सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3) भाग तीन

परमेश्वर चाहता है कि मनुष्य अपनी बोलचाल में सिद्धांतवादी और दूसरों के लिए शिक्षाप्रद हो। क्या इसका मनुष्य के बाहरी अच्छे व्यवहारों से कोई लेना-देना है? (नहीं।) इसका उनसे बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। मान लो, तुम दूसरों पर रोब नहीं झाड़ते या अपनी बोलचाल में झूठे और चालबाज नहीं हो, बल्कि तुम दूसरों को प्रोत्साहित करने, उनका मार्गदर्शन करने और उन्हें दिलासा देने में भी सक्षम हो। अगर तुम ये दोनों चीजें कर लेते हो, तो क्या इन्हें सुलभ रवैये के साथ करने की आवश्यकता है? क्या तुम्हें सुलभता हासिल करनी जरूरी है? क्या तुम ये चीजें सिर्फ विनम्र, सौम्य और परिष्कृत होने जैसी बाह्यताओं के व्यवहारगत ढाँचे के भीतर ही कर सकते हो? इसकी कोई जरूरत नहीं है। दूसरों के लिए तुम्हारी कथनी के शिक्षाप्रद होने की पूर्व-शर्त यह है कि वह परमेश्वर के वचनों और उनकी अपेक्षाओं पर आधारित हो—कि वह परंपरागत संस्कृति के बीच स्थापित अच्छे व्यवहारों के बजाय सत्य पर आधारित हो। जब तुम्हारी कथनी सैद्धांतिक और दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होती है, तो तुम चाहे बैठकर बोल सकते हो या खड़े होकर; ऊँची आवाज में बोल सकते हो या धीमी आवाज में; कोमल शब्दों में बोल सकते हो या कठोर शब्दों में। अगर अंतिम नतीजा सकारात्मक रहता है, तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर देते हो और दूसरा पक्ष लाभान्वित होता है, तो यह सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम जिसका अनुसरण करते हो वह सत्य है, और तुम जिसका अभ्यास करते हो वह सत्य है, और तुम्हारे भाषण और कार्यों का आधार परमेश्वर के वचन और सत्य-सिद्धांत हैं, और अगर दूसरे तुमसे लाभ और उपलब्धि प्राप्त कर सकते हैं, तो क्या यह तुम दोनों के लिए ही लाभदायक नहीं होगा? अगर परंपरागत संस्कृति की सोच से विवश होकर तुम दिखावा करते हो और दूसरे भी ऐसा ही करते हैं, और उनके चापलूसी करने पर तुम भी शिष्टतापूर्ण बातें करते हो, दोनों एक-दूसरे के लिए दिखावा करते हो, तो तुम दोनों में से कोई भी किसी काम का नहीं है। वह और तुम पूरे दिन खुशामद और शिष्टतापूर्ण बातें करते रहते हो, जिसमें सत्य का एक भी शब्द नहीं होता, और जीवन में परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रचारित अच्छे व्यवहार को अपनाते हो। हालाँकि बाहर से इस तरह का व्यवहार परंपरागत दिखता है लेकिन यह सब पाखंड है, ऐसा व्यवहार है जो दूसरों को चकमा देता है और गुमराह करता है, ऐसा व्यवहार है जो लोगों को फँसाता और ठगता है, जिसमें ईमानदारी का एक शब्द नहीं होता। अगर तुम ऐसे इंसान से मित्रता करते हो, तो अंत में तुम्हें फँसाया और ठगा जाना तय है। उनके अच्छे व्यवहार से ऐसा कुछ नहीं मिलता, जो तुम्हें शिक्षित करता हो। तुम्हें सिखाने के लिए उसमें सिर्फ झूठ और कपट होता है : तुम उनके साथ ठगी करते हो, वे तुम्हारे साथ ठगी करते हैं। अंततः तुम अपनी निष्ठा और गरिमा का अत्यधिक क्षरण महसूस करोगे, जिसे तुम्हें सहना ही होगा। तुम्हें अभी भी दूसरों से बहस या उनसे बहुत ज्यादा अपेक्षा किए बिना खुद को विनम्रता, सुशिक्षित और समझदार तरीके से पेश करना होगा। तुम्हें अभी भी धैर्यवान और सहिष्णु होना होगा, एक दीप्तिमान मुस्कराहट के साथ बेफिक्री और व्यापक उदारता का स्वाँग करना होगा। ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए कितने वर्षों तक प्रयास करना होगा? अगर तुम खुद से दूसरों के सामने ऐसे ही जीने की अपेक्षा करते हो, तो क्या तुम्हारा जीवन तुम्हें थका नहीं देगा? इतना प्रेम होने का दिखावा करना, पूरी तरह से जानते हुए कि तुममें वह नहीं है—ऐसा पाखंड कोई आसान चीज नहीं है! एक इंसान के रूप में तुम खुद को इस तरह से पेश करने की थकावट और ज्यादा दृढ़ता से महसूस करोगे; तुम अपने अगले जन्म में इंसान के रूप में पैदा होने के बजाय गाय या घोड़े, सुअर या कुत्ते के रूप में पैदा होना पसंद करोगे। तुम उन्हें बहुत झूठे और दुष्ट ही पाओगे। मनुष्य उस तरह क्यों जीता है, जो उसे इतना थका देता है? क्योंकि वह परंपरागत धारणाओं के बीच जीता है, जो उसे विवश कर जकड़ लेती हैं। अपने भ्रष्ट स्वभाव पर भरोसा करके वह पाप में रहता है, जिससे वह खुद को छुड़ा नहीं सकता। उसके पास कोई मार्ग नहीं होता। वह जो जीता है, वह एक सच्चे मनुष्य की समानता नहीं होती। लोगों के बीच व्यक्ति बुनियादी ईमानदारी का एक शब्द भी नहीं सुन या प्राप्त कर सकता, यहाँ तक कि पति-पत्नी, माँ-बेटी, पिता-पुत्र, एक-दूसरे के सबसे करीबी लोगों के बीच भी—एक भी अंतरंग शब्द नहीं सुना जाता, कोई गर्मजोशी भरा शब्द या ऐसा शब्द जिससे दूसरों को सांत्वना मिल सके। तो फिर ये बाहरी अच्छे व्यवहार क्या कार्य करते हैं? ये अस्थायी रूप से लोगों के बीच सामान्य दूरी और सामान्य रिश्ते बनाए रखने का काम करते हैं। लेकिन इन अच्छे व्यवहारों के पीछे कोई भी किसी दूसरे के साथ गहराई से जुड़ने की हिम्मत नहीं करता, जिसे मनुष्य ने इस वाक्यांश में सारांशित किया है : “दूरी सुंदरता को जन्म देती है।” इससे मनुष्य की वास्तविक प्रकृति का पता चलता है, है न? दूरी सुंदरता को कैसे जन्म दे सकती है? ऐसे जीवन की झूठी और बुरी हकीकत में मनुष्य लगातार बढ़ते अकेलेपन, अलगाव, अवसाद, क्रोध और असंतोष में रहता है, उसे आगे कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। यही अविश्वासियों की सच्ची स्थिति है। हालाँकि, आज तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। तुम परमेश्वर के घर में आए हो और तुमने उसके वचनों का पोषण स्वीकारा है, और तुम अक्सर प्रवचन सुनते हो। लेकिन अपने दिल में तुम अभी भी उन अच्छे व्यवहारों को पसंद करते हो, जिन्हें परंपरागत संस्कृति बढ़ावा देती है। यह कुछ साबित करता है : तुम सत्य नहीं समझते और तुम्हारे पास कोई वास्तविकता नहीं है। तुम अब भी अपने जीवन में इतने उदास, इतने अकेले, इतने दयनीय, इतने आत्म-तिरस्कृत क्यों हो? इसका एकमात्र कारण यह है कि तुम सत्य नहीं स्वीकारते और बिल्कुल भी नहीं बदले हो। दूसरे शब्दों में, तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को नहीं देखते और न ही आचरण और कार्य करते हो। तुम अभी भी भ्रष्ट स्वभावों और परंपरागत धारणाओं के भरोसे जी रहे हो। इसीलिए तुम्हारा जीवन अभी भी इतना एकाकी है। तुम्हारा कोई मित्र नहीं है, कोई नहीं है जिस पर तुम विश्वास कर सको। तुम दूसरों से वह प्रोत्साहन, मार्गदर्शन, सहायता या शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते, जो तुम्हें मिलनी चाहिए, न ही तुम दूसरों को प्रोत्साहन, मार्गदर्शन या सहायता प्रदान कर सकते हो। यहाँ तक कि इनमें से सबसे न्यूनतम व्यवहारों में भी तुम परमेश्वर के वचनों को अपने आधार और सत्य को अपनी कसौटी के रूप में नहीं लेते, इसलिए लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों या तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप का उल्लेख करने की और भी कम जरूरत है—ये सत्य, परमेश्वर के वचनों से एक लाख मील दूर हैं!

हमने अभी इस बारे में संगति की है कि मनुष्य के व्यवहार से परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं : वह चाहता है कि मनुष्य की वाणी और कार्य सिद्धांतवादी और दूसरों के लिए शिक्षाप्रद हों। तो इस आधार पर क्या अब सभी लोग जानते हैं कि मनुष्य जो अच्छे व्यवहार प्रकट करता है उनका कोई महत्व है—क्या वे सँजोने लायक हैं? (नहीं हैं।) तो यह देखते हुए कि तुम लोग इन्हें सँजोने लायक नहीं मानते, तुम लोगों को क्या करना चाहिए? (उन्हें त्याग देना चाहिए।) व्यक्ति उन्हें कैसे त्यागता है? उन्हें त्यागने के लिए व्यक्ति के पास उनके अभ्यास के लिए एक विशिष्ट मार्ग और कदम होने चाहिए। पहले, व्यक्ति को अपनी यह जाँच करनी चाहिए कि क्या उसमें परंपरागत संस्कृति द्वारा प्रचारित सुशिक्षित और समझदार होने और सौम्य और परिष्कृत होने का व्यवहार झलकता है। ऐसी जाँच का क्या स्वरूप होता है और उसकी क्या विषय-वस्तु होती है? यही कि तुम्हें यह देखना होगा कि लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों के साथ ही तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप का आधार क्या है, और यह देखना होगा कि शैतान की कौन-सी चीजें तुम्हारे दिल में गहरी जड़ें जमा चुकी हैं और तुम्हारे खून और हड्डियों में समा गई हैं। उदाहरण के लिए, मान लो, कोई ऐसा व्यक्ति है जो बचपन से लाड़-प्यार में पला-बढ़ा है, जो आत्म-नियंत्रण के बारे में ज्यादा नहीं जानता, फिर भी जिसकी मानवता बुरी नहीं है। वह सच्चा विश्वासी है, वह ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करता है और अपना कर्तव्य निभाता है, और वह कष्ट सहकर कीमत चुका सकता है। उसमें बस एक ही चीज गलत है : जब वह खाना खाता है, तो खाने में नखरे दिखाता है और अपने होंठ चाटता है। यह सुनकर तुम इतने परेशान होते हो कि तुम्हें अपना खाना दूभर हो जाता है। पहले तुम ऐसे लोगों के प्रति विशेष घृणा महसूस किया करते थे। तुम सोचते कि उनमें शिष्टाचार नहीं है और वे आत्म-नियंत्रण करना नहीं जानते, कि वे सुशिक्षित या समझदार नहीं हैं। अपने दिल में तुम उनका तिरस्कार कर यह सोचते थे कि ऐसे लोग नीच और गरिमाहीन होते हैं, कि वे कभी ऐसे लोग नहीं होंगे जिन्हें परमेश्वर चुनता है, और ऐसे लोग तो बिल्कुल भी नहीं होंगे जिनसे वह प्रेम करता है। तुम्हारे ऐसा मानने का क्या आधार था? क्या तुमने उनका सार समझ लिया था? क्या तुम उन्हें उनके सार के आधार पर माप रहे थे? तुम्हारे माप का क्या आधार था? जाहिर है, तुम परंपरागत चीनी संस्कृति के विभिन्न कथनों के आधार पर लोगों को माप रहे थे। तो, इस समस्या का पता चलने पर तुम्हें उन सत्यों के आधार पर क्या सोचना चाहिए, जिनके बारे में हमने आज संगति की है? “ओह, मैं उन्हें हेय दृष्टि से देखा करता था। मैंने कभी उनकी संगति खुशी से नहीं सुनी। जब भी वे कुछ कहते या करते थे, चाहे वे उसे करने में कितने भी सही क्यों न हों या उनकी संगति के वचन कितने भी व्यावहारिक क्यों न हों, जैसे ही मैं उनके होंठ चाटने और खाने में नखरे दिखाने के बारे में सोचता, उनकी बात सुनने की मेरी इच्छा खत्म हो जाती। मैं हमेशा उन्हें अशिष्ट या क्षमताहीन व्यक्ति समझता। अब, परमेश्वर की ओर से ऐसी संगति के माध्यम से मैं देख रहा हूँ कि लोगों के बारे में मेरे विचार परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं हैं; इसके बजाय, मैं उन बुरी आदतों और व्यवहारों को, जो लोगों के जीवन में होते हैं—खासकर उन स्थानों पर जहाँ उनमें शिष्टाचार की कमी होती है या जहाँ वे अशोभनीय होते हैं—ऐसा समझता, मानो वे उनकी मानवता-सार के उद्गार हों। अब, परमेश्वर के वचनों के आधार पर मापे जाने पर, वे सभी चीजें छोटी-छोटी गलतियाँ हैं जो उनकी मानवता-सार से संबंध नहीं रखतीं। वे सिद्धांत की समस्याएँ होने के आसपास भी नहीं ठहरतीं।” क्या यह आत्मपरीक्षण नहीं है? (है।) जो लोग परमेश्वर के वचन स्वीकार सकते हैं और सत्य समझ सकते हैं, वे ये चीजें स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं। तो, यहाँ से क्या किया जाना है? क्या कोई मार्ग है? अगर तुम यह माँग करो कि वे ये बुरी आदतें तुरंत छोड़ दें, तो क्या ऐसा हो जाएगा? (नहीं।) ऐसे छोटे-छोटे दोष अंतर्निहित होते हैं और इन्हें बदलना कठिन होता है। ये कोई ऐसी चीज नहीं हैं, जिसे व्यक्ति एक-दो दिन में बदल सके। व्यवहार संबंधी समस्याएँ हल करना ज्यादा कठिन नहीं है, लेकिन जीवन की आदतों में दोष होने के कारण उनसे छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को कुछ समय की दरकार होती है। चूँकि वे व्यक्ति की मानवता की गुणवत्ता या उसके मानवता-सार से संबंध नहीं रखतीं, इसलिए उन्हें बहुत ज्यादा महत्व न दो या उन्हें छोड़ने से इनकार न करो। जीवन में सभी की अपनी-अपनी आदतें और तरीके होते हैं। कोई भी शून्य से नहीं आता। सभी में कुछ कमियाँ होती हैं, और वे जो भी हों, अगर वे दूसरों को प्रभावित करती हैं, तो उन्हें सुधारा जाना चाहिए। सौहार्दपूर्ण बातचीत इसी तरह हासिल की जा सकती है। लेकिन हर मामले में आदर्श होना संभव नहीं है। लोग बहुत अलग-अलग जगहों से आते हैं और जीवन में उनकी आदतें भी सब अलग-अलग होती हैं, इसलिए उन्हें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए। यह ऐसी चीज है, जो सामान्य मानवता में होनी ही चाहिए। छोटी-छोटी समस्याएँ दिल पर मत लो। सहिष्णुता बरतो। दूसरों के साथ पेश आने का यह सबसे उपयुक्त तरीका है। यह सहिष्णुता का सिद्धांत है, वह सिद्धांत और तरीका जिसके द्वारा ऐसे मामले सँभाले जाते हैं। लोगों की छोटी-छोटी खामियों के आधार पर उनका सार और मानवता निर्धारित करने की कोशिश मत करो। यह आधार पूरी तरह से सिद्धांतों के विपरीत है, क्योंकि किसी में चाहे जो भी खामियाँ या नुक्स हों, वे उस व्यक्ति के सार के बारे में नहीं बताते, न ही उनका मतलब यह होता है कि वह व्यक्ति परमेश्वर का सच्चा विश्वासी नहीं है, और यह तो बिल्कुल भी नहीं होता कि वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो सत्य का अनुसरण करता है। हमें लोगों की खूबियाँ देखनी चाहिए और उनके बारे में अपने विचार परमेश्वर के वचनों और मनुष्य से उसकी अपेक्षाओं पर आधारित करने चाहिए। लोगों के साथ उचित व्यवहार करने का यही तरीका है। सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति को लोगों को किस तरह देखना चाहिए? लोगों और चीजों के बारे में उसके विचार, और उसका आचरण और कार्य, सभी परमेश्वर के वचनों के अनुसार होने चाहिए और सत्य उनकी कसौटी होनी चाहिए। तो, तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को कैसे समझते हो? देखो कि उसमें जमीर और विवेक है या नहीं, वह एक अच्छा इंसान है या बुरा। उनके साथ संपर्क के दौरान तुम देख सकते हो कि उनमें कुछ छोटी-मोटी खामियाँ और कमियाँ हैं, फिर भी उनकी मानवता काफी अच्छी है। वे लोगों के साथ बातचीत में सहनशील और धैर्यवान हैं, और जब कोई नकारात्मक और कमजोर होता है, तो वे उसके प्रति प्रेमपूर्ण होते हैं और उसे पोषण प्रदान कर उसकी मदद कर सकते हैं। दूसरों के प्रति उनका यही रवैया रहता है। तो फिर, परमेश्वर के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? परमेश्वर के प्रति उनके रवैये में, यह और भी ज्यादा मापने योग्य है कि उनमें मानवता है या नहीं। हो सकता है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें वे विनम्र होते हों, खोज करते हों, लालसा रखते हों, और अपना कर्तव्य निभाने और दूसरों के साथ बातचीत करने के दौरान—जब वे कार्रवाई करते हैं—तो उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता हो। ऐसा नहीं है कि वे दुस्साहसी होते हैं, खराब ढंग से पेश आते हैं, और ऐसा भी नहीं है कि वे कुछ भी कर देते हैं और कुछ भी कह देते हैं। जब कुछ ऐसा होता है जिसमें परमेश्वर या उसका कार्य शामिल होता है, तो वे बहुत सतर्क रहते हैं। जब तुम यह सुनिश्चित कर लेते हो कि उनमें ये प्रदर्शन हैं, तो उनकी मानवता से निकलने वाली चीजों के आधार पर, तुम कैसे मापोगे कि वह व्यक्ति अच्छा है या बुरा? इसे परमेश्वर के वचनों के आधार पर मापो, और इसे इस आधार पर मापो कि उनमें जमीर और विवेक है या नहीं, और सत्य तथा परमेश्वर के प्रति उनके दृष्टिकोण के आधार पर मापो। उन्हें इन दो पहलुओं से मापकर तुम देखोगे कि हालाँकि उनके व्यवहार में कुछ समस्याएँ और दोष हैं, फिर भी वे जमीर और विवेक वाले व्यक्ति हो सकते हैं, जिनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला और उसका भय मानने वाला दिल और सत्य के प्रति प्रेम और स्वीकृति का रवैया है। अगर ऐसा है, तो परमेश्वर की नजर में वे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें बचाया जा सकता है, ऐसे व्यक्ति जिनसे वह प्रेम करता है। और यह देखते हुए कि परमेश्वर की नजर में वे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें बचाया जा सकता है और जिनसे वह प्रेम करता है, तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? तुम्हें लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना और उसके वचनों के अनुसार ही मापना चाहिए। वे सच्चे भाई-बहन हैं और तुम्हें उनके साथ सही तरह से और पूर्वाग्रह के बिना पेश आना चाहिए। उन्हें रंगीन चश्मे से न देखो या परंपरागत संस्कृति के कथनों के अनुसार न मापो—इसके बजाय उन्हें परमेश्वर के वचनों से मापो। जहाँ तक उनके व्यवहार संबंधी दोषों का सवाल है, अगर तुम दिल से दयालु हो, तो तुम्हें उनकी मदद करनी चाहिए। उन्हें बताओ कि उचित तरीके से कैसे कार्य करना है। अगर वे अपने व्यवहार संबंधी दोष स्वीकार सकते हों लेकिन तुरंत छोड़ न सकते हों, तो तुम क्या करोगे? तुम्हें सहिष्णुता से काम लेना चाहिए। अगर तुम सहिष्णु नहीं हो, तो इसका मतलब है कि तुम दिल से दयालु नहीं हो, और तुम्हें उनके प्रति अपने रवैये में सत्य खोजना चाहिए, और अपनी कमियों पर विचार कर उन्हें जानना चाहिए। तुम इसी तरह लोगों के साथ सही ढंग से पेश आ सकते हो। अगर, इसके विपरीत, तुम कहते हो, “उस व्यक्ति में बहुत सारे दोष हैं। वह बुरे संस्कार वाला है, वह नहीं जानता कि आत्म-नियंत्रण कैसे किया जाए, वह दूसरों का सम्मान करना नहीं जानता, और वह शिष्टाचार भी नहीं जानता। तो फिर, वह अविश्वासी है। मैं उसके साथ जुड़ना नहीं चाहता, मैं उसे देखना नहीं चाहता, और वह जो कुछ भी कहना चाहता है, चाहे वह कितना भी सही क्यों न हो, मैं उसे सुनना नहीं चाहता। कौन विश्वास करेगा कि वह परमेश्वर का भय मानता है और उसके प्रति समर्पित होता है? क्या वह इसके लायक है? क्या उसमें क्षमता है?” तो यह कैसा रवैया है? क्या दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करना दयापूर्ण सहायता है? क्या यह सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या तुम्हारी ओर से दूसरों के प्रति ऐसा व्यवहार सत्य की समझ और अभ्यास है? क्या यह प्रेमपूर्ण है? क्या तुम हृदय से परमेश्वर का भय मानते हो? अगर व्यक्ति के परमेश्वर में विश्वास में बुनियादी दयालुता का भी अभाव है, तो क्या ऐसे व्यक्ति के पास सत्य-वास्तविकता है? अगर तुम अपनी धारणाओं से चिपके रहते हो, और लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचार तुम्हारी भावनाओं, प्रभावों, प्राथमिकताओं और धारणाओं पर आधारित रहते हैं, तो यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि तुम लेश मात्र भी सत्य नहीं समझते और अभी भी शैतानी फलसफों पर निर्भर होकर जी रहे हो। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि तुम सत्य के प्रेमी या उसका अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। कुछ लोग बहुत आत्मतुष्ट होते हैं। तुम उनके साथ कितनी भी संगति करो, फिर भी वे अपने ही विचारों से चिपके रहते हैं : “मैं एक विनम्र व्यक्ति हूँ जो बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करता है—तो क्या? मैं कम से कम एक अच्छा इंसान हूँ। मेरे आचरण में क्या अच्छा नहीं है? कम से कम हर कोई मेरा सम्मान करता है।” मुझे तुम्हारे अच्छे इंसान होने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन अगर तुम वैसे ही दिखावा करते रहे जैसे तुम कर रहे हो, तो क्या तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर पाओगे? तुम जिस रूप में एक अच्छे इंसान हो, वह शायद तुम्हारी निष्ठा का उल्लंघन न करे या तुम्हारे आचरण के लक्ष्य और दिशा के खिलाफ न जाए, लेकिन एक चीज है जो तुम्हें समझनी चाहिए : तुम ऐसे ही करते रहे, तो सत्य समझने या सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम नहीं रहोगे, और अंत में, तुम सत्य या जीवन, या परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं कर पाओगे। यही एकमात्र संभावित नतीजा है।

मैंने अभी इस बारे में संगति की कि जन-धारणा वाले अच्छे व्यवहारों को कैसे लिया जाए, और सत्य का अनुसरण करने जैसे अच्छे व्यवहारों की पहचान कैसे की जाए। क्या अब तुम लोगों के पास कोई मार्ग है? (हाँ।) तुम्हें क्या करना चाहिए? (पहले, यह विचार करना चाहिए कि क्या खुद व्यक्ति में वैसे व्यवहार हैं। फिर, यह विचार करना चाहिए कि लोगों और चीजों पर उसके विचारों के आम आधार और मानदंड क्या हैं।) बिल्कुल सही कहा। तुम्हें स्पष्ट रूप से यह देखने से शुरुआत करनी चाहिए कि क्या लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे पूर्व विचारों में या तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप में ऐसा कुछ है, जो मेरी आज की संगति के विपरीत या विरुद्ध है। इस पर विचार करो कि लोगों और चीजों को देखते हुए तुम जो परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण अपनाते हो, उसका आधार क्या है, क्या तुम्हारा आधार परंपरागत संस्कृति के मानक या किसी महान और प्रसिद्ध व्यक्ति की कहावतें हैं या परमेश्वर के वचन और सत्य हैं। इसके बाद, इस पर विचार करो कि क्या परंपरागत संस्कृति और महान, प्रसिद्ध लोगों के विचार और दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप हैं, वे कहाँ सत्य के साथ टकराते हैं, वे वास्तव में कहाँ गलत हो जाते हैं। ये आत्मचिंतन के दूसरे चरण की विशिष्ट बातें हैं। अब, तीसरा चरण। जब तुम्हें पता चले कि लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों को लेकर दृष्टिकोण, तरीके, आधार और मानदंड के साथ ही तुम्हारा आचरण और कार्यकलाप मनुष्य की इच्छा, समाज की बुरी प्रवृत्तियों और परंपरागत संस्कृति से पैदा होते हैं और वे सत्य के विपरीत हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? क्या तुम्हें परमेश्वर के प्रासंगिक वचन खोजकर उन्हें अपना आधार नहीं बनाना चाहिए? (बिल्कुल, बनाना चाहिए।) परमेश्वर के उन वचनों में सत्य-सिद्धांत खोजो, जो लोगों और चीजों को देखने के साथ-साथ आचरण और कार्यकलाप का उल्लेख करते हैं। तुम्हें इसे मुख्य रूप से इस पर आधारित करना चाहिए कि परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, या, सटीक रूप से कहें तो, परमेश्वर के वचनों के सत्य-सिद्धांतों पर। ये सत्य-सिद्धांत लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों और तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप के आधार और मानदंड बनने चाहिए। यह करना सबसे कठिन काम है। व्यक्ति को पहले अपने विचार, धारणाएँ, मत और रवैये नकारने चाहिए। इसमें मनुष्य के कुछ गलत, विकृत विचार शामिल हैं। व्यक्ति को उन विचारों का पता लगाना चाहिए, उन्हें जानना चाहिए और उनका गहन विश्लेषण करना चाहिए। इसका दूसरा भाग यह है कि जब लोगों को परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों में उचित कथन मिल जाए, तो उन्हें उस पर गहराई से विचार करना चाहिए और उसके बारे में संगति करनी चाहिए, और जब उन्हें स्पष्ट हो जाए कि सत्य-सिद्धांत क्या हैं, तो तुरंत यह प्रश्न उठता है कि उन्हें कैसे सत्य स्वीकारना और उसका अभ्यास करना है। मुझे बताओ, जब व्यक्ति सत्य-सिद्धांत समझ लेता है, तो क्या वह जल्दी ही उन्हें स्वीकारने और उनके प्रति समर्पित होने में सक्षम हो जाता है? (नहीं।) मनुष्य की विद्रोहशीलता और उसके भ्रष्ट स्वभाव पल भर में हल नहीं किए जा सकते। मनुष्य में भ्रष्ट स्वभाव हैं, और भले ही वह जानता हो कि परमेश्वर के वचनों का क्या अर्थ है, फिर भी वह उन्हें तुरंत अभ्यास में नहीं ला सकता। हर मामले में सत्य को अभ्यास में लाना उसके लिए एक युद्ध है। मनुष्य का स्वभाव विद्रोही है। वह अपना पूर्वाग्रह, सनकीपन, हठ, अहंकार, आत्म-तुष्टि या आत्म-निष्ठा नहीं छोड़ सकता, न अपने असंख्य औचित्य और बहाने, और न ही अपना आत्म-सम्मान, हैसियत, प्रतिष्ठा या घमंड छोड़ सकता है। इसलिए, जब तुम ऐसी चीज छोड़ते हो, जिसे तुम अपनी धारणाओं में अच्छी मानते हो, तो तुम्हें अपने ये हित और अपनी सँजोकर रखी हुई चीजें त्यागनी होंगी। जब तुम ये सभी चीजें त्याग और छोड़ सकते हो, तभी तुम्हें सत्य-सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास करने की आशा या मौका मिलेगा। खुद को छोड़ना और नकारना—यही वह मोड़ है, जिससे निकलना सबसे कठिन है। हालाँकि, जैसे ही तुम इसे पार कर लोगे, तुम्हारे दिल में कोई बड़ी कठिनाई नहीं बचेगी। जब तुम सत्य समझ लेते हो और अच्छे व्यवहारों का सार समझने में सक्षम हो जाते हो, तब लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचार बदल जाएँगे, और फिर तुम धीरे-धीरे परंपरागत संस्कृति की ऐसी चीजें त्यागने में सक्षम हो जाओगे। इसलिए, लोगों और चीजों के बारे में मनुष्य के गलत विचार, उसके कार्यों के तौर-तरीके और उसके कार्यों के पीछे के स्रोत और उद्देश्य बदलना—यह आसान बात नहीं है। जिस चीज को बदलना सबसे कठिन है, वह यह है कि मनुष्य में भ्रष्ट स्वभाव हैं। चीजों के बारे में मनुष्य के विचार और उसकी जीवनशैली उसके भ्रष्ट स्वभावों से उत्पन्न होती है। भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें अहंकारी, आत्म-तुष्ट और हठी बनाते हैं; वे तुमसे दूसरों का तिरस्कार करवाते हैं, हमेशा अपना नाम और रुतबा बरकरार रखने पर ध्यान केंद्रित करवाते हैं, इस पर ध्यान केंद्रित करवाते हैं कि क्या तुम सम्मान हासिल कर सकते हो और हमेशा अपनी भविष्य की संभावनाओं और नियति को ध्यान में रखते हुए दूसरों के बीच प्रमुखता पा सकते हो, इत्यादि। ये सभी वे चीजें हैं, जो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों से पैदा होती हैं और तुम्हारे हितों पर प्रकाश डालती हैं। जब तुम इनमें से हर चीज लेकर उसे खंड-खंड कर समझते और नकारते हो, तब तुम उसे त्यागने में सक्षम होते हो। उन्हें थोड़ा-थोड़ा करके छोड़ने के बाद ही तुम अडिग रूप से और पूरी तरह से लोगों और चीजों के बारे में अपने विचारों और अपने आचरण और कार्यकलाप में परमेश्वर के वचनों को अपने आधार और सत्य को अपनी कसौटी के रूप में लेने में सक्षम होगे।

लोगों और चीजों के बारे में अपने विचारों और अपने आचरण और कार्यकलाप में परमेश्वर के वचनों को अपना आधार बनाओ—इन वचनों को हर व्यक्ति समझता है। इन्हें समझना आसान है। मनुष्य अपनी तार्किकता और विचारों में, अपने दृढ़ संकल्पों और आदर्शों में इन वचनों को समझने में सक्षम है और इनका पालन करने के लिए तैयार है। इसमें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। लेकिन हकीकत में जब मनुष्य सत्य का अभ्यास करता है तो इनके अनुसार जीना उसके लिए कठिन होता है, और ऐसा करने में आने वाली बाधाएँ और परेशानियाँ सिर्फ उसके बाहरी परिवेश से निकलीं कठिनाइयाँ नहीं होतीं। इसका मुख्य कारण उसके भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित है। मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव उसकी विभिन्न परेशानियों का उद्गम है। जब इसका समाधान हो जाता है, तो मनुष्य की तमाम परेशानियाँ और कठिनाइयाँ कोई बड़ी समस्या नहीं रह जातीं। तो इससे यह पता चलता है कि सत्य का अभ्यास करने में मनुष्य की सभी कठिनाइयाँ उसके भ्रष्ट स्वभाव के कारण होती हैं। इसलिए, जैसे-जैसे तुम परमेश्वर के इन वचनों का अभ्यास करते हो और सत्य का अभ्यास करने की इस वास्तविकता में प्रवेश करते हो, वैसे-वैसे तुम इस चीज के प्रति और ज्यादा जागरूक होते जाते हो : “मेरा स्वभाव भ्रष्ट है। मैं वह ‘भ्रष्ट मनुष्य’ हूँ जिसकी परमेश्वर बात करता है, शैतान द्वारा अंदर तक भ्रष्ट किया गया ऐसा व्यक्ति जो शैतानी स्वभावों के अनुसार जीता है।” क्या ऐसा ही नहीं होता? (ऐसा ही होता है।) इसलिए, अगर मनुष्य को सत्य का अनुसरण और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना है, तो नकारात्मक चीजों को जानना और उनकी असलियत समझना जीवन-प्रवेश का महज पहला कदम है, बिल्कुल शुरुआती कदम। तो, ऐसा क्यों है कि बहुत-से लोग कुछ सत्य समझते हैं पर उन्हें अभ्यास में नहीं ला पाते? क्यों वे सब धर्म-सिद्धांतों के बहुत सारे वचनों और वाक्यांशों का प्रचार कर सकते हैं, लेकिन सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर ही नहीं पाते? क्या ऐसा है कि वे सत्य के बारे में कुछ नहीं समझते? नहीं—बात इसके ठीक विपरीत है। सत्य के बारे में उनकी सैद्धांतिक, शब्द और वाक्यांश स्तर की समझ बिल्कुल वैसी ही होती है, जैसी होनी चाहिए। ये उनकी जुबान पर चढ़े होते हैं और जब वे इन्हें सुनाते हैं तो आसानी से झरने लगते हैं। बेशक, उनमें दृढ़ संकल्प होता है और उनकी मनःस्थिति और आकांक्षाएँ अच्छी होती हैं; वे सभी सत्य की दिशा में प्रयास करने के इच्छुक होते हैं। फिर भी ऐसा क्यों है कि वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते, बल्कि सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ रहते हैं? ऐसा इसलिए है, क्योंकि जो शब्द, अक्षर और सिद्धांत वे समझते हैं, वे उनके वास्तविक जीवन में प्रकट नहीं हो पाते। तो फिर यह समस्या कहाँ से उपजती है? इसका उद्गम बीच में उनके भ्रष्ट स्वभाव की उपस्थिति में होता है, जो चीजें बाधित करता है। यही कारण है कि कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है और वे यह नहीं समझते कि सत्य का अनुसरण करना क्या होता है, जो सत्य को अभ्यास में लाने में असफल होने या गिरने या न कर पाने पर हर बार प्रतिज्ञा करके अपनी इच्छा की घोषणा करते हैं। वे ऐसी अनगिनत प्रतिज्ञाएँ और घोषणाएँ करते हैं, फिर भी इससे समस्या का समाधान नहीं होता। वे अपनी इच्छा का संकल्प लेने और प्रतिज्ञाएँ करने के चरण पर रुक जाया करते हैं। वे वहीं अटके रह जाते हैं। सत्य का अभ्यास करते हुए बहुत-से लोग हमेशा अपनी इच्छा निर्धारित कर शपथ लेते हैं और कहते हैं कि वे संघर्ष करेंगे। वे रोजाना अपना उत्साह बढ़ाते हैं। तीन, चार, पाँच वर्षों का संघर्ष—और अंत में इसका नतीजा क्या होता है? कुछ भी संपन्न नहीं हुआ होता, और सबका अंत विफलता में होता है। जो थोड़ा-बहुत सिद्धांत वे समझते हैं, वह कहीं भी लागू नहीं हो पाता। जब उन पर कोई चीज आन पड़ती है, तो वे नहीं जानते कि उसे कैसे देखें, और वे उसका ओर-छोर समझ नहीं पाते। अपना आधार बनाने के लिए वे परमेश्वर के वचन नहीं ढूँढ़ पाते; वे नहीं जानते कि चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार कैसे देखें, न ही वे यह जानते हैं कि परमेश्वर के वचनों में सत्य का कौन-सा तत्त्व उस मामले पर लागू होता है जो उन पर आन पड़ा है। तब वे बड़ी चिंता से ग्रस्त हो जाते हैं, खुद से नफरत करते हैं और प्रार्थना कर परमेश्वर से और ज्यादा शक्ति और आस्था देने के लिए कहते हैं, और अंत में अभी भी अपना उत्साह बढ़ाते हैं। क्या वे मूर्ख व्यक्ति नहीं हैं? (हैं।) वे बिल्कुल बच्चों की तरह होते हैं। क्या सत्य के अनुसरण के प्रति मनुष्य का दैनिक व्यवहार वास्तव में इतना ही बचकाना नहीं है? मनुष्य सदैव अपनी इच्छा का संकल्प लेकर और प्रतिज्ञा करके, खुद को संयमित करके और अपना उत्साह बढ़ाकर सत्य का अभ्यास करने के लिए खुद को प्रोत्साहित करना चाहता है, लेकिन सत्य का अभ्यास और उसमें प्रवेश मनुष्य के आत्म-प्रोत्साहन से नहीं आता। इसके बजाय तुम्हें वास्तव में मेरे बताए तरीके और कदमों के अनुसार प्रवेश और अभ्यास करना चाहिए, एक के बाद दूसरा कदम रखते हुए, दृढ़ और स्थिर गति के साथ चलते हुए। सिर्फ इसी तरह तुम्हें नतीजे मिलेंगे; सिर्फ इसी तरह तुम सत्य का अनुसरण कर रहे होगे और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। इससे बचने का कोई छोटा रास्ता नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि थोड़े-से दिल, खुद को खपाने की थोड़ी-सी इच्छा, बड़ी इच्छाशक्ति और महान लक्ष्य के साथ, सत्य तुम्हारी वास्तविकता बन जाएगा, बल्कि व्यक्ति को लोगों, घटनाओं और चीजों के बीच अपने वास्तविक जीवन में खोजने, प्रवेश करने, अभ्यास करने और समर्पण करने के बुनियादी सबक सीखने चाहिए। ये सबक सीखने के बाद ही मनुष्य सत्य और परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आ सकता है या उनका अनुभव कर सकता है या उन्हें जान सकता है। ऐसा किए बिना मनुष्य को अपने दिल का खालीपन भरने के लिए थोड़े-से सिद्धांत से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा, चाहे वह खुद को प्रेरित, प्रोत्साहित करने और अपना उत्साह बढ़ाने में कितने भी साल बिता दे। उसे सिर्फ थोड़ी-सी क्षणिक आध्यात्मिक संतुष्टि महसूस होगी, सच्चा सार जरा भी प्राप्त नहीं होगा। सच्चा सार जरा भी प्राप्त न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों और तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप का आधार परमेश्वर के वचन नहीं हैं। परमेश्वर के ऐसे कोई वचन नहीं मिलते, जो लोगों और चीजों के बारे में तुम्हारे विचारों या आचरण और कार्यकलाप पर तुम्हारे दृष्टिकोण में आधार के रूप में काम करते हों। तुम एक भ्रमित जीवन जीते हो, सहायता-विहीन जीवन जीते हो, और जितनी ज्यादा बार ऐसा होता है कि तुम्हें एक ऐसे मुद्दे का सामना करना पड़ता है, जिसके लिए तुम्हें अपने विचार, सिद्धांत और रुख प्रदर्शित करने की आवश्यकता होती है, उतनी ही ज्यादा तुम्हारी अज्ञानता, मूर्खता, खोखलापन और लाचारी जाहिर होती है। सामान्य परिस्थितियों में तुम कुछ सही सिद्धांत और जुमले दोहराने में सक्षम रहते हो, मानो तुम सब-कुछ समझ गए हो। लेकिन जब कोई समस्या उत्पन्न हो जाती है और कोई तुमसे तुम्हारी स्थिति घोषित करवाने और यह स्थापित करवाने के लिए आता है कि तुम्हारा क्या मत है, तो तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ नहीं होगा। कुछ लोग कहेंगे, “कहने के लिए कुछ नहीं? ऐसा नहीं है—बल्कि ऐसा है कि मैं उन्हें कहने की हिम्मत नहीं करूँगा।” अच्छा, तुम हिम्मत क्यों नहीं करोगे? यह दर्शाता है कि तुम इस चीज को लेकर अनिश्चित हो कि तुम जो कर रहे हो, वह सही है या नहीं। तुम इसके बारे में अनिश्चित क्यों होगे? क्योंकि जब तुम वह चीज कर रहे थे, तो तुमने कभी इसकी पुष्टि नहीं की कि तुम जो कर रहे हो उसका आधार क्या है, न ही उसे करने में तुम्हारे क्या सिद्धांत हैं, और न निश्चित रूप से यह कि तुम मामले को परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर देख और कर रहे हो। इसलिए, जब कोई समस्या आती है, तो तुम अनाड़ी और अशक्त दिखने लगते हो। कुछ लोग आश्वस्त नहीं होते। वे कहते हैं, “मैं वैसा नहीं हूँ। मैं कॉलेज में पढ़ा हूँ। मैंने स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की है,” या “मैं एक दार्शनिक, एक प्रोफेसर, एक उच्च कोटि का बुद्धिजीवी हूँ,” या “मैं एक सुसंस्कृत व्यक्ति हूँ। जो मैं कहता हूँ, तुम उसे छापने के लिए ले जा सकते हो,” या “मैं एक महत्वपूर्ण विद्वान हूँ,” या “मैं एक प्रतिभा हूँ।” क्या ये चीजें दोहराना तुम्हारे लिए किसी काम का है? ये तुम्हारे गुण नहीं हैं। ज्यादा से ज्यादा, इन चीजों का मतलब यह है कि तुम्हारे पास थोड़ा ज्ञान है। यह परमेश्वर के घर में उपयोगी होगा या नहीं, यह कहना कठिन है, लेकिन कम से कम यह निश्चित है कि तुम्हारा वह ज्ञान सत्य के समान नहीं है, और यह तुम्हारा आध्यात्मिक कद नहीं दर्शाता। यह कहने का क्या मतलब है कि तुम्हारा ज्ञान तुम्हारा आध्यात्मिक कद नहीं दर्शाता? ऐसी चीजें तुम्हारा जीवन नहीं हैं; वे तुम्हारे शरीर के बाहर हैं। तो फिर तुम्हारा जीवन क्या है? यह एक ऐसा जीवन है, जिसका आधार और मानदंड शैतान के तर्क और फलसफे हैं, यहाँ तक कि अपने ज्ञान, अपनी संस्कृति, अपने उस दिमाग से भी तुम इन चीजों को दबा नहीं सकते या उन्हें नियंत्रित नहीं कर सकते। इसलिए, किसी समस्या के आने पर तुम्हारी प्रतिभा और मेधा का झरना और तुम्हारा प्रचुर ज्ञान किसी काम नहीं आएगा—या ऐसा भी हो सकता है कि जब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का एक पहलू सामने आए, तो तुम्हारा धैर्य, संस्कार, ज्ञान और इस तरह की तमाम चीजें तुम्हारे जरा भी काम न आएँ। तब तुम असहाय महसूस करोगे। ये सभी चीजें वे अजीब तरीके हैं, जिनमें सत्य का अनुसरण न करना और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश की कमी मनुष्य में अभिव्यक्त होती है। क्या सत्य में प्रवेश करना आसान है? क्या इसमें कोई चुनौती है? कहाँ है? अगर तुम मुझसे पूछो तो इसमें कोई चुनौती नहीं है। अपनी इच्छा का संकल्प लेने या प्रतिज्ञाएँ करने पर ध्यान केंद्रित न करो। वे बेकार हैं। जब तुम्हारे पास अपनी इच्छा का संकल्प लेने या प्रतिज्ञाएँ करने का समय हो, तो उस समय को परमेश्वर के वचनों के लिए मेहनत करने में लगाओ। विचार करो कि वे क्या कहते हैं, उनका कौन-सा हिस्सा तुम्हारी वर्तमान स्थिति का जिक्र करता है। अपनी इच्छा निर्धारित करना बेकार है। तुम अपनी इच्छा निर्धारित करने में अपना सिर फोड़कर खून भी बहा दो, तो भी यह बेकार होगा। यह किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकता। तुम मनुष्य और राक्षसों को इस तरह धोखा दे सकते हो, लेकिन परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकते। परमेश्वर तुम्हारी इस इच्छा से प्रसन्न नहीं होता। कितनी बार तुमने अपनी इच्छा निर्धारित की है? तुम प्रतिज्ञाएँ करते हो, फिर उन्हें छोड़ देते हो, और छोड़ने के बाद उन्हें फिर से करते हो, और फिर उन्हें छोड़ देते हो। यह तुम्हें किस तरह का व्यक्ति बनाता है? तुम अपना वचन कब निभाओगे? तुम अपना वचन निभाते हो या नहीं, या अपनी इच्छा का संकल्प लेते हो या नहीं, यह कोई मायने नहीं रखता। तुम कोई प्रतिज्ञा करते हो या नहीं, इसका भी कोई असर नहीं पड़ता। वह क्या है, जो अहम है? वह यह है कि तुम जो सत्य समझते हो, उसे अभी, तुरंत, फौरन अभ्यास में लाते हो। भले ही वह सबसे स्पष्ट सत्य हो, जो दूसरों का ध्यान सबसे कम आकर्षित करता है और तुम खुद उस पर सबसे कम बल देते हो, उसका तुरंत अभ्यास करो—उसमें तुरंत प्रवेश करो। अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम तुरंत सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर लोगे, और तुरंत ही सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पड़ोगे। तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति बनने के कगार पर होगे। इस नींव पर तुम जल्दी ही एक ऐसे व्यक्ति बनने में सक्षम होगे, जो परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखता है और आचरण और कार्य करता है। यह कितना बड़ा उपहार होगा—कितना ठोस मूल्य होगा!

परंपरागत संस्कृति में अच्छे व्यवहार से संबंधित कहावतों पर संगति करने के बाद, क्या तुम लोगों ने उनके बारे में कोई समझ हासिल की है? तुम्हें इस तरह के अच्छे व्यवहार को कैसे लेना चाहिए? कुछ लोग कह सकते हैं, “आज से मैं सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, या विनम्र व्यक्ति नहीं बनूँगा। मैं एक तथाकथित ‘अच्छा’ व्यक्ति नहीं बनूँगा; मैं वह नहीं बनूँगा जो बड़ों का सम्मान या छोटों की परवाह करता है; मैं मिलनसार, सुलभ व्यक्ति नहीं बनूँगा। इनमें से कुछ भी सामान्य मानवता का स्वाभाविक उद्गार नहीं है; यह कपटपूर्ण व्यवहार है जो नकली और झूठा है, और यह सत्य के अभ्यास के स्तर तक नहीं पहुँचता। मैं किस तरह का व्यक्ति बनूँगा? मैं एक ईमानदार व्यक्ति बनूँगा; मैं एक ईमानदार व्यक्ति बनने से शुरुआत करूँगा। अपनी वाणी में मैं अशिक्षित, नियमों को न समझने वाला, ज्ञान की कमी वाला, और दूसरों द्वारा नीची निगाह से देखा जाने वाला हो सकता हूँ, लेकिन मैं स्पष्ट रूप से, ईमानदारी से और बिना झूठ के बोलूँगा। एक व्यक्ति के रूप में और अपने कार्यों में मैं कृत्रिम नहीं बनूँगा और कोई दिखावा नहीं करूँगा। जब भी मैं बोलूँगा, दिल से बोलूँगा—मैं वही कहूँगा जो मैं मन में सोचता हूँ। अगर मुझे किसी से घृणा है, तो मैं खुद को जाँचूँगा, और कुछ भी ऐसा नहीं करूँगा जो उसे चोट पहुँचाता हो; मैं केवल वही चीजें करूँगा, जो रचनात्मक हों। जब मैं बोलूँगा, तो मैं अपने निजी लाभ पर ध्यान नहीं दूँगा, और न ही अपनी प्रतिष्ठा या इज्जत से जकड़ा जाऊँगा। इतना ही नहीं, मैं यह इरादा भी नहीं रखूँगा कि लोग मेरे बारे में ऊँची राय रखें। मैं केवल इस बात को महत्व दूँगा कि परमेश्वर प्रसन्न है या नहीं। लोगों को आहत न करना मेरी आधार-रेखा होगी। मैं जो करूँगा, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार करूँगा; मैं दूसरों को नुकसान पहुँचाने के लिए काम नहीं करूँगा, न ही मैं परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने वाला काम करूँगा। मैं केवल वही करूँगा जो दूसरों के लिए फायदेमंद हो, मैं केवल एक ईमानदार और परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला व्यक्ति बनूँगा।” क्या यह व्यक्ति में बदलाव नहीं है? अगर वह वास्तव में इन शब्दों का अभ्यास करता है, तो वह वास्तव में बदल चुका होगा। उसके भविष्य और भाग्य बदलकर बेहतर हो जाएँगे। वह शीघ्र ही सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलेगा, शीघ्र ही सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करेगा, और शीघ्र ही उद्धार की आशा रखने वाला व्यक्ति बन जाएगा। यह अच्छी चीज है, सकारात्मक चीज है। क्या इसके लिए तुम्हें अपनी इच्छा निर्धारित करने या प्रतिज्ञा करने की आवश्यकता है? इसके लिए किसी चीज की आवश्यकता नहीं है : न इसकी कि तुम परमेश्वर के लिए अपनी इच्छा निर्धारित करो; न ही इसकी कि तुम अपने पूर्व अपराधों, गलतियों और विद्रोहशीलता की सूची बनाओ, परमेश्वर के सामने पाप कबूलने और उससे क्षमा माँगने की जल्दबाजी करो। ऐसी औपचारिकताओं की कोई जरूरत नहीं है। बस अभी, तुरंत, फौरन कुछ सच्चा और दिल से कहो, और बिना झूठ या चालाकी के कुछ ठोस करो। तब तुमने कुछ हासिल किया होगा, और तुम्हारे लिए एक ईमानदार व्यक्ति बनने की आशा होगी। जब व्यक्ति ईमानदार बन जाता है, तो उसे सत्य-वास्तविकता प्राप्त हो जाती है और वह एक इंसान की तरह जीना शुरू कर देता है। ऐसे ही लोग होते हैं, जिन्हें परमेश्वर अनुमोदित करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।

5 फ़रवरी 2022

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