सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4) भाग एक

आओ, हम यह याद करने से शुरुआत करें कि हमने अपनी पिछली सभा में किस पर संगति की थी। (अपनी पिछली सभा में हमने “सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है” विषय पर संगति की थी। हमने पहले इस प्रश्न पर ध्यान केंद्रित किया था : “यह देखते हुए भी कि वे चीजें, जिन्हें लोग अच्छा और सही मानते हैं, सत्य नहीं हैं, लोग उन चीजों से ऐसे क्यों चिपके रहते हैं मानो वे सत्य हों, और सोचते हैं कि ऐसा करके वे सत्य का अनुसरण कर रहे हैं?” तुमने इसके तीन कारण बताए। तुमने मुख्य रूप से उनमें से पहले के बारे में बात की, जो यह था कि वास्तव में वे चीजें कौन-सी हैं जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में अच्छी और सही मानते हैं।) अपनी पिछली सभा में हमने मुख्य रूप से पहले कारण के बारे में संगति की थी। हमने उन चीजों के बारे में बात की, जिन्हें लोग अपनी धारणाओं में अच्छी और सही मानते हैं, और हमने उन चीजों को दो व्यापक श्रेणियों में विभाजित किया : “अच्छे व्यवहार” और “अच्छा नैतिक आचरण।” कुल मिलाकर मैंने “अच्छे व्यवहारों” की पहली श्रेणी के छह उदाहरण दिए : सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला होना, मिलनसार होना और सुलभ होना। हमने अभी तक दूसरी श्रेणी, “अच्छे नैतिक आचरण” के बारे में संगति नहीं की है। कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर संगति करने के बाद हमें उनकी थोड़ी समीक्षा करनी चाहिए, उस संगति के सत्य और सिद्धांत सरल और स्पष्ट करने चाहिए, जिससे हर चीज साफ और स्पष्ट हो जाए। ऐसा करने से तुम्हें सत्य समझने में आसानी होगी। पिछली बार हमारी संगति में कुछ खंड और साथ ही कुछ विशिष्ट उदाहरण शामिल थे। वह बहुत बड़ी लगती है, पर असल में हमने उन व्यापक खंडों के भीतर कुछ विशिष्ट चीजों के बारे में ही संगति की थी, और हमने उन विशिष्ट चीजों को आगे और विभाजित कर दिया था, ताकि संगति थोड़ी स्पष्ट और ज्यादा विशिष्ट हो जाए। हमने अच्छे व्यवहारों के छह उदाहरण दिए, पर हरेक के बारे में एक-एक करके विस्तार से संगति नहीं की। इन उदाहरणों में सुशिक्षित और समझदार होना इस बात का एक उत्कृष्ट निरूपण है कि लोग अपनी धारणाओं में किसे सही और अच्छा मानते हैं। हमने इस उदाहरण पर थोड़ी और संगति की। बाकी इसके समान ही हैं; तुम लोग उनका विश्लेषण करके समझने के लिए इसी तरह की विधि इस्तेमाल कर सकते हो।

आज इससे पहले कि हम अपनी संगति की उचित विषयवस्तु पर आएँ, मैं तुम्हें दो छोटी कहानियाँ सुनाऊँगा। क्या तुम लोगों को कहानियाँ सुनना पसंद है? (बिल्कुल।) कहानी सुनना ज्यादा थका देने वाला नहीं होता और उसके लिए बहुत ज्यादा एकाग्रता की जरूरत नहीं होती। इसमें ज्यादा मेहनत भी नहीं लगती और यह काफी दिलचस्प काम हो सकता है। इसलिए ध्यान से सुनना और कहानियों की विषयवस्तु सुनते हुए यह विचार भी करना कि मैं उन्हें क्यों सुना रहा हूँ—उनमें कौन-से विशिष्ट, केंद्रीय विचार हैं या दूसरे शब्दों में, उन्हें सुनकर लोग कौन-सी व्यावहारिक चीजें सीख सकते हैं। ठीक है—आओ, अपनी कहानियाँ शुरू करते हैं। ये शाओशाओ और शाओजी की कहानियाँ हैं।

शाओशाओ और शाओजी की कहानियाँ

शाओशाओ को कुछ समय से आँखों में दर्द के साथ नजर में धुँधलापन, रोशनी में चुँधियाने, हवा लगने से आँसू आने, आँखों में कुछ किरकिरी होने और ऐसे ही अन्य लक्षण महसूस हो रहे थे। वह आँखें मलता था, पर इससे ज्यादा आराम नहीं मिलता था। शाओशाओ नहीं जानता था कि क्या गड़बड़ है। उसने सोचा, “मेरी आँखों में पहले कभी कोई समस्या नहीं हुई, और मेरी नजर ठीक है। यह हो क्या रहा है?” जब वह आईना देखता था तो आँखें पहले जैसी ही लगती थीं—बस थोड़ी ज्यादा लाल और कभी-कभी थोड़ी खून की लाली नजर आती थी। यह शाओशाओ के लिए हैरान और थोड़ा परेशान करने वाली बात थी। शुरू में उसने इस पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन जब उसके लक्षण अक्सर नजर आने लगे, तो अंततः उससे बरदाश्त नहीं हुआ। उसने इस बारे में ध्यान से सोचा : “क्या मुझे डॉक्टर के पास जाना चाहिए, या इसे खुद ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए? इसके बारे में जानकारी तलाशना सिरदर्द होगा और मैं इस बात का गलत निदान भी कर सकता हूँ कि वास्तविक समस्या क्या है। बेहतर होगा कि मैं सीधे डॉक्टर के पास जाऊँ; वह निश्चित रूप से सटीक निदान देगा।” तो शाओशाओ डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने उसकी जाँच की और कोई बड़ी समस्या नहीं पाई। उसने कुछ आम आई-ड्रॉप्स लिख दिए और शाओशाओ को सलाह दी कि वह अपनी आँखों का ध्यान रखे और उनसे ज्यादा काम न ले। शाओशाओ को यह जानकर बहुत राहत मिली कि उसकी आँखों में कोई बड़ी समस्या नहीं थी। घर लौटकर शाओशाओ ने डॉक्टर के बताए अनुसार उतनी ही बार और उतनी ही मात्रा में आँखों में दवाई डाली और कुछ ही दिनों में उसके लक्षणों में सुधार हो गया। शाओशाओ के दिल से एक बड़ा बोझ उतर गया : उसे लगा कि अगर दवा इसे ठीक कर सकती है तो यह समस्या गंभीर नहीं हो सकती। लेकिन यह एहसास ज्यादा देर तक नहीं रहा और कुछ समय बाद उसके लक्षण फिर उभर आए। शाओशाओ ने आई-ड्रॉप की खुराक बढ़ा दी, उसे अपनी आँखें थोड़ी बेहतर लगीं और लक्षण कुछ दब गए। लेकिन कुछ ही दिनों बाद आँखें फिर पहले जैसी हो गईं और लक्षण बदतर और बार-बार उभरने लगे। शाओशाओ इसका मतलब नहीं समझ पाया, उसने अपने ऊपर दुख की एक और लहर दौड़ती महसूस की : “मुझे क्या करना चाहिए? डॉक्टर की दी हुई दवा काम नहीं कर रही। क्या इसका मतलब यह है कि मेरी आँखों में कुछ गंभीर समस्या है? मैं इसे नजरअंदाज नहीं कर सकता।” इस बार उसने दोबारा डॉक्टर के पास जाकर आँखों की परेशानी के बारे में सलाह न लेने का फैसला किया। इसके बजाय उसने समस्या खुद हल करने का फैसला किया। उसने अपने लक्षणों से संबंधित तमाम तरह के ऑनलाइन वीडियो देखकर जानकारी ली। उनमें से ज्यादातर में कहा गया था कि ये समस्याएँ आँखों के गलत इस्तेमाल के कारण होती हैं, उसे अपनी आँखों का ध्यान रखने की आवश्यकता है और उसके लिए उनका सही उपयोग करना और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। शाओशाओ ने महसूस किया कि यह सलाह उपयोगी नहीं है और यह उसकी समस्या का समाधान नहीं कर सकती। इसलिए, उसने जानकारी तलाशना जारी रखा। एक दिन अचानक उसे एक स्रोत मिला, जिसमें कहा गया था कि उसके लक्षण रेटिना में खून बहने के कारण हो सकते हैं, जो ग्लूकोमा यानी काला मोतिया होने का पूर्व लक्षण हो सकता है। यह भी संभव है कि ये लक्षण बढ़ने पर मोतियाबिंद बन जाए। “ग्लूकोमा” और “मोतियाबिंद” शब्द पढ़कर शाओशाओ का सिर भन्ना गया। उसकी आँखों में अँधेरा छा गया और वह लगभग बेहोश हो गया, उसका दिल जोरों से धड़कने लगा। “हे परमेश्वर, यह क्या हो रहा है? क्या मुझे वास्तव में ग्लूकोमा और मोतियाबिंद होने वाला है? मैंने सुना है कि मोतियाबिंद के लिए सर्जरी की जरूरत पड़ती है, और ग्लूकोमा होने पर अंधे होने की संभावना होती है! यह मेरा अंत होगा, है न? मैं अभी भी जवान हूँ—अगर मैं अंधा हो गया, तो अंधे व्यक्ति के रूप में मैं अपना बाकी जीवन कैसे बिताऊँगा? यहाँ से मेरे लिए क्या उम्मीद बचती है? क्या मुझे अपना जीवन अँधेरे में नहीं बिताना पड़ेगा?” जब शाओशाओ ने उस पेज पर “ग्लूकोमा” और “मोतियाबिंद” शब्द देखे, तो उसने पाया कि वह अब हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकता। वह व्याकुल था और अवसाद और निराशा में गहरा डूब रहा था। वह नहीं जानता था कि क्या करे या आने वाले दिनों का सामना कैसे करेगा। वह उदासी से भर गया और उसके सामने जो कुछ भी था, वह धुंध में खो गया। इस समस्या का सामना करते हुए शाओशाओ पूरी तरह से निराशा में जा गिरा। उसकी जीने में रुचि नहीं रही और वह अपना कर्तव्य निभाने के लिए ऊर्जा नहीं जुटा पाया। वह वापस डॉक्टर के पास नहीं जाना चाहता था या अपनी आँखों की समस्याओं के बारे में अन्य लोगों से बात नहीं करना चाहता था। बेशक, वह इस बात से डरता था कि लोग जान जाएँगे कि उसे ग्लूकोमा या मोतियाबिंद होने वाला है। शाओशाओ के दिन इसी तरह अवसाद, नकारात्मकता और भ्रम में बीतते रहे। उसकी अपने लिए भविष्यवाणियाँ करने या अपने भविष्य के लिए योजनाएँ बनाने की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि उसकी नजर में भविष्य एक भयानक, हृदयविदारक चीज थी। वह अपने दिन अवसाद और निराशा में, भयानक मनोदशा में बिताता था। उसकी प्रार्थना करने या परमेश्वर के वचन पढ़ने की इच्छा न होती, और वह दूसरे लोगों से तो बिल्कुल भी बात नहीं करना चाहता था। ऐसा लगता था, मानो वह एक बिल्कुल अलग व्यक्ति बन गया हो। इसके कुछ दिनों बाद शाओशाओ के मन में अचानक यह विचार आया : “लगता है मैं एक बेचारगी की हालत में फँस गया हूँ। चूँकि मेरा भविष्य निराशाजनक है और परमेश्वर ने मेरी रक्षा करने के बजाय मुझे यह बीमारी होने दी, तो मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए भरसक प्रयास क्यों करता रहूँ? जिंदगी छोटी है; चूँकि मेरी दृष्टि अभी भी अच्छी है, तो मैं इस मौके का फायदा कुछ ऐसे काम करने के लिए क्यों न उठाऊँ जो मुझे पसंद हैं और खुद को खुश क्यों न करूँ? मेरा जीवन इतना थकाऊ क्यों होना चाहिए? मैं खुद को चोट क्यों पहुँचाऊँ और अपने साथ इतना बुरा व्यवहार क्यों करूँ?” और इसलिए जब शाओशाओ सो, खा या काम नहीं कर रहा होता था तो अपना अधिकांश समय इंटरनेट पर गेम खेलने, वीडियो देखने, बिंज-वाचिंग शो देखने में बिताता, और जब वह बाहर जाता था तो अपना फोन भी साथ ले जाता और उस पर लगातार गेम खेलता था। वह अपने दिन इंटरनेट की दुनिया में तल्लीन होकर बिताता। स्वाभाविक रूप से, ऐसा करने से उसकी आँखों का दर्द बद से बदतर होता गया और उसके लक्षण भी और ज्यादा गंभीर हो गए। जब वह इसे और बरदाश्त न कर पाता, तो अपने लक्षण कम करने के लिए अपनी कुछ आई-ड्रॉप्स इस्तेमाल कर लेता, और जब वे थोड़े बेहतर हो जाते, तो वह फिर से इंटरनेट में डूब जाता और अपनी पसंद की चीजें देखने लगता। यह अपने दिल में गहरे मौजूद डर और आतंक दूर करने का उसका तरीका था, और यह उसका समय काटने, अपने दिन बिताने का भी तरीका था। जब भी उसकी आँखों में दर्द होता और उसके लक्षण बिगड़ते, शाओशाओ अवचेतन रूप से अपने आस-पास के लोगों को देखता और सोचता, “दूसरे लोग भी मेरी तरह ही अपनी आँखें इस्तेमाल करते हैं। उनकी आँखें लाल क्यों नहीं होतीं, उनसे हर समय आँसू क्यों नहीं बहते और ऐसा क्यों नहीं महसूस होता कि उनमें कुछ फँसा हुआ है? मुझे ही यह बीमारी क्यों है? क्या परमेश्वर पक्षपात नहीं कर रहा? मैंने परमेश्वर के लिए खुद को इतना खपाया है; वह मेरी रक्षा क्यों नहीं करता? परमेश्वर कितना अन्यायी है! क्यों अन्य सभी लोग परमेश्वर की सुरक्षा पाने के लिए पर्याप्त भाग्यशाली हैं और मैं नहीं? सारी बदकिस्मती हमेशा मुझ पर ही आकर क्यों पड़ती है?” शाओशाओ जितना ज्यादा सोचता, उतना ही ज्यादा गुस्सा और नाराज होता, और जितना ज्यादा वह गुस्सा होता, उतना ही ज्यादा वह अपनी कड़वाहट और गुस्सा दूर करने के लिए ऑनलाइन मनोरंजन और मनोविनोद करना चाहता। वह जल्द से जल्द अपने नेत्र-रोग से छुटकारा पाना चाहता था, लेकिन जितना ज्यादा वह अपनी कड़वाहट और क्रोध से छुटकारा पाना चाहता, उसके पास उतना ही कम सुख और शांति होती, और उतना ही ज्यादा वह खुद को अभागा महसूस करता, चाहे वह इंटरनेट में कितना भी तल्लीन क्यों न रहता हो। और अपने दिल में वह परमेश्वर के अन्यायी होने की शिकायत करता। इसी तरह एक के बाद एक दिन बीतते गए। शाओशाओ की आँखों की समस्या में कोई सुधार नहीं हुआ और उसकी मनोदशा बद से बदतर होती गई। इस पृष्ठभूमि में शाओशाओ ने खुद को और भी ज्यादा शक्तिहीन और बदकिस्मत महसूस किया। शाओशाओ का जीवन ऐसे ही चलता रहा। कोई उसकी मदद नहीं कर सकता था, और उसने कोई मदद नहीं माँगी। उदास और शक्तिहीन होकर वह बस रोजाना मानसिक व्यग्रता से गुजरता रहा।

यह शाओशाओ की कहानी थी। हम इसे यहीं खत्म करेंगे। आगे शाओजी की कहानी है।

अपना कर्तव्य निभाते समय शाओजी को भी उसी समस्या का सामना करना पड़ा जो शाओशाओ के सामने आई थी। उसकी नजर धुँधली हो गई, और आँखें अक्सर सूजी और दुखती हुई महसूस होतीं। इसके साथ अक्सर यह एहसास भी होता कि उसकी आँखों में कुछ फँस गया है, और आँखें मलने के बाद भी उनमें कोई सुधार न होता। उसने सोचा, “यह क्या हो रहा है? मेरी आँखें बड़ी अच्छी हुआ करती थीं; मैं पहले कभी किसी नेत्र-चिकित्सक के पास नहीं गया। अब इनमें क्या हो रहा है? क्या मेरी आँखों में कोई समस्या हो सकती है?” आईने में देखने पर उसकी आँखें पहले से कुछ अलग न दिखतीं। उसे बस अपनी आँखों में जलन महसूस होती, और जब वह जोर से पलक झपकाता तो आँखों में और भी दर्द और सूजन महसूस होती और उनसे पानी बहने लगता। आँखों में कुछ गड़बड़ी लगने पर उसने सोचा, “आँखों की समस्या एक बड़ी बात है। मुझे इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। फिर भी, मुझे उतनी परेशानी नहीं लगती और इससे मेरे जीवन या मेरे कर्तव्य पर असर नहीं पड़ा है। हाल-फिलहाल कलीसिया का कार्य बहुत व्यस्त रहा और डॉक्टर के पास जाने से मेरे कर्तव्य पर असर पड़ता। फुरसत मिलते ही मैं इसके बारे में जानकारी खोजूँगा।” यह निर्णय लेने के बाद शाओजी ने अपने कर्तव्य से कुछ फुरसत मिलने पर प्रासंगिक जानकारी खोजी, और उसे पता चला कि उसकी आँखों में कोई बड़ी समस्या नहीं है—उसकी तकलीफ आँखों के लंबे समय तक अत्यधिक उपयोग से पैदा हुई थी। आँखों के उचित उपयोग, सही देखभाल और कुछ उपयुक्त व्यायामों से उसकी आँखें वापस सामान्य हो जाएँगी। यह पढ़कर शाओजी बहुत खुश हुआ। “यह कोई बड़ी समस्या नहीं है, इसलिए इसके बारे में ज्यादा चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। यह स्रोत कहता है कि मुझे अपनी आँखों का सही उपयोग और सही ढंग से व्यायाम करना है—इसलिए मैं बस यह देखूँगा कि उन्हें वापस सामान्य स्थिति में लाने के लिए अपनी आँखों का सही तरीके से उपयोग कैसे करूँ और मुझे कौन-से व्यायाम करने चाहिए।” इसके बाद उसने ज्यादा प्रासंगिक जानकारी तलाशी और उसमें से अपनी स्थिति के अनुकूल कुछ तौर-तरीके और तकनीकें चुनीं। तब से अपने सामान्य जीवन जीने और अपना कर्तव्य निभाने के अलावा शाओजी के पास एक नया काम था : अपनी आँखों की देखभाल का जिम्मा। उसने आँखों की देखभाल की उन तकनीकों का रोजाना अभ्यास किया जो उसने सीखी थीं। उन्हें आजमाने पर उसने यह जानने की कोशिश की कि क्या वे उन लक्षणों को कम कर रही हैं जो उसकी आँखों में दिखे थे। कुछ समय तक उनका परीक्षण करने और उन्हें आजमाने के बाद शाओजी ने महसूस किया कि कुछ तरीके काम के थे, जबकि अन्य केवल सैद्धांतिक रूप से अच्छे थे, व्यवहार में नहीं—इनसे कम-से-कम उसकी समस्या ठीक नहीं हो सकती थी। इसलिए, उस शुरुआती दौर के अपने निष्कर्षों के आधार पर, शाओजी ने आँखों को दुरुस्त रखने के कुछ तरीके और तकनीकें चुन लीं, जो उसके लिए उपयोगी रही थीं। जब भी ऐसा करने से उसके कर्तव्य में देरी न होती, वह रोजाना उचित रूप से आँखों का उपयोग और देखभाल करता था। कुछ समय बाद, शाओजी की आँखें वास्तव में अधिकाधिक बेहतर होने लगीं; उसके पिछले लक्षण—लाली, दर्द, जलन, इत्यादि—धीरे-धीरे कम होने लगे, और उनकी बारंबारता भी घटने लगी। शाओजी ने खुद को बहुत भाग्यशाली महसूस किया। “परमेश्वर की अगुआई के लिए उसका धन्यवाद। यह उसका अनुग्रह और मार्गदर्शन है।” उसकी आँखों की समस्याएँ कम होने लगी थीं और उसके लक्षण कम गंभीर होते जा रहे थे, फिर भी शाओजी ने बिना आलस किए बिना आँखों की देखभाल के उन तरीकों का अभ्यास और अपनी आँखों का सही उपयोग करना जारी रखा। कुछ समय बाद उसकी आँखें पूरी तरह से सामान्य हो गईं। इस अनुभव से शाओजी ने अपनी आँखें स्वस्थ रखने के कुछ तरीके सीखे और यह भी सीखा कि अपनी आँखों का उपयोग कैसे करना है और कैसे सही ढंग से जीना है। उसने जीवन की अपनी पिटारी में कुछ सकारात्मक, व्यावहारिक ज्ञान जोड़ा। शाओजी बहुत खुश हुआ। उसे लगा कि भले ही उसने कुछ उतार-चढ़ाव झेले थे और उसे कुछ असामान्य अनुभव हुए, लेकिन अंततः उसने इससे कुछ अनमोल जीवन-अनुभव प्राप्त किया था। जब भी उसके आस-पास कोई कहता कि उसकी आँखों में दर्द होता है, कि उनमें सूजन और पीड़ा है, शाओजी उन्हें अपने अनुभव और अपने आजमाए तरीकों और तकनीकों के बारे में खुलकर बताता। शाओजी की मदद से उन नेत्ररोगियों ने भी अपनी आँखों का सही इस्तेमाल करने और अपनी आँखें स्वस्थ रखने के उपाय और तरीके सीख लिए। शाओजी खुश था, और वह अपने आसपास के लोगों के लिए बहुत मददगार था। और इसलिए, उस दौरान शाओजी और अन्य लोगों ने कुछ व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया, जो लोगों को मनुष्यों के रूप में अपने जीवन में होना चाहिए। सभी ने खुशी-खुशी एक-साथ काम किया और अपने कर्तव्य निभाए। शाओजी अपनी आँखों की समस्या के कारण नकारात्मकता या शक्तिहीनता के आगे झुका नहीं, न ही उसने कभी अपने दुर्भाग्य की शिकायत की। भले ही शाओशाओ की तरह उसने भी जानकारी तलाशते हुए कुछ डरावने दावे देखे, लेकिन उसने उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। इसके बजाय उसने सक्रियतापूर्वक और ठीक से अपनी समस्या का समाधान किया। जब यही चीज शाओशाओ के साथ हुई तो वह बार-बार अवसाद, शक्तिहीनता और भ्रम में पड़ गया। दूसरी ओर, शाओजी न केवल अवसाद और भ्रम में पड़ने से बचा, बल्कि वह परमेश्वर के प्रति आक्रोश में भी नहीं फँसा—यहाँ तक कि उसने इन घटनाओं से जीवन के प्रति ज्यादा लाभदायक, सक्रिय और सकारात्मक रवैया भी प्राप्त किया। उसने अपनी भी मदद की और दूसरों की भी।

ये शाओशाओ और शाओजी की कहानियाँ थीं। अब तुमने उन दोनों की कहानियाँ सुन ली हैं। क्या तुम लोगों ने इन्हें समझा है? तुम लोग इनमें से किसे पसंद करते हो : शाओशाओ को या शाओजी को? (शाओजी को।) तो, शाओशाओ के बारे में क्या बुरा है? (जब उस पर संकट आया तो वह उसका ठीक से सामना नहीं कर पाया। वह नकारात्मक और प्रतिरोधी था।) नकारात्मक और प्रतिरोधी होना अपना विनाश खुद करना है। जब अन्य लोगों पर संकट आता है तो वे उन्हें हल करने के लिए सत्य खोज सकते हैं, लेकिन जब शाओशाओ पर संकट आया तो वह सत्य नहीं खोज पाया, उसने नकारात्मकता और प्रतिरोध का विकल्प चुना। वह अपनी ही बरबादी को न्योता दे रहा था। हो सकता है कि आजकल उन्नत सूचनाएँ हों लेकिन इस शैतानी दुनिया में झूठ और छल बहुत ज्यादा है। दुनिया झूठ-फरेब से भरी पड़ी है। इस अराजक दुनिया में किसी मुद्दे या किसी तरह की जानकारी से रूबरू होते समय लोगों में बुद्धिमत्ता होनी चाहिए, उन्हें बुद्धिमान, ग्रहणशील और समझदार होना चाहिए। उन्हें उचित दृष्टिकोण से विभिन्न प्रकार की सूचनाओं को सख्ती से छानना चाहिए। लोगों को किसी भी दावे पर तत्काल विश्वास नहीं करना चाहिए, और उन्हें निश्चित रूप से किसी भी प्रकार की जानकारी को तुरंत नहीं स्वीकारना चाहिए। शैतान की दुनिया में सभी लोग झूठ बोलते हैं, और झूठे कभी जवाबदेह नहीं ठहराए जाते। वे झूठ बोलते हैं, और बस। इस संसार में कोई भी झूठ की निंदा नहीं करता; कोई भी चालाकी की निंदा नहीं करता। मनुष्य के हृदय की थाह लेना कठिन है, और हर झूठ के पीछे एक इरादा और एक लक्ष्य होता है। उदाहरण के लिए, तुम डॉक्टर के पास जाते हो, और वह कहता है, “तुम्हारी बीमारी का जल्दी से इलाज करने की आवश्यकता है। अगर हम जल्दी से इलाज नहीं करते, तो यह कैंसर बन सकता है!” अगर तुम डरपोक हो, तो डर जाओगे : “अरे नहीं! यह कैंसर बन सकता है! चलो, इसका तुरंत इलाज करते हैं!” और नतीजतन, जितना ज्यादा तुम उसे ठीक करने की कोशिश करते हो, वह उतना ही बिगड़ता जाता है, और तुम अस्पताल पहुँच जाते हो। वास्तव में डॉक्टर ने जो कहा था, वह यह था कि तुम्हारी बीमारी कैंसर बन सकती है, जिसका अर्थ है कि वह अभी कैंसर नहीं है, लेकिन तुमने गलत समझ लिया कि उसका तत्काल इलाज किया जाना चाहिए, मानो वह कैंसर हो। क्या तुम ऐसा करके मृत्यु को दावत नहीं दे रहे हो? अगर तुम उसका कैंसर के रूप में इलाज करते हो, तो जितना ज्यादा तुम उसे ठीक करने की कोशिश करोगे, उतनी ही जल्दी तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। तब क्या तुम ज्यादा समय तक जीवित रह पाओगे? (नहीं।) तुम्हारी बीमारी वास्तव में कैंसर नहीं है, तो डॉक्टर तुमसे क्यों कहता है कि अगर तुम इसका इलाज नहीं करते, तो यह कैंसर बन जाएगी? वह तुम्हारे पैसे ठगने के लिए ऐसा कहता है ताकि तुम अपनी बीमारी का इलाज ऐसे करवाओ, मानो वह कोई गंभीर बीमारी हो। अगर तुम जानते कि वह एक छोटी-सी बीमारी है, तो तुम उसका इलाज करवाने की कोशिश न करते, और वह तुम्हारा पैसा प्राप्त करने में सक्षम न होता। कई डॉक्टर जब अपने रोगियों को देखते हैं तो वे उन्हें पकड़ लेते हैं, जैसे कोई राक्षस किसी व्यक्ति को पकड़ लेता है, वे उसे कसकर पकड़ लेते हैं और जाने नहीं देते। यह अधिकांश डॉक्टरों द्वारा अपने रोगियों के साथ अपनाया जाने वाला एक सामान्य नजरिया है। वे तुम्हें यह बताने से शुरू करते हैं कि वे कितने प्रसिद्ध हैं, वे कितनी अच्छी चिकित्सा करते हैं, उन्होंने कितने लोगों को ठीक किया है, उन्होंने कौन-सी बीमारियाँ ठीक की हैं, और वे कितने समय से चिकित्सा कर रहे हैं। वे तुम्हें उन पर भरोसा करने, सीधे बैठने और उनका इलाज स्वीकारने पर मजबूर कर देते हैं। फिर, वे तुम्हें बताते हैं कि तुम्हें एक बड़ी बीमारी होने वाली है, और अगर तुम इलाज नहीं करवाते तो तुम्हारी मृत्यु हो सकती है। मरते तो सभी हैं, लेकिन क्या सच में यही बीमारी होगी, जो तुम्हें मारती है? आवश्यक रूप से नहीं। प्रत्येक व्यक्ति का जीवन-मरण परमेश्वर के हाथ में है। वही है, जो उन्हें तय करता है, डॉक्टर नहीं। डॉक्टर अक्सर इस हथकंडे का इस्तेमाल लोगों को बरगलाने के लिए करते हैं। जो डरपोक और मौत से डरते हैं, वे हर जगह चिकित्सकीय सलाह लेते हैं और डॉक्टरों को अपने स्वास्थ्य के बारे में घोषणाएँ करने देते हैं। अगर उनके डॉक्टर कहते हैं कि उन्हें कैंसर होने की संभावना है, तो वे उन पर विश्वास कर लेते हैं, और वे डॉक्टरों से उसका इलाज करवाने के लिए दौड़ पड़ते हैं, ताकि कैंसर से उनकी मृत्यु का जोखिम दूर हो सके। क्या वे सिर्फ खुद को डरा नहीं रहे होते? (वे डरा रहे होते हैं।) हम अब डॉक्टरों के बारे में बात करना बंद करेंगे और शाओशाओ और शाओजी के बारे में बोलना जारी रखेंगे। अपने आसपास होने वाली हर चीज के बारे में उनके परिप्रेक्ष्य, दृष्टिकोण और रुख बिल्कुल अलग हैं। शाओशाओ और कुछ नहीं बल्कि नकारात्मकता का एक पुलिंदा है, जबकि शाओजी उस संकट को दूर करने में सक्षम है जो उस पर पड़ता है। उसमें सामान्य मानवता का विवेक और समझ है और वह सक्रिय तरीके से चीजों का सामना करता है। वह अपना कर्तव्य भी निभाता रहता है। वे दोनों बिल्कुल अलग हैं। जब शाओशाओ पर कुछ पड़ता है, तो वह स्थिति को निराशाजनक समझकर बट्टे खाते में डाल देता है और लापरवाही से काम करता है। वह उसे हल करने के लिए उचित तरीके और साधन नहीं खोजता, और वह अविवेकी, भ्रमित, मूर्ख, अक्खड़ और हठी भी है—और काफी द्वेषपूर्ण भी। जब वह बीमार होता है या किसी कठिनाई का सामना करता है, या उसके साथ कुछ बुरा हो जाता है, तो वह आशा करता है कि ऐसा बाकी सबके साथ भी होगा। अपनी रक्षा न करने के लिए वह परमेश्वर से घृणा करता है, और वह अपना क्रोध प्रकट करना चाहता है। लेकिन वह क्रोध प्रकट करने और दूसरों पर अपना गुस्सा उतारने की हिम्मत नहीं कर पाता, इसलिए वह अपनी भड़ास निकालकर खुद ही अपना गुस्सा उतारता है। क्या यह एक शातिर स्वभाव नहीं है? (है।) जब कोई छोटी-सी चीज भी तुम्हारे अनुरूप न हो, तो क्रोधित, नफरती और ईर्ष्यालु होना—यह दुष्टता है। जब शाओजी पर संकट आता है तो उसमें सामान्य मानवता का विवेक और समझ होती है। उसके पास बुद्धि है और वह ऐसे विकल्प चुनता है, जो सामान्य मानवता वाले व्यक्ति को चुनने चाहिए। हालाँकि शाओजी को भी वही बीमारी थी जो शाओशाओ को थी, लेकिन अंत में उसकी समस्या का समाधान हो गया, जबकि शाओशाओ कभी अपनी समस्या का समाधान नहीं कर पाया, वह लगातार बिगड़ती गई और कहीं ज्यादा प्रबल हो गई। शाओशाओ की समस्या एक गंभीर समस्या है, और वह सिर्फ दैहिक बीमारी नहीं है—उसने वह स्वभाव उजागर किया जो उसके दिल की गहराइयों में था; उसने अपनी जिद, हठधर्मिता, मूर्खता और द्वेषपूर्णता उजागर की। इन दोनों में यही अंतर है। अगर तुम लोगों के पास इस बात का ज्यादा विस्तृत ज्ञान और समझ हो कि ये दो लोग कैसे रहते हैं, और साथ ही चीजों से निपटने के उनके रवैयों और तरीकों की भी, तो तुम लोग उसके बारे में बाद में संगति करना जारी रख सकते हो, तुलना के लिए खुद को उसके सामने खड़ा कर सकते हो, और उससे एक सबक ले सकते हो। बेशक, तुम्हें शाओजी की तरह सक्रिय तरीके से चीजों में प्रवेश करना चाहिए। तुम्हें जीवन को सही तरीके से लेना चाहिए, और पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखने और आचरण और कार्य करने का प्रयास करना चाहिए, ताकि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति बन जाओ। तुम्हें शाओशाओ की तरह नहीं होना चाहिए। क्या ऐसा नहीं है? (ऐसा ही है।) तुम्हें इसी तरह अनुसरण और अभ्यास करना चाहिए।

अब हम इस पर एक नजर डालेंगे कि हमने अपनी पिछली सभा में किस पर संगति की थी। हमने लोगों की धारणाओं में सही और अच्छी माने जाने वाली चीजों के पहले पहलू—अच्छे व्यवहारों—के बारे में बात की और सद्व्यवहार के छह उदाहरणों की सूची बनाई। ये सभी परंपरागत संस्कृति की प्रचारित चीजें हैं और ऐसे अच्छे व्यवहार हैं जिन्हें लोग अपने वास्तविक जीवन में पसंद करते हैं। क्या तुम लोग बता सकते हो कि ये क्या थे? (सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला होना, मिलनसार होना और सुलभ होना।) हमने कोई और उदाहरण नहीं दिया। हो सकता है, दूसरे देशों की परंपरागत संस्कृतियों के अच्छे व्यवहार परंपरागत चीनी संस्कृति के छह प्रतिनिधि अच्छे व्यवहारों से कुछ भिन्न हों, लेकिन हम उनकी सूची नहीं बनाएंगे। पिछली बार हमने इन छह अच्छे व्यवहारों की कुछ विशिष्ट विषयवस्तु पर संगति कर उनका विश्लेषण किया था। कुल मिलाकर, ये बाहरी अच्छे व्यवहार मानवता के भीतर सकारात्मक चीजों को नहीं दर्शाते, और यह तो बिल्कुल भी नहीं दर्शाते कि व्यक्ति का स्वभाव बदल गया है—इनसे निश्चित रूप से यह साबित नहीं होता कि व्यक्ति सत्य को समझता है और सत्य-वास्तविकता को जीता है। ये सिर्फ बाहरी व्यवहार हैं जिन्हें मनुष्य देख सकता है। सरल शब्दों में कहें तो ये मनुष्य की बाहरी अभिव्यक्तियाँ हैं। ये बाहरी अभिव्यक्तियाँ और उद्गार सिर्फ औपचारिकताएँ हैं जिन्हें लोग एक-दूसरे के साथ बातचीत और मेलजोल करते हुए और एक साथ रहते हुए बरतते हैं। “औपचारिकताओं” का क्या अर्थ है? इनका अर्थ उन सबसे सतही चीजों से है जो लोगों के देखने पर उन्हें सुकून देती हैं। ये न तो लोगों का सार दर्शाती हैं, न ही उनके विचार और दृष्टिकोण, न ही सकारात्मक चीजों के प्रति उनका रवैया, और सत्य के प्रति लोगों का रवैया तो वे बिल्कुल भी नहीं दर्शातीं। बाहरी व्यवहारों के संबंध में मनुष्य की मूल्यांकन की अपेक्षाएँ और मानक सिर्फ ऐसी औपचारिकताएँ हैं जिन्हें लोग समझ-बूझ और पूरी कर सकते हैं। इनका मनुष्य के सार से कुछ भी लेना-देना नहीं है। लोग सतही तौर पर कितने भी मिलनसार और सुलभ क्यों न हों, और चाहे दूसरे लोग उनके द्वारा जिए जाने वाले बाहरी व्यवहार को कितना भी पसंद करते हों, उनका कितना भी आदर-सम्मान और आराधना करते हों, इसका यह मतलब नहीं है कि उनमें मानवता है, न ही इसका मतलब यह है कि उनका प्रकृति-सार अच्छा है या वे सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं या न्याय की भावना रखते हैं, और इसका निश्चित रूप से यह मतलब तो बिल्कुल नहीं है कि वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण कर सकते हैं। मनुष्य ने जिन तमाम अच्छे व्यवहारों की रूपरेखा पेश की है वे कुछ बाहरी अभिव्यक्तियों और उन जी गई चीजों से ज्यादा कुछ नहीं हैं जिन्हें मानवजाति खुद को जीवन के अन्य रूपों से अलग करने के लिए बढ़ावा देती है। उदाहरण के लिए, सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना और विनम्र होना—ये अच्छे व्यवहार सिर्फ यह दिखाते हैं कि नियमों का पालन न करने वाले जानवरों के उलट इंसान बाहरी रूप से काफी शिष्ट, नम्र, शिक्षित और सुसंस्कृत है। लोग खाने-पीने के बाद अपने हाथ या रुमाल से अपना मुँह पोंछते हैं, खुद को थोड़ा साफ करते हैं। अगर तुम कुत्ते के खाने-पीने के बाद उसका मुँह पोंछने की कोशिश करो तो वह खुश नहीं होगा। जानवर ऐसी चीजें नहीं समझते। तो फिर लोग ऐसी चीजों को क्यों समझते हैं? क्योंकि लोग “उच्चतर जानवर” हैं। उन्हें ये चीजें समझनी चाहिए। तो ये अच्छे व्यवहार महज ऐसी चीजें हैं जिनका उपयोग मनुष्य उस जैविक समूह के व्यवहार को साधने के लिए करता है जिसका नाम मानवजाति है, और ये मानवजाति को निचले स्तर के जीवों से अलग करने के अलावा कुछ नहीं करतीं। इनका आचरण से या सत्य के अनुसरण या परमेश्वर की आराधना से बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। इसका मतलब यह है कि हो सकता है, तुम बाहरी रूप से सुशिक्षित और समझदार होने, सौम्य और परिष्कृत होने आदि के मानकों और अपेक्षाओं पर खरे उतरो, हो सकता है तुम्हारे पास ये अच्छे व्यवहार हों, पर इसका मतलब यह नहीं है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसमें मानवता है, या ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास सत्य है, या ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। इसका इनमें से किसी भी चीज से कोई मतलब नहीं। इसके विपरीत, इसका मतलब सिर्फ यह है कि व्यवहारगत शिक्षा की प्रणाली और शिष्टाचार के मानदंडों से गुजरने के बाद तुम्हारी बोली, हाव-भाव, शिष्टाचार आदि थोड़े और ज्यादा अनुशासित हो गए हैं। यह दर्शाता है कि तुम जानवरों से बेहतर हो और तुममें थोड़ी-सी मनुष्य की समानता है—लेकिन यह तुम्हें सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति के रूप में नहीं दिखाता। यह भी कहा जा सकता है कि इसका सत्य के अनुसरण से कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारा इन अच्छे व्यवहारों से युक्त होने का यह मतलब हरगिज नहीं कि तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण करने के लिए सही स्थितियाँ हैं, और इसका यह मतलब तो बिल्कुल भी नहीं कि तुम पहले ही सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सत्य प्राप्त कर चुके हो। यह ये चीजें बिल्कुल भी नहीं दर्शाता।

जिस किसी ने भी कोई बिल्ली या कुत्ता पाला है, उसे लगेगा कि उसमें कुछ प्यारा है। कुछ कुत्ते-बिल्लियों में वास्तव में कुछ शऊर होते हैं। जब कुछ बिल्लियाँ अपने मालिक के कमरे में जाना चाहती हैं, तो वे प्रवेश करने से पहले दरवाजे पर कुछ बार म्याऊँ करेंगी। अगर मालिक कुछ नहीं कहता तो वे भीतर नहीं जाएँगी, वे सिर्फ तभी प्रवेश करेंगी जब उनका मालिक कहेगा : “अंदर आओ।” बिल्लियाँ भी इस तरह के शिष्टाचार का अभ्यास कर सकती हैं, वे अपने मालिक के कमरे में जाने से पहले अनुमति माँगना जानती हैं। क्या यह एक तरह का अच्छा व्यवहार नहीं है? अगर जानवरों में भी इस तरह का अच्छा व्यवहार हो सकता है तो लोगों के अच्छे व्यवहार उन्हें जानवरों से कितना ऊँचा बना सकते हैं? यह सामान्य ज्ञान का न्यूनतम स्तर है, जो लोगों के पास होना चाहिए—इसे सिखाने की आवश्यकता नहीं है, यह निहायत सामान्य बात है। लोगों को लग सकता है कि इस तरह का अच्छा व्यवहार अपेक्षाकृत उचित है और यह उन्हें कुछ हद तक सहज महसूस करा सकता है, पर क्या इन अच्छे व्यवहारों को जीना उनकी मानवता की गुणवत्ता या सार को दर्शाता है? (नहीं।) यह ऐसा नहीं दर्शाता। ये सिर्फ ऐसे नियम और तौर-तरीके हैं जो व्यक्ति के कार्यों में होने चाहिए—इनका व्यक्ति की मानवता की गुणवत्ता और सार से कोई लेना-देना नहीं है। उदाहरण के लिए, कुत्ते-बिल्लियों को लो—उनमें क्या समानता है? जब लोग उन्हें कुछ खाने को देते हैं तो वे अपनापन और आभार जताते हैं। उनका इस तरह का आचरण होता है, और वे इस तरह का व्यवहार प्रदर्शित कर सकते हैं। उनमें अलग बात यह है कि एक चूहे पकड़ने का विशेषज्ञ है तो दूसरा घर की रखवाली करने का। बिल्ली अपने मालिक को किसी भी समय और किसी भी स्थान पर छोड़ सकती है; जब उसे मौज-मस्ती करनी होती है तब बिल्ली अपने मालिक को भूल जाती है और उस पर ध्यान नहीं देती। कुत्ता अपने मालिक को कभी नहीं छोड़ता; अगर वह तुम्हें अपने स्वामी के रूप में पहचानता है तो मालिकों के बदलने के बाद भी वह तुम्हें पहचानता है और अपना मालिक मानता है। बिल्लियों और कुत्तों के बीच, उनके व्यवहार की नैतिक गुणवत्ता और उनके सार के संदर्भ में, यही अंतर है। अब बात करते हैं लोगों की। जिन व्यवहारों को मनुष्य अच्छा मानता है, जैसे कि सुशिक्षित और समझदार होना, विनम्र होना, सुलभ होना, आदि, उनमें से भले ही कुछ ऐसे भी हैं जो अन्य प्रजातियों के व्यवहारों को पीछे छोड़ देते हैं—यानी मनुष्य जो कर सकता है वह अन्य प्रजातियों की क्षमताओं से बढ़कर है—फिर भी ये बाहरी व्यवहारों और नियमों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, ये सिर्फ वे नजरिये हैं जिनका उद्देश्य लोगों के व्यवहार को साधना और उन्हें दूसरे जीवों से अलग करना है। इन अच्छे व्यवहारों के होने से लोगों को यह लग सकता है कि वे दूसरे जीवों से अलग या बेहतर हैं, लेकिन तथ्य यह है कि कुछ मामलों में लोग जानवरों से भी बदतर व्यवहार करते हैं। जैसे, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला होने का उदाहरण ही ले लो। पशु जगत में भेड़िये इस मामले में लोगों से बेहतर हैं। भेड़ियों के झुंड में वयस्क भेड़िये शिशु भेड़िये की देखभाल करते हैं, फिर चाहे वह किसी का भी बच्चा हो। वे उसे सताते नहीं या नुकसान नहीं पहुँचाते। मनुष्य यह नहीं कर पाता और इस तरह मानवजाति भेड़ियों के झुंड से भी बदतर है। मानवजाति में बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह किस तरह की जाती है? क्या लोग वास्तव में ऐसा कर पाने में सक्षम हैं? अधिकांश लोग “छोटों की परवाह” करने में सक्षम नहीं हैं, लोगों में इस तरह का अच्छा व्यवहार नहीं होता, जिसका अर्थ है कि उनमें उस तरह की मानवता नहीं होती है। उदाहरण के लिए : जब कोई बच्चा अपने माता-पिता के साथ होता है तो उस बच्चे से बात करते समय लोग काफी मिलनसार और सुलभ होंगे—लेकिन जब उसके माता-पिता वहाँ नहीं होते तो लोगों का शैतानी पक्ष सामने आ जाता है। अगर बच्चा उनसे बात करता है तो वे उसे अनदेखा कर देंगे, यहाँ तक कि वे बच्चे को नापसंद कर उसके साथ दुर्व्यवहार करेंगे। वे कितने दुष्ट हैं! दुनिया के कई देशों में बाल-तस्करी असामान्य बात नहीं है—यह वैश्विक समस्या है। अगर लोगों में बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने का अच्छा व्यवहार भी न हो, और बच्चों को धौंस देते हुए उन्हें अपनी अंतरात्मा में कोई पीड़ा महसूस न हो, तो मुझे बताओ यह किस तरह की मानवता है? वे फिर भी बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने का ढोंग करते हैं लेकिन यह सिर्फ एक मुखौटा होता है। मैं यह उदाहरण क्यों देता हूँ? क्योंकि भले ही मानवजाति ने ये अच्छे व्यवहार सामने रखे हैं और लोगों के व्यवहार के लिए ये अपेक्षाएँ और मानक पेश किए हैं, फिर भी मनुष्य का भ्रष्ट सार कभी नहीं बदला जा सकता, चाहे लोग इन पर खरा उतरने में सक्षम हों या नहीं, या उनमें कितने भी अच्छे व्यवहार हों। लोगों और चीजों के बारे में मनुष्य के विचारों के मापदंड और उसके आचरण और कार्यकलाप के मानदंड पूरी तरह से भ्रष्ट मनुष्य के विचारों और दृष्टिकोणों से उत्पन्न होते हैं, और ये भ्रष्ट स्वभावों द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। भले ही मानवजाति ने जो अपेक्षाएँ और मानक सामने रखे हैं, उन्हें मान्यता प्राप्त, अच्छा और उच्च मानक माना जाता है, पर क्या लोग उन्हें प्राप्त करने में सक्षम हैं? (नहीं।) यह एक समस्या है। यहाँ तक कि अगर व्यक्ति बाहरी रूप से थोड़ा बेहतर काम भी करता है, और इसके लिए पुरस्कृत किया और पहचाना भी जाता है, तो भी उसमें ढोंग और चालाकी की मिलावट होती है, क्योंकि, जैसा कि सभी मानते हैं, थोड़ी-सी अच्छाई करना आसान है—मुश्किल है पूरे जीवन अच्छाई करना। अगर वह वास्तव में एक अच्छा व्यक्ति है तो उसके लिए अच्छे कार्य करना इतना कठिन क्यों है? इसलिए, कोई भी व्यक्ति मानवजाति के तथाकथित “अच्छे” और मान्यता प्राप्त मानकों पर खरा नहीं उतर सकता। यह सब शेखी बघारना, धोखाधड़ी और कल्पना है। भले ही लोग बाहरी रूप से इनमें से कुछ मानक पूरे कर सकते हों और उनमें थोड़ा-सा अच्छा व्यवहार हो—जैसे सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला होना, मिलनसार होना और सुलभ होना—हालाँकि लोगों के पास इनमें से कुछ चीजें हो सकती हैं और उन्हें वे कर सकते हैं, लेकिन यह सिर्फ थोड़े समय के लिए, अस्थायी रूप से या किसी क्षणिक परिवेश में होता है। उनमें ये अभिव्यक्तियाँ तभी होती हैं, जब उन्हें उनकी आवश्यकता होती है। जैसे ही कोई चीज उनके रुतबे, गौरव, धन, हितों, यहाँ तक कि उनके भाग्य और उनकी संभावनाओं को छूती है तो उनकी प्रकृति और क्रूर अंतरात्मा फूट पड़ेगी। फिर वे सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, विनम्र, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाले, मिलनसार या सुलभ नहीं दिखेंगे। इसके बजाय वे एक-दूसरे से लड़ेंगे और एक-दूसरे के खिलाफ साजिश रचेंगे, प्रत्येक व्यक्ति दूसरे को मात देने की कोशिश करेगा, उसे फँसाएगा और मारेगा। ऐसी चीजें बहुत बार होती हैं—अपने हितों, अपनी हैसियत या अपने अधिकार के लिए दोस्त, रिश्तेदार, यहाँ तक कि बाप-बेटे भी एक-दूसरे का संहार करने की कोशिश करेंगे, जब तक कि उनमें से सिर्फ एक बचा नहीं रह जाता। लोगों की दयनीय स्थिति साफ दिखती है। इसीलिए सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला होना, मिलनसार होना और सुलभ होना क्षणिक परिस्थितियों की उपज ही कहलाया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति वास्तव में इन्हें नहीं जी सकता—यहाँ तक कि चीनियों द्वारा पूजे जाने वाले संत और महापुरुष भी इन चीजों में सक्षम नहीं थे। इसलिए ये तमाम शिक्षाएँ और सिद्धांत बेतुके हैं। ये सब शुद्ध बकवास हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अपने निजी हितों से जुड़े मामले परमेश्वर के वचनों के अनुसार और सत्य को अपनी कसौटी मानकर हल करने में सक्षम होते हैं, और वे सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में सक्षम होते हैं। इस तरह, उनमें जो सत्य-वास्तविकता होती है, वह मानवजाति द्वारा स्वीकृत अच्छे व्यवहार के मानकों को पीछे छोड़ देती है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे अपने हितों की बाधा पार नहीं कर पाते, और इस तरह, वे सत्य को अमल में नहीं ला पाते। यहाँ तक कि वे अच्छे व्यवहार जैसे नियमों का पालन भी नहीं कर पाते। तो फिर, लोगों और चीजों के बारे में उनके विचारों का और उनके आचरण और कार्यकलाप का आधार और मानदंड क्या होता है? निश्चित रूप से ये सिर्फ नियम और सिद्धांत होते हैं, ये शैतान के फलसफे और कानून होते हैं, न कि परमेश्वर के वचनों का सत्य। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे लोग सत्य नहीं स्वीकारते, और सिर्फ अपने हित साधने में लगे रहते हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से वे सत्य को अमल में नहीं ला सकते। यहाँ तक कि वे अच्छे व्यवहार भी कायम नहीं रख पाते—वे इसका दिखावा करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे अपने स्वाँग बनाए नहीं रख पाते। इसमें वे अपना असली रंग दिखा देते हैं। अपने हितों के लिए वे संघर्ष करेंगे, छीनेंगे और लूटेंगे, वे साजिश और छल-प्रपंच रचेंगे, दूसरों को दंडित करेंगे, यहाँ तक कि किसी को मार भी डालेंगे। वे ये सभी बुरी चीजें कर सकते हैं—क्या इससे उनकी प्रकृति उजागर नहीं होती? और जब उनकी प्रकृति उजागर हो जाती है, तो दूसरे लोग उनकी कथनी-करनी के इरादे और आधार आसानी से देख सकते हैं; दूसरे बता सकते हैं कि वे लोग पूरी तरह से शैतान के फलसफों के अनुसार जी रहे हैं, कि लोगों और चीजों के बारे में उनके विचारों और उनके आचरण और कार्यकलाप का आधार शैतान के फलसफे हैं। उदाहरण के लिए : “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “दुनिया पैसों के इशारों पर नाचती है,” “जहाँ जीवन है वहाँ आशा है,” “एक छोटे मन से कोई सज्जन व्यक्ति नहीं बनता है, वैसे ही वास्तविक मनुष्य को क्रूर होना चाहिए,” “अगर तुम निर्दयी हो तो मैं निष्पक्ष नहीं होऊँगा,” “अपनी ही दवा का स्वाद चखो,” इत्यादि—तर्क और नियमों की ये शैतानी लकीरें लोगों के भीतर हावी हो जाती हैं। जब लोग इन चीजों के अनुसार जीते हैं तो सुशिक्षित और समझदार होना, सौम्य और परिष्कृत होना, विनम्र होना, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाले होना आदि जैसे अच्छे व्यवहार ऐसे नकाब बन जाते हैं जिनका उपयोग लोग खुद को छिपाने के लिए करते हैं, ये मुखौटे बन जाते हैं। ये मुखौटे क्यों बन जाते हैं? क्योंकि लोग वास्तव में जिस नींव और जिन नियमों के अनुसार जीते हैं, वे सत्य नहीं हैं, बल्कि शैतान द्वारा मनुष्य के मन में बैठाई गई चीजें हैं। और इस तरह जो व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, उस पर मनुष्य के सबसे मूलभूत जमीर और नैतिकता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जब उनके हितों से जुड़ी कोई बात घटित होती है तो उनका असली रूप सामने आ जाएगा और उस समय लोगों को उनका असली चेहरा दिखाई देगा। लोग दहलकर कहेंगे, “पर क्या वे आम तौर पर बहुत सज्जन, विनम्र और भले मानस नहीं होते? ऐसा क्यों है कि जब उन पर कोई संकट आता है तो वे पूरी तरह से अलग व्यक्ति बन गए लगते हैं?” वास्तव में वह व्यक्ति नहीं बदला; बात बस इतनी है कि तब तक उसका रूप प्रकट और उजागर नहीं हुआ था। जब तक चीजें उनके हितों को नहीं छूतीं और उनके उग्रता से लड़ने की नौबत नहीं आ जाती, तब तक वे जो कुछ भी करते हैं वह छल और छलावा ही होता है। अपने हित प्रभावित होने या खतरे में पड़ने और स्वाँग रचना बंद कर देने पर अपने अस्तित्व के जो नियम और आधार वे प्रकट करते हैं, वे ही उनकी प्रकृति, सार और असली स्वरूप होते हैं। इसलिए व्यक्ति के अच्छे व्यवहार चाहे किसी भी तरह के हों—अन्य लोगों को उसका बाहरी व्यवहार कितना भी बेदाग क्यों न लगे—इसका मतलब यह नहीं है कि वह सत्य का अनुसरण और सकारात्मक चीजों से प्रेम करने वाला व्यक्ति है। कम-से-कम इसका यह मतलब तो नहीं है कि उसमें सामान्य मानवता है, और इसका मतलब यह तो बिल्कुल भी नहीं है कि वह भरोसेमंद या बातचीत करने लायक है।

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