसके विपरीत, अगर तुम परंपरागत संस्कृति की परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता की अवधारणाओं के हर पहलू और नियम पर बहुत अच्छी तरह से और बारीकी से बने रहते हो, तो तुम सत्य से बहुत दूर भटक गए होगे। ऐसा क्यों? क्योंकि तुम नैतिक आचरण के बारे में इन दावों के अनुसार और इन्हें अपने मानदंड के रूप में इस्तेमाल करते हुए लोगों और चीजों को देख रहे होगे और आचरण व कार्य कर रहे होगे। यह दीवार-घड़ी देखने के लिए अपना सिर उठाने जैसा है—तुम्हारा दृष्टिकोण गलत होगा। इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों और तुम्हारे आचरण और कार्यकलापों का सत्य से या परमेश्वर की माँगों से कोई लेना-देना नहीं होगा, और तुम परमेश्वर के उस मार्ग से दूर होगे जिसका तुम्हें अनुसरण करना चाहिए—तुम विपरीत दिशा में भी दौड़ सकते हो, और इस तरह से कार्य कर सकते हो जो तुम्हारे लक्ष्य पूरे न होने दे। जितना ज्यादा तुम नैतिक आचरण के बारे में इन कहावतों से चिपके रहते हो और इन्हें सँजोते हो, उतना ही ज्यादा परमेश्वर तुमसे विमुख महसूस करेगा, तुम परमेश्वर और सत्य से उतने ही दूर चले जाओगे, और उतने ही ज्यादा तुम परमेश्वर के विरोध में होगे। चाहे तुम नैतिक आचरण के बारे में इनमें से किसी एक कहावत को कितना भी सही मानो, या तुम कितने भी समय तक उससे चिपके रहो, इसका मतलब यह नहीं कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। चाहे तुम परंपरागत संस्कृति के व्यवहार संबंधी मानकों में से जिसे भी सही और तर्कसंगत मानो, यह सकारात्मक चीजों की वास्तविकता नहीं है; यह बिल्कुल भी सत्य नहीं है, न ही यह सत्य के अनुरूप है। मैं तुमसे आग्रह करता हूँ कि तुम जल्दी से आत्मचिंतन करो : तुम जिस चीज से चिपके हुए हो, वह कहाँ से आती है? क्या लोगों का मूल्यांकन और उनसे माँग करने के लिए इसे सिद्धांत और मानक के रूप में उपयोग करने का परमेश्वर के वचनों में कोई आधार है? क्या इसका सत्य में कोई आधार है? क्या तुम्हें स्पष्ट है कि तुम्हारे परंपरागत संस्कृति की इस माँग का अभ्यास करने के क्या परिणाम होंगे? क्या इसका सत्य से कोई लेना-देना है? तुम्हें यह समझना और विश्लेषण करना चाहिए कि परंपरागत संस्कृति की इस माँग का अपने कार्यों के आधार और अपनी कसौटी के रूप में उपयोग करके और इसे एक सकारात्मक चीज समझकर तुम सत्य का खंडन कर रहे हो, परमेश्वर का विरोध कर रहे हो और सत्य का उल्लंघन कर रहे हो। अगर तुम परंपरागत संस्कृति द्वारा सराहे गए विचारों और कहावतों से आँख मूँदकर चिपके रहोगे, तो इसका क्या परिणाम होगा? अगर तुम इन कहावतों से गुमराह किए या छले जाते हो, तो तुम कल्पना कर सकते हो कि तुम्हारा परिणाम और अंत क्या होगा। अगर तुम लोगों और चीजों को परंपरागत संस्कृति के परिप्रेक्ष्य से देखते हो, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना कठिन होगा। तुम कभी भी लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार नहीं देख पाओगे। जो व्यक्ति सत्य समझता है, उसे नैतिक आचरण के बारे में परंपरागत संस्कृति के विभिन्न दावों और माँगों का विश्लेषण करना चाहिए। तुम्हें विश्लेषण करना चाहिए कि तुम उनमें से किसे सबसे ज्यादा सँजोते और किससे हमेशा चिपके रहते हो, जो हमेशा तुम्हारे लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने का आधार और कसौटी बनती है। फिर, तुम्हें उन चीजों को, जिनसे तुम चिपके रहते हो, तुलना के लिए परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के सामने रखकर यह देखना चाहिए कि परंपरागत संस्कृति के ये पहलू परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों का विरोध तो नहीं करते या उनसे टकराते तो नहीं। अगर वाकई कोई समस्या नजर आए, तो तुम्हें तुरंत विश्लेषण करना चाहिए कि वास्तव में परंपरागत संस्कृति के ये पहलू आखिर कहाँ गलत और बेतुके हैं। जब तुम इन मुद्दों पर स्पष्ट होगे, तो तुम जान जाओगे कि क्या सत्य है और क्या भ्रांति; तुम्हारे पास अभ्यास का मार्ग होगा, और तुम वह मार्ग चुन पाओगे जिस पर तुम्हें चलना चाहिए। इस तरह सत्य की खोज करके तुम अपना व्यवहार सुधारने में सक्षम हो जाओगे। चाहे लोगों के नैतिक चरित्र के बारे में मनुष्य की तथाकथित अपेक्षाएँ और कहावतें कितनी भी मानकीकृत हों, या चाहे वे जनता की रुचियों, दृष्टिकोणों, इच्छाओं, यहाँ तक कि उसके हितों के लिए कितने भी उपयुक्त हों, वे सत्य नहीं हैं। यह ऐसी चीज है, जिसे तुम्हें समझना चाहिए। और चूँकि वे सत्य नहीं हैं, इसलिए तुम्हें उन्हें जल्दी से नकार और त्याग देना चाहिए। तुम्हें उनके सार का, और उनके अनुसार जीने वाले लोगों से मिलने वाले परिणामों का भी विश्लेषण करना चाहिए। क्या वे वास्तव में तुममें सच्चा पश्चात्ताप जगा सकते हैं? क्या वे वाकई खुद को जानने में तुम्हारी मदद कर सकते हैं? क्या वे वाकई तुम्हें इंसान के समान जीने के लिए मजबूर कर सकते हैं? वे इनमें से कुछ नहीं कर सकते। वे तुम्हें केवल पाखंडी और आत्म-तुष्ट बना सकते हैं। वे तुम्हें और ज्यादा चालाक और दुष्ट बना देंगे। कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, “अतीत में जब हम परंपरागत संस्कृति के इन पहलुओं पर विश्वास रखते थे, तो हमें लगा, हम अच्छे लोग हैं। जब दूसरे लोगों ने देखा कि हम कैसा व्यवहार करते हैं, तो उन्हें भी लगा कि हम अच्छे लोग हैं। लेकिन वास्तव में, हम अपने दिल में जानते हैं कि हम किस तरह की बुराई करने में सक्षम हैं। थोड़ा-सा अच्छा करना सिर्फ उसे छिपाता है। लेकिन अगर हम वे अच्छे व्यवहार छोड़ दें, जिसकी परंपरागत संस्कृति हमसे माँग करती है, तो हमें उनके बजाय क्या करना चाहिए? कौन-से व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ हैं जिनसे परमेश्वर की महिमा होगी?” तुम इस प्रश्न के बारे में क्या सोचते हो? क्या वे अब भी नहीं जानते कि परमेश्वर के विश्वासियों को किन सत्यों का अभ्यास करना चाहिए? परमेश्वर ने बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं, और बहुत सारे सत्य हैं जिनका लोगों को अभ्यास करना चाहिए। तो तुम क्यों सत्य का अभ्यास करने से इनकार करते हो, और झूठमूठ के सज्जन बनने और पाखंडी होने पर जोर देते हो? तुम दिखावा क्यों कर रहे हो? कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, “परंपरागत संस्कृति के कई अच्छे पहलू हैं! जैसे, ‘एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए’—यह एक अद्भुत कहावत है! यही है, जिसका लोगों को अभ्यास करना चाहिए। तुम इसे ऐसे कैसे फेंक सकते हो? और ‘मैं अपने दोस्त के लिए गोली भी खा लूँगा’—कितना वफादार और वीर है! जीवन में ऐसा मित्र होना ऊँचा उठाने वाला है। यह कहावत भी है, ‘वसंत के रेशम के कीड़े मरते दम तक बुनते रहेंगे, और मोमबत्तियाँ बाती खत्म होने तक जलती रहेंगी।’ यह कहावत बहुत गहरी और संस्कृति से समृद्ध है! अगर तुम हमें इन कहावतों के अनुसार नहीं जीने देते, तो हम किससे जिएँ?” अगर तुम यही सोचते हो, तो तुमने जो वर्ष धर्मोपदेश सुनने में बिताए हैं, वे सब व्यर्थ गए। तुम यह तक नहीं समझते कि व्यक्ति को, कम से कम, जमीर और विवेक के मानकों के अनुसार जीते हुए आचरण करना चाहिए। तुमने रत्ती भर भी सत्य प्राप्त नहीं किया है, और तुमने ये वर्ष व्यर्थ ही जिए हैं।

संक्षेप में, हालाँकि हमने परंपरागत संस्कृति से नैतिक आचरण के बारे में ये कहावतें सूचीबद्ध कर ली हैं, फिर भी इसका उद्देश्य केवल तुम लोगों को यह सूचित करना नहीं है कि ये लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, और ये शैतान से आती हैं, और कुछ नहीं। यह तुम लोगों को यह स्पष्ट रूप से समझाने के लिए है कि इन चीजों का सार झूठा, गुप्त और कपटपूर्ण है। अगर लोगों में ये अच्छे व्यवहार हों भी, तो इसका किसी भी तरह से यह मतलब नहीं कि वे सामान्य मानवता जी रहे हैं। बल्कि, वे इन झूठे व्यवहारों का इस्तेमाल अपने इरादों और लक्ष्यों पर पर्दा डालने, और अपने भ्रष्ट स्वभाव और प्रकृति-सार छिपाने के लिए कर रहे हैं। नतीजतन, लोग ढोंग करने और दूसरों को धोखा देने में ज्यादा से ज्यादा बेहतर होते जा रहे हैं, जिसके कारण वे और भी ज्यादा भ्रष्ट और दुष्ट बनते जा रहे हैं। भ्रष्ट मनुष्य परंपरागत संस्कृति के जिन नैतिक मानकों से चिपका रहता है, वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों के साथ असंगत हैं, और वे परमेश्वर द्वारा लोगों को सिखाए गए किसी भी वचन के साथ संगत नहीं हैं, उनका आपस में कोई संबंध नहीं है। अगर तुम अभी भी परंपरागत संस्कृति के पहलुओं से चिपके रहते हो, तो तुम पूरी तरह से गुमराह और विषाक्त किए जा चुके हो। अगर कोई ऐसा मामला है, जिसमें तुम परंपरागत संस्कृति से चिपके रहते हो और उसके सिद्धांतों और विचारों का पालन करते हो, तो तुम उस मामले में परमेश्वर के प्रति विद्रोह और सत्य का उल्लंघन कर रहे हो, और परमेश्वर के खिलाफ जा रहे हो। अगर तुम नैतिक आचरण के बारे में इन दावों में से किसी से भी चिपके रहते हो और उसके प्रति प्रतिबद्ध रहते हो और उसे लोगों या चीजों को देखने का मानदंड या आधार मानते हो, तो यहीं तुम गलती करते हो, और अगर तुम कुछ हद तक लोगों की आलोचना करते हो या उन्हें नुकसान पहुँचाते हो, तो तुम पाप करते हो। अगर तुम हमेशा सभी को परंपरागत संस्कृति के नैतिक मानकों के अनुसार मापने पर जोर देते हो, तो उन लोगों की संख्या बढ़ती जाएगी, जिनकी तुम निंदा करते और जिनके साथ तुम गलत करते हो, और तुम निश्चित रूप से परमेश्वर की निंदा और विरोध करोगे, और तब तुम घोर पापी हो जाओगे। क्या तुम लोग नहीं देखते कि संपूर्ण मानवजाति परंपरागत संस्कृति की शिक्षा और अनुकूलन के तहत अधिकाधिक दुष्ट होती जा रही है? क्या दुनिया ज्यादा अंधकारपूर्ण नहीं हो रही? जो जितना ज्यादा शैतान और दानवों का होता है, वह उतना ही ज्यादा पूजा जाता है; जितना ज्यादा कोई सत्य का अभ्यास करता है, परमेश्वर के लिए गवाही देता है और परमेश्वर को प्रसन्न करता है, उतना ही ज्यादा उसका दमन, बहिष्कार, निंदा की जाएगी, यहाँ तक कि सूली पर चढ़ाकर मौत के घाट भी उतार दिया जाएगा। क्या यह तथ्य नहीं है? आगे बढ़ते हुए, आज हमने यहाँ जिस बारे में संगति की है, उस पर तुम लोगों को अक्सर संगति करनी चाहिए। अगर ऐसी चीजें हों, जिन पर संगति करने के बाद भी तुम उन्हें न समझ पाओ, तो उन्हें कुछ पल अलग रख देना जब तक कि तुम उन्हें समझ नहीं जाते और उन हिस्सों पर संगति करना, जिन्हें तुम सँभाल सकते हो। इन वचनों पर तब तक संगति करो, जब तक ये पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो जाते और तुम इन्हें पूरी तरह से समझ नहीं लेते, तब तुम लोग सत्य का सटीक रूप से अभ्यास करने और वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम होगे। जब तुम स्पष्ट रूप से यह पहचानने में सक्षम होते हो कि क्या कोई कहावत या चीज सत्य है, या क्या यह परंपरागत संस्कृति है और सत्य नहीं, तब तुम लोगों के पास सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए ज्यादा मार्ग होगा। अंत में, जब तुम संगति के माध्यम से हर उस सत्य को समझने में सक्षम हो जाते हो, जिसका तुम्हें अभ्यास करना चाहिए, और एक आम सहमति पर पहुँच जाते हो, जब तुम अपने विचारों और समझ में सुसंगत होते हो, जब तुम जानते हो कि कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं और कौन-सी नकारात्मक, कौन-सी चीजें परमेश्वर से आती हैं और कौन-सी शैतान से, और तुम इस विषय पर तब तक संगति करते हो जब तक तुम्हें ये चीजें स्पष्ट हो जातीं हैं और तुम इन्हें आर-पार देख लेते हो, सिर्फ तभी तुम सत्य समझ पाओगे। फिर, वे सत्य सिद्धांत चुनो, जिनका तुम्हें अभ्यास करना चाहिए। इस तरह, तुम वे व्यवहार संबंधी मानक पूरे करोगे जो परमेश्वर ने निर्धारित किए हैं, और कम से कम, तुममें कुछ मानवीय समानता होगी। अगर तुम सत्य समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम हो, तो तुम पूरी तरह से मानवीय समानता को जीने में सक्षम होगे। सिर्फ तभी तुम पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होगे।

5 मार्च 2022

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